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-४. ३२]
बोधप्राभृतम्
सर्वार्धमागधीया भाषा भवति । कोऽर्थः ? अर्घ भगवद्भाषाया मगधदेशभाषात्मकं, अर्घ च सर्वभाषात्मकं, कथमेवं देवोपनीतस्वं तदतिशयस्येति चेत् ? मगध देव-सन्निधाने तथा परिणतया भाषया संस्कृतभाषया प्रवर्तते । सर्वजनता-विषया मैत्री भवति सर्वे हि जनसमूहा मागध-प्रीतिकर-देवातिशयवशान्मागधभाषया भाषन्तेऽन्योन्यं मित्रतया च वर्तन्ते द्वातिशयो। सर्वतूंनां फलग्लुच्छाः प्रवालाः पुष्पाणि च भूमौ तरवो भवन्ति । आदर्शतलसदृशो भूमिमनोहरा रत्नमयो भवति । वायुः पृष्ठत आगच्छति शीतो मन्दः सुरभिश्च । सर्वलोकानां परमानन्दो भवति । एक योजनमग्रेऽये वायवो भूमि सम्माजयन्ति स्वयं सुगन्ध मिश्रा धूलिकण्टक-तृणकोटकान् ककरान् पाषाणांश्च प्रमार्जन्ति । स्तनितकुमारा गन्धोदकं वर्षन्ति । पादाघोऽम्बुजमेकं, अग्रतः सप्तकमलानि, पृष्ठतश्च सप्तपमानि योजनेक-प्रमाणानि,
(जो मनुष्य केवलियों के उपसर्ग तथा कवलाहार का वर्णन करते हैं उनका इस कथन से निराकरण हो जाता है।)
६ चारों दिशाओं में मुख दिखना ७ सब विद्याओं का ईश्वरपना ८ छायाका अभाव, (दर्पण में तीर्थंकर के मुखका प्रतिविम्ब नहीं पड़ता है और न उनके शरीरकी छाया पड़ती है) ९ नेत्रोंके पलक नहीं झपकना और १० नख तथा केशोंकी वृद्धि नहीं होना; ये दश अतिशय घातिया कर्मोके क्षयसे उत्पन्न होते हैं।
अब देवकृत चौदह अतिशय कहते हैं
१ सर्वार्धमागधीया भाषा-भगवान को सर्वाध मागधी भाषा होती है।
प्रश्न-इसका क्या अर्थ है ?
उत्तर-भगवान् की भाषा में आधा भाग भगवान् की भाषाका होता है जो कि मगध देशकी भाषा रूप होता है और आधा भाग सर्वभाषा रूप होता है।
प्रश्न-यदि ऐसा है तो उस अतिशयमें देवोपनीतपना किस प्रकार सिद्ध होता है ?
उत्तर-मगध देवोंके सन्निधान में संस्कृत भाषा उस भाषा रूप परिणमन करती है इसलिये अतिशयका देवोपनीतपना सिद्ध हो जाता है । . सब जनता में मंत्री-भाव होता है अर्थात् समस्त जन-समूह मागध
और प्रीतिकर देवोंके अतिशय के वश मागधी भाषा में बोलते हैं और परस्पर में मित्रता से रहते हैं-ये दो अतिशय हैं । ३ पृथिवी पर ऐसे वृक्ष
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