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आग्नमो
नमो निम्मलदंसणस्स
ॐ पूज्य आनंद - क्षमा- ललित - सुशील-सुधर्मसागर - गुरुभ्यो नमः
सवृत्तिक- आगम-सुत्ताणि
आगम
आगम
आगम ०२
‘सूत्रकृत्’ मूलं एवं वृत्तिः [२]
आग
~1~
पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से 'वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था' पालिताणा
भाग
04
आगम
आगम आगम आगम आगम आगम आगम आगम मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब अभिनव-संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D.
आगर
आगम
3110111
भागम
6301711
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ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
HaiMHINHASHAN
श्री आगम मंदिर
पालिताणा
A
LAN
HOMEONE
AKSHATRIORAIPLOMIRATERTENSITIATIRAT
Hitdaisonli-Dhirontists
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नमो नमो निम्मलदसणस्स
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
मूल संशोधक
अभिनव-संकलनकर्ता
ANTATAPPINTAKE
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महायजा
आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी EM.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
प्रत-प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका
मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855/98253062751
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ਹਾਸ ਬਾਗ
ਬਸ ਹਸ
ਹਸ਼ ਨੂੰ ਮਕਰ ਸ਼ਸ
ਜਾਲ ਨੂੰ
ਕਾਲ ,
ਹਸ
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ਸਾਹਸ
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वाचना शताब्दी वर्ष मना
ਧਾਲੂ ਭਾਸ਼
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[भाग-०४] श्री सूत्रकृताङ्गसूत्रम् भाग-२
नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम:
“सूत्रकृत्" मूलं एवं वृत्ति: [मूलं + भद्रबाहुस्वामी कृत् नियुक्ति; + शिलांकाचार्य रचित वृत्तिः]
श्रुतस्कंध-१, अध्ययन- १४ से १६ एवं श्रुतस्कंध-२
[आद्य संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ]
(किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता, मुनि दीपरत्नसागर (M.com., M.Ed., Ph.D.)
28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५
'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग-४
श्री आगमोद्धारक-वाचना-शताब्दी-वर्ष-निमित्त 'आगम-वृत्ति-मुद्रण-प्रोजेक्ट'
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___सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र-मेधावी, समाधिमृत्यु-प्राप्त, बहुमुखीप्रतिभाधारक पज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसरीश्वरजी महाराज साहेब
.जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक-श्रत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के दवारा कायोत्सर्ग नामक अभ्यंतर: तप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फ़िर भी गुरुभक्ति बुद्धि से : | श्रद्धांजली स्वरुप एक मामुली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है।
. चारित्र-ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ कर्मो का प्रभाव मानकर : | अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हुए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज एकासणा तप के साथ | बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया | लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, प्राचीन लिपिओ का, व्याकरणन्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए|
.एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े देवदिगणी! क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर. बिना किसी सहाय लिए हुए सिर्फ अकेले ही "जैन-आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक हस्तप्रतो से शुद्ध-पाठ | तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और नियुक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया | फिर पालीताणामें आगम । : मंदिर बनवाकर आरस-पत्थर के ऊपर ये सभी आगम-साहित्य को कंडारा, सूरतमें तामपत्र पर भी अंकित करवाए और “आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा | के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए | वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ |
.सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, नियुक्ति, अव चूरी, संस्कृत- छाया आदि का भी | संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकृत नए ग्रंथो की रचना भी की | कितने ही ग्रंथो की प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक्-श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की।
.ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक-दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं को प्रतिबोध: कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन-प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य-संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे सत्य-पक्षमें अंत तक दृढ़ • रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था।
सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ७०० साधु-साध्वीजी भी शासन को भेट किये । ....ये थे हमारे गुरुदेव "सागरजी"...
......मुनि दीपरत्नसागर...:
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संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र - मार्ग-रागी, प्रवचन- पटु, सुपरिवार-युक्त पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब
••• परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी, जो एक पून्यवान् आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये । फ़िर क्या । शिष्यो कि संख्या बढती चली, बढ़ते हुए पुन्य के साथ-साथ वे आखि ‘गच्छाधिपति' पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान तप' की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापुन्य के कारण उन के उपदेश प्राप्त बहोत आत्माओने संयम मार्ग का स्वीकार किया | खुद भी संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था । आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, वे खुद अकेले या शिष्य: परिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे |
*** ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेलु दिखाए | एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवनमें देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम' कैसी भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष} दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि आराधना कभी नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही रटण बारबार चालु हो गया" अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनुं शरण " इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे समाधि-मृत्यु- रूप सम्यक् निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना |
••• मुनि दीपरत्नसागर...
श्री वर्धमान जैन आगम
मंदिर संस्था, पालिताणा पूज्यपाद आनंदसागर-सूरीश्वरजी की बौद्धिक प्रतिभा का मूर्तिमंत स्वरुप ऐसी इस संस्था की स्थापना विक्रम संवत १९९९ मे महा-वद ५ को हुई | आचार्य हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से जिन की तरफ़ से इस सवृत्तिक- आगम-सुत्ताणि के लिए संपूर्ण द्रव्य-सहाय की प्राप्ति हुइ |
शिल्प-स्थापत्य, शिलोत्कीर्ण आगम और समवसरण स्थित नयनरम्य ४५ चौमुख जिन प्रतिमाजी से सुशोभित ऐसा ये 'आगममंदिर' है, जो शत्रुंजयगिरिराज कि तलेटीमे स्थित है । वर्तमान २४ जिनवर, २० विहरमान जिनवर और १ शाश्वत मिलाकर ४५ चौमुखजी यहा बिराजमान है। जहां ४० समवसरण की रचना मेरु पर्वत के तिनो काण्ड के वर्णों के अनुसार चार अलग-अलग रंगो के आरस पत्थर से बना है, देवो द्वारा रचित समवसरण के शास्त्र वर्णन अनुसार आगम मंदिर कि समवसरण का स्थापत्य है । ऐसी अनेक विशेषता से युक्त ये आगममंदिर है ।
*** मुनि दीपरत्नसागर...
7~
पूज्य :
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'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ-उद्धार-कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ४० के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादाता पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब
पज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर-सरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु । | संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि" के मद्रण के लिए संपूर्ण द्रव्यराशि प्राप्त हुई। उनका अत्यल्प परिचय यहां
करेंगे| समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीन| अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान-क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं समय मिलने पर शास्त्र-वांचनमें। :भी रूचि रखते है | समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर का वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटे-छोटे कार्यो ।
के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के पुराने जिनालयो में १८ अभिषेक की प्रेरणा की, उस | | वक्त लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हए अपनी मेधावी बुद्धि का परिचय दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से पुजारी या विधि
करानेवाले को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हुए कुछ धन-राशि प्रदान करवाई। | ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर-सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है।
- मुनि दीपरत्नसागर ।
[कात्रेज]पूना, शंखेश्वर, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यासु, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर-सूरीश्वरजी महाराज साहेब
(एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय-रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र
परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर-सूरिजी महाराज साहेब इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ .-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-.-. -.
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मूलांक:
००१
०२८
०६०
०७६
१११
मूलाका ८०६
१४३
विषय:
श्रुतस्कंध १
-1 अध्ययनं १ समयं
उद्देशक :- १- पञ्च महाभूतः, - आत्माद्वैत, देहात्म,
- आत्माषष्ठ एवं अफालवाद:
उद्देशक :- २- नियति, अज्ञान,
-ज्ञान एवं क्रिया वादः
-
- असर्वज्ञवाद:, अहिंसा, चर्यादि * अध्ययनं २ वैतालियं
०८९
उद्देशक:- ३- जगत्कर्तृत्व,
| त्रैराशिक एवं अनुष्ठानवादः उद्देशक:-४- लोकवादः
उद्देशक:- १- मनुष्यभवस्यदुर्लभत्वं, - मोहादि निर्वृतिः. -प्रथमं महाव्रतं आदिः उद्देशक :- २ परिसह कषाय-जय -परिग्रह-परिचयादी - निषेध: -समितिवर्णनम्
उद्देशक :- ३- मुक्तिहेतु:, महाव्रतमाहात्म्यं, कर्म फल-संवर एवं निर्जरादि:
सूत्रकृताङ्ग सूत्रस्य विषयानुक्रम भाग - १ और २
विषय:
पृष्ठांक
अध्ययनं ३ उपसर्गः
पृष्ठांक
०१२
मूलांक:
*
१६५
१८२
२०४
२२५
उद्देशक :- १ प्रतिकुल उपसर्ग:
उद्देशक:-२- अनुकूल उपसर्ग: उद्देशक:- ३- परवादी वचनात् आदिवं
उद्देशक:- ४- यथावस्थित अर्थप्ररूपणं
अध्ययनं ४ स्त्रीपरिज्ञा
२४७
उद्देशक :- १.२ स्त्री परिषहः *-1 अध्ययनं ५ नरकविभक्तिः उद्देशक:- १- नरकवेदना
३००
३२७
उद्देशक :- २ - चतुर्गतिभ्रमणं * अध्ययनं ६ वीरस्तुतिः - महावीरप्रभोः गुणवर्णनं
३५२
* - अध्ययनं ७ कशील परिभाषा
३८१
| - हिंसा एवं तत् कर्मफलं, -बोधि दुर्लभत्वं
- स्वसमय परसमय वर्णनं,
-आहार विधि-निषेध:
४११
- अध्ययनं ८ वीर्य
मूलांक: *
४३७
~9~
४७३
४९७
*
५३५
५५७
*
-
५८०
-
- मोक्ष एवं बंधस्वरूपं,
-मद त्याग उपदेश: अध्ययनं १४ ग्रन्थः अपरिग्रह-ब्रह्मचर्य उपदेश:, -प्रश्नोत्तरविधिः, भाषाविवेकः, - सूत्रोच्चारणं व अर्थप्रतिपादनं
- वीर्यस्य भेदवर्णनं, बाल एवं
पंडित वीर्यम्
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ... आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
-
निर्युक्ति गाथा: २०५
विषय:
अध्ययनं ९ धर्म
-धर्म स्वरूपं, हिंसादिपंचकस्य
त्यागस्य उपदेश:, अनाचारत्यागः, प्रव्रज्याविधानं
अध्ययनं १० समाधि: - प्राणातिपात आदि विरमणम्, -आधाकर्माहार-स्त्री संगतिः एवं निदानादे: निषेध:, - एकत्व आदि भावनास्वरूपं अध्ययनं ११ मार्ग:
- मोक्षमार्गः, विरतिउपदेशः, -भावसमाधि:
अध्ययनं १२ समवसरणं
- अज्ञानादि-वादं भवभ्रमण हेतुः
- अनासक्ति उपदेश:
अध्ययनं १३ यथातथ्यं
पृष्ठांक
०१२
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| मूलांक
०३५
मूलाङ्का: ८०६ मूलांक:
विषय: *- अध्ययनं १५ आदानं ६०७ -मोक्षस्य उपाया:,
-भवभमणनिषेध हेतुः *- अध्ययनं १६ गाथा ६३२ |-अनगार स्वरूपं
____ श्रुतस्कंध-२ *- अध्ययनं १ पुण्डरिक ६३३ | -पुण्डरिक-उद्धरणं दृष्टांत एवं
तद् भावस्य कथनं, देहात्मपञ्चमहाभूत-कारणिक आदि वाद कथनं
सूत्रकृताङ्ग सूत्रस्य विषयानक्रम भाग-१ और २ निर्यक्ति गाथा: २०५ पृष्ठांक:
विषय: पृष्ठांक: | मूलांक:
विषय: | पृष्ठांक:| *- अध्ययनं २ क्रियास्थानं
१३८
*- अध्ययनं ५ आचारश्रुतं २७२ ६४८ -त्रयोदश क्रियास्थानानि
७०५ -अनेकान्त वचनप्रयोगकरणं *-अध्ययनं ३ आहारपरिज्ञा
-जीव अजीव आदि तत्त्वस्य ६७५ -विविध वनस्पतिकायस्य
अस्तित्व-स्वीकार: उत्पति, तस्य आहारविधि:
*- अध्ययनं ६ आर्द्रकीयं -जीवोत्पत्ति: तस्य आहार एवं
७३८ -गोशालक एवं आर्द्रकुमारस्य ०६५ शरीर वर्णनं
परस्पर वार्ता, शाक्य भिक्षु*- अध्ययनं ४ प्रत्याख्यानं
सार्धं आर्द्रकुमारस्य संवादः -अप्रत्याख्यान स्वरूप,
अध्ययनं नालंदीयं -प्रत्याख्यान हेतुः, षड् जीव
-पेढालपुत्र एवं गौतमस्य निकाय हिंसा विरमणं
परस्पर वार्ता
३०१
०६४
७९३
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित...आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्ति: ।
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[सुत्रकृत् - मूलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “सूत्रकृताङ्गसूत्र” के नामसे सन १९१७ (विक्रम संवत १९७३) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब |
इसी प्रत को फिर अपने नामसे 'जिनशासन आराधना ट्रस्ट' की तरफ से आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, ऊपर अपना नाम एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. यह स्पष्ट रूपसे एक प्रकारसे अदत्तादान ही है, ऐसी अनेक प्रतो के अगले दो पेज पलटकर या नए डालकर उन्होंने अपने नामसे छपवाइ है, इस तरह वो अपने आपको बड़ा आगम संरक्षक साबित करनेकी अनुचित चेष्टा कर चुके है |
इसी सत्रकतांगसत्र की प्रत को ऑफसेट की मदद से आचार्य श्री नयचंद्रसागरसूरिजीने भी छपवाया है, समुदाय की वफादारी निभाते हए इस पूज्यश्रीने पूज्य सागरानंदसूरीश्वरजी महाराजश्री का नाम बड़ी इज्जत के साथ अपनी जगह पे ही रखा है, और खुदका नाम पुन: संपादक रूप से पेश किया है | अपनी प्रस्तावनामें नयचंद्रसागरसूरिजी ने भी मेरी तरह उक्त बात का उल्लेख किया है।
इसी सूत्रकृतांगसूत्र की प्रत को ऑफसेट की मदद से पूज्य जम्बूविजयजी महाराजजीने श्री मोतीलाल बनारसीदास की तरफसे प्रकाशित करवाई है, जो की पुस्तक रूपसे बाईंडेड है, और परिशिष्टमें पूज्य श्री पन्यविजयजी संकलित शुद्धि-वृद्धि पत्रक दिया है।
* हमारा ये प्रयास क्यों? - आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर श्रुतस्कंध-अध्ययन-उद्देशक-मूलसूत्र-नियुक्ति आदि के नंबर लिख दिए, ताकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, उद्देशक आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस [-] दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है| अनेक पृष्ठो के नीचे विशिष्ठ फूटनोट लिखी है |
शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म.सा. की प्रेरणासे और श्री वर्धमान जैन आगममंदिर, पालिताणा की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' भाग-४ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है ।
___.....मुनि दीपरत्नसागर.
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आगम
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक -, मूलं [२३...], नियुक्ति: [१२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२, अंग सूत्र-[२] "सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
अथ ग्रन्थनामकं चतुर्दशमध्ययनं प्रारभ्यते ।
प्रत सूत्रांक ||२३||
दीप अनुक्रम [५७९]
| उक्तं त्रयोदशमध्ययनं, साम्प्रतं चतुर्दशमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः-इहानन्तराध्ययने याथातथ्यमिति सम्यकचारित्रम| भिहितं, तम याद्याभ्यन्तरग्रन्थपरित्यागादवदातं भवति, तत्यागानेनाध्ययनेन प्रतिपाद्यत इत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्वाध्यय-18 |नस्य चखायनुयोगद्वाराण्युपक्रमादीनि भवन्ति, तत्रोपक्रमद्वारान्तर्गतोऽर्थाधिकारोऽयं, तद्यथा-सबाह्याभ्यन्तरग्रन्थपरित्यागी वि-13 धेय इति । नामनिष्पने तु निक्षेपे आदानपदाद्गुणनिष्पन्नखाच ग्रन्थ इति नाम, तं ग्रन्थमधिकृत्य नियुक्तिकदाह
गंधो पुज्युष्टिो दुविहो सिस्सोय होति णायचो । पब्वावण सिक्खावण पगयं सिक्खावणाए उ ॥ १२७॥ 8 सो सिक्खगो य दुविहो गहणे आसेवणाय णापब्बो । गहणमि होति तिथिहो सुत्ते अत्थे तदुभए य ॥१२८॥ 18| आसेवणाय दुविहो मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य । मूलगुणे पंचविहो उत्तरगुण बारसविहो उ ॥ १२९ ॥ IK आयरिओऽविय दुविहो पब्वावंतो व सिक्खचंतो य । सिक्खाचतो दुविहो गहणे आसेवणे चेव ।। १३०॥
गाहार्वितो तिविहो सुत्ते अत्थे य तदुभए चेव । मूलगुण उत्तरगुणे दुविहो आसेवणाए उ ॥ १३१ ॥ 1 ग्रन्थो द्रव्यभावभेदभिन्नः क्षुल्लकनैर्ग्रन्थ्यं नाम उत्तराध्ययनेष्वध्ययनं तत्र पूर्वमेव सप्रपञ्चोऽभिहितः, इह तु ग्रन्थं द्रव्यभाव
भेदभिन्नं यः परित्यजति शिष्य आचारादिकं वा ग्रन्थं योऽधीतेऽसौ अभिधीयते, स शिष्यो 'द्विविधो द्विप्रकारो ज्ञातव्यो भव-181
deseserpenercedeseseserverseseces
FuParsonTAPramunomy
अत्र चतुर्दशं अध्ययनं “ग्रन्थ आरब्धं, पूर्व-अध्ययनेन सह अभिसंबंध:, ग्रन्थ शब्दस्य निक्षेपा:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक -1, मूलं [२३...], नियुक्ति: [१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-०२] "सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
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मृत्रकता ति, तद्यथा-प्रव्रज्यया शिक्षया च, यस्य प्रत्रज्या दीयते शिक्षा वा यो ग्राह्यते स द्विप्रकारोऽपि शिष्यः, इह [त] पुनः शिक्षाशि-/१४ ग्रन्थाशीलाका- येण 'प्रकृतम्' अधिकारो यः शिक्षां गृह्णाति शैक्षकः तच्छिक्षयेह प्रस्ताव इत्यर्थः । यथाप्रतिज्ञातमधिकृत्याह-यः शिक्षा गृहाति ध्ययन
18 शैक्षकः स द्विविधो-द्विप्रकारो भवति, तद्यथा-ग्रहणे प्रथममेवाचार्यादेः सकाशाच्छिक्षां-इच्छामिच्छातहकारादिरूषां गृह्णाति || चियुतं शिक्षति, तथा शिक्षितां चाभ्यस्थति-अहर्निशमनुतिष्ठति स एवंविधो ग्रहणासेवनाभेदभिन्नः शिष्यो ज्ञातव्यो भवति, तत्रापि
ग्रहणपूर्वकमासेवनमितिकृताऽऽदावेव ग्रहणशिधामाह-शिक्षाया 'ग्रहणे' उपादानेऽधिकृते त्रिविधो भवति शैक्षकः, तद्यथा-18 1॥२४॥
| सूत्रेऽर्थे तदुभये च, मूत्रादीन्यादावेव गृहन् सूत्रादिशिक्षको भवतीति भावः ।। साम्प्रतं ग्रहणोत्तरकालभाविनीमासेवनाम|धिकृत्याह-यथावस्थितमूत्रानुष्ठानमासेवना तया करणभूतया द्विविधो भवति शिक्षक, तद्यथा-'मूलगुणे' मूलगुणविषये आसेब| मानः-सम्यगमूलगुणानामनुष्ठानं कुर्वन् तथा 'उत्तरगुणे च' उत्तरगुणविषयं सम्यगनुष्ठानं कुर्वाणो द्विरूपोऽप्यासेवनाशिक्षको भवति, तत्रापि मूलगुणे पश्चप्रकार:-प्राणातिपातादिविरतिमासेवमानः पञ्चमहाव्रतधारणात्पञ्चविधो भवति मूलगुणेष्वासेवनाशिक्षका, तथोत्तरगुणविषये सभ्यपिण्डविशुद्धयादिकान् गुणानासेवमान उत्तरगुणासेवनाशिक्षको भवति, ते चामी उत्तरगुणा:'पिंडस्स जा विसोही समिईओ भावणा तवो दुविहो । पडिमा अभिग्गहाविय उत्तरगुणमो वियाणाहि ॥१॥ यदिवा सेत्स्यप्यन्येघूत्तरगुणेषु प्रधाननिर्जराहेतुतया तप एव द्वादशविधमुत्तरगुणवेनाधिकृत्याह-'उत्तरगुणे उत्तरगुणविषये तपो द्वादशभेदमिन्नं
॥२४॥ IS यः सम्यग् विद्यते स आसेवनाशिक्षको भवतीति ।। शिष्यो खाचार्यमन्तरेण न भवत्यत आचार्यनिरूपणमा(णाया)ह-शिष्यापेक्षया
पिण्डस्य वा विशोधिः समितयो भावनालपो द्विविधम् । प्रतिमा अभिग्रहा अपि चोत्तरगुणा (इति) विजानीहि ॥ १॥ २ सत्सप्यते प्र० ।
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दीप
अनुक्रम [५७९]
ग्रन्थ शब्दस्य निक्षेपा:, ग्रहण-आसेवन शिक्षा,
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आगम (०२)
“सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [१], नियुक्ति: [१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-०२] "सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||१||
అలాంటిది
दीप अनुक्रम [५८०]
हि आचार्यो 'द्विविधो द्विभेदः, एको यः प्रव्रज्या ग्राहयत्यपरस्तु यः शिक्षामिति, शिक्षयबपि द्विविधः-एको यः शिक्षाशास्त्र ग्राहयति-पाठयत्यपरस्तु तदर्थ दशविधचक्रवालसामाचार्यनुष्ठानतः सेवयति-सम्यगनुष्ठानं कारयति । तत्र सूत्रार्थतदुभयभेदाद् ग्राहयन्नप्याचार्यविधा भवति । आसेवनाचार्योऽपि मूलोचरगुणभेदाद्विविधो भवति । गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, तदनन्तरं कस्तं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारयितव्यं, तच्चेदम्
गंथं विहाय इह सिक्खमाणो, उहाय सुबंभचेरं वसेजा। ओवायकारी विणयं सुसिक्खे, जे छेय विप्पमायं न कुज्जा ॥१॥जहा दियापोतमपत्तजातं, सावासगा पवित्रं मन्नमाणं । तमचाइयं तरुणमपत्तजातं, ढंकाइ अवत्तगम हरेजा ॥२॥ एवं तु सेहंपि अपुट्रधम्म, निस्सारियं बुसिमं मन्नमाणा । दियस्स छायं व अपत्तजार्य, हरिंसु णं पावधम्मा अणेगे ॥३॥
ओसाणमिच्छे मणुए समाहिं, अणोसिए गंतकरिति णच्चा। ओभासमाणे दवियस्स वित्तं, ण णिकसे बहिया आसुपन्नो ॥ ४॥ 'इव्ह' प्रवचने ज्ञातसंसारस्वभावः सन् सम्यगुत्थानेनोस्थितो अथ्यते आत्मा येन स ग्रन्थो-धनधान्यहिरण्यद्विपदचतुष्पदादि-19 'विहाय' त्यक्खा प्रबजितः सन् सदुत्थानेनोत्थाय च ग्रहणरूपामासेवनारूपां च शिक्षा [च] कुर्वाणः-सम्यगासेवमानः सुष्टु
मूलसूत्रस्य आरम्भ:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-०२] "सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||४||
सूत्रकृताङ्गं शोभनं नवभियचर्यगुप्तिभिर्गुप्तमाश्रित्य ब्रह्मचर्य 'वसेत् तिष्ठेत् , यदिवा 'सुब्रह्मचर्य मिति संयमस्तद् आवसेत्-तं सम्यक् । शीलाका- कुर्यात् , आचार्यान्तिके यावज्जीव वसमानो यावदभ्युद्यत विहारं न प्रतिपद्यते तावदाचार्यत्रचनस्यावपातो-निर्देशस्तत्कार्यवपातका- ध्ययन. चायाय
गरी वचननिर्देशकारी सदाऽज्ञाविधायी, विनीयते-अपनीयते कर्म येन स विनयस्तं सुष्टु शिक्षेद्-विदध्यात ग्रहणासेवनाभ्यां त्तियुतं
विनयं सम्यक् परिपालयेदिति । तथा यः 'छेको' निपुणः स संयमानुष्ठाने सदाचार्योपदेशे वा विविधं प्रमाद न कुयोत्, यथा ॥२४२॥ 18| हि आतुरः सम्पग्वैद्योपदेशं कुर्वन् श्लाघां लभते रोगोपशमं च एवं साधुरपि सावधग्रन्थपरिहारी पापकर्मभेपजस्थानभूतान्याचा
१ यवचनानि विदधदपरसाधुभ्यः साधुकारमशेषकर्मक्षयं चावाप्नोतीति ॥१॥ यः पुनराचार्योपदेशमन्तरेण स्वच्छन्दतया गच्छा-101 | निर्गत्य एकाकिविहारिता प्रतिपयते स च बहुदोपभाग भवतीत्यस्यार्थस्य एष्टान्तमाविर्भावयबाह-'य'ति दृष्टान्तोपप्रदर्शनार्थः | 'यथा' येन प्रकारेण 'द्विजपोत:' पक्षिशिशरव्यक्तः, तमेव विशिनष्टि-पतन्ति-गच्छन्ति तेनेति पत्रं-पक्षपुटं न विद्यते पत्र-18 जातं-पक्षोद्धयो यस्खासावपत्रजातस्तं तथा खकीयादावासकात्-खनीडात प्लवितुम्-उत्पतितुं मन्यमानं तत्र तत्र पतन्तमुपलभ्य |तं द्विजपोतं 'अचाइयंति पक्षाभावाद्गन्तुमसमर्थमपत्रजातमितिकता मांसपेशीकल्पं 'हकादयः' क्षुद्रसचाः पिशिताशिनः 'अ| व्यक्तगर्म' गमनाभावे नंष्टुमसमर्थ 'हरेयुः' चञ्चादिनोत्क्षिप्य नयेयुापादयेयुरिति ॥ २ ॥ एवं दृष्टान्तं प्रदश्य दाष्टोन्तिक
प्रदर्शयितुमाह-'एच' मित्युक्तप्रकारण, तुशब्दः पूर्वसाद्विशेष दर्शयति, पूर्व बसंजातपक्षखादव्यक्तता प्रतिपादिता इह खपुष्टध- । २४२॥ IS मेतयेत्ययं विशेपो, यथा द्विजपोतमसंजातपक्षं खनीडानिर्गतं क्षुद्रसचा विनाशयन्ति एवं शिक्षकमभिनवप्रवजितं सूत्रार्थीनिष्पन्न
मगीतार्थम् 'अपुष्टयमाणं' सम्पगपरिणतधर्मपरमार्थ सन्तमनेके पापधर्माणः पापण्डिकाः प्रतारयन्ति, प्रतायें च गच्छसमुद्रान्नि:
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दीप अनुक्रम [५८३]
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-०२] "सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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दीप
सारयन्ति, निःसारितं च सन्तं विषयोन्मुखतामापादितमपगतपरलोकभयमसाकं वैश्यमित्येवं मन्यमानाः यदिवा 'बुसिमन्ति
चारित्रं तद् असदनुष्ठानतो निःसारं मन्यमाना अजातपक्षं 'द्विजशावमिव' पक्षिपोतमिव ढसादयः पापधर्माणो मिथ्याखाविरति1 प्रमादकपायकलुपितान्तरात्मानः कुतीर्थिकाः स्वजना राजादयो वाऽनेके बहवो हृतवन्तो हरन्ति हरिष्यन्ति चेति, कालत्रयोपल
| क्षणार्थ भूतनिर्देश इति, तथाहि पापण्डिका एवमगीताथे प्रतारयन्ति, तद्यथा-युष्मदर्शने नामिप्रज्वालनविषापहारशिखाच्छेदा-1 || दिकाः प्रत्यया दृश्यन्ते, तथाणिमाघरगुणमेश्वर्य च नास्ति, तथा न राजादिभिर्बहुभिराश्रितं, याऽप्यहिंसोच्यते भवदागमे साऽपि
जीवाकुलखाल्लोकस्य दुःसाध्या, नापि भवतां स्नानादिकं शौचमस्तीत्यादिकाभिः शठोक्तिभिरिन्द्रजालकल्पाभिमुग्धजनं प्रतारयन्ति, खजनादयश्चैवं विप्रलम्भयन्ति, तयथा-आयुष्मन् ! न भवन्तमन्तरेणासाकं कश्चिदस्ति पोषक: पोष्यो वा, खमेवासा सर्वखं, त्वया विना सर्व शून्यमाभाति, तथा शब्दादिविषयोपभोगामन्त्रणेन सद्धर्माच्यावयन्ति, एवं राजादयोऽपि द्रष्टच्याः, तदेवमपुष्टधर्माणमेकाकिनं बहुभिः प्रकारैः प्रतायर्यापहरेयुरिति ॥ ३॥ तदेवमेकाकिनः साधोयतो बहवो दोषाः प्रादुर्भवन्ति अतः सदा | गुरुपादमूले स्थातव्यमित्येतदर्शयितुमाह-'अवसानं' गुरोरन्तिके स्थानं तद्यावजी 'समाधि' सन्मार्गानुष्ठानरूपम् 'इच्छेद्र |अभिलपेत् 'मनुजो मनुष्यः साधुरित्यर्थः, स एव च परमार्थतो मनुष्यो यो यथाप्रतिज्ञातं निर्वाहयति, तच सदा गुरोरन्तिके | व्यवस्थितेन सदनुष्ठानरूपं समाधिमनुपालयता निर्वाह्यते नान्यथेत्येतदर्शयति-गुरोरन्तिके 'अनुषितः' अव्यवस्थितः स्वच्छन्दविधायी समाधेः सदनुष्ठानरूपस्य कर्मणो यथाप्रतिज्ञातस्स वा नान्तकरो भवतीत्येवं ज्ञात्वा सदा गुरुकुलवासोज्नुसतव्यः, तद्र
समाप्तामितितेन ग प्रथमा ।
अनुक्रम [५८३]
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-०२] "सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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दीप अनुक्रम [५८३]
हता हितस्य विज्ञानमुषहास्यप्रायं भवतीति, उक्तं च-"न हि भवति निर्विगोपकमनुपासितगुरुकुलस्य विज्ञानम् । प्रकटितपश्चाद्भाग १४ प्रथाशीलाझा-1 पश्यत नृत्यं मयूरस्थ ।। १॥" तथाऽजां गलविलग्नवालुकां पाणिप्रहारेण प्रगुणां दृष्ट्वाऽपरोऽनुपासितमुरुरज्ञो राही संजातगल- ध्ययन. चार्थीय- गण्डो पाणिप्रहारेण व्यापादितवान् , इत्यादयः अनुपासितगुरोर्बहवो दोषाः संसारवर्धनाद्या भवन्तीत्यवगम्यानया मर्यादया चियुत ISI गुरोरन्तिके स्थातव्यमिति दर्शयति-'अवभासयन्' उद्भासयन् सम्यगनुतिष्ठन् 'द्रव्यस्य' मुक्तिगमनयोग्यस्य सत्साधो रागद्वेपर॥२४३॥
हितस्य सर्वज्ञस्य वा वृत्तम्-अनुष्ठानं तत्सदनुष्ठानतोऽवभासयेद्, धर्मकथिकः कथनतो बोद्भासयेदिति । तदेवं यतो गुरुकुलवासो बहूना गुणानामाधारो भवत्यतो 'न निष्कसेत् न निर्गच्छेत् गच्छाद्गुर्वन्तिकाद्वा बहिः, खेच्छाचारी न भवेद् , आशुमज्ञ' इति
क्षिप्रप्रज्ञा, सदन्तिके निवसन् विषयकषायाभ्यामात्मानं हियमाणं नाला क्षिप्रमेवाचार्योपदेशात्स्वत एव वा 'निवर्तयति' सत्समाहाची व्यवस्थापयतीति ॥ ४॥ तदेवं प्रवज्यामभि उद्यतो नित्यं गुरुकुलवासमावसन सर्वत्र स्थानशयनासनादावुपयुक्तो भवति । १ तदुपयुक्तस्य च गुणमुद्भावयन्नाहजे ठाणओ य सयणासणे य, परक्कमे यावि सुसाइजुत्ते । समितीसु गुत्तीसु य आयपन्ने, वि
॥२४॥ यागरिते य पुढो वएज्जा ॥ ५॥ सदाणि सोच्चा अदु भेरवाणि, अणासवे तेसु परिवएज्जा । निदं च भिक्खू न पमाय कुजा, कहंकहं वा वितिगिच्छतिन्ने ॥ ६ ॥ डहरेण बुढेणऽणुसासि
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [७], नियुक्ति: [१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-०२] "सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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दीप अनुक्रम [५८६]
ए उ, रातिणिएणावि समवएणं । सम्मं तयं थिरतो णाभिगच्छे, णिजंतए वावि अपारए से ॥७॥ विउट्रितेणं समयाणुसिढे, डहरेण वुड्डेण उ चोइए य । अञ्चुट्टियाए घडदासिए वा, अगारिणं वा समयाणुसिट्टे ॥८॥
यो हि निर्विण्णसंसारतया प्रव्रज्यामभि उद्यतो नित्यं गुरुकुलवासतः 'स्थानतश्च स्थानमाश्रित्य तथा शयनत आसनता, | एकश्वकारः समुच्चये द्वितीयोऽनुक्तसमुथयार्थः चकाराद्गमनमाश्रित्यागमनं च तथा तपधरणादौ पराक्रमतच, (सु) साधो:-उद्युतविहारिणो ये समाचारास्तैः समायुक्तः सुसाधुयुक्ता, सुसाधुर्हि यत्र स्थानकायोत्सर्गादिकं विधत्ते तत्र सम्यक् प्रत्युपेक्षणादिकां क्रिया करोति, कायोत्सर्ग च मेरुरिव निष्प्रकम्पः शरीरनिःस्पृहो विधत्ते, तथा शयनं च कुर्वन् प्रत्युपेक्ष्य संस्तारकं तद्भवं ।। कार्य चोदितकाले गुरुभिरनुज्ञातः स्वपेत् , तत्रापि जाग्रदिव नात्यन्तं निःसह इति । एचमासनादिष्वपि तिष्ठता पूर्ववत्संकुचितगात्रेण खाध्यायध्यानपरायणेन सुसाधुना भवितव्यमिति, तदेवमादिसुसाधुक्रियायुक्तो गुरुकुलनिवासी सुसाधुर्भवतीति स्थितम् ।
अपिच-गुरुकुलवासे निवसन् पञ्चसु समितिवीर्यासमित्यादिषु प्रविचाररूपासु तथा तिसृषु च गुप्तिषु प्रविचाराप्रविचाररूपासु 18आगता-उत्पन्ना प्रज्ञा यस्यासावागतप्रज्ञा-संजातकतेंव्याकर्तव्यविवेकः खतो भवति, परस्यापि च 'व्याकुर्वन' कथयन् पृथक
पृथग्गुरोः प्रसादात्परिज्ञातखरूपः समितिगुप्तीनां यथावस्थितस्वरूपप्रतिपालनं तत्फलं च 'वदेत्' प्रतिपादयेदिति ॥५॥ ईर्या
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति: [१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-०२] "सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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॥२४॥
दीप अनुक्रम [५८७]
मूत्रकृताई
| समित्याद्युपेतेन यद्विधेयं तदर्शयितमाह-'शब्दान' वेणुचीणादिकान् मधुरान् श्रुतिपेशलान् 'श्रुत्वा' समाकर्पोथवा 'भैर-18|१४प्रथाशीलाङ्का
वान्' भयावहान् कर्णकटूनाकर्ण्य शब्दान् आश्रवति तान् शोभनखेनाशोभनखेन वा गृह्णातीत्याश्रवो नाश्रवोऽनाश्रवः, तेष्वनुकू-18 ध्ययनं. चार्थीय
लेषु प्रतिकूलेषु श्रवणपथमुपगतेषु शब्देष्वनाश्रवो-मध्यस्थो रागद्वेपरहितो भूखा परि-समन्ताद् व्रजेत् परिव्रजेत्-संयमानुष्ठायी तियुतं || भवेत , तथा 'निद्रां च निद्राप्रमादं च 'भिक्षः' सत्साधुः प्रमादाङ्गखान कुर्यात् , एतदुक्तं भवति-शब्दावनिरोधेन विषय
प्रमादो निषिद्धो निद्रानिरोधेन च निद्राप्रमादः, चशब्दादन्यमपि प्रमाद विकथाकपायादिकं न विदध्यात् । तदेवं गुरुकुलवासान। | स्थानशयनासनसमितिगुप्तिष्वागतप्रज्ञा प्रतिषिद्धसर्वप्रमादः सन् गुरोरुपदेशादेव कथंकथमपि विचिकित्सां चित्तविप्लुति| रूपा [वि तीण:-अतिक्रान्तो भवति, यदिवा मगृहीतोऽयं पश्चमहातभारोऽतिदुर्वहः कथं कथमप्यन्तं गच्छेद् ?, इत्येवंभूतां
| विचिकित्सा गुरुप्रसादाद्वितीर्णो भवति, अथवा यां काञ्चिञ्चित्तविप्लुति देशसर्वगतां तां कृत्वां गुर्वन्तिके वसन् वितीर्णो भवति || 18| अन्येषामपि तदपनयनसमर्थः स्यादिति ॥६॥ किश्चान्यत्-स गुर्वन्तिके निवसन् कचित् प्रमादस्खलितः सन् वयःपयों
याभ्यां क्षुल्लकेन-लघुना 'चोदितः' प्रमादाचरणं प्रति निषिद्धः, तथा 'वृद्धेन वा वयोऽधिकेन श्रुताधिकेन वा 'अनुशा|सितः' अभिहितः, तयथा--भवद्विधानामिदमीहा प्रमादाचरणमासेवितुमयुक्तं, तथा 'रवाधिकेन वा प्रवज्यापर्यायाधिकेन श्रुताधिकेन वा समवयसा चा 'अनुशासितः' प्रमादस्खलिताचरणं प्रति चोदितः कुप्यति यथा अहमध्यनेन द्रमकप्रायेणोत्त
॥२४॥ || मकुलप्रमूतः सर्वजनसंमत इत्येवं चोदित इत्येवमनुशाखमानो न मिध्यादुष्कृतं ददाति न सम्पगुत्थानेनोत्तिष्ठति नापि तदनुशा
सनं सम्यक स्थिरतः- पुनःकरणतयाऽभिगच्छेत्-प्रतिपद्येत, चोदितश्च प्रतिचोदयेद, असम्यक् प्रतिपद्यमानशासी संसारस्रोतसा
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति: [१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-०२] "सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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'नीयमान' उद्यमानोऽनुशास्यमानः कुपितोऽसौ न संसारार्णवस्ख पारगो भवति । यदिवाऽऽचार्यादिना सदुपदेशदानतः प्रमादस्खलितनिवर्तनतो मोक्षं प्रति नीयमानोऽप्यसौ संसारसमुद्रस्य तदकरणतोऽपारग एव भवतीति ॥७॥ साम्प्रतं खपक्षचोदनानन्त| रत:(१)म्बपरचोदनामधिकृत्याह-विरुद्धोत्थानेनोत्थितो व्युत्थितः परतीथिको गृहस्थो वा मिथ्याष्टिस्तेन प्रमादस्खलिते चोदितः १ स्वसमयेन, तद्यथा नैवंविधमनुष्ठानं भवतामागमे व्यवस्थितं येनाभिप्रवृत्तोऽसि, यदिवा व्युत्थितः-संयमावष्टस्तेनापरः साधुः
स्खलितः सन् खसमयेन अहेत्प्रणीतागमानुसारेणानुशासितो मूलोत्तरगुणाचरणे स्खलितः सन् 'चोदित' आगमं प्रदाभिहितः, तद्यथा-नैतचरितगमनादिकं भवतामनुज्ञातमिति, तथा अन्येन वा मिथ्यादृष्ट्यादिना 'क्षुल्लकेन' लघुतरेण वयसा युद्धेन वा कुत्सिताचारप्रवृत्तचोदितः, तुमब्दात्समानवयसा वा तथा अतीवाकार्यकरगं प्रति उस्थिता अत्पुत्थिताः, यूदिवा-दासीखेन अत्यन्तमु| त्थिता दास्था अपि दासीति, तामेव विशिनष्टि-'घटदास्या' जलवाहिन्यापि चोदितो न क्रोधं कुर्यात् , एतदुक्तं भवति-अत्युस्थितया तिकुपितयाऽपि चोदितः स्वहितं मन्यमानः सुसाधुने कुप्येत् , किं पुनरन्येनेति ?, तथा 'अगारिणां' गृहस्थानां यः 'समय:
अनुष्ठानं तत्समयेनानुशासितो, गृहस्थानामपि एतन्न युज्यते कतु यदारब्धं भवतेत्येवमात्माबमेनापि चोदितो ममैवतच्छ्रेय इत्येवं | मन्यमानो मनागपि न मनो दूषयेदिति ॥८॥ एतदेवाह
ण तेसु कुज्झे ण य पचहेजा, ण यावि किंची फरुसं वदेजा। तहा करिस्संति पडिस्सणेज्जा, सेयं ख मेयं ण पमाय कुज्जा ॥९॥ वणंसि मूढस्स जहा अमूढा, मग्गाणसासंति हितं पयाणं । तेणेव (तेणावि) मज्झं इणमेव सेयं, जं मे बुहा समणुसासयंति ॥१०॥ अह तेण मूढेण
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दीप अनुक्रम [५८७]
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [११], नियुक्ति: [१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-०२] "सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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सूत्रांक
सूत्रकृताङ्ग शीलाकाचाीयचियुत
||११||
॥२४५॥
दीप अनुक्रम [५९०]
अमूढगस्स, कायन पूया सविसेसजुत्ता । एओवमं तत्थ उदाह वीरे, अणुगम्म अत्थं उवणेति १४ अन्धासम्मं ॥ ११ ॥णेता जहा अंधकारंसि राओ, मग्गं ण जाणाति अपस्समाणे । से सूरिअस्स
ध्ययन अब्भुग्गमेणं, मग्गं वियाणाइ पगासियंसि ॥ १२ ॥ 'तेषु' खपरपक्षेषु स्खलितचोदकेष्वात्महितं मन्यमानो न कुध्येद् अन्यस्मिन् वा दुर्वचनेऽभिहिते न कुप्येद् एवं च चिन्तयेत्'आकुष्टेन मतिमता तत्वार्थविचारणे मतिः कार्या । यदि सत्यं कः कोप: स्यादनृतं किं नु कोपेन ॥१॥' तथा नाप्यपरेण 3 खतोऽधमेनापि चोदितोहन्मार्गानुसारेण लोकाचारगत्या वाभिहितः परमार्थ पर्यालोच्य तं चोदकं प्रकर्षण 'व्ययेत्' दण्डादिप्रहारेण पीडयेत् न चापि किञ्चित्परुपं तत्पीडादिकारि 'वदेत्' ब्रूयात् , ममैवायमसदनुष्ठायिनो दोषो येनायमपि मामेवं चोदयति, चोदितवैवंविधं भवता असदाचरणं न विधेयमेवंविधं च पूर्वर्षिभिरनुष्ठितमनुष्ठेयमित्येवंविधं वाक्यं तथा करिष्यामीत्येवं 8 मध्यस्थवृत्त्या प्रतिशृणुयाद् अनुतिष्ठेच-मिथ्यादुष्कृतादिना निवर्तेत, यदेतचोदनं नामैतन्ममैव श्रेयो, यत एतद्भयात्कचित्पुनः 8 प्रमादं न कुर्यात्रैवासदाचरणमनुतिष्ठेदिति ॥ ९॥ अखार्थस्य दृष्टान्तं दर्शयितुमाह-'वने' गहने महाटव्यां दिग्भमेण कस्यचिव्याकुलितमतेनष्टसत्पथख यथा केचिदुपरे कृपाकृष्टमानसा 'अमूढाः सदसन्मार्गज्ञाः कुमार्गपरिहारेण प्रजानां 'हितम्' अशे- ॥२४५|| पापायरहितमीप्सितस्थानप्रापकं 'मार्ग' पन्थानम् 'अनुशासन्ति प्रतिपादयन्ति, स च तैः सदसद्विवेकिभिः सन्मार्गावतरणमनुशासित आत्मनः यो मन्यते, एवं तेनाप्यसदनुष्ठायिना चोदितेन न कुपितव्यम् , अपितु ममायमनुग्रह इत्येवं मन्तव्यं, यदे
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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प्रत
सूत्रांक
||१२||
तद् बुद्धाः सम्यगनुशासयन्ति-सन्मार्गऽवतारयन्ति पुत्रमिव पितरः तन्ममैव श्रेय इति मन्तव्यम् ॥ १०॥ पुनरप्यस्खार्थव पुष्पर्थमाह-'अथे त्यानन्तर्यार्थे बाक्योपन्यासार्थे वा, यथा 'तेन' मूढेन सन्मार्गावतारितेन तदनन्तरं तख 'अमूदस्य' सत्पथोपदे-18 ष्टुः पुलिन्दादेरपि परमुपकारं मन्यमानेन पूजा विशेषयुक्ता कर्तव्या, एवमेतामुपमाम् 'उदाहतवान्' अभिहितवान् 'वीर' तीर्थकरोऽन्यो वा गणधरादिकः 'अनुगम्य' बुद्धा 'अर्थ' परमार्थ चोदनाकृतं परमोपकारं सम्यगात्मन्युपनयति, तपथा-अ-8 हमनेन मिथ्याखवनाजन्मजरामरणाधनेकोपद्रवबहुलात्सदुपदेशदानेनोत्तारितः, ततो मयाऽस्य परमोपकारिणोऽभ्युत्थान विनया-16 दिभिः पूजा विधेयेति । असिनथे वहबो दृष्टान्ताः सन्ति, तद्यथा-'गेहंमि अग्गिजालाउलंमि जह णाम डज्नमाणमि । जो बोहेइ सुयंत सो तस्स जणो परमबंधू ॥१॥जह या विससंजुल भत्तं निद्धमिह भोत्तुकामस्स । जोवि सदोस माहइ सो तस्स . जणो परमबंधू ॥२॥"॥ ११ ॥ अयमपरः मत्रेणैव दृष्टान्तोऽभिधीयते-यथा हि सजलजलधराच्छादितवहलान्धकारायां रात्री 'नेता' नायकोऽटच्यादौ खभ्यस्तपदेशोऽपि 'मार्ग' पन्थानमन्धकारावृतखात्स्वहस्तादिकमपश्यन्न जानाति-न सम्बक परिच्छिनत्ति । स एव प्रणेता 'सूर्यस्य आदित्यस्याभ्युगमेनापनीते तमसि प्रकाशिते दिकचक्रे सम्यगाविभूते पाषाणदरिनिनोचतादिके मार्ग जानाति-विवक्षितप्रदेशप्रापकं पन्थानमभिव्यक्तचक्षुः परिच्छिनत्ति-दोषगुणविचारणतः सम्पगवगच्छतीति ॥ १२ ॥ एवं दृष्टान्त प्रदश्य दाष्टोन्तिकमधिकृत्याह
