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षट्प्राभृते
[४. २९सुवर्णपुष्पगन्धोदकवर्षणं मातुरङ्गणे भवति, अवतीर्णे सति नवमासपर्यन्तं सुवर्णरत्नवृष्टि मातुरङ्गणे सौधर्मेन्द्रादेशात्कुवेरः करोति कनकमय-पत्तनं भवति । एत. त्सर्वं महापुराणात्सम्पद्विवरणमहतो ज्ञातव्यम् । ( इमं ) अर्हन्तं । ( भावा ) भव्यजीवा आसन्नतरभव्यवर-पुण्डरीकाः । ( भावंति ) भावयन्ति निजहृदय-कमले निश्चलं धरन्ति । कम् ? ( अरहतं ) श्रीमद्भगवत्सर्वज्ञवीतरागं । तथा चोक्त
. णामजिणा जिणणामा ठवणजिणा तह य ताह पडिमाओ।
दव्वजिणा जिणजीवा भावजिणा समवसरणत्था ॥१॥ ... दसण अणंतणाणे मोक्खो गट्टकम्मबंधेण। णिरुवमगणमारूढो अरहंतो एरिसो होई ॥२९॥
दर्शने अनन्तज्ञाने मोक्षो नष्टाष्टकर्मबन्धेन । 'निरुपमगुणमारूढः अर्हन् ईदृशो भवति ॥२९॥
पूर्व लगातार माता के अङ्गण में सुवर्ण और रत्नों की वर्षा होती है तथा गर्भावतरण हो चुकने पर नौ मास पर्यन्त माताके अङ्गण में सौधर्मेन्द्र की आज्ञासे कुवेर सुवर्ण और रत्नोंकी वर्षा करता है तथा उनका नगर सुवर्णमय हो जाता है, अरहन्त भगवान् को इस समस्त संपत्तिका वर्णन महापुराण से जानना चाहिये। इन नौ बातों का आश्रय लेकर अत्यन्त निकट श्रेष्ठ भव्य जीव अरहन्त भगवान की भावना करते हैं अर्थात् उन्हें अपने हृदय-कमल में निश्चल रूपसे धारण करते हैं।
जैसा कि कहा है
णामजिणा-अरहन्तभगवान के जो नाम हैं वे नामजिन हैं, उनको प्रतिमाएं स्थापना जिन हैं, अर्हन्त भगवानका जीव द्रव्य जिन है । और समवशरण में स्थित भगवान भावजिन हैं ॥१॥
इस श्लोक में नामादि चार निक्षेपोंकी अपेक्षा अरहन्त का वर्णन किया गया है ॥२८॥
गाथार्थ-जिनके अनन्तदर्शन और अनन्तज्ञान विद्यमान हैं, 'आठों कर्मोका बन्ध नष्ट हो जाने से जिन्हें भावमोक्ष प्राप्त हुआ है तथा जो अनुपम गुणोंको प्राप्त हैं ऐसे अरहन्त होते हैं ॥२९॥
१. अरहन्त भगवान् के सातावेदनीय का बन्ध विद्यमान रहने से यद्यपि आठों
कर्मोके बन्धका अभाव सिद्ध नहीं होता तथापि सातावेदनीय में स्थिति अनुभाग बन्ध न पड़ने से अबन्ध को ही विवक्षा की गई है।
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