Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
बोधप्राभृतम् बहुसत्थ अत्थजाणे संजमसम्मत्तसुद्धतवयरणे। वंदित्ता आयरिए कसायमलवज्जिदे सुद्धे ॥१॥ ... सयलजणबोहणत्थं जिणमग्गे जिणवरेहि जहभणियं। वुच्छामि समासेण य -'छक्कायहियंकरं सुणसु ॥२॥ बहुशास्त्रार्थज्ञायकान् संयमसम्यक्त्वशुद्धतपश्चरणान् । . वन्दित्वाचार्यान् कषायमलवर्जितान् शुद्धान् ॥१॥ सकलजनबोधनार्थ जिनमार्गे जिनवैरर्यथा भणितम् । वक्ष्यामि समासेन च षट्कायहितंकरं शृणु ॥२॥ (बुच्छामि ) वक्ष्यामि कथयिष्यामि । कः ? कर्ता अहं श्री कुन्दकुन्दाचार्यः । किं तत् कर्मतापन्नं ? ( छक्कायहियंकरं ) षट्कायहितंकरं पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसकायहितकारक शास्त्रं बोधप्राभृताभिधानं शास्त्र। केन कृत्वा वक्ष्यामि ? ( समासेण ) संक्षेपेण । ( सुणषु ) शृगु त्वं हे भव्य ! "विध्यादिसु त्रयाणामेकत्र
-
गाथार्थ--में अनेक शास्त्र तथा उनके अर्थके ज्ञाता, सयम सम्यक्त्व और शुद्ध तपश्चरण के धारक, कषाय रूपी मलसे रहित तथा निर्मल आचार्यों को नमस्कार करके समस्त मनुष्यों को संबोधने के लिये जिनमार्ग में जिनेन्द्रभगवान् के द्वारा कहे अनुसार संक्षेप से छह कायके जीवोंका हित करने वाला "बोधप्राभूत" नामक ग्रन्थ कहंगा, हे भव्य जीवो! उसे सुनो ॥१२॥
विशेषार्थ-बोधप्राभृत नामक ग्रन्यके मङ्गलाचरण ओर प्रतिज्ञावाक्यको कहते हुए कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं कि मैं उन आचार्योंको
१. सकाय सुहंकरं क० ख० ग००।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org