Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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- १.२१]
चारित्रप्राभृतम्
बुराचर्ममांसरक्तपूयमलमूत्रमूताङ्गिदर्शनतः प्रत्याख्यातान्नसेवनाच्चाण्डालादिदर्शनात्तच्छन्दश्रवणाच्च भोजनं त्यजेत् । सुललित - पुष्पित-स्वादचलितमन्तं त्यजेत् । षोडश प्रहरादुपरि तक्रं दधि च त्यजेत् । द्विदलान्नमिश्रं दघि तक्र स्वादितं सम्यक्त्वमपि मलिनयेत् । ताम्बूलौषवजलं रात्री त्यजेत् । एष सर्वोऽपि ( दंसण ) दर्शन - प्रतिमाचारः । ( वय ) द्वादशव्रतानि, अहिंसा स्थूलवघाद्विरमणं, सत्यं; स्थूलसत्यवचनं, स्थूलमचौर्य, ब्रह्मचर्यं स्वदार संतोषः परदारनिवृत्तिः, कस्यचित् सर्व स्त्रीनिवृत्तिः परिग्रहपरिमाणव्रतं दिग्विदिक्परिमाणविरतिः, अनर्थदण्डपरिहारः, भोगोपभोगपरिमाणमिति गुणव्रतत्रयम्, सामायिकं प्रोषधोपवासः, अतिथिसंविभागः, सल्लेखनामरणं चेति शिक्षाव्रतचतुष्टयम् । ( सामाइय ) त्रिकालसामा
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चाहिये । सोलह प्रहरके बादके तक्र और दहीका त्याग करना चाहिये । द्विदलान्नके साथ मिलाकर खाये हुए दही और तक्र सम्यग्दर्शन को भी मलिन कर देते हैं अतः इनका त्याग करना चाहिये । पान, औषध और पानीका भी रात्रि में त्याग करना चाहिये। यह सभी दर्शन प्रतिमाका आचार है।
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दूसरी प्रतिमाका नाम व्रत प्रतिमा है इसमें निम्न लिखित बारह व्रतोंका पालन करना होता है । पाँच अणुव्रत - अहिंसाणुव्रत अर्थात् स्थूलहंसा का त्याग करना, सत्याणुव्रत अर्थात् स्थूल सत्य वचन बोलना, अचौर्याणुव्रत अर्थात् स्थूल चोरीका त्याग करना, ब्रह्मचर्याणुव्रत अर्थात् अपनी एक स्त्री में संतोष रखना, अथवा अपनी अनेक स्त्रियोंमें संतोष रखते हुए परस्त्रीका त्याग करना, अथवा गृहविरत श्रावक की अपेक्षा सब प्रकार की स्त्रियोंका त्याग करना, परिग्रह परिमाणाणुव्रत अर्थात् आवश्यकतानुसार परिग्रहकी सीमा निश्चित करना । तोनगुणव्रतदिग्व्रत अर्थात् दिशाओं और विदिशाओं में आने जाने की सीमा निर्धारित करना, अनर्थ - दण्ड- परिहार अर्थात् अपध्यान, दुःश्रुति, हिंसादान, पापोपदेश और प्रमाद - चर्या इन पाँच निरर्थक कार्योंसे विरत रहना और भोगोपभोग परिमाण अर्थात् भोग तथा उपभोग की संख्या निश्चित करना और चार शिक्षाव्रत - सामायिक, अर्थात् निश्चित समय तक पञ्च पापोंका स्याग करके समताभाव धारण करना, प्रोषधोपवास अर्थात् अष्टमी चतुर्दशीके दिन उपवास करना अतिथिसंविभाग अर्थात् अतिथियोंके लिये चार प्रकार का दान देना, और सल्लेखनामरण अर्थात् अन्तिम समय सल्लेखना धारण करना तथा निरन्तर उसकी भावना रखना ।
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