गेहेमियानाकुले यथा नाम दयमाने । यो बोधयति पुतं स त जनः परमभान्धयः ॥ ॥ गया गा विषसंयुक्त मतं निग्य र भोजुकाममा सोऽपि सदोष साधयति च तस्य परममन्धुजनः ॥ २ ॥
दीप
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अनुक्रम [५९१]
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [१३], नियुक्ति: [१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-०२] "सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रकृताई शीलाकाचा-यवृत
सूत्रांक
त्तियुतं
||१३||
॥२४६॥
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दीप अनुक्रम [५९२]
एवं तु सेहेवि अपुटुधम्मे, धम्मं न जाणाइ अबुज्झमाणे । से कोविए जिणवयणेण पच्छा, १४ ग्रन्धासूरोदए पासति चक्खुणेव ॥ १३ ॥ उद्धं अहेयं तिरियं दिसासु, तसा य जे थावरा जे य
18|ध्यवनं. पाणा । सया जए तेसु परिवएज्जा, मणप्पओसं अविकंपमाणे ॥ १४ ॥ कालेण पुच्छे समियं पयासु, आइक्खमाणो दवियस्स वित्तं । तं सोयकारी पुढो पवेसे, संखा इमं केवलियं समाहिं॥१५॥ अस्सिं सुठिच्चा तिविहेण तायी, एएस या संति निरोहमाह । ते एवमक्खंति तिलोगदंसी, ण भुजमेयंति पमायसंग ॥ १६ ॥ यथा बसावन्धकारावृतायां रजन्यामतिगहनायामटव्यां मार्ग न जानाति सूर्योद्गमेनापनीते तमसि पश्चाजानाति एवं 118 'शिष्यका' अभिनवप्रबजितोऽपि सूत्रार्थानिष्पन्नः अपुष्टः-अपुष्कलः सम्यगपरिज्ञातो धर्म:-श्रुतचारित्राख्यो दुर्गतिप्रसृतजन्तु-18 धरणखभावो येनासावपुष्टधा, स चागीतार्थः-सूत्रार्थानभिज्ञखादचुध्यमानो धर्म न जानातीति-न सम्यक् परिच्छिनत्ति, स8 एव तु पश्चाद्गुरुकुलवासाजिनबचनेन 'कोविदः' अभ्यस्तसर्वज्ञप्रणीतागमखानिपुणः सूर्योदयेऽपगतावरणश्चक्षुषेव यथावस्थितान् ॥२४६॥ जीवादीन् पदार्थान् पश्यति, इदमुक्त भवति-यथा हि इन्द्रियार्थसंपर्कात्साक्षात्कारितया परिस्फुटा घटपटादयः पदार्थाः प्रतीयन्ते एवं सर्वेशप्रणीतागमेनापि सूक्ष्मण्यवहितविप्रकृष्टखगोपवर्गदेवतादयः परिस्फुटा निःश प्रतीयन्त इति । अपिच कदाचिच
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-०२] "सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
||१६||
दीप अनुक्रम [५९५]
क्षुषाऽन्यथाभूतोऽप्यर्थोऽन्यथा परिच्छिद्यते, तयथा-मरुमरीचिकानिचयो जलभ्रान्त्या किंशुकनियोजयाकारणापीति । नच सर्व
प्रणीतस्वागमस्य कचिदपि व्यभिचारः, तयभिचारे हि सर्वज्ञतहानिप्रसङ्गात् , तत्संभवस्य चासर्वज्ञेन प्रतिषेधुमशक्यतादिति ॥ |॥ १३ ।। शिक्षको दि गुरुकुलबासितया जिनवचनाभिज्ञो भवति, तरकोविदश्च सम्परु मूलोत्तरगुणान् जानाति, तत्र मूलगुणान|धिकृत्याह-ऊर्चमधस्तियंग दिक्षु विदिक्षु चेत्यनेन क्षेत्रमङ्गीकृत्य प्राणातिपात विरतिरभिहिता, द्रव्यतस्तु दर्शयति प्रस्सन्तीति प्रसा:-तेजोवाय द्वीन्द्रियादयध, तथा ये च स्थावरा:-सावरनामकर्मादयवर्तिनः पृथिव्यवनस्पतयः, तथा ये चैतदेदाः सूक्ष्मबादरपर्याप्तकापर्योतकरूपा दशविधप्राणधारणापाणिनस्तेषु, 'सदा सर्वकालम् , अनेन तु कालमधिकृत्य विरतिरभिहिता, यतः ४ परिव्रजेत् परिसमन्ताद्वजेत् संयमानुष्ठायी भवेत् , भावप्राणातिपातविरतिं दर्शयति-स्थावरजङ्गमेषु प्राणिषु तदपकारे उपकारे 18|वा मनागपि मनसा प्रद्वेष न गच्छेद् आस्तां तावदुवेचनदण्डप्रहारादिक, तेष्वपकारिष्वपि मनसापि न मङ्गलं चिन्तयेत्, 'अवि
कम्पमान: संयमादचलन् सदाचारमनुपालयेदिति, तदेवं योगत्रिककरणत्रिकेण द्रव्पक्षेत्रकालभावरूपां प्राणातिपातविरतिं सम्यगरक्तद्विष्टतयाऽनुपालयेद् , एवं शेषाण्यपि महाव्रतान्युत्तरगुणांश्च ग्रहणासेवनाशिक्षासमन्वितः सम्यगनुपालयेदिति ॥१४॥ गुरोरन्तिके वसतो विनयमाह-सूत्रमर्थं तदुभयं वा विशिष्टेन-प्रष्टव्यकालेनाचार्यादेरवसरं शाखा प्रजायन्त इति प्रजा-जन्तवस्तासु। मजासु-जन्तुविषये चतुर्दशभूतग्रामसंबद्धं कञ्चिदाचार्यादिकं सम्पगित-सदाचारानुष्ठायिनं सम्यक् वा समन्ताद्वा जन्तुगतं पृच्छे-18 दिति । स च तेन पृष्ट आचायोदिराचक्षाणः शुश्रूषयितव्यो भवति, यदाचक्षाणस्तद्दर्शयति-मुक्तिगमनयोग्यो भन्यो द्रव्यं राग-8
सक्षमणीनागमोकपदार्थसंभवरा, सर्वज्ञसंभवस्येति वा । २ शत्रोपकारे बातो वा दुरायति के सस्य, अन्मयोपकारे द्वेषासंभवात् ।
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-०२] "सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||१६||
दीप अनुक्रम [५९५]
सूत्रकृताङ्ग देषविरहाद्वा द्रव्यं तस्य द्रव्यस्य-धीतरागस्य तीर्थकरस्य वा वृत्तम्-अनुष्ठानं संयम शानं वा तत्प्रणीतमागर्म वा सम्यगाचवा || १४ ग्रन्थाशालाकाणः सपर्ययाऽयं माननीयो भवति । कथमित्याह-'तद्' आचार्यादिना कथितं श्रोत्रे-कणे कर्तुं शीलमस श्रोत्रकारी-यथोपदे- ध्ययन. चार्याय
शकारी आशाविधायी सन् पृथक् पृथगुपन्यस्तमादरेण हृदये प्रवेशयेत्-चेतसि व्यवस्थापयेत्, व्यवस्थापनीयं दर्शयति-'संचियुत
ख्याय' सम्यक ज्ञाता 'इम' मिति वक्ष्यमाणं केवलिन इदं कैवलिक-केवलिना कथितं समाधि-सन्मार्ग सम्यगज्ञानादिकं मो-2 ॥२४७॥
क्षमार्गमाचार्यादिना कथितं यथोपदेशं प्रवर्तकः पृथग्-विविक्तं हृदये पृथम्ब्यवस्थापयेदिति ॥१५॥ किंचान्यत्-'अस्मिन् गुरुकुलवासे निवसता यच्छ्रतं श्रुखा च सम्यक हृदयव्यवस्थापनद्वारेणावधारित तसिन् समाधिभूते मोक्षमार्गे मुष्ठ स्थिखा 'त्रिवि-18 घेनेति मनोवाकायकर्मभिः कृतकारितानुमतिभिर्वाऽऽत्मानं त्रातुं शीलमस्येति त्रायी जन्तूनां सदुपदेशदानतखाणकरणशीलो वा तस्य खपरत्रायिणः, एतेषु च समितिगुयादिषु समाधिमार्गेषु स्थितस्य शान्तिर्भवति-अशेपद्वन्द्वोपरमो भवति तथा निरोधम्अशेषकर्मक्षयरूपम् 'आहुः तद्विदः प्रतिपादितवन्तः, क एवमाहुरित्याह-त्रिलोकम् ऊोधस्तिर्यगलक्षणं द्रष्टुं शीलं येषां ते त्रिलोकदर्शिन:-तीर्थकृतः सर्वज्ञास्ते 'एवम्' अनन्तरोक्तया नीत्या सर्वभावान् केवलालोकेन दृष्ट्वा 'आचक्षते' प्रतिपादयन्तीति । एतदेव समितिगुप्त्यादिकं संसारोत्तारणसमर्थ ते त्रिलोकदर्शिनः कथितवन्तो न पुनर्भूय एतं (न) 'प्रमादसङ्ग' मयविषयादिकं संबन्धं विधेयलेन प्रतिपादितवन्तः ॥ १६ ॥ किश्चान्यत्निसम्म से भिक्खु समीहियटुं, पडिभाणवं होइ विसारए य । आयाणअट्ठी वोदाणमोणं,
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॥२४७||
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [१७], नियुक्ति: [१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-०२] "सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
||१७||
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दीप
उवेच्च सुद्धेण उवेति मोक्खं ॥ १७ ॥ संखाइ धम्मं च वियागरंति, बुद्धा हु ते अंतकरा भवंति । ते पारगा दोण्हवि मोयणाए, संसोधितं पण्हमुदाहरंति ॥१८॥णो छायए णोऽविय लूसएजा, माणं ण सेवेज पगासणं च । ण यावि पन्ने परिहास कुज्जा, ण याऽऽसियावाय वियागरेजा ॥ १९ ॥ भूताभिसंकाइ दुगुंछमाणे, ण णिबहे मंतपदेण गोयं । ण किंचि मिच्छे मणुए पयासुं, असाहुधम्माणि ण संवएज्जा ॥ २० ॥ स गुरुकुलवासी भिक्षुः द्रव्यस्थ वृत्तं 'निशम्य' अवगम्य खतः समीहितं चार्थ-मोक्षार्थ बुद्धा हेयोपादेयं सम्यक् परिज्ञाय नित्यं गुरुकुलचासतः 'प्रतिभानवान्' उत्पन्नप्रतिभो भवति । तथा सम्यक् खसिद्धान्तपरिज्ञानाच्छ्रोतणां यथावस्थितार्थानां 'विशारदो भवति' प्रतिपादको भवति । मोक्षार्थिनाऽऽदीयत इत्यादान-सम्यग्ज्ञानादिकं तेनार्थः स एव वाऽर्थः आदानार्थः18 स विद्यते यस्खासावादानार्थी, स एवंभूतो ज्ञानादिप्रयोजनवान् व्यवदानं-द्वादशप्रकारं तपो मौनं संयम आश्रवनिरोधरूपस्तदेवमेतौ तपःसंयमावुपेत्य-प्राप्य ग्रहणासेवनरूपया द्विविधयापि शिक्षया समन्वितः सर्वत्रप्रमादरहितः प्रतिभानवान् विशारदव 'शुद्धेन' निरुपाधिना उद्गमादिदोषशुद्धेन चाहारेणात्मानं यापयनशेषकर्मक्षयलक्षणं मोक्षमुपैति 'न उबेर मा ति कचिस्पाठः, बहुशो नियन्ते खकर्मपरवशाः प्राणिनो यसिन् स मारः-संसारस्तं जातिजरामरणरोगशोकाकुलं शुद्धेन मार्गेणात्मानं
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अनुक्रम [५९६]
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [२०], नियुक्ति : [१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-०२] "सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
||२०||
दीप अनुक्रम [५९९]
सूत्रकृताङ्ग वर्तयन् न उपैति, यदिवा मरणं-प्राणत्यागलक्षणं मारस्तं बहुशो नोपैति, तथाहि-अप्रतिपतितसम्यक्स उत्कृष्टतः सप्ताष्टौ वा
१४ग्रन्थाशीलाका-8 भवान् म्रियते नोव॑मिति ॥१७॥ तदेवं गुरुकुलनिवासितया धर्मे सुस्थिता बहुश्रुताः प्रतिभानवन्तोऽर्थविशारदाश्च सन्तो यत्कुर्वन्ति । ध्ययनं. चार्यायवृतदर्शयितुमाह-सम्यक् ख्यायते-परिज्ञायते यया सा संख्या-सदुद्धिस्तया खतो धर्म परिज्ञायापरेषां यथावस्थितं 'धर्म श्रुत
त्तियुतं चारित्राख्यं 'व्यागृणन्ति' प्रतिपादयन्ति, यदिवा खपरशक्ति परिज्ञाय पर्षदं वा प्रतिपाद्य चार्थ सम्यगवबुध्य धर्म प्रतिपाद-1 ઘરકા
यन्ति । ते चैवंविधा वुद्धा:-कालत्रयवेदिनो जन्मान्तरसंचितानां कर्मणामन्तकरा भवन्ति अन्येषां च कर्मापनयनसमर्था भवन्तीति दर्शयति-ते यथावस्थितधर्मप्ररूपका 'द्वयोरपि' परात्मनोः कर्मपाशविमोचनया स्नेहादिनिगडविमोचनया वा करणभूतया | संसारसमुद्रस्य पारगा भवन्ति । ते चैवंभूताः ? 'सम्यक् शोधितं पूर्वोत्तराविरुद्धं 'प्रश्नं' शब्दमुदाहरन्ति, तथाहि-पूर्व बुद्ध्या | पर्यालोच्य कोऽयं पुरुषः कस्य चार्थस्य ग्रहणसमर्थोऽहं वा किंभूतार्थप्रतिपादनशक्त इत्येवं सम्यक् परीक्ष्य ब्याकुर्यादिति, अथवा परेण कश्चिदर्थ पृष्टस्तं प्रश्नं सम्यग् परीक्ष्योदाहरेत् सम्यगुत्तरं दद्यादिति, तथा चोक्तम्-"आयरियसांसा व धारिएण अत्थेण | | झरियमुणिएणं । तो संघमझयारे बवहरिउं जे सुहं होति ॥१॥" तदेवं ते गीतार्था यथावस्थितं धर्म कथयन्तः स्वपरतारका | भवन्तीति ।। १८ ।। स च प्रश्नमुदाहरन् कदाचिदन्यथापि यादतस्तत्प्रतिषेधार्थमाह-'स' प्रश्नस्सोदाहर्ता सर्वार्थाश्रयताद्न-18
M ॥२४॥ आभया उ चरिते इति वचनाचारित्रयुतं सम्यक्त्वं परं प्रतिपाति तदिति मप्रतिपतितसम्यक्त इति, जपन्याराधनया दा जन्मभिरष्टज्यका इति वचनात् ।। सप्ताहानिति मनुष्यकायस्थित्यपेक्ष, सम्यक्तभवास्तु पत्योपमाश्यमागमिताः । आचार्यसहाशार अपधारितेनान सारकेण शात्रा च ततः शेषमध्ये व्यवहार Niमुखं भवति ॥१॥
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आगम
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प्रत
सूत्रांक ||२०||
दीप
अनुक्रम [५९९ ]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १४], उद्देशक [-] मूलं [२०], निर्युक्तिः [१३१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .....आगमसूत्र [०२] अंग सूत्र- [०२] "सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
करण्डकल्पः कुत्रिकापण कल्पो वा चतुर्दशपूर्विणामन्यतरो वा कश्चिदाचार्यादिभिः प्रतिभानवान्-अर्थ विशारदस्तदेवंभूतः कुतश्चिनि| मिसात् श्रोतुः कुपितोऽपि सूत्रार्थे 'न छादयेत्' नान्यथा व्याख्यानयेत् स्वाचार्य वा नापलपेत् धर्मकथां वा कुर्वनार्थं छादयेद् आत्मगुणोत्कर्षाभिप्रायेण वा परगुणान्न छादयेत् तथा परगुणान्न लूषयेत् न विडम्बयेत् शास्त्रार्थ वा नापसिद्धान्तेन व्याख्यानयेत् तथा समस्तशास्त्रवेत्ताऽहं सर्वलोकविदितः समस्तसंशयापनेता न मत्तुल्यो हेतुयुक्तिभिरर्थप्रतिपादयितेत्येवमात्मकं मानम्अभिमानं गर्व न सेवेत, नाप्यात्मनो बहुश्रुतलेन तपखिलेन वा प्रकाशनं कुर्यात् चशब्दादन्यदपि पूजासत्कारादिकं परिहरेत्, तथा न चापि 'प्रज्ञावान्' सश्रुतिकः 'परिहास' केलिप्रायं ब्रूयाद्, यदिवा कथश्चिदबुध्यमाने श्रोतरि तदुपहासप्रायं परिहासं न विदध्यात् तथा नापि चाशीर्वादं बहुपुत्रो बहुधनो [ बहुधमों ] दीर्घायुस्तं भूया इत्यादि व्यागृणीयात्, भाषासमितियुक्तेन माध्यमिति ॥ १९ ॥ किंनिमित्तमाशीर्वादो न विधेय इत्याह-भूतेषु जन्तुषूपमर्दशङ्का भूताभिशङ्का तयाऽऽशीर्वादं 'सावयं' सपापं जुगुप्समानो न ब्रूयात् तथा गास्त्रायत इति गोत्रं - मौनं वाक्संयमस्तं 'मन्त्रपदेन' विद्यापमार्जन विधिना 'न निर्वाहयेत्' न निःसारं कुर्यात् । यदिवा गोत्रं- जन्तूनां जीवितं 'मन्त्रपदेन' राजादिगुप्त भाषणपदेन राजादीनामुपदेशदानतो 'न निर्वाहयेत् नापनयेत् एतदुक्तं भवति-न राजादिना सार्धं जन्तुजीवितोपमर्दकं मत्रं कुर्यात्, तथा प्रजायन्त इति प्रजाः- जन्तवस्तासु प्रजासु 'मनुजो' मनुष्यो व्याख्यानं कुर्वन् धर्मकथां वा न 'किमपि' लाभ पूजासत्कारादिकम् 'इच्छेद' अभिलवेत्, तथा कुत्सितानाम् असाधूनां धर्मान् वस्तुदानतर्पणादिकान् 'न संवदेत्' न ब्रूयाद् यदिवा नासाधुधर्मान् बुवन् संवादयेद् अथवा धर्मकथां व्याख्यानं वा कुर्वन् प्रजाखात्मश्लाघारूपां कीर्ति नेच्छेदिति ॥ २० ॥ किञ्चान्यत्
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [२१], नियुक्ति : [१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-०२] "सुत्र कृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
सूत्रकृताङ्गं शीलाकाचा-य
त्तियुतं ॥२४९॥
Resea Resecescaese
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दीप अनुक्रम [५९९]
हासं पिणो संधति पावधम्मे, ओए तहीयं फरुसं वियाणे । णो तुच्छए णो य विकंथइज्जा, I४१४ग्रन्था
ध्ययनं. अणाइले या अकसाइ भिक्खू ॥ २१ ॥ संकेज याऽसंकितभाव भिक्खू , विभजवायं च वियागरेजा । भासादुयं धम्मसमुट्टितेहि, वियागरेजा समया सुपन्ने ॥ २२ ॥ अणुगच्छमाणे वितहं विजाणे, तहा तहा साहु अककसेणं । ण कत्थई भास विहिंसइजा, निरुद्धगं वावि न दीहइजा ॥ २३ ॥ समालवेज्जा पडिपुन्नभासी, निसामिया समियाअदंसी । आणाइ सुद्धं वयणं भिउंजे, अभिसंधए पावविवेग भिक्खू ॥ २४ ॥ यथा परात्मनोहस्थिमस्पयते तथा शब्दादिकं शरीरावयवमन्यान् वा पापधर्मान् सावधान्मनोवाकायच्यापारान् 'न संघयेत्।। न विदध्यात्, तद्यथा-इदं छिन्द्धि भिन्द्धि, तथा कुप्रावचनिकान् हास्यप्राय नोत्त्रासयेत्, तद्यथा-शोभनं भवदीयं व्रतं, तद्यथा-'मृती शय्या प्रातरुत्थाय पेया, मध्ये भक्तं पानकं चापराले । द्राक्षाखण्डं शर्करा चार्धरात्रे, मोक्षधान्ते शाक्यपुत्रेण
॥२४९॥ दृष्टः ॥१॥ इत्यादिकं परदोषोझावनप्राय पापबन्धकमितिकृसा हास्येनापि न वक्तव्यं । तथा 'ओजो रागद्वेपरहितः सवासाभ्यन्तरग्रन्थत्यागाद्वा निष्किश्चनः सन् 'तथ्य' मिति परमार्थतः सत्यमपि परुषं वचोऽपरचेतोविकारि परिज्ञया विजानीया-18 त्प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहरेत् , यदिवा रागद्वेषविरहादोजाः 'तथ्यं परमार्थभूतमकृत्रिममप्रतारकं 'परुषं' कर्मसंश्लेषाभावा-18
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प्रत
सूत्रांक
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १४], उद्देशक [ - ], मूलं [२४], निर्युक्तिः [१३१]
| निर्ममत्वादल्पसच्चैर्दुरनुष्ठेयखाद्वा कर्कशमन्तप्रान्ताहारोपभोगाद्वा परुषं- संयमं 'विजानीयात्' तदनुष्ठानतः सम्यगवगच्छेत्, तथा स्वतः कञ्चिदर्थविशेषं परिज्ञाय पूजासत्कारादिकं वाऽवाप्य 'न तुच्छो भवेत्' नोन्मादं गच्छेत्, तथा 'न विकल्पयेत्' नात्मानं श्लाघयेत् परं वा सम्यगनवबुध्यमानः 'नो विकत्थयेत्' नात्यन्तं चमढयेत्, तथा 'अनाकुलो' व्याख्यानावसरे धर्मकथावसरे वाग्नाविलो लाभादिनिरपेक्षो भवेत्, तथा सर्वदा 'अकषायः' कषायरहितो भवेद् 'भिक्षुः साधुरिति ॥ २१ ॥ साम्प्रतं व्याख्यानविधिमधिकृत्याह - 'भिक्षुः' साधुर्व्याख्यानं कुर्वन्नर्वाग्दर्शितादर्द्धनिर्णयं प्रति अशङ्कितभावोऽपि 'शङ्केत' औद्धत्यं परिहरनहमेवार्थस्य वेत्ता नापरः कविदित्येवं भवं न कुर्वीत किंतु विषममर्थ प्ररूपयन् साशङ्कमेव कथयेद्, यदिवा परिस्फुटमप्यशङ्कितभावमप्यर्थं न तथा कथयेत् यथा परः शङ्केत, तथा विभज्यवादं पृथगर्थनिर्णयवादं व्यागृणीयात् यदिवा विभज्यवाद:- स्याद्वादस्तं सर्वत्रास्खलितं लोकव्यवहाराविसंवादितया सर्वव्यापिनं स्वानुभवसिद्धं वदेद्, अथवा सम्यगर्थान् विभज्यपृथककृत्वा तद्वादं वदेत् तद्यथा--- नित्यवादं द्रव्यार्थतया पर्यायार्थतया खनित्यवादं वदेत्, तथा स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैः सर्वेऽपि पदार्थाः सन्ति, परद्रव्यादिभिस्तु न सन्ति, तथा चोक्तम् - "सदेव सर्वं को नेच्छेत्स्वरूपादिचतुष्टयात् ? । असदेव विपर्यासान्न | चेन व्यवतिष्ठते || १||" इत्यादिकं विभज्यवादं वदेदिति । विभज्यवादमपि भाषाद्वितयेनैव ब्रूयादित्याह - भाषयोः - आद्यचरमयोः सत्यासत्यामृषयोकिं भाषाद्विकं तद्भापायं कचित्पृष्टोऽपृष्टो वा धर्मकथावसरेऽन्यदा वा सदा वा 'ब्यागृणीयात्' मायेत, किंभूतः सन् १- सम्यक् - सत्संयमानुष्ठानेनोत्थिताः समुत्थिताः- सत्साधव उद्युक्तविहारिणो न पुनरुदायिन्नृपमारकात्कृत्रिमास्तैः सम्यगुत्थितैः सह विहरन् चक्रवर्तिद्रमकयोः समतया रागद्वेषरहितो वा शोभनग्रो भाषाद्वयोपेतः सम्यग्धर्म व्यागृणी
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र - [ ०२], अंग सूत्र [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [२४], नियुक्ति: [१३१]
सूत्रकृताङ्गं
प्रत सूत्रांक ||२४||
यादिति ॥ २२ ॥ किश्चान्यत्-तस्यैवं भाषाद्वयेन कथयतः कश्चिन्मेधावितया तथैव तमर्थमाचार्यादिना कथितमनुगच्छन् सम्य-15
48|१४ग्रन्थाशीलाका
Iगवबुध्यते, अपरस्तु मन्दमेधावितया वितथम् अन्यथैवाभिजानीयात् , तं च सम्यगनवबुध्यमानं तथा तथा-तेन तेन हेतूदाह- ध्ययन चार्यायवृ
रणसधुक्तिप्रकटनप्रकारेण मूर्खस्त्वमसि तथा दुर्दुरूढः खचिरित्यादिना कर्कशवचनेनानिर्भलैयन् यथा यथाऽसी बुध्यते तथा तथा त्तियुतं 'साधुः सुप्तु बोधयेत् न कुत्रचित्क्रुद्धमुखहस्तौष्ठनेत्रविकारैरनादरेण कथयन् मनःपीडामुत्पादयेत् , तथा प्रश्नयतस्तद्भाषामपशब्दा
दिदोषदुष्टामपि थिग मूर्खसंस्कृतमते ! किं तवानेन संस्कृतेन पूर्वोत्तरव्याहतेन बोच्चारितेनेत्येवं 'न विहिस्यात्' न तिरस्कुर्याद् ॥२५०॥
असंबद्धोधडनतस्तं प्रश्नयितारं न विडम्बयेदिति । तथा निरुद्धम्-अर्थस्तोकं दीर्घवाक्यमहता शम्ददर्दुर्दरेणार्कविटपिकाष्टिकान्यायेन न कथयेत् निरुद्धं वा-स्तोककालीनं व्याख्यानं व्याकरणतर्कादिप्रवेशनद्वारेण प्रसक्त्यानुप्रसक्या 'न दीर्घयेत्'न 18
दीर्घकालिकं कुर्यात, तथा चोक्तम्-"सो' अत्थो बत्तो जो भण्णइ अक्खरहिं थोवेहिं । जो पुण थोवो बहुअक्सरेहिं सो होई। 18| निस्सारो ॥१॥" तथा किंचित्सूत्रमल्पाक्षरमल्पार्थ वा इत्यादि चतुर्भङ्गिका, तत्र यदल्पाक्षरं महाथ तदिह प्रशस्थत इति ॥२३॥
अपिच-यत्पुनरतिविषमसादल्पाक्षरैर्न सम्यगवबुध्यते तत्सम्यग्-शोभनेन प्रकारेण समन्तात्पर्यायशब्दोचारणतो भावार्थकथनत
वालपेद्-भाषेत समालपेत्, नाल्पैरेवाक्षरैरुक्ला कृतार्थो भवेद्, अपितु ज्ञेयगहनार्धभाषणे सद्धेतुयुक्त्यादिभिः श्रोतारमपेक्ष्य || प्रतिपूर्णभाषी स्थादू-अस्खलितामिलिताहीनाक्षरार्थवादी भवेदिति । तथाऽऽचार्यादेः सकाशायथावदर्थ थुखा निशम्य अवगम्य | ॥२५०॥ ||च सम्यग्-यथावस्थितमर्थ यथा गुरुसकाशादवधारितमर्थ-प्रतिपायं द्रष्टुं शीलमस्य स भवति सम्यगर्थदर्शी, स एवंभूतः संस्तीर्थ
१. सोऽर्थी वक्तव्यो यो मण्यतेऽक्षरः लोकः । यः पुनः सोको बहुभिरक्षः स भवति निस्सारः ॥१॥
दीप
अनुक्रम [६०३]
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [२४], नियुक्ति: [१३१]
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IS कराज्ञया सर्वज्ञप्रणीतागमानुसारेण 'शुद्धम् अवदातं पूर्वापराविरुद्धं निरवयं वचनमभियुञ्जीतोत्सर्गविषये सति उत्सर्गमपवादवि
पये चापवाद तथा स्वपरसमययोर्यथावं वचनमभिवदेत् । एवं चाभियुञ्जन् भिक्षुः पापविवेक लाभसत्कारादिनिरपेक्षतया काङ्गामाणो निदोष वचनमभिसन्धयेदिति ।। २४ ।। पुनरपि भाषाविधिमधिकृत्याह
अहाबुइयाई सुसिक्खएजा, जइज्जया णातिवेलं वदेजा । से दिट्टिमं दिट्टिण लूसए जा, से जाणई भासिउं तं समाहिं ॥ २५॥ अलूसए णो पच्छन्नभासी, णो सुत्तमत्थं च करेज ताई। सत्थारभत्ती अणुवीइ वायं, सुयं च सम्म पडिवाययंति ॥ २६ ॥ से सुद्धसुत्ते उवहाणवं च, धम्मं च जे विंदति तत्थ तत्थ । आदेजवके कुसले वियत्ते, स अरिहइ भासिउं तं समाहिं ॥ ॥ २७॥ तिबेमि ॥ इति ग्रन्थनामयं चउदसमज्झयणं समत्तं ॥ (गाथाय ५१८) यथोक्तानि तीर्थकरगणधरादिभिस्तान्यहर्निश 'मुष्टु शिक्षेत' ग्रहणशिक्षया सर्वज्ञोक्तमागर्म सम्यग् गृह्णीयाद् आसेवनाशि-18 | क्षया खनवरतमुयुक्तविहारितयाऽऽसेवेत, अन्येषां च तथैव प्रतिपादयेद् , अतिप्रसक्तलक्षण निवृत्तये खपदिश्यते, सदा ग्रहणासेवनाशिक्षयोर्देशनायां यतेत, सदा यतमानोऽपि यो यस्य कर्तव्यस्य कालोऽध्ययनकालो वा तां वेलामतिलङ्घय नातिवेलं वदेदूअध्ययनकर्तव्यमर्यादा नातिलङ्घयेत्स(दस)दनुष्ठानं प्रति ब्रजेद्वा, यथावसरं परस्पराबाधया सर्वाः क्रियाः कुर्यादित्यर्थः । स एवंगुण
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दीप अनुक्रम [६०३]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [२७], नियुक्ति: [१३१]
प्रत सूत्रांक
त्तियुतं
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सूत्रकृताङ्ग जातीयो यथाकालवादी यथाकालचारी च 'सम्यगदृष्टिमान् यथावस्थितान् पदार्थान् श्रधानो देशनां व्याख्यानं वा कुर्वन् | १४ग्रन्थाशीलाङ्का-18'दृष्टिं सम्यग्दर्शनं 'न लूषयेत् न दूषयेत् , इदमुक्तं भवति-पुरुषविशेषं झाला तथा तथा कथनीयमपसिद्धान्तदेशनापरि
ध्ययनं. | हारेण यथा यथा श्रोतुः सम्यक्वं स्थिरीभवति, न पुनः शलोत्पादनतो दृष्यते, यश्चैवंविधः स 'जानाति अवबुध्यते 'भाषित
प्ररूपयितुं 'समाधि सम्पगदर्शनज्ञानचारित्राख्यं सम्यक्त्तिव्यवस्थानारूयं वा तं सर्वज्ञोक्तं समाधि सम्यगवगच्छतीति ।।
R॥२५॥ किंचान्यत्-'अलूसए' इत्यादि, सर्वज्ञोक्तमागमं कथयन् 'नो लूषयेत्' नान्यथाऽपसिद्धान्तव्याख्यानेन दूषयेत् , ॥२५॥
तथा 'न प्रच्छन्नभाषी भवेत्' सिद्धान्तार्थमविरुद्धमवदातं सार्वजनीनं तत्प्रच्छन्नभाषणेन न मोपयेत् , यदिवा प्रच्छन्नं वाऽथे-15 मपरिणताय न भाषेत, तद्धि सिद्धान्तरहस्यमपरिणतशिष्यविध्वंसनेन दोषायैव संपद्यते, तथा चोक्तम्-"अप्रशान्तमती शास्त्रसद्भावप्रतिपादनम् । दोषायाभिनवोदीर्ण, शमनीयमिव ज्वरे ॥१॥" इत्यादि, न च सूत्रमन्यत् खमतिविकल्पनतः खपरवायी कुर्षी-18 तान्यथा वा सूत्रं तदर्थे वा संसाराभायी-प्राणशीलो जन्तूनां न विदधीत, किमित्यन्यथा मूत्रं न कर्तव्यमित्याह-परहितकरतः || शास्ता तसिन् शास्तरि या व्यवस्थिता भक्ति-बहुमानस्तया तद्भक्या अनुविचिन्त्य-ममानेनोक्तेन न कदाचिदागमबाधा खादित्येवं पर्यालोच्य कादं वदेत् , तथा यच्छ्रुतमाचार्यादिभ्यः सकाशात्तत्तथैव सम्यक्खाराधनामनुवर्तमानोऽन्येभ्य ऋणमोक्षं प्रतिपद्य
॥२५॥ मानः 'प्रतिपादयेत्' प्ररूपयेन मुखशीलतां मन्यमानो यथाकथंचित्तिष्ठेदिति ॥ २६ ॥ अध्ययनोपसंहारार्थमाह-'स' सम्य-18| ग्दर्शनखालूषको यथावस्थितागमस्य प्रणेताऽनुविचिन्त्यभाषकः शुद्धम् अवदातं यथावस्थितवस्तुप्ररूपणतोऽध्ययनतश्च सूत्र-प्रवचनं यस्यासौ शुद्धसूत्रः, तथोषधानं तपश्चरणं यद्यस्य सूत्रसाभिहितमागमे तद्विद्यते यस्खासावुपधानवान् , तथा 'धर्म' श्रुतचारि-12
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [२७], नियुक्ति: [१३१]
प्रत सूत्रांक
त्राख्यं यः सम्यक् वेत्ति विन्दते वा-सम्यग् लभते 'तत्र तत्रेति य आज्ञापायोऽर्थः स आज्ञयैव प्रतिपत्तव्यो हेतु कस्तु सम्यग्धे
तुना यदिवा खसमयसिद्धोऽर्थः खसमये व्यवस्थापनीयः पर(समय)सिद्धच परसिन् अथवोत्सर्गापवादयोर्व्यवस्थितोऽर्थस्ताभ्यामेव || यथावं प्रतिपादयितथ्यः, एतद्गुणसंपन्नश्च 'आदेयवाक्यो' ग्राह्यवाक्यो भवति, तथा 'कुशलों निपुणः आगमप्रतिपादने ।
सदनुष्ठाने च 'व्यक्तः' परिस्फुटो नासमीक्ष्यकारी, यचैतद्गुणसमन्वितः सोऽर्हति-योग्यो भवति 'त' सर्वज्ञोक्तं ज्ञानादिकं वा भावसमाधि 'भाषितुं' प्रतिपादयित, नापरः कचिदिति । इतिः परिसमाप्त्यर्थे, अधीमीति पूर्ववत् , गतोऽनुगमो, नयाः प्राग्व-18 व्याख्येयाः ॥ २७॥ समाप्तं चतुर्दशं ग्रन्थाख्यमध्ययनमिति ॥
||२७||
aeesesearceaeecene
000000000000
दीप अनुक्रम [६०६]
इति श्रीसूत्रकृताङ्गे ग्रन्थनामकमध्ययनं समाप्तम् ॥ राwwwsik
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२), अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: अत्र चतुर्दशं अध्ययनं समाप्तं
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[भाग-4] “सूत्रकृत्" - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [२७...], नियुक्ति: [१३२]
Saverage
प्रत सूत्रांक
सूत्रकृताङ्गं शीलाकाचापीयवृनियुतं ॥२५२।।
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दीप
अथ आदाननामकं पञ्चदशमध्ययनं प्रारभ्यते ॥
१५आदा
नीयाध्य अथ चतुर्दशाध्ययनानन्तरं पञ्चदशमारभ्यते, अस्य चायमभिसंवन्धः-इहानन्तराध्ययने सवायाभ्यन्तरस्य ग्रन्थस्य परित्यागो, विधेय इत्यभिहितं, ग्रन्थपरित्यागाचायतचारित्रो भवति साधुः ततो याहगसौ यथा च संपूर्णामायतचारित्रता प्रतिपद्यते तदने-18 नाध्ययनेन प्रतिपाद्यते, तदनेन संबन्धेनायातस्यास्याध्ययनख चखार्यनुयोगद्वाराण्युपक्रमादीनि भवन्ति, तत्रोपक्रमान्तर्गतोऽर्धाधि-18 कारोऽयं, तद्यथा-आयतचारित्रेण साधुना भाव्यं । नामनिष्पने तु निक्षेपे आदानीयमिति नाम, मोक्षार्धिनाऽशेषकर्मक्षयाध यज्ज्ञानादिकमादीयते तदत्र प्रतिपाद्यत इतिहखा आदानीयमिति नाम संवृत्तं । पर्यायद्वारेण च प्रतिपादितं सुग्रहं भवतीत्यत | आदानशब्दस तत्पर्यायस्य च ग्रहणशब्दस निक्षेपं कर्तुकामो नियुक्तिकदाहआदाणे गहणमि य णिक्खेवो होति दोण्हवि चउक्को । एगहुँ नाणटुं च होज पगयं तु आदाणे ॥ १३२ ॥ जं पढमस्संतिमए बितियस्स उ तं हवेज आदिमि । एतेणादाणिजं एसो अन्नोऽवि पन्जाओ।। १३३ ॥ |णामादी ठवणादी दवादी चेव होति भावादी। दव्वादी पुण दब्वस्स जो सभावो सप ठाणे ॥ १३४ ॥ B २५२॥
आगमणोआगमओ भावादी तं बुहा उवदिसंती । णोआगमओ भावो पंचविहो होइ णायचो ॥ १३५॥ |आगमओ पुण आदी गणिपिडगं होइ बारसंगं तु । गंधसिलोगो पदपादअक्खराइं च तत्वादी ॥ १३६ ।।
अनुक्रम [६०६]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२), अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: अत्र पञ्चदशमं अध्ययनं "आदानीय/जमतीय" आरब्धं, तस्य पूर्व-अध्ययनेन सह अभिसंबंध:, 'आदान' शब्दस्य निक्षेपा:
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [२७...], नियुक्ति: [१३६]
Cacceiveces
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taerathesesesememesescenesses
अथवा 'जमतीय'ति अस्वाध्ययनस्य नाम, तबादानपदेन, आदावादीयते इत्यादानं, तब ग्रहणमित्युच्यते, तत आदानग्रहण-1 योनिक्षेपार्थ नियुक्तिकदाह-'आदाणे इत्यादि, आदीयते कार्यार्थिना तदित्यादानं, कर्मणि ल्युट् प्रत्ययः, करणे वा, आदीयते| गृह्यते स्वीक्रियते विवक्षितमनेनेतिकृत्वा, आदानं च पर्यायतो ग्रहणमित्युच्यते,तत आदानग्रहणयोनिक्षेपो(पे) भवति द्वौ चतुष्को, तद्यथा-नामादानं स्थापनादानं द्रव्यादानं भावादानं च, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यादानं वित्तं, यसालौकिकैः परित्यक्तान्यकर्तव्यमहता क्लेशेन तदादीयते, तेन वाऽपरं द्विपदचतुष्पदादिकमादीयत इतिकला, भावादानं तु द्विधा-प्रशस्तमप्रशस्तं च, तत्राप्रशस्तं क्रोधाद्युदयो मिथ्याखाविरत्यादिकं वा, प्रशस्तं तूनरोत्तरगुणश्रेण्या विशुद्धाध्यवसायकण्डकोपादानं सम्यग्ज्ञाना| दिकं वेत्येतदर्थप्रतिपादनपरमेतदेव वाऽध्ययनं द्रष्टव्यमिति, एवं ग्रहणेऽपि नामादिकश्चतुर्धा निक्षेपो द्रष्टव्यः, भावार्थोऽप्यादानप-18 दस्पेव द्रष्टव्यः, तत्पर्यायसादस्वेति । एतच्च ग्रहणं नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुमूत्रार्थनयाभिप्रायेणादानपदेन सहालोच्यमानं शकेन्द्रादि| वदेकार्थम्-अभिन्नार्थ भवेत्, शब्दसमभिरूढेत्थंभूतशब्दनयाभिप्रायेण च नानाथ भवेत् । इह तु 'प्रकृतं' प्रस्ताव 'आदाने'
आदानविषये यत आदानपदमाश्रित्यास्याभिधानमकारि, आदानीयं वा ज्ञानादिकमाश्रित्य नाम कृतमिति ।। आदानीयाभिधान-19 स्थान्यथा वा प्रवृत्तिनिमित्तमाह-यत् पदं प्रथमश्लोकस्य तदर्धस्य च अन्ते-पर्यन्ते तदेव पदं शब्दतोऽर्थत उभयतश्च द्वितीयश्लोक-IN स्थादौ तदर्धस्स वाऽऽदौ भवति एतेन प्रकारेण-आयन्तपदसदृशखेनादानीयं भवति, एष आदानीयाभिधानप्रवृत्तेः 'पर्याय अभिप्रायः अन्यो वा विशिष्टज्ञानादि आदानीयोपादानादिति । केचित्तु पुनरस्थाध्ययनसान्तादिपदयोः संकलनात्संकलिकेति नाम १ कर्मकरणयोर्मेदात, यद्वा धातुभेदनार्थभेदात् , सामान्य ग्रहणं आदाबादानादादानमिति वा भेदः ।
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: 'आदान' शब्दस्य अर्थ: एवं भेदा:,
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सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का
चार्यांयनियुतं
॥२५३॥
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [२७...], निर्युक्तिः [१३६]
कुर्वते, तस्या अपि नामादिकञ्चतुर्धा निक्षेपो विधेयः, तत्रापि द्रव्यसंकलिका निगडादौ भावसंकलना तूत्तरोतरविशिष्टाध्यवसायसंकलनम्, इदमेव वाऽध्ययनम्, आद्यन्तपदयोः संकलनादिति । येषामादानपदेनाभिधानं तन्मतेनादौ यत्पदं तदादानपदम्, अत आदेर्निक्षेपं कर्तुकाम आह— आदेर्नामादिकञ्चतुर्धा निक्षेपः, नामस्थापने सुगमत्वादनादृत्य द्रव्यादि दर्शयति – द्रव्यादिः पुनः 'द्रव्यस्य' परमाण्वादेर्यः 'स्वभावः' परिणतिविशेषः 'स्वके स्थाने' स्वकीये पर्याये प्रथमम् आदौ भवति स द्रव्यादिः, द्रव्यस्य दध्यादेर्य आद्यः परिणतिविशेषः क्षीरस्य विनाशकालसमकालीनः एवमन्यस्यापि परमाण्वादेर्द्रव्यस्य यो यः परिणतिविशेषः प्रथममुत्पद्यते स सर्वोऽपि द्रव्यादिर्भवति । ननु च कथं क्षीरविनाशसमय एवं दध्युत्पादः ?, तथाहि उत्पादविनाशौ भावाभाव४ रूपौ वस्तुधर्मौ बर्तेते, न च धर्मो धर्मिणमन्तरेण भवितुमर्हति, अत एकस्मिन्नेव क्षणे तद्धर्मिणोद धिक्षीरयोः सत्ताऽवाप्नोति एतच्च दृष्टेष्टबाधितमिति, नैष दोषः यस्य हि वादिनः क्षणमात्रं वस्तु तस्यायं दोषो, यस्य तु पूर्वोत्तरक्षणानुगतमन्वयि द्रव्यमस्ति तस्यायं दोष एव न भवति, तथाहि तत्परिणामिद्रव्यमेकस्मिन्नेव क्षणे एकेन खभावेनोत्पद्यते परेण विनश्यति, अनन्तधर्मात्मकलाद्वस्तुन इति यत्किंचिदेतत् । तदेवं द्रव्यस्य विवक्षितपरिणामेन परिणमतो य आद्यः समयः स द्रव्यादिरिति स्थितं द्रव्यस्य प्राधान्येन विवक्षितत्वादिति ॥ साम्प्रतं भावादिमधिकृत्याह - भावः - अन्तःकरणस्य परिणतिविशेषस्तं 'बुद्धाः' तीर्थकरगणधरादयो 'व्यपदिशन्ति' प्रतिपादयन्ति तद्यथा-आगमतो नोआगमतञ्च तत्र नोआगमतः प्रधानपुरुषार्थतया चिन्त्यमानलात् 'पञ्चवि धः' पञ्चप्रकारो भवति, तद्यथा--प्राणातिपात विरमणादीनां पञ्चानामपि महाव्रतानामाद्यः प्रतिपतिसमय इति, तथा 'आगमओ' इत्यादि, आगममाश्रित्य पुनरादिरेवं द्रष्टव्यः, तद्यथा - यदेतद्गणिनः- आचार्यस्य पिटकं सर्वस्वमाधारो वा तद्वादशाङ्गं भव
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१५ आदा
नीयाध्य०
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॥२५३॥
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र -[ ०२] अंग सूत्र [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः 'संकलिका' शब्दस्य नामादि निक्षेपाः, आदि पदस्य निक्षेपाः
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [१], नियुक्ति: [१३६]
प्रत सूत्रांक ||१||
ceaesereeroeserved
ति, तुशब्दादन्यदप्युपाङ्गादिकं द्रष्टव्यं, तस्य च प्रवचनस्यादिभूतो यो ग्रन्थस्तस्याप्याद्यः श्लोकस्तत्राप्याद्यं पदं तस्यापि प्रथमम
धरम् , एवं विधो बहुप्रकारो भावादिद्रष्टव्य इति । तत्र सर्वस्यापि प्रवचनस्थ सामायिकमादिस्तस्थापि करोमीति पदं तस्यापि ॥ K ककारो, द्वादशानां खङ्गानामाचाराङ्गमादिस्तस्यापि शखपरिज्ञाध्ययनमस्खापि च जीवोद्देशकस्तस्यापि 'सुर्य'ति पदं तस्थापि सु
कार इति, अस्य च प्रकृताङ्गस्य समयाध्ययनमादिस्तस्यापि आधुद्देशक श्लोकपादपदवर्णादिष्टव्य इति । गतो नामनिष्पनो निक्षेपः, तदनन्तरमस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारयितव्यं, तबेदम्
जमतीतं पडुपन्नं, आगमिस्सं च णायओ । सवं मन्नति तं ताई, दसणावरणंतए ॥१॥ अंतए वितिगिच्छाए, से जाणति अणेलिसं । अणेलिसस्स अक्खाया, ण से होइ तहिं तहिं ॥२॥ तहिं तहिं सुयक्खायं, से य सच्चे सुआहिए । सया सञ्चेण संपन्ने, मित्तिं भूएहि कप्पए ॥३॥ भूएहिं न विरुज्झेजा, एस धम्मे बुसीमओ । बुसिमं जगं परिन्नाय, अस्सि जीवितभावणा ॥४॥ अस्स चानन्तरसूत्रेण संवन्धो वक्तव्यः, स चाय, तद्यथा-आदेयवाक्यः कुशलो व्यक्तोऽर्हति तथोक्तं समाधि भापितुं, यश्च । यदतीतं प्रत्युत्पन्नमागामि च सर्वमवगच्छति स एव भाषितुमर्हति नान्य इति । परम्परसूत्रसंबन्धस्तु य एवातीतानागतवर्तमानकालत्रयवेदी स एवाशेषवन्धनानां परिज्ञाता त्रोटथिता वेत्येतदुध्येतेत्यादिका संबन्धोऽपरसूत्रैरपि स्वबुवा लगनीय इति । तदेवं प्रतिपादितसंवन्धस्यास्य सूत्रस व्याख्या प्रस्तूयते—यक्किमपि द्रव्यजातमतीतं यच्च प्रत्युत्पनं यथानामतम्-एण्यत्कालभावि
दीप अनुक्रम [६०७]
ainatorary.om
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२), अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: मूल-सूत्रस्य आरम्भ:,
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१३६]
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मूत्रकृताङ्गं
चियुतं
प्रत सूत्रांक ||४||
18| तस्यासौ सर्वस्यापि यथावस्थितस्वरूपनिरूपणतो 'नायकः' प्रणेता, यथावस्थितवस्तुखरूपप्रणेतसं च परिज्ञाने सति भवत्यतस्तदु- १५आदाशीलाका
पदिश्यते-'सर्वम् अतीतानागतवर्तमानकालत्रयभावतो द्रव्यादिचतुष्कस्वरूपतो द्रव्यपर्यायनिरूपणतश्च मनुते-असी जानाति नीयाध्य० चायि. सम्यक परिच्छिनत्ति तत्सर्वमवबुध्यते, जानाना विशिष्टोपदेशदानेन संसारोत्तारणतः सर्वप्राणिनां त्रायसी-त्राणकरणशीला,
यदिवा-'अयवयषयमयचयतयणय गता' वित्यस्य धातोर्घञ्प्रत्ययः, तयन तायः स वियते यस्यासी तायी, 'सर्वे गत्यर्था |
ज्ञानाथों' इतिकखा सामान्यख परिच्छेदको, मनुते इत्यनेन विशेषस्य, तदनेन सर्वज्ञः सर्वदशी चेत्युक्तं भवति, न च कारणमन्त॥२५॥
रेण कार्य भवतीत्यत इदमपदिश्यते-दर्शनावरणीयस्य कर्मणोऽन्तकः, मध्यग्रहणे (न)तु घातिचतुष्टयस्थान्तकृद् द्रष्टव्य इति ।।१।। यत्र घातिचतुष्टयान्तकस ईडग्भवतीत्याह-विचिकित्सा-चित्तविप्नुतिः संशयज्ञानं तस्यासी तदावरणक्षयादन्तकृत् संशय विपर्ययमिथ्याज्ञानानामविपरीतार्थपरिच्छेदादन्ते वर्तते, इदमुक्तं भवति-वत्र दर्शनावरणक्षयप्रतिपादनात् ज्ञानाद् भिन्नं दर्शनमित्युक्तं 81 भवति, ततश्च येषामेकमेव सर्वज्ञस्य ज्ञान वस्तुगतयोः सामान्यविशेषयोरचिन्त्यशक्युपेतखापरिच्छेदकमित्येषोऽभ्युपगमः सोऽनेन पृथगावरणक्षयप्रतिपादनेन निरस्तो भवतीति, यश्च घातिकर्मान्तकृदतिकान्तसंशयादिज्ञानः सः 'अनीदृशम्' अनन्यसदृशं 8 जानीते न तत्तुल्यो वस्तुगतसामान्यविशेषांशपरिच्छेदक उभयरूपेणैव विज्ञानेन विद्यत इति, इदमुक्त भवति-न तज्ज्ञानमित-|| रजनज्ञानतुल्यम् , अतो यदुक्तं मीमांसकै:--सर्वज्ञस्य सर्वपदार्थपरिच्छेदकखेऽभ्युपगम्यमाने सर्वदा स्पर्शरूपरसगन्धवर्णशब्दपरिच्छे-IM॥२५४॥ दादनभिमतद्रव्यरसास्वादनमपि प्राप्नोति, तदनेन व्युदतं द्रष्टव्यं, यदप्युच्यते-सामान्येन सर्वत्रसद्भावेऽपि शेषहेतोरभावादहेत्येव संप्रत्ययो नोपपद्यते, तथा चोक्तम्-"अह(रुह)न् यदि सर्वज्ञो, बुद्धो नेत्यत्र का प्रमा? | अथोभावपि सपेशी, मतभेदस्तयोः18
दीप अनुक्रम [६१०]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१३६]
प्रत सूत्रांक |४||
२५५-१
कथम् ॥१॥" इत्यादि, एतत्परिहारार्थमाह-'अनीदृशस्य अनन्यसशस्य यः परिच्छेदक आख्याता च नासौ 'तत्र तत्र' दर्शने चौद्धादिके भवति, तेषां द्रव्यपर्याययोरनभ्युपगमादिति, तथाहि-शाक्यमुनिः सर्व क्षणिकमिच्छन् पर्यायानेबेच्छति न द्रव्य, द्रव्यमन्तरेण च निजलात् पर्यायाणामप्यभावः प्राप्नोत्यतः पर्यायानिच्छताऽवश्यमकामेनापि तदाधारभूतं परिणामि S द्रव्यमेष्टव्यं, तदनभ्युपगमाच नासी सर्वज्ञ इति, तथा अप्रत्युतानुत्पन्न स्थिरैकखभावस्य द्रव्यस्वकस्वाभ्युपगमादध्यक्षाध्यवसीय-18 मानानामर्थक्रियासमर्थानां पर्यायाणामनभ्युपगमाभिष्पर्यायस्य द्रव्यस्थाप्यभावात्कपिलोऽपि न सर्पज्ञ इति, तथा क्षीरोदकवदभि-18 त्रयोद्रव्यपर्याययोर्भदेनाभ्युपगमादुलूकस्यापि न सर्वज्ञखम् । असर्वज्ञवाञ्च तीर्थान्तरीयाणां मध्ये न कश्चिदप्यनीदशस्य अनन्यस| दृशस्वार्थस्य द्रव्यपर्यायोभयरूपस्याख्याता भवतीत्यहनेवातीतानागतवर्तमानत्रिकालवर्तिनोऽर्थस्य खाख्यातेति न तत्र तत्रेति स्थि-18 | तम् ॥ २॥ साम्प्रतमेतदेव कुतीथिकानामसर्वज्ञसमर्हतच सर्वज्ञवं यथा भवति तथा सोपपत्तिकै दर्शयितुमाह-तत्र तत्रेति बीप्सापदं यवत्तेनाहता जीवाजीवादिकं पदार्थजातं तथा मिथ्यालाविरतिप्रमादकवाययोगा बन्धहेतव इतिकला संसारकारणलेन | तथा सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति मोक्षान्तयेत्येतत्सर्व पूर्वोत्तराविरोधितया युक्तिभिरुपपन्नतया च सुष्ठाख्यातंखाख्यातं, तीथिकवचनं तु 'न हिंस्याद्भूतानीति भणिसा तदुपमर्दकारम्भाभ्यनुज्ञानात्पूर्वोत्तरविरोधितया तत्र तत्र चिन्त्यमानं नियुक्तिकत्वान्न वाख्यातं भवति, स चाविरुद्धार्थवाख्याता रागद्वेषमोहानामनृतकारणानामसंभवात् सन्यो हितसाच सत्यः 'खाख्यातः तत्स्वरूपविद्धिः प्रतिपादितः । रागादयो धनृतकारणं ते च तस्य न सन्ति अतः कारणाभावात्कार्याभाव इति| कृखा तद्धचो भूतार्थप्रतिपादक, तथा चोक्तम्-"वीतरागा हि सर्वज्ञा, मिथ्या न बुवते बचः । यस्मात्तस्मादचस्तेषां,
दीप
अनुक्रम [६१०
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१३६]
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सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचाय-यत्चियुतं
प्रत सूत्रांक |४||
॥२५५॥
तथ्यं भूतार्थदर्शनम् ॥ १॥" ननु च सर्वजखमन्तरेणापि हेयोपादेयमात्रपरिज्ञानादपि सत्यता भवत्येव, तथा चोक्तम्- "सर्व १५आदापश्यतु वा मा वा, तच्चमिष्टं तु पश्यतु । कीटसंख्यापरिज्ञानं, तस्य नः कोपयुज्यते ? ॥ १॥ इत्याशयाह-'सदा' सर्वकालं.
