________________
-१. ३५] दर्शनप्राभृतम् देवोपनीतत्वमिति चेत् ? मगधदेवसन्निधाने तथा परिणामतया भाषया संस्कृतभाषया प्रवर्तते ॥१॥ मैत्री च सर्वजनता-विषया सर्वे जनसमूहाः मागधप्रीतिकरदेवातिशयवशात् मागध-भाषया भाषन्ते परस्पर मित्रतया च वर्तन्ते इति द्वावतिशयो ॥२॥ सर्वनां फलस्तवकाः, सर्वप्नां पल्लवाः, सर्वनां पुष्पाणि सर्वादीना भवन्ति ॥३॥ आदर्शसदृशी रत्नमयी भूमिर्भवति, वायुः पृष्ठत आगच्छति ॥५॥ सर्वलोकस्य परमानन्दो भवति ॥६॥ अग्रेऽग्रे योजनमेकं 'सुगन्धगन्धवहा भूमिभागं प्रमार्जन्ति धूलिकण्टकखटकीटक कर्कर पाषाणादिकं च दूरीकुर्वन्ति ॥७॥ तद्भूम्युपरि मेधकुमारा गन्धोदकं वर्षन्ति ॥८॥ सुवर्णपत्रपद्मरागमणिकेसर-विराजितं योजनमेकं कमलं तादृशचतुर्दशकमलवेष्टितं स्वामिनः पादाधो भवति तादृशानि पद्मानि सप्ताग्रे भवन्ति सप्त पृष्ठतश्च भवन्ति ॥९॥ अष्टादश धान्यानि भूमी निष्पद्यन्ते ॥१०॥ दिश आकाशश्च रजोधूमिकादिग्दाहादिरहिता भवन्ति ॥११॥
होता है और आधा भाग समस्त भाषाओंका रहता है इसलिये उनको भाषाको सर्वार्थमागधी भाषा कहते हैं। भाषामें वह उक्त प्रकारका परिणमन मागधदेवोंके सन्निधानमें होता है इसलिये उसमें देवोपनीतपना बन जाता है । दूसरा अतिशय सब जनतामें मैत्रीभाव का होना है मागधदेवोंके अतिशय के कारण सब लोग परस्पर मागध भाषासे बोलते हैं और प्रीतिकर देवोंके अतिशय से सब लोग परस्परमें मित्रता से रहते हैं। इस . तरह दोनों अतिशय देवकृत अतिशय सिद्ध हैं। सब ऋतुओंके फल और फूलोंके गुच्छे प्रकट होना यह तीसरा देवकृत अतिशय है इसमें वृक्ष आदि वनस्पतियोंके सब ऋतुओंके पल्लव और सब ऋतुओंके पुष्प आदि प्रगट होते हैं । चतुर्थ अतिशयमें पृथिवी दर्पणके समान रत्नमयी हो जाती है । पांचवें अतिशयमें वायु पीठकी ओरसे बहतो है। छठवें अतिशयमें सब लोगों को परम आनन्द होता है । सातवें अतिशय में सुगन्धित वायु आगे आगे एक योजन तकको भूमिको साफ करती रहती है अर्थात् धूलो कंटक . आदिको दूर करती रहती है। आठवें अतिशय में उस साफकी हुई भूमिपर मेघकुमार देव गन्धोदक-सुगन्धित जलको वर्षा करते हैं । नौवें अतिशय में सुवर्णकी कलिकाओं और पद्मरागमणिमय केसरसे सुशोभित एक योजन विस्तार वाला कमल ऐसे हो चौदह कमलोंके साथ भगवान्के पैरके नोचे होता है अर्थात् एक कमल भगवान्के पैरके नीचे और सात सात कमल . आगे पीछे होते हैं। सात सात कमलों की ३२ पक्तियां होती हैं। तथा
१. सुगन्धगन्धा वहा म०।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org