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षट्प्राभृते
[ ३.२७
( चित्तासोहि तसि ) चित्तस्य मनसः आ समन्ताच्छोर्धिनिर्मलता न विद्यते ताषां स्त्रीणाम् । ( ढिल्लं भावं तहा सहावेण ) शिथिलो भाव: परिणामस्तथा स्वभावेन प्रकृत्यैव, कस्मिश्चिद् व्रतादावतिदाढर्यं न वर्तते । ( विज्जदि मासा तेसि ). विद्यन्ते मासा - मासे मासे रुधिरस्रावस्तासां स्त्रीणाम् । ( इत्थीसु ण संकया झाणं ) स्त्रीषु न वर्तते, किं तत् ? अशङ्कया निर्भयतया ध्यानमेकाग्र चिन्तानिरोध लक्षणमिति भावः । " लुक्च" इति प्राकृतव्याकरणसूत्रेणाकारलोपः ।
माहेण अप्पगाहा समुद्दसलिले सचेलअत्थेण । इच्छा जाहु णियत्ता ताह णियत्ताइं सव्वदुक्खाई ॥ २७॥
ग्राह्येण अल्पग्राहाः समुद्रसलिले स्वचेलार्थेन । इच्छा येभ्यो निवृत्ता तेषां निवृत्तानि सर्वदुःखानि ||२७||
(गाहेण अप्पगाहा ) ग्राह्येण आहारादिना ये मुनयोऽल्पग्राहाः स्तोकं गृह णन्ति । ( समुद्दसलिले सचेलअत्थेण ) यथा समुद्रसलिले प्रचुरजलाशये सत्यपि स्वचेल
विशेषार्थ - यहाँ स्त्रीको दीक्षा क्यों नहीं है । इसके कुछ अन्य कारणों पर प्रकाश डाला गया है । स्त्रीके मनमें सब ओर से शुद्धता का अभाव रहता है अर्थात् निर्मलता का पूर्ण अभाव रहता है। उसके परिणामों में स्वभाव से ढीलापन रहता है अर्थात् किसी व्रत आदि में उसके अत्यन्त दृढ़ता नहीं रहती है । प्रत्येक मासमें रुधिरस्स्राव होता है तथा भीरु प्रकृति होनेके कारण निःशङ्करूपसे एकाग्रचिन्तानिरोध रूप लक्षणसे युक्त ध्यान भी नहीं होता । गाथा में जो 'ण संकया' पाठ है वहाँ ण अशङ्कया ऐसा पाठ समझना चाहिये क्योंकि 'लुक्च' इस प्राकृत व्याकरण के अनुसार 'असंकया' यहाँ पर अकारका लोप हो गया है ||२६||
गाथार्थ - जिस प्रकार समुद्रके समान बहुत भारी जलके विद्यमान रहने पर भी अपने वस्त्रको धोने की इच्छा करने वाला मनुष्य थोड़ा ही जल ग्रहण करता है उसी प्रकार मुनि भी गृहस्थों के घर बहुत भारी सामग्री रहने पर भी आवश्यकताके अनुसार आहारा दिकी अपेक्षा अल्प ही ग्रहण करते हैं । यथार्थ में जिनकी इच्छा दूर हो गई है उनके सब दुःख दूर हो गये हैं ||२७||
विशेषार्थ - जिस प्रकार प्रचुर जलाशयके रहते हुए भी अपने वस्त्रको धोनेके लिये थोड़ा ही जल लिया जाता है, अधिक जल ग्रहण से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ नहीं । उसी प्रकार मुनि भी श्रावकों से आहार
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