नीयाध्य. 'सत्येन' अवितथभाषणत्वेन संपन्नोऽसौ' अवितथभाषणलं च सर्वज्ञखे सति भवति, नान्यथा, तथाहि-कीटसंख्यापरिज्ञाना-18 संभवे सर्वत्रापरिज्ञानमाशङ्वत, तथा चोक्तम्-"सदृशे बाधासंभवे तल्लक्षणमेव दृषितं खात्" इति सर्वत्रानाश्वासः, तसात्सर्वज्ञसं 8 तस्य भगवत एष्टव्यम् , अन्यथा तद्वचसः सदा सत्यता न स्यात् , सत्यो वा संयमः सन्तः-प्राणिनस्तेभ्यो हितसाद् अतस्तेन तपःप्रधानेन संयमेन भूतार्थहितकारिणा 'सदा सर्वकालं 'संपन्नों' युक्तः, एतद्गुणसंपन्नश्वासौ 'भूतेषु' जन्तुषु 'मैत्री' तद्रक्षणपरतया भूतदयां 'कल्पयेत्' कुर्यात् , इदमुक्तं भवति–परमार्थतः स सर्वज्ञस्तत्वदर्शितया यो भूतेषु मैत्री कल्पयेत् , तथा चोतम्-[“मातृवत्परदाराणि, परद्रव्याणि लोष्टवत् । ] आत्मवत्सर्वभूतानि, यः पश्यति स पश्यति ॥१॥" ॥३॥ यथा र भूतेषु मैत्री संपूर्णभावमनुभवति तथा दर्शयितुमाह-'भूतैः' स्थावरजङ्गमैः सह 'विरोधं न कुर्यात्' तदुपघातकारिणमारम्भ तद्विरोधकारणं दूरतः परिवर्जयेदित्यर्थः स एषः अनन्तरोक्तो भूताविरोधकारी 'धर्मः' खभावः पुण्याख्यो वा 'बुसीमओ'त्ति तीर्थकृतोऽयं सत्संयमवतो वेति । तथा सत्संयमवान् साधुस्तीर्थकृद्धा 'जगत्' चराचरभूतग्रामाख्यं केवलालोकेन सर्वज्ञप्रणीतागमपरिज्ञानेन वा 'परिज्ञाय सम्पगवबुध्य 'अस्मिन् जगति मौनीन्द्रे वा धर्मे भावनाः पञ्चविंशतिरूपा द्वादशप्रकारा वा या
तथा भूतार्य० प्र०।२नासि चिदपि आदर्श
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दीप अनुक्रम [६१०]
||२५५॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत्
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्" - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१३६]
प्रत सूत्रांक ||४||
ecedesesesesesesesee
अभिमतास्ता 'जीवितभावना' जीवसमाधानकारिणीः सत्संयमानतया मोक्षकारिणी वयेदिति ॥ ४ ॥ सद्भावनाभावितस्य यद्भवति तद्दर्शयितुमाह
भावणाजोगसुद्धप्पा, जले णावा व आहिया । नावा व तीरसंपन्ना, सबदुक्खा तिउद्दइ ॥५॥ तिउद्दई उ मेधावी, जाणं लोगंसि पावगं । तुटूंति पावकम्माणि, नवं कम्ममकुवओ॥६॥
अकुबओ ण णत्थि, कम्मं नाम विजाणइ । विन्नाय से महावीरे, जेण जाई ण मिजई ॥ ७॥ ‘ण मिजई महावीरे, जस्स नत्थि पुरेकडं । वाउच जालमचेति, पिया लोगंसि इथिओ ॥८॥
भावनाभिर्योगः-सम्यक्प्रणिधानलक्षणो भावनायोगस्तेन शुद्ध आत्मा-अन्तरात्मा यख स तथा, स च भावनायोगशुद्धात्मा | सन् परित्यक्तसंसारखभावो नौरिव जलोपर्यवतिष्ठते संसारोदन्वत इति, नौरिव-यथा जलेऽनिमज्जनखेन प्रख्याता एवमसावपि संसारोदन्वति न निमजतीति । यथा चासो नियोमकाधिष्ठिताऽनुकूलवातेरिता समस्तद्वन्द्वापगमात्तीरमास्कन्दत्येवमायतचारित्रवान् जीवपोतः सदागमकर्णधाराधिष्ठितस्तपोमारुतवशात्सर्वदुःखात्मकात्संसारात 'युट्यति' अपगच्छति मोक्षाख्यं तीरं सर्वद्वन्द्रो-18 परमरूपमवाप्नोतीति ॥ ५॥ अपिच-स हि भावनायोगशुद्धात्मा नौरिव जले संसारे परिवर्तमानखिभ्यो-मनोवाकायेभ्योऽशुभेभ्यस्मुख्यति, यदिवा अतीव सर्ववन्धनेभ्यखुटयति-मुच्यते अतित्रुबति-संसारादतिवतते 'मेधावी' मर्यादाव्यवस्थितः सदस-18 द्विवेकी वाऽस्मिन् 'लोके चतुर्दशरज्ज्वात्मके भूतग्रामलोके वा यत्किमपि 'पापक' कर्म सावद्यानुष्ठानरूपं तत्कार्य वा अष्टप्रकार
eceneseseseseseneraemesesesedera
२५६/१
दीप
अनुक्रम [६१०]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति: [१३६]
प्रत सूत्रांक ||८||
सूत्रकृताङ्गं 18 कर्म तत् ज्ञपरिज्ञया जानन् प्रत्याख्यानपरिक्षया च तदुपादानं परिहरन् ततखुव्यति, तस्यैवं लोकं कर्म वा जानतो नवानि कर्मा
१५आदाशीलाङ्का- 18 ण्यकुर्वतो निरुद्धाश्रवद्वारस्य विकृष्टतपश्चरणवतः पूर्वसंचितानि कर्माणि त्रुट्यन्ति निवर्तन्ते वा नवं च कर्माकुर्वतोऽशेषकर्मक्षयो भव-18
नीयाध्य तीति ।। ६ । केषाश्चित्सत्यामपि कर्मक्षयानन्तरं मोक्षावाप्ती तथापि खतीर्थनिकारदर्शनतः पुनरपि संसाराभिगमनं भवती(ती) त्तियुतं दमाशयाह-तस्याशेपक्रियारहितस्य योगप्रत्ययाभावास्किमप्यकुर्वतोऽपि 'नवं' प्रत्यय कर्म ज्ञानावरणीयादिकं 'नास्ति' न भवति,
कारणाभावात्कार्याभाव इतिहखा, काभावे च कुतः संसाराभिगमनं ?, कर्मकार्यवात्संसारस्य, तस्य चोपरताशेपद्वन्द्वस्थ खपर॥२५६|M
कल्पनाऽभावाद्रागद्वेपरहिततया खदर्शननिकाराभिनिवेशोऽपि न भवत्येव, स चैतद्गुणोपेतः कर्माष्टप्रकारमपि कारणतस्तद्विपाकतच जानाति, नमनं नाम कर्मनिर्जरणं तब सम्यक् जानाति, यदिवा कर्म जानाति तन्नाम च, अस्य चोपलक्षणार्थखात्तद्भेदांव प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशरूपान् सम्यगवबुध्यते, संभावनायां वा नामशब्दः, संभाव्यते चास्य भगवतः कर्मपरिज्ञानं विज्ञाय च। कर्मबन्धं तसंवरणनिर्जरणोपाय चासौ 'महावीरः' कर्मदारणसहिष्णुस्तत्करोति येन कृतेनामिन् संसारोदरे न पुनर्जायते तदभावाच नापि म्रियते, यदिवा-जात्या नारकोऽयं तिर्यग्योनिकोऽयमित्येवं न मीयते-न परिच्छिद्यते, अनेन च कारणाभावासंसाराभावाविर्भावनेन यत्कैबिदुच्यते-'ज्ञानमप्रतिघं यस्य, वैराग्यं च जगत्पतेः । ऐश्वर्य चैव धर्मच, सहसिद्ध चतुष्टयम् | ॥१॥" इत्येतदपि व्युदस्तं भवति, संसारस्वरूपं विज्ञाय तदभावः क्रियते, न पुनः सांसिद्धिकः कश्चिदनादिसिद्धोऽस्ति, तत्प्रतिपा-2 ।।२५६॥ दिकाया युक्तेरसंभवादिति ।। ७॥ किं पुनः कारणमसी न जात्यादिना मीयते इत्याशङ्कयाह-असौ महावीरः परित्यक्ताशेषकर्मा न जात्यादिना 'मीयते' परिच्छिद्यते, न म्रियते वा, जातिजरामरणरोगशोकैर्वा संसारचक्रवाले पर्यटन् न भियते न पूर्यते,
दीप अनुक्रम [६१४]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति: [१३६]
प्रत सूत्रांक ||८||
किमिति?, यतस्तस्यैव जात्यादिकं भवति यस्य 'पुरस्कृ(राकृतं' जन्मशतोपानं कर्म विद्यते, यस्य तु भगवतो महावीरस्य निरुद्धाअवद्वारस्य 'नास्ति' न विद्यते पुरस्क(राकृतं, पुरस्कृ(राक)तकर्मोपादानाभावाच न तस्य जातिजरामरणभरणं संभाव्यते, तदाश्रवद्वारनिरोधाद्, आश्रवाणां च प्रधानः स्त्रीप्रसङ्गत्तमधिकृत्याह-वायुर्यथा सततगतिरप्रतिस्खलिततया 'अग्निज्वाला दहनात्मिकामप्यत्येति-अतिक्रामति पराभवति, न तया पराभूयते, एवं 'लोके' मनुष्यलोके हावभावप्रधानखात् 'प्रिया'दयितास्तप्रियलाच दुरतिक्रमणीयास्ता अत्येति-अतिक्रामति न ताभिर्जीयते, तत्स्वरूपावगमात् तज्जयविपाकुदर्शनाचेति, तथा चोक्तम्-"मितेन भावेन मदेन लज्जया, परामुखैरधकटाक्षवीक्षितेः । वचोभिरीयाकलहेन लीलया, समस्तभोवैः खलु बन्धनं स्त्रियः ॥१॥ तथाखीणां कृते प्रात्युगख भेदः, संवन्धिभेदे खिय एव मूलम् । अप्राप्तकामा बहवो नरेन्द्रा, नारीभिरुत्सादितराजवंशाः ॥२॥" इत्येवं तरखरूपं परिज्ञाय तजयं विधत्ते, नैतामिर्जीयत इति स्थितम् । अथ किं पुनः कारण स्त्रीप्रसङ्गाश्रवद्वारेण शेपाश्रवद्वारोपलक्षणं क्रियते न प्राणातिपातादिनेति ?, अत्रोच्यते, केषाञ्चिद्दर्शनिनामङ्गनोपभोग आश्रवद्वारमेव न भवति, तथा चोचुः-"न मांसभक्षणे दोपो, न मये न च मैथुने । प्रवृत्तिरेषा भूतानां, निवृत्तिस्तु महाफला ।। १ ॥" इत्यादि, तन्मतब्युदासार्थमेवमुपन्यस्त मिति, यदिवा मध्यमतीकृतां चतुयोम एव धमे, इह तु पञ्चयामो धर्म इत्यसाथसाविभावनायानेनोपलक्षणमकारि, अथवा पराणि व्रतानि सापवादानि इदं तु निरपवाद मिल्यस्थार्थस्य प्रकटनायैवमकारि, अथवा सर्वाण्यपि बतानि तुल्यानि, एकखण्डने सर्व विराघनमितिकखा येन केनचिनिर्देशो न दोपायेति ।। ८ ।। अधुना स्त्रीप्रसनाथवनिरोधफलमाविर्भावयत्राह
वीवशताफला नरकादेः दर्शनात् यहा बीयां वशवतः न भवतीति प्रामु, असममि चेन, तत्खरूपेत्यादि, अनर्थकारित्यावगमा विरतिः, तत्र प्रमाणे कामजपलभ्यफलदर्शनम् जयोपायस्थ भोगजन्यदारुणबिपाकस्व बहानाद्वारा २समन्तपार्श प्रक।
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दीप अनुक्रम [६१४]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [९], नियुक्ति: [१३६]
प्रत सूत्रांक ||९||
सूत्रकृताङ्गं
इथिओ जे ण सेवंति, आइमोक्खा हु ते जणा। तेजणा बंधणुम्मुक्का, नावखंति जीवियं ॥९॥६॥ १५आदाशीलाका- जीवितं पिटुओ किच्चा, अंतं पावंति कम्मुणं । कम्मुणा संमुहीभूता, जे मग्गमणुसासई ॥१०॥18
नीयाध्या चाीयवृत्तियुतं
अणुसासणं पुढो पाणी, वसुमं पूयणासु(स)ते । अणासए जते दंते, दढे आरयमेहुणे ॥११॥
णीवारे व ण लीएज्जा, छिन्नसोए अणाविले । अणाइले सया दंते, संधि पत्ते अणेलिसं ॥१२॥ ॥२५७||
साये महासचा कटुविपाकोऽयं स्त्रीप्रसङ्ग इत्येवमवधारण[त]या खियः सुगतिमार्गार्गलाः संसारवीथीभूताः सर्वाविनयराजधान्यः ॥3
कपटजालशताकुला महामोहनशक्तयो 'न सेवन्ते' न तत्प्रसङ्गमभिलपन्ति त एवंभूता जना इतरजनातीताः साधब आदौप्रथमं मोक्ष:-अशेषद्वन्द्वोपरमरूपो येषां ते आदिमोक्षाः, हुरवधारणे, आदिमोक्षा एवं तेवगन्तव्याः, इदमुक्तं भवति-- | सर्वाधिनयास्पदभूतः खीप्रसङ्गो यः परित्यक्तस्त एवादिमोक्षाः-प्रधानभूतमोक्षाख्यपुरुषार्थोद्यताः, आदिशब्दस प्रधानवाचिसात् ,18
न केवलमुद्यतास्ते जनाः खीपाशवन्धनोन्मुक्ततयाऽशेषकर्मबन्धनोन्मुक्ताः सन्तो 'नावकान्ति ' नाभिलपन्ति असंयमजीवितम् । | अपरमपि परिग्रहादिकं नाभिलपन्ते, यदिवा परित्यक्तविषयेच्छाः सदनुष्ठानपरायणा मोक्षकताना 'जीवितं' दीर्घकालजीवितं ।।।
नाभिकावन्तीति ।।९॥ किंचान्यन्-'जीवितम्' असंयमजीवितं 'पृष्ठतः कृत्वा' अनादृत्य प्राणधारणलक्षणं वा जीवि- ॥२५७|| || तमनारत्य सदनुष्ठानपरायणाः 'कर्मणां' ज्ञानावरणादीनाम् 'अन्तं' पर्यवसानं प्राप्नुवन्सि, अथवा 'कमेणा' सदनुष्ठानेन जी-18 1 वितनिरपेक्षाः संसारोदन्वतोऽन्तं सर्वद्वन्द्वोपरमरूपं मोक्षायमाप्नुवन्ति, सर्वदुःखविमोक्षलक्षणं मोक्षमप्राप्ता अपि कर्मणा-विशि--
दीप अनुक्रम [६१५]
eseatsernecemeseserstisersecene
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [१३६]
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प्रत सूत्रांक
||१२||
Sattatoectsecessceceneseccces
ष्टानुष्ठानेन मोक्षस्य संमुखीभूता घातिचतुष्टयक्षयक्रियया उत्पन्नदिव्यज्ञानाः शाश्वतपदस्साभिमुखीभूताः, क एवंभूता इत्याहA ये विपच्यमानतीर्थकन्नामकर्माणः समासादितदिव्यज्ञाना 'मार्ग' मोक्षमार्ग ज्ञानदर्शनचारित्ररूपम् 'अनुशासन्ति' सच्चहिताय,
प्राणिनां प्रतिपादयन्ति स्वतथानुतिष्ठन्तीति ।। १०॥ अनुशासनप्रकारमधिकृत्याह-अनुशास्यन्ते सन्मार्गेऽवतार्यन्ते सदसद्विवेकतः प्राणिनो येन तदनुशासनं-धर्मदेशनया सन्मार्गावतारणं तत्पृथक् पृथक् भव्याभव्यादिषु प्राणिषु क्षित्युदकवत् स्वाशयव-1
शादनेकधा भवति, यद्यपि च अभन्येषु तदनुशासनं न सम्यक् परिणमति तथापि सर्वोपायज्ञस्यापि न सर्वज्ञस्य दोषः, तेषामेव । 8 स्वभावपरिणतिरियं यया तद्वाक्यममृतभूतमेकान्तपथ्यं समस्तद्वन्द्वोपघातकारि न यथावत् परिणमति, तथा चोक्तम्- "सद्धर्मवी
जबपनानघकौशलस, यल्लोकवान्धव ! तवापि खिलान्यभूवन् । तन्नाद्भुतं खगकुलेष्विह तामसेषु, सूर्याशवो मधुकरीचरणावदाताः ॥१॥" किंभूतोऽसायनुशासक इत्याह-वसु-द्रव्यं स च मोक्षं प्रति प्रवृत्तस्य संयमः तद्विद्यते यस्यासी वसुमान् , पूजनं देवादिकृतमशोकादिकमावादयति-उपभुक्क इति पूजनास्वादकः, ननु चाधाकर्मणो देवादिकृतस्य समवसरणादेरुपभोगात्कथमसौ सत्संयमवानित्याशझवाह-न विद्यते आशयः-पूजाभिप्रायो यस्यासावनाशयः, यदिवा द्रव्यतो विद्यमानेऽपि समवसरणादिके भावतोऽनाखादकोऽसो, तद्गतगााभावात् , सत्यप्युपभोगे 'यतः' प्रयतः सत्संयमवानेवासावेकान्तेन संयमपरायणखान , कुतो? यत | इन्द्रियनोइन्द्रियाभ्यां दान्ता, एतद्गुणोऽपि कथमित्याह-दृढः संयमे, आरतम् उपरतमपगतं मैथुनं यस्य स आरतमैथुन:-अपगते|च्छामदनकामः, इच्छामदनकामाभावाच संयमे दृढोऽसौ भवति, आयतचारित्रखाच दान्तोऽसौ भवति, इन्द्रियनोइन्द्रियदमाञ्च प्रयतः, प्रयत्नवचाच्च देवादिपूजनानास्वादकः, तद्नास्वादनाश सत्यपि द्रव्यतः परिभोगे सत्संयमबानेवासाविति ॥ ११॥ अथ
दीप अनुक्रम [६१८]
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [१३६]
प्रत सूत्रांक
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||१२||
सूत्रकृताङ्ग 8 किमित्यसावुपरतमैथुन इत्याशङ्कयाह-नीवारः-मूकरादीनां पशूनां वध्यस्थानप्रवेशनभूतो भक्ष्यविशेषस्तत्कल्पमेतन्मैथुनं, यथा ||१५आदाशीलाङ्का-2 हि असौ पशु/बारेण प्रलोभ्य बध्यस्थानमभिनीय नानाप्रकारा वेदनाः प्राप्यते एवमसावप्यसुमान् नीवारकल्पेनानेन स्त्रीप्रसङ्गेन। नीयाध्य० चार्याय
वशीकृतो बहुप्रकारा यातनाः प्रामोति, अतो नीवारप्रायमेतन्मैथुनमवगम्य स तस्मिन् ज्ञाततत्वो 'न लीयेत' न स्वीप्रसङ्गं कुर्यात् , सियुतं
किंभूतः समित्याह-छिन्नानि-अपनीतानि स्रोतांसि-संसारावतरणद्वाराणि यथाविषयमिन्द्रियप्रवर्तनानि प्राणातिपातादीनि वा आश्रवद्वाराणि येन स छिन्नस्रोताः, तथा 'अनाविलः' अकलुषो रागद्वेषासंपृक्ततया मलरहितोऽनाकुलो वा-विषयाप्रवृत्तेः वस्थचेता एवंभूतथानाविलोऽनाकुलो वा 'सदा सर्वकालमिन्द्रियनोइन्द्रियाभ्यां दान्तो भवति, ईग्विधश्च कर्मविवरलक्षणं भावसंधिम् 'अनीदृशम्' अनन्यतुल्यं प्राप्तो भवतीति ।। १२ ॥ किश्च
अणेलिसस्स खेयन्ने, ण विरुज्झिज्ज केणइ । मणसा वयसा चेव, कायसा चेव चक्खुमं ॥ १३॥ । से हु चक्खू मणुस्साणं, जे कंखाए य अंतए । अंतेण खुरो वहती, चकं अंतेण लोटुती ॥१४॥ अंताणि धीरा सेवंति, तेण अंतकरा इह । इह माणुस्सए ठाणे, धम्ममाराहिउं णरा ॥ १५॥ | णिट्टियट्टा व देवा वा, उत्तरीए इयं सुयं । सुयं च मेयमेगेसि, अमणुस्सेसु णो तहा ॥ १६॥ ॥२५८॥ 'अनीदृशः' अनन्यसदृशः संयमो मौनीन्द्रधर्मो वा तस्य तस्मिन् वा 'खेदज्ञों निपुणः, अनीशखेदज्ञश्च केनचित्साधन बिरोधं कुर्वीत, सर्वेषु प्राणिषु मैत्री भावयेदित्यर्थः, योगत्रिककरणत्रिकेणेति दर्शयति–'मनसा' अन्तःकरणेन प्रशान्तमनाः,
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दीप अनुक्रम [६१८]
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [१३६]
प्रत सूत्रांक
tracretreececececeseroescaenera
||१६||
| तथा 'वाचा' हितमितभाषी तथा कार्यन निरुद्धदुष्प्रणिहितसर्वकायचेष्टो दृष्टिपूतपादचारी सन् परमार्थतश्चक्षुष्मान् भवतीति।
॥ १३ ॥ अपिच-हुरवधारणे, स एव प्राप्तकर्मविवरोज्नीशस खेदज्ञो भव्यमनुष्याणां चक्षुः-सदसत्पदार्थाविर्भावनान्नेत्रभूतो वर्तते, किंभूतोऽसौ ?, या 'कालायाः' भोगेच्छाया अन्तको विषयतृष्णायाः पर्यन्तवती । किमन्तवर्तीति विवक्षितमर्थ साधयति, साधयत्येवेत्यमुमर्थ दृष्टान्तेन साधयन्नाह-'अन्तेन' पयन्तेन 'क्षुरो' नापितोपकरणं तदन्तेन बहति, तथा चक्रमपि-18 रथाङ्गमन्तेनैव मार्ग प्रवतते, इदमुक्तं भवति-यथा क्षुरादीनां पर्यन्त एवार्थक्रियाकारी एवं विषयकपायात्मकमोहनीयान्त एवाप-18 सदसंसारक्षयकारीति ॥ १४ ॥ अमुमेवार्थमाविर्भावयन्नाह-'अन्तान्' पर्यन्तान् विषयकषायतृष्णायास्तत्परिकर्मणार्थमुद्यानादीनामाहारस्य वाऽन्तप्रान्तादीनि 'धीरा' महासचा विषयसुखनिःस्पृहाः 'सेवन्ते' अभ्यस्खन्ति, तेन चान्तप्रान्ताभ्यसनेन 'अन्तकराः' संसारस्य तत्कारणस्य वा कर्मणः क्षयकारिणो भवन्ति, 'इहे ति मनुष्यलोके आर्यक्षेत्रे वा, न केवलं त एव तीर्थक्करादयः । अन्येऽपीह मानुष्यलोके स्थाने प्राप्ताः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकं धर्ममाराध्य 'नराः' मनुष्याः कर्मभूमिगर्भव्युत्क्रान्तिजसंख्ये
यवर्षायुषः सन्तः सदनुष्ठानसामग्रीमवाप्य 'निष्ठिताथों' उपरतसर्वद्वन्द्वा भवन्ति ।।१५।। इदमेवाह-निष्ठितार्थाः' कृतकृत्या भवन्ति, केचन प्रचुरकर्मतया सत्यामपि सम्यक्सादिकायां सामय्यां न तद्भव एव मोक्षमास्कन्दन्ति अपितु सौधर्माद्याः पञ्चो(शानु)त्तरविमानावसाना देवा भवन्तीति, एतल्लोकोत्तरीये प्रवचने श्रुतम्-आगमः एवंभूतः सुधर्मखामी वा जम्बूस्वामिनमुदि| श्यैवमाह-यथा मर्यंतष्ठोकोत्तरीये भगवत्यहत्युपलब्धं, तयथा-अवाप्तसम्यक्खादिसामग्रीकः सिध्यति वैमानिको वा भवतीति ।। मनुष्यगतावेवैतमान्यत्रेति दर्शयितुमाह-'सुर्य में इत्यादि पश्चाई, तच्च मया तीर्थकरान्तिके 'श्रुतम्' अवगतं, गणधरः वशि-श
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दीप अनुक्रम [६२२]
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [F], मूलं [१६], नियुक्ति: [१३६]
१५आदानीयाध्य
सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्का- चायत्तियुतं
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प्रत सूत्रांक ||१६||
॥२५९॥
व्याणामेकेपामिदमाह-यथा मनुष्य एवाशेषकर्मक्षयात्सिद्धिगतिभाग्भवति नामनुष्य इति, एतेन यच्छाक्यैरभिहितं, तद्यथादेव एवाशेषकर्मप्रहाणं कृता मोक्षभाग्भवति, तदपारतं भवति, न धमनुष्येषु गतित्रयवर्तिषु सचारित्रपरिणामाभावाद्यथा मनु-| प्याणां तथा मोक्षावाप्तिरिति ।। १६ ॥ इदमेव खनामग्राहमाह
अंतं करंति दुक्खाणं, इहमेगेसि आहियं । आघायं पुण एगेसिं, दुल्लभेऽयं समुस्सए ॥ १७ ॥ इओ विद्धंसमाणस्स, पुणो संबोहि दुल्लभा । दुल्लहाओ तहच्चाओ, जे धम्मटुं वियागरे ॥ १८॥ जे धम्मं सुद्धमक्खंति, पडिपुन्नमणेलिसं। अणेलिसस्स जं ठाणं, तस्स जम्मकहा कओ? ॥१९॥ कओ कयाइ मेधावी, उप्पजंति तहागया। तहागया अप्पडिन्ना, चक्खू लोगस्सणुत्तरा ॥२०॥ न बमनुष्या अशेषदुःखानामन्तं कुर्वन्ति, तथाविधसामध्यभावात् , यथैकेषां वादिनामाख्यातं, तद्यथा-देवा एवोत्तरोत्तरं स्थानमास्कन्दन्तोऽशेषलेशाहाणं कुर्वन्ति, न तथेह-आहेते. प्रवचने इति । इदमन्यत पुनरेकेषां गणधरादीनां वशिष्याणां वा गणधरादिभिराख्यातं, तद्यथा-युगसमिलादिन्यायावाप्तकथश्चित्कर्म विवरात् योऽयं शरीरसमुच्छ्यः सोऽकृतधर्मोपायैरसुमद्भिर्महासमुद्रप्रभ्रष्टरलवत्पुनदुलेभो भवति, तथा चोक्तम्-"ननु पुनरिदमतिदुर्लभमगाघसंसारजलधिविभ्रष्टम् । मानुष्यं खयोतकतडिल्लता
१ इष्टितोऽबधारणविर्भवतीवयानतो योजनवकारस्य, तथा चासंभवव्यवच्छेदायैवकारोऽत्र, अस्पधा युद्धस्यापि मनुष्यखादनिर्मोक्षप्रशाः । २ शरीरमेन पुगलसंघात वारसनुच्छ्यः 'उस्सय समुस्सए या' इति वचनात समुच्छप एप मा देहवाचकः शरीरशब्दस्तु विशेषणे ।
दीप अनुक्रम [६२६]
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॥२५९||
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [२०], नियुक्ति: [१३६]
प्रत
सूत्रांक
caeesecenecesesesesearcese
||२०||
विलसितप्रतिमम् ॥१॥” इत्यादि ॥ १७ ॥ अपिच-'इतः अमुष्मात् मनुष्यभवात्सद्धर्मतो वा विध्वंसमानस्साकृतपुण्यस्य पुनरसिन् संसारे पर्यटतो 'बोधि: सम्यगदर्शनावाप्तिः सुदुर्लभा उित्कृष्टतः अपार्धपुद्गलपरावर्तकालेने यतो भवति, तथा 'दर्लभा' दुरापा तथाभूता-सम्यग्दर्शनप्राप्तियोग्या 'अचों' लेश्याऽन्तःकरणपरिणतिरकृतधर्मणामिति, यदिवाऽचर्चा-मनुष्यशरीरं तदप्य-2 कृतधर्मवीजानामार्यक्षेत्रमुकुलोत्पत्तिसकलेन्द्रियसामग्र्यादिरूपं दुर्लभं भवति, जन्तूनां ये धर्मरूपमर्थ व्याकुर्वन्ति, ये धर्मप्रतिपत्ति-12 योग्या इत्यर्थः, तेषां तथाभूतार्चा सुदुर्लभा भवतीति ॥ १८॥ किञ्चान्यत्-ये महापुरुषा वीतरागाः करतलामलकवत्सकलजगद्रष्टारः त एवंभूताः परहितैकरताः 'शुद्धम् अवदातं सर्वोपाधिविशुद्ध धर्मम् 'आख्यान्ति' प्रतिपादयन्ति खतः समाचरन्ति च | 'प्रतिपूर्णम्' आयतचारित्रसवात्संपूर्ण यथाख्यातचारित्ररूपं वा 'अनीदृशम् अनन्यसदृशं धर्मम् आख्यान्ति अनुतिष्ठन्ति(च)। तदेवम् 'अनीदृशस्य' अनन्यसदृशस्य ज्ञानचारित्रोपेतस्य यत् स्थानं-सर्वद्वन्द्वोपरमरूपं तद्वाप्तस्य तस्य कुतो जन्मकथा?, जातो ? मृतो वेत्येवंरूपा कथा खग्नान्तरेऽपि तस्य कर्मवीजाभावात् कुतो विद्यत ? इति, तथोक्तम्-'दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति | नाङ्करः । कर्मवीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङ्करः ॥१॥" इत्यादि ।।१९।।किंचान्यत्-कर्मवीजाभावात् 'कुतः कसा-18 स्कदाचिदपि 'मेधाविनो' ज्ञानात्मकाः तथा-अपुनरावृत्त्या गतास्तथा गताः पुनरस्मिन् संसारेऽशुचिनिगर्भाधाने समुत्पद्यन्ते ?, न कथञ्चित्कदाचित्कर्मोपादानाभावादुत्पयन्त इत्यर्थः, तथा 'तथागताः' तीर्थकद्गणधरादयो न विद्यते प्रतिज्ञा-निदानवन्धनरूपा येषां तेऽप्रतिज्ञा-अनिदाना निराशंसाः सत्त्वहितकरणोयता अनुत्तरज्ञानसादनुत्तरा 'लोकस्य जन्तुगणस्य सदसदर्थ१ वान्तसम्यक्तधर्मस्यैतावताऽवश्यं सम्पक्लस्य पुनः प्राप्तेः ।
दीप अनुक्रम [६२६]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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प्रत
सूत्रांक
||२१||
दीप
अनुक्रम [६२७]
सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचार्यवृ
चियुतं
॥२६०॥
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [२१], निर्युक्तिः [१३६]
निरूपणकारणतश्चक्षुर्भूता हिताहितप्राप्तिपरिहारं कुर्वन्तः सकललोकलोचनभूतास्तथागताः सर्वज्ञा भवन्तीति ॥ २०॥ किञ्चान्यत्अणुत्तरे य ठाणे से, कासवेण पवेदिते । जं किच्चा णिव्वुडा एगे, निट्टं पार्वति पंडिया ॥ २१ ॥ पंडिए वीरियं लड्डु, निग्धायाय पवत्तगं । धुणे पुढकडं कम्मं णवं वाऽवि ण कुवती ॥ २२ ॥ ण कुवती महावीरे, अणुपुवकडं रयं । रयसा संमुहीभूता, कम्मं हेच्चाण जं मयं ॥ २३ ॥ जं मयं सवसाहूणं, तं मयं सलगत्तणं । साहइत्ताण तं तिन्ना, देवा वा अभविंसु ते ॥ २४ ॥ अभविं पुराधी (वी)रा, आगमिस्सावि सुबता । दुन्निबोहस्स मग्गस्स, अंतं पाउकरा तिने ॥२५॥ तिमि । इति पनरसमं जंमइयं नामज्झयणं समत्तं ॥ ( गाथा ६४३ )
न विद्यते उत्तरं प्रधानं यस्मादनुत्तरं स्थानं तच्च तत्संयमाख्यं 'काश्यपेन' काश्यपगोत्रेण श्रीमन्महावीरवर्धमानखामिना 'प्रवेदितम्' आख्यातं, तस्य चानुत्तरत्वमाविर्भावयन्नाह 'यद्' अनुत्तरं संगमस्थानं 'एके' महासत्त्वाः सदनुष्ठायिनः 'कृत्वा ' अनुपालय 'निर्वृताः' निर्वाणमनुप्राप्ताः, निर्वृताथ सन्तः संसारचक्रवालस्य 'निष्ठां' पर्यवसानं 'पण्डिताः पापाडीनाः प्राप्नुवन्ति, तदेवंभूतं संयमस्थानं काश्यपेन प्रवेदितं यदनुष्ठायिनः सन्तः सिद्धिं प्राप्नुवन्तीति तात्पर्यार्थः ॥ २१ ॥ अपि च- 'पण्डि तः सदसद्विवेकज्ञो 'वीर्य' कर्मोद्दलनसमर्थं सत्संयमवीर्यं तपोवीर्य वा 'लब्ध्वा' अवाप्य, तदेव वीर्यं विशिनष्टि-निःशेषकर्मणो
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१५ आदानीयाध्य०
॥२६०॥
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र -[ ०२], अंग सूत्र- [ ०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [२५], नियुक्ति: [१३६]
प्रत सूत्रांक ||२५||
'निर्धाताय निर्जरणाय प्रवर्तकं पण्डितवीर्य, तच्च बहुभवशतदुर्लभं कथश्चित्कर्म विवरादवाप्य 'धुनीयाद्' अपनयेत् पूर्वभवेष्वन-11 केषु यत्कृतम् उपात्तं कर्माष्टप्रकारं तत्पण्डितवीर्येण धुनीयात् 'नवं च' अभिनवं चावनिरोधान करोत्यसाविति ।। २२ ॥8॥ किञ्च-'महावीर कर्मविदारणसहिष्णुः सन्नानुपूर्येण मिथ्यालाविरतिप्रमादकपाययोगैर्यत्कृतं रजोऽपरजन्तुभिस्तदसौ 'न करोतिन विधत्ते, यतस्तत्प्राक्तनोपात्तरजसैवोपादीयते, स च तत्प्राक्तनं कर्मावष्टभ्य सत्संयमासंमुखीभूतः, तदभिमुखीभूतश्च । यन्मतमष्टप्रकारं कर्म तत्सर्व हित्वा' त्यक्ता मोक्षस्य सत्संयमख वा सम्मुखीभूतोऽसाविति ॥ २३ ॥ अन्यच-'जम्मय-18 मित्यादि, सर्वसाधूनां यत् 'मतम्' अभिप्रेतं तदेतत्सत्संयमस्थानं, तद्विशिनष्टि शल्यं-पापानुष्ठानं तजनितं वा कर्म तत्कर्त-18 यति-छिनत्ति यत्तच्छल्यकर्तनं तच सदनुष्ठानं उद्युक्तविहारिणः 'साधयित्वा' सम्यगाराध्य बहवः संसारकान्तारं तीर्णाः, अपरेश तु सर्वकर्मक्षयाभावात् देवा अभूवन , ते चाप्तसम्यक्त्वाः सचारित्रिणो वैमानिकखभवापुः प्राप्नुवन्ति प्राप्स्यन्ति चेति ॥ २४ ॥ | सर्वोपसंहारार्थमाह-'पुरा' पूर्वसिन्ननादिके काले बहवो 'महावीराः' कमविदारणसहिष्णवः 'अभूवन्' भूताः, तथा वर्तमाने।
च काले कर्मभूमौ तथाभूता भवन्ति तथाऽऽगामिनि चानन्ते काले तथाभूताः सत्संयमानुष्ठायिनो भविष्यन्ति, ये किं कृतवन्तः | कुर्वन्ति करिष्यन्ति चेत्याह-यस्य दुर्निबोधस्य-अतीव दुष्प्रापस्य(मार्गस्य)वानदर्शनचारित्राख्पस 'अन्तं' परमकाष्ठामवाप्य तस्यैव ॥४॥ |मार्गस्य 'प्रादुः' प्राकाश्यं तत्करणशीलाः प्रादुष्कराः खतः सन्मार्गानुष्ठायिनोज्येषां च प्रादुर्भावकाः सन्तः संसारार्णवं तीर्णास्तरन्ति | तरिष्यन्ति चेति । गतोऽनुगमः, साम्प्रतं नयाः, ते च प्राग्वत् द्रष्टव्याः । इतिरध्ययनपरिसमाप्ती, अबीमीति पूर्ववत् ।। २५ ॥ इति आदानीयाख्यं पञ्चदशाध्ययनं समाप्तम् ।।
दीप अनुक्रम [६३०]
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: अत्र पञ्चदशमं अध्ययनं परिसमाप्तं
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[भाग-4] “सूत्रकृत्" - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१६], उद्देशक [-], मूलं [२५...], नियुक्ति: [१३६]
तियुतं
प्रत सूत्रांक
मूत्रकृताङ्गं अथ षोडशं श्रीगाथाध्ययनं प्रारभ्यते ॥
१६गाथाशीलाङ्का
ध्ययनं. चा-य
उक्तं पञ्चदशमध्ययनं, साम्प्रतं पोडशमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः-इहानन्तरोतेषु पञ्चदशस्वप्यध्ययनेषु येऽथों अभिहिता ॥२६॥
IS|| विधिप्रतिषेधद्वारेण तान् तथैवाचरन् साधुर्भवतीयेतदनेनाध्ययनेनोपदिश्यते, ते चामी अर्थाः, तथथा प्रथमाध्ययने खसमयप-1
| रसमयपरिज्ञानेन सम्यक्त्वगुणावस्थितो भवति द्वितीयाध्ययने ज्ञानादिभिः कर्मविदारणहेतुभिरष्टप्रकारं कर्म विदारयन् साधुर्भ| वति तथा तृतीयाध्ययने यथाऽनुकूलप्रतिकूलोपसर्गान् सम्यक् सहमानः साधुर्भवति चतुर्थे तु स्त्रीपरीपहस्य दुर्जयखात्तजयकारीति |
| पञ्चमे तु नरकवेदनाभ्यः समुद्विजमानस्तत्यायोग्यकर्मणो चिरतः सन्साधुखमवाप्नुयात् पष्टे तु यथा श्रीवीरवधमानखामिना|| 18 कर्मक्षयोयतेन चतुज्ञानिनाऽपि संयम प्रति प्रयलः कृतस्तथाऽन्येनापि छाखेन विधेय इति सप्तमे तु कुशीलदोपान शाखा तत्परि-||
हारोयतेन सुशीलावस्थितेन भाव्यम् अष्टमे तु बालवीर्यपरिहारेण पण्डितवीर्योधतेन सदा मोक्षाभिलाषिणा भाव्यं नवमे तु यथोक्तं । साक्षान्त्यादिकं धर्ममनुचरन् संसारान्मुच्यत इति दशमे तु संपूर्णसमाधियुक्तः सुगतिभाग्भवति एकादशे तु सम्बगदर्शनज्ञानचारि
वाख्यं सन्मार्ग प्रतिपन्नोऽशेषकेशप्रहाणं विधत्ते द्वादशे तु तीथिंकदर्शनानि सम्यग्गुणदोषविचारणतो विजानन तेषु श्रद्धानं । । विधत्ते त्रयोदशे तु शिष्यगुणदोषविज्ञः सद्गुणेषु वर्तमानः कल्याणभाग्भवति चतुर्दशे तु प्रशस्तभावग्रन्धभावितात्मा विस्रो-ला तसिकारहितो भवति पश्चदशे तु यथावदायतचारित्रो भवति भिक्षुस्तदुपदिश्यत इति । तदेवमनन्तरोक्तेषु पञ्चदशखध्ययनेषु
కాలం చిన్నది 20
||२५||
दीप अनुक्रम [६३०]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: अत्र षोडशं अध्ययनं "गाथा" आरब्धं, पूर्वोक्त सर्व-अध्ययनै: सह अस्य अध्ययनस्य अभिसंबंध:,
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आगम
(०२)
प्रत
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दीप
अनुक्रम [६३०]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१६], उद्देशक [-], मूलं [२५...], निर्युक्तिः [१३७]
| येऽर्थाः प्रतिपादितास्तेऽत्र संक्षेपतः प्रतिपाद्यन्त इत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चखायुपक्रमादीन्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति । तत्रोपक्रमान्तर्गतोऽधिकारोऽनन्तरमेव संबन्धप्रतिपादनेनैवाभिहितः । नाम निष्पने तु निक्षेपे गाथांषोडशकमिति नाम । तत्र | गाथानिक्षेपार्थं निर्युक्तिकृदाह
णामंठवणागाहा दब्बगाहा य भावगाहा य पोटथगपत्तगलिहिया सा होई दव्बगाहा उ ।। १३७ ॥ होति पुण भावगाहा सागारुवओगभावणिष्पन्ना। महुराभिहाणजुत्ता तेणं गाहन्ति णं पिंति ॥ १३८ ॥ गाहीकया व अत्था अहव ण सामुद्दएण छंदेणं । एएण होति गाहा एसो अन्नोऽवि पजाओ ।। १३९ ।। पण्णरससु अज्झयणेसु पिंडितत्थेसु जो अवितहत्ति । पिंडियवयणेणऽस्थं गहेति तम्हा ततो गाहा ॥ १४०॥ सोलसमे अज्झणे अणगारगुणाण वण्णणा भणिया । गाहासोलसणामं अज्झयणमिणं ववदिसति ॥ १४१ ॥ तत्र गाथाया नामादिकञ्चतुर्धा निक्षेपः, तत्रापि नामस्थापने क्षुण्णवादनाहत्य द्रव्यगाथामाह — तत्र ज्ञशरीर भव्यशरीरव्यति| रिक्ता द्रव्यगाथा पत्रकपुस्तकादिन्यस्ता, तद्यथा-जैयति णवणलिणकुवलयवियसियसयवत्तपत्तलदलच्छो । वीरो गइंदमय लमुललियगयविकमो भगवं ॥ १ ॥ अथवेयमेव गाथाषोडशाध्ययनरूपा पत्रकपुस्तकन्यस्ता द्रव्यगाथेति । भावगाथामधिकृत्याह| भावगाथा पुनरियं भवति, तद्यथा-योऽसौ साकारोपयोगः क्षायोपशमिकभावनिष्पन्नो गाथां प्रति व्यवस्थितः सा भावगाथेत्यु१ गाचैव षय गाथापोट तदेव गाथापोडशकं गाथाख्यं षोडशमध्ययनं यत्र तत्तथा वा । २ जयति नवनलिनीकुवलयविकसितशत पत्रपत्रलाक्षः | बीरो गलन्मदगजेन्द्रलत गतिविकमो भगवान् ॥ 3 ॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र -[ ०२] अंग सूत्र [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः गाथायाः नामादि निक्षेपा:,
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्" - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१६], उद्देशक [-], मूलं [२५...], नियुक्ति: [१४१]
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ध्ययनं.
प्रत सूत्रांक
||२५||
सूत्रकताच्य ते, समस्तस्यापि च श्रुतस्य क्षायोपत्रमिकभावे व्यवस्थितत्वात् , तत्र चानाकारोपयोगस्थासंभवादेवमभिधीयते इति । पुनरपि
१६ गाथाशीलाका- तामेव विशिनष्टि-मधुरं-श्रुतिपेशलमभिधानम् उच्चारणं यस्याः सा मधुराभिधानयुक्ता, गाथाछन्दसोपनिबद्धस्स प्राकृतस्य मधुचार्यांय- रखादित्यभिप्रायः, गीयते-पठ्यते मधुराक्षरप्रवृत्या गायन्ति वा तामिति गाथा, यत एवमतस्तेन कारणेन गाथामिति तां त्रुवते ।। पणमिति वाक्यालङ्कारे एनां वा गाथामिति । अन्यथा वा निरुक्तिमधिकृत्याह-'गाधीकृताः' पिण्डीकृता विक्षिप्ताः सन्त एकत्र
मीलिता अर्था यस्यां सा गाथेति, अथवा सामुद्रेण छन्दसा वा निबद्धा सा गाथेत्युच्यते, तच्चेदं छन्द:-'अनिवद्धं च यल्लोके, ॥२६२२॥
गाथेति तत्पण्डितैः प्रोक्तम्" । 'एषः अनन्तरोक्तो गाथाशब्दस्य 'पर्योयो निरुक्तं तात्पर्याओं द्रष्टव्यः, तयथा-गीयतेऽसौ गायन्ति वा तामिति गाथीकता वार्थाः सामुद्रेण वा छन्दसेति गाथेत्युच्यते, अन्यो वा खयमभ्यूद्ध निरुक्तविधिना विधेय इति । पिण्डितार्थग्राहिसमधिकृत्याह–पञ्चदशखप्यध्ययनेषु अनन्तरोकेषु 'पिण्डितः' एकीकृतोऽर्थो येषां तानि पिण्डितार्थानि तेषु
सर्वेष्वपि य एवं व्यवस्थितोऽर्थस्तम् 'अवितथं यथावस्थितं पिण्डितार्थवचनेन यसाद् अमात्येतदध्ययनं पोडशं 'ततः' पिण्डि|| ताथेग्रथनाद्गाथेत्युच्यत इति । 'तत्वभेदपर्यायख्यितिकला तथार्थमधिकृत्याह-पोडशाध्ययने अनगारा:-साधवस्तेषां | IN गुणाः-धान्त्यादयस्तेषामनगारगुणानां पश्चदशस्वप्यध्ययनेष्वभिहितानामिहाध्ययने पिण्डितार्थवचनेन यती वर्णनाभिहिता
उक्तातो गाथाषोडशाभिधानमध्ययनमिदं 'व्यपदिशन्ति' प्रतिपादयन्ति । उक्तो नामनिष्पन्न निक्षेपनियुक्त्यनुगमः, तदनन्तरं || ॥२६२॥ सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगमस्थाबसरः, सच सूत्रे सति भवति, सूत्रं च सूत्रानुगमे, असावप्पवसरप्राप्त एवातोऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रानुगमे मूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम्
दीप अनुक्रम [६३०]
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: गाथाया: नामादि निक्षेपा:,
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१६], उद्देशक [-], मूलं [१], नियुक्ति: [१४१]
प्रत सूत्रांक ||१||
अहाह भगवं-एवं से दंते दविए वोसट्टकाएत्ति वच्चे माहणेत्ति वा १ समणेत्ति वा २ भिवृत्ति वा ३ णिग्गंथेत्ति वा ४ पडिआह-भंते! कहं नु दंते दविए वोसटकाएत्ति वच्चे माहणेत्ति वा समणेत्ति वा भिक्खूत्ति वा णिग्गंथेत्ति वा? तं नोबूहि महामुणी!॥इतिविरए सवपावकम्मेहिं पिज्जदोसकलह० अब्भक्खाण पेसुन्न० परपरिवाय० अरतिरति० मायामोस मिच्छादंसणसल्लविरए समिए सहिए सया जए णो कुझे णो माणी माहणेत्ति वच्चे १॥ 'अथे' त्ययं शब्दोवसानमङ्गलार्थः, आदिमङ्गलं तु बुध्येतेत्यनेनाभिहितं, अत आयन्तयोर्मङ्गलवात्सर्वोऽपि श्रुतस्कन्धो मङ्गलमित्येतदनेनावेदितं भवति । आनन्तये वाज्यशब्दः, पञ्चदशाध्ययनानन्तरं तदर्थसंग्राहीदं पोडशमध्ययनं प्रारभ्यते । अथानन्त-12 रमाह-'भगवान् उत्पनदिव्यज्ञानः सदेवमनुजायां पर्षदीदं वक्ष्यमाणमाह, तद्यथा-एवमसौ पश्चदशाध्ययनोक्तार्थयुक्तः स साधुर्दान्त इन्द्रियनोइन्द्रियदमनेन द्रव्यभूतो मुक्तिगमनयोग्यखात् 'द्रव्यं च भब्धे' इति वचनात् रागद्वेषकालिकापद्रव्यरहितखाद्वाजात्यसुवर्णवत् शुद्धद्रव्पभूतस्तथा व्युत्सृष्टो निष्प्रतिकर्मशरीरतया कायः-शरीरं येन स भवति घ्युत्सृष्टकायः, तदेवंभूतः सन् पूर्वोक्ता| ध्ययनार्थेषु वर्तमानः प्राणिनः स्थावरजङ्गमसूक्ष्मबादरपयोप्तकापर्याप्तकभेदभिन्नान् मा हणसि प्रवृत्तिर्यस्यासी माहनो नवब्रह्मचर्य-|| गुप्तिगुप्तो ब्रह्मचर्यधारणाद्वा ब्राह्मण इत्यनन्तरोक्तगुणकदम्बकयुक्तः साधुाहनोब्राह्मण [अन्थानम् ८०००] इति वा वाच्यः, तथा
दीप
अनुक्रम [६३१-१]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२), अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: मूल-सूत्रस्य आरम्भ:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१६], उद्देशक [-], मूलं [१], नियुक्ति: [१४१]
प्रत सूत्रांक
सूत्रकृता शीलाङ्काचार्यांयत्तियुतं ॥२६३॥
||१||
श्राम्यति-तपसा खियत इतिकृत्वा श्रमणो वाच्योऽथवा सम-तुल्यं मित्रादिषु मन:-अन्तःकरणं यस्य स समनाः सर्वत्र वासीच-18|१६ गाथान्दनकल्प इत्यर्थः, तथा चोक्तम्-णिस्थि य सि कोइ वेसो" इत्यादि । तदेवं पूर्वोक्तगुणकलितः श्रमणः सन् सममना वा इत्येवं 8 वाच्यः साधुरिति । तथा भिक्षणशीलो भिक्षुभिनत्ति वाऽष्टप्रकारं कर्मेति भिक्षुः स साधुर्दान्तादिगुणोपेतो भिक्षुरिति वाच्यः ।। तथा सवाद्याभ्यन्तरग्रन्थाभावाभिग्रन्थः । तदेवमनन्तरोक्तपञ्चदशाध्ययनोक्तार्थानुष्ठायी दान्तो द्रव्यभूतो व्युत्सष्टकायच [स] निर्ग्रन्थ इति वाच्य इति । एवं भगवतोक्ते सति प्रत्याह तच्छिष्यः-भगवन् !-भदन्त ! भयान्त ! भवान्त ! इति वा योऽसौ दान्तो द्रव्यभूतो व्युत्सृष्टकायः सन् ब्राह्मणः श्रमणो भिक्षुनिग्रन्थ इति वाच्यः तदेतस्कर्थ ? यहगवतोतं ब्राह्मणादिशब्दवा-18 |च्यख साधोरिति, एतन्न:-अस्माकं 'बेहि आवेदय 'महामुने!' यथावस्थितत्रिकालवेदिन् ॥ १॥ इत्येवं पृष्टो भगवान् ब्राह्म|णादीनां चतुर्णामप्यभिधानानां कथश्चि दागिनानां यथाक्रम प्रवृत्तिनिमित्तमाह-'इति' एवं पूर्वोक्ताध्ययनार्थवृत्तिः सन् | 'बिरतो' निवृत्तः सर्वेभ्यः पापकर्मभ्यः-सावद्यानुष्ठानरूपेभ्यः स तथा, तथा प्रेम-रागाभिष्वङ्गलक्षणं द्वेष:-अप्रीतिलक्षणः कलहो इन्द्राधिकरणमभ्याख्यानम् असदभियोगः पैशुन्य (कर्णेजपख) परगुणासहनतया तदोषोघट्टनमितियावत् परस्य । परिवादः काका परदोषापादन अरतिः-चित्तोद्वेगलक्षणा संयमे तथा रतिः विषयाभिष्वको माया-परवश्चना तया कुटिलमतमृषावाद: असदाभिधानं गामश्च बुवतो भवति, मिध्यादर्शनम्-अतरचे तयाभिनिवेशस्तके वाऽतत्रमिति, यथा-कस्थि
॥२६ ॥ ण णिचो ण कुणह कयं ण वेएइ पत्थि णिवाणं । णत्थि य मोक्खोवाओ छम्मिच्छत्तस्स ठाणाई ॥१॥ इत्यादि, एतदेव शल्यं १ नास्ति तसा कोऽपि द्वेषः । २ नास्ति न निल्लो न करोति न कृतं वेदयति नास्ति निर्माण । नास्ति च मोक्षोपायः षण्मिभ्यालमा स्थानानि ॥ १॥
दीप अनुक्रम [६३१-१]
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
|||||
दीप
अनुक्रम
[६३१-१]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १६ ], उद्देशक [-], मूलं [१], निर्युक्ति: [१४१]
तसिंस्ततो वा विरत इति, तथा सम्यगितः समितः ईर्यासमित्यादिभिः पञ्चभिः समितिभिः समित इत्यर्थः, तथा सह हितेनपरमार्थभूतेन वर्तत इति सहितः, यदिवा सहितो युक्तो ज्ञानादिभिः तथा 'सदा' सर्वकालं 'यतः' प्रयतः सत्संयमानुष्ठाने, तदनुष्ठानमपि न कपायैनिंः सारीकुर्यादित्याह- कस्यचिदप्यपकारिणोऽपि न क्रुध्येत आकुष्टः सन्न क्रोधवशगो भूयात्, नापि |मानी भवेदुष्कृष्टतपोयुक्तोऽपि न गर्व विदध्यात् तथा चोक्तम्- "जैइ सोऽवि निजरमओ पडिसिद्धो अट्टमाणमहणेहिं । अवसेस | मयट्ठाणा परिहरियता पयतेणं ॥ १ ॥" अस्य चोपलक्षणार्थवाद्रागोऽपि मायालोभात्मको न विधेय इत्यादिगुणकलितः साधुर्माहन इति निःशङ्कं वाच्य इति ॥ २ ॥ साम्प्रतं श्रमणशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तमुद्भावयन्नाह -
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एत्थवि समणे अणिस्सिए अणियाणे आदाणं च अतिवायं च मुसावायं च बहिद्धं च कोहं च माणं च मायं च लोहं च पिजं च दोसं च इच्चेव जओ जओ आदाणं अपणो पदोसहेऊ ओ ओ आदाणात पुढं पडिविरते पाणाइवाया सिआदंते दविए वोसटुकाए समणेत्ति वि भिक्खू अणुन्नए विणीए नामए दंते दविए वोसट्टकाए संविधुणीय विरू
२ ॥
१ यदि सोऽपि निर्जरामदः प्रतिषिद्धोऽधमानमथनैः अवशेषाणि मदस्थानानि परिहर्तव्यानि प्रयलेन ॥ १ ॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र - [ ०२], अंग सूत्र [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्" - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१६], उद्देशक [-], मूलं [३], नियुक्ति: [१४१]
सूत्रकृताङ्गं शीलाकाचार्यायवृ
त्तियुतं
प्रत सूत्रांक ||३||
॥२६४||
वरूवे परीसहोवसग्गे अज्झप्पजोगसुद्धादाणे उवट्टिए ठिअप्या संखाए परदत्तभोई भिक्खूत्ति १६ गाथाबच्चे ३॥
ध्यवनं. अत्राप्यनन्तरोक्त विरत्यादिके गुणसमूहे वर्तमानः श्रमणोऽपि वाच्यः, एतद्गुणयुक्तेनापि भाव्यमित्याह-निधनाधिक्येन वा 'श्रितो' निश्रितः न निश्रितोऽनिश्रित:-कचिच्छरीरादावप्यप्रतिबद्धः, तथान विद्यते निदानमस्खेत्यनिदानो-निराकासोऽशेषकमक्षयार्थी संयमानुष्ठाने प्रवर्तेत, तथाऽऽदीयते-खीक्रियतेऽष्टप्रकार कर्म येन तदादानं-कषायाः परिग्रहः सावधानुष्ठान वा, तथा-1॥ | ऽतिपातनमतिपाता, प्राणातिपात इत्यर्थः, तं च प्राणातिपातं जपरिक्षया ज्ञाखा प्रत्याख्यानपरिक्षया परिहरे, एवमन्यत्रापि क्रिया योजनीया । तथा मृषा-अलीको वादो मृपावादस्तं च, तथा 'बहिद्धं ति मैथुनपरिग्रही नौ च सम्यक् परित्राय परिहरेत् । उक्ता मूलगुणाःउत्तरगुणानधिकृत्याह-क्रोधम्-अनीतिलक्षणं मान-स्तम्भात्मकं मायां च परवञ्चनात्मिका लोभ-मूच्छाखभावं | तथा प्रेम-अभिष्वङ्गलक्षणं तथा द्वेषं खपरात्मनो धारूपमित्यादिकं संसारावतरणमार्ग मोक्षाध्वनोऽपध्वंसक सम्पक परिज्ञाय परिहरेदिति । एवमन्यसादपि यतो यतः कर्मापादानाद्-इहामुत्र चानर्थहेतोरात्मनोपाय पश्पति प्रक्षेपहेच ततस्ततः प्राणा तिपातादिकादनथेदण्डादादानात् पूर्वमेव अनागतमेवात्महितमिच्छन् प्रतिविरतो भवेत् सर्वसादनहेतुभूतादुभयलोकविरु- ॥२६॥ द्धाद्वा सावधानुष्ठानान्मुमुक्षुर्विरतिं कुर्यात् । यथैवंभूतो दान्तः शुद्धो द्रव्यभूतो निष्पतिकर्मतया व्युत्मष्टकायः स श्रमणो वाच्यः ।।३।। साम्प्रतं भिक्षुशब्दस्य प्रवृचिनिमित्तमधिकृत्याह-'अनापीति, ये ते पूर्वमुक्काः पापकर्मविरत्यादयो माहनशब्दप्रवृचिहेतवोत्रापि
दीप अनुक्रम [६३२-१]
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१६], उद्देशक [-], मूलं [३], नियुक्ति: [१४१]
प्रत सूत्रांक ||३||
भिक्षुशब्दस्य प्रवृचिनिमित्ते त एवावगन्तव्याः, अमी चान्ये, तद्यथा-न उनतोऽनुनतः, तत्र द्रव्योमतः शरीरेणोच्छ्रितः भावोबतस्वभिमानग्रहग्रस्तः, तत्प्रतिषेधात्तपोनिर्जरामदमपि न विधत्ते । विनीतात्मतया प्रश्रयवान् यतः, एतदेवाह-विनयालकतो गुर्वा-18 दावादेशदानोधतेऽन्यदा वाऽऽत्मानं नामयतीति नामका-सदा गुर्वादी प्रहो भवति, विनयेन वाटप्रकारं कर्म नामयति, वैया-1 त्योचतोऽशेष पापमपनयतीत्यर्थः । तथा 'दान्तः' इन्द्रियनोइन्द्रियाभ्यां, तथा 'शुद्धात्मा' शुद्धद्रव्यभूतो निष्पतिकर्मतया 'प्यु- त्सृष्टकाय' परित्यक्तदेहश्च यत्करोति तदर्शयति-सम्यक 'विधूय' अपनीय 'विरूपरूपान्' नानारूपाननुकूलप्रतिकुलान्-उचावचान् द्वाविंशतिपरीपहान् तथा दिव्यादिकानुपसावेति, तद्विधननं तु यत्तेषां सम्यक् सहन-तैरपराजितता, परीपहोपसर्गाश्च विधूयाध्यात्मयोगेन-सुप्रणिहितान्तःकरणतया धर्मध्यानेन शुद्धम् अवदातमादानं चारित्रं यस्य स शुद्धादानो भवति । तथा
सम्यगुत्थानेन–सञ्चारित्रोद्यमेनोत्थितः तथा स्थितो मोक्षाध्वनि व्यवस्थितः परीपहोपसगैरप्यधृष्य आत्मा यस्य स स्थितात्मा, |तथा 'संख्याय' परिज्ञायासारतां संसारस्थ दुष्प्रापतां कर्मभूमेर्बोधेः सुदुर्लभखं चावाप्य च सकलां संसारोत्तरणसामग्री सत्संयमकरणोद्यतः परैः-गृहस्पैरात्मार्थ निर्वर्तितमाहारजातं तैर्द भोक्तुं शीलमस्य परदत्तमोजी, स एवंगुणकलितो भिक्षुरिति वाच्यः ॥३॥ तथाऽत्रापि गुणगणे वर्तमानो निर्ग्रन्थ इति वाच्यः, अमी चान्ये अपदिश्यन्ते, तद्यथा
एत्थवि णिग्गंथे एगे एगविऊ बुद्धे संछिन्नसोए सुसंजते सुसमिते सुसामाइए आयवायपत्ते विऊ दुहओवि सोयपलिच्छिन्ने णो पूयासकारलाभट्टी धम्मट्ठी धम्मविऊ णियागपडिवन्ने
दीप
अनुक्रम [६३२-१]
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्" - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१६], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१४१]
त्तियुत
प्रत सूत्रांक |४||
सूत्रकृता। समि(म)यं चरे देते दविए वोसटकाए निग्गंथेत्ति वच्चे ४॥से एवमेव जाणह जमहं भयंता १६ गाथाशीलाङ्का
षोडशका चायरो॥ तिबेमि । इति सोलसमं गाहानामज्झयणं समत्तं ॥ पढमो सुअक्खंधो समत्तो ॥१॥
ध्ययनं. 'एको रागद्वेषरहिततया ओजाः, यदिवाऽसिन् संसारचक्रबाले पर्यटनसुमान् वकृतसुखदुःखफलभाक्वेनैकस्यैव परलोकगमन॥२६५॥
तया सदैकक एव भवति । तत्रोद्यतविहारी द्रव्यतोऽप्येकको भावतोऽपि, गच्छान्तर्गतस्तु कारणिको द्रव्यतो भाज्यो भावतस्लेकक
एव भवति । तथैकमेवात्मानं परलोकगामिनं वेचीत्येकवित्,न मे कश्चिदुःखपरित्राणकारी सहायोऽस्तीत्येवमेकवित् , यदिवैकान्तविद्-18| 18| एकान्तेन विदितसंसारस्वभावतया मौनीन्द्रमेव शासनं तथ्यं नान्यदित्येवं वेत्तीत्येकान्तवित , अथवैको-मोक्षः संयमो वा तं वेत्ती-II 18 ति, तथा बुद्धा-अवगततचः सम्यक् छिन्नानि-अपनीतानि भावस्रोतांसि-संवतलात्कर्माश्रयद्वाराणि येन स तथा, सुष्ठु संयतः-॥ | कर्मवत्संयतगात्रो निरर्थककायक्रियारहितः सुसंयतः, तथा मुष्ठ पञ्चभिः समितिभिः सम्यगितः-प्राप्तो ज्ञानादिकं मोक्षमार्गमसौ ।
सुसमितः, तथा सुष्ठु समभावतया सामायिक-समशत्रुमित्रभावो यस्य स सुसामायिकः। तथाऽऽत्मनः-उपयोगलक्षणस्य जीवस्या-18 श्रीसंख्येयप्रदेशात्मकख संकोचविकाशभाजः खकृतफलभुजः प्रत्येकसाधारणशरीरतया व्यवस्थितस्य द्रव्यपर्यायतया नित्यानित्यायन-18
॥२६५॥ न्तधर्मात्मकस्य वा वाद आत्मवादस्त प्राप्त आत्मवादप्राप्तः, सम्यग्यथावखितात्मखतत्ववेदीत्यर्थः । तथा 'विद्वान' अवगतसर्वप-12 दार्थस्वभावो न व्यत्ययेन पदार्थानवगच्छति । ततो यत् कैश्चिदभिधीयते, तद्यथा-एक एवात्मा सर्वपदार्थखभावतया विश्वव्यापी श्यामाकतण्डुलमात्रोङ्गुष्ठपर्वपरिमाणो वेत्यादिकोऽसद्भूताभ्युपगमः परिहृतो भवति, तथाविधात्मसद्भावप्रतिपादकस्य प्रमाण
दीप
अनुक्रम [६३२-२]
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१६], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१४१]
प्रत सूत्रांक |४||
साभावादित्यभिप्रायः । तथा 'द्विधाऽपीति द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यस्रोतांसि यथावं विषयेष्विन्द्रियप्रवृत्तयः भावस्रोतांसि तु शब्दादिष्वेवानुकूलप्रतिकूलेषु रागद्वेषोद्भवास्तान्युभयरूपाण्यपि स्रोतांसि संवृतेन्द्रियतया रागद्वेषाभावाच्च परिच्छिन्नानि येन स परिच्छिन्नस्रोताः, तथा नो पूजासत्कारलाभार्थी किंतु निर्जरापेक्षी सर्वास्तपश्चरणादिकाः क्रिया विदधाति, एतदेव दर्शयतिधर्म:-श्रुतचारित्राख्यस्तेनार्थः स एवं पार्थों धर्मार्थः स विद्यते यस्यासी धमार्थीति, इदमुक्तं भवति-न पूजाद्यर्थ क्रियासु प्रव-18|| तेते अपितु धर्मार्थीति । किमिति, यतो धर्म यथावत्तत्फलानि च स्वर्गावाप्तिलक्षणानि सम्यक् वेत्ति, धर्म च सम्यग् जानानो | यत्करोति तदर्शयति-नियागो मोक्षमार्गः सत्संयमो वा तं सर्वात्मना भावतः प्रतिपन्नः नियागपडिवमोत्ति, तथाविधश्च यत्कुर्यात् । तदाह-समि(म)यंति समतां समभावरूपां वासीचन्दनकल्पां'चरेत् सततमनुतिष्ठेत् । किंभूतः सन् ?, आह-दान्तो द्रव्यभूतो || ग्युस्मष्टकायन, एतद्गुणसमन्वितः सन् पूर्वोक्तमाहनश्रमणभिक्षुशब्दानां यत् प्रवृत्तिनिमित्तं तत्समन्वितब निर्ग्रन्थ इति वाच्यः ।। तेऽपि माहनादयः शब्दा निर्गन्थशब्दप्रवृत्तिनिमित्ताविनाभाविनो भवन्ति, सर्वेऽप्येते भिमन्यजना अपि कथश्चिदेकार्थी | | इति ॥५॥ साम्प्रतमुपसंहाराथेमाह-सुधर्मस्वामी जम्बूखामिप्रभृतीनुद्दिश्येदमाह-से' इति तचन्मया कथितमेवमेव जानीत | 8| यूयं, नान्यो मवचसि विकल्पो विधेयः, यसादहं सर्वज्ञाज्ञया ब्रवीमि । न च सर्वज्ञा भगवन्तः परहितैकरता भयात्रातारो। | रागद्वेषमोहान्यतरकारणाभावादन्यथा बुवते, अतो यन्मयादितः प्रभृति कथितं तदेवमेवावगच्छतेति । इतिः परिसमाप्त्यर्थे । ब्रवीमीति पूर्ववत् । उक्तोऽनुगमः, साम्प्रतं नयाः, ते च नैगमादयः सप्त, नैगमस्स सामान्यविशेषात्मकतया संग्रहव्यवहारप्रवे-18 शासंग्रहादयः पद, समभिरूढेत्थंभूतयोः शब्दनयप्रवेशान्नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुमूत्रशब्दाः पञ्च, नैगमसाप्यन्तर्भावाचखारो, 181
दीप अनुक्रम [६३२-२]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१६], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१४१]
प्रत सूत्रांक |४||
सूत्रकृता व्यवहारस्यापि सामान्यविशेषरूपतया सामान्यविशेषात्मनोः संग्रहर्जुसूत्रयोरन्तर्भावात्संग्रहर्जुसूत्रशब्दाखया, 'ते च द्रव्यास्ति
१६ गाथाशीलाका- कपर्यायास्तिकान्तर्भावाड्रन्यास्तिकपर्यायास्तिकाभिधानी द्वौ नयौ, यदिवा सर्वेषामेव ज्ञानक्रिययोरन्तर्भावात् शानक्रियाभिधानी पोडशक चाय-यय- द्वी, तत्रापि शाननयो शानमेव प्रेधानमाह, क्रियानयश्च क्रियामिति । नयानां च प्रत्येक मिथ्याष्टिताज्ज्ञानक्रिययोष परस्परा-1 | ध्ययन
पापेक्षितया मोक्षाङ्गलादुभयमत्र प्रधान, तचोभयं सक्रियोपेते साधौ भवतीति, तथा चोक्तम्--णायम्मि गिहियो अगिहिय-18 ॥२६६॥
Reमि चेव अत्थंमि । जइयत्वमेव इति जो उवएसो सो नओ नाम ॥ १॥ संवेसिपि णयाणं बहुविहवत्तवयं णिसामेत्ता । तं सब-18
नयविसुद्धं जं चरणगुणहिओ साहू ॥२॥"ति, समाप्तं च गाथाख्यं षोडशमध्ययनं, तत्समाप्ती च समाप्त: प्रथम: श्रुतस्कन्ध इति ॥ [ग्रन्धानम् ८१०६]
STATESTATE-ENROTRASTRA-STREETRO-ETMASTRAMRAPA
॥इति श्रीमच्छीलाङ्काचार्यविरचितविवरणयुतः सूत्रकृताङ्गीयः प्रथमः श्रुतस्कन्धः॥
दीप अनुक्रम [६३२-२]
॥२६६॥
तेऽपि च। २फलसापक, अन्यथा प्रमाणवाक्यतापातात्। ज्ञाते पहीतन्याहीतब्येचवा यवितव्यमेवेति य उपदेशः स मा बाम ॥10॥ 1| सर्वेषामपि नयाना बहुविधां वकन्यतां निशम्य तत्सर्वनयविशुद्ध वचरणगुणस्थितः साधुः ॥१॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: अत्र षोडशं अध्ययनं परिसमाप्तं.
