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षट्प्राभृते
[ १. ३६
ज्योतिर्देवा व्यन्तरदेवा भवनवासिनश्च देवाः सौधर्मेन्द्राज्ञया सर्वेषां देवादीनां समाह्वानं कुर्वन्ति ||१२|| अग्रेऽग्रे धर्मचक्रं गगने गच्छति चक्रवतिचक्रवत् ॥१३॥ चतुर्दशोऽतिशयोऽष्टमङ्गलानि ॥ १४ ॥ भृङ्गारः - सुवर्णलुका, तालो - मञ्जीरः, कलश: कनककुम्भः, ध्वजः पताका । सुप्रीतिका - विचित्रचित्रमयी पूजाद्रव्यस्थापनार्हा स्तम्भाधारकुम्भी, श्वेतच्छत्रं, दर्पणः, चामरं च एतानि प्रत्येकमष्टोत्तर - शतसंख्यानि । एवं चतुर्दशातिशया देवोपनीताः, अष्ट प्रातिहार्याणि च भवन्ति
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अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिदिव्यध्वनिश्चामरमासनं च । भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥
वारसविहतवजुत्ता कम्मं खविऊण विहिबलेण स्सं । वोसट्टचत्तदेहा णिव्वाणमणुत्तरं पत्ता ॥ ३६ ॥
द्वादशविध तपोयुक्ताः कर्म क्षपयित्वा विधिबलेन स्वीयम् । व्युत्सर्गं त्यक्त - देहा निर्वाणमनुत्तरं
प्राप्ताः ॥ ३६ ॥
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बीच का एक कमल । इस प्रकार ३२४७ + १- २२५ कमल कुल होते हैं । दशवें अतिशयमें पृथिवी पर अठारह प्रकारके अनाज उत्पन्न होते हैं । ग्यारहवें अतिशयमें दिशाएँ और आकाश धूली, धूमिका तथा दिग्दाह आदि दोषोंसे रहित होते हैं । बारहवें अतिशय में ज्योतिष्क, व्यन्तर तथा भवनवासी देव सौधर्मेन्द्रकी आज्ञासे सब देवोंका आह्वान करते हैं । तेरहवें अतिशय में चक्रवर्तीके सुदर्शन चक्रके समान भगवान्के आगे आकाशमें धर्मचक्र चलता है और चौदहवें अतिशय मैं अष्ट मङ्गलद्रव्य दृष्टिगोचर होते हैं। सुवर्णं-मय झारी, तालपत्र, सुवर्ण कलश, पताका, सुप्रीतिका ठौना, सफेद छत्र, दर्पण और चमर ये आठ मङ्गल द्रव्य हैं प्रत्येक मङ्गल द्रव्य एकसौ आठ एक सौ आठ रहते हैं । इस प्रकार चौदह अतिशय देवोपनीत हैं ।
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अब आठ प्रतिहार्यं कहते हैं
अशोक वृक्ष - अशोक वृक्ष, देवकृत पुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, चामर, सिंहासन, भामण्डल, दुन्दुभि और छत्रत्रय ये जिनेन्द्र देवके आठ प्रतिहार्य हैं ॥३५॥
गाथार्थ - बारह प्रकारके तपसे युक्त मुनि चारित्र के बलसे अपने कर्मोंका क्षय करके पद्मासन और कायोत्सर्गं इन दो प्रकारके व्युत्सर्गौसे शरीरका त्याग करते हुए सर्वोत्कृष्ट निर्वाणको प्राप्त हुए हैं ॥ ३६॥
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