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-२. १९]
चारित्रामृतम् एते त्रयोऽपि भावा भवन्ति जीवस्य मोहरहितस्य ।
निजगुणमाराधयन् अचिरेणापि कर्म परिहरति ॥ १८ ॥ (एए तिणि वि भावा हवंति जीवस्स मोहरहियस्स ) एते त्रयोऽपि भावाः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणाः परिणामा भवन्ति जीवस्यात्मनः । कथंभूतस्य जीवस्य ? मोहरहितस्य चारित्रमोहात्पञ्चविंशतिभेदादहितस्य वर्जितस्य । ( णियगुणमाराहतो अचिरेण वि कम्म परिहरइ ) निजगुणं शुद्धबुद्ध कस्वभावमात्मगुणं शानध्यानस्वरूपमाराधयन्नचिरेण स्तोककालेन कर्म परिहरति सिद्धो भवति ॥१८॥
संखिज्जमसंखिज्जगुणं च संसारिमेरुमित्ता णं। सम्मत्तमणुचरंता करति दुक्खक्खयं धीरा ॥ १९ ॥
संख्येयामसंख्येयगुणां सर्षपमेरुमात्रां णं।
सम्यक्त्वमनुचरन्तः कुर्वन्ति दुःखक्षयं धीराः ॥१९॥ ( संखिज्ज) संख्येयगुणां निर्जरां सम्यक्त्वं प्रतिपालयन्तो धीरो योगीश्वराः प्राप्नुवन्तीति । ( असंखिज्जगुणं ) असंख्येयगुणां निर्जरां ( अणुचरंता ) चारित्र पालयन्तो धोरा योगीश्वराः । (करंति ) कुर्वन्ति तदनंतरं ( दुक्खक्खयं करंति )
विशेषार्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों आत्माके स्वभाव हैं तथा तोन प्रकार के दर्शन-मोह और पच्चीस प्रकारके चारित्र-मोहसे रहित जीवके होते हैं। जो पुरुष अपने एक शुद्ध बुद्ध स्वभावको लिये हुए जानध्यान स्वरूप आत्मगुण की आराधना करता है वह शीघ्रको कर्मोका क्षय करके सिद्ध होता है ।। १८॥
गाथार्य-सम्यक्त्वका पालन करने वाले धोर वीर योगीश्वर कोको संख्यात-गुणी निर्जरा करते हैं और चारित्रका पालन करनेवाले धीरवीर योगोश्वर कर्मोको असंख्यात गुणी निर्जरा करते हैं। इस निर्जराके बाद वे दुःखोंका क्षय करते हैं । संख्यात-गुणी निर्जरा सरसों के बराबर है तो असंख्यात गुणो निर्जरा मेरु पर्वत के बराबर है ॥१९॥
विशेषार्थ-गुणश्रेणी निर्जराके कारण सम्यग्दर्शन तथा चारित्र गुण हैं । सातिशय मिथ्यादृष्टि जोवके जितनो निर्जरा होती है उससे संख्यात-गुणी निर्जरा सम्यग्दृष्टि जीवके होतो है और इससे असंख्यात गुणो निर्जरा चारित्र गुणके प्रतिपालक धोर वीर यागीश्वरोंके होती है। पारित्र गुणके प्रतिपालक जोवोंके श्रावक, विरत, अनन्तानुबन्धो की विसंयोजना करने वाले, दर्शनमोहका क्षय करनेवाले, असन श्रेणीवाले,
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