Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षट्प्राभृते [२. १६-१७'मूढस्य नालिय बढौ' इति प्राकृतव्याकरणसूत्रम् । मिच्छादसणमग्गे मलिणे अण्णाणमोहदोसेहिं । बझंति मूढजीवा मिच्छत्ता बुद्धिउदएण ॥१६॥
मिथ्यादर्शनमार्गे मलिनेऽज्ञानमोहदोषाभ्याम् । . .
वध्यन्ते मूढजीवाः मिथ्यात्वाबुद्धि-उदयेन ॥ १६ ॥ .. ( मिच्छादसणमग्गे मलिणे) मिथ्यादर्शनमार्गे मलिने पापरूपे सति । कैः कृत्वा ? ( अण्णाणमोहदोसेहिं ) अज्ञानं पञ्चमिथ्यात्व-लक्षणं, मोहः पंच जैनाभास- ' लक्षणः, अज्ञानं च मोहश्चाज्ञानमोहौ तावेव दोषौ ताभ्यामज्ञानमोहदोषाभ्यां ( बझंति ) बध्यन्ते पापैः वेष्ट्यन्ते । के ते ? ( मूढ जीवा ) अज्ञानिनः । केन कृत्वा ? (मिच्छत्ताबुद्धिउदएण) मिथ्यात्वस्याबुद्धश्चाज्ञानस्योदयेन प्रादु-.. भर्भावेन ॥ १६ ॥
सम्मइंसण पस्सदि जाणदि गाणेण दव्वपज्जाया। सम्मेण य सहदि य परिहरदि चरित्जे दोसे ॥ १७ ॥ सम्यग्दर्शनेन पश्यति जानाति ज्ञानेन द्रव्यपर्यायान् । सम्यक्त्वेन च श्रद्दधाति च परिहरति चारित्रजान् दोषान् ॥१७।।
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दोहा में जो बढ शब्द आया है उसका अर्थ मूर्ख होता है क्योंकि 'मुढस्य नालिय बढौ' इस प्राकृत व्याकरणके सूत्रसें मूढ शब्दके स्थान में मालिय और बढ आदेश होते हैं ॥ १५ ॥
गाथार्थ-अज्ञान और मोहरूपी दोषों से मलिन मिथ्यामार्गमें विचरण करने वाले मढजीव-अज्ञानी प्राणी, मिथ्यात्व और अज्ञानके उदयसे बन्धको प्राप्त होते हैं ।। १६ ॥
विशेषार्थ-एकान्त, विपरीत, संशय, अज्ञान और वैनयिक यह पांच प्रकारका मिथ्यात्व अज्ञान कहलाता है तथा पाँच प्रकारके जैनाभासों की प्रवृत्ति करानेवाले विकारभावको मोह कहते हैं। इन दोनों दोषों से मिथ्यादर्शन रूपी मार्ग मलिन हो रहा है। इसमें विचरण करनेवाले अज्ञानी जीव मिथ्यात्व और अबुद्धि-अज्ञान रूप दोषों के उदय होनेके कारणे पापोंसे बद्ध होते हैं ॥१६॥
गाथार्थ-सम्यग्दृष्टि मनुष्य, दर्शन और ज्ञानके द्वारा द्रव्य तथा उनकी पर्यायोंका अच्छी तरह देखता और जानता है । सम्यक्त्व गुणसे उनको श्रद्धा करता है और चारित्र सम्बन्धी दोषोंको दूर करता है।॥ १७॥
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