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बोधप्राभूतस्
जं णिम्मलं सुघम्मं सम्मत्तं संजमं तवं गाणं । तं तित्यं जिण मग्गे हवेइ जबि संतिभावेण ॥ २७॥
-४.२७ ]
यन्निर्मलं सुधमं सम्यक्त्वं संयमस्तपः ज्ञानम् । तत्तीर्थं जिनमार्गे भवति यदि शान्तभावेन ||२७|
( जं णिम्मलं सुधम्मं ) यन्निर्मलं निरतिचारं सुषमं सुष्ठु शोभनं चारित्र तत्तीर्थ ज्ञातव्यम् | ( सम्मत्तं संजमो तवं णाणं ) सम्यक्त्वं तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं तीर्थं भवति । संयम इन्द्रियाणां मनसश्च संकोचनं पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायस्थावरजीव - रक्षणमविराधनम् । द्वीन्द्रियादिपञ्चेन्द्रियत्रसजीवदया करणं क्वचित्
गाथार्थ - जो निरतिचार, धर्मं, सम्यक्त्व, संयम, तप और ज्ञान है वह जिनमार्ग में तीर्थ है, वह भी यदि शान्तभाव से सहित हों । [ यदि यह धर्म सम्यक्त्व आदि भाव क्रोध से सहित हैं तो तीर्थ नहीं कहलाते हैं ।]
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विशेषार्थ – निर्मल - अतिचार से रहित जो उत्तम धर्म -- चारित्र है यह तीर्थ है, तत्त्वार्थं श्रद्धान रूप सम्यक्त्व तीर्थ है, इन्द्रियों और मन को वश में करना, पृथिवी जल अग्नि वायु और वनस्पति इन पाँच स्थावर जीवों की रक्षा करना अर्थात् निराधना नहीं करना और द्वीन्द्रियादि पञ्चेन्द्रियान्त त्रस जीवों की दया करना, यदि कहीं प्रमाद के दोष से विराधना हो भी जाय तो शास्त्रोक्तविधि से प्रायश्चित्त करना संयम कहलाता है। यह संयम भी संसार समुद्रसे तारने वाला होनेसे तीर्थ है। तपका लक्षण इच्छाओं का निरोध करना है, वह अनशन, अवमौदर्य, वृत्ति परिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन, कायक्लेश, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान के भेद से बारह प्रकारका होता है । तत्वार्थ सूत्र - मोक्षशास्त्र के नवम अध्याय में विस्तार से तप का निरूपण किया गया है वहाँसे उसे जानना चाहिये। यह तप तीर्थ है । इसके सिवाय ज्ञान भी तीर्थ है। जिनमार्ग में निश्चयनयसे यहाँ सब तीर्थ कहलाते हैं । व्यवहार नयसे जगत् प्रसिद्ध, निश्चयतीर्थ की प्राप्ति में कारण तथा मुक्त अवस्थाको प्राप्त हुए मुनियों के चरणों से स्पृष्टऊर्जयन्त ( गिरनार ) शत्रुञ्जय, लाटदेशका पावागिरि आमीर देश की
१. निम्मलं क० घ० म० ।
२. हीन्द्रियाणि (?) क० घ० ४० ॥
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