________________
१५०
षट्प्राभृते
[ ४.९
चेइय बंधं मोक्खं दुक्खं सुक्खं च अप्पयं तस्स । चेइहरं जिणमग्गे छक्काय हियंकरं भणियं ॥ ९ ॥
चेत्यं बन्धं मोक्षं दुःखं सुखं च अर्पयतः । चैत्यगृहं जिनमार्गे षट्कार्याहितंकरं भणितम् ।। ९ ।।
( चेइय बंधं मोक्खं ) चैत्यं चैत्यगृहं बन्धं अष्टकर्मबन्धं करोति । पापकर्मोपार्जनं कारयति । पुनश्च किं करोति ? मोक्षं सर्वकर्मक्षयलक्षणं मोक्षं च करोति । ( दुक्खं सुक्खं च अप्पयंतस्स ) चैत्यं चैत्यगृहं दुःखं शारीरमानसागन्तुलक्षणं दुःखमसातं बन्धफलं करोति । सुक्खं च सुखं च मोक्षफलं परमानन्दलक्षणं करोति कस्यैतद्वयं करोति ? अप्पयंतस्स - अर्पयतः पुरुषस्य । यः चैत्यगृहस्य दुष्टं करोति तस्य पापबन्ध उत्पद्यतेयश्चैत्यगृहस्य सुष्ठु करोति शोभनं विदधाति तस्य पुष्प - मुत्पद्यते तदाधारेण मोक्षो भवति, तत्फले यथासंख्यं दुःखं सुखं च भवतीति भावनीयम् । ( चेइहरं जिणमग्गे ) चैत्यगृहं जिनमांगें श्रीमद्भगवदहंत्सर्वज्ञ- वीत
गायार्थ - जो चैत्यगृहके प्रति दुष्ट प्रवृत्ति करता है उसे वह बन्ध तथा उसके फल स्वरूप दुःख उत्पन्न करता है और जो चैत्यगृहके प्रति उत्तम प्रवृत्ति करता है उसे वह मोक्ष तथा उसके फलस्वरूप सुख प्रदान करता है । जिन मार्गमें चैत्यगृहको षट्कायिक जीवोंका हितकारी कहा गया है ॥ ९ ॥
विशेषार्थ - अब व्यवहार नयसे चैत्यगृहका अर्थ कहते हैं चेत्यका अर्थ उपलक्षणसे चैत्यगृह है । यह चैत्यगृह बन्ध अर्थात् अष्टकर्मोके बन्धको करनेवाला है । मोक्ष अर्थात् अष्ट कर्मोके क्षयको करनेवाला है तथा उसके फलस्वरूप दुःख अर्थात् शारीरिक मानसिक और आगन्तुक इन तीन प्रकारके दुःखोंको करता है एवं सुख अर्थात् मोक्ष के फलस्वरूप परमानन्दको उत्पन्न करता है । भाव यह है कि जो मनुष्य चैत्यगृहके प्रति दुष्टभाव करता है उसको पाप-बन्ध होता है और जो चैत्यगृहके प्रति उत्तम भाव रखता है उसके पुण्य उत्पन्न होता है तथा उसीके आधार पर वह मोक्षको प्राप्त होता है । बन्धके फलस्वरूप दुःख और मोक्षके फलस्वरूप सुखको प्राप्त होता है, ऐसी भावना करनी चाहिये। जिनमार्गभगवान् अरहन्त सर्वज्ञ वीतराग देवके मार्ग में चैत्यगृह - जिनमन्दिर है ही, अत्यन्त पापी कौन मिथ्यादृष्टि उसका लोप करता है ? जो प्रतिमा
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org