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षट्प्राभृते
एवं संक्षेपेण च भणितं ज्ञानेन वीतरागेण । सम्यक्त्वसंयमाश्रयद्वयोरपिउद्देशितं चरणम् ||४३||
( एवं संखेवेण य) एवममुना प्रकारेण संक्षेपेण च । ( भणियं णाणेण वीयराएण ) भणितं प्रतिपादितं णाणेण ज्ञानेन ज्ञानरूपेण ज्ञानस्वभावेन केवलज्ञानिना सर्वज्ञेन वीतरागेण रागद्वेषमोहादिभिरष्टादशदोष रहितेन । किं भणितं ? ( सम्मत्त संजमासय-. दुहं पि) सम्यक्त्वसंयमाश्रययोर्द्वयोरपि दर्शनाचारचारित्राचारयोर्द्वयोरपि । ( उद्देसियं चरणं ) उद्देशितमुद्दे शमात्र संक्षेपेण चारित्र प्रतिपादितं । विस्तरेण'वट्टकेरादी ज्ञातव्यम् ॥४३॥
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भावेह भावसुद्धं फुडु रइयं चरणपाहुडं चेव । लहु चउगइ चइऊणं अचिरेणऽपुणन्भवा होई ||४४ || भावयत भावशुद्ध स्फुटं रचितं चरणप्राभृतं चैव । लघु चतुगतस्त्यक्त्वा अचिरेणापुनर्भवा भवत ||४४ || ( भावेह भावसुद्धं ) भावयत भावनाविषयीकुरुत यूर्य हे भव्याः । ( फुडु रइयं चरणपाहुडं चेव ) स्फुटं प्रकटार्थं रचितं चरणप्राभृतं चारित्रसारं । चैव
विशेषार्थ - चारित्र - प्राभृतका उपसंहार करते हुए श्री कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि इस प्रकार ज्ञानस्वभावसे संपन्न केवलज्ञानी - सर्वज्ञ और राग द्वेष मोह आदि अठारह दोषोंसे रहितं वीतराग देवने यहाँ सम्यक्त्व और संयमका आश्रय रखनेवाले दोनों आचारों का - दर्शनाचार और चारित्राचारका उद्देश रूप - नामोल्लेख रूप चारित्रका संक्षेपसे वर्णन किया है। इनका विस्तार वट्टकेर आदिके मूलाचार आदि ग्रन्थों में जानना चाहिये ||४३||
[ २. ४४
गाथार्थ - हे भव्य जीवो ! शुद्धभाव से स्पष्ट रचे हुए चरणप्राभृत तथा दर्शन प्राभृतका खूब चिन्तन करो और उसके फल-स्वरूप शीघ्र ही चतुर्गतियों का त्याग कर स्वल्प कालमें पुनर्भव से रहित सिद्ध हो जाओ ॥ ४४ ॥
विशेषार्थ - कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि हे भव्य जीवो ! हमने चरणप्राभृत ग्रन्थ को रचना शुद्धभाव से को है - रूपाति-लाभ-पूजादि को इच्छासे रहित होकर की है तथा इसमें प्रतिपाद्य पदार्थोंका स्पष्ट निरूपण किया है । अतः इसकी अच्छी तरह भावना करो - इसका खूब
१. वट्टकेरलादी म० ।
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