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षट्प्राभृते
[ २. १४-१५अण्णाणं मिच्छत्तं वज्जहि गाणे विसुद्धसम्मत्ते। अह मोहं सारम्भं परिहर धम्मे अहिंसाए ॥१४॥
अज्ञानं मिथ्यात्वं वर्जय ज्ञाने विशुद्धसम्यक्त्वे ।
अथ मोहं सारम्भं परिहर धर्मेऽहिंसायाम् ।। १४ ॥ ( अण्णाणं मिच्छत्तं वजहि णाणे विसुद्धसम्मते ) अज्ञानं वर्जय दुरीकुरु, कस्मिन् सति ? णाणे ज्ञाने सम्यग्ज्ञाने सति, अज्ञानस्य ज्ञानं प्रत्यनीकं ततः। मिथ्यात्वं वर्जय, कस्मिन् सति ? सम्यक्त्वे सति, मिथ्यात्वस्य सम्यग्दर्शनं प्रतिबन्धकं यतः । ( अह ) अथानन्तरं । ( मोहं परिहर ) परित्यज । कथंभूतं मोहं ? (सारंभ ) सेवाकृषिवाणिज्याद्यारम्भसहितं । कस्मिन् सति ? (धम्मे ) धर्मे सति चारित्रे सति । तथारम्भं परिहर । कस्यां सत्याम् ? ( अहिंसाए ) अहिं- .. सायां सत्यां पञ्चमहाव्रतानि रात्रिभोजनवजंनषष्ठानि, सर्वाण्यहिंसानिमित्त कथितानि यतः ॥ १४ ॥
पव्वज्ज संगचाए पयट्ट सुतवे सुसंजमे भावे । होइ सुविसुद्धमाणं णिम्मोहे वीयरायत्ते ॥१५॥ प्रव्रज्यायां सङ्गत्यागे प्रवर्तस्व सुतपसि सुसंयमे भावे । भवति सुविशुद्धध्यानं निर्मोहे वीतरागत्वे ॥ १५ ॥
गाथार्य- हे भव्य ! सम्यग्ज्ञानके होने पर अज्ञानको, विशुद्ध सम्यग्र्शनके होने पर मिथ्यात्वको और अहिंसा धर्मके होनेपर आरम्भ सहित मोहको छोड़ो ॥ १४ ॥
विशेषार्थ--सम्यग्ज्ञान अज्ञानका विरोधी है अतः सम्यग्ज्ञान के होने पर अज्ञान को दूर करो। सम्यग्दर्शन मिथ्यात्वका प्रतिबन्धक है अतः सम्यग्दर्शन के होने पर मिथ्यात्वका परित्याग करो और अहिंसा-धर्म चारित्र रूप है अतः उसके होने पर सेवा, कृषि, वाणिज्य आदिके आरम्भसे सहित मोहको छोड़ो। अहिंसाके होने पर पांच महाव्रत तथा रात्रिभोजन-त्याग नामक छठवां अणुव्रत स्वयं हो जाते हैं क्योंकि ये सब अहिंसा के निमित्त कहे हैं ॥ १४॥
गाथार्थ- हे जीव ! तू वस्त्रादि परिग्रहका त्याग होने पर दीक्षामें प्रवृत्त हो और उत्तम संयम भावके होने पर सुतप में प्रवृत्ति कर । जो मनुष्य निर्मोह होता है उसीके वीतरागताके होने पर उत्तम विशुद्ध ध्यान होता है ॥ १५॥
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