Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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-४. २९] बोधप्रामृतम्
(दसण अणतणाणे मोक्खो ) अनन्तदर्शने सत्तावलोकनमात्रलक्षणे सति । तथा अनन्तज्ञाने विशेषगोचरसाकारे सति मोक्षो भवतीति तावद्वेदितव्यम् । केन कृत्वा ? ( णट्टकम्मबंधेण ) नष्टाष्टकर्मबन्धेन । ननु 'मोहक्षयाज्ञानदर्शनावरणां• तरायक्षयाच्च केवलम्' इत्युमास्वामिवचनात् चत्वार्येव कर्माण्यर्हते नष्टानि कथं नष्टाष्टकर्मबन्धेनेत्युच्यते ? साधूक्तं भवता, यथा सैन्यनायके पतिते सति जीवत्यपि शत्रुवृन्दे तन्मृतवत्प्रतिभासते विकृतिकारकत्वभावाभावात्तथा सर्वेषां कर्मणां मुख्यभूते मोहनीयकर्मणि नष्टे सति वेदनीयायुर्नामगोत्रकर्मचतुष्टये सत्यपि भगवतो विविध-फलोदयाभावादघातीन्यपि कर्माणि नष्टानीत्युच्यते । (णिरुवम गुणमारूढो) निरुपमं गुणमनन्तचतुष्टय-लक्षणमारूढोऽहनष्ट-कर्मरहित उच्यते । ( अरहंतो एरिसो होइ ) अर्हन्नीदृशो भवतीति मुक्त एवोपचयंत इति भावार्थः ॥२९॥
विशेषार्थ-पदार्थकी सत्ता मात्रका अवलोकन होना दर्शन है और विशेषताको लिये हुए विकल्प-सहित जानना ज्ञान कहलाता है । ज्ञानावरण के क्षय से अनन्तज्ञान और दर्शनावरण के क्षय से अनन्तदर्शन अरहन्त भगवानके प्रगट होता है। इन दोनों गुणोंके रहते हुए उनके आठों कर्मोका बन्ध नष्ट हो जाने से मोक्ष--भावमोक्ष होता है।
प्रश्न-'मोहक्षयाज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम्' मोहनीय तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय के क्षय से केवलज्ञान होता है-उमास्वामी के इस वचन से सिद्ध है कि अरहन्त भगवान के चार कर्म ही नष्ट हुए हैं फिर उन्हें 'नष्टाष्टकर्म-बन्ध' क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-आपने ठीक कहा है, परन्तु जिस प्रकार सेनापति के नष्ट हो जाने पर शत्रुसमूह के जीवित रहते हुए भी वह मृत के समान जान पड़ता है क्योंकि विकार उत्पन्न करने वाले भाव का अभाव हो जाता है उसी प्रकार सब कर्मों के मुख्यभूत मोहनीय कर्म के नष्ट हो जाने पर यद्यपि अरहन्त भगवान के वेदनीय आयु नाम और गोत्र ये चार अधाति कर्म विद्यमान रहते हैं तथापि नाना प्रकार के फलोदय का अभाव होने से वे भी नष्ट हो गये, ऐसा कहा जाता है । उपमा-रहित अनन्त-चतुष्टय रूप गुणोंको प्राप्त हुए अरहन्त अष्ट कर्म से रहित कहे जाते हैं । ऊपर कही विशेषताओं से युक्त पुरुष होता है तथा उपचार से उसे मुक्त ही कहते हैं ॥२९॥
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