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चारित्रप्राभृतम् असर्वज्ञानसमवेतपुरुषः ४ असर्वज्ञानुष्ठानं ५ असवज्ञा'नुष्ठानसमवेतपुरुषश्चेति ६ शङ्कादयोऽष्ट यथा-शङ्का १ कांक्षा २ विचिकित्सा ३ मूढदृष्टिः ४ अनुपगृहन ५ अस्थितीकरणं ६ अवात्सल्यं ७ अप्रभावना चेति ८ अष्टौ शङ्कादयः ॥ ६ ॥
णिस्संकिय णिक्कंखिय णिविदिगिछा अमूढदिट्ठी य । उवगृहण ठिदिकरणं वच्छल्ल पहावणाय ते अट्ठ॥७॥ निःशङ्कितं निःकांक्षितं निविचिकित्सा अमूढदृष्टिश्च ।। उपगूहनं स्थितोकरणं वात्सल्यं प्रभावना च ते अष्टौ ॥ ७ ॥
(णिस्संकिय) इत्यादि । निःशतिं निर्भयत्वं परदर्शने जैनामासे चामुक्तिमाननत्वं, अञ्जनचोरवज्जिनवधनमाननं च । (णिकक्सिय ) निष्कांक्षितं सम्यक्त्वव्रतादिफलेन राज्यदेवत्वेहभव-सुखेष्टजन-मेलापकत्वादिनिदानस्याकरणं । सीता. नन्तमतिसुतारादिवद् व्रतदाढ्यं च ( णिविदिगिछा) निर्विचिकित्सा रत्नत्रय
शङ्कादिक आठ दोष निम्न प्रकार हैं-१. शङ्का २. कांक्षा ३. विचिकित्मा ४. मूढदृष्टि ५. अनुपगृहन ६. अस्थितीकरण ७. अवात्सल्य और अप्रभावना ॥ ६॥
गाथार्थ-निःशङ्कित १. निःकांक्षित २. निर्विचिकित्सा ३. अमूढ-दृष्टि ४ उपगृहन ५. स्थितीकरण ६. वात्सल्य ७. और प्रभावना ८. ये आठ सम्यक्त्व के गुण हैं ॥७॥
विशेषार्थ-सम्यक्त्वका पहला गुण निःशङ्कित है । सप्तभयसे रहित होना अथवा बौद्ध आदि अन्य दर्शन और जैनाभास मतसे मुक्तिको नहीं मानना तथा अञ्जन चोरके समान जिनेन्द्र देवके वचनोंमें दृढ प्रतीति रखना निःशङ्कित गुण कहलाता है। दूसरा गुण निःकांक्षित है। सम्यक्त्र और व्रत आदिके फल स्वरूप राज्य, देवपर्याय, ऐहलौकिक सुख तथा इष्ट जनोंके मिलने आदिका निदान नहीं करना एवं सीता,
अनन्नमति तथा सुतारा आदिके समान व्रतमें दृढ़ता रखना निकांक्षित - गुण कहलाता है। तीसरा गुण निविचिकित्सा है। रत्नत्रयसे पवित्र मुनि
जनों के शरीर सम्बन्धो मल आदिके देखने से उद्दायन महाराजके समान ग्लानि नहीं करना निर्विचिकित्सा कहलाती है।
चौथा गुण अमढ दृष्टि है। रेवती महादेवी के समान जिनेन्द्र भग. वान्के वचनोंमें शिथिलता नहीं करना अमूढदृष्टि गुण कहलाता है।
१. सर्व मानानुजन म।
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