Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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-४. १०]
बोधप्राभृतम् अहंच्चरणसपर्या महानुभावं महात्मनामवदत् ।
भेकः प्रमोदमत्तः कुसुमेनकेन राजगृहे ॥ २ ॥ अजंगमदेहा-सुवर्णमरकतमणिघटिता, स्फटिकमणिघटिता, इन्द्रनीलमणिनिर्मिता, पद्मरागमणिरचिता, विद्रुम-कल्पिता, चन्दन-काष्ठानुष्ठिता वा अजङ्गमा प्रतिमा कथ्यते । ईदृशी प्रतिमा केषां भवति ? ( दसणणाणेण सुद्धचरणाणं ) दर्शनेन ज्ञानेन निर्मलचारित्राणां तीर्थंकरपरमदेवानाम् । कथंभून्ता प्रतिमा ? ( णिग्गंथवीयराया ) निर्ग्रन्था वस्त्राभरणजटामुकुटायुधरहिता, वीतरागो-रागरहितभावेऽवतारिता । ( जिगमग्गे एरिसा पडिमा ) जिनमार्गे सर्वज्ञवोतरागमते ईदृशी प्रतिमा भवति ॥ १० ॥
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वाले देवाधिदेव-जिनेन्द्र देवके चरणोंको शुश्रूषा समस्त दुःखोंको हरने वाली है, इसलिये निरन्तर उसे करना चाहिये ॥१॥
अर्हच्चरण-राजगृह नगर में हर्ष से मत्त हुए मेंढक ने महात्माओं के आगे एक फल के द्वारा अर्हन्त भगवान के चरणों की पूजाका माहात्म्य प्रगट किया।
भगवानकी वह प्रतिमा अजङ्गमदेह होती है-चलने फिरने की क्रिया से रहित होती है । सुवर्ण और मरकतमणि से बनी स्फटिक मणिसे रचित, इन्द्रनीलमणि से निर्मित, पद्मरागमणि से रचित, मंगे से बनी तथा चन्दन की लकड़ी से निर्मित प्रतिमा अजंगम प्रतिमा कहलाती है। ऐसी प्रतिमा किनकी होती है ? इस प्रश्नका उत्तर कहते हैं-वह प्रतिमा दर्शन और ज्ञान के द्वारा निर्मल चारित्र को धारण करने वाले तीर्थंकर परमदेव की होती है। यह प्रतिमा निर्ग्रन्य अर्थात् वस्त्र आभूषण, जटा, मुकुट तथा शस्त्रोंसे रहित होती है और वीतराग अर्थात् राग रहित भावके उत्पन्न करने में समर्थ रहती है। सर्वज्ञ वोतरागके मत में ऐसी ही प्रतिमा होती है।
* रलकरण्ड श्रावकाचारे* श्री पं० जयचन्द्र जी ने इस गाथा की वचनिका इस प्रकार लिखी हैदर्शन ज्ञान करि शुद्ध निर्मल है चारित्र जिनकै तिन की स्वपरा कहिये अपनी अर परकी चालती देह है सो जिनमार्ग विर्षे जंगम प्रतिमा है। अथवा स्व परा कहिये आत्मा ते पर कहिये भिन्न है ऐसी देह है, सो कैसी है निर्ग्रन्थ स्वरूप है, जाकै किछु परिग्रहका लेश नांही ऐसी दिगम्बरमुद्रा, बहुरि कैसी है-वीतराग
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