Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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—२. १३ ]
चारित्रप्राभृतम्
७३
संसारदुःखकारी धर्मस्तस्मिन्नज्ञानमोहमार्गे श्रद्धां रुचि कुर्वन् । ( जहदि जिणसम्मं ) जिनसम्यक्त्वं जहाति मुञ्चति ॥ १२ ॥
उच्छाहभावणा संपसंससेवा सुदंसणे सद्धा । ण जहदि जिणसम्मत्तं कुव्वंतो णाणमग्गेण ॥ १३॥ उत्साहभावनासं प्रशंसासेवाः सुदर्शने श्रद्धाम् । न जहाति जिनसम्यक्त्वं कुर्वन् ज्ञानमार्गेण ॥ १३ ॥
( उच्छाहभावणा संपसंससेवा सुदंसणे सद्धा ण जहदि जिणसम्मत्त ) - उत्साह - उद्यमस्तं कुर्वन्निति सम्बन्धः । भावणा शरीरात्कर्मणश्चात्मा पृथग्वर्तते इति भेदभावना तां । संपसंस-सम्यक् प्रकारेण मनोवचनकर्मभिः प्रशंसामर्हदादीनां स्तुति कुर्वन् तया सेवां स्नपन पूजन स्तवन जपनादि गुर्वादि पाद संवाहनादिकं च कुर्वन् सुदंसणे सम्यग्दर्शने रत्नत्रयलक्षणमोक्षमार्गे तत्वार्थे च श्रद्धां रुचि कुर्वन् जिनसम्यक्त्वं न जहाति न त्यजति उत्साहादिकं । केन कृत्वा कुर्वन् ? ( णाणमग्गेण ) ज्ञानमार्गेण सम्यग्ज्ञानद्वारेण ।। १३ ।।
छोड़ देता है । अर्थात् जिन प्रतिपादित सम्यक्त्वसे भ्रष्ट हो जाता है ॥ १२ ॥
गाथार्थ - जो ज्ञान-मार्ग अर्थात् सम्यग्ज्ञान के द्वारा सम्यक्त्व-चरणमें उत्साह रखता है, उसीकी भावना करता है, आत्माको शरीर और कर्म - से पृथक् समझता है, अर्हन्त आदि की स्तुति करता है, सुगुरु आदिकी सेवा करता है, और सम्यग्दर्शन में रुचि रखता है वह जिन सम्यक्त्वको नहीं छोड़ता है ॥ १३ ॥
विशेषार्थं - कोन जीव जिनसम्यक्त्व को नहीं छोड़ता है इसकी चर्चा करते हुए कहा गया है कि जो सम्यग्ज्ञानके द्वारा सम्यग्दृष्टि जीवके आचारमें उत्साह रखता है, शरीर और कर्म से आत्मा पृथक है, ऐसी भावना करता है, सम्यक् प्रकारसे मन वचन और काय की चेष्टाके द्वारा अर्हन्त आदिकी स्तुति करता है, स्नपन, पूजन, स्तवन, जपन तथा गुरु आदिके पादमर्दन आदिसे उनकी सेवा करता है और सम्यग्दर्शन, रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग अथवा तत्त्वार्थकी श्रद्धा करता है, वह जिन सम्यक्त्व को नहीं छोड़ता है ॥ १३ ॥
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