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षट्प्राभृते
[ ४. ३६
आनप्राणप्राणा उच्छ्वासनिः श्वासलक्षण एकः प्राणः । ( आउगपाणेण होंति दहपाणा ) आयुकप्राणेन कृत्वा दश प्राणा भवन्ति । यथा चायुः शब्दः सान्तो नपुंसक - लिंगे वर्तते तथा आयु इत्युकारान्तोऽपि नपुंसके वर्तते । एवं दश प्राणा भवन्तीति ज्ञातव्यम् ।। ३५ ।।
आगे जीवस्थान की अपेक्षा अरहन्तका वर्णन करते हैं
मणुयभवे पाँचदिय जीवट्ठाणेसु होइ चउदसमें ।
एदे गुणगणजुत्तो गुणमारूढो हवह अरहो ॥ ३६ ॥ मनुजभवे पञ्चेन्द्रियो जीवस्थानेषु भवति चतुर्दशे । एतद्गुणगणयुक्तो गुणमारूढो भवति अर्हन् || ३६ ||
( मणुयभवे पंचिदिय) मनुजभवेऽर्हन् कथ्यते पञ्चेन्द्रियोऽहंन्नुच्यते । ( जीवट्ठाणेसु होड़ चउदशमे ) जीवस्थानेषु मध्ये चतुर्दशे स्थानेऽर्हन् भवति ।
विशेषार्थ - इन्द्रिय प्राण पाँच हैं। मन-वचन-कायके भेदसे बल प्राण तीन होते हैं। श्वास का खींचना और छोड़ना यह अनिप्राण नामका प्राण है । इन सबको आयुप्राण के साथ मिलाने पर दश प्राण होते हैं । जिस प्रकार सकारान्त आयुष् शब्द नपुंसक लिङ्गमें विद्यमान है उसी प्रकार 'आयु' यह उकारान्त शब्द भी नपुंसक लिङ्ग में विद्यमान है । इस प्रकार अरहन्त के दश प्राण होते हैं, यह जानना चाहिये ।। ३५ ।।
गाथार्थ - 'जीवस्थान की अपेक्षा अरहन्त, पञ्चेन्द्रिय मनुष्य कहलाते हैं । अरहन्त पद चौदहवें जीवस्थान - गुणस्थान में भी होता है । इन सब गुणों के समूह से युक्त मनुष्य जब तक गुणस्थानों में आरूढ़ रहता है तब तक अरहन्त कहलाता है, गुणस्थानों से पार होने पर सिद्ध कहलाता है ।। ३६ ।।
विशेषार्थ - मनुष्य भव में ही अरहन्त कहलाता है और वह भो पञ्चेन्द्रिय ही । जीवस्थान के जो चौदह भेद पहले बताये गये हैं उनमें से चौदहवें जीवस्थान में भी अरहन्त होता है । अर्थात् तेरहवें गुणस्थान में विद्यमान सयोगकेवली तो अरहन्त हैं ही चौदहवें गुणस्थान -वर्ती
१. मनुष्यभवे पञ्चेन्द्रियजीवे चतुर्दशमं गुणस्थानं भवति । एतैगुणगणैः समूहैः युक्त गुणं न भवति ( ख x टी ) ।
२. इस गाथाका अर्थ पण्डित जयचन्द्र जी को वचनिकामें अन्य प्रकार किया
गया है ।
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