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-३.६]
सूत्रप्राभृतम् यत् सूत्रं जिनोक्तं व्यवहारं तथा च जानीहि परमार्थम् । तत् ज्ञात्वा योगी लभते सुखं क्षिपते मलपुञ्जम् ॥ ६॥
(जं सुत्तं जिणउत्त) यत्सूत्रं जिनोक्तं । ( ववहारो तह य जाण परमत्यो ) तत्सूत्र व्यवहार जानीहि तथा परमार्थं निश्चयरूपं च जानीहि हे भध्य ! त्वं चेत्थं 'जानीहि । ( तं जाणिऊण जोई ) तत्सूत्र व्यवहार निश्चयरूपं ज्ञात्वा योगी ध्यानी पुमान् । ( लहइ सुहं खवइ मलपुंज ) लभते सुखं निजात्मोत्थं परमानन्दलक्षणं क्षिपते-निर्मूलकाषं कषते मलस्य पापस्य पुज राशि त्रिषष्टिप्रकृतिसमूहं । घातिसंघातघातनं कृत्वा केवलज्ञानमुत्पादयतीति भावः । यथा [ नटो] वंशावष्टम्भं कृत्वाऽभ्यासवशेन रज्जूपरि चलति पश्चादत्यभ्यास वशेन वंशं त्यक्त्वा निराधारतया रज्जूपरि गच्छति तथा व्यवहारावष्टम्भेन निश्चयनयमवलम्बते । तदनन्तरं व्यवहारमपि त्यक्त्वा निश्चयमेवालम्बते इति भावः ॥ ६ ॥
विशेषार्थ-जिनेन्द्र भगवान् ने जिस आगमका वर्णन किया है वह व्यवहार और निश्चयनय रूप है अर्थात् दोनों नयोंके द्वारा पदार्थका निरूपण करने वाला है। जो योगी उस उभयनयात्मक आगमको जानता है वह निजात्मा से उत्पन्न होने वाले परमानन्दरूप सुखको प्राप्त होता है तथा वेसठ प्रकृतियों के समूह को नष्ट कर केवलज्ञानको उत्पन्न करता है। जिस प्रकार नट पहले बांसका सहारा लेकर अभ्यास करता हुआ रस्सीके ऊपर चलता है पीछे पूरा अभ्यास हो जाने पर वह बांस छोड़कर निराधार हो रस्सीपर चलने लगता है, उसी प्रकार से यह मनुष्य पहले व्यवहार नयके आलम्बन से निश्चयनयका आलम्बन करता है, पीछे व्यवहार को भी छोड़कर एक निश्चयका ही आलम्बन करता है ।।६॥ . . [जिनागमका उपदेश व्यवहार और निश्चय दोनों नय-रूप है, अतः पात्रकी योग्यताको देखते हुए जहां जिसकी आवश्यकता दोखे उसको मुख्य करके उपदेश देना चाहिये। जिस समय एक नयको मुख्य किया जाता है उस समय दूसरे नयको गौण तो किया जा सकता है परन्तु अपरमार्थ समझ कर सर्वथा त्याज्य नहीं माना जा सकता।]
१. वेत्य म०। २. निर्मूल म०। ३. सूतत्य
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