प्रथम श्रुतस्कंधोऽपि समाप्त:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [१४२]
ॐ नमः श्रीवीतरागाय ॥ अथ श्रीद्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीयः श्रुतस्कन्धः ।
प्रत
सूत्रांक
IRI 'प्रथमश्रुतस्कन्धानन्तरं द्वितीयः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरथुतस्कन्धे योऽर्थः समासतोऽभिहितः असा-11
वेवानेन श्रुतस्कन्धेन सोपपत्तिको व्यासेनाभिधीयते, त एव विधयः सुसंगृहीता भवन्ति येषां समासव्यासाभ्यामभिधानमिति, हा यदिवा पूर्वश्रुतस्कन्धोक्त एवार्थोऽनेन दृष्टान्तद्वारेण सुखावगमार्थ प्रतिपाद्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य श्रुतस्कन्धस्स सम्ब18 धीनि सप्त महाध्ययनानि प्रतिपाद्यन्ते, महान्ति च तान्यध्ययनानि, पूर्वश्रुतस्कन्धाध्ययनेभ्यो महत्चादेतेषामिति, तत्र महच्छ
ब्दाध्ययनशब्दयोनिक्षेपार्थ नियुक्तिकृदाहणामंठवणादविए खेत्ते काले तहेव भावे य । एसो खलु महतंमि निक्लेवो छबिहो होति ॥ १४२ ॥
णामंठवणादविए खेत्ते काले तहेव भावे य । एसो खलु अज्झयणे निक्खेवो छविहो होति ॥ १४३ ॥ 8|णामंठवणादविए खेत्ते काले य गणण संठाणे । भावे य अट्ठमे खलु णिक्वेवो पुंडरीयस्स ॥१४४ ॥
जो जीवो भविओ खलुववज्जिकामो य पुंडरीपंमि । सो दवपुंडरीओ भावमि विजाणओ भणिओ ॥१४५॥
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दीप अनुक्रम [-]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२), अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
अत्र द्वितीय: श्रुतस्कंधस्य आरम्भ: प्रथम एवं द्वितीय श्रुतस्कंधस्य अभिसंबंध:, 'महत् एवं अध्ययन' शब्दयो: निक्षेपा:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [-], उद्देशक -], मूलं [-], नियुक्ति: [१४६]
सूत्रकृताले
१पौण्डरीकाध्य. पुण्डरीकनिक्षेपाः
प्रत सूत्रांक
२श्रुतस्कन्धे शीलाकीयायां
वृत्ती ॥२६७॥
|एगभचिए य बद्धाउए य अभिमुहियनामगोए य । एते तिन्निवि देसा बच्वंमि य पोंडरीयस्स ॥१४६ ॥ तेरिच्छिया मणुस्सा देवगणा चेव होंति जे पवरा । ते होंति पुंडरीया सेसा पुण कंडरीया उ ॥ १४७ ॥ जलयर थलयर खयरा जे पवरा चेव होंति कंता य । जे अ सभावेऽणुमया ते होति पुंडरीया उ॥ १४८॥ अरिहंत चकबद्दी चारण विजाहरा दसारा य । जे अन्ने इडिमंता ते होंति पोंडरीया उ॥॥१४९ ॥ भवणवइवाणमंतरजोतिसवेमाणियाण देवाणं । जे तेसिं पवरा खलु ते होंति पुंडरीया उ ॥१५॥ | कंसाणं दूसाणं मणिमोत्तियसिलपवालमादीणं । जे अ अचित्ता पचरा ते होंति पोंडरीया उ॥१५१ ।।
जाई खेत्ताई खलु सुहाणुभावाई होति लोगंमि । देवकुरुमादियाई ताई खेत्ताई पवराई ॥१५२॥ |जीवा भवद्वितीए कायठितीए य होति जे पवरा । ते होंति पोडरीया अवसेसा कंडरीया उ ।। १५३ ॥ गणणाए रजू खलु संठाणं चेव होंति चउरंसं । एयाइं पोंडरीगाई होंति सेसाई इयराइं ॥ १५४ ॥ ओदइए उपसमिए खइए य तहा खओवसमिए अ । परिणामसन्निवाए जे पवरा तेवि ते चेव ॥ १५ ॥ अहवावि नाणदंसणचरित्तविणए तहेव अज्झप्पे । जे पवरा होति मुणी ते पवरा पुंडरीया उ ॥ १५६ ॥ एल्थं पुण अहिगारो वणस्सतिकायपुंडरीएणं । भावंमि अ समणेणं अजायणे पुंडरीअंमि ॥१५७॥
नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावात्मको महति पनिधो निक्षेपो भवति, तत्र नामस्थापने सुज्ञाने, द्रव्यमहदागमतो नोआगम___ अचित्त मीसगेमुं दव्येसु जे व होति पवरा उ । ते होति पौडरीया, सैसा पुण कंडरीया छ ॥ १॥ इति प्रत्यन्तरेऽधिका गाथा ॥
दीप अनुक्रम [-]
Haeneraeeeeeesesesesesese
| ॥२६७||
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: 'महत् एवं अध्ययन' शब्दयो: निक्षेपा:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [१५७]
प्रत
सूत्रांक
poeweweseesecseeseedesese
तश्च, आगमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः, नोआगमतस्तु बशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त सचित्ताचित्तमिश्रभेदाविधा, तत्रापि सचिनद्रव्यमहत् औदारिकादिकं शरीरं, तत्रौदारिक योजनसहस्रपरिमाणं मत्स्यशरीरं, वैक्रियं तु योजनशतसहस्रपरिमाण, तैजसका-1 मणे तु लोकाकाशप्रमाणे, तदेतदौदारिकवैक्रियतैजसकामेणरूपं चतुर्विधं द्रव्यसचित्तमहद्, अनित्तद्रव्यमहत समस्तलोकव्याप्य-18|| |चित्तमहास्कन्धः, मिथ तु तदेव मत्स्यादिशरीरं, क्षेत्रमहत् लोकालोकाकाशं, कालमहत्सर्वाद्धा, भावमहदौदयिकादिभावरूपतया ॥४॥
पोढा, तत्रौदयिको भावः सर्वसंसारिषु विद्यत इतिकुखा बहाश्रयखान्महान् भवति, कालतोऽप्यसौ त्रिविधः, तद्यथा-अनाद्यप18 यवसितोऽभव्यानामनादिसपर्यवसितो भव्यानां सादिसपर्यवसितो नारकादीनामिति, क्षायिकस्तु केवलज्ञानदर्शनात्मकः सायपर्य
वसितखात्कालतो महान् , क्षायोपशमिकोऽप्याश्रयवहुसादनाद्यपर्यवसितसाच महानिति, औपशमिकोऽपि दर्शनचारित्रमोहनीयानुदयतया शुभभावसेन च महान् भवति, पारिणामिकस्तु समस्तजीवाजीवाश्रयखादाश्रयमहत्वान्महानिति, सान्निपातिकोऽप्याश्रयबहुखादेव महानिति । उक्तं महद्, अध्ययनस्थापि नामादिकं पोढा निक्षेपं दर्शयितुं नियुक्तिकृदाह-अध्ययनस्य नामादिका पोढा निक्षेपः, स चान्यत्र न्यक्षेण प्रतिपादित इति नेह प्रतन्यते, अत्र च श्रुतस्कन्धे सप्त महाध्ययनानि, तेषामाद्यमध्ययनं पीण्ड-12 रीकाख्यं, तख चोपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि प्ररूपणीयानि, तत्रोपक्रम आनुपूर्वीनामप्रमाणवक्तव्यताथाधिकारसमवतार| भेदात्पोढा, तत्र पूर्वानुपूयो प्रथममिदं पश्चानुपूयों तु सप्तममनानुपूा तु सप्तगच्छगतायाः श्रेण्या अन्योन्याभ्यासेन द्विरूपोने | सति पश्चाशच्छतान्यष्टत्रिंशदधिकानि भवन्ति, नाम्नि तु षण्णाग्नि, तत्रापि धायोपशमिके भावे, सर्वस्यापि च श्रुतस्य क्षायोपशमिकखात्, प्रमाणचिन्तायां जीवगुणप्रमाणे, वक्तव्यतायां सामान्येन सर्वेष्वध्ययनेषु खसमयवक्तव्यता, अर्थाधिकारः पौण्डरीकोप
senticesesesesesesercercerseseserce
दीप अनुक्रम [-]
T
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: 'महत् एवं अध्ययन' शब्दयो: निक्षेपा:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [१५७]
प्रत सूत्रांक
वृत्ती
सूत्रकृताङ्गे| कमया खसमयगुणव्यवस्थापन, समवतारे तु यत्र यत्र समवतरति तत्र तत्र लेशतः समवतारितमेवेति । उपक्रमानन्तरं निक्षेपः, स च । १ पौण्ड२श्रुतस्क- शनामनिष्पन्ने निक्षेपे पौण्डरीकमित्यस्वाध्ययनस्य नाम, तत्रिक्षेपार्थ नियुक्तिकृदाह--'नाम'मित्यादि, पौण्डरीकस्य नामस्थापनाद्रव्यक्षे- रीकाध्य. न्ये शीला
त्रकालगणनासंस्थानभावात्मकोऽष्टधा निक्षेपः, तत्र नामस्थापने क्षुण्णखादनादृत्य द्रव्यपौण्डरीकमभिधित्सुराह-'जो इत्यादि, यः पुण्डरीककीयायां कश्चित्प्राणधारणलक्षणो जीवो भविष्यतीति भव्यः, तदेव दर्शयति-'उत्पतितुकामः समुत्पित्सुस्तथाविधकर्मोदयात् 'पौण्डरीकेषु' श्वे
निक्षेपाः तपद्येषु वनस्पतिकायविशेषेष्वनन्तरभवे भावी स द्रव्यपौण्डरीकः, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे, भावपौण्डरीकं खागमतः पीण्डरीकपदार्थ॥२६८॥
ज्ञस्तत्र चोपयुक्त इति।एतदेव द्रव्यपौण्डरी विशेषतरंदयितुमाह-एगे'त्यादि,एकेन भवेन गतेनानन्तरभव एव पौण्डरीकेधूत्पत्स्यते स एकमविकः, तथा तदासनतर पौण्डरीकेषु बद्धायुष्कस्ततोऽप्यासनतमोऽभिमुखनामगोत्रोऽनन्तरसमयेषु यः पौण्डरीकेषूत्पद्यते,181 एते अनन्तरोक्ता त्रयोऽप्यादेशविशेषा द्रव्यपीण्डरीकेऽवगन्तव्या इति, "भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके । तद्रव्य तत्चः सचेतनाचेतनं कथितम् ॥१॥” इति वचनात् , इह च पुण्डरीककण्डरीकयोोत्रोर्महाराजपुत्रयोः सदसदनुष्ठानपरायणतया शोभनाशोभनसमवगम्य तदुपमयाज्यदपि यच्छोभनं तत्पौण्डरीकमितरतु कण्डरीकमिति । तत्र च नरकवासु तिसष्वपि गतिषु ये शोभनाः पदार्थास्ते पौण्डरीकाः शेषास्तु कण्डरीका इत्येतत्प्रतिपादयन्नाह-'तेरिच्छिये त्यादि कण्ठ्या, तत्र तियेक्षुप्रधानस्य पोण्ड
रीकलप्रतिपादनार्थमाह-जलचरेत्यादि, जलचरेषु मत्स्यकरिमकरादयः स्थलचरेषु सिंहादयो बलवर्णरूपादिगुणयुक्ता उरम्परिसर्पषु म-ISIR६८० 18णिफणिनो भुजपरिसपेंषु नकुलादयः खचरेषु इसमयूरादयः इत्येवमन्येऽपि स्वभावेन' प्रकृत्या लोकानुमतास्ते च पौण्डरीका इव प्रधाना
| भवन्ति । मनुष्यगतौ प्रधानाविष्करणायाह-'अरिहंते'त्यादि, सर्वातिशायिनी पूजामहन्तीत्यहन्तः, ते निरुपमरूपादिगुणोपेताः, तथा
दीप अनुक्रम [-]
sesteemes
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२), अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: 'महत् एवं अध्ययन' शब्दयो: निक्षेपाः, प्रथम अध्ययन- 'पौंडरिक' शब्दस्य अर्थ एवं द्रव्यादि भेदा:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अगसूत्र-२ (मूल+नियुक्ति :+वृत्ति :) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [१५७]
प्रत
सूत्रांक
चक्रवर्तिनः षट्खण्डभरतेश्वराः तथा चारणश्रमणा बहुविधार्यभूतलन्धिकलापोपेता महातपस्विनः तथा विद्याधरा वैताब्यपुरा-11 धिपतयः तथा दशारा हरिवंशकुलोद्भवाः, अस्स चोपलक्षणार्थवादन्येऽयीवाकादयः परिगृह्यन्ते, एतदेव दर्शयति-ये चान्ये मह-11॥ धिमन्तो महेभ्याः कोटीश्वरास्ते सर्वेऽपि पौण्डरीका भवन्ति, तुशब्दस्यानुक्तसमुच्चयार्थखात्, ये चान्ये विद्याकलाकलापोपेतास्ते 1 पौण्डरीका इति । साम्प्रतं देवगतौ प्रधानस्य पौण्डरीकलं प्रतिपादयबाह-'भवणे'त्यादि, भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानां चतुर्णा देवनिकायानां मध्ये ये प्रवरा:-प्रधाना इन्द्रेन्द्रसामानिकादयस्ते प्रधाना इतिकृसा पौण्डरीकाभिधाना भवन्ति । साम्प्र-18 तमचित्तद्रग्याणां यत्प्रधानं तस्य पौण्डरीकसप्रतिपादनायाह-'कसणा'मित्यादि, कांस्खानां मध्ये जयघण्टादीनि दृष्याणां चीना-1 शुकादीनि मणीनामिन्द्रनीलबैडूर्यपद्मरागादीनि रत्नानि मौक्तिकानां यानि वर्णसंस्थानप्रमाणाधिकानि, तथा शिलानां मध्ये पाण्डुकम्बलादयः शिलास्तीर्थजन्माभिषेकसिंहासनाधाराः, तथा प्रवालानां यानि वर्णादिगुणोपेतानि, आदिग्रहणाजात्यचाशमीकर तद्विकारावाभरणविशेषाः परिगृह्यन्ते, तदेवमनन्तरोक्तानि कांस्यादीनि यानि प्रवराणि तान्यचित्तपौण्डरीकाण्यभिधीयन्त ॥ इति । मिश्रद्रव्यपौण्डरीकं तु तीर्थकृच्चक्रवोदय एवं प्रधानकटककेयूरालङ्कारालङ्कता इति, द्रव्यपौण्डरीकानन्तरं क्षेत्रपौण्डरी॥ कामिधित्सयाऽऽह-'खित्तानी'त्यादि, यानि कानिचिदिह देवकुर्वादीनि शुभानुभावानि क्षेत्राणि तानि प्रवराणि पौण्डरीकाभि-481 || घानानि भवन्ति । साम्प्रतं कालपीण्डरीकप्रतिपादनायाह-'जीवा' प्राणिनो भवस्थित्या कायस्थित्या च ये 'प्रवराः' प्रधानास्ते
पौण्डरीका भवन्ति, शेषास्वप्रधानाः कण्डरीका इति, तत्र भवस्थित्या देवा अनुत्तरोपपातिकाः प्रधाना भवन्ति, तेषां यावद्भवं शुभानुभावसात, कायस्थित्या तु मनुष्याः शुभकर्मसमाचाराः सप्लाष्टभवग्रहणानि मनुष्येषु पूर्वकोट्यायुकेष्वनुपरिवानन्तरभवे ।
వారించాలని
दीप अनुक्रम [-]
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रथम अध्ययन- 'पौंडरिक' शब्दस्य अर्थ एवं द्रव्यादि भेदाः,
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [१५७]
प्रत सूत्रांक
सूत्रकृताङ्केत्रिपल्योपमायुष्केपूत्पादमनुभूय ततो देवेधूत्पद्यन्त इतिकता ततस्ते कायस्थित्या पौण्डरीका भवन्ति, अवशिष्टास्तु कण्डरीका १ पौण्ड२श्रुतस्क- इति । कालपौण्डरीकानन्तरं गणनासंस्थानपौण्डरीकद्वयप्रतिपादनायाह-गणनया-सङ्ख्यया पौण्डरीक चिन्त्यमानं दशप्रकारस रीकाध्य. न्धे शीला- गणितस्स मध्ये 'रनु अगणितं प्रधानखात्पौण्डरीकं, दशप्रकारं तु गणितमिदं-"परिकम्म १ र २ रासी ३ ववहारे ४ तह पुण्डरीककीयायां
कलासवण्णे ५ य । पुग्गल ६ जायं तापं ७ घणे य ८ घणवग्ग ९ वग्गे य१०॥१॥" पण्णां संस्थानानां मध्ये समचतुरस्र | निक्षपाः वृत्तौ ४
संस्थानं प्रवरखावीण्डरीकमित्येवमेते द्वे अपि पीण्डरीके, शेषाणि तु परिकर्मादीनि गणितानि म्यग्रोधपरिमण्डलादीनि च संस्था-18॥ ॥२६९॥ नानि 'इतराणि' कण्डरीकान्यप्रवराणि भवन्तीतियावत् ॥ साम्प्रतं भावपौण्डरीकप्रतिपादनानिधित्सयाऽऽह-'ओदईत्यादि, औ-18||
दयिके भावे तथौपशमिके क्षायिके क्षायोपशमिके पारिणामिके सानिपातिके च भावे चिन्त्यमाने तेषु तेषां वा मध्ये ये 'प्रवराः'। प्रधानाः 'तेऽपि औदपिकादयो भावाः 'त एवं पौण्डरीका एवावगन्तव्याः, तथौदयिक भावे तीर्थकरा अनुत्तरोपपातिकसुरा|स्तथान्येऽपि सितशतपत्रादयः पौण्डरीकाः, औपशमिके समस्तोपशान्तमोहाः, क्षायिके केवलज्ञानिनः, क्षायोपशमिके विपुलम-1 | तिचतुर्दशपूर्ववित्परमावधयो व्यस्ताः समस्ता वा, पारिणामिके भावे भव्माः, सानिपातिके भावे द्विकादिसंयोगाः सिद्धादिषु॥8॥ खपुख्ता पौण्डरीकलेन योजनीयाः, शेषास्तु कण्डरीका इति । साम्प्रतमन्यथा भावपौण्डरिकप्रतिपादनायाह-'अहवावी स्यादि, 18॥ अथवापि भावपौण्डरीकमिदं, तद्यथा-सम्यग्रज्ञाने तथा सम्यग्दर्शने सम्यकचारित्रे ज्ञानादिके विनये तथा 'अध्यात्मनि च ॥२६९।। | धर्मध्यानादिके ये 'प्रवराः' श्रेष्ठा मुनयो भवन्ति ते पौण्डरीकवेनावगन्तव्यास्ततोऽन्ये कण्डरीका इति । तदेवं सम्भविनमष्टया |
१परिकम रबः राशिः व्यवहारस्तथा कलासवर्णव । पुद्गलाः यावत्तावत् भवति धन घनमूलं वर्गः वर्गमूलं ॥१॥
दीप अनुक्रम [-]
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रथम अध्ययन- 'पौंडरिक' शब्दस्य अर्थ एवं द्रव्यादि भेदा:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक -1, मूलं [१], नियुक्ति: [१५७]
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पौण्डरीकस्य निक्षेपं प्रदाधुनेह येनाधिकारस्तमाविर्भावयबाह-'अत्र' पुनदृष्टान्तप्रस्ताचे 'अधिकारों व्यापारः सचित्ततिर्यग्यो-11 निकैकेन्द्रियवनस्पतिकायद्रव्यपौण्डरीकेण जलरुहेण, यदिवा औदपिकभाववर्तिना वनस्पतिकायपौण्डरीकेण सितशतपत्रेण, तथा | भावे 'श्रमणेन च सम्यग्दर्शनचारित्रविनयाध्यात्मवर्तिना सत्साधुनासिनध्ययने पौण्डरीकाख्येऽधिकार इति । गता निक्षेपनि-18 || युक्तिः, अधुना सूत्रस्पर्शिकनियुक्तेरवसरः, सा च सूत्रे सति भवति, सूत्रं च सूत्रानुगमे, स चावसरप्राप्तोऽतोऽस्खलितादिगुणो-181 पेतं सूत्रमुचारयितव्यं, तचेदं-- सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु पोंडरीए णामज्झयणे, तस्स णं अयमहे पण्णत्ते-से जहाणामए पुक्रवरिणी सिया बहुउदगा बहुसेया बहुपुक्खला लट्ठा पुंडरिकिणी पासादिया दरिसणिया अभिरुवा पडिरूवा, तीसे णं पुक्खरिणीए तत्य तत्थ देसे देसे तहिं तहिं यहवे पउमवरपोंडरीया बुइया, अणुपुबुट्विया ऊसिया रुइला वण्णमंता गंधमंता रसमंता फासमंता पासादिया दरिसणिया अभिरूवा पडिरूवा, तीसे णं पुक्खरिणीए बहुमज्झदेसभाए एगे महं पजमवरपोंडरीए बुहए, अणुपुब्बुट्ठिए उस्सिते कइले वनमंते गंधमंते रसमंते फासमंते पासादीए जाव पडिरूवे । सव्वावंति च णं तीसे पुक्खरिणीए तत्थ तत्थ वेसे देसे तहिं तर्हि वहवे पउमवरपॉडरीया वुझ्या अणुपुबुडिया ऊसिया रुइला जाव पडिरूवा, सव्वावंति च णं तीसे णं पुक्खरिणीए बहुमझदेसमाए एगं महं पउमवरपोंडरीए बुहए अणुपुब्बुट्टिए जाव पडिरूवे ॥१॥ अह पुरिसे पुरिस्थिमाओ दिसाओ आगम्म तं पुक्खरिणीं तीसे
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अनुक्रम [६३३]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२), अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: मूल-सूत्रस्य आरम्भः, एते अध्ययने सर्व-सूत्राणि गध्यबद्धः सन्ति, गाथा व पध्यरूपेण न किंचित् अस्ति.
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [२], नियुक्ति: [१५७]
सूत्रकृताने २श्रुतस्क
रीकाध्यक्ष
न्धे शीला
प्रत सत्रांक
कीयायां वृत्तों
१२७०11
पुक्खरिणीए तीरे ठिचा पासति तं महं एगं पउमवरपॉडरीयं अणुपुबुट्टियं ऊसियं जाव पडिस्वं । तए णं से पुरिसे एवं वयासी-अहमंसि पुरिसे खेयन्ने कुसले पंडिते वियत्ते मेहावी अवाले मग्गत्थे मग्गविऊ मग्गस्स गतिपरकमण्णू अहमेयं पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामित्तिकडु इति बुया से पुरिसे अभिकमेति तं पुक्खरिणी, जावं जावं च णं अभिकमेइ तावं तावं च णं महंते उदए महंते सेए पहीणे तीरं अपत्ते पउमवरपोंडरीयं णो हब्वाए णो पाराए, अंतरा पोक्खरिणीए सेयंसि निसपणे पढमे पुरिसजाए! ॥२॥ अहावरे दोचे पुरिसजाए, अह पुरिसे दक्षिणाओ दिसाओ आगम्म तं पुक्षरिणिं तीसे पुक्वरिणीए तीरे ठिचा पासति तं महं एगं पउमवरपोंडरीय अणुपुवुट्टियं पासादीयं जाव परिरूवं तं च एत्थ एग पुरिसजातं पासति पहीणतीरं अपत्तपउमवरपोंडरीयं णो हव्वाए णो पाराए अंतरा पोक्खरिणीए सेयंसि णिसन्नं, तए णं से पुरिसे तं पुरिसं एवं वधासी-अहो णं इमे पुरिसे अखेयन्ने अकुसले अपेडिए अवियत्ते अमेहावी पाले णो मग्गत्थे णो मग्गविऊ णो मग्गस्स गतिपरकमण्णू जनं एस पुरिसे, अहं खेयन्ने कुसले जाव पउमवरपोंडरीय उन्निक्खिस्सामि, णो य खलु एयं पउमवरपोंडरीयं एवं उन्निक्खेयब्बं जहा णं एस पुरिसे मन्ने, अहमंसि पुरिसे खेयन्ने कुसले पंडिए वियत्ते मेहावी अबाले मग्गत्थे मग्गविऊ मग्गस्स गतिपरकमण्णू अहमेयं पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामित्तिकहु इति वचा से पुरिसे अ. भिकमे तं पुक्खरिणि, जावं जावं च णं अभिक्कमेइ तावं तावं च णं महंते उदए महंते सेए पहीणे तीरं
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दीप अनुक्रम [६३४]
॥२७॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [३], नियुक्ति: [१५७]
प्रत
Poeceneceseseise
सूत्रांक
अपत्ते पउमवरपॉडरीयं णो हब्बाए णो पाराए अंतरा पोक्खरिणीए सेपंसि णिसन्ने दोचे पुरिसजाते ॥३॥ अहावरे तचे पुरिसजाते, अह पुरिसे पचत्थिमाओ दिसाओ आगम्म तं पुक्वरिणिं तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिचा पासति तं एगं महं पउमवरपॉडरीय अणुपुव्वुट्टियं जाव पटिरूवं, ते तत्थ बोलि पुरिसजाते पासति पहीणे तीरं अपत्ते पउमवरपोंडरीयं णो हव्वाए णो पाराए जाव सेयंसि णिसने, तए णं से पुरिसे एवं बयासी-अहो णं इमे पुरिसा अखेयन्ना अकुसला अपंडिया अवियत्ता अमेहावी वाला णो मग्गत्था णो मग्गविऊ णो मग्गस्स गतिपरकमण्ण, जंणं एते पुरिसा एवं मन्ने-अम्हे एतं पउमयरपोंहरीयं उण्णिक्खिस्सामो, नो य खलु एयं पउमवरपॉडरीयं एवं उन्निक्खेतव्वं जहा णं एए पुरिसा मन्ने, अहमंसि पुरिसे खेयन्ने कुसले पंडिए वियत्ते मेहावी अवाले मग्गत्ये मग्गविऊ मग्गस्स गतिपरकमण्णू अहमेयं पउमवरपोटरीयं उन्निक्खिस्सामित्तिकट्ठ इति वुच्चा से पुरिसे अभिक्कमे तं पुक्खरिणिं जा जावं च णं अभिकामे तावं तावं च णं महंते उदए महते सेए जाव अंतरा पोक्खरिणीए सेयंसि णिसझे, तचे पुरिसजाए ॥ (सूत्रं ४)॥ अहावरे चउत्थे पुरिसजाए, अह पुरिसे उत्तराओ दिसाओ आगम्म तं पुक्खरिणि, तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिचा पासति तं महं एग पउमवरपोंडरीयं अणुपुब्बुट्टियं जाव पडिरूवं, ते तस्थ तिन्नि पुरिसजाते पासति पहीणे तीरं अपत्ते जाव सेयंसि णिसन्ने, तए णं से पुरिसे एवं पपासी-अहो णं इमे पुरिसा अखेयन्ना जाव णो मग्गस्स गतिपरक्कमण्णू जपणं एते पुरिसा एवं मने-अम्हे एतं पउम
दीप अनुक्रम [६३५]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक -1, मूलं [५], नियुक्ति: [१५७]
सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥२७॥
१ पुण्डरीकाध्य दृष्टान्तः
प्रत
सुत्रांक
वरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामो णो य खलु एयं पउमवरपोंडरीयं एवं उन्निक्खेयव्वं जहा णं एते पुरिसा मन्ने, अहमंसि पुरिसे खेयन्ने जाव मग्गरस गतिपरफमण्णू, अहमेयं पउमवरपोंडरीयं उग्निक्खिस्सामित्तिकट्ट इति वुचा से पुरिसे तं पुक्वरिणिं जावं जावं च णं अभिकमे तावं तावं च णं महंते उदए महंते सेए जाव णिसन्ने, चउत्थे पुरिसजाए ॥ (सूत्रं ५)। अह भिक्खू लूहे तीरट्ठी खेयन्ने जाव गतिपरकमण्णू अन्नतराओ दिसाओ वा अणुविसाओ वा आगम्म तं पुक्खरिणं तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिचा पासति तं महं एर्ग पउमवरपोंडरीयं जाव पडिरूवं, ते तत्थ चत्तारि पुरिसजाए पासति पहीणे तीरं अपत्ते जाव पउमवरपोंडरीयं णो हवाए णो पाराए अंतरा पुक्खरिणीए सेयंसि णिसने, तएणं से भिक्खू एवं वपासी-अहोणं इमे पुरिसा अखेयना जाव णो मग्गस्स गतिपरकमण्णू, जं एते पुरिसा एवं मन्ने अम्हे एवं पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामो, णो य खलु एवं पउमवरपोंडरीयं एवं उनिक्खेतव्यं जहा ण एते पुरिसा मन्ने, अहमंसि भिक्खू लूहे तीरही खेयन्ने जाव मग्गस्स गतिपरक्कमपणू, अहमेयं पउमवरपॉडरीयं उपिणक्खिस्सामित्तिकट्ठ इति बुचा से भिक्खू णो अभिक्कमे तं पुक्खरिणि तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिचा सई कुज्जाउप्पयाहि खलु भो पउमवरपोंडरीया ! उप्पयाहि, अह से उप्पतिते पजमवरपोंडरीए । (सूत्रं ६॥
अस्य चानन्तरसूत्रेण सह सम्बन्धो वाच्यः, स चायं-सि एवमेव जाणह जमई भयंतारो'ति तदेतदेव जानीत भयख त्रातारः, तद्यथा-श्रुतं मयाऽऽयुष्मता भगवतैवमाख्यातम् , आदिसूत्रेण च सह सम्बन्धोऽयं, तद्यथा-यद्भगवताऽऽख्यातं
दीप
अनुक्रम [६३७]
॥२७१॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: पूज्य
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [६], नियुक्ति: [१५७]
प्रत सत्रांक
(६)
IN मया च श्रुतं तदुध्यतेत्यादिकं, किं तद्भगवताऽऽख्यातमित्याह-'इह' प्रवचने सूत्रकृद्वितीयश्रुतस्कन्धे वा खलुशब्दो चाक्या
लकारे पौण्डरीकाभिधानमध्ययनं पौण्डरीकेण-सितशतपत्रेणात्रोपमा भविष्यतीतिकृता, अतोऽस्याध्ययनस्य पौण्डरीकमिति नाम | [कृतं, तस्य चायमर्थः, णमिति वाक्यालङ्कारे, 'प्रज्ञप्तः' प्ररूपितः, 'सेजह'त्ति तयथार्थः, स च वाक्योपन्यासार्थः, नामशब्दः सम्भावनायां, सम्भाव्यते पुष्करिणीदृष्टान्तः, पुष्कराणि-पद्यानि तानि विद्यन्ते यस्थामसौ पुष्करिणी 'स्वादु' भवेदेवम्भूता, तद्यथा
'बहु' प्रचुरमगाधमुदकं यखां सा बहुदका, तथा बहुः-प्रचुर: सीयन्ते-अवबध्यन्ते यसिन्नसौ सेयः-कर्दमः स यस्यां सा बहुसेया-15 १ प्रचुरकर्दमा बहुश्वेतपबसद्भावात् खच्छोदकसंभवाच बहुश्वेता वा, तथा 'बहुपुष्कला' बहुसंपूर्णा-प्रचुरोदकभृतेत्यर्थः । तथा
लब्धः-प्राप्तः पुष्करिणीशब्दान्वर्थतयाऽर्थो यया सा लब्धार्थी, अथवाऽऽस्थानमास्था-प्रतिष्ठा सा लब्धा यया सा लब्धास्था, तथा पौण्डरीकाणि-श्वेतशतपत्राणि विद्यन्ते यस्यां सा पौण्डरीकिणी, प्रचुरार्थे मबर्थीयोत्पत्तेहुपोत्यर्थः । तथा प्रसादः-प्रसन्नता निर्मलजलता सा विद्यते यस्याः सा प्रसादिका प्रासादा वा-देवकुलसनिवेशास्ते विद्यन्ते यस्यां समन्ततः सा प्रासादिका, दर्शनीया शोभना सत्संनिवेशतो वा द्रष्टच्या दर्शनयोग्या, तथाभिमुख्येन सदाऽवस्थितानि रूपाणि-राजहंसचक्रवाकसारसादीनि | गजमहिपमृगयूथादीनि वा जलान्तर्गतानि करिमकरादीनि वा यस्यां साभिरूपेति, तथा प्रतिरूपाणि-प्रतिविम्बानि विद्यन्ते | यस्यां सा प्रतिरूपा, एतदुक्तं भवति-वच्छखात्तस्याः सर्वत्र प्रतिबिम्बानि समुपलभ्यन्ते, तदतिशयरूपतया वा लोकेन तत्प्रतिबिम्बानि क्रियन्ते(इति) सा प्रतिरूपति, यदिवा-'पासादीया दरिसणीया अभिरूवा पडिरूवत्ति पर्याया इत्येते चखारोऽप्य१ पुष्कलस्तु पूर्ण श्रेष्ठे इत्यनेकार्थोके, बहुनि प्रत्ययः ।
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दीप अनुक्रम [६३८]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [६], नियुक्ति: [१५७]
प्रत सत्रांक
मकवातिशयरमणीयत्वख्यापनार्थ पाताः। तस्याष पुष्करिण्याः णमिति वाक्यालङ्कारे 'तत्र तत्रे' त्यनेन पीप्सापदेन पौण्डरीकैापक-18
१ पुण्डरी२ श्रुतस्क- खमाह, 'देशे देशे' इत्यनेन खेकैकप्रदेशे प्राचुर्यमाह, 'तस्मिंस्तस्मिन्नित्यनेन तु नास्त्येवासौ पुष्करिण्याः प्रदेशो यत्र तानिन । न्धे शीला-IS सन्तीति, यदिवा-'देशे देशे' इत्येतत्प्रत्येकमभिसम्बध्यते तत्र तत्रेति, कोऽर्थः १-देशे देशे तसिंस्तमिबिति च, कोर्थः १, कीयावृत्तिः| देशैकदेश इति, यदिवा-अत्यादरख्यापनायैकार्थान्येवैतानि त्रीण्यपि पदानि, तेषु च पुष्करिण्याः सर्वप्रदेशेषु बहूनि-प्रचुराणि
पमान्येव 'वराणि' श्रेष्ठानि पौण्डरीकाणि पद्मवरपौण्डरीकाणि, पद्मग्रहणं छत्रव्याघ्रव्यवच्छेदार्थ, पौण्डरीकग्रहणं श्वेतशतपत्रत्र-1 ॥२७२।। तिपयर्थ, वरग्रहणमप्रधाननिवृत्त्यर्थ, तदेवम्भूतानि बहूनि पद्मवरपौण्डरीकाणि 'बुइय'चि उक्तानि-प्रतिपादितानि विद्यन्ते इत्व
शानिया पाः, 'आनुपूर्पण' विशिष्टरचनया स्थितानि, तथोरितानि पङ्कजले अतिलङ्गयोपरि व्यवस्थितानि, तथा 'रुचिः' दीप्तिस्ता ।
लान्ति-आददति रुचिलानि--सद्दीतिमन्ति, तथा शोभनवर्णगन्धरसस्पर्शवन्ति, तथा प्रासादीयानि-दर्शनीयानि अनि-1 रूपाणि प्रतिरूपाणि । तस्याथ पुष्करिण्याः सर्वतः पयावृतायाः णमिति वाक्यालङ्कारे 'बहुदेशमध्यभागे' निरुपचरितमप| देशे एक महत्पबवरपीण्डरीकमुक्तमानुपूज्येण व्यवस्थितमुचितं रुचिल वर्णगन्धरसस्पर्शवत् तथा प्रासादीय दर्शनीयं अभिरूप
तरं प्रतिरूपतिर मिति । साम्प्रतमेतदेवानन्तरोक्तं सूत्रद्वयं 'सब्वावंति च णं ती त्यनेन विशिष्टमपरं सूत्रद्वयं द्रष्टव्यम्, अस्याय|| मधे-'सब्बावति'त्ति सर्वस्या अपि तस्याः पुष्करिण्याः सर्वप्रदेशेषु यथोक्तविशेषणविशिष्टानि बहूनि पनानि, तथा सवस्वाब
तस्या बहुमध्यदेशमागे यथोक्तविशेषणविशिष्टं महदेकं पौण्डरीकं विद्यत इति, उभयत्रापि चः समुच्चये, पामिति वाक्याला र इति ॥१॥ 'अर्थ' अनन्तरमेवम्भूतपुष्करिण्याः पूर्वस्या दिशः कश्चिदेकः पुरुषः समागत्य तो पुष्करिणीं तस्या 'तीर' वटा
अनुक्रम [६३८]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम
(०२)
प्रत सूत्रांक
[६]
दीप
अनुक्रम [६३८]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [६], निर्युक्ति: [१५७]
| स्थिखा तदेतत्पद्मं प्रासादीयादि प्रतिरूपान्तविशेषणकलापोपेतं स पुरुषः पूर्वदिग्भागव्यवस्थितः 'एव' मिति वक्ष्यमाणनीत्या 'वदेत्' त्रूयात् – 'अहमंसि' त्ति अहमस्मि पुरुषः, किम्भूतः १ - 'कुशलो' हिताहितप्रवृत्तिनिवृत्तिनिपुणः, तथा पावाडीमः पण्डितो धर्मज्ञो देशकालज्ञः क्षेत्रज्ञो 'व्यक्तो' बालभावान्निष्क्रान्तः परिणतबुद्धिः 'मेघावी' वनोत्प्लवनयोरुपायज्ञः, तथा 'अबालो' मध्यमवयाः षोडशवर्षोपरिवर्ती 'मार्गस्थः' सद्भिराचीर्णमार्गव्यवस्थितः तथा सन्मार्गज्ञः, तथा मार्गस्थ या गतिर्गुणजं | वर्तते तथा यत्पराक्रमणं - विवक्षितदेशगमनं तज्जानातीति पराक्रमज्ञः, यदिवा - पराक्रमः - सामर्थ्यं तज्ज्ञोऽहमात्मज्ञ इत्यर्थः, तदेवम्भूतविशेषणकलापोपेतोऽहम् 'एतत्' पूर्वोक्तविशेषणकला पोपेतं पद्मवरपौण्डरीकं पुष्करिणीमध्यदेशावस्थितमहमुत्क्षेप्स्यामीतिकहागतः 'इति' एतत्पूर्वोक्तं तद् प्रतीत्योक्वाऽसौ पुरुषस्त्रां पुष्करिणीमभिमुखं क्रामेत्-अभिक्रामेत् तदभिमुखं गच्छेत् यावया वश्वासौ तदवतरणाभिप्रायेणाभिमुखं क्रामेत्तावत्तावच्च णमिति वाक्यालङ्कारे तस्याः पुष्करिण्या महदगावमुदकं तथा महाब 'सेय:' कर्दमः, ततोऽसौ महाकर्दमोदकाभ्यामाकुलीभूतः प्रहीणः - सद्विवेकेन रहितस्त्यक्ला तीरं सुव्यत्ययाद्वा तीरात्प्रहीणः प्रभ्रष्टः अप्राप्तश्च विवक्षितं पद्मवरपौण्डरीकं तस्याः पुष्करिण्यास्तस्यां वा यः सेयः कर्दमस्तस्मिन्निषण्णो निमन आत्मानमुद्धर्तुमसमर्थः, तस्माच तीरादपि प्रभ्रष्टः, तवस्तीरपद्मयोरन्तराल एवावतिष्ठते, यत एवमत: 'नो हव्वाए'त्ति नार्वाकृतटवर्त्यसी भवति 'नो पाराए'सि नापि विवक्षितप्रदेशप्रात्या पारगमनाय वा समर्थो भवति । एवमसानुभय भ्रष्टो मुक्तमुक्तोलीवदनर्थायैव प्रभवतीत्ययं प्रथमः पुरुषः, पुरुष एव पुरुषजात:- पुरुषजातीय इति ॥ २ ॥ 'अथ' प्रथमपुरुषादनन्तरम् 'अपरो' द्वितीयः पुरुषजातः पुरुष इति । अथवेति वाक्योपन्यासार्थे, अथ-कवित्पुरुषो दक्षिणादिग्भागादागत्य तां पुष्करिणीं तस्याश्च पुष्करिण्यास्तीरे खिता तत्रस्थ पदयति
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र - [ ०२], अंग सूत्र [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्" - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [६], नियुक्ति: [१५७]
प्रत सत्रांक
सूत्रकृतारे 18 महदेकं पनवरपौण्डरीकमानुपूर्येण व्यवस्थितं प्रासादीयं यावत्प्रतिरूपम् 'अत्र च' असिंश्च तीरे व्यवस्थितः, तं च पूर्वव्यवस्थि-११ पुण्डरी२ श्रुतस्क- तमेकं पुरुष पश्यति, किम्भूतं ?-तीरात्परिभ्रष्टमनवातपयवरपौण्डरीकमुभयभ्रष्टमन्तराल एवावसीदन्तं, दृष्ट्वा च तमेवमवसं पुरुष काध्य.
ततोऽसौ द्वितीयः पुरुषः तं प्राक्तनं पुरुषमेवं वदेव-'अहो' इति खेदे, सर्वत्र णमिति वाक्यालङ्कारे द्रष्टव्यो, योऽयं कर्दमे नि-8 दृष्टान्तः कीयावृतिः
भन्नः पुरुषः सोऽखेदज्ञोऽकुशलोऽपण्डितोऽव्यक्तोऽमेधावी बालो न मार्गस्थो नो मार्गनो नो मार्गस गतिपराक्रमज्ञा, अकुशलखादिके । ॥२७॥
कारणमाह-'यद्' यसादेष पुरुष एतत्कृतवान्, तबधा-अहं खेदजः कुशल इत्यादि भणिया पावरपौण्डरीकमुत्क्षेप्यामीत्येवं ।। प्रतिज्ञातवान्, न चैतत्पअवरपौण्डरीकम् 'एवम्' अनेन प्रकारेण यथाऽनेनोक्षेनुमारब्धमेवमुत्क्षेप्तव्यं यथाऽयं पुरुषो मन्यत इति ॥181 ततोऽहमेवास्योत्क्षेपणे कुशल इति दर्शयितुमाह-'अहमंसीत्यादि जाव दोचे पुरिसजाए'त्ति, सुगर्म ॥३॥ तृतीयं पुरुष- ASI जातमधिकृत्याह-'अहावरे तचे' इत्यादि सुगर्म, यावच्चतुर्थः पुरुषजात इति ॥४-५॥ साम्प्रतमपरं पञ्चमं तद्विलक्षणं पुरुष-101 जातमधिकृत्याह-'अथे' त्यानन्तर्ये, चतुर्थपुरुषादयमनन्तरः पुरुषः तस्यामूनि विशेषणानि-भिक्षणशीलो भिक्षु:-पचनपाचनादिसावधानुष्ठानरहिततया निर्दोषाहारभोजी, तथा 'रुक्षो' रागद्वेषरहितः, तौ हि कर्मबन्धहेतुतया स्निग्धी, यथा हि स्नेहाभा-||
वाद्रजो न लगति तथा रागद्वेषाभावात्कमरेणुर्न लगति, अतस्तद्रहितो रूक्ष इत्युच्यते, तथा-संसारसागरस तीरार्थी, तथा क्षेत्र-18| |शः खेदज्ञो वा, पूर्व व्याख्यातान्येव विशेषणानि, यावन्मार्गस्थ गतिपराक्रमशः, स चान्यतरस्या दिशोऽनुदिशो वाऽऽगत्य तां ॥४॥
पुष्करिणीं तस्याश्च तीरे स्थिता समन्तादवलोकयन् बहुमध्यदेशभागे तन्महदेकं पद्मवरपौण्डरीकं पश्यति, तांध चतुरः पुरुषान् । .१ पदेदिकर्मकखादन्य प्रायुधारेऽपि वाक्यस्य कर्मणि द्वितीयाञापि, अयमित्यादिना नाना निर्देशोऽप्यस्यैव न दोषाव ।
दीप अनुक्रम [६३८]
deseseese
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [६], नियुक्ति: [१५७]
प्रत
सूत्रांक
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॥ पश्यति, यत्र च व्यवस्थितानिति, किम्भूतान् ?-त्यक्ततीरान् अप्राप्तपद्मवरपुण्डरीकान् पङ्कजलावममान पुनस्तीरमप्यागन्तुमसमASन् , दृष्ट्वा च तास्तदवस्थान् ततोऽसौ भिक्षुः 'एवं' मिति वक्ष्यमाणनीत्या वदेव, तयथा-अहो इति खेदे णमिति वाक्याल
कारे, इमे पुरुषाश्वतारोपि अखेदज्ञा यावनो मार्गस गतिपराक्रमज्ञाः, यसात्ते पुरुषा एवं ज्ञातवन्तो यथा वयं पनवरपौण्डरीक-18
मुनिक्षेप्यामः-उत्खनियामो, न च खलु तत् पोण्डरीकमेवम्-अनेन प्रकारेण यथैते मन्यन्ते तथोत्क्षेप्तव्यं । अपि सहमसि भिक्षु । MRI रूक्षो यावद्गतिपराकमज्ञः, एतद्गुणविशिष्टोऽहमेतत्पोण्डरीकमुत्क्षेप्यामि-उत्खनिष्यामि-समुद्धरिष्यामीत्येवमुक्ताऽसौ 'नाभिका-18||
मेत्' तां पुष्करिणी न प्रविशेख, तत्रस्थ एवं यत्कुर्यात्तदर्शयति-तस्थास्तीरे थिखा तथाविध शब्दं कुर्यात् , तद्यथा-ऊर्ध्वमुत्पतो
त्पत, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे हे पद्मवरपौण्डरीक! तस्याः पुष्करिण्या मध्यदेशात् एवमुत्पतोत्पत, 'अर्थ' तच्छन्दश्रचणादन18न्तरं तदुत्पतितमिति ॥६॥ तदेवं दृष्टान्तं प्रदर्य दाष्टोन्तिकं दर्शयितुकामः श्रीमन्महावीरवर्धमानखामी वशिष्यानाह
किहिए नाए समणाउसो!, अहे पुण से जाणितब्बे भवति, भंतेत्ति समणं भगवं महावीरं निग्गंधा य निग्गंधीओ य वंदंति नमसंति वंदेत्ता नमंसित्ता एवं वयासि-किहिए नाए समणाउसो!, अहं पुण से ण जाणामो समणाउसोत्ति, समणे भगवं महावीरे ते य बहवे निग्गंधे य निग्गंधीओ य आमंतेत्ता एवं वयासी-हंत समणाउसो! आइक्खामि विभावेमि कि मि पवेदेमि सअहं सहे सनिमित्तं भुजो भुजो उवदंसेमि से बेमि ॥ (सूत्रं ७)॥ 'कीर्तिते' कथिते प्रतिपादिते मयाऽसिन् 'ज्ञाते' उदाहरणे हे श्रमणा आयुष्मन्तोऽर्थः पुनरस्य ज्ञातव्यो भवति भवन्दिर, एत-9
Sacassagasagas909893000
दीप अनुक्रम [६३८]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक -1, मूलं [७], नियुक्ति: [१५७]
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मुत्रकताका दुक्तं भवति-नास्योदाहरणस्य परमार्थ यूयं जानीथ, एवमुक्ते(क्ता) भगवता ते यहयो निम्रन्था निम्रन्थ्यश्च तं श्रमणं भगवन्तं ।
१ पुण्डरीमहावीर ते निर्ग्रन्थादयो वदन्ते कायेन नमस्पन्ति-तत्पद्वैः शब्दैः स्तुवन्ति वन्दिखा नमस्थिता चैवं-वक्ष्यमाणं वदेयुः, तद्यथा- काध्यदान्धे शीला-18'कीर्तितं' प्रतिपादितं 'ज्ञातम्' उदाहरणं भगवता, अर्थ पुनरस्य न सम्यक जानीम इत्येवं पृष्टो भगवान् श्रमणो महावीरस्ता- न्तिकदकीयावृत्तिः निर्ग्रन्थादीनेवं वदेत्-'हन्ते'ति संप्रेषणे, हे श्रमणा आयुष्मन्तो! यद्भवद्भिरहे पृष्टस्तत्सोपपत्तिकमाख्यामि भवता, तथा 'विभाव- शनाय सं
यामि' आविर्भावयामि प्रकटार्थ करोमि, तथा 'कीर्तयामि' पर्यायकथनद्वारेणेति तथा 'प्रवेदयामि' प्रकर्षेण हेतुदृष्टा- बोधनं ॥२७४॥ 18न्तचित्तसंततावारोपयामि, अथकार्थिकानि चैतानि । कथं प्रतिपादयामीति दर्शयति-सहार्थेन- दार्शन्तिकार्थेन वर्तेत इति ||
साथैः पुष्करिणीदृष्टान्तस्तं, तथा सह हेतुना-अन्वयन्यतिरेकरूपेण वर्तत इति सहेतुस्तं तथाभूतमर्थ प्रतिपादयिष्यामि यथा ते || पुरुषा अप्राप्तप्रार्थिताथों पुष्करिणीकर्दमे दुरुत्तारे निममा एवं वक्ष्यमाणास्तीथिका अपारगाः संसारसागरस्य तत्रै निमजन्ती-|| सेवरूपोऽर्थः सोपपत्तिकः प्रदर्शयिष्यते, तथा सह निमित्तेन-उपादानकारणेन सहकारिकारणेन वा वर्तत इति सनिमिफ-सफा-1 रणं दृष्टान्तार्थे भूयो भूयोऽपररपरैतुरष्टान्तरूपदर्शयामि सोऽहं साम्प्रतमेव ब्रवीमि शृणुत यूयमिति ॥ ७॥ तदधुना भगवान् पूर्वोक्तस्य दृष्टान्तस्य यथाखं दाष्टोन्तिकं दर्शयितुमाह
लोयं च खल्लु मए अप्पाहट्ट समणाउसो! पुक्खरिणी बुइया, कम्मं च खलु मए अप्पाहहु समणासो से ॥२७४॥ उदए वुइए, कामभोगे य खलु मए अप्पाहड्ड समणाउसो से सेए बुहए, जणजाणवयं च स्वस्तु मए अप्पाहड्ड समणाउसो ते बहवे पउमवरपोंडरीए बुइए, रायाणं च खलु मए अप्पाङ समणाउसोरसे एगे ।
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अनुक्रम [६३९]
JAMERatinintamational
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-1, मूलं [८], नियुक्ति: [१५७]
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प्रत सत्रांक
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महं पउमवरपोंडरीए वुइए, अन्नउत्थिया य खलु मए अप्पाहड्ड समणाउसो! ते चत्तारि पुरिसजाया बु. इया, धम्मं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो ! से भिक्खू बुइए, धम्मतित्थं च खलु मए अप्पाहहु समणाउसो! से तीरे बुइए, धम्मकहं च खलु मए अप्पाहड समणाउसो! से सदे बुइए, निव्वाणं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो से उप्पाए बुइए, एवमेयं च खलु मए अप्पाहल समणापसो! से एपमेयं बुइयं ।। (सूत्रं)॥
लोकमिति मनुष्यक्षेत्रं, चशब्द उत्तरापेक्षया समुच्चयार्थः, खलुरिति वाक्यालङ्कारे, मयेत्यात्मनिर्देशः, योज्यं लोको मनुष्याधारस्तमात्मनि 'आहृत्य व्यवस्थाप्य अपाहृत्य वा हे आयुष्मन् ! श्रमण आत्मना वा-मयाऽहत्य न परोपदेशतः, सा पुष्करिणी पद्माधारभूतोक्ता, तथा कर्म चाष्टप्रकारं, यदलेन पुरुषपौण्डरीकाणि भवन्ति तदेवंभूतं कर्म मयाऽऽत्मन्याहृत्य आत्मना वा आह त्य अपाहृत्य वा, एतदुक्तं भवति-हे श्रमण ! आयुष्मन् सर्वावस्थानां निमित्तभूतं कर्माश्रित्य तदुदकं दृष्टान्तसेनोपन्यस्त, कर्म चात्र दाष्टॉन्तिकं भविष्यति, तत्रेच्छामदनकामाः शब्दादयो विषयास्ते एव भुज्यन्त इति भोगाः, पदिका कामा-हळाल्पा मदनकामास्तु भोगास्तान् मयाऽऽत्मन्याहृत्य 'सेयः' कर्दमोऽभिहितः, यथा महति पङ्के निमनो दुःखेनात्मानमुद्धरत्येवं विषयेप्वप्यासको नात्मानमुद्धर्तमलमित्येतत्कदमविषययोः साम्बमिति, तथा 'जन' सामान्येन लोक, तथा जनपदे भवा जानपदा विशिष्टायदेशोत्पन्ना गृह्यन्ते, ते चा पविंशविजनपदोद्भवा इति, तांश्च समाश्रित्य मया दार्शन्तिकलेनाङ्गीकृत्य तानि बहूनि र पावरपौण्डरीकाणि दृष्टान्तखेनाभिहितानि, तथा राजानमात्मन्याहत्य तदेकं पावरपौण्डरीक दृष्टान्तलेनाभिहितं, तथापती
दीप अनुक्रम [६४०]
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति: [१५७]
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८
सूत्रकृताङ्गेर्थिकान् समाश्रित्य ते चत्वारः पुरुषजाता अभिहिताः, तेषां राजपौण्डरीकोद्धरणे सामर्थ्यवैकल्याव , तथा धर्म च खल्वात्मन्या-18|१ पुण्डरी२ श्रुतस्क- हत्य श्रमणायुष्मन् ! स भिक्षुः रूक्षवृत्तिरभिहितः, तस्यैव चक्रवर्त्यादिराजपावरपौण्डरीकोद्धरणे सामर्थ्यसद्भावात् , धर्मतीर्थ च | काध्य० न्धे शीला-15
खल्याश्रित्य मया तत्तीरमुक्तं, तथा सद्धर्मदेशनां चाश्रित्य मया स भिक्षुसंबन्धी शब्दोऽभिहितः, तथा 'निर्वाणं' मोक्षपदमशेष- उपनयः कीयावृत्तिः
कर्मक्षयरूपमीपतप्रागभाराख्यं भूभागोपर्यवस्थितक्षेत्रखण्डं वाऽऽत्मन्याहृत्य स पनवरपौण्डरीकस्योत्पातोऽभिहित इति । साम्प्रतं ॥२७५॥
समस्तोपसंहारार्थमाह-'एवं' पूर्वोक्तप्रकारेण एतल्लोकादिकं च खल्वात्मन्याहत्य-आश्रित्य मया श्रमणायुप्मन् ! 'से एतपुष्करिण्यादिकं दृष्टान्तत्वेन किश्चित्साधादेवमेतदुक्तमिति ॥ ८॥ तदेवं सामान्येन दृष्टान्तदाान्तिकयोर्योजनां कृत्वाऽधुना 8 | विशेषेण प्रधानभूतराजदार्शन्तिकं [तदुद्धरणार्थत्वात्सर्वप्रयासस्पेति ] दर्शयितुमाह
इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संगतिया मणुस्सा भवंति अणुपुच्वेणं लोग उचवन्ना, तंजहा-आरिया वेगे अणारिया बेगे उच्चागोत्ता वेगे णीयागोया येगे कायमंता वेगे रहस्समंता बेगे सुवन्ना वेगे दुब्बन्ना बेगे सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे, तेसिं च णं मणुयाणं एगे राया भवइ, महयाहिमवंतमलयमंदरमहिंदसारे अचंतविसुद्धरायकुलबसप्पसूते निरंतररायलक्खणविराइयंगमंगे बहुजणबहुमाणपूहए सव्वगुणसमिद्धे खत्तिए मुदिए मुद्धाभिसित्ते माउपिउसुजाए दयप्पिए सीमंकरे सीमंधरे खेमंकरे खेमघरे मणुस्सिंदे जणवयपिया जणवयपुरोहिए सेउकरे केउकरे नरपवरे पुरिसपवरे पुरिससीहे पुरिसआसी१द्वादशान शासन वा । २ राजदाष्टान्तिकयोजने हेतुदर्शनाय टीप्पणमिदमिखाभाति ।
दीप अनुक्रम [६४०]
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॥२७५॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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दीप
अनुक्रम [६४१]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [९], निर्युक्तिः [१५७]
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विसे पुरिसवरपोंडरीए पुरिसवरगंधहत्थी अड्डे दित्ते वित्ते विच्छिन्नविउल भवणसयणासणजाणवाहणापणे बहुधणवहुजातरूवरतए आओगपओगसंपत्ते विच्छड्डियपउर भन्तपाणे बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूते परिपुरणकोसकोहागाराउहागारे बलवं दुम्बलपचामित्त ओहयकंदयं नियकंदयं मलियकंदयं उद्धिकंदयं अकंटयं ओहयस तू निहयसत्तू मलियसत्तू उद्धियसत्तू निज्जियसत्तू पराइयसत्तू ववगयदुभिक्खमारिभयविप्यमुकं रायवन्नओ जहा उववाहए जाव पसंतडिंवडमरं रज्जं पसाहेमाणे विहरति । तस्स to रन्नो परिसा भव- उगा उग्गपुत्ता भोगा भोगपुत्ता इक्वागाह इक्खागाहपुत्ता नाया नायपुत्ता कोरव्वा कोरण्वपुरता भट्टा भट्टपुत्ता माहणा माहणपुत्ता लेच्छइ लेच्छइपुत्ता पसत्थारो पसत्थपुत्ता सेणावई सेणावरपुत्ता। तेसिं चणं एगतीए सही भवइ कामं तं समणा वा माहणा वा संपहारिंसु गमणाएं, तत्थ अन्नतरेण धम्मेणं पन्नत्तारो वयं इमेणं धम्मेणं पन्नवइस्सामो से एवमायाणह भयंतारो जहा भए एस धम्मे सुक्खाए सुपनसे भवर, तंजहा- उहं पादतला अहे केसग्गमत्थया तिरियं तयपरियंते जीवे एस आयापज्जवे कसिणे एस जीवे जीवति एस मए णो जीवह, सरीरे धरमाणे घरह विणमि य णो घरह एयंत जीवियं भवति, आदहणाए परेहिं निज्जह, अगणिझामिए सरीरे कोतवन्नाणि अट्ठीणि भवंति, आसंदीपंचमा पुरिसा गामं पचागच्छंति, एवं असंते असंविज़माणे जेसिं तं असंते असंविजमाणे तेर्सि तं सुखायं भवति - अन्नो भवति जीवो अन्नं सरीरं, तम्हा, ते एवं नो विपडिवेदेति-अयमाउसो !
