________________
चारित्र प्राभृतम् चारित्र प्राभृत के प्रारम्भ में संस्कृत टीकाकार श्री श्रुतसागर सूरि मङ्गलाचरण करते हुए प्रतिज्ञा वाक्य कहते हैं
सर्वार्थ-सिद्धिप्रदमहंदीशं विद्यादिनन्दं वृषसस्यकन्दम् । मन्दोऽपि नत्वा विवृणोमि भक्त्या चारित्रसारं शृणुतार्यमुख्याः ॥ सव्वण्हू सव्वदंसी णिम्मोहा वीयराय परमेट्ठी। ... वंदित्तु तिजगवंदा अरहंता भव्वजीवेहिं ॥१॥ गाणं दंसण सम्मं चारित्तं सोहि कारणं तेसिं । मुक्खाराहण-हेउं चारित्तं पाहुडं वोच्छे ॥२॥ सर्वज्ञान् सर्वदर्शिनः निर्मोहान् वीतरागान् परमेष्ठिनः । वन्दित्वा त्रिगद्वन्दितान् अर्हतः भव्यजीवैः ।। १॥ ज्ञानं दर्शनं सम्यक्चारित्रं शुद्धिकारणं तेषाम् । मोक्षाराधन-हेतु चारित्र प्राभते वक्ष्ये ॥ २ ॥ ( सव्वण्हू ) सर्वज्ञान् । ( वंदित्त ) वन्दित्वा । ( चारित्त पाहुडं बोच्छे) चारित्रं नाम प्राभृतं चारित्रप्राभृतं चारित्रसारं नाम ग्रन्थं वक्ष्ये । कः कर्ता ? अहं
टीकाकारका मंगलाचरण
अर्थ-हे आर्यजनों में प्रमुख पुरुष हो ! यद्यपि में मन्दबुद्धि हूँ तथापि समस्त प्रयोजनोंकी सिद्धिके दाता अर्हन्त भगवान् को तथा धर्मरूपो धान्यकी उत्पत्तिके मूल कारण विद्यानन्द गुरुको भक्तिपूर्वक नमस्कार करके चरित्रमार-चारित्रप्राभृत ग्रन्थ को टोका लिखता हूँ सो श्रवण करो।
अब श्री कुन्दकुन्दाचार्य ग्रन्थके प्रारम्भमें मङ्गलाचरण करते हुए प्रतिज्ञावाक्य लिखते हैं
गाथार्थ-सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, निर्मोह वीतराग, परम-पदमें स्थित, तीनों जगत के द्वारा वन्दित एवं भव्य जीवोंके द्वारा वन्दनीय अरहन्त भगवान को तथा उनकी विशुद्धताके कारण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको नमस्कार करके मोक्ष प्राप्ति के कारणभूत चारित्र-पाहुडको कहता हूँ॥ १.२॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org