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षट्प्राभृते
[ ४. ४२
क्षायिकसम्यक्त्वेन विशुद्धो निर्मल: । ( भावो अरहस्स णायव्वो ) भावः स्वरूपः अर्हतः सर्वज्ञस्य ज्ञातव्यो वेदितव्यः ॥ ४१ ॥
अरहंत - इति श्री बोधप्राभूतेऽर्हदधिकारो दशमः समाप्तः ॥ १० ॥
अब आगे श्रीकुन्दकुन्दाचार्य सत्तरह गाथाओं द्वारा प्रव्रज्या - दीक्षाके स्वरूपका निरूपण करते हैं -
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सुष्णहरे तरुहिट्ठे उज्जाणे तह मसाणवासे वा । गिरिगुहगिरिसिहरे वा भीमवणे अहव वसिते वा ॥४२॥
शून्यगृहे तरुमूले उद्याने तथा मशानवासे वा । गिरिगुहागिरिशिखरे वा भीमवने अथवा वसती वा ॥ ४२॥
( सुष्णहरे तरुहिट्ठे ) शून्यगृहे निवासः कर्तव्यः प्रव्रज्यावतेत्युपस्कारः । तरु हिट्ठे- वृक्षमूले स्थातव्यम् ( उज्जाणे ) उद्याने कृत्रिमवने स्थातव्यम् । ( तह मसाणवासे वा ) तथा श्मशानवासे वा पितृवनस्थाने स्थातव्यम् । ( गिरिगुहगिरिसिहरे वा ) गिरिगुह गिरेगुहायां स्थातव्यम्, गिरिशिखरे वा पर्वतोपरि स्थातव्यम् । ( भीमवणे अहव वसिते वा ) भीमवने भयानकायामटव्यां स्थातव्यम् । अथवा वसिते वा ग्रामनगरादी वा स्थातव्यं, नगरे पञ्चरात्रे स्थातव्यं, ग्रामे विशेषेण न स्थातव्यम् ।। ४२ ।।
वह आत्मा हो अरहन्त सर्वज्ञ देवका भाव स्वरूप है अथवा भावनिक्षेप से वह आत्मा ही अरहन्त है, ऐसा जानना चाहिये ॥ ४१ ॥
इस प्रकार बोधप्राभृतमें अर्हदधिकार नामका दशवाँ अधिकार समाप्त हुआ ।। १० ।।
गाथार्थ - दीक्षा के धारक मुनिको शून्यघर में, वृक्षके मूलमें, उद्यानमें, श्मशान में, पर्वत की गुफा में, पर्वतकी शिखर पर, भयंकर वनमें अथवा वसतिका में निवास करना चाहिये । ४२ ॥
विशेषार्थ - गाया में 'प्रव्रज्यावता निवासः कर्तव्य:' इन पदोंका ऊपर से सम्बन्ध मिलाना चाहिये । इस तरह गाथाका यह अर्थ हुआ कि प्रव्रज्या - दीक्षा के धारक मुनिको शून्यगृह में – स्वामिहीन उजड़े मकानमें, वृक्षके नीचे, उद्यान - कृत्रिमवन- बगीचा में, श्मशानवास- मरघट में, पर्वत की गुफा में, अथवा पर्वत की शिखर पर, भयानक अटवी में, अथवा वसतिकामें-नगरके बाहर बने हुए मठ आदिमें या ग्राम नगर आदिमें रहना चाहिये नगर में मुनिको पाँच रात तक रहना चाहिये। ग्राम में अधिक निवास न करना चाहिये ॥ ४२ ॥
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