Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षट्प्राभृते [४. २५. (धम्मो दयाविसुद्धो ) धर्मो दयया विशुद्धो निर्मलः, यो दयां कुर्वन्नपि चर्मजलं . पिबति, अजिन-तैलमास्वादयति, कुतुपघृतं भुक्त, भूतनाशनमत्ति, तस्य पुसो धों विशुद्धी न भवति स -'यतिवेषधार्यापि म्लेच्छो ज्ञातव्यः । ( पव्वज्जा सव्वसंगपरिचत्ता) प्रव्रज्या सर्वसङ्गपरित्यक्ता भवति, यो दण्डं करे करोति, कम्बलमुपदधाति, शङ्खकरनारीस्पृष्टमन्नमश्नाति स कथं प्रव्रज्यावान् भवति । ( देवो ववगयमोहो ) देवो व्यपगतमोहः, या देवोऽर्धागे वनितां दधाति, यो देवो हृदयस्थले लक्ष्मीमुपवेशयति, यो देवो दण्डं धरति, यो देवो वेश्यां चोपभुंक्ते, वशिष्ठपिता भवति स कथं देवः । ( उदययरो भव्वजीवाणं ) भव्य-जीवानामुदयकरः उत्कृष्टतीर्थकरनामशुभदायकः स देवो ज्ञातव्यः ॥२५॥
देवं इति श्री बोधप्राभृते देवाधिकारोऽष्टमः समाप्तः ॥८॥
और मोह से रहित देव, ये तीनों भव्य जीवोंका कल्याण करने वाले. हैं ॥२५॥
विशेषार्थ-धर्म दया से विशुद्ध-निर्मल होता है। जो दया करता हा भी चमड़े के पात्रका जल पीता है, चमड़े के पात्रका तेल खाता है, चमड़े के वर्तनका घी खाता है, तथा भांग खाता है उस पुरुषका धर्म विशुद्ध नहीं होता, उसे मुनिवेष का धारी होने पर भी म्लेच्छ जानना चाहिये । प्रवज्या सर्वपरिग्रह से रहित होती है, जो हाथ में दण्ड रखता है, कम्बल रखता है, तथा शूद्रा स्त्रोके हाथका छुआ अन्न खाता है वह प्रव्रज्या दीक्षाका धारक कैसे हो सकता है ?
देव मोहसे रहित होता है । जा देव अर्धाङ्ग में स्त्रीको रखता है, जो देव हृदय स्थल पर लक्ष्मी को बैठाता है, जो देव हाथ में दण्ड धारण करता है, जो देव वेश्याका उपभोग करता है, और जो वसिष्ठका पिता होता है वह देव कैसे हो सकता है ? दयासे विशद्ध धर्म, सर्वपरिग्रहसे रहित प्रब्रज्या और मोह से रहित देव ये तीनों भव्य जीवोंके उदयको करने वाले हैं अर्थात् उत्कृष्ट तीर्थंकर नामक शुभ पदके देने वाले हैं ॥२५॥ ___ इस प्रकार श्री बोधप्राभृत में देवाधिकार नामका आठवां अधिकार समाप्त हुआ ||८||
१. स यतिवेष म०००। ।
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