Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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- ४. १० ]
बोधप्राभृतम्
आगे जिन - प्रतिमा का वर्णन करते हैं
सपरा जंगमदेहा दंसणणाणेण सुद्धचरणाणं' । णिग्गंथ वीयराया जिणमग्गे एरिसा पडिमा ॥ १० ॥
स्वपराऽजङ्गमदेहा दर्शनज्ञानेन शुद्धचरणानाम् । निर्ग्रन्थवीतरागा जिनमार्गे ईदृशी प्रतिमा ॥ १० ॥
( सपरा जंगमदेहा) स्वकीया अहंच्छासन सम्बन्धिनी । परा परकीयशासनसम्बन्धिनी प्रतिमा भवति । स्वकीयशासनस्य या प्रतिमा सा उपादेया ज्ञातव्या । या परकीया प्रतिमासा हेया, न वन्दनीया । अथवा सपरा स्वकीयशासनेऽपि या
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का है। श्री अतिशय क्षेत्र चांदखेडी को प्रति है, संपादन की प्रतियों में 'ग' नामसे उपयुक्त है । उसमें इस गाथा की टीका इस प्रकार दी हुई है
'चैत्यं 'बधं मोक्षं दुःखं च पुनः सौख्यं अल्पकं तस्य जिनमार्गे चैत्यगृहं षट्कार्याहितकरं भणितं कथितं "
इसका अर्थ ऐसा जान पड़ता है कि जिस मुनि के बन्ध, बन्धन, मोक्षछूटना अल्प है अत्यन्त तुच्छ है, हर्षं विषादके कारण नहीं हैं, उस समभावी -मुनि की आत्मा चैत्यगृह है यह चैत्यगृह जिनागम में छह काय के जीवोंका हितकारी कहा गया है ।
मेरी बुद्धिमें 'अप्पयं तस्स' को छाया 'अप्रयातः' आती है और उसके आधार पर गाथा का अर्थ ऐसा जान पड़ता है
' बन्धन और मोक्षके प्रति विषाद और हर्ष को प्राप्त न होने वाले मुनि की आत्मा चैत्यगृह है । चैत्यगृह जिनागम में छह कायके जीवोंका हितकारक कहा गया है |
गाथार्थ - सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके द्वारा शुद्ध-निर्दोष चारित्रको धारण करनेवाले तीर्थंकरकी प्रतिमा स्वशासन और पर - शासनकी अपेक्षा दो प्रकारको है, अजङ्गम रूप है— गतिरहित है, निर्ग्रन्थ तथा वीतराग है । जिनमार्ग में ऐसी प्रतिमा मानो गई है ॥ १० ॥
विशेषार्थ - व्यवहार नयसे जिन प्रतिमाका निरूपण करते हैं-सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के द्वारा शुद्ध चारित्र को धारण करने वाले तीर्थ
१. सुद्धचरणेण ग० ।
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