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र - [ ०२], अंग सूत्र [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [९], नियुक्ति: [१५७]
सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥२७६||
१पुण्डरीकाध्यव्यथमपुरुषम्नास्तिक्यं
प्रत सत्रांक
आया दीहेति वा हस्सेति वा परिमंडलेति वा कति वा तंसेति वा चउरसेति वा आयतेति वा छलंसिएति वा अईसेति वा किण्हेति वा णीलेति वा लोहियहालिद्दे सुकिल्लेति वा सुन्भिगंधेति वा दुन्भिगंधेति वा तित्तेति वा कडएति वा कसाएति वा अंबिलेति वा महुरेति वा कक्खडेति वा मउएति वा गुरुएति वा लहुएति वा सिएति वा उसिणेति वा निद्धेति वा लुक्खेति वा, एवं असंते असंविबमाणे जेसितं सुयक्खायं भवति-अन्नो जीवो अन्नं सरीरं, तम्हा ते णो एवं उपलब्भंति से जहाणामए के पुरिसे कोसीओ अर्सि अभिनिव्वहिताणं उवदंसेज्जा अयमाउसो! असी अयं कोसी, एवमेव णत्थि केह पुरिसे अभिनिव्वहित्ता णं उवदंसेत्तारो अयमाउसो! आया इयं सरीरं । से जहाणामए केइ पुरिसे मुंजाओ इसियं अभिनिव्वट्टित्ता णं उवदंसेज्जा अयमाउसो! मुंजे इयं इसियं, एवमेव नथि केह पुरिसे उपदंसेतारो अयमाउसो! आया इयं सरीरं । से जहाणामए केइ पुरिसे मंसाओ अहि अभिनिवट्टित्ता णं उवदंसेजा अयमाउसो! मंसे अयं अट्ठी, एवमेव नत्थि केद पुरिसे उवदंसेत्तारो अयमाउसो! आया इयं सरीरं । से जहाणामए केइ पुरिसे करयलाओ आमलक अभिनिव्वहित्ता णं उवदंसेज्जा अयमाउसो! करतले अयं आमलए, एवमेव णधि के पुरिसे उपदंसेत्तारो अयमाउसो! आया इयं सरीरं । से जहाणामए केइ पुरिसे दहिओ नवनीय अभिनिव्वहिताणं उवदंसेज्जा अयमाउसो! नवनीयं अयं तु दही, एवमेव णत्थि केइ पुरिसे जाव सरीरं । से जहाणामए केइ पुरिसे तिलहितो तिल्लं अभिनिव्वहिसाणं
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दीप अनुक्रम [६४१]
॥२७६॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [९], नियुक्ति: [१५७]
प्रत
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[९]
उवदंसेजा अयमाउसो! तेल्लं अयं पिनाए, एवमेव जाव सरीरं । से जहाणामए केइ पुरिसे इक्खूतो खोतरसं अभिनिवहित्ता णं उवदंसेजा अयमाउसो ! खोतरसे अयं छोए, एवमेव जाव सरीरं । से जहाणामए केइ पुरिसे अरणीतो अग्गि अभिनिवहिताणं उवदंसेज्जा अयमाउसो! अरणी अयं अग्गी, एवमेव जाव सरीरं । एवं असंते असंविबमाणे जेसिं तं सुयक्खायं भवति, तं० अन्नो जीवो अन्नं सरीरं । तम्हा ते मिच्छा ॥ से हंता तं हणह खणह छणह डहह पयह आलुपह बिलुपह सहसाकारह विपरामुसह, एतावता जीवे णत्थि परलोए, ते णो एवं विप्पडिवेदेति, तं०-किरियाइ वा अकिरियाइ चा सुक्कडेइ वा दुक्कडेइ वा कल्लाणेइ वा पावएइ वा साहुइ वा असाहुइ वा सिद्धीइ वा असिद्धीइ वा निरएइ वा अनिरएइ वा, एवं ते विरूवरूवेहिं कम्मसमारंभेहिं विरूवरूवाई कामभोगाई समारभंति भोयणाए ॥ एवं एगे पागभिया णिक्खम्म मामगं धम्म पन्नवेंति, तं सद्दहमाणा तं पत्तियमाणा तं रोएमाणा साहु सुयक्खाए समणेति वा माहणेति वा कामं खलु आउसो! तुमं पूययामि, तंजहा-असणेण वा पाणेण वा खाइमेण वा साइमेण वा वत्धेण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुंछणेण वा तत्थेगे पूयणाए समाउदिसु तत्थेगे पूयणाए निकाइंसु ॥ पुषमेव तेसिं णायं भवति-समणा भविस्सामो अणगारा अकिंचणा अपुत्ता अपसू परदसभोइणो भिक्खुणो पावं कम्मं णो करिस्सामो समुट्ठाए ते अप्पणा अप्पडिविरया भवंति, सयमाइयंति अन्नेवि आदियाति अन्नंपि आयतंतं समणुजाणंति, एवमेव ते इत्थिकामभोगेहिं मुच्छिया गिद्धा
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्" - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [९], नियुक्ति: [१५७]
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सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥२७७।।
(१)
गढिया अज्झोववन्ना लुद्धा रागदोसवसहा, ते णो अप्पाणं समुच्छेदेति ते णो परंसमुच्छेदेति तेणो अण्णाई पाणाई भूताई जीवाई सत्ताई समुच्छेदेंति, पहीणा पुवसंजोगं आयरिषं मग्गं असंपत्ता इति ते णो हवाए |
काध्यतणो पाराए अंतरा कामभोगेसु विसन्ना इति पढमे पुरिसजाए तज्जीवतच्छरीरएत्ति आहिए ॥ सूत्रं ९॥
'इह' असिन्मनुष्यलोके, खलुवाक्यालङ्कारे, इहाखिन् लोके प्राच्या प्रतीच्या दक्षिणायामुदीच्यामन्यतरस्यां वा दिशिरीरवादी |'सन्ति' विद्यन्ते एके केचन तथाविधा मनुष्याः आनुपूपेणेमं लोकमाश्रित्योत्पन्ना भवन्ति । तानेबानुपूर्येण दर्शयति'तयथे' त्युपन्यासार्थः, आराद्याताः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्याः, तत्र क्षेत्रायों अर्धपशितिजनपदोत्पन्नाः, तव्यतिरिक्तास्वनार्या । | एके केचन भवन्ति, ते चानार्यक्षेत्रोत्पन्ना अमी द्रष्टव्या, तद्यथा-सगजवणसबरबब्बर कायमुरुंडोडगोडपकणिया । अरबाग-1 | होणरोमय पारसखसखासिया चेव ॥१॥ डोंबिलयलउसबोकस भिल्लंधपुलिंदकोंचभमररुया । कोंचा व चीणचंचुयमालव | दमिला कुलग्या य ।। २॥ केकयकिरायहयमुहखरमुह तह तुरगमेंढयमुहा य । हयकण्णा गयकण्णा अण्णे य अणारिया बहवे ॥1 [॥३॥ पावा य चंडदंडा अणारिया णिग्षिणा णिरणुकंपा । धम्मोत्ति अक्खराई जेण ण णअंति मुमिणेवि ॥ ४॥ इत्यादि । तथोचैर्गोत्रम्-इक्ष्वाकुवंशादिकं येषां ते तथाविधा एके केचन तथाविधकोदयवर्तिनः, वाशब्द उत्तरापेक्षया विकल्पार्थः तथा 8 ॥२७७॥ 'नीचैगोनं' सर्वजनावगीतं येषां ते तथा एके केचन नीचैर्गोत्रोदयवर्तिनो, न सर्वे, वाशब्दः पूर्ववदेव, ते चोर्गोत्रा नीचेर्योत्रावा। 18 कायो-महाकायः प्रांशुखं तद्विद्यते येषां ते कायवंतः, तथा 'हखवन्तो वामनककुजवडभादय एके केचन तथाविधनामकर्मोदयवर्तिनः, तथा शोभनवों: सुवर्णाः-प्रतप्तचामीकरचारुदेहाः, तथा दुर्वर्णाः-कृष्णरूक्षादिवर्णा एके केचन, तथा मुरूपा:
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [९], नियुक्ति: [१५७]
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[९]
सुविभक्तावयवचारुदेहाः, तथा दुष्टरूपा-दुरूपा बीभत्सदेहाः, तेषां चोचर्गोत्रादिविशेषणविशिष्टानां महान् कश्चिदेवैकस्तथाविधकर्मोदयाद्राजा भवति, स विशेष्यते-महाहिमवन्मलयमन्दरमहेन्द्राणामिव सार:-सामर्थ्य विभवो वा यस स तथा इत्येवं । | राजवर्णको यावदुपशान्तडिम्बडमरं राज्य प्रसाधयंस्तिष्ठतीति, तत्र डिम्बः-परानीकभृगालिको डमरं-स्वराष्ट्रक्षोभा, पर्यायौ |
वैतावत्यादरख्यापनार्थमुपातौ इति । तस्य चैवंविधगुणसंपदुपेतस्य राज्ञ एवंविधा पर्षद्भवतीति, तद्यथा-उग्रास्तत्कुमाराधोग्रपुत्राः, | एवं भोगभोगपुत्रादयोऽपि द्रष्टथ्याः, शेष सुगम, यावत्सेनापतिपुत्रा इति, णवर 'लेच्छइति लिप्मुकः स च वणिगादिः, तथा प्रशा-18| | स्तारो-बुद्ध्युपजीविनो मत्रिप्रभृतयः, तेषां च मध्ये कश्चिदेवैका श्रद्धावान्-धर्मलिप्मुर्भवति, 'काम' मित्यवधृतार्थेऽवधृतमेत| यथाज्यं धर्मश्रद्धालुः, अवधार्य च तं धर्मलिप्सुतया श्रमणा ब्राह्मणा वा 'संप्रधारितवन्तः समालोचितवन्तो धर्मप्रतिबोधनिमिर्च वदन्तिकगमनाय, तत्र चान्यतरेण धर्मेण-खसमयप्रसिद्धेन प्रज्ञापयितारो वयमित्येवं नाम संप्रधार्य-तं राजानं खकीयेन धर्मेण प्रज्ञापयिष्याम एवं संप्रधार्य रामोऽन्तिकं गलैवमूचुः, तद्यथा-एतद्यथाऽहं कथयिष्यामि एवं मिति च वक्ष्यमाणनीत्या भवन्तो-यूयं जानीत भयात्रातारो वा 'यथा' येन प्रकारेण मयैष धर्मः स्वाख्यातः सुप्रन्नप्तो भवतीति । एवं तीर्थकः स्वदर्शना-18 नुरञ्जितोऽन्यस्यापि राजादेः स्वाभिप्रायेणोपदेशं ददाति ॥ तत्राद्यः पुरुषजातस्तज्जीवतच्छरीरवादी राजानमुद्दिश्यैवं धर्मदेशनां |
चक्रे, तद्यथा-'ऊर्ध्वम्' उपरि पादतलादधश्च केशायमस्तकात्तिर्यक् च बपर्यन्तो जीवः, एतदुक्तं भवति-यदेवैतछरीरं स एव Kजीवो, नैतस्साच्छरीराव्यतिरिक्तोऽस्त्यात्मेत्यतस्तत्प्रमाण एव भवत्यसो, इत्येवं च कुखैष आत्मा योऽयं कायोऽयमेव च तस्मात्मनः
राजान्तिकं प्र० । १ एतचाई प्र०।३ कथयामि प्रा।
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अनुक्रम [६४१]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [९], नियुक्ति: [१५७]
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|| सूत्रकृताओं २ श्रुतस्क- न्धे शीलाकीयावृत्तिः
॥२७८॥
पर्यवः 'कृस्ल' संपूर्णः 'पर्याय:' अवस्थाविशेषः, तसिंच कायात्मन्यवाप्ते तदव्यतिरेकाजीवोऽप्यवाप्त एव भवति, एष च कायो प डी यावन्तं कालं जीवेदू-अविकृत आस्ते तावन्तमेव कालं जीवोऽपि.जीवतीत्युच्यते, तदन्यतिरेकात्, तथैव कायो यदा 'मृतो विकारभाग्भवति तदा जीवोऽपि न जीवति, जीवशरीरयोरेकात्मकखात , यावदिदं शरीरं पञ्चभूतात्मकमव्यङ्गं चरति तावदेव हा जीवतच्छ
काध्यतजीवोऽपीति, तसिंश्च विनष्टे सति-एकस्यापि भूतस्थान्यथाभावे विकारे सति जीवस्थापि तदात्मनो विनाशा, तदेवं यावदेतच्छरीरं 18 रीरवादी वातपित्त श्लेष्माधारं पूर्वस्वभावादप्रच्युतं तावदेव तज्जीवस्य जीवितं भवति, तसिंध विनष्टे तदात्मा-जीवोऽपि विनष्ट इतिकता 'आदहनाप' आसमन्ताद्दहनार्थ श्मशानादौ नीयते यतोऽसौ, तमिच शरीरेऽग्निना ध्मापिते कपोतवर्णान्यस्थीनि केवलमुपलभ्यन्ते । न तदतिरिक्तोऽपर कविद्विकारा समुपलभ्यते यत आत्मास्तिखशङ्का स्यात् , ते च तद्वान्धवा जघन्यतोऽपि चसार: आसन्दीमनकः स पश्चमो येषां ते आसन्दीपश्चमाः पुरुषास्तं कायमविना ध्मापयिखा पुनः स्वग्राम प्रत्यागच्छन्ति, यदि पुनस्तत्रात्मा निजशरीराजिनः वाचतः शरीरान्निर्गच्छन् दृश्येत, न चोपलभ्यते, तस्साचज्जीवस्तदेव शरीरमिति स्थितं । तदेवमुक्तनीत्याऽसौ || जीवोऽसन्-अविषमानस्तत्र तिष्ठन् गच्छंश्च 'असंवेद्यमानः' अननुभूयमानः येषामयं पक्षस्तेषां तरखाख्यातं भवति, येषां पुनर-18 न्यो जीवोन्यच्छरीरमेवंभूतोऽप्रमाणक एवाभ्युपगमः, तस्माते खमढ्या प्रवर्तमाना 'एव' मिति वक्ष्यमाणं तेनैव "विमतिवेदयन्ति' जानन्ति, तद्यथा-अयमात्माऽऽयुष्मन् ! शरीराबहिरभ्युपगम्यमानः किंप्रमाणकः स्यादिति वाच्यं, तत्र किंदीप:-खश-| रारात्प्राशुतरः उत हखा-अङ्गुष्ठश्यामाकतण्डुलादिपरिमाणो वा, तथा संस्थानानां परिमण्डलादीनां मध्ये किंसंस्थानः, तथा दया १.रात्मानिज-प्र.1
दीप अनुक्रम [६४१]
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [९], नियुक्ति: [१५७]
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[९]
कृष्णादीनां वर्णानां मध्ये कतमवर्णवर्ती ?, तथा द्वयोर्गन्धयोर्मध्ये किंगन्धः?, पण्णां रसानां मध्ये कतमरसवती ?, तथाऽष्टानां स्प| शानां मध्ये कतमे स्पर्शे वर्तते । तदेवं संस्थानवर्णगन्धरसस्पर्शान्यरूपतया कथमप्यसावगृह्यमाणोऽसन्नसी, तथापि केनापि प्रकारेण संवेद्यमानोऽपि येषां तत्स्थाख्यातं भवति यथाऽन्यो जीवोऽयच्छरीरकमित्ययं पक्षः, तसात्पृथगविद्यमानसाचे शरीरात्पृथगात्म-10 वादिनो नैव वक्ष्यमाणनीत्याऽऽत्मानमुपलभन्ते । तयथा नाम कश्चित्पुरुषः 'कोशतः परिवारादू 'अर्सि' खड्गम् 'अभिनिवेत्ये 18 समाकृष्पान्येषामुपदर्शयेत् , तद्यथा-अयमायुष्मन् ! 'असिः खगोऽयं च 'कोश' परिवारः, एवमेव जीवशरीरयोरपि नास्त्युपदशयिता, तद्यथा-अयं जीव इदं च शरीरमिति, न चास्त्येवमुपदर्शयिता कश्चिद् अतः कायान्न भिन्नो जीव इति । असिंश्चार्थे । बहवो दृष्टान्ताः सन्तीत्यतो दर्शयितुमाह-तद्यथा वा कश्चित्पुरुषो 'मुन्नात् तृणविशेषात् 'इसिय'ति तद्गर्भभूतां शलाका पृथ-181
कृत्य दर्शयेत् , तथा मांसादस्थि तथा करतलादामलकं तथा दनो नवनीतं तिलेभ्यस्तैलं इति तथेक्षो रस तथाऽरणितोऽग्निमभिनिवैसे-पृथकृत्य दर्शयेद, एवमेव शरीरादपि जीवमिति, न चास्त्येवमुपदर्शयिताऽतोऽसनात्मा शरीरात्पृथगसंवेद्यमानश्चेति ।। प्रयोगश्चात्र-सुखदुःखभाक् परलोकानुयायी नास्त्यात्मा, तिलशश्छिद्यमानेऽपि शरीरके पृथगनुपलब्धेः, घटात्मवत् , व्यतिरेकेण च कोशखगवत् , तदेवं युक्तिभिः प्रतिपादितेऽप्यात्माभावे येषां पृथगात्मवादिना खदर्शनानुरागादेतत्स्वाख्यातं भवति, तद्यथा-अन्यो जीवः परलोकानुयायी अमूर्तः, अन्यच्च तद्भववृत्ति मूर्तिमच्छरीरम् , एतच्च पृथङ् नोपलभ्यते तसाचन्मिध्या यत्कैश्चिदुच्यते यथाऽस्त्यात्मा परलोकानुयायीति ॥ एतदध्यवसायी च 'स' लोकायतिका खतः प्राणिनामेकेन्द्रियादीनां 81
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अनुक्रम [६४१]
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्" - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक -1, मूलं [९], नियुक्ति: [१५७]
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सूत्रांक
सुत्रकृता 'हन्ता' ब्यापादको भवति, प्राणातिपाते दोषाभावमभ्युपगम्यान्येषामपि प्राण्युपघातकारिणामुपदेशं ददाति, तद्यथा-प्राणिनः पुण्डरी२ श्रुतस्क- खङ्गादिना घातयत, पृथिव्यादिकं खनतेत्यादि सुगम यावद् एतावानेव' शरीरमात्र एच जीवः, ततः परलोकिनोऽभावाना-18|| काध्यतन्धे शीला-18स्ति परलोक
|स्ति परलोकः, तदभावाच्च यथेष्टमासत(व), तथा चोक्तम्-"पिच खाद च साधु शोभने , यदतीतं वरगात्रि! तन्त्र ते । न हि || जीवतच्छकीयावृत्तिः | भीरु ! गतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं कलेवरम् ॥शा" तदेवं परलोकयायिनो जीवस्थाभावान पुण्यपापे स्तः नापि परलोक इत्ययं रीवादी ॥२७९॥
येषां पक्षस्ते लोकायतिकास्तजीवताछरीरवादिनो नैवैतद्वक्ष्यमाणं विप्रतिवेदयन्ति-अभ्युपगमछन्सि, तयथा-क्रिया वा सदनुष्ठानामिकाम् अक्रिया वा असदनुष्ठानरूपाम् , एवं नैव ते विप्रतिवेदयन्ति, यदि हि आत्मा तरिक्रयावाप्तकर्मणो भोक्ता स्यात्ततोऽ-18| | पायभयात्सदनुष्ठानचिन्ता स्यात् , तदभावाच सक्रियादिचिन्ताऽपि दूरोत्सादितैव । तथा सुकृतं दुष्कतं वा कल्याणमिति बा|| 18| पापमिति वा-साधु कृतमसाधु कृतमित्यादिका चिन्तैव नास्ति, तथाहि-सुकृताना-कल्याणविपाकिना साधुतयाऽवस्थानं दुष्क-11
| तानां च पापषिपाकिनामसाधुखेनावस्थानम् , एतदुभयमपि सत्यात्मनि तत्फलभुजि संभवति, तदभावाच कुतोऽनको हिताहि-18 |तप्राप्तिपरिहारी खातां ?, तथा सुकृतेन-कल्याणेन साध्वनुष्ठानेनाशेषकर्मक्षयरूपा सिद्धिस्तद्विपर्ययेणासिद्धिः, तथा दुष्कृतेन-पा|पानुवन्धिना असाध्वनुष्टानेन नरकोऽनरको वा-तिर्यकनरामरगतिलक्षणः स्थादित्येवमात्मिका चिन्तैव न भवेत् । तदाधारस्यात्म | सद्भावस्थानभ्युपगमादिति भावः । पुनरपि लोकायतिकानुष्ठानदर्शनायाह-'एवं ते' इत्यादि 'एवम्' अनन्तरोक्न प्रकारेण ते-18॥२७९॥ | नास्तिका आत्माभाव प्रतिपय विरूपं नानाप्रकारं रूपं-स्वरूप येषां ते तथा कर्मसमारम्भा:-सावद्यानुष्ठानरूपाः पशुपातमा-8 समक्षणसुरापाननिलाञ्छनादिकास्तैरेवंभूतैर्नानाविधैः कर्मसमारम्भैः कृषीवलानुष्ठानादिभिर्विरूपरूपान् कामभोगान् 'समारभ-||
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [९], नियुक्ति: [१५७]
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सूत्रांक
शान्ते' समाददति तदुपभोगार्थमिति ।। साम्प्रतं तञ्जीवतच्छरीरबादिमतमुपसंजिघृक्षुः प्रस्तावमारचयन्नाह-'एवं चेग इत्यादि, HS मूर्तिमतः शरीरादन्यदमूर्त ज्ञानमात्मन्यनुभूयते, तस्य चामूर्तेनैव गुणिना भाव्यम् , अतः शरीरात्पृथग्भूत आत्माऽभूर्तो ज्ञानवत् । 18| तदाधारभूतोऽस्तीति, न चात्माभ्युपगममन्तरेण तजीवतच्छरीरवादिनः कथचिद्विचार्यमाणं मरणमुपपद्यते, दृश्यन्ते च तथाभूत
एव शरीरे म्रियमाणा मृताच, तथा कुतः समागतोऽहं कुत्र चेदं शरीरं परित्यज्य यास्यामि ?, तथा 'इदं मे शरीरं पुराणं कर्मेत्येवमादिकाः शरीरात्पृथग्भावेनात्मनि संप्रत्यया अनुभूयन्ते, तदेवमपि खानुभवसिद्धेऽप्यात्मनि एके केचन नास्तिकाः पृथग्जीवा
स्तिखमश्रद्दधानाः 'प्रागल्भिकाः' प्रागल्भ्येन चरन्ति धृष्टतामापना अभिदधति-यद्ययमात्मा शरीरात्पृथग्भूतः स्वात् ततः संस्था18 नवर्णगंधरसस्पर्शान्यतमगुणोपेतः स्यात्, न च ते वराकाः स्वदर्शनानुरागाच तमसावृतदृष्टय एतद्विदन्ति यथा-मूर्तस्यायं धर्मो |
नामूर्तख, न हि ज्ञानस्य संस्थानादयो गुणाः संभाव्यन्ते, न च तत्तदभावेऽपि नास्ति, इत्येवमात्मापि संस्थानादिगुणरहितोऽपि & || विद्यत इति, एवं युक्तियुक्तमप्यात्मानं धापात्राभ्युपगच्छन्ति । तथा 'निष्क्रम्य च खदर्शनविहितां प्रवज्यां गृहीला नान्यो |8|
जीवः शरीराद्विद्यत इत्येवं यो धर्मो मदीयोऽयमित्येवमभ्युपगम्य खतोऽपरेषां च तं तथाभूतं धर्म प्रतिपादयन्ति । यद्यपि लोकाय-14 |तिकानां नास्ति दीक्षादिकं तथाऽप्यपरेण शाक्यादिना प्रव्रज्याविधानेन प्रव्रज्य पश्चाल्लोकायतिकमधीयानस्स(नाना) तथाविधपरिणतेस्तदेवाभिरुचितम् , अतो मामकोऽयं धर्मः (इति) स्वयमभ्युपगच्छन्त्यन्येषां च प्रज्ञापयन्ति, यदिवा-नीलपटाद्यभ्युपगन्तुः कबिदस्त्येव प्रव्रज्याविशेष इत्यदोष इति । सांप्रतं तत्प्रज्ञापितशिष्यव्यापारमधिकृत्याह-तं सद्दहमाणे'त्यादि, 'तं'नास्तिकवायुप
ये मण्डलबादिकाः प्र० ।
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्" - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [९], नियुक्ति: [१५७]
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सत्राक
मुत्रकताङ्गेश न्यस्तं धर्म विषयिणामनुकूल 'श्रद्दधानाः स्वमतावतिशयेन रोचयन्तः तथा 'प्रतिपादयन्तः अवितथभावेन गृह्णन्तः तथा तत्र पुण्डरी२ श्रुतस्क- रुचिं कुर्वन्तः तथा साधु-शोभनमेतद्यत् यथा खाख्यातो यथावस्थितो भवता धर्मोऽन्यथाऽसति हिंसादिष्ववर्तमानाः परलोकभ- काध्य० तन्धे शीला-1 यात्मुखसाधनेषु मांसमद्यादिष्वप्रवृत्ति कुर्वन्तो मनुष्यजन्मफलवश्चिता भवेयुः, ततः शोभनमकारि भवता हे श्रमण ! मानण! इति || जीवतच्छझीयावृत्ति
|वा यदयं तजीवतच्छरीरधर्मोऽस्माकमावेदितः, काममिष्टमेतदस्माकं धर्मकथनं, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे, हे आयुष्मंस्त्रया वयम-1 रीवादी ॥२८॥
|भ्युद्धताः अन्यथा कापटिकैस्तीथिकैर्वश्चिताः स्युरि(स्यामे) ति, तसादुपकारिणं त्वां भवन्तं पूजयामः, अहमपि कश्चिदायुष्मतो | भवतः प्रत्युपकारं करोमि । तदेव दर्शयति तद्यथा 'असणेणे'त्यादि सुगम यावत्पादपुञ्छनकमि(केने)ति । तत्रैके केचन पूर्वोक्तया पूजया पूजायां वा 'समाहिसु'त्ति समावृत्ताः-प्रदीभूतास्ते राजानः पूजां प्रति प्रवृत्ताः, तदुपदेष्टारो वा पूजामध्युपपन्नाः | सन्तस्तं राजादिकं खदशेनप्रतिपन्नमेके केचन खदर्शनस्थित्या हिताहितप्राप्तिपरिहारेषु 'निकाचितवन्तो नियमितवन्तः, तथाहि| भवतेदं तजीवतच्छरीरमित्यभ्युपगन्तव्यम् , अन्यो जीवोऽन्यच्च शरीरमित्येतच परित्याज्यम् , अनुष्ठानमपि एतदनुरूपमेव विध-18 यमित्येवं निकाचितवन्त इति ॥ तत्र ये भागवतादिकं लिङ्गमभ्युपगताः पवालोकायतग्रन्थश्रवणेन लोकायताः संवृत्तास्तेषा 'पूर्वम् आदी प्रत्रज्याग्रहणकाल एवैतत्परिज्ञातं भवति, तद्यथा-परित्यक्तात्र कलत्राः 'श्रमणा' यतयो भविष्यामः 'अनगारा गृहरहिताः तथा 'निष्किश्चनाः' किञ्चन-द्रव्यं तद्रहिताः तथा 'अपशवों गोमहिप्यादिरहिताः, परदत्तभोजिनः खतः पचनपाच-18|
॥२८॥ |नादिक्रियारहितखात्, भिक्षणशीला भिक्षवः, कियक्ष्यते अन्यदपि यत्किश्चित्पापं सावध कर्मानुष्ठानं तत्सर्वं न करिष्यामी(मह)।
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [९], नियुक्ति: [१५७]
*
18| त्येवं सम्यगुत्थानेनोत्थाय पूर्व पश्चाचे लोकायतिकभावमुपगता आत्मनः-स्वतः पापकर्मभ्योअतिविरता भवन्ति, पिरत्यभावे च
|| यत्कुर्वन्ति तदर्शयति --पूर्व सावद्यारम्भानिवृत्ति विधाय नीलपटादिकं च लिङ्गमास्थाय स्वयमात्मना सावधमनुष्ठानमाददते| खीकुर्वन्ति अन्यानप्यादापयन्ति-ग्राहयन्त्यन्यमप्पाददानं-परिग्रहं स्वीकुर्वन्तं समनुजानन्ति । एवमेष-पूर्वोक्तप्रकारेण स्त्रीप्र
धानाः खियोपलक्षिता वा काम्यन्त इति कामा भुज्यन्त इति भोगास्तेषु सातबहुलतयाजितेन्द्रियाः सन्तस्तेषु कामभोगेषु मूच्छिता| एकीभावतामापना गृद्धाः-कालावन्तो ग्रथिता-अवबद्धा अध्युपपन्ना-आधिक्येन भोगेषु लुब्धा रागद्वेषा(पवशा)तों-रागद्वे
पवशगाः कामभोगान्धा वा, त एवं कामभोगेषु अवबद्धाः सन्तो नात्मानं संसारास्कर्मपाशाद्वा समुच्छेदयन्ति-मोचयन्ति, नापि परं | सदुपदेशदानतः कमेपाशावपाशितं समुच्छेदयन्ति-कर्मबन्धात्रोटयन्ति, नाप्यन्यान् दशविधप्राणवर्तिनःप्राणान्-प्राणिना, तथा अ|| भूवन् भवन्ति भविष्यन्ति च भूतानि तथा आयुकधारणाजीवास्तान् तथा सच्चास्तथाविधवीर्यान्तरायक्षयोपशमापादितवीर्यगुणोपे|| तास्तान् न समुच्छेदयन्ति, असदभिप्रायप्रवृत्तखान , ते चैवंविधास्तजीवतच्छरीवादिनो लोकायतिका अजितेन्द्रियतया कामभोगा-18| वसक्ताः पूर्वसंयोगात्-पुत्रदारादिकात्यहीणा:-प्रभ्रष्टा आराधातः सर्वहेयधर्मभ्य इत्यार्यों मार्गः-सदनुष्ठानरूपस्तमसंप्राप्ता इति, एवं पूर्वोक्तया नीत्या ऐहिकामुष्मिकलोकदयसदनुष्ठानभ्रष्टा अन्तराल एव भोगेषु विषण्णास्तिष्ठन्ति, न विवक्षितं पीण्डरीकोत्क्षेप| गादिक कार्य प्रसाधयन्तीति । अयं च प्रथमः पुरुषस्तजीवतच्छरीरवादी परिसमाप्त इति ।। प्रथमपुरुषानन्तरं द्वितीयं पुरुषजात| मधिकृत्याह
अहावरे दोचे पुरिसजाए पंचमहब्भूतिएत्ति आहिज्जइ, इह खलु पाइणं वा ६ संतेगतिया मणुस्सा, भवंति
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१०], नियुक्ति: [१५७]
१ पुण्डरी
सूत्रकृताङ्गे। २ श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्तिः
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प्रत सूत्रांक [१०]
अणुपुषेणं लोयं उववन्ना, तंजहा आरिया वेगे अणारिया वेगे एवं जाव दुरूवा वेगे, तेर्सि च णं महं एगे राया भवइ महया एवं चेव णिरवसेसंजाव सेणावइपुत्ता, तेर्सि च णं एगतिए सहा भवंति कामंतं समणा य माहणा य पहारिंसु गमणाए, तत्थ अन्नयरेणं धम्मेणं पनसारो वयं इमेणं धम्मेणं पनवइस्सामो से एवमायाणह भयंतारो! जहा मए एस धम्मे सुअवाए सुपन्नते भवति ॥ इह खलु पंच महब्भूता, जेहिं नो विजइ किरियाति वा अकिरियाति वा सुकडेति वा दुकडेति वा कल्लाणेति वा पावएति या साहुति वा असाहुति वा सिद्धीति वा असिद्धीति वा णिरएति वा अणिरएति वा अवि अंतसो तणमायमबि ।। तं च पिहुसेणं पुढोभूतसमवातं जाणेजा, तंजहा-पुढवी एगे महन्भूते आऊ दुचे महम्सूते तेज तचे महन्भूते वाऊ चउत्थे महन्भूते आगासे पंचमे महन्भूते, इचेते पंच महन्भूषा अणिम्मिया अणिम्मान विता अकडा णो कित्तिमा णो कडगा अणाझ्या अणिहणा अवंझा अपुरोहिता सत्ता साससा आयछहा, पुण एगे एवमाहु-सतो णस्थि विणासो असतो णस्थि संभवो ॥ एतावताव जीवकाए, एतावताच अस्थिकाए, एतावताव सवलोए, एतं मुहं लोगस्स करणयाए, अविपंतसो तणमायमवि ॥ से किणं किणावेमाणे हणं धायमाणे पयं पयावेमाणे अवि अंतसो पुरिसमवि कीणित्ता घायइत्ता एत्थंपि जाणाहि
णविस्थदोसो, ते णो एवं विप्पडिवेदेति, संजहा किरियाइ वा जावणिरएड वा, एवं ते विरूवरूवेहि १एवं प्र.।
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॥२८॥
दीप अनुक्रम [६४२]
8॥२८॥
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१०], नियुक्ति: [१५७]
प्रत सूत्रांक
[१०]
Herma929092020030829082
कम्मसमारंभेहिं विरूवरूवाई कामभोगाई समारभंति भोयणाए, एवमेव ते अणारिया विष्पडियन्ना तं सद्दहमाणा तं पत्तियमाणा जाव इति, ते णो हवाए णो पाराए, अंतरा कामभोगेसु विसण्णा, दोघे पुरिसजाए पंचमहन्भूतिएत्ति आहिए ।। सूत्रं १०॥
अथशब्द आनन्तर्यार्थे, प्रथमपुरुषानन्तरमपरो द्वितीयः पुरुष एव पुरुषजातः पञ्चमिः (भूतैः) पृथिव्यतेजोवाय्वाकाशाख्यै-18 श्वरति पश्चभूतिकः पञ्च वा भूतानि अभ्युपगमद्वारेण विद्यन्ते यस्य स पञ्चभूतिको, मसर्थीयष्टक, स च सांख्यमतावलम्बी आत्मनस्तुणकुनीकरणेऽप्यसामर्थ्याभ्युपगमात् भूतात्मिकायाश्च प्रकृतेः सर्वत्र कर्तृताभ्युपगमात् द्रष्टव्यो, लोकायतमतावलम्बी वा नास्तिको भूतव्यतिरिक्तनास्तिखाभ्युपगमादाख्यायते, प्रथमपुरुषादनन्तरमयं पञ्चभूतात्मवायभिधीयते चेति । अत्र च प्रथमपुरुषगमेन 'इह खलु पाइणं वेत्यादिको ग्रन्थः सुपण्णत्ते भवतीत्येतत्पर्यवसानोऽवगन्तव्य इति ॥ सांप्रत सांख्यस्य लोकाय|तिकस्य चाभ्युपगमं दर्शयितुमाह-'इह' अमिन संसारे द्वितीयपुरुषवक्तव्यताधिकारे वा, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे, पृथिव्यादीनि | पञ्च महाभूतानि विद्यन्ते, महान्ति च तानि भूतानि च महाभूतानि, तेषां च सर्वव्यापितयाऽभ्युपगमात् महत्त्वं, तानि च पश्चैव,
अपरस्य पष्ठस्य क्रियाकर्तृखेनानभ्युपगमात्, यैर्हि पञ्चभिभूतैरप्युपगम्यमानः 'ना' असाकं क्रिया-परिस्पन्दात्मिका चेष्टारूपा | क्रियते अक्रिया वा-
निर्यापाररूपतया स्थितिरूपा क्रियते, तथाहि तेषां दर्शन-सच्चरजस्तमोरूपा प्रकृतिर्भूतात्मभूताः सर्वा | अर्थक्रियाः करोति, पुरुषः केवलमुपभुझे 'बुझ्यध्यवसितमर्थ पुरुषश्चेतयते' इति वचनात् , बुद्धिश्च प्रकृतिरेव तद्विकारखात्, तस्साच प्रकृतेर्भूतात्मिकायाः सत्वरजस्तमसां चयापचयाभ्यां क्रियाक्रिये स्थातामितिकृया भूतेभ्य एव क्रियादीनि प्रवर्तन्ते, तब्ब
दीप अनुक्रम [६४२]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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(०२)
प्रत
सूत्रांक
[१०]
दीप
अनुक्रम [६४२]
सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क न्धे शीलाकीयावृतिः
॥२८२ ॥
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१०], निर्युक्ति: [१५७]
|तिरेकेणा परस्याभावादिति भावः । तथा सुष्ठु कृतं सुकृतम् एतच्च सच्वगुणाधिक्येन भवति, तथा दुष्टं कृतं दुष्कृतम्, एतदपि रजस्तमसोरुत्कटतया प्रवर्तते, एवं कल्याणमिति वा पापकमिति वा साध्विति वा असाध्विति वा इत्येतत्सच्वादीनां गुणानामुत्क|र्षानुत्कर्षतया यथासंभवमायोजनीयं । तथेप्सितार्थनिष्ठानं सिद्धिर्विपर्ययस्तसिद्धिः निर्वाणं वा-सिद्धिः असिद्धिः संसारः संसा|रिणां तथा नरकः- पापकर्मणां यातनास्थानम् अनरकस्तिर्यमनुष्यामराणाम्, एतत्सर्वं सत्त्वादिगुणाधिष्ठिता भूतात्मिका प्रकृतिविधत्ते । लोकायताभिप्रायेणापीहॅव तथाविधसुखदुःखावस्थाने स्वर्गनरका वितीत्येवमन्तशस्तृणमात्रमपि यत्कार्यं तद्भूतैरेव प्रधारूपापन्नैः क्रियते, तथा चोक्तम्- 'सत्त्वं लघु प्रकाशकमिष्टमुपष्टम्भकं बलं च रजः । गुरु चरणकमेव तमः प्रदीपवद्यार्थतो वृत्तिः ॥ १ ॥" इत्यादि । तदेवं सांख्याभिप्रायेणात्मनस्तृणकुजीकरणेऽप्यसामर्थ्याल्लोकायतिकाभिप्रायेण खात्मन एवाभावाद्भूतान्येव सर्व कार्यकर्तृणीत्येवमभ्युपगमः, तानि च समुदायरूपापन्नानि नानाखभावं कार्य कुर्वन्ति ॥ तं च तेषां समवायं पृथग्भूतपदोदेशेन जानीयात्, तद्यथा - पृथिव्यैका काठिन्यलक्षणा महाभूतं तथाऽऽयो द्रवलक्षणा महाभूतं, तथा तेज उष्णोद्योतलक्षणं, तथा वायुर्हतिकम्पलक्षणः, तथाऽवगाहदानलक्षणं सर्वद्रव्याधारभूतमाकाशमित्येवं पृथग्भूतो यः पदोद्देशस्तेन कायाकारतया यस्तेषां सम| वायः स एकलेऽपि लक्ष्यते इत्येतानि पूर्वोक्तानि पृथिव्यादीनि, 'संख्या छुपादीयमाना संख्यान्तरं निवर्तयती तिला न न्यूनानि नाप्यधिकानि, विश्वव्यापितया महान्ति, त्रिकालभवनाद्भूतानि, तदेवमेतान्येव पश्च महाभूतानि 'प्रकृतेर्महान् महतोऽहङ्कारस्तस्मात् गणञ्च पोडशकः । तस्मादपि षोडशकात्पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि ॥ १ ॥' इत्येवं क्रमेण व्यवस्थितानि, अपरेण कालेश्वरादिना केनचिदनिर्मितानि - अनिष्पादितानि, तथा परेणानिर्मापयितव्यानि तथाऽकृतानि न केनचित्तानि क्रियन्ते, अभ्रन्द्रधनुरादि
Education Inmol
For Party
१ पुण्डरी
काव्य० भौतिकसाखो
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||२८२॥
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र - [ ०२], अंग सूत्र [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१०], नियुक्ति: [१५७]
प्रत सूत्रांक
అంటూ
बद्विसापरिणामेन निष्पन्नसात , तथा न घटवकृत्रिमाणि, कर्तकरणव्यापारसाध्यानि न भवन्तीत्यर्थः, तथा परन्यापाराभाव-181 तया 'नो' नैव कृतकानि, अपेक्षितपरब्यापारः स्वभावनिष्पत्तौ भावः कृतक इति व्यपदिश्यते, तानि च विस्रसापरिणामेन निष्प-18
बलात्कृतकव्यपदेशभाजि न भवन्ति, तथा अनाद्यनिधनानि, अवन्ध्यानि-अवश्य कार्यकर्तणि, तथा न विद्यते 'पुरोहितः' काये || 1% प्रति प्रवर्तयिता येषां तान्यपुरोहितानि, स्वतन्त्राणि खकार्यकर्तृवं प्रत्यपरनिरपेक्षाणि, शाश्वतानि नित्यानि वा 'न कदाचिदनी-18
| दृशं जगदिति वचनात् , तदेवभूतानि पश्च महाभूतान्यात्मषष्टानि पुनरेके एवमाहः, आत्मा चाकिश्चित्करः सांख्याना लो-18 | कायतिकानां पुनः कायाकारपरिणतान्येव भूतान्यभिव्यक्तचेतनानि आत्मव्यपदेशं भजन्त इति । तदेवं सांख्याभिप्रायेण 'सतो।। | विद्यमानस्य प्रधानादेनोस्ति 'विनाशः' अत्यन्ताभावरूपो नाप्यसतः शशविषाणादेः संभवः-समुत्पचिरस्ति, कारणे कार्यस्य ।
विद्यमानस्यैवोत्पत्तिरिष्टा, नासतः, सर्वस्मात्सर्वसोत्पत्तिप्रसङ्गात , तथा चोक्तम्--"नासतो जायते भावो, नाभावो जायते सतः" || इत्यादि, तथा असतः खरविषाणादेरकरणादुपादानकारणस्य च मृत्पिण्डादेर्घटार्थिनोपादानादित्यादिभ्यश्च हेतुभ्यः कारणे सत्कार्य-18||
बादः॥ तदेवमतावानेव तावदिति सांख्यो लोकायतिको वा माध्यस्थ्यमवलम्बमान एवमाह, तबधा असयुक्तिभिविचायमाणस्ता-1|| || वदेतावानेय जीवकायो यदुत पञ्च महाभूतानि, यतस्तान्येव सांख्याभिप्रायेण प्रधानरूपतामापनानि सत्यादिगुणोपचयापचयाभ्यो ,
सर्वकार्यकणि, आत्मा चाकिञ्चित्करबादसत्कल्प एव, लोकायतस्य तु स नास्त्येवेत्यत 'एतावानेच भूतमात्र एव जीवकाय, ४|| तथा एतावानेव-भूतास्तिसमात्र एवास्तिकायो नापरः कवित्तीथिकाभिप्रेतः पदार्थोऽस्तीति । तथा एतावानेव सर्वलोको यदुत पश्च ४|| महाभूतानि प्रधानरूपापनानि,आत्मा चाकर्ता निर्गुणः सांख्यय, लोकायतिकस्य तु पञ्चभूतात्मक एव लोकः, तदतिरिक्तखापरस्य%
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లంగా
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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प्रत
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अनुक्रम
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१०], निर्युक्ति: [१५७]
सूत्रकृता
॥२८३ ॥
पदार्थस्याभावादिति । तथा एतदेव पञ्चभूतास्तिवं 'मुखं' कारणं लोकस्य, एतदेव च कारणतथा सर्वकार्येषु व्याप्रियते, तथाहि सां२ क- ६ ख्यस्व प्रधानात्मभ्यां सृष्टिरुपजायते, लोकायतिकस्य तु भूतान्येव अन्तशस्तृणमात्रमपि कार्यं कुर्वन्ति, तदतिरिक्तस्यापरस्याभावान्धे शीला- दिति भावः । स चैर्ववाद्येकत्रात्मनोऽकिञ्चित्करलादन्यत्र चात्मनोऽसच्चादसदनुष्ठानैरप्यात्मा पापैः कर्मभिर्न बध्यत इति (मन्यतेतद्) कीयावृत्तिः दर्शयितुमाह--' से कीण' मित्यादि 'से' ति स इति यः कथित्पुरुषः क्रयार्थी 'क्रीणन' किञ्चित् क्रमेण गृह्णस्तथाऽपरं क्रापर्यस्तथा प्राणिनो मन् हिंसन् तथा परैर्घातयन् व्यापादयन् तथा पचनपाचनादिकां क्रियां कुर्वस्तथाऽपरैश्च पाचयन् अस्य चोपलक्षणार्थ- १४ त्वात् ( अनुमोदन) क्रीणतः क्रापयतो नतो घातयतः पचतः पाचयतश्चापरांस्तथा अप्यन्तशः पुरुषमपि प्रञ्चेन्द्रियं विक्रीय घातयिता, अपि पञ्चेन्द्रियधाते नास्ति दोषोऽत्र एवं 'जानीहि' अवगच्छ, किं पुनरेकेन्द्रियवनस्पतिघात इत्यपिशब्दार्थः । ततथैवादिनः सांख्या बार्हस्पत्या वा 'नो' नैव 'एतद्' वक्ष्यमाणं 'विप्रतिवेदयन्ति' जानन्ति तद्यथा- क्रिया-परिस्पन्दात्मिका सावधानुष्ठानरूपा एवमक्रिया वा स्थानादिलक्षणा यावदेवमेव 'विरूपरूपैः' उच्चावचैर्नानाप्रकारैर्जलनानावगाहनादिकैस्तथा प्राण्युपमर्दकारिभिः कर्मसमारम्भः 'विरूपरूपान' नानाप्रकारान् सुरापानमांसभक्षण। गम्यगमनादिकान् कामभोगान् समारभन्ते स्वतः, परांश चोदयन्ति - नास्त्यत्र दोष इत्येवं प्रतार्यासत्कार्यकरणाय प्रेरयन्ति, एवं च तेनार्या अनार्यकर्मकारित्वादार्यान्मार्गाद्विरुद्धं मार्ग प्रतिपन्नाः विप्रतिपन्नाः, तथाहि - सांख्यानामचेतनखात्प्रकृतेः कार्यकर्तृखं नोपपद्यते, अचेतनखं तु तस्याः 'चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूप' मिति वचनात्, आत्मैव प्रतिविम्बोदयन्यायेन करिष्यतीति चेत्तदपि न युक्तिसंगतं यतोऽकर्तृसादात्मनो नित्यखाच प्रतिबिम्बोदयो न युज्यते, किंच- नित्यखात्प्रकृतेर्महदादि विकारतया नोत्पत्तिः स्यात्, अपिच- 'नासतो जायते भावो नाभावो जायते सत' इत्याद्यभ्युप
Education intimation
For Parts Only
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१ पुण्डरी
काध्यय ० पाञ्चभीतिकः
॥ २८३ ॥
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र -[ ०२], अंग सूत्र- [ ०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
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[भाग-4] “सूत्रकृत्" - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१०], नियुक्ति: [१५७]
प्रत सूत्रांक
[१०]
miगमात्प्रधानात्मनोरेव विद्यमानत्वान्महदहङ्कारादेरनुत्पत्तिरेव, एकखाच प्रकृतेरेकात्मवियोगे सति सर्वात्मनां वियोगः स्याद् एकसंबन्धे
चा सर्वात्मनां प्रकृतिसंयोगो न पुनः कस्यचित्तत्त्वपरिज्ञानात् प्रकृतिवियोगे मोक्षोऽपरस्य तु विपर्ययात्संसार इति, एवं जगद्वैचित्र्यं न स्वाद, आत्मनश्चाकईखे तत्कृतौ बन्धमोक्षी न खाताम् , एतच्च दृष्टेष्टबाधितं । नापि कारणे सत्कार्यवादो, युक्तिभिरनुपप-18 || धमानखात् , तथाहि-मृत्पिण्डावस्थायां घटोत्पत्तेः प्राग्घटसंबन्धिनां कर्मगुणव्यपदेशानामभावात् , घटार्थिनां च क्रियासु प्रवृ| तेने कारणे कार्यमिति ॥ लोकायतिकखापि भूतानामचेतनखात्कर्तृखानुपपत्तिः, कायाकारपरिणतानां चैतन्याभिव्यच्यभ्युपगमे |च मरणाभावप्रसङ्गः स्यात् । तस्मान्न पञ्चभूतात्मकं जगदिति स्थितम् । अपिच-इदं ज्ञानं खसंवित्तिसिद्धमात्मानं धर्मिणमुपस्थापयति, नच भूतान्येव धर्मिसेन परिकल्पयितुं युज्यन्ते, तेपामचेतनत्वाद्, अथ कायाकारपरिणतानां चैतन्यं धर्मो भविष्यतीत्येतदप्ययुक्तं, यतः कायाकारपरिणाम एव तेषामात्मानमधिष्ठातारमन्तरेण न भवितुमर्हति, निर्हेतुकत्वप्रसङ्गात् , निहेंतुकत्वे च नित्य सत्त्वमसत्वं वा स्वादिति । तदेव भूतव्यतिरिक्त आत्मा, तसिंश्च सति सदसदनुष्ठानतः पुण्यपापे, ततश्च जगद्वैचित्र्यसिद्धिरिति । एवं च व्यवस्थिते तेऽनार्याः सांख्या लोकायतिका वा पञ्चमहाभूतप्रधानाभ्युपगमेन विप्रतिपन्ना यत्कुर्युस्तद्दर्शयितुमाह-'तं सह| हमाणा' इत्यादि, 'तम्' आत्मीयमभ्युपगमं पूर्वोक्तया नीत्या नियुक्तिकमपि श्रद्दधानाः पञ्चमहाभूतात्मकप्रधानस्य सर्वकार्याणि ।
उपगच्छन्ति, तदेव च सत्यमित्येवं 'प्रतियन्तः प्रतिपद्यमानास्तदेव चात्मीयमभ्युपगमं रोचयन्तस्तद्धर्मस्याख्यातारं प्रशंसयन्त:, IN 19 तद्यथा-वाख्यातो भवता धर्मोऽसाकमयमत्यन्तमभिप्रेत इत्येवं ते तदध्यवसायाः-सावधानुष्ठानेनाप्यधर्मो न भवतीत्यध्यवसायिनः
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१०], नियुक्ति: [१५७]
| १ पुण्डरी
कृाध्य
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प्रत सूत्रांक
[१०]
सूत्रकृताङ्गे शास्त्रीकामेषु मूञ्छिता इत्येवं पूर्ववज्ज्ञेयं यावत्तदन्तरे कामभोगेषु विषण्णा ऐहिकामुष्मिकोभयकार्यभ्रष्टा नात्मत्रा(नखा)णाय नापि २ श्रुतस्क-13 परेषामिति । भवत्येवं द्वितीयः पुरुषजातः पञ्चमहाभूताभ्युपगमिको व्याख्यात इति ॥ साम्प्रतमीश्वरकारणिकमधिकृत्याहन्धे शीला- अहावरे तचे पुरिसजाए ईसरकारणिए इति आहिजइ, इह खलु पादीणं वा ६ संगतिया मणुस्सा भवंकीयावृत्तिः ति अणुपुषेणं लोयं उबवन्ना, तं०-आरिया वेगे जाव तेसिंच णं महंते एगे राया भवइ जाव सेणावइपुत्ता,
तेर्सि च णं एगतीए सही भवइ, कामं तं समणा य माहणा य पहारिंसुगमणाए जाव जहा मए एस धम्मे ॥२८४॥
सुअक्खाए सुपन्नत्ते भवह ॥ इह खलु धम्मा पुरिसादिया पुरिसोत्तरिया पुरिसप्पणीया पुरिससंभूया पुरिसपज्जोतिता पुरिसअभिसमण्णागया पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति, से जहाणामए गंडे सिया सरीरे जाए सरीरे संबुद्धे सरीरे अभिसमण्णागए सरीरमेव अभिभूय चिट्ठति, एवमेव धम्मा पुरिसादिया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति । से जहाणामए अरई सिया सरीरे जाया सरीरे संवुडा सरीरे अभिसमण्णागया सरीरमेव अभिभूय चिट्ठति, एवमेव धम्मावि पुरिसादिया जाव पुरिसमेव अभिभूप चिट्ठति । से जहाणामए चम्मिए सिया पुढविजाए पुढविसंवड़े पुढविअभिसमण्णागए पुढविमेव अभिभूय चिट्ठा एवमेव धम्मावि पुरिसादिया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति । से जहाणामए रुक्से सिया पुढविजाए पुढविसंबुद्धे पुढविअभिसमण्णागए पुढविमेव अभिभूय चिट्ठति, एवमेव धम्मावि पुरिसादिया जाच पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति । से जहाणामए पुकखरिणी सिया पुढविजाया जाच पुढविमेव अभिभूय चिट्ठ
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M॥२८॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [११], नियुक्ति: [१५७]
प्रत सूत्रांक
ति, एवमेव धम्मावि पुरिसादिया जाय पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति । से जहाणामए उदगपुक्खले सिया उदगजाए जाच उदगमेव अभिभूय चिट्ठति, एवमेव धम्मावि पुरिसादिया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति । से जहाणामए उदगबुखुए सिया उदगजाए जाव उदगमेव अभिभूय चिट्ठति, एवमेव धम्मावि पुरिसादिया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति ॥ जंपिय इमं समणाणं णिग्गंथाणं उदिह पणीयं वियंजियं दुवालसंगं गणिपिडयं, जहा-आयारोसूयगडोजाव दिडिवातो, सबमेवं मिच्छा, ण एयं तहियं, ण एवं आहातहियं, हम सचं इमं तहियं हम आहातहियं, ते एवं सन्नं कुषंति, ते एवं सन्नं संठवेंति, ते एवं सन्न सोवढवयंति, तमेवं ते तज्जाइयं दुक्खं णातिउति सउणी पंजरं जहा ॥ ते णो एवं विपडिवेदेति, तंजहा-किरिया इ वा जाव अणिरए इवा, एबामेव ते विरूवरूवेहिं कम्मसमारंभेहिं विरूवरूवाई कामभोगाई समारंभंति भोयणाए, एवामेव ते अणारिया विप्पडिवन्ना एवं सद्दहमाणा जाव इति ते णो हवाएणो पाराए, अंतरा कामभोगेसु विसण्णेत्ति, तचे पुरिसजाए ईसरकारणिएत्ति आहिए (सूत्रं ११)॥
अथ द्वितीयपुरुपादनन्तरं तृतीय ईश्वरकारणिक आख्यायते, समस्तस्वापि चेतनाचेतनरूपस्य जगत ईश्वरः कारणं, प्रमाणं चात्र| तनुभुवनकरणादिक धर्मिलेनोपादीयते, ईश्वरककमिति साध्यो धर्मः, संस्थानविशेषखात् कूपदेवकुलादिवत् तथा स्थिखा २ प्रवृत्चे-18| वास्यादिवत्, उक्तं च-"अज्ञो जन्तुरनीशः स्वादात्मनः सुखदुःखयोः। ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ॥१॥" इत्यादि। तथा 'पुरुष एवेदं सर्वे यद्भूतं यच्च भाव्य' मित्यादि, तथा चोक्तम्-"एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते प्रतिष्ठितः । एकथा बहुधा
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [११], नियुक्ति: [१५७]
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[११]
सूत्रकृताङ्गे
18 चैव, दृश्यते जलचन्द्रवद् ॥१॥" इत्यादि, तदेवमीश्वरकारणिक आत्माद्वैतवादी वा तृतीयः पुरुषजात आख्यायते । 'इह खलु ११ पुण्डरी२श्रुतस्क-18 | इत्यादि, इहैव-पुरुषजातप्रस्तावे, खलुशब्दो वाक्यालकारे, प्राच्यादिषु दिक्ष्वन्यतमस्यां दिशि व्यवस्थितः कश्चिदेवं ब्रूयात , तद्यथा-18 काध्य. न्धे शीला- राजानमुद्दिश्य तावद्यावत्वाख्यातः सुप्रज्ञप्तो धर्मो भवति ।। स चायम्-इह खलु धर्माः स्वभावाश्चेतनाचेतनरूपाः पुरुष-ईश्वर आ-|| इश्वरकारयात्तिात्मा वा कारणमादिर्येषां ते पुरुषादिका ईश्वरकारणिका आत्मकारणिका वा, तथा पुरुष एवोत्तर कार्य येषां ते पुरुषोत्तराः, तथा !
