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षट्प्राभूते
[ ४. ४४
( पंचमहन्वयजुत्ता) पञ्च महाव्रतयुक्ताः पूर्वोक्तपञ्च महाव्रतयुक्ताः सर्वजीवदया - प्रतिपालका ऋषयः सत्यवचसोऽचौर्यव्रतधारिणः ब्रह्मचर्यव्रतोपेता निष्परि: ग्रहा 'आश्रवण - प्रायोग्य - परिग्रहपरित्यक्ता रजनिभोजनवजिन एतद्वेध्यं वस्तु निश्चयेनेच्छन्ति मानयन्ति जिनवचनप्रमाण - कारित्वात् ( पंचिदिय संजया गिरा - वेक्खा ) पञ्चेन्द्रियाणि संयतानि बद्धानि निज-विषयेषु प्रवर्तितु व्यावृत्तानि निषिद्धानि यैस्ते पञ्चेन्द्रियसंयताः । निरपेक्षाः प्रत्युपकारवाञ्छा रहिता भव्यजीव-सम्बोधनपरा एतद् वेध्यं नीच्छन्ति । ( सज्झाय झाणजुत्ता ) स्वाध्याय-. ध्यानयुक्ताः । स्वाध्यायः पञ्चप्रकारः, वाचना - शिष्याणां व्युत्पत्तिनिमित्तं शास्त्रार्थकथनं पृच्छना अनुयोगकरणं, अनुप्रेक्षा - पठितस्य व्याकृत्य च शास्त्रस्य पुनश्चेतसि चिन्तनम्, आम्नायः -शुद्ध पठनं, धर्मोपदेशः -- महापुराणादिशास्त्रस्य मुनीनां श्रावकादीनामग्रतो व्याख्यानविधानं । ध्यानं आर्तध्यान रौद्रध्यानद्वयं परि
ध्याय तथा ध्यानसे सहित हैं, ऐसे श्रेष्ठ मुनिराज उपर्युक्त सत्व-तीर्थं आदि वेयोंकी अत्यन्त इच्छा करते हैं ॥ ४४ ॥
विशेषार्थं - जो पहले कहे हुए पाँच महाव्रतों से सहित हैं अर्थात् सब जीवोंकी दया पालते हैं, सत्य वचन बोलते हैं, अचौर्यव्रतको धारण करते हैं, ब्रह्मचर्यव्रत से सहित हैं, निष्परिग्रह हैं, आस्रव के योग्य परिग्रह से रहित हैं और रात्रिभोजन के त्यागी हैं ऐसे ऋषि ध्यान करने योग्य सत्त्व तीर्थं आदि वस्तुओं को निश्चयसे मानते हैं क्योंकि वे जिनवचनको प्रमाणभूत स्वीकृत करते हैं । जिन्होंने स्पर्शनादि पाँच इन्द्रियों को संयत कर लिया है अर्थात् अपने अपने विषयों में प्रवृत्त होनेसे रोक लिया है तथा जो प्रत्युपकार की इच्छा से रहित हो भव्य जीवों के सम्बोधने में सदा तत्पर रहते हैं ऐसे ऋषि उक्त वेध्यों की अत्यधिक इच्छा रखते हैं । इसी प्रकार जो स्वाध्याय तथा ध्यान से युक्त हैं । स्वाध्याय पाँच प्रकारका होता है - १ वाचना, २ पृच्छना, ३ अनुप्रेक्षा, ४ आम्नाय और ५ धर्मोपदेश । शिष्यों की व्युत्पत्ति के लिये शास्त्र के अर्थका कथन करना वाचना है। अज्ञात वस्तुको समझने के लिये अथवा ज्ञात वस्तुको दृढ़ करने के लिये प्रश्न पूछना पृच्छना है । पठित अथवा व्याख्यात शास्त्रका चित्तमें पुनः पुनः चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। शुद्ध पाठ करना आम्नाय है और मुनियों तथा श्रावकों के आगे महापुराणादि शास्त्रों का व्याख्यान करना
१. अश्रवणप्रायोग्य क० म० क० प्रती अपि पश्चात् केनचित् आश्रवण इति संशोषितम्
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