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षट्प्राभृते
[ ४. ४८
व्रजामि, न प्रविशामीत्यपेक्षा रहिता प्रव्रज्या भवति ( दारिद्दे इसरे णिरावेक्खा ) दरिद्रस्य निर्घनस्य गृहं न प्रविशामि, ईश्वरस्य धनवतो गृहे प्रविशाम्यहं निवेशे इत्यपेक्षारहिता प्रव्रज्या भवति । ( सम्वत्थ गिहिदपिंडा ) सर्वत्र योग्यगृहे गृहीतपिण्डा स्वीकृताहारा प्रव्रज्या ईदृशी भवति । कि तदयोग्यं गृहं यत्र भिक्षा न गृह्यते इत्याह
'गायकस्य तकारस्य नीचकर्मोपजीविनः ।
मालिकस्य विलिङ्गस्य वेश्यायास्तै लिकस्य च ॥ १ ॥
अस्यायमर्थ:- : - गायकस्य गन्धर्वस्य गृहे न भुज्यते । तलारस्य कोटपालस्य, नीचकर्मोपजीविनः 'धर्मजलशकटादेर्वाहकादेः श्रावकस्यापि गृहे न भुज्यते । मालिकस्य पुष्पोपजीविनः, विलिङ्गस्य भरटस्य, वेश्याया गणिकायाः, तैलिकस्य मांचिकस्य ।
दीनस्य सूतिकायाश्च छिम्पकस्य विशेषतः । मद्यविक्रयिणो मद्यपायिसंसर्गिणश्च न ॥ २ ॥
मध्यम गृह हैं जो दीक्षा इनके विषय में निरपेक्ष रहती है अर्थात् साधु ऐसा विकल्प नहीं करता है कि मैं भिक्षा के लिये उच्चगृह में जाता हूँ और नींचगृह में प्रवेश नहीं करता हूँ। जो दीक्षा दारिद्रय और धनसम्पन्नता के विषय में निरपेक्ष रहती है अर्थात् कभी ऐसा अभिप्राय नहीं रखती है कि मैं भिक्षाके लिये दरिद्र निर्धन के घर में प्रवेश नहीं करूं और ईश्वर - धनाढ्य के घर में प्रवेश करूँ, जो समस्त योग्य गृहोंमें महार करती है वह प्रव्रज्या - दीक्षा है ।
प्रश्न – वह अयोग्य गृह कौन हैं जिनमें भिक्षा नहीं ली जाती है ? उत्तर- गायक - गाने बजाने वाले गंधर्व, तलार - कोटवार, नीचकर्मोपजीवी, चमड़े की मशक से जल भरने वाले, मालिक-फूलोंका काम करने वाले, विलिंग-भरट-भाड़ चलाने वाले, वेश्या और तैलिक-तेली के घर मुनिभिक्षा ग्रहण नहीं करते हैं ॥१॥
बोनस्य - दीन - जो श्रावक होकर भी दीन भाषण करता है, सूतिकाजो बालकों का जन्म कराती है, छिपक- जो कपड़े छापता है, मद्यविक्रयी
१. नीतिसारे इन्द्रनन्दिनः । २. धानिकस्य म० ।
३. मोतिसारे इन्द्रनन्दिनः ।
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