णिका ॥२८॥ पुरुषेण प्रणीताः सर्वस्य तदधिष्ठितखात् तदात्मकखाद्वा, तथा पुरुषेण द्योतिताः-प्रकाशीकृताः प्रदीपमणिसूर्यादिनेव घटपटादय 9
| इति । ते च धर्मा जीवानां जन्मजरामरणच्याधिरोगशोकसुखदुःखजीवनादिकाः, अजीवधर्मास्तु मूर्तिमतां द्रव्याणां वर्णगन्धरस-11 स्पर्शा अमूर्तिमतां च धर्माधर्माकाशानां गत्यादिका धर्माः, सर्वेऽपीश्वरकृता आत्माद्वैतवादे वाऽऽत्मविवाः, सर्वेऽप्येते पुरुषमेवाभिभूय-अभिव्याप्य तिष्ठन्ति । अस्मिन्नर्थे दृष्टान्तानाविर्भावयन्नाह-'से जहाणामए' इत्यादि, सेशब्दस्तच्छब्दाथें, नामशब्दः संभावनायां, तद्यथा नाम गण्डं 'स्याद' भवेत् , संभाव्यते च शरीरिणां संसारान्तर्गतानां कर्मवशगानां गण्डादिसमुद्भवः, तच्च शरीरे जात-शरीरजातं शरीरावयवभूतं, तथा शरीरे प्रद्धिमुपगत-शरीराभिवृद्धौ च तस्याभिवृद्धि तथा शरीरेऽभिसमन्वागत-शरीरमा| भिमुख्येन व्याप्य व्यवस्थित, न तदवयवोऽपि शरीरात्पृथग्भूत इति भावः, तथा शरीरमेवाभिभूय-आभिमुख्येन पीडयित्वा ||२८५।।
तिष्ठति, यदिवा तदुपशमे शरीरमेवाश्रित्य तद्गण्डं तिष्ठति न शरीराबहिर्भवति, एतदुक्तं भवति-यथा तत्पिटकं शरीरैकदेशभूतं न M युक्तिशतेनापि शरीरात्पृथग्दर्शयितुं शक्यते, एवमेवामी धर्माश्चेतनाचेतनरूपास्ते सर्वेऽपीश्वरकर्तृका न ते ईश्वरात्पृथकर्तुं पार्यन्ते,
दीप अनुक्रम [६४३]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
~101~
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [११], नियुक्ति: [१५७]
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प्रत सूत्रांक
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| यदिवा सर्वव्यापिन आत्मनस्त्रैलोक्योदरविवरवर्तिपदार्थात्मनो ये केचन धर्माः प्रादुष्पन्ति ते पृथकर्तुं न शक्यन्ते, यथा तद्गण्डं शरीरविकारभूतं तदपृथग्भूतं तद्विनाशे च शरीरमेवावतिष्ठते, एवमेव सर्वेऽपि धर्माः पुरुषादिकाः पुरुषकारणिकाः पुरुषविकाररूपा वा न पुरुषात्पृथग्भवितुमर्हन्ति तद्विकारापगमे चात्मानमेवाश्रित्यावतिष्ठन्ते न तसादहिमवन्तीति, शास्त्रे च दृष्टान्तप्राचुर्यमविरुद्ध, यदिवासिन्नर्थे बहवो दृष्टान्ताः संभवन्तीश्वरकतत्ववादस्यात्माद्वैतवादस्य च सुप्रसिद्धत्वाइष्टान्तबहुत्वमित्याह-'से जहा-8 इत्यादि, तद् यथा नामारतिः-चित्तोद्वेगलक्षणा 'स्याद्' भवेत् , सा च शरीरजाता इत्यादि गण्डवन्नेया, दान्तिकेऽप्येवमेव, सर्वे | धर्माः पुरुषादिकाः पुरुषप्रभवा इत्यादि पूर्ववन्नेयं । तथा तद् यथा नाम वल्मीकं पृथ्वीविकाररूपं स्यात् , तच्च पृथिव्यां || | जातं पृथिवीसंबद्धं पृथिव्यभिसमन्वागतं पृथिवीमेवामि[संभूय तिष्ठति, एवमेव यदेतचेतनाचेतनरूपं तत्सर्वमीश्वरकारणिकमात्मविवर्तरूपं वा नात्मनः पृथग्भवितुमर्हति, पृथिव्या वल्मीकवत् । तथा तत् यथा नाम वृक्षोऽशोकादिकः स्यात् स च पृथि-९ | वीजात इत्यादि दृष्टान्तदाष्टोन्तिके पूर्ववदायोज्ये, तद् यथा नाम पुष्करिणी स्थान-तडागरूपा भवेत् , साऽपि पृथिव्यामेव जाते
त्यादि प्राग्वचर्यः, तथा तद् यथा नाम पुष्कलं-प्रचुरमुदकपुष्कलम्-उदकप्राचुर्य तच्च तद्धर्मत्वादुदकमेव यावदुदकमेवा|भिभूय तिष्ठत्येवं दान्तिकेऽप्यायोज्यं, तथा तद् यथा नामोदकबुदुदः स्याद् , अत्रापि दृष्टान्तदाान्तिके, न तसादवयविनः | पृथग्भूत इति सुगमम् ।। तदेवं यदीश्वरकृतत्वेनाभ्युपगम्यते तत्सर्वं तथ्यमपरं तु मिथ्या इत्येतदाविर्भावयन्नाह यदपि चेदर
संव्यवहारतः प्रत्यक्षासन्नभूतं 'श्रमणानां यतीनां 'निर्ग्रन्धानां निष्किञ्चनानामुद्दिष्टं तदर्थ प्रणीतं व्यञ्जित-तेषामभिव्यक्ती| कृतं द्वादशाङ्गं गणिपिटकं तद्यथा-आचार इत्यादि याबद्दृष्टिवादः, सर्वमेतन्मिथ्या अनीश्वरप्रणीतखात् स्वरुचिविरचितरथ्यापु
दीप अनुक्रम [६४३]
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [११], नियुक्ति: [१५७]
प्रत सूत्रांक [११]
सूत्रकृताङ्गे ॥ रुषवाक्यवत् , तथा नैतत्तथ्य, मिथ्येत्यनेनाभूतोद्भावनत्वमाविष्कृतमचौरचौरखवत, नैतत्तथ्यमित्यनेन तु सद्भूतार्थेनिढयो यथा|| १ प्रण्डरी२ श्रुतस्क-1|| नास्त्यात्मेति, तथा नैतयाथातथ्यम्-यथाध्यस्थितोऽर्थो न तथाऽवस्थितमिति भावः, अनेन सद्भूतार्थनिहवेनासद्भूताधारोपणमा-|| काध्य० न्धे शीला
विष्कृतं, तद् यथा गामश्वं सुवतोऽश्वं वा गामिति, एकार्थिकानि बैतानि शकेन्द्रादिवद्रष्टव्यानि । तदेवं यदेतद्वादशाहं गणि-18 ईश्वरकारडीयावृत्तिः पिटकं तदनीश्वरप्रणीतखान्मिथ्येति स्थितम् , इदं तु पुनरीश्वरककलं नामात्माद्वैतं वा सत्यं यथाऽवस्थितार्थप्रतिपादनात् । त-
1णिका ॥२८६॥
थेदमेव तथ्यं सद्भूतार्थोशासनात् , तदेवं ते ईश्वरकारणिका आत्माद्वैतवादिनो वा 'एवम् अनन्तरोक्तया नीत्या सर्वे तनुभुवनकरणादिकमीश्वरकारणिकं तथा सर्व चेतनमचेतनं वाऽऽत्मविवर्तखभावम् , आत्मन एव सर्वाकारतयोत्पत्तेरित्येवं संज्ञान संज्ञा || तामेवं कुर्वन्त्यन्येषां च ते खदर्शनानुरक्तमनसा संज्ञा संस्थापयन्ति, तथा त एव एवंभूतो संज्ञा वक्ष्यमाणेन न्यायेन नियुक्तिका-1 मपि सुष्टु उप-सामीप्येन तदात्रहितया तदभिमुखा युक्तीनिनीयवः 'स्थापयन्ति' प्रतिष्ठापयन्ति । ते चैवंवादिनस्तमीश्वरकट्टेल-18 |वादमात्माद्वैतवादं वा नातिवतेन्ते, तदभ्युपगमजातीयं च दुःख-दुःखहेतुलादुःख नातिवर्तन्ते न त्रोटयन्ति वा, असिन्नर्थ ह. ष्टान्तमाह-यथा शकुनिः-पक्षिविशेषो लावकादिकः पञ्जरं नातिवर्तते पौन:पुन्येन प्रान्त्वा तत्रैव वर्तते, एवं तेऽप्यवभूताभ्युप|गमवादिनस्तदापादितकर्मवन्धनं नातिवर्तन्ते न वा त्रोटयन्ति । ते च खाग्रहाभिमानग्रहास्ता नैतद्वक्ष्यमाणं विप्रतिवेदयन्ति
न सम्यक जानन्ति, तद्यथा-इयं क्रिया-सदनुष्ठानरूपेयं चाक्रिया-तद्विपरीतेत्येवं खाग्रहिणो नान्यत् शोभनमशोभनं वा यावदय- २८६॥ ॥ मनरक इत्येवं सदसद्विवेकरहितलानावधारयन्ति, एवमेव यथाकथश्चित्ते विरूपरूपैः कर्मसमारम्भैः-नानाप्रकार: सावधानुष्ठा
नैट्रेन्योपार्जनोपायभूतेन॒न्यमुपादाय विरूपरूपान्कामभोगानुचावचान्समाचरन्ति भोजनाय-उपभोगार्थमित्येषमनायोस्ते विरुद्ध
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दीप अनुक्रम [६४३]
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [११], नियुक्ति: [१५७]
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प्रत सूत्रांक
IS मार्ग प्रतिपन्ना विप्रतिपन्ना न सम्यग्वादिनो भवन्ति, तथाहि सर्वमीश्वरकर्तृकमित्यत्राभ्युपगमे किमसावीश्वरः खत एवापरान्
क्रियासु प्रवर्त(य)ते उतापरेण प्रेरितः, तत्र यद्यायः पक्षस्तदा तद्वदन्येषामपि खत एव क्रियासु प्रवृत्तिर्मविष्यति किमन्तर्गद्वनेश्वर-|| | परिकल्पनेन?, अथासावप्यपरप्रेरितः, सोऽप्यपरेण सोऽप्यपरेणेत्येवमनवस्थालता नभोमण्डलमालिनी प्रसर्पति । किञ्च असावीश्वरो | महापुरुषतया वीतरागतोपेतः सन्नेकानरकयोग्यासु क्रियासु प्रवर्तयत्यपरांस्तु खर्गापवर्गयोग्याखिति ?, अथ ते पूर्वशुभाशुभार्चरितोद४ी यादेव तथाविधासु क्रियासु प्रवर्तन्ते, स तु निमित्तमात्रम् , तदपि न युक्तिसंगतं, यतः प्राक्तनाशुभप्रवर्तनमपि तदायत्तमेव, तथा कचोक्तम्-"अज्ञो जन्तु"रित्यादि, अथ तदपि प्राक्तनमन्येन प्राक्तनतरेण कारितमिति, एवमनादिहेतुपरम्परेति, एवं च सति तत एव KI शुभाशुभे स्थाने भविष्यतः किमीश्वरपरिकल्पनेन, तथा चोक्तम्-"शखौषधादिसंवन्धाचैत्रस्य व्रणरोहणे । असंबद्धस्य किं
स्थाणोः, कारणलं न कल्प्यते ? ॥१॥" इत्यादि । यच्चोक्तं-सर्व तनु वनकरणादिकं बुद्धिमत्कारणपूर्वक संस्थान विशेषत्वात् देव
कुलादिवदिति, एतदपि न युक्तिसंगतं, यत एतदपि साधनं न भवदभिनेतमीश्वरं साधयति, तेन सार्धं व्याप्त्यसिद्धेः, देवकुला18| दिके दृष्टान्तेनीश्वरस्यैव कर्तृवेनाभ्युपगमात् । न च संस्थानशब्दप्रवृत्तिमात्रेण सर्वस्य बुद्धिमत्कारणपूर्वकलं सिध्यति, अन्यथाऽ
नुपपत्तिलक्षणस्य साध्यसाधनयोः प्रतिबन्धस्याभावात् , अधाविनाभावमन्तरेणैव संस्थानमात्रदर्शनात्साध्यसिद्धिः स्थान, एवं च सत्यतिप्रसङ्ग स्थात्, उक्तं च-"अन्यथा कुम्भकारेण, मृद्विकारस्य कस्यचित् । घटादेः करणात्सियेद्वल्मीकस्यापि तस्कृतिः ॥१॥" इत्यादि । न चेश्वरकतले जगद्वैचित्र्य सिध्यति, तस्सैकरूपलादित्युक्तप्रायमिति । आत्माद्वैतपक्षस्वत्यन्तमयुक्तिसंगतखा-14
परामु किया प्रवर्तते उता. प्रवर्तमते उता०प्र० । २ .सतः प्र.३ कि चा० । ४ पूर्वाशमा
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दीप अनुक्रम [६४३]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्" - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [११], नियुक्ति: [१५७]
प्रत सूत्रांक
सूत्रकृताङ्गेनाश्रयणीयः, तथाहि-तत्र न प्रमाणं न प्रमेयं न प्रतिपाद्यं न प्रतिपादको न हेतुर्न दृष्टान्तो न तदाभासो भेदेनावगम्यते, सर्व- पुण्डरी २ श्रुतस्क-18 स्यैव जगत एकत्वं स्याद् आत्मनोऽभिन्नत्वात् , तदभावे च कः केन प्रतिपाद्यते । इत्यप्रणयनमेव शाखस, आत्मनचैकत्वात न्धे शीला-
पकत्वाताकाध्यनिकार्यमप्येकाकारमेव स्थादित्यतो निर्हेतुकं जगद्वैचित्र्यं, तथा च सति-"नित्यं सत्चमसत्त्वं बाहेतोरन्यानपेक्षणात् । अपेक्षातो यतिवादी कीयावृत्ति हि भावानां, कादाचित्कत्वसंभवः॥१॥" इत्यादि । तदेवमीश्वरकर्तृत्वमात्माद्वैतपक्षश्च युक्तिभिर्विचार्यमाणो न कथञ्चिद् घटा
प्राचति, तथापि एते खदर्शनमोहमोहितास्तजातीयाहुःखात् शकुनिः पञ्जरादिव नातिमुच्यन्ते, विप्रतिपन्नाश्च तत्प्रतिपादिकाISभियुक्तिभिस्तदेव स्वपक्षं प्रतियन्ति श्रद्दधतीति पूर्ववन्नेयं यावत् 'णो हवाए णो पाराए अंतरा कामभोगेसु चिसण्ण'ति
इत्ययं तृतीयः पुरुषजात ईश्वरकारणिक इति । स येवमाह-'यस्य बुद्धिन लिप्येत, हत्त्वा सर्वमिदं जगत । आकाशमिव परेन, II नासौ पापेन लिप्यते ॥ १॥ इत्याद्यसमञ्जसभाषितया त्यक्त्वा पूर्वसंयोगमप्राप्तो विवक्षित स्थानमन्तराल एव कामभोगेषु मूछितो विषण्ण इत्यवगन्तव्यमिति ॥ साम्प्रतं चतुर्थपुरुषजातमधिकृत्याह
अहावरे चउत्थे पुरिसजाए णियतिवाइपत्ति आहिजइ, इह खलु पाईणं वा ६ तहेव जाव सेणावइपुत्ता वा, तेसिं च णं एगतीए सड़ी भवह, काम तं समणा य माहणा य संपहारिंसु गमणाए जाव मए एस धम्मे
॥२८७॥ मुअक्खाए सुपन्नत्ते भवह ॥ इह खलु दुवे पुरिसा भवंति-एगे पुरिसे किरियमाइक्खइ एगे पुरिसे णोकिरियमाइक्खइ, जे य पुरिसे किरियमाइक्खइ जे य पुरिसे णोकिरियमाइक्खइ दोवि ते पुरिसा तुल्ला
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दीप अनुक्रम [६४३]
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [१५७]
प्रत सूत्रांक [१२]
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एगट्ठा, कारणमावन्ना । वाले पुण एवं विप्पडिवेदेति कारणमावन्ने अहमंसि दुक्खामि वा सोयामि वा जूरामि वा तिप्पामि वा पीडामि वा परितप्पामि वा अहमेयमकासि परो वा जं दुक्खइ वा सोयइ वा जूरइ वा तिप्पइ वा पीडइ वा परितप्पड वा परो एवमकासि, एवं सेवाले सकारणं वा परकारणं वा एवं विप्पडिवेदेति कारणमावन्ने । मेहावी पुण एवं विप्पड़िवेदेति कारणमावन्ने-अहमंसि दुक्खामि वा सोयामि वा जूरामि वा तिप्पामि वा पीडामि वा परितप्पामि वा, णो अहं एबमकासि, परो वा जं दुक्खा वा जाब परितपद वा णो परो एवमकासि, एवं से मेहावी सकारणं वा परकारणं वा एवं विपडिवेदेति कारणमाबन्ने, से बेमि पाईणं वा जे तसथावरा पाणा ते एवं संघायमागच्छंति ते एवं विपरियासमावति ते एवं विवेगमागच्छंति ते एवं विहाणमागच्छति ते एवं संगतियंति उहाए, णो एवं विप्पडिवेदेति, तं जहा-किरियाति वा जाच णिरएति वा अणिरपति वा, एवं ते विरूवरूवेहिं कम्मसमारंभेहिं विरूवरूवाई कामभोगाई समारभंति भोयणाए॥ एवमेव ते अणारिया विप्पडिवन्ना तं सद्दहमाणा जाव इति ते णो हवाए णो पाराए अंतरा कामभोगेसु विसण्णा । चउत्थे पुरिसजाए णियइवाइएत्ति आहिए ॥ इचेते चत्तारि पुरिसजाया णाणापन्ना णाणाछंदा णाणासीला णाणादिट्टी णाणारुहे णाणारंभा णाणाअज्झवसाणसंजुत्ता पहीणपुषसंजोगा आरियं मग्गं असंपत्ता इति ते णो हवाए णो पाराए अंतरा कामभोगेसु बिसण्णा ॥ (सूत्रं १२)॥
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दीप अनुक्रम [६४४]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्" - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [१५७]
प्रत सूत्रांक [१२]
मूत्रकृताङ्गे अथ तृतीयपुरुषादनन्तरमपरचतुर्थः पुरुष एव पुरुषजातो नियतिवादिक आख्यायते-प्रतिपाद्यते, स चैवमाह-नात्र कश्चि-II
नान काच- पुण्डरी२ श्रुतस्क- कालेश्वरादिकः कारणं नापि पुरुषकार, समानक्रियाणामपि कस्यचिदेव नियतिवलादर्थसिद्धेः, अतो नियतिरेव कारणम् , उक्तं काध्यनिन्धे शीला- च-"प्राप्तव्यो नियतिवलाश्रयेण योर्थः, सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा । भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने, नामाव्यं भवति । कायाचिन भाविनोऽस्ति नाशः ॥१॥" इत्यादि ।। 'इह खलु पाईणं इत्यादिको ग्रन्थः प्राग्वनेतन्यो यावदेष धर्मो-नियतिवाद-18 T/૨૮૮ાા
रूपः खाख्यातः सुप्रज्ञप्तो भवतीति ।। स च नियतिवादी स्वाभ्युपगर्म दर्शयितुमाह-'इह खलु दुवे पुरिसा भवंती'त्यादि, इह' असिन् जगति खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे, द्वौ पुरुषो भवतः, तत्रैकः क्रियामाख्याति, क्रिया हि देशादेशान्तरावाप्तिलक्षणा
पुरुषस्य भवति, न कालेश्वरादिना चोदितस्य भवति, अपितु नियतिप्रेरितस्य, एवमक्रियाऽपि । यदि तावस्वतत्रौ क्रियावादमक्रि8 यावादं च समाश्रितौ तौ द्वावपि नियत्यधीनत्वात्तुल्यौ, यदि पुनस्तौ खतत्रौ भवतस्ततः क्रियाक्रियाभेदान तुल्यो सातामिति,
अत एकार्थावेककारणापंचत्वादिति, नियतिवशेनैव तो नियतिवादमनियतिवाद चाश्रिताविति भावः । उपलक्षणार्थत्वाचास्यान्योऽपि यः कश्चित्कालेश्वरादिपक्षान्तरमाश्रयति सोऽपि नियतिचोदित एव द्रष्टव्य इति ।। साम्प्रतं नियतिवादी परमतोद्विभावविषयाऽऽह-'पाल' अब पुरुषकारकालेश्वरवादीत्यादिकः, पुनरिति विशेषणार्थः, तदेव दर्शयति-'एच' मिति वक्ष्यमाणनीत्या | 'विप्रतिवेदयति' जानीते कारणमापनः मुखदुःखयोः सुकृतदुष्कृतयोवा वकृत एव पुरुषकारः कालेश्वरादिवो कारणमित्यवम-118॥२८८।।
१-यत्त.प्र.२ पुनरपि नियतिवायेन सपक्षमन्यथा समर्थयितुमाइ प्र.३ युक्तयन्तरोपन्यासार्थः प्र. ४ म., कारणमुद्दिश्य वक्ष्यमाणाच कारणात् । ॥ नियतिरेख बत्रों न पुरुषकारादिकामिति भावः, तदेव नियतिवादसमर्थनकारणं दर्शयति, तद्यथा-योऽह. प्रा।
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दीप अनुक्रम [६४४]
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [१५७]
प्रत सूत्रांक [१२]
भ्युपपन्नो नान्यन्नियत्यादिकं कारणमस्तीति, तदेवाह तद्यथा-योऽहमस्मि 'दुक्खामि त्ति शारीरं मानसं दुःखमनुभवामि तथा शोचामि-इष्टानिष्टवियोगसंप्रयोगकृतं शोकमनुभवामि, तथा 'तिप्पामित्ति शारीरबलं क्षरामि, तथा 'पीडामित्ति सबाह्या-19 भ्यन्तरया पीड़या पीडामनुभवामि, तथा 'परितप्पामिचि परितापमनुभवामि, तथा 'जूरामिति अनार्यकर्मणि प्रवृत्तमात्मानं
गहोमि, अनर्थावाप्तौ विसूरयामीत्यर्थः, तदेवं यदहं दुःखमनुभवामि तदहमेवाकाष, परपीडया कृतवानसीत्यर्थः, तथा परोऽपि 181 यदुःखशोकादिकमनुभवति मयि वाऽऽपादयति तत्स्वयमेव कृतमिति, तदेव दर्शयति-'परो वे'त्यादि, तथा परोपि यन्मां दुःख
यति शोचयतीत्यादि प्राग्वन्नेयं तत्सर्वमहमकार्षमित्येवं द्वाभ्यामाकलितोज्ञो वा वाल एवं 'विप्रतिवेदयति' जानीते स्वकारण वा परकारणं चा सर्व दुःखादि पुरुषकारकृतमिति जानीते एवं पुरुषकारकारणमापन इति ॥ तदेवं नियतिवादी पुरुषकारकारणवादिनो बालखमापाद्य स्वमतमाह-मेधा-मर्यादा प्रज्ञा वा तद्वान् मेधावी नियतिवादपक्षाश्रयी एवं विप्रतिवेदयति-जानीते, 8 कारणमापन इति नियतिरेव कारणं सु(दुः)खाद्यनुभवस्य, तद्यथा-योऽहमस्मि दुःखयामि शोचयामि तथा 'तिप्पामिति
रामिपीडामिति पीडामनुभवामि 'परितप्पामिति परितापमनुभवामि, नाहमेवमकार्ष दुःखम् , अपि तु नियतित एवैत-10 न्मय्यागतं, न पुरुषकारादिकृतं, यतो न हि कस्यचिदात्माऽनिष्टो येनानिष्टा दुःखोत्पादादिकाः क्रियाः समारभते, नियत्यैवासाब-18॥
निच्छन्नपि तत्कायते येन दुःखपरम्पराभाग्भवति, कारणमापन इति परेऽप्येवमेव योजनीयम् । एवं सति नियतिवादी मेधावीति ॥8| सोल्लष्ठमेतत् , स किल नियतिवादी दृष्टं पुरुषकारं परित्यज्यादृष्टनियतिवादाश्रयेण महाविवेकीत्येवमुल्लण्ठ्यते, खकारणं परकारणं ।
च दुःखादिकमनुभवनियतिकृतमेतदेवं विप्रतिवेदयति-जानाति नात्मकृतं नियति कारणमापन, कारणं चात्रैकस्यासदनुष्ठानरतस्थापि
అలనాటి వారి వారి ఇంటి పని
दीप अनुक्रम [६४४]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्" - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [१५७]
प्रत सूत्रांक [१२]
सूत्रकृताङ्गे ||न दुःखमुत्पते परस्य तु सदनुष्ठायिनोऽपि तद्भवतीत्यतो नियतिरेव कीति । तदेवं नियतिवादे स्थिते परमपि यत्किश्चित्तत्सर्वे || |१ पुण्डरी
| नियत्यधीनमिति दर्शयितुमाह-'से वेमी'त्यादि, सोऽहं नियतिवादी युक्तितो निश्चित्य 'ब्रवीमी'ति प्रतिपादयामि ये केचन || न्धे शीलाप्राच्यादिषु दिक्षु त्रस्यन्तीति त्रसा-दीन्द्रियादयःस्थावराश्च-पृथिव्यादयः प्राणाः-प्राणिनस्ते सर्वेऽप्येवं नियतित एवौदारिकादिश-%
| यतिवादी कीयावृत्तिः
रीरसंवन्धमागच्छन्ति, नान्येन केनचित्कर्मादिना शरीरं ग्राद्यन्ते, तथा बालकुमारयौवनस्थविरवृद्धावस्थादिकं विविधपर्यायं नियतित || ॥२८॥ एवानुभवन्ति, तथा नियतित एव 'विवेक' शरीरात्पृथग्भावमनुभवन्ति, तथा नियतित एव विविध विधानम्--अवस्थाविशेष
कुन्नकाणखञ्जवामनकजरामरणरोगशोकादिक बीभत्समागच्छन्ति, तदेवं ते प्राणिनस्त्रसाः स्थावरा 'एवं' पूर्वोक्तया नीत्या संगति यान्ति-नियतिमापन्ना नानाविधविधानभाजो भवन्ति, त एव वा नियतिवादिनः 'संगइय'ति नियतिमाश्रित्य 'तदुत्प्रेक्षया' 12 | नियतिवादोत्प्रेक्षया यत्किञ्चनकारितया परलोकाभीरवो 'नो' नैव एतद्वक्ष्यमाणं विप्रतिवेदयन्ति-जानन्ति, तद्यथा-क्रियासदनुष्ठानरूपा अक्रिया तु-असदनुष्ठानरूपा इत्यादि यावदेवं ते नियतिवादिनस्तदुपरि सर्व दोषजातं प्रक्षिप्य विरूपरूपैः कर्मसमारम्भैविरूपरूपान् कामभोगान् भोजनाय-उपभोगार्थं समारभन्त इति ।। तदेवमेव-पूर्वोक्तया नीत्या तेनार्या विरूपं नियतिमार्ग प्रतिपन्ना विप्रतिपन्नाः, अनार्यलं पुनस्तेषां नियुक्तिकस्यैव नियतिवादस्य समाश्रयणात, तथाहि-असो नियतिः किं स्वत एव नियतिखभाषा उतान्यया नियत्या नियम्यते ? किंचातः ?, तत्र यद्यसौ स्वयमेव तथास्वभावा सर्वपदार्थानामेव तथाखभावसं किं न ! कलप्यते ?, किंबहुदोपया नियत्या समाश्रितया ? । अथान्यया नियत्या तथा नियम्यते, साऽप्यन्यया साऽप्यन्ययेत्येवमनवस्था ।
दीप अनुक्रम [६४४]
DO20530
మరియు
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [१५७]
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प्रत सूत्रांक [१२]
तथा नियतेः स्वभावाभियतस्वभावयाऽनया भवितव्यं न नानाखभावयेति, एकखाच नियतेस्तत्कायेंणाप्येकाकारेणैव भवितव्यं, तथा च सति जगद्वैचित्र्याभावः, न चैतदृष्टमिष्टं वा । तदेवं युक्तिभिर्विचार्यमाणा नियतिर्न कथञ्चिद् घटते, यदप्युक्तंद्वाबपि तौ पुरुषी क्रियाक्रियावादिनौ तुल्यौ, एतदपि प्रतीतिबाधितं, यतस्तयोरेकः क्रियावाद्यपरस्त्रक्रियावादीति कथमनयोस्तु-18 ल्यखम् , अथैकया नियत्या तथानियतखातुल्यता अनयोः, एतच्च निरन्तराः सुहृदः प्रत्येष्यन्ति, नियतेरप्रमाणवात् , अप्रमाणसं च प्राग्लेशतः प्रदर्शितमेव, यदप्युक्तं यदुःखादिकमहमनुभवामि तबाहमकार्षमित्यादि, तदपि बालवचनप्राय, यतो(यत्) जन्मान्तरकृतं शुभमशुभं वा तदिहोपभुज्यते, खकुतकर्मफलेश्वरवादसुमतां, तथा चोक्तं-'यदिह क्रियते कमें, तत्परत्रोपभुज्यते । मूलसि-1 तेषु वृक्षेषु, फलं शाखामु जायते ॥१॥" तथा-'यदुपात्तमन्यजन्मनि शुभमशुभं वा खकर्म परिणत्या । तच्छक्यमन्यथा नो कर्तुं देवासुररपि हि ॥२॥" तदेवं ते नियतिवादिनोऽनार्या विप्रतिपन्नात्तमेव नियुक्तिकं नियतिवादं श्रद्दधानास्तमेव च प्रतीयन्ते इत्यादि तावन्नेयं यावदन्तरा कामभोगेषु विषण्णा इति चतुर्थः पुरुषजातः समाप्तः।। साम्प्रतमुपसंजिघृक्षुराह-'इत्येते' पूर्वोक्तास्तजीवतच्छरीरपञ्चमहाभूतेश्वरकर्तृखनियतिवादपक्षाश्रयिणश्चवारः पुरुषा नानाप्रकारा प्रज्ञा-मतिर्येषां ते तथा नाना-भिन्नश्छन्दःअभिप्रायो येषां ते तथा, नानाप्रकारं शीलम् अनुष्ठानं येषां ते तथा, नानारूपा दृष्टिः-दर्शनं येषां ते तथा, नानारूपा रुचिः-8 चेतोऽभिप्रायो येषां ते तथा, नानाप्रकार आरम्भी-धर्मानुष्ठानं येषां ते तथा, नानाप्रकारेण-परस्परभिन्नेनाध्यवसायेन संयुक्ता धर्मार्थमुद्यताः, नहीण:-परित्यक्तः पूर्वसंयोगो-मातृपितृकलत्रपुत्रसंबन्धो यैस्ते तथा, तथा आरायातः सबहेयधर्मभ्य इत्यार्यों १ परकारपनिरक्षरवेन स्वाभाविकलात् । २ एकरूपया।
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दीप अनुक्रम [६४४]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [१५७]
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|१पुण्डरीकाध्य
प्रत सूत्रांक
[१२]
सूत्रकृताने मागों निर्दोषः पापलेशासंपृक्तस्तमार्य मार्गमसंप्राप्ता इति पूर्वोक्तया नीत्या ते चखारोऽपि नास्तिकादयो 'णो हवाए' इति परि-11 २ श्रुतस्क-15 स्यक्तवान्मातापित्रादिसंबन्धस्स धनधान्याहिरण्यादिसंचयस च नैहिकसुखभाजो भवन्ति, तथा 'णो पाराए'ति असंप्राप्तत्वादा-1 न्धे शीला
भिक्षुःपञ्चयस्य मार्गस्य सर्वोपाधिविशुद्धस्य प्रगुणमोक्षपद्धतिरूपस्य न संसारपारगामिनो भवन्ति, न परलोकसुखभाजो भवन्तीति, किस-IN कीयावृत्तिः
मः वैराग्यन्तराल एव गृहवासार्यमार्गयोमध्यवर्तिन एव कामभोगेषु 'विषण्णा' अध्युपपना दुष्पारपथमन्ना इव करिणो विषीदन्तीति स्थि
खरूपं ॥२९॥
तम् ।। उक्ताः परतीर्थिकाः, साम्प्रतं लोकोतरं भिक्षावृत्ति भिक्षु पञ्चमं पुरुषजातमधिकृत्याह
से चेमि पाईणं वा ६ संतेगतिया मणुस्सा भवंति, तंजहा-आरिया वेगे अणारिया वेगे उच्चागोया वेगे णीया गोया वेगे कायमंता वेगे हस्समंता वेगे मुवन्ना वेगे दुवन्ना वेगे सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे, तेसिं च णं जणजाणवयाइं परिग्गहियाई भवंति, तं० अप्पयरा वा भुजयरा वा, तहप्पगारेहिं कुलेहिं आगम्म अभिभूय एगे भिक्खायरियाए समुट्टिता सतो वावि एगे णायओ (अणायओ) य उवगरणं च विष्पजहाय भिक्खायरियाए समुहिता असतो वावि एगे णायओ (अणायओ) य उचगरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुट्टिता, [जे ते सतो वा असतो वा णायओ य अणायओ य उवगरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुट्ठिता] पुषमेव तेहिंणायं भवइ, तंजहा-इह खलु पुरिसे अन्नमन्नं ममट्टाए एवं विप्पनिवेति, तंजहाखेत्तं मे वत्थू मे हिरणं मे सुवन्नं मे धणं मे धणं मे कंसं मे दृसं मे विपुलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंख
दीप अनुक्रम [६४४]
INT॥२९॥
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१३], नियुक्ति: [१५७]
प्रत सूत्रांक
desesesesex Sesesesesese
[१३]
सिलप्पवालरत्तरयणसंतसारसावतेयं मेसहा मे स्वा मे गंधा मे रसा मे फासा मे, एते खलु मे कामभोगा अहमवि एतेसि ॥ से मेहावी पुत्वामेव अप्पणो एवं समभिजाणेजा, तंजहा-इह खलु मम अन्नयरे दुक्खे रोयातके समुप्पजेजा अणि? अकंते अप्पिए असुभे अमणुन्ने अमणामे दुक्खे णो सुहे से इंता भयंता. रो! कामभोगाई मम अन्नयर दुक्खं रोयातंक परियाइयह अणिर्ट अकंतं अप्पियं असुभ अमणुन्नं अमणाम दुक्खं णो सुह, ताऽहं दुक्खामि वा सोयामि वा जूरामि वा तिप्पामि वा पीडामि वा परितप्पामि वा इमाओ मे अण्णयराओ दुक्खाओ रोगातंकाओ पडिमोयह अणिट्टाओ अकंताओ अप्पियाओ असुभाओ अमणुन्नाओ अमणामाओ दुक्खाओ णो सुहाओ, एवामेव णो लद्धपुर भवइ, इह खलु कामभोगा णो ताणाए वा णो सरणाए वा, पुरिसे वा एगता पुर्वि कामभोगे विप्पजहति, कामभोगा वा एगता पुर्वि पुरिसं विप्पजहंति, अन्ने खल्लु कामभोगा अन्नो अहमंसि, से किमंग पुण वयं अन्नमन्नेहि कामभोगेहिं मुच्छामो? इति संखाए णं वयं च कामभोगेहिं विप्पजहिस्सामो, से मेहाची जाणेजा बहिरंगमेतं, इणमेव उवणीयतरागं, तंजहा-माया मे पिता मे भाया मे भगिणी मे भज्जा मे पुत्ता मे धूता मे पेसा मे नत्ता मे मुण्हा मे सुहा मे पिया मे सहा मे सयणसंगंथसंथुया मे, एते खलु मम णायओ अहमवि एतेसिं, एवं से मेहावी पुषामेव अप्पणा एवं समभिजाणेजा, इह खलु मम अन्नयरे दुक्खे रोयातके समुप्पज्जेज्जा अणिढे जाव दुक्खे णो सुहे, से हंता भयंतारो ! णायओ इमं मम अन्नयरं दुक्खं रोयातंक परि
Receneseseeeeeeeeeesecsi
दीप अनुक्रम [६४५]
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१३], नियुक्ति: [१५७]
सूत्रकृताङ्गे २श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥२९ ॥
१ पुण्डरीकाध्य भिक्षुःपश्चम: वेराग्यखरूपं
प्रत सूत्रांक [१३]
26LResearceaenecessita8
याइयह अणिढे जाव णो सुहं, ताऽहं दुक्खामि वा सोयामि वा जाव परितप्पामि वा, इमाओ मे अन्नयरातो दुक्खातो रोयातकाओ परिमोएह अणिहाओ जाव णो सुहाओ, एवमेव णो लद्धपुर्व भवइ, तेर्सि वावि भयंताराणं मम णाययाणं अन्नयरे दुक्खे रोयातंके समुपज्जेजा अणिढे जाव णो सुहे, से हंता अहमेतेसिं भयंताराणं णाययाणं इमं अन्नयरं दुक्खं रोयातक परियाइयामि अणिटुं जाव णो सुहे, मा मे दुक्खंतु वा जाव मा मे परितप्पंतु वा, इमाओ णं अपणयराओ दुक्खातो रोयातंकाओ परिमोएमि अणिट्ठाओ जाव णो सुहाओ, एवमेव णो लद्धपुष भवइ, अन्नस्स दुक्खं अन्नो न परियाइयति अनेण कडं अन्नो नो पडिसंवेदेति पत्तेयं जायति पत्तेयं मरइ पत्तेयं चयइ पत्तेय उववजा पत्तेयं झंझा परोयं सन्ना पत्तेयं मन्ना एवं विजू बेदणा, इह (इ) खलु णातिसंजोगा णो ताणाए वा णो सरणाए घा, पुरिसे वा एगता पुषिं णातिसंजोए विप्पजहति, णातिसंजोगा वा एगता पुषिं पुरिसं विप्पजहंति, अन्ने खलु णातिसंजोगा अन्नो अहमंसि, से किमंग पुण वयं अन्नमन्नेहिं णातिसंजोगेहिं मुच्छामो ?, इति संखाए वयं णातिसंजोगं विप्पजहिस्सामो । से मेहावी जाणेजा बहिरंगमेयं, इणमेव उवणीयतराग, तंजहाहत्या में पाया मे बाहा मे ऊरू मे उदरं में सीसं मे सील मे आऊ में बलं मे वणो मे तया में छाया मे सोयं मे चक्खू मे घाणं मे जिन्भा मे फासा मे ममाइजइ, घयाउ पडिजूरह, तंजहा-आउओ बलाओ वण्णाओ तयाओ छायाओ सोयाओ जाव फासाओ सुसंधितो संधी विसंधीभवइ, बलियतरंगे गाए
दीप अनुक्रम [६४५]
18 ॥२९॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१३], नियुक्ति: [१५७]
प्रत सूत्रांक
[१३]
भवइ, किण्हा केसा पलिया भवंति, तंजहाजंपि य इमं सरीरगं उरालं आहारोवयं एयपि य अणुपुवेणं विप्पजहियवं भविस्सति, एवं संवाए से भिक्खू भिक्खायरियाए समुटिए दुहओ लोग जाणेज्जा, तं०-जीवा व अजीवा चेव, तसा चेव थावरा चेव ।। (सूत्रम् १३)
याटकामभोगेष्यसक्तः समन्तरा नोऽवसीदति पद्मवरपौण्डरीकोद्धरणाय च समर्थों भवति तदेतदहं प्रवीमीति । अस्य चार्थ|स्योपदर्शनाय प्रस्तावमारचयन्नाह-प्राचीनादिकामन्यतरां दिशमुद्दिश्यैके केचन मनुष्याः सन्ति' भवन्ति, तद्यथा-आर्या-आयदेशो-18 त्पन्ना मगधादिजनपदोद्भवाः, तथा 'अनार्याः' शकययनादिदेशोद्भवाः, तथा च 'उच्चैर्गोत्रोद्भवा' इक्ष्वाकुहरिवंशादिकुलोद्भवाः,81 | तथा 'नीचैर्गोत्रोद्भया' वर्णापसदसंभूताः, तथा 'कायवन्तः' प्रांशवः, तथा 'हवा' वामनकादयः, तथा 'सुवर्णा दुर्वर्णाः सुरूपा दूरूपा वा एके केचन कर्मपरवशा भवन्ति, तेषां चार्यादीनां 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे 'क्षेत्राणि' शालिक्षेत्रादीनि 'वास्तूनि' खातोरिङ्गतादीनि तानि 'परिगृहीतानि' स्वीकृतानि भवन्ति, तान्येव विशिनष्टि-'अल्पतराणि स्तोकतराणि वा प्रभूततराणि
वा भवन्ति । तथा ते(ये)पामेव च जनजानपदाः परिगृहीता भवन्ति, तेऽप्यल्पतराः प्रभूततरा वा भवेयुः, तेषु चार्यादिविशेषणविK शिष्टेषु तथाप्रकारेषु कुलेवागम्यैवंभूतानि गृहाणि गला तथाप्रकारेषु वा कुलेषु 'आगम्य' जन्म लब्ध्वाभिभूय च विषयकषाया| दीन परीपहोपसर्गान् वा सम्यगुत्थानेनोत्थाय प्रव्रज्या गृहीबके केचन तथाविधसत्त्ववन्तो भिक्षाचर्यायां सम्यगुत्थिताः सगु-18 स्थिताः तथा 'सतो' विद्यमानानपि वा एके केचन महास चोपेता 'ज्ञातीन' खजनान् (अज्ञातीन्-परिजनान्) तथा 'उपकरणं
दीप अनुक्रम [६४५]
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
[१३]
दीप
अनुक्रम
[६४५]
सूत्रकृताने २ श्रुतस्क मधे शीलाडीयावृत्तिः
॥२९२॥
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१३], निर्युक्ति: [१५७]
च' कामभोगाङ्गं धनधान्यहिरण्यादिकं विविधं प्रकर्षेण 'हित्वा' त्यक्ता भिक्षाचर्यायां सम्यगुत्थिताः, असतो वा ज्ञातीनुपकरणं च विग्रहाय भिक्षाचर्यायामेके केचनापगतस्वजनविभवाः समुत्थिताः ॥ ये ते पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टा भिक्षाचर्यायामभ्युद्यताः पूर्वमेव- प्रव्रज्याग्रहणकाल एव तैरेतज्ज्ञातं भवति, तद्यथा - 'इह' जगति खलुर्वाक्यालङ्कारे अन्यदन्यद्वस्तुद्दिश्य ममैतद्भोगाय भविष्यतीति, एवमसौ प्रव्रज्यां प्रतिपन्नः प्रविवजिपुर्वा 'प्रवेदयति' जानात्येवं परिच्छिनति, तद्यथा - 'क्षेत्रं' शालिक्षेत्रादिकं 'वास्तु' खातोच्छ्रितादिकं 'हिरण्यं' धर्मलाभादिकं 'सुवर्ण' कनकं 'धनं' गोमहिष्यादिकं 'धान्यं' शालिगोधूमादिकं 'कांस्यं' कांस्यपात्रादिकं तथा 'विपुलानि' प्रभूततराणि धनकनकरत्नमणिमौक्तिकानि 'शंखशिल' ति मुक्तशैलादिकाः शिलाः 'प्रवाले' विद्रुमं यदिवा- 'सिलपवाले ति श्रिया युक्तं प्रवालं श्रीप्रवालं वर्णादिगुणोपेतं तथा 'रक्तरयणं'ति रक्तरत्नं - पद्मरागादिकं तथा ४ 'सत्सारं' शोभनसारमित्यर्थः शूलमण्यादिकं, तथा 'स्वापतेयं' रिक्थं द्रव्यजातं सर्वमेतत्पूर्वोक्तं 'मे' ममोपभोगाय भविष्यति, तथा 'शब्दा' वेण्णादयो 'रूपाणि' अङ्गनादीनि 'गन्धाः' कोष्ठपुटादयः 'रसा' मधुरादयः मांसरसादयो वा 'स्पर्श' मृद्रादयः, एते सर्वेऽपि खलु मे कामभोगाः, अहमप्येषां योगक्षेमार्थं प्रभविष्यामीत्येवं संप्रधार्य ।। स मेधावी पूर्वमेवात्मानं विजानीयाद्एवं पर्यालोचयेत्, तद्यथा- 'इह' संसारे खलुशब्दोऽवधारणे, इहैव-अस्मिन्नेव जन्मनि मनुष्यभवे वा ममान्यतरदुःखं- शिरोवेदनादिकं आतङ्को वाऽऽशु जीवितापहारी शूलादिकः समुत्पद्यते, तमेव विशिनष्टि-अनिष्टः अकान्तः अप्रियः अशुभो मनोज्ञोऽवनामयतीत्यवनाम: - पीडाविशेषकारी दुःखरूपो यदिवा न मनागमनाक 'मे' मम नितरामित्यर्थः दुःखयतीति दुःखं, पुनरपि १०द्राय प्र० । विषयासक्तः पुरुषशे मनुते इति शेषः ३ धर्मलालादिकं प्र० । ४ अपदितरूप्यसुवर्णमितिपर्यायः प्राचीनपुस्तके ५ शुद्ध प्र० ।
For Party
१ पुण्डरीकाध्य० •
भिक्षुःपश्चमः वैराग्यस्वरूपं
Education intimational
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र - [ ०२], अंग सूत्र [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
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॥२९२॥
www.brary.org
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१३], नियुक्ति: [१५७]
प्रत सूत्रांक
[१३]
IS| दुःखोपादानमत्यन्तदुःखप्रतिपादनार्थ सुखलेशस्यापि परिहारार्थ च, 'नो' नैव शुभः, अशुभकर्मविपाकापादितलादिति । अत्री | च यदुक्तमपि पुनरुच्यते तदत्यादरख्यापनार्थ तद्विशेषप्रतिपादनार्थ चेति, तदेवंभूतं दुःखं रोगातर्फ वा 'हन्त' इति खेदे भया-1 बातारो यूयं क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यादिकाः परिग्रहविशेषाः शब्दादयो वा विषयाः तथा हे भगवन्तः! कामभोगा यूर्य मया पालिताः परिगृहीताश्च ततो यमपीदं दुःखं रोगात वा 'परियाझ्यहत्ति विभागशः परिगृहीत यूयम् , अत्यन्तपीड| योद्विनः पुनस्वदेव दुखं रोगातङ्क वा विशेषणद्वारेणोच्चारयति-अनिष्टमप्रियमकान्तमशुभममनोज्ञममनाग्भूतमपनामक वा दुःखमे
बैतत् ततोऽशुममित्येवंभूतं ममोस्पन्न यूयं विभजत अहमनेनातीव दुःखामीति दुःखित इत्यादि पूर्ववनेयमिति, अतोऽमुष्मान्माम|न्यतरसादुखावोगातकाद्वा प्रतिमोचयत मम् , अनिष्टादिविशेषणानि तु पूर्ववन्याख्येयानि । प्रथम प्रथमान्तानि पुनर्द्वितीया
तानि साम्प्रतं पञ्चम्यन्तानीति । न चायमर्थस्तेन दुःखितेन 'एवमेवेति यथा प्रार्थितस्तथैव लब्धपूर्वो भवति, इदमुक्तं भवतिन हि ते क्षेत्रादयः परिग्रहविशेषा नापि शब्दादयः कामभोगास्तं दुःखितं दुःखाद्विमोचयन्तीति ।। एतदेव लेशतो दर्शयति 'इह | अस्मिन् खलु वाक्यालङ्कारे ते कामभोगा अत्यन्तमभ्यस्ता न 'तस्य' दुःखितस्य त्राणाय शरणाय वा भवन्ति, मुलालितानामपि | कामभोगाना पर्यवसानं दर्शयितुमाह-'पुरिसो वा' इत्यादि, पुरि शयनात्पुरुषः-प्राणी 'एकदा व्याध्युत्पत्तिकाले जराजीणेकाले वाऽज्यस्मिन्वा राजाधुपद्रवे 'तान्' कामभोगान् परित्यजति, स वा पुरुषो द्रव्याद्यभावे तैः कामभोगविषयोन्मुखोऽपि त्यज्यते, स चैवमवधारयति-'अन्ये' मत्तो भिन्नाः खल्वमी कामभोगाः, तेभ्यश्चान्योऽहमणि । तदेवं व्यवस्थिते "फिमिति वयं पुनरेतेवनित्येषु परभूतेष्वन्येषु कामभोगेषु मूच्छी कुर्म" इत्येवं केचन महापुरुषाः 'परिसंख्याय' सम्यग् ज्ञाखा कामभोगान् पर्व 'विप्र
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दीप अनुक्रम [६४५]
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्" - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१३], नियुक्ति: [१५७]
प्रत सूत्रांक
[१३]
सूत्रकृताले जहिष्यामः' त्यक्ष्याम इत्येवमध्यवसायिनो भवन्ति । पुनरपरं वैराग्योत्पत्तिकारणमाह----'से महावी' स 'मेधावी' सश्रुतिकः181१ पुण्डरी२ श्रुतस्क-2 एतजानीयात् , तद्यथा-यदेतरक्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णशब्दादिविषयादिकं दुःखपरित्राणाय न भवतीत्युपन्यस्तं तदेतद्वायतरं वर्तते, काध्य. न्धे शीला- इदमेव चान्यद्वक्ष्यमाणम् 'उपनीततरम्' आसनतरं बर्तते, तद्यथा-माता पिता भ्राता भगिनीत्यादयो ज्ञातयः पूर्वापरसंस्तुता एते भिक्षुःपञ्चकायाचात्तागखलु ममोपकाराय ज्ञातयो भविष्यन्ति, अहमप्येतेपां खानभोजनादिनोपकरिष्यामीत्येवं स मेधावी पूर्वमेवात्मनवं समभिजानी- मावराग्य॥२९॥ 18 यादित्यादि, एवं पर्यालोचयत्कल्पितवानिति बा, एतदध्यवसायी चासौ स्यादिति दर्शयितुमाह'इह खलु' इत्यादि 'इहाखरूप
असिन् भये मम वर्तमानस्यानिष्टादि विशेषणविशिष्टो दुःखातङ्कः समुत्पद्यत ततोऽसौ तदुःखदुःखितो ज्ञातीनेवमभ्यर्थयेत् , तद्य-81 | था-इमं ममान्यतरं दुःखातङ्कमुत्पन्न परिगृहीत यूयमहमनेनोत्पनेन दुःखात न पीडयिष्यामी(प्प इ)त्यतोऽमुष्मान्मा परिमो-M
चयत यूयमिति, न चैतत्तेन दु:खितेन लब्धपूर्व भवति, न हि ते ज्ञातयस्तं दुःखान्मोचयितुमलमिति भावः, नाप्यसौ तेषां | दुःखमोचनायालमिति दर्शयितुमाह-'तेसिं वावी'त्यादि, सर्व प्राग्वद्योजनीयं, यावदेवमेव नो लब्धपूर्व भवतीति, किमित्येवं नोपलब्धपूर्व भवतीत्याह-'अपणस्स दुक्ख'मित्यादि सर्वस्खैव संसारोदरविवरवर्तिनोऽसुमतः स्वकतकर्मोदयाबदुस्खमुत्पद्यते तदन्यस्य संवन्धि दुःखमन्यो-मातापित्रादिकः कोऽपि न प्रत्यापिचति, न तस्मात्पुत्रादेवुःखेनासोनात्यन्तपीडिताः खजना नापि || तदुःखमात्मनि कर्तुमलं, किमित्येवमाशयाह-'अण्णण कड'मित्यादि, 'अन्येन' जन्तुना कपायवशगेन इन्द्रियानुकूलतया | R२९३।। | भोगाभिलाषिणाजानावृतेन मोहोदयवर्तिना यत्कृतं कर्म तदुदयमन्यः प्राणी नो प्रतिसंवेदयति-नानुभवति, तदनुभवने बक| तागमकतनाशौ स्थाता, न चेमी युक्तिसंगती, अतो ययेन कृतं तत्सर्व स एवानुभवति, तथा चोक्तम्- "परकृतकमणि यस्माना
दीप अनुक्रम [६४५]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१३], नियुक्ति: [१५७]
प्रत सूत्रांक
[१३]
| कामति संक्रमो विभागो वा । तस्मात्सत्वानां कर्म यस्य यत्तेन तद्वयम् ॥१॥" यसात्वकृतकर्मफलेश्वरा जन्तयस्तस्मादेतद्भवतीत्याह-'पत्तेय'मित्यादि, एकमेकं प्रति प्रत्येकं सर्वोऽप्यसुमान् जायते, तथा क्षीणे चायुषि प्रत्येकमेव म्रियते, उक्तं च-"एकस्य
जन्ममरणे गतयक्ष शुभाशुभा भवावर्ते । तस्मादाकालिकहितमेकेनैवात्मनः कार्यम् ॥१॥” इति, तथा प्रत्येक क्षेत्रवास्तुहिरण्यसु12 वर्णादिकं परिग्रहं शब्दादींच विषयान् मातापितकलत्रादिकं च त्यजति, तथा प्रत्येकमुपपद्यते-युज्यते परिग्रहखीकरणतया,
तथा प्रत्येक झंझा-कलहस्तद्ग्रहणात्कषायाः परिगृह्यन्ते, ततः प्रत्येकमेवासुमतां मन्दतीव्रतया कषायोद्भवो भवति, तथा संज्ञान | संज्ञा-पदार्थपरिच्छित्तिः, साऽपि मन्दमन्दतरपटुपटुतरभेदात्प्रत्येकमेवोपजायते, सर्वज्ञादारतस्तरतमयोगेन मतेर्व्यवस्थितखात्, तथा प्रत्येकमेव 'मन्नति मननं चिन्तनं पर्यालोचनमितियावत् , तथा प्रत्येकमेव 'विष्णु'त्ति विद्वान् , तथा प्रत्येकमेव सातासातरूप-| | वेदना सुखदुःखानुभवः, उपसजिघृक्षुराह-'इति खलु' इत्यादि, 'इति' एवं पूर्वोक्तेन प्रकारेण यतो नान्येन कृतमन्यः प्रतिसंवेदयते प्रत्येकं च जातिजरामरणादिकं ततः खल्वमी ज्ञातिसंयोगा:-खजनसंबन्धाः संसारचक्रवाले पर्यटतोऽत्यन्तपीडितस्य तदुद्धरणे न ब्राणाय-न त्राणं कुर्वन्ति, नाप्यनागतसंरक्षणतः शरणाय भवन्ति, किमिति', यतः पुरुष 'एकदा' क्रोधोदयादिकाले ज्ञातिसंयोगान् ‘विप्रजहाति' परित्यजति, 'खजनाश्च न बान्धवा' इति व्यवहारदर्शनात् , ज्ञातिसंयोगा वैकदा तदस|दाचारदर्शनतः पूर्वमेव तं पुरुष परित्यजन्ति-खसंबन्धादुत्तारयन्ति । तदेवं व्यवस्थिते एतद्भावयेत् , तद्यथा--अन्ये खल्वमी
ज्ञातिसंयोगा मत्तो भिन्ना इखरा एभ्यश्चान्योहमसि । तदेवं व्यवस्थिते किमङ्ग पुनर्वयमन्यैरन्यैातिसंयोगैमूर्छा कुर्मः १, न तेषु |मूछों क्रियमाणा न्याय्या इत्येवं 'संख्याय' ज्ञाखा प्रत्याकलय्य चयमुत्पन्नवैराग्या शातिसंयोगांस्त्यक्ष्याम इत्येवं कृताध्यवसा
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दीप अनुक्रम [६४५]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्" - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१३], नियुक्ति: [१५७]
प्रत सूत्रांक [१३]
भूत्रकृताङ्गे र यिनो विदितवेद्या भवन्तीति ॥ साम्प्रतमन्येन प्रकारेण वैराग्योत्पत्तिकारणमाह-स 'मेधावी' सश्रुतिक 'एतद् वक्ष्यमाणं जा- पुण्डरी२ श्रुतस्क- नीयात् , तद्यथा-- बाह्यतरमेतत् यज्ञातिसंबन्धनम् , इदमेवान्पदुपनीततरम्-आसन्नतरं, शरीरावयवानां भिन्नज्ञातिभ्य आसन्नत- काध्य न्धे शीला- रखात्, तद्यथा-हस्तौ ममाशोकपल्लवसदृशौ तथा भुजौ करिकराकारी परपुरंजयो प्रणयिजनमनोरथपूरको शत्रुशतजीवितान्तकरौ भिक्षुःपञ्चकीयावृत्तिः
यथा मम न तथाऽन्यस्य कस्यापीत्येवं पादावपि पचगर्भसुकुमारावित्यादि सुगम, यावत्स्पर्शाः स्पर्शनेन्द्रियं 'ममाति' ममीकरो- मा राम्य॥२९॥
ति, यारको न तारगम्यस्येति भावः, एतच्च हस्तपादादिकं स्पर्शनेन्द्रियपर्यवसानं शरीरावयवसंवन्धिखेन विवक्षितं यक्किमपि स्वरूप | वयसः परिणामात् कालकृतावस्थाविशेषात् 'परिजूरह'त्ति परिजीयेते जीणेतां याति प्रतिक्षणं विशरारुतां याति, तसिंध प्रतिस-| मयं विशीर्यति शरीरे प्रतिसमयमसौ प्राणी एतसाश्यति, तद्यथा-आयुषः पूर्वनिबद्धात्समयादिहान्याऽपचीयते, आवीचीमर-18 णेन प्रतिसमयं मरणाभ्युपगमात् , तथा बलादपचीयते, तथाहि यौवनावस्थायाश्यवमाने शरीरके प्रतिक्षणं शिथिलीभवत्म संधि-1101 | बन्धनेषु वलादवयं अश्यते, तथा वर्णाचचश्छायातोऽपचीयते, अत्र च सनत्कुमारदृष्टान्तो वाच्यः, तथा जीयेति शरीरे श्रोत्रा- 181
दीनीन्द्रियाणि न सम्यक् खविषयं परिच्छेनुमलं, तथा चोक्तम्-"वाल्य वृद्धियो मेधा सकचक्षुःशुक्रविक्रमाः । दशकेषु निवर्तन्ते, लमनः सर्वेन्द्रियाणि च ॥१॥" तथा च विशिष्टवयोहान्या 'सुसंधित:' मुबद्धः संधिः-जानुकर्परादिको 'विसंधिर्भवति' विग
लितबन्धनो भवतीत्यर्थः, तथा चलितरङ्गाकुलं सर्वतः शिराजालवेष्टितमात्मनोऽपि शरीरमिदमुद्वेगवद्भवति किंपुनरन्येषां , तथा ॥२९४।। चोक्तम्-'बलिसंततमस्थिशेपित, शिथिलस्नायुवृतं कडेवरम् । खयमेव पुमान् जुगुप्सते, किमु कान्ताः कमनीय विग्रहाः ॥१॥" तथा कृष्णाः केशा वयापरिणामजलप्रक्षालिता धबलतां प्रतिपद्यन्ते, सदेवं वयःपरिणामापादिवसम्मतिरेतद्भावयेत्, तद्यथा
दीप अनुक्रम [६४५]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१३], नियुक्ति: [१५७]
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प्रत सूत्रांक
[१३]
IN यदपीदं शरीरमदारं-शोभनावयवरूपोपेतं विशिष्टाहारोपचितम् , एतदपि मयाऽवश्यं प्रतिक्षणं विशीर्यमाणमायुपः क्षये विप्रहात
व्यं भविष्यतीत्येतदवगम्य शरीरानित्यतया संसारासारतां 'संख्याय' अवगम्य परित्यक्तसमस्तगृहप्रपञ्चो निष्किश्चनतामुपगम्य स भिक्षुर्देहदीर्घसंयमयात्रार्थ भिक्षाचर्यायां समुत्थितः सन् द्विधा लोकं जानीयादिति । तदेव लोकद्वैविध्य दर्शयितुमाहतद्यथा-जीवाश्व-प्राणधारणलक्षणास्तद्विपरीताचाजीवा-धर्माधर्माकाशादयः, तत्र तस्य भिक्षोरहिंसाप्रसिद्धये जीवान् विभागेन दर्शयितुमाह -जीवा अप्युपयोगलक्षणा द्विधा, तद्यथा-त्रस्सन्तीति बसा-दीन्द्रियादयः तथा तिष्ठन्तीति स्थावरा:-पृथिवीकाया-1 दयः । तेऽपि सूक्ष्मवादरपर्याप्तकापर्याप्तकादिभेदेन बहुधा द्रष्टव्याः, एतेषु चोपरि बहुधा च्यापारः प्रवर्तते ।। साम्प्रतं तदुपमदे-16 कव्यापारकन् दशेयत्राहइह खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगतिया समणा माणावि सारंभा सपरिग्गहा, जे इमे तसा थावरा पाणा ते सयं समारभंति अनेणवि समारंभावेंति अण्णंपि समारभंतं समणुजाणंति ॥ इह खल्लु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगतिया समणा माहणावि सारंभा सपरिग्गहा, जे इमे कामभोगा सचिता वा अचित्ता चा ते सयं परिगिण्हंति अन्नेणवि परिगिण्हाति अन्नपि परिगिण्हतं समणुजाणंति ॥ इह खलु गारत्या सारंभा सपरिग्गहा, संतेगतिया समणा माहणावि सारंभा सपरिग्गहा, अहं खलु अणारंभे अपरिग्गहे, जे खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगतिया समणा माहणावि सारंभा सपरिग्गहा, एतेसिं चेव निस्साए बंभचेरवासं वसिस्सामो, कस्स गं तं हेउं?, जहा पुर्व तहा अवरं जहा अवरं
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दीप अनुक्रम [६४५]
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्" - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१४], नियुक्ति: [१५७]
प्रत सूत्रांक
साधोला
[१४]
