Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षट्प्राभृते
[ १. ३३
तथा चोक्तं
हतं ज्ञानं क्रिया शून्यं हता चाज्ञानिनः क्रिया । धावन्नप्यन्धको नष्टः पश्यन्नपि च पङ गुरुः ॥ तथा चार्हता :
ज्ञानं पङ्गी क्रिया चान्धे निःश्रद्धे नार्थंकृद्वयम् । ततो ज्ञान-क्रिया- श्रद्धात्रयं तत्पदकारणम् ।। कल्लाणपरंपरया लहंति जीवा विसुद्ध सम्मत्तं । सम्मदंसण रयणं अग्घेदि सुरासुरे लोए ॥३३॥ कल्याणं परम्परया लभन्ते जीवा विशुद्धसम्यक्त्वम् । सम्यग्दर्शन - रत्नं अर्घ्यते सुरासुरे लोके ॥३३॥
( कल्लाणपरंपरया लहंति जीवा विसुद्ध सम्मत्तं ) कल्याणानां गर्भावतार - जन्माभिषेक - निष्क्रमण - ज्ञाननिर्वाणानां परम्परया श्रेण्या सह जीवा भव्यप्राणिनो विशुद्ध-सम्यक्त्वं निरतिचार - सम्यक्त्वं प्राप्नुवन्ति । यदैव जीवः सदृष्टिर्भवति
हतं ज्ञानं -- क्रिया अर्थात् चारित्र से शून्य ज्ञान नष्ट है और अकार्यकारी है और ज्ञान- शून्य मनुष्य की क्रिया नष्ट है --अकार्य-कारी है, अन्धा मनुष्य दौड़ता हुआ भी नष्ट होता है और लंगड़ा मनुष्य देखता हुआ भी अग्नि में नष्ट हो जाता है ।
ऐसा ही आर्हत- जैन कहते हैं-
ज्ञानं पङ्गौ--लंगड़े मनुष्य का ज्ञान, अन्धे मनुष्य की क्रिया और श्रद्धा हीन मनुष्य की दोनों ही वस्तुएं कार्यकारी नहीं हैं । इसलिये क्रिया, ज्ञान और श्रद्धा इन तीनों की एकता ही मोक्षपद का कारण है ||३२||
गाथार्थ - भव्य जोव कल्याणों के समूह के साथ निर्दोष सम्यक्त्व को प्राप्त होते हैं । देवदानवों के भुवन में सम्यग्दर्शन रूप रत्न सबके द्वारा पूजा जाता है ||३३||
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भी प्राप्त होते हैं ।
विशेषार्थ -- गर्भावतार, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण ये पाँच कल्याणक हैं । भव्य जीव निरतिचार सम्यक्त्व को प्राप्त होते हैं, और उसके साथ ही गर्भावतार आदि पाँच कल्याणकों को उक्त कल्याणक तीर्थंकर परम देव के होते हैं । तात्पर्य यह है कि जब तभी तीर्थंकर परमदेव होते हैं। तीर्थंकर बनने होना अत्यन्त आवश्यक है । देव और दानवों
जीव सम्यग्दृष्टि होते हैं के लिये दर्शन - विशुद्धि का
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