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—३. २१ ]
सूत्रप्राभृतम्
( दुइयं च वुत्तलिंगं ) द्वितीयं चोक्तं लिङ्ग वेषः । ( उक्किट्ठे अवरसावयाणं च ) उत्कृष्टं लिङ्गमवरश्रावकाणां चागृहस्थश्रावकाणाम् । सोऽवरश्रावकः । ( भिक्खं भमेइ पत्तो ) भिक्षां भ्रमति पात्रसहितः कम्भोजी वा । ( समिदिभासेण मोणेण ) ईयासमितिसहितः मौनवांश्च, उत्कृष्टश्रावको दश मैकादशप्रतिमाः प्राप्तः । उक्तञ्च समन्तभद्रेण यतिना ।
आद्यास्तु षड्जघन्याःस्युर्मध्यमास्तदनु त्रयः । शेषो द्वावुत्तमावुक्तौ जैनेषु जिनशासने ॥ १ ॥ एकादशके स्थाने ह्य ुत्कृष्टः श्रावको भवेद् द्विविधः । वस्त्र घरः प्रथमः कौपीनपरिग्रहोऽन्यस्तु ॥ २ ॥
अथवा हाथ में भी भोजना करता है और भिक्षाके लिये भ्रमण करते समय भाषासमिति रूप बोलता है अथवा मौन रखता है ॥ २१ ॥
विशेषार्थ – मुनिलिङ्ग के सिवाय दूसरा लिङ्ग उत्कृष्ट श्रावकका कहा गया है । प्रतिमाओं की अपेक्षा श्रावकों के ग्यारह भेद हैं उनमें प्रारम्भ की छह प्रतिमाओं के धारक मनुष्य गृहस्थ श्रावक कहलाते हैं और आगे की पाँच प्रतिमाओंके धारक अगृहस्थ श्रावक माने जाते हैं । अगृहस्थ श्रावकों में दशवीं और ग्यारहवीं प्रतिमाके धारक उत्कृष्ट श्रावक कहलाते हैं । परन्तु दशमप्रतिमाधारी श्रावकका कोई लिङ्ग-वेषनहीं होता अतः यहाँ उत्कृष्ट श्रावक से ग्यारहवीं प्रतिमा के धारक का ही ग्रहण समझना चाहिये । ग्यारहवीं प्रतिमा का धारक उत्कृष्ट श्रावक क्षुल्लक अथवा ऐलक भिक्षा के लिये भ्रमण करता है यह पात्र से सहित होता है अर्थात् पात्र में भोजन करता है और ऐलक की अपेक्षा हस्त पुटमें ही भोजन करता है। मूल गाथा के अनुसार भाषा समितिसे बोलता है अथवा मौन पूर्वक भ्रमण करता है । परन्तु संस्कृत टीका के अनुसार यह उत्कृष्ट श्रावक ईर्या समिति से चलता है और मौन रख कर ही भ्रमण करता है । श्रवकों के भेदों का वर्णन करते हुए श्री महाकवि समन्तभद्र ( ? ) सोमदेव ने कहा भी है
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आद्यास्तु - जिन शासन में प्रारम्भ के छह श्रावक जघन्य, उसके बादके तीन श्रावक मध्यम तथा अन्त के दो श्रावक उत्तम कहे गये हैं ॥ १ ॥
एकादशके - यारहवें स्थान में जो उत्कृष्ट श्रावक है वह दो प्रकार
१. अस्म स्वावे सोमदेवेनेति युक्तं भाति (म० टि० )
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