सूत्रकृताङ्गे तहा पुवं, अंजू एते अणुवरया अणुवद्विया पुणरबि तारिसगा चेव ॥ जे खलु गारत्था सारंभा सपरिग्ग- पौण्डरी२ श्रुतस्क-18 हा, संगतिया समणा माहणावि सारंभा सपरिग्गहा, बुहतो पाबाई कुषंति इति संखाए दोहिवि अंत- काध्य न्धे शीला- हिं अदिस्समाणो इति भिक्खू रीएज्जा ।। से बेमि पाईणं वा ६ जाव एवं से परिणायकम्मे, एवं से बवे- पश्चमस श्रीयावृत्तिः18| यकम्मे, एवं से विअंतकारए भवतीति मक्वायं ।। (सूत्रं १४) ॥२९५।।
'इह' असिन् संसारे खलुक्यालङ्कारे गृहम्-अगारं तत्र तिष्ठन्तीति गृहस्थाः, ते च सहारम्भेण-जीवोपमर्दकारिणी 18 वर्तन्त इति सारम्भाः, तथा सह परिग्रहेण-द्विपदचतुष्पदधनधान्यादिना वर्तन्त इति सपरिग्रहाः, न केवलं त एव अन्येऽपि
'सन्ति' विद्यन्ते एके केचन 'श्रमणाः' शाक्यादयः, ते च पचनपाचनाद्यनुमतेः सारम्भा दास्यादिपरिग्रहान सपरिग्रहाः, तथा|| ब्राह्मणाबैवंविधा एव, एतेषां च सारम्भकवं स्पष्टतरं सूत्रेणेव दर्शयति-य इमे प्राग्व्यावर्णिताखसाः सावराब प्राणिनस्तान् वय-॥॥ मेव-अपरप्रेरिता एव समारभन्ते, तदुपमर्दक व्यापार खत एव कुर्वन्तीत्यर्थः, तथा अन्याध समारम्भयन्ति समारम्भ कुवेत-18॥ धान्यान् समनुजानन्ति ।। तदेवं प्राणातिपातं प्रदर्य भोगाङ्गभूतं परिग्रहं दर्शयितुमाह-इह खलु' इत्यादि, इह खलु गृहस्थाः सारम्भाः सपरिग्रहाः सन्ति श्रमणा ब्राह्मणाच, ते च सारम्भपरिग्रहखात् किं कुर्वन्तीति दर्शयति-य इमे प्रत्यक्षाः कामप्रधाना|8| ॥२९५।। | भोगाः कामभोगाः काम्यन्त इति कामा:-स्त्रीगात्रपरिष्वङ्गादयो भुज्यन्त इति भोगा:-सकचन्दनबादित्रादयः, त एते सचि-% ताः-सचेतना अचेतना वा भवेयुः, तदुपादानभूता वार्थाः, तांश्च सचित्तानचित्तान्याऽर्थान् 'ते' कामभोगाथिनो गृहस्थादयः18 खत एव परिगृहन्ति अन्येन च परिग्राहयन्ति अपरं च परिगृण्हन्तं समनुजानत इति ॥ साम्प्रतमुपसंजिघृक्षुराह-'इह खलु
दीप अनुक्रम [६४६]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
[१४]
दीप
अनुक्रम [६४६]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [-], मूलं [१४], निर्युक्तिः [१५७]
इत्यादि, इह-अस्मिन् जगति 'सन्ति' विद्यन्ते गृहस्थास्तथाविधाः श्रमणा ब्राह्मणाथ सारम्भाः सपरिग्रहा इत्येवं ज्ञाखा स भिक्षुरेवमवधारयेद् अहमेवात्र खल्वनारम्भोऽपरिग्रहथ, ये चाभी गृहस्थादयः सारम्भादिगुणयुक्तास्तदेतन्निश्रया- तदाश्रयेण ब्रह्मचर्य - श्रा मण्यमाचरिष्यामोऽनारम्भा अपरिग्रहाः सन्तः, धर्माधारदेहप्रतिपालनार्थमाहारादिकृते सारम्भपरिग्रहगृहस्थनिश्रया प्रवज्यां करिध्याम इत्यर्थः । ननु च यदि तन्निश्रया पुनरपि विहर्तव्यं किमर्थं ते त्यज्यन्त इति जाताशङ्कः पृच्छति - 'कस्य हेतोः' केन कारणेन ? तदेतद्गृहस्थभ्रमणत्राह्मण त्यजनमभिहितमिति, आचार्योऽपि विदिताभिप्राय उत्तरं ददाति, यथा- 'पूर्वम्' आदौ सारम्भपरिग्रहवं तेषां तथा 'पञ्चादपि' सर्वकालमपि गृहस्थाः सारम्भादिदोषदुष्टाः श्रमणाश्च केचन यथा 'पूर्व' गृहस्थभावे सारम्भाः सपरिग्रहास्तथा 'अपरस्मिन्नपि' प्रव्रज्यारम्भकाले तथाविधा एव त इति, अधुनोभयपदाव्यभिचारित्वप्रतिपादनार्थमाहयथा 'अपरम्' अपरस्मिन् प्रव्रज्याप्रतिपत्तिकाले तथा 'पूर्वमपि' गृहस्थभावादावपीति, यदिवाकस्य हेतोस्तद्गृहस्थायाश्रयणं क्रियते यतिनेत्याह-यथा 'पूर्व' प्रव्रज्यारम्भकाले सर्वमेव भिक्षादिकं गृहस्थायत्तं तथा पञ्चादपि, अतः कथं नु नामानवद्या | वृत्तिर्भविष्यतीत्यतः साधुभिरनारम्भैः सारम्भाश्रयणं विधेयं । यथा चैते गृहस्थादयः सारम्भाः सपरिग्रहाच तथा प्रत्यक्षेणैवोप| लभ्यन्त इति दर्शयितुमाह-- 'अंजू' इति व्यक्तमेतदेते गृहस्थादयो यदिवा- 'अञ्ज' इति प्रगुणेन न्यायेन स्वरसप्रवृत्त्या सावधानुष्ठानेभ्यो ऽनुपरताः परिग्रहारम्भाच्च सत्संयमानुष्ठानेन चानुपस्थिताः सम्यगुत्थानमकृतवन्तो येऽपि कथञ्चिद्धर्मकरणायोत्थितास्तेऽप्युद्दिष्टभोजिला त्सावद्यानुष्ठानपरत्वाच गृहस्थभावानुष्ठानमनतिवर्तमानाः पुनरपि तादृशा एव-गृहस्थकल्पा एवेति ॥ साम्प्रतम्| पसंहरति य इमे गृहस्थादयस्ते 'द्विधाऽपि' सारम्भसपरिग्रहत्वाभ्यामुभाभ्यामपि पापान्युपाददते यदिवा रागद्वेषाभ्यामुभा
Education intimation
Fürsten
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र - [ ०२], अंग सूत्र [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१४], नियुक्ति: [१५७]
प्रत सूत्रांक [१४]
माकनाभ्यामपि यदिवा गृहस्थप्रवज्यापर्यायाभ्यामुभाभ्यां पापानि कुर्वत इत्येवं 'संख्याय' परिज्ञाय 'द्वयोरप्यन्तयोः' आरम्भपरि- पौण्डी२ श्रुतस्क- ग्रहयो रागद्वेषयोर्वा 'अदृश्यमानः' अनुपलभ्यमानो यदिवा रागद्वेषयोर्यावन्ती-अभावी तयोरादिश्यमानो-रागद्वेषाभाववृत्तिखे-18
काध्य न्धे शीला- नापदिश्यमानः सन्नित्येवंभूतो 'भिक्षुः' भिक्षणशीलोज्नवद्याहारभोजी सत्संयमानुष्ठाने 'रीयेत' प्रवर्तेत, एतदुक्तं भवति य इमे॥
पञ्चमस कीयावृत्तिः ज्ञातिसंयोगा वश्चायं धनधान्यादिकः परिग्रहो यचेदं हस्तपादाद्यवयवयुक्तं शरीरकं यच्च तदायुर्बलवर्णादिकं तत्सर्वमशाश्वतमनि
साघोलोंत्यं स्वप्मेन्द्रजालसदृशमसारं, गृहस्थश्रमणब्राह्मणाश्च सारम्भाः सपरिग्रहाश्च, एतत्सर्व परिज्ञाय सत्संयमानुष्ठाने भिक्षू रीयेतेति स्थि- कनिश्रा ॥२९६॥
तम् ।। स पुनरप्यहमधिकृतमेवार्थ विशेपिततरं सोपपत्तिकं ब्रवीमीति-तत्र प्रज्ञापकापेक्षया प्राच्यादिकाया दिशोऽन्यतरस्याः। समायातः स भिक्षुयोरप्यन्तयोरदृश्यमानतया सत्संयमे रीयमाणः सन् 'एवम् अनन्तरोक्तेन प्रकारेण ज्ञपरिजया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्याख्याय च परिज्ञातकर्मा भवति । पुनरपि 'एव मिति परिजातकर्मखायपेतकर्मा भवति-अपूर्वस्याबन्धको भवतीत्यर्थः, पुनरेवमित्यबन्धकतया योगनिरोधोपायतः पूर्वोपचितस्य कर्मणो विशेषेणान्तकारको भवतीति, एतच तीर्थकरगणधरादिभितिज्ञेयैराख्यातमिति ॥ कथं पुनः प्राणातिपातविरतिव्रतादिव्यवस्थितस्य कर्मापगमो भवतीत्युक्तं ?, यतस्तत्प्रवृत्तखात्मीपम्पेन प्राणिनां पीडोत्पद्यते, तया च कर्मबन्ध इत्येवं सर्व मनसाधायाह---- तत्थ खलु भगवता छज्जीवनिकाय हेऊ पण्णत्ता, तंजहा-पुढवीकाए जाच तसकाए, से जहाणामए मम २९६॥ अस्सायं दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेटूण वा कवालण वा आउहिजमाणस्स वा हम्ममाणस्स वा १ येत तिहत प्र० । २०काइया जाव तसकाइया प्रा।
दीप अनुक्रम [६४६]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१५], नियुक्ति: [१५७]
प्रत सूत्रांक [१५]]
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तजिजमाणस्स वा ताडिजमाणस्स वा परियाविजमाणस्स वा किलामिजमाणस्स वा उद्दविजमाणस्स वा जाव लोमुक्खणणमायमवि हिंसाकारगं दुक्खं भयं पडिसंवेदेमि, इचेवं जाण सबे जीवा सके भूता सबे पाणा सच्चे सत्ता दंडेण वा जाव कवालेण वा आउद्दिजमाणा वा हम्ममाणा वा तजिजमाणा वा ताडिज्जमाणा वा परियाविजमाणा वा किलामिज्जमाणा वा उद्दविजमाणा वा जाव लोमुक्खणणमायमवि हिंसाकारगं दुक्खं भयं पडिसंवेदेति, एवं नया सवे पाणा जाव सत्ता ण हतबा ण अज्जावेयवा ण परिघेतबा ण परितावेषया ण उद्दवेयवा ।। से बेमि जे य अतीता जे य पटुप्पन्ना जे य आगमिस्सा अरिहंता भगवंता सच्चे ते एवमाइक्वंति एवं भासंति एवं पण्णवंति एवं परूवंति-सबे पाणा जाव सत्ता ण हंतवा ण अजावयचा ण परिघेतवा ण परितावेयवा ण उद्दवेयबा एस धम्मे धुचे णीतिए सासए समिच लोग खेयन्नहिं पवेदिए, एवं से भिक्खू विरते पाणातिवायातो जाव विरते परिग्गहातो णो दंतपक्वालणेणं दंते पक्खालेज्जा णो अंजणं णो वमणं णो धूवणे णो तं परिआविएज्जा ॥ से भिक्खू अकिरिए अलूसए अकोहे अमाणे अमाए अलोहे उवसंते परिनिबुडे णो आसंसं पुरतो करेजा इमेण मे दिवेण वा सुएण वा मएण वा विनाएण वा इमेण वा सुचरियतवनियमवंभचेरचासेण इमेण वा जायामायावुत्तिएणं धम्मेणं इओ चुए पेचा देवे सिया कामभोगाण वसवत्ती सिद्धे चा अदुक्खममुभे एथवि सिपा एस्थवि णो सिया । से भिक्खू सद्देहिं अमुच्छिए स्वेहिं अमुच्छिए गंधेहिं अमुच्छिए रसेहिं अमुच्छिए फासेहिं अमुच्छिा विरण
दीप अनुक्रम [६४७]
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१५], नियुक्ति: [१५७]
सूत्रकृताते २श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥२९७||
१ पौण्डरीकाध्य अहिंसापरिभावना साधोः
प्रत सूत्रांक [१५]]
serpeteneraesesepearestmercent
कोहाओ माणाओ मायाओ लोभाओ पेचाओ दोसाओ कलहाओ अभक्खाणाओ पेसुन्नाओ परपरिवायाओ अरहरईओ मायामोसाओ मिच्छादसणसल्लाओ इति से महतो आयाणाओ उपसते उवहिए पडिविरते से भिक्खू ॥ जे इमे तसथावरा पाणा भवंति ते णो सयं समारंभइ णो वण्णेहिं समारंभावेंति अन्ने समारभंतेवि न समणुजाणंति इति से महतो आयाणाओ उवसंते उवट्ठिए पडिविरते से भिक्खू ॥ जे इमे कामभोगा सचित्ता वा अचित्ता वा ते णो सयं परिगिण्हंति णो अन्नेणं परिगिण्हावेंति अन्नं परिगिण्हतंपि ण समणुजाणंति इति से महतो आयाणाओ उपसंते उवहिए पडिविरते से भिक्खू ॥ जं. पिय इमं संपराइयं कम्मं कजइ, णो तं सयं करेति णो अण्णाणं कारबेति अन्नपि करतं ण समणुजाणइ इति, से महतो आयाणाओ उबसंते उबट्टिए पडिविरते॥से भिक्खू जाणेज्जा असणं वा ४ अर्सि पडियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाइं भूताई जीवाई सत्ताईसमारंभ समुहिस्स कीतं पामिचं अच्छिज्ज अणिसह अभिहडं आहङदेसियं तं चेतियं सिया तं (अप्पणो पुत्ताईणवाए जाव आएसाए पुढो पहेणाए सामासाए पायरासाए संणिहिसंणिचओ किजा इहएतेसिं प्राणवाणं भोयणाए) णो सयं भुजह णो अपणेणं भुंजावेति अन्नंपि भुंजतं ण समणुजाणइ इति, से महतो आयाणाओ उवसंते उवट्टिए पडिविरते । तत्थ भिक्खू परकर्ड परणिहितमुग्गमुप्पायणेसणासुद्धं सत्थाईयं सत्यपरिणामियं अविहिसियं एसियं वेसियं सामुदाणियं पत्तमसणं कारणहा पमाणजुत्तं अक्खोवंजणवणलेवणभूयं संजमजायामायावत्तियं विलमिव
दीप अनुक्रम [६४७]
॥२९७॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१५], नियुक्ति: [१५७]
प्रत सूत्रांक [१५]]
पनगभूतेणं अप्पाणेणं आहारं आहारेज्जा अन्नं अन्नकाले पाणं पाणकाले वत्थं वत्थकाले लेणं लेणकाले सयणं सयणकाले ॥ से भिक्खू मायन्ने अन्नयरं दिसं अणुदिसं वा पडिबन्ने धम्म आइक्खे विभए किद्दे उबहिरासु वा अणुवट्ठिएसु वा सुस्सूसमाणेसु पवेदए, संतिविरतिं उवसमं निवाणं सोयवियं अजवियं महवियं लापविर्य अणतिवातियं सबेसि पाणाणं सबेसि भूताणं जाव सत्ताणं अणुवाई किए धम्मं । से भिक्खू धम्म किहमाणे णो अन्नस्स हे धम्ममाइक्वेजा, णो पाणस्स हे धम्ममाइक्खेजा, णो बस्थस्स हे धम्ममाइक्वेजा, णो लेणस्स हे धम्ममाइक्खेज्जा, णो सयणस्स हे धम्ममाइक्खेजा, णो अन्नोर्सि विरूवरूवाणं कामभोगाणं हे धम्ममाइक्वेजा, अगिलाए धम्ममाइक्खेजा, नन्नत्य कम्मनिजरट्ठाए धम्ममाइक्खेजा । इह खलु तस्स भिक्खुस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म उट्ठाणेणं उट्ठाय वीरा अस्सिं धम्मे समुट्ठिया जे तस्स भिक्खुस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म सम्म उहाणेणं उहाय वीरा अस्सि धम्मे समुट्टिया ते एवं सहोवगता ते एवं सधोवरता ते एवं सधोवसंता ते एवं सबत्ताए परिनिब्बुडत्तियेमि ॥ एवं से भिक्खू धम्मट्ठी धम्मविऊ णियागपडिवण्णे से जहेयं वुतियं अदुवा पत्ते पउमवरपोंडरीयं अदुवा अपत्ते पउमवरपोंडरीयं, एवं से भिक्खू परिणायकम्मे परिण्णायसंगे परिण्णायगेहवासे उवसंते समिए सहिए सया जए, सेवं वयणिजे, तंजहा-समणेति वा माहणेति वा खंतेति वा दंतेति वा गुत्तेति वा मुत्तेति वा इसीति वा मुणीति वा कतीति वा विऊति वा भिक्खूति वा लूहेति वा तीरट्ठीति वा चरणक
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दीप अनुक्रम [६४७]
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१५], नियुक्ति: [१५७]
प्रत सूत्रांक [१५]
सूत्रकृताङ्गे
रणपारवित्तियेमि ॥ (सूत्र १५) इति थितियसुयक्खंधस्स पोंडरीयं नाम पढमायणं समत्तं ॥ 18| पौण्डरी२ श्रुतस्क-18
'तत्रे'ति कर्मबन्धप्रस्तावे खलु वाक्यालङ्कारे 'भगवता उत्पन्नज्ञानेन तीर्थंकृता पडूजीवनिकाया हेतुलेनोपन्यस्ताः, तथथा-18 काध्य न्धे शीला- पृथिवीकायो यावत्रसकायोऽपीति, तेषां च पीब्यमानानां यथा दुःखमुत्पद्यते तथा स्वसंविचिसिद्धेन दृष्टान्तेन दर्शयितुमाह
अहिंसापडीयावृत्तिः तद्यथा नाम मम 'असातं' दुःखं वक्ष्यमाणैः प्रकारैरुत्पद्यते तथाऽन्येपामपीति, तद्यथा-दण्डेनास्थ्ना मुष्टिना 'लेलुना' लोष्ठेन। रिभावना |'कपालेन' करेण 'आकोव्यमानस्य' संकोच्यमानस्य हन्यमानस्य कशादिभिः वय॑मानस्याङ्गुल्यादिभिः ताब्यमानस्य कुब्या-18
साधोः ॥२९८॥
दावभिघातादिना परिताप्यमानस्याम्पादौ अन्येन वा प्रकारेण परिकाम्यमानस्य तथा 'अपद्राव्यमानस्य' मामाणस्य यावलोमोत्खननमात्रमपि हिंसाकर दुःखं भयं च यन्मयि क्रियते तत्सर्वमहं संवेदयामीत्येवं जानीहि, तथा सर्व प्राणा जीवा भूतानि । | सच्चा इत्येते एकाधिकाः कश्चिनेदं वाऽऽश्रित्य व्याख्येयाः, तत्रतेषां दण्डादिनाऽऽकुटयमानानां यावलोमोत्खननमात्रमपि दुःखं हा प्रतिसंवेदयतामेतच हिंसाकर दुःसं भयं चोत्पन्न ते सर्वेऽपि प्राणिनः प्रतिसंवेदयन्ति-साक्षादनुभवन्तीति, एवमात्मोपमया पीय-18| |मानानां जन्तूनां यतो दुःखमुत्पद्यतेऽतः सर्वेऽपि प्राणिनो न हन्तव्या न ब्यापादयितव्या 'माज्ञापयितव्या' पलात्कारेण ग्यापारे न प्रयोक्तम्पाः तथा न परिग्राधा न परितापयितव्या नापद्रावयितव्याः । सोऽहं ब्रवीमि, एतत् न खमनीपिकया किंतु सर्वे-18| | तीर्थकराज्ञयेति दर्शयति-'जे अतीए' इत्यादि, ये केचन तीर्थकृत ऋषभादयोऽतीता ये च विदेहेषु वर्तमानाः सीमन्धरादयो | ॥२९॥
ये चागामिन्यामुत्सर्पिण्या भविष्यन्ति पद्मनाभादयः 'अर्हन्तः' अमरासुरनरेश्वराणां पूजाहाँ भगवन्त-ऐश्वयोदिगुणकलापोपेताः || | सर्वेऽप्येवं ते व्यक्तवाचा 'आख्यान्ति' प्रतिपादयन्ति एवं सदेवमनुजायां पर्षदि भाषन्ते, खत एव, न यथा बौद्धानां बोधिसत्वप्र-18
Receeeeeesesepecescaesese
दीप अनुक्रम [६४७]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
[१५]
दीप
अनुक्रम [६४७]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१५], निर्युक्तिः [१५७]
| भावात् कुव्यादिदेशनत इति, एवं प्रकर्षेण ज्ञापयन्ति हेतूदाहरणादिभिः, एवं प्ररूपयन्ति नामादिभिर्यथा सर्वे प्राणा न हन्तव्या इत्यादि, 'एष धर्मः' प्राणिरक्षणलक्षणः प्राग्व्यावर्णितस्वरूपो 'ध्रुवः' अवश्यंभावी 'नित्यः' क्षान्त्यादिरूपेण शाश्वत इत्येवं च | 'अभिसमेत्य' केवलज्ञानेनावलोक्य 'लोक' चतुर्दशरज्ज्वात्मकं 'स्वेदज्ञैः' तीर्थकुद्भिः 'प्रवेदितः' कथित इत्येवं सर्व झाला स भिक्षुर्विदितवेद्यो विरतः प्राणातिपाताद्यावत्परिग्रहादिति, एतदेव दर्शयितुमाह- 'णो दंत' इत्यादि, इह पूर्वोक्तमहाव्रतपालनार्थमनेनोत्तरगुणाः प्रतिपाद्यन्ते तत्र अपरिग्रहो निष्किञ्चनः सन् साधुन 'दन्तप्रक्षालनेन' कदम्बादिकाष्ठेन दन्तान् प्रक्षालयेत् तथा नो 'अञ्जनं' सौवीरादिकं विभूपार्थमक्ष्णोर्दद्यात् तथा नो वमनविरेचनादिकाः क्रियाः कुर्यात् तथा नो शरीरस्य | स्वीयवस्त्राणां वा धूपनं कुर्यात् नापि कासाद्यपनयनार्थं तं धूमं योगवर्तिनिष्पादितमापिवेदिति ॥ साम्प्रतं मूलगुणोत्तरगुणप्रस्तावमुपसंजिघृक्षुराह - (ग्रन्थानं ९००० ) स मूलोत्तर गुणव्यवस्थितो भिक्षुर्नास्य क्रिया- सावद्या विद्यते इत्यक्रियः, संवृतात्मकतया सांपरा| विककर्माबन्धक इत्यर्थः कुत एवंभूतः यतः प्राणिनामलपक:-अहिंसकोऽनुपमर्दक इत्यर्थः तथा न विद्यते क्रोधो असेत्यकोधः, एवममानोऽमायोऽलोभः कषायोपशमाच्चोपशान्तः - शीतीभूतस्तदुपशमाच परिनिर्वृत इव परिनिर्वृतः एवं तावदैहिकेभ्यः कामभोगेभ्यो विरतः पारलौकिकेभ्योऽपि विरत इति दर्शयति- 'नो आसंसं' इत्यादि, 'नो' नैवाशंसां पुरस्कृत्य ममानेन वि| शिष्टतपसा जन्मान्तरे कामभोगावाप्तिर्भविष्यतीत्येवं भूतामाशंसां न पुरस्कुर्यादिति, एतदेव दर्शयितुमाह-- 'इमेण मे' इत्यादि, अस्मिन्नेव जन्मन्यमुना विशिष्टतपश्चरणफलेन दृष्टेनामपौषध्यादिना तथा पारलौकिकेन च श्रुतेनार्द्रकधम्मिल्लब्रह्मदत्तादीनां विशिष्टतपश्चरणफलेन, तथा 'मएण व'ति 'मन ज्ञाने' जातिस्मरणादिना ज्ञानेन, तथाऽऽचार्यादेः सकाशाद्विज्ञातेन- अवगतेन
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र - [ ०२], अंग सूत्र [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्" - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१५], नियुक्ति: [१५७]
प्रत सूत्रांक [१५]]
सूत्रकृताङ्गे ममापि विशिष्टं भविष्यतीत्येवं नाशंसां विदध्यात्, तथा मुना सुचरिततपोनियमत्रमचर्यवासेन तथाऽमुना वा यात्रामात्रावृत्चिना 8१पौण्डरी२ श्रुतस्क- धर्मेणानुष्ठितेन 'इत:' असाद्भवाच्युतस्य 'प्रेत्य' जन्मान्तरे स्वामहं देवः, तत्रस्थस्य च मे वशवर्तिनः कामभोगा भवेयुः अशेष- काध्य. न्धे शीला-1
कर्मवियुतो वा सिद्धोऽदुःखः (अशुभः) शुभाशुभकर्मप्रकृत्यपेक्षयेत्येवंभूतोऽहं स्यामागामिनि काल इत्येवमाशंसां न विदध्यादिति, अहिंसापकीयावृतिः
ITS यदिवा विशिष्टतपश्चरणादिनाऽऽगामिनि काले ममाणिमालघिमेत्यादिकाऽष्टप्रकारा सिद्धिर्भविष्यतीत्यनया च सिया सिद्धोऽह-IN रिभावना ॥२९९॥1 मदुःखोऽशुभो मध्यस्थ इत्येवंरूपामाशंसां न कुर्यात् । तदकरणे च कारणमाह-'एत्थवि' इत्यादि, 'अन्नापि' विशिष्टतपश्चरणे ||
माधोः सत्यपि कुतश्चिन्निमित्ताहुप्रणिधानसद्भावे सति कदाचित्सिद्धिः स्वात्कदाचिच नैवाशेषकर्मक्षयलक्षणा सिद्धिः स्यात् , तथा चोक्तम्-"जे जत्तिया उ हेऊ भवस्स ते चेव तत्तिया मोक्खें" इत्यादि । यदिवास्त्राप्यणिमायष्टगुणकारणे तपश्चरणादौ सिद्धिः स्वात्कदाचिच्च न स्यात्-तद्विपर्ययोऽपि वा स्यादिति, एवं व्यवस्थिते प्रेक्षापूर्वकारिणां कथमाशंसा कर्तुं युज्यते इति, सिद्धिवाष्टप्रकारेयं-अणिमा १ लघिमा २ महिमा ३ प्राप्तिः ४ प्राकाम्यं ५ ईश ६ वर्शितं ७ यत्रकाौवसायिसमिति ८, तदेवमै-18 | हिकार्थमामुष्मिका कीर्तिवर्णश्लोकाद्यर्थ च तपो न विधेयमिति स्थितम् ।। साम्प्रतमनुकूलप्रतिकूलेषु शब्दादिषु विषयेषु रागद्वे |
पाभावं दर्शयितुमाह-स भिक्षुः सर्याशंसारहितो वेणुवीणादिषु शब्देषु 'अमूञ्छितः' अगृद्धोऽनध्युपपन्नः, तथा रासभादिशब्देषु || शककेशेषु अद्विष्टः, एवं रूपरसगन्धस्पशेष्वपि वाच्यमिति । पुनरपि सामान्येन क्रोधायुपशमं दर्शयितुमाह-'विरए कोहाओ
॥२१९॥ | इत्यादि, क्रोधमानमायालोभेभ्यो विरत इत्यादि सुगमं यावदिति 'से महया आयाणाओ उवसंते उबटिए पडिविरए।
१६छाऽनरिघातः । २ स्थावरेवप्याज्ञाकारित्वं । ३ भूमावप्युन्मजननिमज्जने। ४ सय संकापता।
दीप अनुक्रम [६४७]
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१५], नियुक्ति: [१५७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५]]
दीप अनुक्रम [६४७]
से भिक्खुसि, स भिक्षुर्भवति यो महतः कर्मोपादानादुपशान्तः सत्संयमे वोपस्थितः सर्वपापेभ्यध विरतः प्रतिविरत इति ॥ एतदेव च महतः कर्मोपादानाद्विरमणं साधादर्शयितुमाह-'जे इमे' इत्यादि, ये केचन प्रसाः स्थावराश्च प्राणिनो भवन्ति, तान् सर्वानपि 'नो' नैव खयं सत्साधवः समारभन्ते प्राण्युपमर्दकमारम्भ नारम्भन्त इतियावत , तथा नान्यैः समारम्भयन्ते न चान्यान् समारभमाणान् समनुजानत इत्येवं महतः कर्मोपादानादुपशान्तः प्रतिविरतो भिक्षुर्भवतीति ।। साम्प्रतं कामभोगनिवतिमधिकृत्याह-'जे इमे इत्यादि, ये केचनामी काम्यन्त इति कामा भुज्यन्त इति भोगाः, ते च सचित्ता अचित्ता वा भवेयुः, || तांश्च न खतो गृण्हीयानाप्यन्येन ग्राहयेत् नाप्यपरं गृहन्तं समनुजानीयादित्येवं कर्मोपादानाद्विरतो भिक्षुर्भवतीति ।। साम्प्रतं || 18 सामान्यतः साम्परायिककर्मोपादाननिषेधमधिकृत्याह-यदपीदं संपर्येति तासु तासु गतिष्वनेन कर्मणेति सांपरायिक, तच तत्प-४
द्वेषनिहवमात्सर्यान्तरायाशातनोपघातैर्वध्यते, तत्कर्म तत्कारणं वा न कृतकारितानुमतिभिः करोति स भिक्षुरभिधीयत इति ॥ साम्प्रतं भिक्षाविशुद्धिमधिकृत्याह-'से भिक्खू' इत्यादि स भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतमाहारजातं जानीयात. 'अस्सि पडियाए चिर एतत्प्रतिज्ञया आहारदानप्रतिज्ञया यदिवा 'अस्मिन्पर्याये' साधुपर्याये व्यवस्थितमेकं साधु साधर्मिक समुद्दिश्य कविच्छ्रावकः प्रकृतिभद्र को या साध्याहारदानार्थ 'पाणिनः' व्यक्तेन्द्रियान् 'भूतानि त्रिकालभाषीनि 'जीवान्' आयुष्कधरणलक्षणान् । 'सत्त्वान् सदा सचोपेतान् 'समारभ्य तदुषमर्दकमारम्भ विधाय 'समुद्दिश्य' तत्पीडां सम्यगुद्दिश्य, क्रीतं क्रयेण द्रव्यविनिमयेन 'पामिचंति उद्यतकम् 'आच्छेद्य मित्यन्यसादाच्छिद्य 'अनिष्ट'मिति परेणानुत्संकलितम् 'अभ्याहृत मिति सा-18 ध्वभिमुखं ग्रामादेरानीतम् 'आहत्य' उपेत्य साध्वर्थ कृतमुद्देशिकमित्येवंभूतमाहारजातं साधचे दत्तं स्यात् । तद्याकामेन तेन परि
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१५], नियुक्ति: [१५७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५]]
पौण्डरीकाध्य. अहिंसापरिभावना साधी
सूत्रकृताङ्गे 18 गृहीतं स्यात् , तदेवं दोषदुष्टं च शाखा खयं न भुञ्जीत नाप्यपरेण भोजयेत् न च भुञ्जानमपरं समनुजानीयादित्येवं दुष्टाहारदोषा- २ श्रुतस्क- निवृत्तो भिक्षुर्भवतीति । अथ पुनरेवं जानीयादित्यादि, तद्यथा-विद्यते तेषां गृहस्थानामेवभूतो वक्ष्यमाणः 'पराक्रमः' सामर्थ्य- धे शीला- माहारनिवर्तनं प्रत्यारम्भस्तेन च यदाहारजातं निर्वतितं 'यस्य चार्थाय' यत्कृते तत् 'चेतित'मिति द निष्पादित 'स्था' डीयावृत्तिः
भवेत् , यत्कृते च तनिष्पादितं सत्स्वनामग्राहमाह, तद्यथा-आत्मनः स्खनिमित्तमेवाहारादिपाकनिर्वर्तनं कृतमिति, तथा पुत्राद्यर्थ ॥३०॥
यावदादेशाय आदिश्यते यस्मिन्नागते संभ्रमेण परिजनस्तदासनदानादिव्यापारे स आदेश:-प्राधूर्गकस्तदर्थ वा पृथक्प्रहेणार्थ |विशिष्टाहारनिर्वतनं क्रियते, तथा श्यामा-रात्रिस्तस्थामशनमाशः श्यामाशस्तदर्थ, प्रातरशनं प्रातराशः-प्रत्यूपस्थेव भोजनं तदर्थ | 'सन्निधिसंनिचयों विशिष्टाहारसंग्रहस्य संचयः क्रियते । अनेन चैतत्प्रतिपादितं भवति-पालवृद्धग्लानादिनिमित्तं प्रत्यूषादिसमयेष्वपि भिक्षाटनं क्रियते, तस्स चायमभिहितः संभवः, स च 'संनिधिसंचय' इहेकेषां मानवानां भोजनायें भवति, तत्र भिक्षुरुयतविहारी परकृतपरनिष्ठितमुद्गमोत्पादनैपणाशुद्धमाहारमाहरेत् , अत्र च परकृतपरनिष्ठिते चखारो भङ्गाः, तद्यथा-तस्य कृतं | तस्यैव च निष्ठितं, तस्य कृतमन्यस्य निष्ठितम् , अन्यस्य कृतं तवैव निष्ठितम् , अन्यस कृतमम्यस्य निष्ठितमित्ययं चतुर्थों भङ्गः सूत्रेणोपात्तः, अयं च शुद्धो द्वितीयश्च अन्यख निष्ठितखात् , तत्राधाकोदेशिकादय उद्गमदोषाः पोडश तथोत्पादनादोषा धात्रीदत्यादिकाः पोडशेव तथैपणादोपाः शवितादयो दया, एवमेभिर्चािचखाविदोपै रहितखाच्छुद्धं, तथा शस्त्रम्-अश्यादिकं तेनातीतग्रासुकीकृतं 'शत्रपरिणामित'मिति शस्त्रेण खकायपरकायादिना निर्जीवीकृतं वर्णगन्धरसादिभिश्व परिणमितं, हिंसां प्राप्तं हिं
आदिशब्दस्य प्रकारार्थत्याद दुहितृस्नुषाः, यावच्छन्दश्च धान्यावर्धम् । २ शनासनदा०प्र० । ३ समुदायस्य ।
दीप अनुक्रम [६४७]
Cassemesesestaekeese
alreaceae 2000.
॥३०॥
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
[१५]
दीप
अनुक्रम [६४७]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [-], मूलं [१५], निर्युक्तिः [१५७ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
सितं विरूपं हिंसितं विहिंसितं न सम्यक् निर्जीवीकृतमित्यर्थः, तत्प्रतिषेधादविहिंसितं, निर्जीवमित्यर्थः, तदप्येषितम् - अन्वेषितं भिक्षाचर्याविधिना प्राप्तं, 'वैषिक' मिति केवलसाधुवेपावाप्तं न पुनर्जात्याद्याजीवन तो निमित्तादिना वोत्पादितं तदपि 'सामुदानिर्क' समुदानं भिक्षासमूहस्तत्र भवं सामुदानिकम् एतदुक्तं भवति मधुकरवृत्त्याश्वासं सर्वत्र स्तोकं स्तोकं गृहीतमित्यर्थः । तथा प्रज्ञस्येदं प्राज्ञ - गीतार्थेनोपात्तमशनम् - आहारजातं, तदपि वेदनावैय्यावृत्यादिके कारणे सति, तत्रापि प्रमाणयुक्तं नातिमात्रं, प्रमाणं | चेदम्- "अद्धमसणस्स सर्वजणस्स कुज्जा दवस्स दो भाए । वाउपवियारणट्टा छन्भागं ऊणयं कुजा ॥ १ ॥” इति । एतदपि न वर्ण| बलाद्यर्थ किंतु यावन्मात्रेणाहारेण देहः क्रियासु प्रवर्तते, तत्र दृष्टान्तद्वयमाह -तयथा- अक्षस्योपाञ्जनम् - अभ्यङ्गो व्रणस्य च लेपनंप्रलेपस्तदुपमया आहारमाहरेत्, तथा चोक्तम्- "अभंगेण व सगडं ण तरह विगई विणा उ जो साहू । सो रागदोसर हिओ मचाएँ विहीह तं सेवे ॥ १ ॥ एतदेव दर्शयति-संयमयात्रायां मात्रा संयमयात्रामात्रा यावत्याऽऽहारमात्रया संयमयात्रा प्रवर्तते सा तथा तया संयमयात्रामात्रया वृत्तिर्यस्य तत्तथा तदपि बिछप्रवेशपन्नगभूतेनात्मनाऽऽहारमाहरेत्, एतदुक्तं भवति यथाऽहिर्बिलं प्रविशन् तूर्णं प्रविशति एवं साधुनाऽप्याहारस्तत्खा दमनाखादयता शीघ्रं प्रवेशयितथ्य इति यदिवा सर्पेणेवाहारो लब्ध्वाऽस्वादमभ्यवहार्यत इति । तदेव चाहारजातं दर्शयितुमाह- 'अन्नं' भक्तम् 'अन्नकाले' सूत्रार्थपौरुष्युत्तरकालं भिक्षाकाले प्राप्ते, पुरः पश्चात्कर्मपरिहृतं भवति यथोक्तभिक्षाटनेन, ग्रहणकालावासं मैक्षं परिभोगकाले भुञ्जीत, तथा पानकं पानकाले, नातितृषितो भुञ्जीत ना
१ अर्द्धमशनस्य सव्यंजनस्य कुर्याद्रवस्य द्वौ भागौ वातप्रविचारणार्थ परं भागमूनं कुर्यात् ॥ १ ॥ २ अभ्यनेनेव शकटं न शक्नोति विकृति विनैव यः साधुः । रागद्वेषरहितो मात्रा विधिना तो सेवेत ॥ १ ॥
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१५], नियुक्ति: [१५७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५]]
दीप अनुक्रम [६४७]
मकतामा प्यतिबुभुक्षितः पानक पिवेदिति, तथा वसं वस्त्रकाले गृहीयाद्, उपभोग वा कुर्याद , तथा 'लयनं' गुहादिकमाश्रयस्तस्य वर्षा- 10 पौण्डरी२ श्रुतस्क-18
खवश्यमुपादानम् अन्यदा सनियमः, तथा शय्यतेऽसिन्निति शयन-संस्तारकः स च शयनकाले, तत्राप्यगीतार्थानां प्रहरद्वयं 8 काध्यूय. न्धे शीला- | निद्राविमोक्षो गीताथानां प्रहरमेकमिति ॥ स भिक्षुराहारोपधिशयनखाध्यायध्यानादीनां मात्रा जानातीति तद्विधिज्ञः सन् अन्य-भिक्षावृत्तिः कीयावृत्तिः तरां दिशमनुदिशं वा 'प्रतिपन्नः' समाश्रितो धर्ममाख्यापयेत-प्रतिपादयेत् ययेन विधेयं तद्यथायोग विभजेद् धर्मफलानि च
कीर्तयेवू-आविभावयेत् , तच्च धर्मकथनं परहितार्थप्रवृत्तेन साधुना सम्यगुपस्थितेषु शिष्येषु अनुपस्थितेषु वा--कौतुकादिप्रवृत्तेषु । ॥३०॥
MAT'शुश्रूषमाणेषु' श्रोतुं प्रवृत्तेषु स्वपरहिताय 'प्रवेदयेद' आवेदयेत्प्रकथयेदितियावत् । श्रोतुमुपस्थितेषु यत्कथयेत्तद्दयितुमाह
'संतिविरई' इत्यादि शान्तिः--उपशमः क्रोधजयस्तत्प्रधाना प्राणातिपातादिभ्यो विरतिः शान्तिविरतिः, यदिवा शान्ति:-अशे-1|| पक्केशोपशमरूपा तस्यै–तदर्थ विरतिः शान्तिविरतिस्तां कथयेत, तथा 'उपशमम्' इन्द्रियनोइन्द्रियोपशमरूपं रागद्वेषाभावजनितं. | तथा 'निवृति' निर्वाणमशेषद्वन्द्वोपरमरूपं तथा 'सोयवियंति शौचं तदपि भावशौचं सर्वोपाधिविशुद्धता व्रतामालिन्यं 'अज-11 विर्य'ति आर्जवम्-अमायिख तथा मार्दवं-मृदुभावः सर्वत्र प्रश्रयवत्वं विनयनम्रतेतियावत् , तथा 'लाघविर्य'ति कर्मणां | लाघवापादनं कमेंगुरोवोऽऽत्मनः कर्मापनयनतो लघ्ववस्थासंजननं, साम्प्रतमुपसंहारद्वारेण सर्वशुभानुष्टानानां मूलकारणमाह-अति| पतनम्-अतिपातः प्राण्युपमर्दनं तद्विद्यते यस्थासावतिपातिकस्तत्प्रतिषेधादनतिपातिकस्तं सर्वेषां प्राणिनां भूतानां यावत्सत्त्वानां ।
॥३०॥ | धर्ममनुविविच्यानुविचिन्त्य वा 'कीर्तयेत्' कथयेत् , इदमुक्तं भवति-सर्वप्राणिनां रक्षाभूतं धर्म कथयेदिति ।। साम्प्रतं धर्मकीनं यथा निरुपधि मवति तथा दर्शयितुमाह-स भिक्षुः परकृतपरनिष्ठिताहारभोजी यथाक्रियाकालानुष्ठायी शुश्रूषत्सु धर्म ||
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१५], नियुक्ति: [१५७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५]
कीर्तयेत् नान्नस्य हेतोममायमीश्वरो धर्मकथाप्रवणो विशिष्टमाहारजातं दास्यतीत्येतन्निमित्तं न धर्ममाचक्षीत, तथा पानवस्त्रल-18 यनशयननिमित्तं न धर्ममाचक्षीत, अन्येषां वा विरूपरूपाणाम् उच्चावचानां कार्याणां कामभोगानां वा निमित्तं न धर्ममाचक्षीत || तथा ग्लानिमनुपगच्छन् घमेमाचक्षीत, कर्मनिजेरायाधान्यत्र न धर्म कथयेद्, अपरप्रयोजननिरपेक्ष एव धर्म कथयेदिति ॥ धर्म| कथाश्रवणफलदर्शनद्वारेणोपसंजिघृक्षुराह-'इह खलु तरसे त्यादि, 'इह' असिन् जगति खलु वाक्यालङ्कारे 'तस्य' भिक्षी-18
गुणवतः 'अन्तिके' समीपे पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टं धर्म श्रुखा 'निशम्य' अवगम्प सम्पगुत्थानेनोत्थाय 'बीरा' कमेविदारणस-1 हिष्णवो ये चैर्वभूतास्ते 'एवं पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टानुष्ठानतया सर्वसिन्नपि मोक्षकारणे सम्यग्दर्शनादिके उप-सामीप्येन गताः सर्वोपगताः, तथैव सर्वेभ्यः पापस्थानेभ्य उपरताः सर्वोपरताः तथा त एव सर्वोपशान्ता जितकवायतया शीतलीभूताः तथा त एव सर्वात्मतया सर्वसामर्थेन सदनुष्ठाने उद्यम कृतवन्तो ये चैवंभूतास्तेऽशेषकर्मक्षयं कृता परि-समन्तानिवृताः परिनिवृताः अशेपकर्मक्षयं कृतवन्तः, इति ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ साम्प्रतमध्ययनोपसंहारार्थमाह-एवं मिति पूर्वोक्तविशेषणकलापविशिष्टः स | भिक्षुः पुनरपि सामान्यतो विशिष्यते-धर्म:-श्रुतचारित्राख्यस्तेनार्थी धर्मार्थी, यथावस्थितं परमार्थतो धर्म सर्वोपाधिविशुद्ध जाना| तीति धर्मवित् , तथा नियाग:-संयमो विमोक्षो वा कारणे कार्योपचार कसा तं प्रतिपनो नियागप्रतिपन्नः, स चैवंभूतः पश्च-| | मपुरुषजातः, तं चाश्रित्य तत्-यथेदं प्राक् प्रदर्शितं तत्सर्वमुक्तं, स च प्राप्तो वा स्यात्पमवरपौण्डरीकम्-अनुग्रायं पुरुषविशेष
|चक्रवत्योदिक, तत्प्राप्तिश्च परमार्थतः केवलज्ञानावाप्तौ सत्यां भवति, साक्षाद्यथाऽवस्थितवस्तुखरूपपरिच्छित्तेः, अप्राप्ती वा स्यात् ॥ मतिश्रुतावधिमनःपर्यायज्ञानैर्व्यस्तैः समस्तैर्वा समन्वितः, स चैवंभूतः प्राग्व्यावर्णितगुणकलापोपेतो भिक्षुः परि-समन्तात् शातं ॥
दीप अनुक्रम [६४७]
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१५], नियुक्ति: [१५७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५]]
दीप अनुक्रम [६४७]
मन्त्रकतारे 18|कर्म स्वरूपतो विपाकतस्तदुपादानतश्च येन स परिज्ञातकर्मा, तथा परिज्ञातः सङ्गः-संवन्धः सबाह्याभ्यन्तरो येन स तथा, परि-1॥१पौण्डरी२ श्रुतस्क-18|शाती निःसारतया गृहवासो येन स तथा, उपशान्त इन्द्रियनोइन्द्रियोपशमात्, तथा समितः पश्चभिः समितिभिः, तथा सह काध्यय० न्धे शीला- हितेन बर्तत इति सहितो ज्ञानादिभिर्वा सहितः-समन्वितः, 'सदा' सर्वकाल 'यतः' संयतः प्राग्व्यावर्णितनियमकलापोपेतः,मिक्षोवृत्तिः कीयावृत्तिः स एवंगुणकलापान्वित एतद्वचनीयः, तयथा श्राम्यतीति श्रमणः सममना का, तथा मा प्राणिनो जहि-व्यापादयेत्येवं प्रवृत्ति:॥३०२।।
उपदेशो यस स माहनः स ब्रह्मचारी वा ब्राह्मणः, क्षान्तः स क्षमोपेतो, दान्त इन्द्रियनोइन्द्रियदमनेन, तथा तिसभिगुप्तिभिगुप्तः, || | तथा मुक्त इव मुक्तः, तथा विशिष्टतपश्चरणोपेतो महर्षिः, तथा मनुते जगतखिकालावस्थामिति मुनिः, तथा कृतमस्थास्तीति कृती पुण्यवान् परमार्थेपण्डितो वा, तथा विद्वान् सद्विद्योपेतः, तथा भिक्षुर्निरवद्याहारतया भिक्षणशीलः, तथाऽन्तप्रान्ताहारखेन रूक्षः, तथा संसारतीरभूतो मोक्षस्तदर्थी, तथा चर्यत इति चरणं-मूलगुणाः क्रियत इति करणम्-उत्तरगुणास्तेषां पारं-तीरं पर्यन्तगमनं तद्वेत्तीति चरणकरणपारविदिति । इतिशब्दः परिसमाप्तौ । वीमीति तीर्थकरवचनादार्यः सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनमुद्दिश्य 8 एवं भणति-यथाऽहं न स्वमनीषिकया प्रवीमीति ॥ साम्प्रतं समस्ताध्ययनोपात्तदृष्टान्तदाष्टान्तिकयोस्तात्पर्यार्थ गाथाभिनियुक्ति-||2|| कृद्दर्शयितुमाहउपमा य पुंडरीए तस्सेव य उवचएण निजत्ती। अधिगारो पुण भणिओ जिणोवदेसेण सिद्धित्ति ॥१५८॥ ॥३०२॥ सुरमणुयतिरियनिरओवंगे मणुया पट्ट चरित्तम्मि । अविय महाजणनेयत्ति चकवहिमि अधिगारो ॥ १५९॥ अविप हुभारियकम्मा नियमा उकारसनिरयठितिगामी तेऽवि हु जिगोवदेसेण तेणेव भवेण सिजनंति ॥१६०॥18
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१५], नियुक्ति: [१६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५]]
जलमालकहमाल बहुविवल्लिगहणं च पुक्खरिणिं । जंघाहि व बाहाहि व नावाहि व तं दुरवगाहं ॥ १६१ ॥ पउम उल्लंघेनुं ओयरमाणस्स होइ बावत्ती। किं नथि से उवाओ जेणुल्लंघेज अषिवन्नो ॥१६॥ |विला व देवकर्म अहवा आगासिया विउच्चणया । पउमं उलंघेतुं न एस इणमो जिणक्खाओ ॥ १६३ ॥ |सुद्धप्पओगविजा सिद्धा उ जिणस्स जाणणा विजा । भवियजणपोंडरीया उ जाए सिद्धिगतिमुवेति ॥ १६४॥18 | इह 'उपमा' दृष्टान्तः 'पौण्डरीकेण श्वेतशतपत्रेण कृतः, तस्खेहाभ्यर्हितखात्, तस्यैव चोपचयेन सर्वावयवनिष्पत्तियांवद्विशिष्टो-1 पायेनोद्धरणं, दाटोन्तिकाधिकारस्तु पुनरत्र भणितः-अभिहितश्चक्रवादेर्भव्यस्य जिनोपदेशेन सिद्धिरिति, तस्यैव पूज्यमानखा-1
दिति । पूज्यत्वमेव दर्शयितुमाह-'सुरमणुय' इत्यादि, सुरादिषु चतुर्गतिकेषु जन्तुषु मध्ये मनुजाश्चरित्रस्य-सर्वसंवररूपस्य प्रभवः-18 18 शक्ता वर्तन्ते, न शेषाः सुरादयः, तेष्वपि मनुजेषु महाजननेतारचक्रवादयो वर्तन्ते, तेषु प्रबोधितेषु प्रधानानुगामिसात् इतर
जनः सुप्रतियोध एव भवतीत्यतोन चक्रवर्त्यादिना पौण्डरीककल्पेनाधिकार इति । पुनरप्पन्यथा मनुजप्राधान्य दर्शयितुमाह'अविय हु' इत्यादि, गुरुकर्माणोऽपि मनुजा आसंकलितनरकायुषोऽपि-नरकगमनयोग्या अपि तेऽप्येवंभूताजिनोपदेशात्तेनैव भवेन समस्तकमेक्षयात् सिद्धिगामिनो भवन्तीति । तदेवं दृष्टान्तदान्तिकयोस्तात्पर्यार्थ प्रदर्श्य दृष्टान्तभूतपौण्डरीकाऽऽधारायाः पुष्करि-18 शाण्या दुरवगाहिलं सूत्रालापकोपा नियुक्तिकृद्दर्शयितुमाह-'जलमाले त्यादि, जलमालाम्-अत्यर्थप्रचुरजला तथा कर्दममाला-| IS| म्-अप्रतिष्ठिततलतया प्रभूततरपा तथा बहुविधवल्लिगहनां च पुष्करिणी जाभ्यां वा बाहुभ्यां वा नावा वा दुस्तरां पुष्करिणी, TRI
| दृष्ट्वेति क्रियाध्याहारः, किंचान्यत्-'पउम' इत्यादि, तन्मध्ये पवरपौण्डरीकं गृहीखा समुत्तरतोऽवश्यं व्यापत्तिः प्राणानां भवेत् ,
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१५], नियुक्ति: [१६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५]]
सूत्रकता किं तत्र कश्चिदुपायः स नास्ति ? येनोपायेन गृहीतकमलः सन् ता पुष्करिणीमुल्लङ्घयेदविपन्न इति । तदुल्लङ्घनोपायं दर्शयितुमाह-18१पौण्डरी. २ श्रुतस्क- 'विद्या वे' त्यादि, विद्या वा काचित्प्रज्ञाप्यादिका देवताकर्म वाऽथवाऽऽकाशगमनलब्धिर्वा कस्खचिद्भवेत् तेनासावविपन्नो गृहीतपो- काध्यय० न्धे शीला-1 ण्डरीकः सनुलायेत्ता पुष्करिणीम्, एष च जिनरुपायः समाख्यात इति । सर्वोपसंहारार्थमाह-'मुद्धप्पे' त्यादि, शुद्धप्रयोगविद्या सिद्धा भिक्षोवृत्तिः कीयावृत्तिः जिनस्व विज्ञानरूपा विधा नान्यस्य कस्यचिद्यया विद्यया तीर्थकरदर्शितया भव्यजनपौण्डरीकाः सिद्धिमुपगच्छन्तीति । गतोऽनुगमः ॥ ॥३०॥
18 साम्प्रतं नयाः, ते च पूर्ववद्र्ष्टच्या इति ।। समाप्तं पौण्डरीकाख्यं द्वितीयश्रुतस्कन्धे प्रथमाध्ययनमिति ॥ [ग्रन्थानम् १०३०] |
दीप अनुक्रम [६४७]
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इति श्रीसूत्रकृताङ्गे पौण्डरीकाख्यमाद्यमध्ययनं समाप्तम् ॥ AWAR
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॥३०॥
अत्र द्वितीय श्रुतस्कन्धे प्रथम अध्ययनं परिसमाप्तं
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
[१५]
दीप
अनुक्रम [६४७]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [१५...], निर्युक्तिः [१६५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
अथ द्वितीयक्रिया स्थानाख्याध्ययनस्य प्रारम्भः ॥
व्याख्यातं प्रथमाध्ययनं, साम्प्रतं द्वितीयमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः इहानन्तराध्ययने पुष्करिणीपौण्डरीकदृष्टान्तेन तीर्थिकाः सम्यङ्मोक्षोपायाभावात्कर्मणां बन्धकाः प्रतिपादिताः, सत्साधवथ सम्यग्दर्शनादिमोक्षमार्गप्रवृत्तखान्मोचकाः सदुपदेशदानतोऽपरेषामपीति । तदिहापि यथा कर्म द्वादशभिः क्रियास्थानैर्वध्यते यथा च त्रयोदशेन मुच्यते तदेतत्पूर्वोक्तमेव बन्धमोक्षयोः प्रतिपादनं क्रियते, अनन्तरसूत्रेण चायं संबन्धः, तद्यथा- भिक्षुणा चरणकरणविदा कर्मक्षपणायोद्यतेन द्वादश क्रियास्थानानि - | कर्मबन्धकारणानि सम्यक् परिहर्तव्यानि तद्विपरीतानि च मोक्षसाधनानि आसेवितव्यानि इत्यनेन संबन्धेनाऽऽयातस्यास्याध्यय नस्योपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्राप्युपक्रमान्तर्गतोऽर्थाधिकारोऽयं, तद्यथा कर्मणां बन्धोऽनेन प्रतिपाद्यते तद्विमोक्षचेति । नामनिष्पन्ने तु निक्षेपे क्रियास्थानमिति द्विपदं नाम, तत्रापि क्रियापदनिक्षेपार्थं प्रस्तावमारचयन्निर्युक्तिकृदाहकिरियाओ भणियाओ किरियाठाणंति तेण अझयणं । अहिगारो पुण भणिओ बंधे तह मोक्खमग्गे य ॥ १६५ ॥ दवे किरिएजणया य पयोगुवायकरणिज्जसमुदाणे । इरियावहसंमत्ते सम्मामिच्छा य मिच्छन्ते ।। १६६ ।। नामं ठवणा दविए खेत्तेऽद्धा उड्ड उवरती वसही। संजमपग्गहजोहे अचलगणण संघणा भावे ॥ १६७ ॥
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अत्र द्वितीयं अध्ययनं "क्रियास्थानं" आरब्धं प्रथमं अध्ययनेन सह अस्य अध्ययनस्य अभीसम्बन्ध:, क्रिया शब्दस्य निक्षेपाः
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [१५...], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५]
दीप अनुक्रम [६४७]
सूत्रकृताङ्गे समुदाणियाणिह तओ संमपउत्ते य भावठाणंमि । किरियाहिं पुरिस पाचाइए उ सधे परिक्खेजा ॥ १६८॥ २ क्रिया२ धुतस्क-18 तत्र क्रियन्त इति क्रियास्ताच कर्मवन्धकारणलेनाऽऽवश्यकान्तर्वतिनि प्रतिक्रमणाध्ययने 'पटिकमामि तेरसहिं किरियाठाणेहि || स्थानाध्यन्धे शीला- ति असिन्मूत्रेऽभिहिताः। यदिवा इहैव क्रियाः 'भणिता' अभिहितास्तेनेदमध्ययनं क्रियास्थानमित्युच्यते । तच क्रियाखानं क्रि- यक्रियाकीयावृत्तिः यावत्स्येव भवति नाक्रियावत्सु, क्रियावन्तश्च केचिद्ध्यन्ते केचिन्मुच्यन्तेऽतोऽध्ययनार्थाधिकारः पुनरभिहितो बन्धे तथा मोक्षमार्गे |
स्थानयोचेति । तत्र नामस्थापने सुगमलादनादृत्य द्रव्यादिकां क्रियां प्रतिपादयितुमाह-तत्र द्रव्ये द्रव्यविषये या क्रिया एजनता 'एजू
निक्षेपाः ॥३०४॥
कम्पने जीवसाजीवस्य वा कम्पनरूपा चलनखभावा सा द्रब्यक्रिया, सापि प्रयोगाद्विखसया वा भवेत् , तत्राप्युपयोगपूर्विका वाऽनुपयोगपूर्विका वा अक्षिनिमेषमात्रादिका सा सर्वा द्रव्यक्रियेति । भावक्रिया खियं, तयथा-प्रयोगक्रिया उपायक्रिया करणीयक्रिया समुदानक्रिया ईयोपथक्रिया सम्यक्त्रक्रिया सम्यमिथ्याखक्रिया मिथ्यातक्रिया चेति । तत्र प्रयोगक्रिया मनोवाकायलक्षणा विधा, तत्र स्फुरद्भिर्मनोद्रव्यरात्मन उपयोगो भवति, एवं वाकाययोरपि वक्तव्यं, तत्र शब्दे निष्पाये वाकाययोर्द्वयोर| प्युपयोगः, तथा चोक्तम्-"गिण्हदय काइएणं णिसिरह तह वाइएण जोगेण" गमनादिका तु कायक्रियैव १, उपायक्रिया तु घटादिकं द्रव्यं येनोपायेन क्रियते, तद्यथा मृत्खननमर्दनचक्रारोपणदण्डचक्रसलिलकुम्भकारव्यापरियोवनिरुपायैः क्रियते सा सर्वोपायक्रिया २, करणीयक्रिया तु ययेन प्रकारेण करणीय तत्तेनैव क्रियते नान्यथा, तथाहि घटो मृत्पिण्डादिकयेव सामग्या ॥३०॥ क्रियते न पापाणसिकतादिकयेति ३, समुदानक्रिया तु यत्कर्म प्रयोगगृहीतं समुदायावस्थं सत्प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशरूपतया ||
१ आचारा प्रतिः "पाने । १ ० ४व्या प्र० । ३ काययोगयुक्तस्य । ४ प्रयोजन भ्यागः । ५ पदाति च कायिकेन निस्सारयति बाधिन योनी
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| क्रिया शब्दस्य निक्षेपा:, क्रियाया: काय, उपाय आदि अष्ट-भेदा:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [१५...], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५]]
यया व्यवस्थाप्यते सा समुदानक्रिया, सा च मिथ्यादृष्टेरारभ्य सूक्ष्मसंपरायं यावत् भवति ४, ईर्यापथक्रिया तूपशान्तमोहादार-1 भ्य सयोगिकेवलिनं यावदिति ५, सम्यक्त्रक्रिया तु सम्यग्दर्शनयोग्याः कर्मप्रकृतीः सप्तसप्ततिसंख्या यया बध्नाति साभिधीयते । ६, सम्यश्चिथ्याखक्रिया तु तद्योग्याः प्रकृतीश्चतुःसप्ततिसंख्या यया क्रियया बनाति साभिधीयते ७, मिथ्याखक्रिया तु सर्वाः | प्रकृतीविशत्युत्तरशतसंख्यास्तीर्थकराहारकशरीरतदङ्गोपाङ्गत्रिकरहिता यया बध्नाति सा मिथ्याखक्रियेत्यभिधीयते ८ । साम्प्रतं | | स्थाननिक्षेपार्थमाह-इयं च गाथाऽऽचारप्रथमश्रुतस्कन्धे द्वितीयाध्ययने लोकविजयाख्ये 'जे गुणे से मूलढाणे' इत्यत्र स्थानशब्दस मूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यां प्रबन्धेन व्याख्यातेति नेह प्रतन्यते । इह पुनर्यया क्रियया येन च स्थानेनाधिकारस्तदर्शयितुमाह-- क्रियाणां मध्ये समुदानिका क्रिया या व्याख्याता, तस्याश्च कषायानुगतखात् बहवो भेदा यतस्ततस्तासां सामुदानिकानां क्रिया-12 | णामिह प्रकरणे 'तउत्ति अधिकारो व्यापारः, सम्यक्प्रयुक्त च भावस्थाने, तचेह विरतिरूपं संयमस्थानं प्रशस्तभावसंघनारूपं च
गृह्यते, सम्यक्प्रयुक्तभावस्थानग्रहणसामर्थ्यादैर्यापथिकी क्रियापि गृह्यते, सामुदानिकाक्रियाग्रहणाचाप्रशस्तभावस्थानान्यपि गृही. शतानि, आभिश्च पूर्वोक्ताभिः क्रियाभिः पूर्वोक्तान् पुरुषान् तद्वारायातान्यावादुकांच परीक्षेत सर्वानपीति । यथा चैवं तथा खत
एव सत्रकारः 'तंजहा से एगइया मणुस्सा भवंती' त्यादिना तथा प्रावादुकपरीक्षायामपि 'णायओ उवगरणं च विष्पजहाय भि-II क्खायरियाए समुट्टिया' इत्यादिना वक्ष्यतीति । गतो नियुक्त्यनुगमः, साम्प्रतं मूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं मूत्रमुच्चारयितच्य, | तच्चेदम्--
दीप अनुक्रम [६४७]
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क्रियाया: काय, उपाय आदि अष्ट-भेदाः, स्थान-निक्षेपा:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥३०॥
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सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु किरियाठाणे णामज्झयणे पण्णत्ते, तस्स णं अपम?
