Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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- १.२२ ]
दर्शनप्राभृतम्
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पुनरपि कथंभूतं दर्शन - रत्नम् ? ( सोवाणं ) सोपानं पादारोपणस्थानम् । कतिसंख्योपेतम् ? ( पढम ) प्रथमं अद्वितीयम् । कस्य ? ( मोक्खस्स ) मोक्षस्य परमनिर्वाणस्य ॥२१॥
जं सक्कइतं कीरइ जं च ण सक्केइ तं च सद्दहणं । केवलिजिणेहिं भणियं सहमाणस्स सम्मतं ॥ २२॥
यत् शक्यते तत् क्रियते यच्च न शक्येत तस्य च श्रद्धानम् । केवलजिनंर्भणितं श्रद्दधानस्य सम्यक्त्वम् ॥२२॥
( जं सक्कइ तं कीरइ ) यच्छक्नोति तत् क्रियते विधीयते । ( जं च ण सक्केइ ) यच्च न शक्नुयात् यत् कर्तुं न शक्नोति । ( तं च सद्दहणं) तस्य श्रद्धानं तस्य
प्राप्त है, अतः उसे मोक्षमार्ग का का नाम है। अतः सम्यग्दर्शन वाला है।
कर्णधार कहते हैं । कर्णधार खेवटिया संसाररूपी सागर में पार लगाने
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गाथार्थ - जो कार्य किया जा सकता है वह किया जाता है और जिसका किया जाना शक्य नहीं है उसका श्रद्धान करना चाहिये । केवलज्ञानी जिनेन्द्र भगवान् ने श्रद्धान करनेवाले पुरुषको सम्यग्दर्शन कहा है ||२२||
विशेषार्थ - जो ज्ञानाचार अथवा चारित्राचार किया जा सकता है उसका पालन करना चाहिये, और जो नहीं किया 'सकता है अर्थात् शारीरिक संहनन और तात्कालिक परिस्थिति की अनुकूलता के अभाव में जिसका किया जाना संभव नहीं है उसकी श्रद्धा करनी चाहिये; क्योंकि श्रद्धान करनेवाले पुरुष के सम्यक्त्व होता है, ऐसा केवलज्ञानी तीर्थंकर परम देव ने कहा है । तीर्थंकर के साथ केवली विशेषण देने का खास प्रयोजन यह है कि तीर्थंकर भगवान् केवलज्ञान के बिना उपदेश नहीं करते हैं । दीक्षा लेने के बाद केवलज्ञान की प्राप्ति पर्यन्त का काल छद्मस्थ काल कहलाता है । इस छद्मस्थ काल में तीर्थंकर भगवान् मौन से रहते हैं । वे केवलज्ञान प्राप्त होने पर समवसरण में ही दिव्यध्वनि द्वारा धर्मोपदेश करते हैं । तीर्थंकर केवली के सिवाय जो अन्य मुनियों का उपदेश है उसे 'अनुवाद रूप ही जानना चाहिये अर्थात् केवलज्ञानी
१. अर्थ ज्ञात्वा पश्चाद्वदनम् अनुवाद:, (क० टि० )
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