Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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-१.३२] दर्शनप्राभृतम् प्रतिपालयन्नपि पुमानचारित्रो भवति । ( चरणाओ होइ णिव्वाणं ) चरणाच्चारिवान्निर्वाणं सर्वकर्मक्षयलक्षणो मोक्षो भवति । तेन सर्वेभ्यो दर्शनमुत्कृष्टमिति ज्ञातव्यम् ॥३१॥
णाणम्मि दंसणम्मि य तवेण चरिएण सम्मसहिएण। 'चउण्हंवि समाजोगे सिद्धा जीवा ण संदेहो ॥३२॥
ज्ञाने दर्शने च तपसा चारित्रेण सम्यक्त्वसहितेन ।
चतुर्णामपि समायोगे सिद्धा जीवा न संदेहः ॥३२॥ ( णाणम्मि ) ज्ञाने सति । ( दंसणम्मि य ) दर्शने च सति ( तवेण ) तपसा कृत्वा । ( चरिएण ) चरितेन चारित्रण कृत्वा । ( सम्मसहिएण) सम्यक्त्वसहितेन । ज्ञानं तपश्चारित्रं च व्यथं सम्यक्त्वं विना । तेन (चरहँपि समाजोगे ) चतुर्णा समायोगे मेलापके सति । (सिद्धा जीवा ण सदेहो) जीवाः सिद्धा मुक्ति गता अत्र सन्देहो नास्ति।
विशेषार्थ-गाथा में आये हुए नर शब्द से मनुष्य अर्थ न लेकर जीव सामान्य लिया है । जीवमात्र के जीवन में ज्ञान एक सार-पूर्ण गुण है, उस ज्ञान की अपेक्षा सारपूर्ण गुण सम्यक्त्व है क्योंकि सम्यक्त्व से चारित्र होता है, बिना सम्यक्त्व के चारित्र का पालन करता हुआ भी पुरुष चारित्र से रहित कहा जाता है और चारित्र से समस्त कर्म-क्षयरूप लक्षण से युक्त मोक्ष होता है । इसलिये सम्यग्दर्शन सबसे उत्कृष्ट है, ऐसा जानना चाहिये ॥३१॥
गाथार्थ-सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्तप और सम्यक्चारित्र इन चारों के मिलने पर जीव सिद्ध होते हैं इसमें संदेह नहीं है ॥३२॥ . .विशेषार्य-सम्यक्त्व अर्थात् यथार्थता से सहित ज्ञान, दर्शन, तप
और चारित्र इन चारों का समायोग-मेल होने पर ही जीव सिद्ध होते हैं मुंक्ति को प्राप्त होते हैं। सम्यक्त्व से रहित ज्ञान दर्शनादि मुक्ति के कारण नहीं हैं और न पृथक् पृथक् ही मुक्ति के कारण हैं किन्तु चारों का मेल होने पर ही मुक्ति प्राप्त होती है, इसमें सन्देह नहीं है । ऐसा ही
. कहा है
१. गोपि म०।
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