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षट्प्रामृते
[४. ३०जरवाहिजम्ममरणं चउगइगमणं च पुण्णपावं च । हंतूण दोसकम्मे हुंउ णाणमयं च अरहंतो ॥३०॥
जराव्याधिजन्ममग्णं चतुर्गतिगमनं च पुण्यपापं च ।
हत्वा दोषकर्माणि भूतः ज्ञानमयोऽर्हन् ॥३०॥ ( जर ) जरां हत्वा । ( वाहि ) व्याधि हत्वा, एतेन पदेन यत्महावीरस्वामिनः षण्मासिकमतीसारं रोग केवलिनः कथयन्ति तन्मतं निरस्तं भवति । (जम्म) जन्म गर्भवासं हत्वा, इदमपि पदमेतत् सूचयति यद्देवनन्दाया ब्राह्मण्या उदराद्वीर निष्कास्य क्षत्रियाया उदरे प्रवेशितवानिन्द्रस्तदप्ययुक्तं । गतिदाता इन्द्रएवेति (चेत् ? न ) जीवस्य कर्माधीनत्वं वृथा भवतीति दोष-सद्भावात् । तथा ( मरणं ) हत्वा । ( चउगइ गमणं च ) चतुर्गतिगमनं च हत्वा । ( पुण्णपावं
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गाथार्थ-बुढापा, रोग, जन्म, मरण, चतुर्गति-गमन, पुण्य-पाप, अठारह दोष, तथा घातिया कर्मों को नष्ट करके जो ज्ञानमय हुए हैं वे अरहन्त हैं ॥३०॥
विशेषार्य-जरा का अर्थ बुढापा है, व्याधि बीमारी को कहते हैं। इन्हें नष्ट करने से हो अरहन्त-अवस्था प्राप्त होती है अर्थात् अरहन्त भगवान के परमौदादिक शरीर में न बुढापा प्रगट होता है और न कोई बीमारी हो । यहाँ खास कर व्याधि को नष्ट करके अरहन्त होते हैं, इस कथन से श्वेताम्बरोंके उस मतका खण्डन हो जाता है जिसमें वे कहते हैं कि भगवान महावीर स्वामीको केवलज्ञानी अवस्थामें छह मासके लिये अतीसार नामक बीमारी हो गई थी। जन्मका अर्थ गर्भवास है, अरहन्त भगवान् इसे नष्ट करके अरहन्त होते हैं अर्थात् अरहन्त भगवान् अरहन्त बनने के बाद मोक्ष ही प्राप्त करते हैं, गर्भवासको प्राप्त नहीं करते । इस पद से भी यह सूचित होता है कि "भगवान महावीर पहले तो देवनन्दा नामकी ब्राह्मणीके गर्भ में अवतीर्ण हुए थे बाद में इन्द्र ने उन्हें ब्राह्मणी के उदर से निकाल कर क्षत्रिया के मभं में प्रविष्ट कराया था" श्वेताम्बरों का यह कथन अयुक्त है। यदि यह कहा जाय कि इन्द्र ही जीव को गति देता है तो यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर जीव की कर्माधीनता व्यर्थ हो जाती है । अरहन्त भगवान मरण को तथा चारों गतियों के गमनको नष्ट कर अरहन्त बनते हैं अर्थात् अरहन्त भगवान का न मरण होता है और न नरकादि चारों गतियों में उनका
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