Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षट्प्राभृते
[ ४. १६
अपि शब्दादन्येऽपि कनक- पाषाण - काष्ठाग्नि-प्रभृतयो दृष्टान्ता ज्ञातव्याः । ( तह दंसणं हि सम्मं ) तथा दर्शनं सम्यक्त्वं हि निश्चयेन ( णाणमयं होइ ) सम्यग्ज्ञानमयं भवति । रूवत्थं यतिश्रावका संयतसदृष्टिमूर्तिस्थितं दर्शनं ज्ञातव्यमित्यर्थः । दर्शनाधिकार एकादशाधिकरेषु बोघप्राभृते चतुर्थः समाप्तः ॥ १५ ॥ अथेदानीं जिनविम्बस्वरूपं निरूपयन्ति श्रीगृद्धपिच्छाचार्या भगवन्तःजिणविम्बं णाणमयं संजमसुद्धं सुवीयरायं च । जं देह दिक्खसिक्खा कम्मक्खयकारणे सुद्धा ॥ १६ ॥
जिनविम्बं ज्ञानमयं संयमशुद्धं सुवीतरागं च ।
यद् ददाति दीक्षाशिक्षे कर्मक्षयकारणे शुद्धे ॥ १६ ॥
( जिणबिम्बं णाणमयं ) जिनस्य विम्बमाकारी ज्ञानमयं मतिज्ञानश्रुतज्ञानंयथा-संभवावधिज्ञान यथासंभव - मन:पर्यय-ज्ञानमयं भवति, तृतीयः परमेष्ठी आचार्यसंशको जिनविम्बं ज्ञातव्य इत्यर्थः । ( संजमसुद्ध सुवीयराय च ) तदुक्तलक्षणं जिनविम्बं कथंभूतं भवतीत्याह -- संयमयुद्ध संयमेन निरतिचारचारित्रेण शुद्ध निर्मल, सुष्ठु अतिशयेन वीतरागं वीतः क्षयगतो रागः प्रीतिलक्षणो यस्मादिति
निश्चय से सम्यग्ज्ञान होता है । यहाँ 'घियमयं चावि' में जो अपि शब्द दिया है उससे सुवर्ण पाषाण तथा काष्ठाग्नि आदि अन्य दृष्टान्त भी जानने योग्य हैं यह दर्शन रूपस्थ है अर्थात् मुनि श्रावक और असंयत सम्यग्दृष्टिके रूप में स्थित है ॥ १५
॥
इस प्रकार बोधप्राभृत के ग्यारह अधिकारों में दर्शनाधिकार समाप्त हुआ ।। ४ ।।
अब इस समय श्री कुन्दकुन्दाचार्य भगवान् जिनविम्ब का स्वरूप दिखलाते हैं
गाथार्थ - जो ज्ञानमय है, संयम से शुद्ध है, अत्यन्त वीतराग है तथा कर्मक्षय में कारणभूत शुद्ध दीक्षा और शिक्षा देते हैं ऐसे आचार्य परमेष्ठी जिनबिम्ब हैं ॥ १६ ॥
विशेषार्थ - तीसरे आचार्य परमेष्ठी जिनविम्ब हैं - जिनके आकारको धारण करने वाले हैं । वे मतिज्ञान श्रुतज्ञान और यथासंभव अवधिज्ञान तथा यथासंभव मन:पर्ययज्ञान से युक्त होने के कारण ज्ञानमय हैं। संयम -
१. सुद्ध घ० ।
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