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“६२ षट्प्राभृते
[२. ३कृतामनन्यसम्भविनीमहणां पूजामहन्तीत्यहन्तस्तानहतः । तया ( भन्यजीवहिं ) भव्यजीवैर्वन्द्या इति सम्बन्धः । ( णाणं दंसणं सम्म चारित्त सोहिकारणं तेंसि ) तेषां सर्वज्ञानां घाति-संघातघातनलक्षणायाः शुद्धः कारणं हेतु नं दर्शनं सम्यक्चारित्रं च कारणं । सम्मं इति शब्द एकत्र गृहीतोऽपि त्रिभिर्योज्यः तेनायमर्थः . सम्यग्ज्ञानं सम्यग्दर्शनं सम्यक्चारित्रं च सर्वेषामपि कर्मणां क्षयकारणं मूलादुन्मूलनस्य हेतुरिति भावः । तेन ( मुक्खाराहण हेउं ) तेन कारणेन मोक्षाराधनाहेतु कारणं । किम् ? ( चारित्त) चारित्र । पाहुडं प्राभृतं सारभूतं शास्त्रमहं वक्ष्ये इति क्रिया कारकसम्बन्धः । जुगलं एतद्गाथाद्वयं युगलं युग्मं वर्तते ।। १-२॥
एए तिण्णि वि भावा हवंति जीवस्स अक्खयामेया। . तिण्हं पि सोहणत्थे जिणभणियं दुविह चारितं ॥ ३॥ एते त्रयोऽपि भावा भवन्ति जीवस्य अक्षया अमेयाः।।
त्रयाणामपि शोधनार्थं जिनणितं द्विविधं चारित्रम् ॥ ३॥ . ( एए तिणि वि भावा ) एते त्रयोऽपि भावा ज्ञान-दर्शन चारित्र-पदास्त्रियः परिणामाः । ( हवंति जीवस्स ) जीवस्यात्मनः सम्बन्धिनो भवन्ति न तु पुद्गल
योग्य होता है। इस तरह चार घातिया कर्मों के नष्ट होनेसे जो अन्य पुरुषों में न पाई जाने वाली अर्हणा-पूजाको प्राप्त हैं वे अरहन्त (अर्हत्) कहलाते हैं। कितनी ही जगह 'अरहंत' के स्थान पर 'अरिहंत' पाठ भी. बोला जाता है जिसका सीधा अर्थ कर्म रूप शत्रुओं का घात करने वाला होता है । अरहन्त भगवान्की इस विशुद्धता का कारण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है अर्थात् इनके प्रभाव से उनके घातिचतुष्क नष्ट होते हैं । चारित्र-पाहुडके प्रारम्भमें कुन्दकुन्द स्वामी अरहन्त परमेष्ठो तथा उक्त रत्नत्रयको नमस्कार कर मोक्ष प्राप्ति का प्रमुख कारण जो सम्यक्चारित्र है, उसका निरूपण करने वाले भाव पाहुड ग्रन्थ को कहने की प्रतिज्ञा करते हैं ॥ १-२॥ __गाथार्थ-ये तीनों भाव जोवके अविनाशी और अपरिमेय भाव हैं। इन तीनों भावों को शुद्धिके लिये जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहा हुआ दो प्रकारका चारित्र है ॥ ३॥
विशेषार्थ-ज्ञान, दर्शन और चारित्र ये तीनों भाव जीव अर्थात् आत्मा के परिणाम हैं, पुद्गलके नहीं हैं । ये तीनों भाव अक्षय-अविनश्वर और अमेय-अमर्यादित-अनन्तानन्त हैं। यदि यहाँ कोई कहे किशानमें अनन्तपना तो ठीक है क्योंकि वह लोक और अलोकमें व्याप्त है परन्तु
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