Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षट्प्राभृते
[ ४. १०
प्रतिमा परा उत्कृष्टा भवति सा वन्दनीया, न तु अनुत्कृष्टा । का उत्कृष्टा का वाऽनुत्कृष्टा इति चेदुच्यन्ते'१ – या पञ्चजनाभासैरञ्चलिकारहितापि नग्नमूर्तिरपि प्रतिष्ठिता भवति सा न वन्दनीया, न चार्चनीया च । या तु जैनाभासरहितैः साक्षादार्हतसंधैः प्रतिष्ठिता चक्षुः स्तनादिषु विकार - रहिता नन्दिसंघ -सेनसंघ - देवसंघ-सिंहसंधे समुपन्यस्ता सा वन्दनीया । तथा चोक्तं इन्द्रनन्दिना भट्टारकेण - चतुः संघसंहिताया जैन - विम्बं प्रतिष्ठितम् । नमेन्नापरसंघीयं यतो न्यासविपर्ययः ॥ १॥
कर परमदेव की प्रतिमा 'स्वपरा' स्व और परके भेदसे दो प्रकार की है | उनमें अर्हन्त भगवान् के शासन से सम्बन्ध रखने वाली प्रतिमा स्व प्रतिमा है और श्वेताम्बर आदि पर शासन से सम्बन्ध रखने वाली प्रतिमा पर प्रतिमा है । जो प्रतिमा स्व-शासन की है वह उपादेय है-भक्ति वन्दना आदि करने के योग्य है और जो पर-शासन से सम्बन्ध रखने वाली है वह हेय है— छोड़ने योग्य है, वन्दना करनेके योग्य नहीं है । अथवा स्वपरा शब्दका यह भी अर्थ हो सकता है कि जो प्रतिमा स्व अर्हन्तदेव के शासन में परा उत्कृष्ट है, प्रतिष्ठा सिद्धान्त के अनुसार निर्मित है, वही वन्दना करनेके योग्य है, अनुत्कृष्ट प्रतिमा वन्दना करने योग्य नहीं है। कौन प्रतिमा उत्कृष्ट है और कौन अनुत्कृष्ट ? इसका उत्तर यह है कि पाँच प्रकारके जैनाभासों ने जो प्रतिमा प्रतिष्ठित की है वह अञ्चलिका-लंगोटी से रहित नग्नरूप होने पर भी न वन्दनीय है और न अर्चनीय । किन्तु इसके विपरीत जैनाभासों से रहित साक्षात् आर्हतसंघ के लोगोंके द्वारा जो प्रतिष्ठित है, नेत्र और स्तन आदि में विकार से रहित है अर्थात् इन स्थानों में जिसमें कोई विकार नहीं किया गया है, नन्दिसंघ, सेनसंघ, देवसंघ, और सिंहसंघके द्वारा जो प्रतिष्ठापित है वह वन्दनीय है। जैसा कि भट्टारक इन्द्रनन्दीने कहा है
चतुः - चार संघ की संहिता से जिस जैनबिम्ब की प्रतिष्ठा हुई है उसे ही नमस्कार करना चाहिये अन्यसंघ की प्रतिमा को नहीं क्योंकि उसके न्यास - स्थापना निक्षेप में विपरीतता है ॥ १ ॥
१. दुच्यन्ते म० ०
२. चतुः संघ म० ।
३. नापरसंघाया मं० ।
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