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-२. ४२-४३] चारित्रप्राभृतम्
चारित्तसमारूढो अप्पासु परं ण ईहए णाणी। पावइ अइरेण सुहं अणोवमं जाण णिच्छयदो ॥४२॥
चारित्रसमारूढ आत्मनः परं न ईहते ज्ञानी।
प्राप्नोत्यचिरेण सुखमनुपमं जानीहि निश्चयतः ॥४२॥ ' ( चारित्तसमारूढो ) चारित्रसमारूढश्चारित्र प्रतिपालयन् पुमान् । ( अप्पासु परं ण ईहए णाणो) आत्मनः सकाशात् परमिष्टं स्रग्वनितादिकं न ईहते न वाञ्छति, कोऽसौ ? ज्ञानी ज्ञानवान् पुमान् । उक्तञ्च
, समसुख शोलितमनसामशनमपि द्वेषमेति किमु कामाः ।
स्थलमपि दहति झषाणां किमङ्ग पुनरङ्गमङ्गाराः ॥१॥ ( पावइ अइरेण सुहं ) प्राप्नोत्यचिरेण स्तोककालेन सुखमनन्तसौख्यम् । ( अणोवमं जाण णिच्छयदो) कथंभूतं सुखम् ? अनुपममुपमारहितं जानीहि हे भव्य ! त्वं णिच्छयदो-निश्चयतः निःसन्देहान्निश्चयनयाद्वा ॥ ४२ ॥
एवं संखवेण य भणियं णाणेण वीयरायेण । सम्मत्तसंजमासयदुण्हं पि उदेसियं चरणं ॥४३॥
गाथार्थ-जो ज्ञानी पुरुष चारित्र का पालन करता हआ आत्मा के सिवाय अन्य पदार्थ की इच्छा नहीं करता वह शीघ्र ही अनुपम सुख को प्राप्त होता है, ऐसा निश्चय से जानो ॥ ४२ ॥
विशेषार्य-चारित्र पर आरूढ हुआ अर्थात् चारित्रका पालन करता हुआ ज्ञानी पुरुष आत्मासे अतिरिक्त माला तथा स्त्री आदि अन्य इष्ट पदार्थों की इच्छा नहीं करता सो ठोक ही है क्योंकि कहा है
समसुख-जिनका मन समता भावरूपी सुखसे सुवासित हो रहा है उन्हें भोजन भी रुचिकर नहीं होता फिर कामभोग कैसे रुचिकर हो सकते
हैं। जैसे कि मछलियों के शरीरको जब खाली जमीन भी जलाती है तब 'अङ्गारोंका तो कहना ही क्या है ? ऐसा ज्ञानी जीव थोड़े ही समय में . अनुपम सुख को प्राप्त होता है यह निश्चयसे-सन्देह रहित अथवा निश्चय
नयसे जानो ।। ४२॥ .. गाथार्य-इसप्रकार ज्ञानस्वभावसे युक्त सर्वज्ञ वीतराग देवने सम्यक्त्व और संयमके आश्रयसे सहित दोनों आचारों-दर्शनाचार और चारित्राचारका चारित्र संक्षेप से कहा है ॥४३॥
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