Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
१६०
षट्प्राभृते
[ ४ १२
( अनंतवीरिय अनंतसुक्खा य) अनन्तवीर्याश्च सिद्धा भवन्ति लोकालोकस्वरूपावलोकने ज्ञातृत्वे च या शक्तिस्तदनन्तवीर्यं ज्ञातव्यम् । अनन्तसौख्याश्च सिद्धा भवन्ति । सर्ववस्तु स्वरूपपरिज्ञाने सति तेषां सुखमुत्पद्यते । तथा चोक्तं नेमिचन्द्रेण त्रिलोकसारग्रन्थे वैमानिकाधिकारपर्यन्ते -
एयं सत्यं सव्वं सत्यं वा सम्ममेत्य जाणंता । तिव्वं तुस्संतिणरा किं ण समत्थत्थ तच्चण्हा ॥ १ ॥ चक्कि कुरुफणिसुरिदेसहमिदे जं सुहं तिकालभवं । तत्तो अनंतगुणिदं सिद्धाणं खणसुहं होदि ||२||
विषय करता है ऐसा ज्ञान साकार - सविकल्पक माना गया है। ये ज्ञान और दर्शन नेत्रके समान हैं तथा छद्मस्थज्ञानावरण-दर्शनावरण से युक्तं जीवों के क्रमसे प्रवृत्त होते हैं । छद्यस्थ जीवोंके ज्ञान और दर्शन प्रादेशिक हैं अर्थात् सीमित स्थान की बातको जानते हैं परन्तु हे शरीर रहित सिद्ध परमेष्ठी ! यतश्च आप ज्ञानावरणादि रज से रहित हैं अतः आपके ये दोनों लोक- अलोक में सर्वत्र व्याप्त हैं तथा एक साथ प्रकाशमान हैं ॥१॥
ऐसा ही श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीने कहा है
दंसण - छद्मस्थ जीवोंका ज्ञान, दर्शन-पूर्वक होता है उनके दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते परन्तु केवली जिनेन्द्र में दोनों एक साथ होते हैं ।
अनन्तज्ञान और अनन्तदर्शन के समान सिद्ध परमेष्ठी अनन्त वीयं और अनन्त सुख से युक्त भी हैं। लोक और अलोकका स्वरूप देखने तथा जानने की जो शक्ति है उसे अनन्त वीर्यं जानना चाहिये | समस्त वस्तुओं के स्वरूपका परिज्ञान होनेपर सिद्ध परमेष्ठी को सुख उत्पन्न होता है इसलिये वे अनन्त सोख्य से युक्त कहे जाते हैं । जैसा कि श्री नेमिचन्द्राचार्य ने त्रिलोकसार ग्रन्थ के वैमानिकाधिकार के अन्तमें कहा है
एयं सत्यं - जब कि लोक में एक शास्त्र अथवा समस्त शास्त्रों को यथार्थ रीति से जानने वाले मनुष्य अत्यधिक सन्तुष्ट होते हैं-सुखी होते हैं तब समस्त पदार्थोंके स्वरूप को जानने वाले मनुष्यों की तो बात ही क्या है ?
चक्कि — चक्रवर्ती, भोगभूमिजआयं, धरणेन्द्र, सुरेन्द्र तथा अहमिन्द्र
For Personal & Private Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org