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-२.४४] चारित्रामृतम्
१०५ शब्दाद्दर्शनावरणं चोद्देशितं । ( लहु चउगइ चइऊणं ) लघु शीघ्र चतुर्गतीस्त्यवत्वा नरकतिर्य मनुष्यदेवगतीश्चतस्रः परिहाय । ( अचिरेण पुणब्भवा होह ) अचिरेण स्तोककालेन इतस्तृतीये भवेऽपुनर्भवाः सिद्धा भवत यूयम् । सिद्धिगति पञ्चमों गतिं प्राप्नुत यूयमिति भद्रम् ॥४४॥
इति श्री पद्मनन्दि कुन्दकुन्दाचार्य वक्रप्रोवाचार्यलाचार्यगृद्धपिच्छाचार्य नामपञ्चकविराजितेन सीमन्धरस्वामि ज्ञानसम्बोषित-भव्य-जीवेन श्री जिनचन्द्रसूरि भट्टारक-पट्टाभरणभूतेन कलिकाल-सर्वज्ञेन विरचिते षट्प्राभृते ग्रन्थे सर्वमुनिमण्डलीमण्डितेन कलिकाल गौतमस्वामिना श्रीमल्लिभूषणेन भट्टारकेणानुमतेन सकलविद्वज्जनसमाजसम्मानितेनोभयभाषा-कवि-चक्रवर्तिना श्रीविद्यानन्दिगुर्वन्तेवासिना सूरिवरश्रीश्रुतसागरेण विरचिता चरणप्राभृतटीका द्वितीया' ।
सम्पूर्णा
चिन्तन-मनन करो और इसके फलस्वरूप नरक-तिर्यञ्च-मनुष्य तथा देव इन चारों गतियोंको छोड़कर इस भवसे तीसरे भवमें ही पुनर्जन्मसे रहित हो जाओ ॥४४॥
इस प्रकार श्री पद्मनन्दी, कुन्दकुन्दाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य, एलाचार्य और गृद्धपिच्छाचार्य इन पांच नामोंसे सुशोभित, सीमन्धर स्वामीके ज्ञानसे भव्यजीवोंको सम्बोधित करने वाले श्री जिनचन्द्रसूरि भट्टारक के पट्टके आभरणस्वरूप, कलिकाल सर्वज्ञ कुन्दकुन्दाचार्य के द्वारा विरचित षट्पाहुड ग्रन्थमें समस्त मुनियोंके समूहसे सुशोभित, कलिकालके गौतमस्वामी श्री मल्लिभूषण भट्टारक के द्वारा अनुमत, सकल विद्वत्समाजके द्वारा सन्मानित, उभय-भाषा-सम्बन्धी कवियोंके चक्रवर्ती श्री विद्यानन्द गुरुके शिष्य सूरिवर श्रीश्रुतसागर के द्वारा विरचित चारित्र-पाहुड की टीका सम्पूर्ण हुई।
-- १. म प्रती 'द्वितीया' नास्ति ।
२. समाप्ताम।
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