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सूत्रप्राभृतम्
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खेलेऽपि क्रीडायामपि ( ण कायव्वं पाणिप्पत्तं ) न कर्तव्यं पाणिपात्रेण भोजनं न विघातव्यम् । कस्य ? ( सचेलस्य ) गृहस्थस्य ॥७ ॥
हरिहरतुल्लो वि णरो सग्गं गच्छेइ एइ भवकोडी । तहवि ण पावइ सिद्धि संसारत्थो पुणो भणिदो ॥ ८ ॥
हरिहरतुल्योऽपि नरः स्वर्गं गच्छति एति भवकोटीः । तथापि न प्राप्नोति सिद्धि संसारस्थः पुनर्भणितः ॥ ८ ॥
( हरिहरतुल्लो वि णरो ) हरिश्च नारायणो हरश्च रुद्रस्ताभ्यां तुल्यः समानः ऋद्धिमानित्यर्थः । नरः प्राणी मनुष्यः । ( सग्गं गच्छेइ एइ भवकोडी ) दानपूजोपवासादिकं कृत्वा स्वगं देवलोकं गच्छति पश्चाद्भवान्तराणां कोटीरसंख्यानि - भवान्तराणि अनन्तानि वा भवान्तराणि प्राप्नोति दुःखी भवति संसारी स्यात् । ( तह वि. पाव सिद्धि ) तथापि भवकोटी : पर्यटनप्रकारेणापि न प्राप्नोति सिद्धि मोक्षं न लभते । . किं तर्हि भवतीत्याह ( संसारत्थो पुणो भणिदो ) संसारस्थः संसारी पुनर्भणितः सिद्धान्ते प्रतिपादितः । जिनसूत्राभावान्मिथ्यादृष्टिः सन् संसारदुःखं सहते सुखी न भवतीति भावः ॥ ८ ॥
उसे पाणिपात्र आहार नहीं करना चाहिये और न विवेकी मनुष्योंको उसे मुनि समझकर - - कौतूहल बुद्धिसे भी पाणिपात्र आहार देना चाहिये ॥ ॥
गाथार्थ – सूत्र के अर्थ और पदसे भ्रष्ट हुआ मनुष्य विष्णु और रुद्रके तुल्य हाने पर भी — उनके समान ऋद्धिमान् होनेपर भी स्वर्ग जाता है वहाँसे आकर करोड़ों भव धारण करता है परन्तु मोक्षको प्राप्त नहीं कर सकता, वह संसारी ही कहा गया है ॥८॥
विशेषार्थ - जिनागमकी श्रद्धासे रहित मनुष्य हरि हर आदिके समान कितनी ही ऋद्धियों - सम्पत्तियोंका स्वामी क्यों न हो वह दान पूजा उपवास आदि करके पहले स्वर्ग जाता है पीछे असंख्यात अथवा अनन्त भवोंको धारण करता हुआ संसार में दुखी होता रहता है । यद्यपि वह असंख्यात या अनन्त भवोंको प्राप्त होता है तथापि मोक्षको प्राप्त नहीं हो सकता, संसारी ही कहलाता रहता है ॥८॥
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