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-४. ३२] बोधप्राभृतम्
१८९ पंचप्रकारैः । (पणयव्वा अरुह पुरिसस्स ) प्रणेतव्या योजनीया अर्हत्पुरुषस्य अर्हज्जीवस्येति ॥३१॥
तेरहमे गुणठाणे सजोइकेवलिय होइ अरहंतो। चउतीस अइसयगुणा होति हु तस्सद पडिहारा ॥३२॥ त्रयोदशे गुणस्थाने सयोगकेवलिको भवति अर्हन् ।
चतुस्त्रिशदतिशयगुणा भवन्ति हु तस्याष्ट प्रातिहार्याणि ॥३२॥ ( तेरहमे गुणठाणे ) त्रयोदशे गुणस्थाने । ( सजोय केवलिय होइ अरहंतो ) सयोग-केवलिको भवत्यहन् । ( चउतीसगइसयगुणा ) चतुस्त्रिशदतिशयगुणाः । (होति हु तस्सटु पडिहारा ) भवन्ति हु-स्फुटं तस्याहत्परमेश्वरस्याष्टप्रातिहार्याणि । के ते चतुस्त्रिशदतिशया इति चेदुच्यन्ते-नित्यं निःस्वेदत्वं, निर्मलता मलमूत्ररहितता, तत्पितुस्तन्मातुश्च मलमूत्रं न भवति । उक्तं च
मुणस्थानोंका निर्देश ऊपर कर आये हैं उसीसे जोवस्थानोंको जानना चाहिये । इसप्रकार गुणस्थान-मार्गणा-पर्याप्ति-प्राण-और जीवस्थान; स्थापनाके इन पांच प्रकारों से अरहन्तको योजना करना चाहिये।॥३१॥
अब आगे गुणस्थानकी अपेक्षा अरहन्त का वर्णन करते हैं
गाथार्थ-तेरहवें गुणस्थान में विद्यमान सयोगकेवलि जिनेन्द्र अरहन्त कहलाते हैं उनके चौंतीस अतिशय और आठ प्रतिहार्य होते हैं ॥३२॥
विशेषार्थ-इस जीवकी अरहन्त अवस्था तेरहवें गुणस्थानमें प्रकट होती है । उस गुणस्थानका नाम सयोगकेवली है। यहाँ केवलज्ञान प्रकट
हो जाता है और साथ में योग विद्यमान रहते हैं इसलिये इस गुणस्थान- वर्ती जीवको सयोग-केवलो कहते हैं। जो मनुष्य तीर्थंकर होकर अरहंत
बनते हैं उनके चौंतीस अतिशय तथा आठ प्रतिहार्य होते हैं और जो • सामान्य अरहंत होते हैं उनके यथा-संभव कम भी अतिशय होते हैं । अब
यहां चौंतीस अतिशय कौन हैं ? इस प्रश्नका उत्तर देनेके लिये उनका वर्णन किया जाता है। चौंतीस अतिशयों में दश जन्म के, दश केवलज्ञान के और १४ देवकृत अतिशय होते हैं । जन्मके दश अतिशय इस प्रकार हैं
नित्य निःस्वेदता अर्थात् कभी पसीना नहीं आना। २ निर्मलता अर्थात् मलमूत्रसे रहित शरीर का होना । न केवल तीर्थंकर अरहन्तके मलमूत्र का अभाव होता है किन्तु उनके माता पिता के भी मलमूत्र का अभाव होता है । जैसा कि कहा गया है
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