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-४.३३ ]
बोधप्रामृतम् अशोकवृक्षः सुरपुष्पधृष्टिदिव्यध्वनिश्यामरमासनं च । . भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥ अब मागंणा की अपेक्षा अरहन्तका वर्णन करते हैंगइईदियं च काए जोए वेए कसायणाणे य। संजमदंसणलेस्सा भविया सम्मत्त सण्णि आहारे ॥३३॥
गतौ इन्द्रिये च काये योगे वेदे कषाये ज्ञाने च । .. संयमे दर्शने लेश्यायां भव्यत्वे सम्यक्त्वे संज्ञिनि आहारे ॥३३॥ __ ( गइ ) नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवगतीनां मध्येऽर्हतो मनुष्यगतिः । ( इंदियं च ) स्पर्शन-रसन-घ्राण चक्षुःश्रोत्र पञ्चेन्द्रिय-जातीनां मध्येऽर्हन् पञ्चेन्द्रियजातिः । ( काए ) पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसकायानां मध्येऽहंन् त्रसकायः । ( जोए ) सत्यमनोयोगासत्यमनोयोगोभयमनोयोगानुभयमनोयोगानामहंतः सत्यानुभयमनोयोगी, सत्यवचनयोगासत्यवचनयोगोभयवचनयोगानुभयवचनयोगानां मध्येऽर्हतः सत्यानु
mmi __अशोक-१ अशोक वृक्ष, २ देवोंके द्वारा पुष्प-वृष्टि होना, ३ दिव्यध्वनि, ४ चामर, ५ सिंहासन, ६ भामण्डल, ७ दुन्दुभि बाजा ८ छत्रत्रय; ये जिनेन्द्रदेवके आठ प्रातिहार्य हैं ॥३२॥ __गायार्थ-गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, संज्ञित्व, और आहारक इन चौदह मार्गणाओं में यथासंभव अग्हन्त की योजना करना चाहिये ॥३३॥
विशेषार्थ-गति मार्गणा की अपेक्षा गति के नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव ये चार भेद हैं, इनमें से अरहन्त के मनुष्य गति है। इन्द्रियमार्गणा की अपेक्षा इन्द्रियों के स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इस प्रकार पाँच भेद हैं, इन पांच जातियों में अरहन्त भगवान पञ्चेन्द्रिय जाति हैं। कायमार्गणा के पृथिवी-कायिक, जल-कायिक, अग्नि-कायिक, वायुकायिक, वनस्पति-कायिक और त्रस कायिक इस प्रकार छह भेद हैं इनमें से अरहन्त भंगवान त्रसकायिक हैं। योगमार्गणामें मनोयोगके सत्य मनोयोग, असत्य मनोयोग, उभय मनोयोग, और अनुभय मनोयोग ये चार भेद हैं इनमेंसे अरहन्त के सत्य मनोयोग और अनुभयमनोयोग ये दो मनोयोग हैं। वचन-योगके सत्यवचनयोग, असत्य वचनयोग, उभयवचन योग और अनुभंय वचन-योग ये चार भेद हैं, इनमेंसे अरहन्तके सत्यवचन योग और अनुभंय वचनयोग ये दो वचन योग हैं । काय-योगके औदारिक काय-: : योग, औदारिक मिश्रकार्ययोग, वैक्रियिक कार्ययोग वैक्रियिकमिश्र काय
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