Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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-२. १५ ] चारित्रप्रामृतम्
( पव्वज्ज संगचाए पयट्ट ) हे जीव ! त्वं प्रव्रज्यायां प्रक्तस्व, कस्मिन् सति ? संगचाए-संगस्य वस्त्रादिपरिग्रहस्य त्यागे सति । तथा हे आत्मन् ! स्वं (सुतवे पयट्ट ) सुतपसि प्रवर्तस्व । कस्मिन् सति ? (सुसंजमे भावे ) शोभनसंयमपरिणामे सति । असंयमिनो मासोपवासादि-युक्तस्यापि सुतपोऽसद्भावात् । तथा ( होइ सुविसुद्धशाणं णिम्मोहे वोयरायत्ते ) भवति सुविशुद्धध्यानं निर्मोहे पुत्रकलबमित्रधनादिव्यामोहवजिते पुरुषे, यस्तु पुत्रादिमोहसहितो भवति तस्य विशिष्टं धर्म्यध्यानं शुक्लध्यान लेशोऽपि न भवति यतः तथा वीतरागत्वे सति सुविशुद्धध्यान भवतीति तात्पर्यम् । उक्तं च योगीन्द्रदेव नाम्ना भट्टारकेण
जसु हरिणच्छी हियवडइ तासु न बंभु विचारि । एक्कहि केम समंति बढ वे खंडा षडियारि ॥
विशेषार्य-यहाँ दीक्षा, सुतप और विशुद्धध्यान की उत्पत्तिके मूल कारणों पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि हे जीव ! तू वस्त्रादि परिग्रहका त्याग होनेपर मुनिदीक्षा में प्रवृत्त हो क्योंकि वस्त्रादिके रहते हुए मुनि दीक्षा संभव नहीं है। इसी प्रकार अन्तरङ्ग में उत्तम संयमरूप परिणामकें होने पर ही सुतप धारण कर क्योंकि असंयमी पुरुषके मासोपवास आदिसे युक्त होने पर भी सुतपका सद्भाव नहीं रहता। सांसारिक भोगोंको आकांक्षासे रहित होकर केवल कर्म-निर्जरा के उद्देश से जो तप होता है वह सुतप कहलाता है । ऐसा सुतप संयम भावके प्रगट होने पर हो हो सकता है। विशिष्ट धर्म्यध्यान और शुक्लध्यानका प्रारम्भिक अंश सुविशुद्धध्यान कहलाता है। यह निर्मोहपूत्र स्त्री मित्र तथा धन आदिके व्यामोह से रहित पुरुषके होता है, इसके विपरीत जो पुरुष पुत्रादि के मोहसे सहित होता है उसके वह संभव नहीं है। निर्मोह मनुष्य के होने वाला वह सुविशुद्ध ध्यान भी वीतराग भावके होने पर ही होता है। यद्यपि पूर्ण वीतरागता दशम गुणस्थानके बादमें होती है तथापि आपेक्षिक वीतरागता छठवें गुण-स्थानसे हो स्वीकृत की गई है। रागी मनुष्यके सुविशुद्धध्यान नहीं होता। इस विषय में योगीन्द्र देव भट्टारक ने परमात्म-प्रकाश में कहा है
जसु-अरे मूर्ख ! जिसके हृदयमें मृगनयनी स्त्री विद्यमान है उसके ब्रह्म-आत्मध्यान नहीं हो सकता, ऐसा विचार कर, क्योंकि एक म्यानमें दो तलवारें कैसे रह सकती हैं ?
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