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षट्प्राभृते
आगे सत्य महाव्रत की पाँच भावनाएँ कहते हैंकोहभयहास लोहामोहा विवरीयभावणा चैव । विदियस्स भावणाए ए पंचेव य तहा होंति ||३२|| क्रोधभयहासलोभमोहा विपरीतभावनाः चैव ।
द्वितीयस्य भावना इमाः पञ्चैव च तथा भवन्ति ॥ ३२ ॥
( कोहभयहास लोहामोहा ) क्रोधश्च भयंच हासश्च लोभश्च मोहश्च क्रोधभयहासलोभमोहा: । ( विवरीय भावणा चेव ) विपरीतभावनाश्चैव । एतेषां पञ्चानां विपरीतभावनाः अक्रोधनः, अभयः, अहासः, अलोभः अमोहरचेति । उक्तं च गौतमेन भगवता -
[ २.३२
कोण अोहो भयहस्सविवज्जिदो । अणुवीची भासकुसलो विदियं वदमस्सिदो || १ ||
अत्रामोह - शब्देनानुवीची भाषाकुशल इति लभ्यते । वीची वाग्लहरी तामनुकृत्य या भाषा वर्तते सानुवीचीभाषा, जिनसूत्रानुसारिणी भाषा अनुवीचीभाषा पूर्वाचार्यसूत्र परिपाटीमनुल्लङ्घय भाषणीयमित्यर्थः । उक्तं उमास्वामिभट्टारकेण -
गाथार्थ - अक्रोध, अभय, अहास, अलोभ और अमोह ये द्वितीय-सत्य महाव्रत की पाँच भावनाएं हैं ॥ ३२ ॥
विशेषार्थं -असत्य बोलने के कारण निम्न प्रकार हैं- कोध, भय, हास्य लोभ और मोह । इनसे विपरीत अक्रोध, अभय, अहास्य, अलोभ और अमोह की भावना होना सत्य महाव्रत की पाँच भावनाएं हैं। भगवान गौतम ने भी ऐसा ही कहा है।
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अकोहण - द्वितीय सत्य महाव्रत को धारण करने वाला पुरुष अक्रोधन - क्रोध से रहित, अलोभ- लोभ रहित, भय-विवर्जित, हास्य विवर्जित और अनुवीची भाषा में कुशल होता है। मूल गाथा में जो अमोह शब्द है उसी से अनुवोची - भाषा - कुशल यह अर्थ प्राप्त होता है । वीची पूर्वाचार्यों को वचन रूप तरङ्ग को कहते हैं उसका अनुसरण करते हुए जो भाषा बोली जाती है वह अनुवीची भाषा कहलाती है । अनुवीचि - भाषाका स्पष्ट अर्थ यह है कि जिनागमके अनुसार वचन बोलना । सत्य महाव्रत के धारक पुरुषको सदा पूर्वाचार्योंके द्वारा लिखित शास्त्र - परम्परा का. उल्लङ्घन न करके ही वचन बोलना चाहिये ।
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