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-३. १३-१४ ]
सूत्रप्राभतम्
अवसेसा जे लिंगी दंसणणाणेण सम्मसंजुत्ता । चेलेण य परिगहिया ते भणिया इच्छणिज्जाय ॥१३॥
अवशेषा ये लिङ्गिनो दर्शनज्ञानेन सम्यक्संयुक्ताः । चेलेन च परिगृहीतास्ते भणिता इच्छाकारयोग्याः ॥ १३॥
( अवसेसा जे लिंगी) अवशेषा ये लिङ्गिनः क्षुल्लकगुरवः । ( दंसणणाणेण सम्मसंजुत्ता ) दर्शनज्ञानेन सम्यक्संयुक्ताः । ( चेलेण य परिगहिया ) वस्त्र काराः सकौपीनाश्च, वस्त्रमपि सीवित न भवति, किं तहि ? खण्डवस्त्र घरन्ति ते वस्त्रपरिगृहीताः । ( ते भणिया इच्छणिज्जाय ) ते भणिता इच्छाकारयोग्या नमस्कारयोग्याः ॥१३॥
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इच्छायारम हत्थं सुत्तठिओ जो हु छंडए कम्मं । ठाणे द्वियसम्मत्तं परलोयसुहंकरो होई ॥१४॥ इच्छाकारमहार्थं सूत्रस्थितः यः स्फुटं त्यजति कर्म । स्थाने स्थितसम्यक्त्वः परलोकसुखकरो भवति ||१४||
( इच्छायारं महत्थं ) इच्छाशब्देन नम उच्यते । कारशब्दस्तु अधःस्थः क्रियते, तेन नमस्कार इति भवति । क्षुल्लकानां वन्दनम् । ( सुत्तठिओ जो हु
गाथार्थ - मुनिमुद्रा के सिवाय जो अन्य लिङ्गी हैं, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानसे सहित हैं, तथा वस्त्रके धारक हैं ऐसे क्षुल्लक-ऐलक इच्छाकारके योग्य कहे गये हैं अर्थात् उन्हें 'इच्छामि' कहकर नमस्कार करना चाहिये ।। १३ ।।
विशेषार्थ - दिगम्बर मुनि मुद्रा के सिवाय अन्यलिङ्गधारी-ऐलक क्षुल्लक, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानसे संयुक्त हैं । ऐलक एकवस्त्रकोपीन धारक हैं और क्षुल्लक कोपीनके सिवाय एक वस्त्र अतिरिक्त भी रखते हैं । इनका यह वस्त्र सिला हुआ नहीं होता, खण्डवस्त्र कहलाता है अर्थात् इतना छोटा होता है कि शिर ढके तो पैर नहीं ढकॅ और पैर ढकें तो शिर नहीं ढके । ऐसे ऐलक और क्षुल्लक इच्छाकर के योग्य कहे ये हैं अर्थात् उन्हें नमस्कार करते समय 'इच्छामि' या इच्छाकार' शब्द का उच्चारण करना चाहिये ॥ १३ ॥
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गाथार्थ - जो इच्छाकार के महान् अर्थको जानता है, सूत्र- आगम स्थित होता हुआ आगमको जानता हुमा गृहस्वके आरम्भ आदि कार्यो
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