18२ क्रियाइह खलु संजहेणं दुवे ठाणे एवमाहिजंति, तंजहा-धम्मे चेव अधम्मे चेव उवसंते व अणुवसंते चेव । स्थानाध्यतत्थ णं जे से पढमस्स ठाणस्स अहम्मपक्खस्स विभंगे तस्स णं अयम? पपणते, इह खलु पाईणं यत्रयोदवा ६ संगतिया मणुस्सा भवंति, तंजहा-आरिया वेगे अणारिया बेगे उच्चागोया वेगे णीयागोया वेगे कायमता वेगे हस्समंता वेगे सुवण्णा बेगे दुषण्णा बेगे सुरूवा वेगे तुरूवा वेगे ॥ तेसिं च णं इमं एतारूवं स्थानानि दंडसमादाणं संपेहाए तंजहा-णेरइएसु वा तिरिवखजोणिएसु वा मणुस्सेसु वा देवेसु वा जे यावन्ने तहप्पगारा पाणा विन्नू वेयणं वेयंति ॥ तेसिं पि य णं इमाईतेरस किरियाठाणाई भवंतीतिमक्खायं, तंजहा अहादंडे १ अणहादंडे २हिंसादंढे ३ अकम्हादंडे ४ विट्ठीविपरियासियादंडे ५ मोसबत्तिए ६ अदिनादाणवत्तिए ७ अज्झस्थवत्तिए ८ माणवत्तिए १मित्तदोसवत्तिए १० मायावत्तिए ११ लोभवत्तिए १२ इरियावहिए १३ ॥ (मूत्रं १६)
सुधर्मस्वामी जम्यूस्खामिनमुद्दिश्येदमाह, तद्यथा-श्रुतं मयाऽऽयुष्मता भगवतैवमाख्यातम्-इह खलु क्रियाखानं नामाध्ययनं | | भवति, तस्य चायमर्थः-इह खलु 'संजूहेणीति 'सामान्येन' संक्षेपेण समासतो द्वे स्थाने भवतः, य एते क्रियावन्तस्ते सर्वेऽप्य- ॥३०५॥ नयोः स्थानयोरेवमाख्यायन्ते, तद्यथा-धर्मे चैवाधर्मे चैव, इदमुक्तं भवति-धर्मस्थानमधर्मस्थानं च, यदिवा-धर्मादनपेतं धर्म्य | विपरीतमधये, कारणशुद्धा च कार्यशुद्धिर्भवतीत्याह-उपशान्तं यत्तद्धर्मस्थानम् , अनुपशान्तं चाधर्मस्थानं, तत्रोपशान्ते-उपश
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दीप अनुक्रम [६४८]
मूल-सूत्रस्य आरम्भ:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१६]
| मप्रधाने धर्मस्थाने धर्म्यस्थाने वा केचन महासचाः समासनोत्तरोत्तरशुभोदया वर्तन्ते, परे च तद्विपर्यस्ते विपर्यस्तमतयः संसारा-18 भिवङ्गिणोऽधोऽधोगतयो वर्तन्ते । इह च यद्यप्यनादिभवाभ्यासादिन्द्रियानुकूलतया प्रायशः पूर्वमधर्मप्रवृत्तो भवति लोकः पश्चात्सदुपदेशयोग्याचार्यसंसर्गाद्धर्मस्थाने प्रवर्तते तथाऽप्यभ्यहिंतखात्पूर्व धर्मस्थानमुपशमस्थानं च प्रदर्शितं, पधात्तद्विपर्यस्तमिति ॥ साम्प्रतं तु यत्र प्राणिनामनुपदेशतः स्वरसप्रवृच्याऽऽदावेव स्थानं भवति तदधिकृत्याह-'तत्थ णं' इत्यादि, तत्रेति वाक्योपन्यासार्थे णमिति वाक्यालङ्कारे योऽसौ प्रथमानुष्टेयतया प्रथमस्याधर्मपक्षस्य स्थानस्य विविधो भङ्गो विभङ्गो-विभागो विचारस्तस्थायमर्थ | इति । 'इह' अस्मिन् जगति प्राच्यादिषु दिक्षु मध्येऽन्यतरस्यां दिशि 'सन्ति' विद्यन्ते एके केचन 'मनुष्याः पुरुषाः, ते
चैवंभूता भवन्तीत्याह, तद्यथा-आराधाताः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्याः सद्विपरीवाश्चानार्या एके केचन भवन्ति यावद्रूपाः सुरूपाश्चेति । 'तेषां च' आर्यादीनाम् 'इदं वक्ष्यमाणमेतद्रूपं दण्डयतीति दण्डः-पापोपादानसंकल्पस्तस्य समादान-ग्रहणं । 'संपेहाए'त्ति संप्रेक्ष्य, तन चतुर्गतिकानामन्यतमस्य भवतीति दर्शयति-'तंजहे' त्यादि, तयथा-नारकादिपु, ये चान्ये तथाप्रकारास्तदेदवर्तिनः सुवर्णदुर्वर्णादयः 'प्राणाः प्राणिनो विद्वांसो वेदना-ज्ञानं तद् 'वेदयन्ति' अनुभवन्ति, यदिवा सातासातरूपां वेदनामनुभवन्तीति, अत्र चखारो भङ्गाः, तद्यथा-संज्ञिनो वेदनामनुभवन्ति विदन्ति च १ सिद्धास्तु विदन्ति नानुभवन्ति २ असंझिनोऽनुभवन्ति न पुनर्विदन्ति ३ अजीबास्तु न विदन्ति नाप्यनुभवन्तीति ४, इह पुनः प्रथमतृतीयाभ्यामधिकारो द्वितीयचतुर्थाववस्तुभूताविति, 'तेषां च' नारकतिर्यअनुष्यदेवानां तथाविधज्ञानवताम् 'इमानि वक्ष्यमाणलक्षणानि त्रयोदश क्रियास्थानानि भवन्तीत्येवमाख्यातं तीर्थकरगणधरादिभिरिति । कानि पुनस्तानीति दर्शयितुमाह-'तंजहे' त्यादि, तद्यथेत्ययमु
Soctersectroesesesea
दीप अनुक्रम [६४८]
~1424
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
न्धे शीला
प्रत सूत्रांक [१६]]
दीप अनुक्रम [६४८]
सूत्रकृताङ्गे दाहरणवाक्योपन्यासार्थः, 'आत्मार्थाय' स्वप्रयोजनकृते दण्डोऽर्थदण्डः पापोपादानं १, तथाऽनर्थदण्ड इति निष्प्रयोजनमेव 8/२ क्रिया२ श्रुतस्क- 18 सास्यक्रियानुष्ठानमनर्थदण्डः २, तथा हिंसनं हिंसा--प्राण्युपमर्दरूपा तया सैव वा दण्डो हिंसादण्डः ३, तथाकस्माद् अनुपयु- स्थानाध्य
तस्य दण्डोऽकसाद्दण्डः, अन्यस्य क्रिययाऽन्यस्य व्यापादनमिति ४, तथा दृष्टेविपर्यासो-रज्ज्वामिव सर्पबुद्धिस्तया दण्डो रष्टिविय- य०१अर्थकीयावृतिः
दण्डक्रिया योसदण्डः, तद्यथा-लेष्ठुकादिबुज्या शरायभिघातेन चटकादिव्यापादनं ५, तथा मृपावादप्रत्ययिका, स च सद्भूतनिवासद्भूता-12|| ॥३०॥
रोपणरूपः ६, तथा अदत्तस्य परकीयस्थाऽऽदानं-खीकरणमदत्तादानं-स्तेयं तत्प्रत्ययिको दण्ड इति ७, तथाऽऽत्मन्यध्यध्यात्म तत्र भव आध्यात्मिको दण्डः, तद्यथा-निनिमित्तमेव दुर्मना उपहतमनःसंकल्पो हृदयेन द्यमानश्चिन्तासागरावगाढः संतिष्ठते ८, तथा जात्याद्यष्टमदस्थानोपहतमनाः परावमदर्शी तस्स मानप्रत्ययिको दण्डो भवति ९, तथा मित्राणामुपतापेन दोषो मित्रदोषस्तत्प्रत्ययको दण्डो भवति १०, तथा माया-परवश्चनयुद्धिस्तया दण्डो मायाप्रत्यायिकः ११, तथा लोभप्रत्ययिको-लोभनिमित्तोदण्ड इति १२, तथा एवं पश्चभिः समितिभिः समितस्य तिमभिगुप्तिभिगुप्तस्य सर्वत्रोपयुक्तपेयांप्रत्ययिका सामान्येन कर्मबन्धो भवति |१३, एतच त्रयोदशं क्रियास्थानमिति ॥ 'यथोदेशस्तथा निर्देश' इतिकृखा प्रथमारिकयास्थानादारभ्य व्याचिख्यासुराह
पढमे दंडसमादाणे अट्ठादंडवत्तिएसि आहिजइ, से जहाणामए केद पुरिसे आयहेर्ड वा गाइहे वा अगारहे वा परिवारहेउ वा मित्तहेउं वा णागहेउवा भूतहेर्ड वा जक्खहे वा तं दंडं तसधावरेहिं पाणेहिं ॥३०६॥ सयमेव णिसिरिति अण्णेणवि णिसिरावेति अण्णंपि णिसिरंत समणुजागइ, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजंति आहिजइ, पढमे दंडसमादाणे अट्ठादंडवत्तिएत्ति आहिए ॥ (सूत्रं १७)
బాల భారిని ఇంటి
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| प्रथमा अर्थदंड-क्रिया आरभ्यते
~1434
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [१७], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१७]]
यत्प्रथममुपात्तं दण्डसमादानमर्थाय दण्ड इत्येवमाख्यायते तस्यायमर्थः, तद्यथा नाम कश्चित्पुरुषः, पुरुषग्रहणमुपलक्षणं सर्वोऽपि चातुर्गतिकः प्राणी 'आत्मनिमित्तम् आत्मार्थ तथा 'ज्ञातिनिमित्तं खजनाद्यर्थ तथा अगारं-गृह तन्निमित्तं तथा |'परिवारों दासीकर्मकरादिका परिकरो वा-गृहादेवृत्त्यादिकस्तनिमित्तं तथा मित्रनागभूतयक्षावर्थ 'त' तथाभूतं स्वपरोपघात
रूपं दण्डं त्रसस्थावरेषु प्राणिषु खयमेव 'निसृजति' निक्षिपति, दण्डमिव दण्डमुपरि पातयति, प्राण्युपमर्दकारिणी क्रियां करो-MR || तीत्यर्थः, तथाऽज्येनापि कारयति, अपरं दण्डं निसृजन्तं समनुजानीते, एवं कृतकारितानुमतिभिरेव तस्यानात्मज्ञस्य तत्प्रत्य-14 |विकं सावधक्रियोपातं कर्म 'आधीयते' संबध्यते इति । एतत्प्रथम दण्डसमादानमर्थदण्डप्रत्ययिकमित्याख्यातमिति ।।
अहावरे दोचे दंष्टसमादाणे अणहादंडवत्तिएत्ति आहिज्जइ, से जहाणामए के पुरिसे जे इमे तसा पाणा भवंति ते णो अचाए णो अजिणाए णो मंसाए णो सोणियाए एवं हिययाए पित्ताए वसाए पिच्छाए पुच्छाए वालाए सिंगाए विसाणाए दंताए दाढाए जहाए पहारुणिए अट्ठीए अट्ठिमंजाए णो हिसिसु मेत्ति णो हिंसंति मेत्ति णो हिंसिस्संति मेत्ति णो पुत्तपोसणाए णो पसुपोसणयाए णो अगारपरिवूहणताए णों समणमाहणवत्तणाहेर्ड णो तस्स सरीरगस्स किंचि विपरियादित्ता भवंति, से हंता छेत्ता भेत्ता लुपइत्ता । विलुपइत्ता उद्दवइत्ता उज्झिर्ज वाले वेरस्स आभागी भवति, अणट्ठादंडे ॥ से जहाणामए केइ पुरिसे जे इमे धावरा पाणा भवंति, तंजहा इकडाइ वा कहिणा हवा जंतुगा हवा परगाइ वा मोक्खाइ वा तणा इ वा कुसा इ वा कुच्छगाइ वा पचगा इ वा पलाला इवा, ते णो पुत्तपोसणाए णो पसुपीस
दीप अनुक्रम
Recedesesemedesesecccepersect
[६४९]
| द्वितीया अनर्थदंड-क्रिया आरभ्यते
~1444
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [१८], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
सूत्रकृवाङ्गे २ श्रुतस्क
प्रत सूत्रांक
ग्धे शीला
[१८]
कीयावृत्तिः ॥३०७॥
णाए णो अगारपडिहणयाए णो समणमाहणपोसणयाए णो तस्स सरीरगस्स किंचि विपरियाइत्ता भवं. 18२ क्रियाति, से हता ऐसा भेत्ता लुंपइत्ता चिलुंपइत्ता उद्दवइत्ता उजिम बाले बेरस्स आभागी भवति, अणहा
स्थानाध्यदंडे ॥ से जहाणामए केइ पुरिसे कच्छंसि वा दहंसि वा उदगंसि वा दवियंसि वा वलयंसि वा णू- अनर्थदण्टा मंसि वा गहणंसि वा गहणविदुग्गसि चा वर्णसि वा वणविदुग्गंसि वा पञ्वयंसि वा पधयविदुग्गसि वा तणाई ऊसविय ऊसविय सयमेव अगणिकायं णिसिरति अपणेणवि अगणिकार्य णिसिरावेति अण्णंपि अगणिकार्य णिसिरितं समणुजाणइ अणट्ठादंडे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजन्ति आहिजद, दोघे दंडसमादाणे अणहादंडवत्तिएत्ति आहिए ॥ सूत्रम् १८।। तथापरं द्वितीयं दण्डसमादानमनर्थदण्डप्रत्ययिकमित्यभिधीयते, तदधुना व्याख्यायते, तद्यथा नाम कश्चित्पुरुषो निनिमित्तमेव निर्विवेकतया प्राणिनो हिनस्ति, तदेव दर्शयितुमाह-जे इमे इत्यादि, ये केचन 'अमी' संसारान्तर्वर्तिनः प्रत्यक्षा वस्तादयः प्राणि| नस्तांश्चासौ हिंसन्ना-शरीरं 'नो नैवार्चाय हिनस्ति, तथाऽजिनं-चर्म नापि तदर्थम् , एवं मांसशोणितहृदयपित्तवसापिच्छपु-18 च्छवालशृङ्गविषाणनखस्लाय्वस्थ्यस्थिमज्जा इत्येवमादिकं कारणमुद्दिश्य, नैवाहिसिषुर्नापि हिंसन्ति नापि हिंसयिष्यन्ति मां मदीयं ॥ चेति, तथा नो 'पुत्रपोषणायेति पुत्रादिक पोषयिष्यामीत्येतदपि कारणमुद्दिश्य न व्यापादयति, तथा नापि पशूनां पोषणाय, 1 तथाऽगारं-गृहं तस्य परिहणम्-उपचयस्तदर्थ वा न हिनस्ति, तथा न श्रमणब्राह्मणवर्तनाहेतुं, तथा यचेन पालयितुमारब्धं ।
2992292023282909252
दीप अनुक्रम [६५०]
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [१८], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१८]
नो तस्य शरीरस्य किमपि परित्राणाय 'तत्' प्राणव्यपरोपणं भवति, इत्येवमादिकं कारणमनपेक्ष्यैवासौ क्रीडया तच्छीलतया व्य|सनेन वा प्राणिनां हन्ता भवति दण्डादिभिः तथा छेत्ता भवति कर्णनासिकाविकर्तनतः तथा भेत्ता शूलादिना तथा लुम्पयिता। अन्यतराङ्गावयवविकतनतः तथा विलुम्पयिता अध्युत्पाटनचमविकतनकरपादादिच्छेदनतः परमाधार्मिकवत्प्राणिनां निनिमित्तमेव नानाविधोपायैः पीडोत्पादको भवति तथा जीवितादप्यपद्रावयिता भवति, स च सद्विवेकमुशिलाऽऽत्मानं वा परित्यज्य बालब-13 हाल:-अज्ञोऽसमीक्षितकारितया जन्मान्तरानुबन्धिनो बैरखाभागी भवति, तदेवं निनिमित्तमेव पञ्चेन्द्रियप्राणिपीडनतो यथाऽन-8 र्थदण्डो भवति तथा प्रतिपादितम् , अधुना स्थावरानधिकृत्योच्यते-'से जहे त्यादि, यथा कश्चित्पुरुषो निर्विवेकः पथि गच्छन् वृक्षादेः पल्लवादिकं दण्डादिना प्रध्वंसयन फलनिरपेक्षस्तच्छीलतया ब्रजति, एतदेव दर्शयति---'जे इमे' इत्यादि, ये केचन * 'अमी' प्रत्यक्षाः सावरा वनस्पतिकायाः प्राणिनो भवन्ति, तद्यथा-इकडादयो वनस्पतिविशेषा उत्तानास्तिदिहेयमिकडा ममानया प्रयोजनमित्येवमभिसंधाय न छिनत्ति, केवलं तत्पत्रपुष्पफलादिनिरपेक्षस्तच्छीलतया छिनत्तीत्येतत्सर्वत्रानुयोजनीयमिति, तथा
न पुत्रपोषणाय नो पशुपोषणाय नागारप्रतिहणाय न श्रमणब्राह्मणवृत्तये नापि शरीरस्य किश्चित्परित्राणं भविष्यतीति, केवलमेवA मेवासौ वनस्पति हन्ता छेत्तेत्यादि यावजन्मान्तरानुबन्धिनो वैरस्थाभागी भवति, अयं वनस्पत्याश्रयोऽनर्थदण्डोऽभिहितः॥ | साम्प्रतमग्याश्रितमाह-'से जहे'त्यादि, तद्यथा नाम कश्चित्पुरुषः सदसद्विवेकविकलतया कच्छादिकेषु दशसु स्थानेषु बनदुर्गपर्यन्तेषु तृणानि-कुशपुष्पकादीनि पौनःपुन्येनो धास्थानि कसा 'अग्निकार्य' हुतभुजं 'निसृजति' प्रक्षिपत्यन्येन वाऽग्निकार्य बहुसत्त्वापकारिणं दवार्थ 'निसर्जपति' प्रक्षेपयत्यन्यं च निसृजन्तं समनुजानीते । तदेवं योगविकेण कृतकारितानुमतिभिस्तस्य
दीप अनुक्रम [६५०]
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~146~
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
[°C]
दीप
अनुक्रम
[६५० ]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [१८], निर्युक्तिः [१६८ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
सूत्रकृताङ्के
२ श्रुतस्क वे शीलाडीयावृत्तिः
॥ ३०८ ॥
यत्किञ्चनकारिणः 'तत्प्रत्ययिकं' दवदाननिमित्तं 'सावधं कर्म महापातकमाख्यातम्, एतच्च द्वितीयमनर्थदण्डसमादानमाख्यातमिति ॥ तृतीयमधुना व्याचिख्यासुराह
अहावरे तचे दंडसमादाणे हिंसादंडवत्तिएत्ति आहिज्जह से जहाणामए केइ पुरिसे ममं वा मर्मि वा अनं अनं हिंसं वा हिंसइ वा हिंसिस्सइ वा तं दंड तसथावरेहिं पाणेहिं सयमेव णिसिरति अण्णेणवि णिसिरावेति अन्नंपि णिसिरंतं समणुजाणइ हिंसादंडे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावनंति आहिज्वर, तचे दंडसमादाणे हिंसादंडवत्तिएत्ति आहिए ॥ सूत्रम् १९ ॥
अथापरं तृतीयं दण्डसमादानं हिंसादण्डप्रत्ययिकमाख्यायते, तद्यथानाम कश्चित् 'पुरुषः' पुरुषकारं वहन् खतो मरणभीरुतया वा मामयं घातयिष्यतीत्येवं मत्वा कंसवदेवकीसुतान् भावतो जघान मदीयं वा पितरमन्यं वा मामकं ममीकारोपेतं परशुरामत्रस्कार्तवीर्यं जघानान्यं वा कञ्चनायें सर्पसिंहादिर्व्यापादयिष्यतीति मला सर्पादिकं व्यापादयति अन्यदीयस्य वा कस्यचिद्धिरण्यपश्वादेरयमुपद्रवकारीतिकृत्वा तत्र दण्डं निसृजति, तदेवमयं मां मदीयमन्यदीयं वा हिंसितवान् हिनस्ति हिंसिष्यतीत्येवं संभाविते त्रसे स्थावरे वा 'तं दण्डं प्राणव्यपरोपणलक्षणं स्वयमेव निसृजति अन्येन निसर्जयति निसृजन्तं वाऽन्यं समनुजानीते । इत्येतत्तृतीयं दण्डसमादानं हिंसा दण्डप्रत्ययिकमाख्यातमिति ॥
अहावरे उत्थे दंडसमादाणे अकस्मात् दण्डवत्तिएत्ति आहिज्जइ, से जहाणामए केइ पुरिसे कच्छंसि या जाव वणविदुग्गंसि वा मियवत्तिए मियसंकप्पे मियपणिहाणे मियवहाए गंता एए मियत्तिका अन्नय
तृतीया हिंसादंड-क्रिया आरभ्यते,
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२ क्रियास्थानाध्य● हिंसादण्डः
॥३०८||
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
[२०]
दीप
अनुक्रम [६५२]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [२०], निर्युक्तिः [१६८ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
रस्स मियरस बहाए उसुं आयामेत्ता णं णिसिरेखा, स मियं वहिस्सामित्तिक तित्तिरं वा वहगं वा गंवा लावगं वा कवोयगं वा कविं वा कविजलं वा विधित्सा भवइ, इह खलु से अन्नस्स अट्ठाए अण्ण फुसति अकमहादंडे || से जहाणामए केइ पुरिसे सालीणि वा वीहीणि वा कोदवाणि वा कंगुणि वा परगाणि वा रालाणि वा गिलिज़माणे अन्नयरस्स तणस्स बहाए सत्थं णिसिरेज्जा, से सामगं तणगं कुमुदुगं वीडीऊसियं कलेसुयं तणं छिंदिस्सामित्तिकट्टु सालिं वा धीहिं वा कोदवं वा कंगुं वा परगं वा रालय वा छिंदिता भवइ, इति खलु से अन्नस्स अट्ठाए अन्नं फुसति अकम्हादंडे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सम्वजं आहिज्जर, चउत्थे दंडसमादाणे अकम्हादंडवत्तिए आहिए ॥ सूत्रम् २० ॥
अथापरं चतुर्थं दण्डसमादानमकस्साद्दण्डप्रत्ययिकमाख्यायते, इह चाकस्मादित्ययं शब्दो मगधदेशे सर्वेणाप्यागोपालाङ्गनादिना संस्कृत एवोचार्यत इति तदिहापि तथाभूत एवोचरित इति । तद्यथा नाम कचित्पुरुषो लुब्धकादिकः कच्छे वा यावद्वनदुर्गे वा गला मृगे :- हरिणैराटव्यपशुभिर्वृत्तिः -- वर्त्तनं यस्य स मृगवृत्तिकः, स चैवंभूतो मृगेषु संकल्पो यस्यासौ मृगसंकल्पः एतदेव दर्शयति-- मृगेषु प्रणिधानम् - अन्तःकरणवृत्तिर्यस्य स मृगप्रणिधानः क मृगान्द्रक्ष्यामीत्येतदध्यवसायी सन् मृगवधार्थं कच्छादिषु गन्ता भवति, तत्र च गतः सन् दृष्ट्वा मृगानेते मृगा इत्येवं कृत्वा तेषां मध्येऽन्यतरस्य मृगस्य वघार्थम् 'इषु' शरं 'आयामे तत्ति आयामेन समाकृष्य मृगमुद्दिश्य निसृजति, स चैवं संकल्पो भवति यथाऽहं मृगं हनिष्यामीति इषु॑ क्षिप्तवान् स च तेनेपुणा तित्तिरादिकं पक्षिविशेषं व्यापादयिता भवति, तदेवं खल्वसावन्यस्वार्थाय निक्षिप्तो दण्डो यदाऽन्यं 'स्पृशति' घातयति
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आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
चतुर्था अकस्मातदंड-क्रिया आरभ्यते,
For Parts Only
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [२०], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[२०]
दीप अनुक्रम [६५२]
सूत्रकृताङ्गे सोऽकस्माद्दण्ड इत्युच्यते । अधुना बनस्पतिमुद्दिश्याकस्माद्दण्डमाह-'से जहे' त्यादि, तद्यथा नाम कश्चित्पुरुषः कपीवला- २ क्रिया२श्रुतस्क-दिःशाल्यादेः-धान्यजातस्य 'श्यामादिकं' तृणजातमपनयन् धान्यशुद्धिं कुर्वाणः सन्नन्यतरस्य तृणजातस्थापनयनार्थ 'शस्त्रं स्थानाध्य न्धं शीला- दानादिकं निसृजेत् , स च श्यामादिकं तृणं छेत्स्यामीतिकृखाऽकस्साच्छालिं वा यावत् रालकं वा छिन्याद्रक्षणीयस्मैवासावकसा
अकस्साह दीयावृत्तिः छेत्ता भवति, इत्येवमन्यस्याय-अन्यकृतेऽन्यं वा 'स्पृशति' छिनत्ति, यदिवा 'स्पृशती' त्यनेनापि परितापं करोतीति दर्श-18||
ष्टिविषया
18 सदण्डौ ॥३०॥
यति, तदेवं खलु 'तस्य' तत्कर्तुः 'तत्प्रत्ययिकम्' अकस्माद्दण्डनिमित्तं 'सावद्य' मिति पापम् 'आधीयते' संबध्यते, तदेतच्चतुर्थ || दण्डसमादानमकस्माद्दण्डप्रत्ययिकमाख्यातमिति ॥ .
अहावरे पंचमे दंडसमादाणे दिडिविपरियासियादंडवत्तिएत्ति आहिजइ, से जहाणामए केइ पुरिस माईहिंवा पिईहिं वा भाईहिं था भगिणीहिं वा भजाहि वा पुत्तेहिं वा धूताहिं वा सुण्हार्हि वा सद्धिं संवसमाणे मित्तं अमित्तमेव मन्नमाणे मित्ते हयपुवे भवइ दिहिविपरियासियादंडे ॥ से जहाणामए केइ पुरिसे गामघायंसि वा णगरघायंसि वा खेड० कब्बड० मडंबघायंसि वा दोणमुहघायंसि वा पद्दणघायंसि वा आसमघायंसि वा सन्निवेसघायंसि वा निग्गमघायंसि वा रायहाणिघायंसि वा अतेणं तेणमिति मन्नमाणे अतेणे हयपुचे भवइ दिडिविपरियासियादंडे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजंति आहिजइ, पंचमे दंडस
॥३०९॥ मादाणे दिडिविपरियासियादंडवत्तिएत्ति आहिए ॥ सूत्रम् २१ ॥ अथापरं पञ्चमै दण्डसमादानं दृष्टिविपर्यासदण्डप्रत्ययिकमित्याख्यायते, तद्यथा नाम कश्चित्पुरुषः चारभट्टादिको मातृपितृश्रा-18
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पंचमा दृष्टिविपर्यासदंड-क्रिया आरभ्यते,
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
[२१]
दीप
अनुक्रम [६५३]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [२१], निर्युक्तिः [१६८ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
तृभगिनीभार्यापुत्रदुहितृस्नुषादिभिः सार्धं ' (सं) वसन्' तिष्ठन् ज्ञातिपालनकृते मित्रमेव दृष्टिविपर्यासादमित्रोऽयमित्येवं मन्यमानो 'हन्यात् व्यापादयेत् तेन च दृष्टिविपर्यासवता मित्रमेव हतपूर्व भवतीति अतो दृष्टिविपर्यासदण्डोऽयम् ॥ पुनरप्यन्यथा तमेवाह - 'से जहे' त्यादि, तद्यथा नाम कश्चित्पुरुषः पुरुषकारमुद्वहन् ग्रामघातादिके विभ्रमे आन्तचेता दृष्टिविपर्यासादचौरमेव चौरोऽयमित्येवं मन्यमानो व्यापादयेत्, तदेवं 'तेन' भ्रान्तमनसा विभ्रमाकुलेनाचौर एवं हतपूर्वो भवति, सोऽयं दृष्टिविपर्यासदण्डः, तदेवं खलु 'तस्य' दृष्टिविपर्यासवत् तत्प्रत्ययिकं सावधं कर्माधीयते । तदेवं पञ्चमं दण्डसमादानं दृष्टिविपर्यासप्रत्ययिकमाख्यातमिति ॥
आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
अहावरे छुट्टे किरियट्टाणे मोसावत्तिपत्ति आहिजह से जहाणामए केइ पुरिसे आहे वा पाइहेडं वा अगारहेडं वा परिवारहेडं वा सयमेव मुखं वयति अण्णेणवि मुसं वाएह मुसं वयंतंपि अण्णं समणुजाण, एवं खलु तस्स तष्पत्तियं सावजंति आहिजइ, छट्ठे किरियट्ठाणे मोसावत्तिएत्ति आहिए | सूत्रम् २२ ॥ अथापरं षष्ठं क्रियास्थानं मृषावादप्रत्ययिकमाख्यायते, तत्र च पूर्वोक्तानां पञ्चानां क्रियास्थानानां सत्यपि क्रियास्थानले प्रायशः परोपघातो भवतीतिकृत्वा दण्डसमादानसंज्ञा कृता, षष्ठादिषु च बाहुल्येन न परव्यापादनं भवतीत्यतः क्रियास्थानमित्येषा संज्ञोच्यते, तद्यथा नाम कश्चित्पुरुषः स्वपक्षाचेशादाग्रहादात्मनिमित्तं यावत्परिवारनिमित्तं वा सद्भूतार्थनिवरूपमसद्भूतोद्भावनखभावं वा स्वयमेव मृषावादं वदति, तद्यथा नाहं मदीयो वा कञ्चिचौरः, स च चौरमपि सद्भूतमप्यर्थमपलपति, तथा परमचौरं चौरमिति वदति, तथाऽन्येन मृपावादं माणयति, तथाऽन्यांथ मृषावादं वदतः समनुजानीते । तदेवं खलु तस्य
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षष्ठी मृषावाद- क्रिया आरभ्यते,
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-1, मूलं [२२], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
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[२]
दीप अनुक्रम [६५४]
सूत्रकृताङ्गे 18| योगत्रिककरणत्रिकेण मृषावादं बदतस्तत्प्रत्ययिकं सावधं कर्म 'आधीयते' संबध्यते, तदेतत्पष्ठं क्रियास्थानं मृपापादप्रत्ययि-18|२ क्रिया२ श्रुतस्क- 8 कमाख्यातमिति ।।
स्थानाध्य न्धे शीला- अहावरे सत्तमे किरियट्ठाणे अदिन्नादाणवत्तिएत्ति आहिजइ, से जहाणामए केइ पुरिसे आयहे वा
मृषावादाकीयावृतिः जाव परिवारहेउ वा सयमेव अदिन्नं आदियइ अन्नेणवि अदिनं आदियावेति अदिन्नं आदियंतं अन्नं
ध्यात्मिक ॥३१०॥
समणुजाणइ, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावर्जति आहिजह, सत्तमे किरियवाणे अदिनादाणवत्तिएत्ति आहिए ॥ सूत्रम् २३ ॥
अथापरं सप्तमं क्रियास्थानमदत्तादानप्रत्ययिकमाख्यायते, एतदपि प्राग्वन्नेयं, तद्यथा नाम कश्चित्पुरुष आत्मनिमित्तं यावत्परि-2 वारनिमित्तं परद्रव्यमदत्तमेव गृह्णीयादपरं च ग्राहयेगृहन्तमप्यपरं समनुजानीयादित्येवं तस्यादत्तादानप्रत्ययिकं कम संवध्यते । इति सप्तमं क्रियास्थानमाख्यातमिति ॥ 'अहावरे अट्ठमे किरियट्ठाणे अज्झत्यवत्तिएत्ति आहिज्जइ, से जहाणामए केइ पुरिसे णस्थि णं केह किंचि विसंवादेति सयमेव हीणे दीणे दुढे दुम्मणे ओहयमणसंकप्पे चिंतासोगसागरसंपविढे करतलपल्हत्थमुहे अज्झाणोवगए भूमिगयदिहिए झियाइ, तस्स णं अज्झत्थया आसंसइया चत्तारि ठाणा एव- ॥३१॥ माहिजइ (जंति), तं०-कोहे माणे माया लोहे, अज्झत्यमेव कोहमाणमायालोहे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावर्जति आहिजह, अहमे किरियट्ठाणे अज्झस्थवत्तिएत्ति आहिए ॥ सूत्रम् २४ ॥
| सत्तमा अदत्तादान-क्रिया आरभ्यते, अष्टमा आध्यात्मिक-क्रिया आरभ्यते
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [२४], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
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[२४]
अथापरमष्टमं क्रियास्थानमाध्यात्मिकमिति-अन्तःकरणोद्भवमाख्यायते, तद्यथा नाम कवित्पुरुषविन्तोत्प्रेक्षाप्रधानः, तस्य च नास्ति कश्चिद्विसंवादयिता-न तस्य कचिद्विसंवादेन परिभावेन वाऽसद्भूतोद्भावनेन वा चिचदुःखमुत्पादयति, तथाप्यसौ खयमेव वापसदवहीनो दुर्गतवद्धीनो दुश्चित्ततया दुष्टो दुर्मनास्तथोपहतोऽखस्थतया मनःसंकल्पो यस स तथा, तथा चिन्तैव शोक इति या | (स एव) सागरः चिन्ताशोकसागरश्चिन्ताप्रधानो वा शोकश्चिन्ताशोकः स एव सागरः तत्र प्रविष्टः चिन्ताशोकसागरप्रविष्टः । तथा । भूतश्च यदवस्थो भवति तदर्शयति-करतले पर्यस्तं मुखं यस्य स तथाऽहर्निशं भवति, तथाऽऽध्यानोपगतोऽपमतसद्विवेकतया धर्मध्यानाहूरवर्ती निनिमित्तमेव द्वन्द्वोपहतवद्ध्यायति । तस्यैवं चिन्ताशोकसागरावगाढस्य सत आध्यात्मिकानि-अन्तःकरणोद्भवानि मनःसंश्रितान्यसंशयितानि वा-निःसंशयानि चखारि वक्ष्यमाणानि स्थानानि भवन्ति, तानि चैवमाख्यायन्ते, तद्यथा-क्रोधस्थान |मानस्थानं मायास्थानं लोभस्थानमिति । ते चावश्यं क्रोधमानमायालोमा आत्मनोऽधि भवन्त्या(न्तीत्या)ध्यात्मिकाः, एभिरेव सद्भिर्दुष्टं 18| मनो भवति । तदेवं तस दुर्मनसः क्रोधमानमायालोभवत एवमेवोपहतमनःसंकल्पस 'तत्प्रत्यधिकम्' अध्यात्मनिमितं सावधं | कर्म 'आधीयते' संवध्यते । तदेवमष्टममेतक्रियास्थानमाध्यात्मिकायमाख्यातमिति ।।
अहावरे णक्मे किरियहाणे माणवत्तिएत्ति आहिजइ, से जहाणामए केइ पुरिसे जातिमएण वा कुलमएण वा बलमएण या रूवमएण वा तवमएण वा सुयमएण वा लाभमएण चा इस्सरियमएण वा पन्नामएण वा अन्नतरेण वा मयहाणेणं मत्ते समाणे परं हीलेति निदेति खिंसति गरहति परिभवइ अवमण्णेति, इत्तरिए अयं, अहमंसि पुण विसिट्टजाइकुलबलाइगुणोववेए, एवं अप्पाणं समुक्कस्से, देहचुए कम्मवि
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नवमा मान-क्रिया आरभ्यते,
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [२५], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२५]]
सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥३११॥
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दीप अनुक्रम [६५७]
तिए अवसे पयाइ, तंजहा-गम्भाओ गन्भं ४ जम्माओ जम्मं माराओ मारं णरगाओ णरगं चंडे धद्धे चवले माणियावि भवइ, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सायजंति आहिज्जइ, णवमे किरियाठाणे माणवत्ति- स्थाना० एत्ति आहिए ।। सूत्रम् २५ ॥
मानदण्ड अथापरं नवम क्रियास्थान मानप्रत्ययिकमाख्यायते, तद्यथा नाम कश्चित्पुरुषो जात्यादिगुणोपेतः सन् जातिकुलबलरूपतपाथु-| तलामैश्वर्यप्रज्ञामदारुयैरष्टेभिर्मदस्थानैरन्यतरेण वा मचः परमवमवुझ्या हीलयति तथा निन्दति जुगुप्सते गर्हति परिभवति, एतानि |
चैकार्थिकानि कश्चिद्भेदं वोत्प्रेक्ष्य व्याख्येयानीति । यथा परिभवति तथा दर्शयति-इतरोऽयं जघन्यो हीनजातिका तथा मनः॥ | कुलबलरूपादिभिर्दूरमपभ्रष्टः सर्वजनावगीतोऽयमिति । अहं पुनर्विशिष्टजातिकुलबलादिगुणोपेतः, एवमात्मानं समुत्केषेयेदिति । साम्प्रतं मानोत्कर्षविपाकमाह-'देहचुए' इत्यादि, तदेवं जात्यादिमदोन्मत्तः सबिहैव लोके गर्हितो भवति, अत्र च जात्यादिपदगयादिसंयोगा द्रष्टव्याः, ते चैवं भवन्ति-जातिमदः कस्यचिन्न कुलमदः, अपरख कुलमदो न जातिमदः, परस्योभयम् , अपरस्थानुभयमित्येवं पदत्रयेणाष्टौ चतुर्भिः षोडशेत्यादि यावदष्टमिः पदैः षट्पंचाशदधिकं शतद्वयमिति, सर्वत्र मदाभावरूपश्चरमभङ्गः शुद्ध 18 इति । परलोकेऽपि च मानी दुःखभाग्भवतीत्यनेन प्रदश्यते-खायुषः क्षये देहाच्युतो भवान्तरं गच्छन् शुभाशुभकमेद्वितीयः कर्म-18|
॥३१॥ खभिवक्मात् बोगशाने 'जातिलाम खनन प्रशामदः पृथक् प्रशमरतौ च जातिकुलेखादी मैश्वर्यमद इति प्रसिदधनुरोधनान्यतरापियक्षणाद्वाष्टभिरिति । यितुमाह प्र.। ३ पक्षम्यन्तस्यास्मदो रूपम् । ४ अत्यन्तं, ५ वक्ष्यमाणः तदेवभिल्यादितः शुद्ध इति पर्यन्तः पाठोऽत्रस्य भाभाति । परलोकेऽपीति वाक्यं च भवतीयस्याने।
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [२५], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२५]]
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परायत्तखादवश:--परतन्त्रः प्रयाति, तद्यथा-गर्भाद्गर्भ पश्चेन्द्रियापेक्षं तथा गर्भादगर्भ विकलेन्द्रियेपूत्पद्यमानः पुनरगर्भाद्गर्भमेवम-18 | गर्भादगर्भम् एतच नरककल्पगमेंदुःखापेक्षायामभिहितम् , उत्पद्यमानदुःखापेक्षया खिदमभिधीयते-जन्मन एकरसादपर जन्मांतरं | ब्रजति, तथा मरणं मारस्तस्मान्मारान्तरं ब्रजति, तथा नरकदेश्यात्-श्वपाकादिवासाद्नप्रभादिकं नरकान्तरं ब्रजति, यदिवा नरकात्सीमन्तकादिकादुखत्य सिंहमत्स्यादावुत्पद्य पुनरपि तीव्रतरं नरकान्तरं प्रजति । तदेवं नटवद्रङ्गभूमी संसारचकवाले स्त्री-1 | नपुंसकादीनि बहून्यवस्थान्तराण्यनुभवति । तदेवं मानी परपरिभवे सति चण्डो रौद्रो भवति परस्यापकरोति, तदभावे द्यात्मानं | व्यापादयति । तथा स्तब्धश्चपलो यत्किश्चनकारी मानी सन् सर्वोऽप्येतदवस्थो भवतीति । तदेवं 'तत्प्रत्ययिक' माननिमित्त | सावध कर्म 'आधीयते' संबध्यते । नवममेतक्रियास्थानमाख्यातमिति ॥
अहावरे दसमे किरियहाणे मित्तदोसवत्तिएत्ति आहिजइ, से जहाणामए केइ पुरिसे माईहिं वा पितीहिं वा भाईहिं वा भइणीहिं वा भजाहिं वा धूयाहि वा पुत्तेहिं वा सुण्हाहि वा सद्धिं संवसमाणे तेसिं अन्नयरंसि अहालहुगंसि अवराहंसि सयमेव गरूयं दंड निवत्तेति, तंजहा-सीओदगवियडंसि वा कार्य उच्छोलित्ता भवति,उसिणोदगवियडेण वाकायं ओसिंचित्ता भवति,अगणिकाएक कार्य उबडहिता भवति, जोसेण वा वेत्तेण वा णेत्तेण वा तयाइ था [कण्णेण वा छियाए वा] लयाए वा (अन्नयरेण वा दवरण) पासाई उद्दालित्ता भवति, दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वालेलूण वाकवालेण वा कार्य आउहिता भवति, तहप्पगारे पुरिसजाए संवसमाणे दुम्मणा भवति, पवसमाणे सुमणा भवति, तहप्पगारे पुरिसजाए दंडपासी दंडगुरुए
अनुक्रम [६५७]
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दसमा मित्रदोष-क्रिया आरभ्यते,
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [२६], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२६]]
दीप अनुक्रम [६५८]
सूत्रकृताङ्गे दंडपुरकडे अहिए इमंसि लोगंसि अहिए परंसि लोगसि संजलणे कोहणे पिहिमंसि यावि भवति, एवं ॥8क्रिया२ श्रुतस्क-181 खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जति आहिजति, दसमे किरियडाणे मित्तदोसवत्तिएत्ति आहिए ॥ सूत्रम् २६ ।। स्थाना न्धे शीलाअथापरं दशमं क्रियास्थान मित्रदोपप्रत्ययिकमाख्यायते, तयथा नाम कश्चित्पुरुषः प्रभुकल्पो मातापित्सुहत्वजनादिभिः सार्ध
मित्रद्वेष: कीयावृत्तिः
र परिवसंस्तेषां च मातापित्रादीनामन्यतमेनानाभोगतया यथाकथंचिल्लघुतमेऽप्यपराधे वाचिके दुर्वचनादिके तथा कायिके हस्तपा॥३१२।।
दादिके संघटनरूपे कृते सति खयमेव-आत्मना क्रोधाध्मातो गुरुतरं 'दण्डं' दुःखोत्पादकं निवर्तयति' करोति, तद्यथा-शी| तोदके 'चिकटे' प्रभूते शीते वा शिशिरादौ तस्य' अपराधकर्तुः कायमधो बोलयिता भवति, तथोष्णोदकविकटेन 'कार्य' शरीर| मपसिञ्चयिता भवति, तत्र विकटग्रहणादुष्णतेलेन काञ्जिकादिना वा कायमुपतापयिता भवति, तथा अनिकायेन उल्मुकेन तप्ता| यसा वा कायमुपदाहयिता भवति, तथा योत्रेण वा वेत्रेण वा नेत्रेण वा 'त्वचा वा' सनादिकया लतया वाऽन्यतमेन वा दवरकेण| | ताडनतः 'तस्य' अपराधक: 'शरीरपाश्वाणि उद्दालयितुं' ति चमाणि लुम्पयितुं भवति, तथा दण्डादिना कायमुपताडयिता | भवतीति । तदेवमल्पापराधिन्यपि महाक्रोधदण्डवति तथाप्रकारे पुरुषजाते एकत्र बसति सति तत्सहवासिनो मातापित्रादयो दुर्म| नसस्तदनिष्टाशङ्कया भवन्ति, तसिंश्च 'प्रवसति' देशान्तरे गच्छति गते वा तत्सहवासिनः सुमनसो भवन्ति । तथाप्रकारश्च पुरु
पजातोऽल्पेऽप्यपराधे महान्तं दण्डं कल्पयतीति, एतदेव दर्शयितुमाह-दण्डस्य पार्थ दण्डपाच तद्विद्यते यस्थासौ दण्डपार्थी ख- ॥३१२॥ | ल्यतया स्तोकापराधेऽपि कुप्यति दण्डं च पातयति । तमप्यतिगुरुमिति दर्शयितुमाह-दण्डेन गुरुको दण्डगुरुको यस्य च दण्डो| महान् भवति असौ दण्डेन गुरुर्भवति, तथा दण्डः पुरस्कृतः सदा पुरस्कृतदण्ड इत्यर्थः, स चैवंभूतः स्वस परेषां च 'अस्मिन् ।
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [२६], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[२६]
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दीप अनुक्रम [६५८]
लोके' असिन्नेव जन्मनि अहितः प्राणिनामहितदण्डापादनात , तथा परस्मिन्नपि जन्मन्यसावहिता, तच्छीलतया चासो यस K कस्यचिदेव येन केनचिदेव निमित्तेन क्षणे क्षणे संज्यलयतीति संज्वलनः, स चात्यन्तक्रोधनो वधबन्धविच्छेदादिषु शीघ्रमेव 81
क्रियासु प्रवर्तते, तदभावेऽप्युत्कटद्वेषतया मर्मोद्घटनतः पृष्ठिमांसमपि खादेत् तत्तदसौ ब्रूयात् येनासावपि परः संज्वलेर ज्वलितश्चान्येषामपकुर्यात् , तदेवं खलु तस्स महादण्डप्रवतयितुसद्दण्डप्रत्ययिकं सावधं कर्माऽऽधीयते । तदेतदशमं क्रियास्थानं मित्रद्रोह| प्रत्ययिकमाख्यातमिति । अपरे पुनरष्टमं क्रियास्थानमात्मदोषप्रत्ययिकमाचक्षते, नवमं तु परदोषप्रत्यायिक, दशमं पुनः प्राण|तिकं क्रियास्थानमिति ॥
अहावरे एफारसमे किरियहाणे मायावत्तिएत्ति आहिजइ, जे इमे भवंति-गढायारा तमोकसिया उलुगपत्तलहुया पचयगुरुया ते आयरियावि संता अणारियाओ भासाओवि पउज्जंति, अन्नहासंतं अप्पाणं अन्नहा मन्नंति, अन्नं पुट्ठा अन्नं वागरंति, अन्नं आइक्खियचं अन्नं आइक्वंति ॥ से जहाणामए केइ पुरिसे अंतोसल्ले तं सलं णो सयं णिहरति णो अन्नेण णिहरावेति णो पडिविद्धंसेह, एवमेव निण्हवेइ, अविउमाणे अंतोअंतो रियह, एवमेव माई मायं कट्ट णो आलोएइ णो पडिकमेइ णो जिंदइ णो गरहइ णो विउद्दइ णो विसोहेइ णो अकरणाए अम्भुट्टेड णो अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवजइ, माई अस्सि लोए पचायाइ माह परंसि लोए (पुणो पुणो) पञ्चायाइ निंदइ गरहइ पसंसइ णिच्चरइ ण नियट्टइ णिसि
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एकादशमा माया-क्रिया आरभ्यते,
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
[२७]
दीप
अनुक्रम
[६५९]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [२७], निर्युक्तिः [१६८ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क
न्धे शीलाझीयावृत्तिः
॥३१३॥
रियं दंड छापति, माई असमाहडसुहलेस्से यावि भवइ, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावनंति आहिज्जर, एक्कारसमे किरियाणे मायावत्तिपत्ति आहिए ॥ सूत्रं २७ ॥
अथापरमेकादशं क्रियास्थानमाख्यायते, तद्यथा-ये केचनामी भवन्ति पुरुषाः, किंविशिष्टाः १- गूढ आचारो येषां ते गूढाचाराः - गलकर्तकग्रन्थिच्छेदादयः, ते च नानाविधैरुपायैर्विश्रम्भमुत्पाद्य पश्चादपकुर्वन्ति, प्रद्योतादेर भयकुमारादिवत् । ते च मायाशीलवेनाप्रकाशचारिणः, तमसि कृषितुं शीलं येषां ते तमसिकाषिणस्त एव च कापिकाः, पराविज्ञाताः क्रियाः कुर्वन्तीत्यर्थः । ते च खचेष्टयैवो लूकपत्रव लघवः, कौशिकपिच्छवल्लघीयांसोऽपि पर्वतवगुरुमात्मानं मन्यन्ते यदिवाऽकार्यप्रवृत्तेः पर्वतवन्त्र स्तम्भयितुं शक्यन्ते, ते चार्यदेशोत्पन्ना अपि सन्तः शाख्यादात्मप्रच्छादनार्थमपरभयोत्पादनार्थं चानार्यभाषाः प्रयुञ्जते, परव्यामोहार्थं स्वमतिपरिकल्पितभाषाभिरपरा विदिताभिर्भाषन्ते तथाऽन्यथाव्यवस्थितमात्मानम् अन्यथा - साध्वाकारेण मन्यन्ते व्यवस्थापयन्ति च तथाऽन्यत्पृष्टा मातृस्थानतोऽन्यदाचक्षते, यथाऽऽग्रान् पृष्टाः केदारकानाचक्षते, वादकाले वा कश्चिन्नाथ (न्याय) वादितया व्याकरणे प्रवीणस्त (णं तर्कमार्गमवतारयति, यथा वा 'शरदि वाजपेयेन यजेते' त्यस्य वाक्यस्यार्थं पृष्टस्तदर्थानभिज्ञः कालातिपातार्थं शरत्कालं व्यावर्णयति, तथाऽन्यसिंश्चार्थे कथयितव्येऽन्यमेवार्थमाचक्षते ।। तेषां च सर्वार्थविसंवादिनां कपटप्रपञ्चचतुराणां विपाकोवनाय दृष्टान्तं दर्शयितुमाह- 'से जहे' त्यादि, तत् यथा नाम कचित्पुरुषः संग्रामादपक्रान्तोऽन्तः - मध्ये शल्यं - तोमरादिकं यस्य सोऽन्तः शल्यः, स च शयघन वेदनाभीरुतया तच्छल्यं न खतो 'निर्हरति अपनयति उद्धरति नाप्यन्येनोद्वारयति, नापि तच्छल्यं वैद्योपदेशेनौषधोपयोगादिभिरुपायैः 'प्रतिध्वंसयति' विनाशयति, अन्येन केनचित्पृष्टो वाऽपृष्टो वा
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For Parks Use Only
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२ क्रिया
स्थानाध्य० मायाप्रत्यकिं ११
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [२७], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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तरछल्यं निष्प्रयोजनमेष 'निहुते' अपलपति, तेन च शल्येनासावन्तर्वर्तिना 'अविउद्दमाणे ति पीव्यमानः 'अंतो अंतोत्ति || | मध्ये मध्ये पीब्यमानोऽपि 'रीयते' ब्रजति, तत्कृतां वेदनामधिसहमानः क्रियासु प्रवर्तत इत्यर्थः । साम्प्रतं दार्शन्तिकमाह'एवमेवेत्यादि, यथाऽसौ सशल्यो दुःखभाग्भवति एवमेवासी 'मायी' मायाशल्यवान् यत्कृतमकार्य तन्मायया निग्रहयन् मायां | कला न तां मायामन्यसै 'आलोचयति' कथयति, नापि तस्मात् स्थानात्प्रतिकामति-न ततो निवर्तते, नाप्यात्मसाक्षिकं 15 |तन्मायाशल्यं निन्दति, तद्यथा-धिमा यदहमेवंभूतमकार्य कर्मोदयात्तत् कृतवान् , तथा नापि परसाक्षिकं गहति-आलोचनाईस-1 & मीये गतो नापि च जुगुप्सते, तथा 'नो विउद्दति' नापि सन्मायाख्यं शल्यमकार्यकरणात्मकं विविधम्-अनेकप्रकारं त्रोटयति-| | अपनयति, यद्यस्सापराधख प्रायवित्तं तचेन पुनस्तदकरणतया (न) निवेत्तयतीत्यर्थः, नापि तन्मयादिकमकार्य सेषिखाऽऽलोचनाहीयात्मानं निवेद्य तदकार्याकरणतयाऽभ्युत्तिष्ठते, प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यापि नोयुक्तविहारी भवतीत्यर्थः, तथा नापि गुर्वादिभिरभिधीयमानोऽपि 'यथाऽहम्' अकार्यनिर्वहणयोग्य प्रायः चित्रं शोधयतीति प्रायश्चित्तं-तपःकर्म विशिष्टं चान्द्रायणाद्यात्मक 'प्रतिपद्यते' अभ्युपगच्छति । तदेचं मायया सत्कार्यप्रच्छादकोऽसिन्नेव लोके मायावीत्येवं सर्वकार्येष्वेवाधिश्रम्भणसेन 'प्रत्यायाति' प्रख्याति याति, तथाभूतश्च सर्वस्यापि अविश्वास्यो भवति, तथा चोक्तम्-"मायाशीलः पुरुषः" (यद्यपि न करोति किश्चिदपराधं । सर्वस्याविश्वाखो भवति तथाप्यात्मदोपहतः।१) इत्यादि, तथातिमायाविवादसौ परस्मिन् लोके जन्मान्तरावाप्तौ सर्वाधमेषु ।। यातनास्थानेषु नरकतिर्यगादिषु 'पौनःपुन्येन प्रत्यायाति भूयोभूयस्तेष्वेवारघट्टघटीयश्रन्यायेन प्रत्यागच्छतीति । तथा नानाविधैः। प्रपञ्चैर्वश्चयिता परं निन्दति जुगप्सते, तद्यथा-अयमज्ञः पशुकल्पो नानेन किमपि प्रयोजनमिति, एवं परं निन्दयिलाऽऽत्मानं प्रशं
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [२७], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२७]
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दीप
सूत्रकृताङ्गे तासयति, तयथा असावपि मया बश्चित इत्येवमात्मप्रशंसया तुष्यति, तथा चोक्तम्-"येनापत्रपते साधुरसाधुस्तेन तुष्यती"ति । एवं क्रिया२ श्रुतस्क
चासौ लब्धप्रसरोऽधिकं निश्चयेन चा चरति-तथाविधानुष्ठायी भवतीति निश्चरति । तत्र च गृद्धः संस्तस्मान्मातृस्थानान्न निवर्तते, स्थानाध्य. न्धे शीला-18 तथाऽसौ मायावलेपेन 'दण्ड' प्राण्युपमर्दकारिणं 'निसृज्य' पातयिसा पश्चात् 'छादयति' अपलपति अन्यस्य वोपरि प्रक्षिपति, स लोभक्रिया कीयावृत्तिः च मायावी सर्वदा वश्चनपरायणः संस्तन्मनाः सर्वानुष्ठानेष्वप्येवंभूतो भवति-असमाहृता-अनङ्गीकृता शोभना लेश्या येन सा ॥३१४॥
तथा आध्यानोपहततयाऽसावशोभनलेश्य इत्यर्थः । तदेवमपगतधर्मध्यानोऽसमाहितोऽशुद्धलेश्यचापि भवति । तदेवं खलु तस्य
'तत्प्रत्ययिक' मायाशल्यप्रत्ययिकं सावयं कर्माऽऽधीयते । तदेतदेकादशं क्रियाखानं मायाप्रत्ययिकं व्याख्यातं ।। एतानि चार्थ-18 18 दण्डादीनि एकादश क्रियास्थानानि सामान्यनासंयतानां भवन्ति, इदं तु द्वादशं क्रियास्थानं पाखण्डिकानुद्दिश्याभिधीयते
अहावरे यारसमे किरियहाणे लोभवत्तिएत्ति आहिजइ, जे इमे भवंति, तंजहा-आरन्निया आवसहिया गामंतिया कण्हुईरहस्सिया णो बहुसंजया णो बहुपडिविरया सबपाणभूतजीवसत्तेहि ते अप्पणो सञ्चामोसाई एवं विजंति, अहं ण हतबो अन्ने हंतचा अहंण अन्जावेयबो अन्ने अजावेयचा अहं ण परिघेतयो अन्ने परिघेतबा अहं ण परितावेयबो अन्ने परितायचा अहं ण उद्दवेयचो अन्ने उद्दयेयवा, एवमेव ते इस्थिकामेहिं मुच्छिया गिद्धा गढिया गरहिया अझोववन्ना जाव वासाई चउपंचमाई छहसमाई अप्पपरो वा ॥३१४॥ भुजयरो वा भुंजिनु भोगभोगाई कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु आसुरिएसु किब्धिसिएसु ठाणेसु उववत्तारो भवंति, ततो विष्पमुच्चमाणे भुजो भुजो एलमूयत्ताए तम्यत्ताए जाइयत्ताए पञ्चायंति, एवं
अनुक्रम [६५९]
98289390sass
| द्वादशमा लोभ-क्रिया आरभ्यते,
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [२८], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२८]
दीप अनुक्रम [६६०]
खलु तस्स तप्पत्तियं सावजंति आहिजइ, दुवालसमे किरियट्टाणे लोभवत्तिएत्ति आहिए ॥ इच्चेयाई
दुवालस किरियट्ठाणाई दविएणं समणेण वा माहणेण वा सम्म सुपरिजाणिअबाई भवंति ॥ सूत्र २८॥ 11 एकादशात् क्रियास्थानादनन्तरमथापरं द्वादशं क्रियास्थानं लोभनत्ययिकमाख्यायते, तद्यथा-य इमे वक्ष्यमाणा अरण्ये बस18न्तीत्यारण्यकाः, ते च कन्दमूलफलाहाराः सन्तः केचन वृक्षमूले वसन्ति, केचनावसथेषु-उटजाकारेषु गृहेषु, तथा अपरे ग्रामादि-18 18| कमुपजीवन्तो ग्रामस्थान्ते-समीपे वसन्तीति प्रामान्तिकाः, तथा 'कचित्' कार्य मण्डलप्रवेशादिके रहस्यं येषां ते कचिद्राहसिकाः, || 81 ते च 'न बहुसंयता' न सर्वसावधानुष्ठानेभ्यो निवृत्ताः, एतदुक्तं भवति-न बाहुल्पेन बसेषु दण्डसमारम्भं विदधति, एकेन्द्रियो-18
पजीविनस्वविगानेन तापसादयो भवन्तीति, तथा 'न बहुविरता' न सर्वेष्वपि प्राणातिपातविरमणादिषु तेषु वर्तन्ते, किंतु द्रव्यतः कतिपयव्रतवर्तिनो न भावतो, मनागपि तत्कारणस सम्यग्दर्शनस्थाभावादित्यभिप्रायः, इत्येतदाविभावयितुमाह। 'सबपाणे'त्यादि, ते धारण्यकादयः सर्वप्राणिभूतजीवसवेभ्य आत्मना-खतः अविरता:-तदुपमर्दकारम्भादविरता इत्यर्थः ।
तथा ते पापण्डिका आत्मना-खतो बहूनि सत्या(त्य)मृपाभूतानि वाक्यानि एवं वक्ष्यमाणनीत्या विशेषेण 'युञ्जन्ति प्रयुञ्जन्ति || 18शुवत इत्यर्थः, यदिवा सत्यान्यपि तानि प्राण्युपमर्दकलेन मृषाभूतानि सत्या(त्य)मृपाणि, एवं ते प्रयुञ्जन्तीति दर्शयति तयथा-18
R/ अहं ब्राह्मणखाद्दण्डादिभिर्न हन्तव्योऽन्ये तु शूद्रखाद्धन्तन्याः, तथाहि तद्वाक्य-'शूद्र व्यापाद्य प्राणायाम जपेत् , किंचिद्वा दद्यात् , 18 तथा क्षुद्रसत्त्वानामनखिकानां शकटभरमपि च्यापाद्य ब्राह्मणं भोजये(दि)त्यादि, अपरं चाहं वर्णोत्तमखात नानापयितव्यों
ऽन्ये तु मत्तोऽधमाः समाज्ञापयितव्याः, तथा नाहं परितापयितव्योऽन्ये तु परितापयितव्याः, तथाऽहं वेतनादिना कर्मकरणाय न8
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [२८], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२८]
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दीप अनुक्रम [६६०]
सूत्रकृताङ्गे ग्राह्योऽन्ये तु शद्रानाशा इति, किंबहुनोक्तन', नाहमुपद्रावयितव्यो-जीवितादपरोपयितव्योऽज्ये तु अपरोपयितण्या इति । तदेवं 8२ क्रिया२श्रुतस्क- तेषां परपीडोपदेशनतोऽतिमूढतयाऽसंबद्धअलापिनामझानावृतानामारमंभरीणां विषमदृष्टीनां न प्राणातिपातविरतिरूपं ब्रतमस्ति, खान शाला
1 लोभक्रिया अस्य चोपलक्षणार्थखात् मृषावादादत्तादानविरमणाभावोऽप्यायोज्यः । अधुना खनादिभवाभ्यासाहुस्त्यजसेन प्राधान्यात् स्त्रेणकीयावृत्तिःसहाधिकार
ISवाब्रह्माधिकृत्याह-'एवमेवे'त्यादि, 'एवमेव' पूर्वोक्वेनैव कारणेनातिमूढखादिना परमार्थमजानानास्ते तीर्थिकाः स्त्रीप्रधानाः ॥३१५॥
कामाः स्त्रीकामाः यदिवा खीषु कामेषु प-शब्दादिषु मूर्छिता गृद्धा ग्रथिता अध्युपपनाः, । अत्र चात्यादरख्यापनार्थ प्रभूतप-31 || योयग्रहणम् , एतच स्त्रीषु शम्दादिषु च प्रवर्तनं प्रायः प्राणिनां प्रधान संसारकारणं, तथा चोक्तम्-"मूलमेयमहम्मस्स, महा-131 दोससमुस्सय' मित्यादि, इह च खीसनासक्तखावश्यंभाविनी शब्दादिविषयासक्तिरित्यतः खीकामग्रहणं, सत्र चाऽऽसक्का यावन्तं | कालमासते तत्सूत्रेणैव दर्शयति-यावर्षाणि चतुष्पश्चषड्दशकानि, अयं च मध्यमकालो गृहीतः, एतावत्कालोपादानं च साभि-16 प्रायक, प्रायस्तीथिका अतिक्रान्तबयस एव प्रव्रजन्ति, तेषां चैतावानेव कालः संभाव्यते, बदिवा मध्यग्रहणात्तत ऊध्र्वमधव गृखते 18 इति दर्शयति-तसाचोपात्तादल्पतरः प्रभूततरो वापि कालो भवति । तत्र च ते त्यक्सापि गृहवासं 'भुक्त्वा भोगभोगा ।
इति खीभोगे सति अवश्यं अन्दादयो भोगाः भोगमोगास्तान सुक्खा, ते च किल वयं प्रत्रजिता इति, न च भोगेभ्यो विनिवृक्षा, । यतो मिथ्यादृष्टितयाजानान्धवात्सम्यग्विरतिपरिणाम [अन्यानं ९५००] रहिताः, ते चैवंभूतपरिणामाः स्वायुषः धये ॥३१५|| IS| कालमासे कालं कृसा विरुष्टतपसोऽपि सन्तोऽन्यतरेवासुरिकेषु किस्विरिकेषु स्थानेषत्पादयितारो भवन्ति, से अज्ञानतपसा मृता
| १ मूले व्यत्ययेन । २ मूलमेतदधर्मस्य महादोषसमुच्छ्रयं ।
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [२८], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२८]
दीप अनुक्रम [६६०]
अपि किल्विपिकेषु स्थानेपुत्पत्स्यन्ते, तस्मादपि स्थानादायुषः क्षवाद्विप्रमुच्यमानाः स्युताः किल्लिपबहुलास्तरकर्मशेषेणैलबन्मका एलमूकास्तद्भावेनोत्पद्यन्ते, किल्बिषिकस्थानाच्युतः समनन्तरभवे या मानुषखमवाप्य यथैलकने यूकोचाकवाक् भवति एवमसावप्प-1 व्यक्तवाक् समुत्पद्यत इति । तथा 'तमूयसाए'त्ति तमस्खेन-अत्यन्तान्धतमसलेन जात्यन्धतया अत्यन्ताज्ञानावृततया वा तथा | जातिमूकलेनापगतवाच इह प्रत्यागच्छन्तीति । तदेवंभूतं खलु तेषां तीथिकानां परमार्थतः सावधानुष्ठानादनिवृत्तानामाधाकमोंदिप्रवृत्तेस्तत्प्रायोग्यभोगभाजां 'तत्प्रत्ययिक' लोभप्रत्ययिक सावर्व कर्माधीयते । तदेतल्लोभप्रत्ययिक द्वादशं क्रियास्थानमाख्या-18 तमिति ॥ साम्प्रतमेतेपा द्वादशानामप्युपसंहारार्थमाह-'इतिः उपप्रदर्शने 'एतानि' अर्थदण्डादीनि लोभप्रत्ययिकक्रियास्थानपर्यबसानानि द्वादशापि क्रियास्थानानि कर्मग्रन्धिद्रावणाद्रवः-संयमः स विद्यते यस्खासौ द्रविको मुक्तिगमनयोग्यतया वा द्रव्यभूतः श्रमण:-साधुः, तमेव विशिनष्टि-मा बधीरित्येवं प्रवृत्तियेस्सासौ माहनस्तेनैव एतद्गुणविशिष्टेनैतानि सम्पग्यथावस्थितवस्तुखरूपनिरूपणतो मिथ्यादर्शनाश्रितानि संसारकारणानीतिकला परिज्ञथा ज्ञातव्यानि प्रत्याख्यानपरिशया परिहर्सव्यानि भवन्तीति ॥
अहावरे तेरसमे किरियट्ठाणे इरियावहिएत्ति आहिजइ, इह खलु अत्तत्साए संवुडस्स अणगारस्स इरियासमियस्स भासासमियस्स एसणासमियरस आयाणमंडमत्तणिक्खेवणासमियस्स चारपासवणवेलसिंघाणजल्लपारिहावणियासमियस्स मणसमियस्स वयसमियस्स कायसमियस्स मणगुत्तस्स वयगुस्सस्स कायगुस्सस्स गुसिंदियस्स गुत्तभयारिस्स आउसं गच्छमाणस्स आपसं चिट्ठमाणस्स आउ णिसीयमाणस्स आउसं तुपमाणस्स आउत्तं भुंजमाणस्स आउ भासमाणस्स आउत्तं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पा
Receneseseeseesekseeser
तेरशमा ईर्याप्रत्ययिका-क्रिया आरभ्यते,
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [२९], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२९]
सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥३१॥
दीप
यपुंछणं गिण्हमाणस्स वा णिक्खिवमाणस्स वा जाव चक्खुपम्हणिवायमवि अस्थि विमाया सुहमा कि
२क्रियारिया इरियावहिया नाम कजइ, सा पढमसमए बद्धा पुट्ठा बितीयसमए वेइया तइयसमए णिजिण्णा सा स्थानाध्य बद्धा पुट्ठा उदीरिया वेइया णिजिण्णा सेयकाले अकम्मे यावि भवति, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावळ
१३ ईर्यापति आहिज्जइ, तेरसमे किरियट्ठाणे ईरियावहिएत्ति आहिजइ ॥ से बेमि जे य अतीता जे य पडुपन्ना जे
विकक्रिया य आगमिस्सा अरिहंता भगवंता सबे ते एयाई चेव तेरस किरियाणाइंभासिंसु वा भासेंति वा भासिस्संति वा पन्नविंसु वा पन्नविति वा पन्नविस्संति वा, एवं चेव तेरसमं किरियट्ठाणं सेविसु वा सेवंति वा सेविस्संति वा ॥ सूत्रं २९॥ अथापरं त्रयोदर्श क्रियास्थानमीर्यापथिकं नामाख्यायते, ईरणमीर्या तस्खास्तया वा पन्था ईर्यापथस्तत्र भवमी-पथिकम् , एतच शब्दव्युत्पचिनिमित्तं, प्रवृत्तिनिमित्तं खिद-सर्वत्रोपयुक्तस्याकषायस्य समीक्षितमनोवाकायक्रियस्य या क्रिया तया यत्कर्म तदर्यापथिक, सैव वा क्रिया ईर्यापथिकेत्युच्यते । सा कस भवति? किंभूता वा? कीटकर्मफला वा? इत्येतदर्शयितुमाह-18 'इह खलु' इत्यादि, 'इह' जगति प्रवचने संयमे वा वर्तमानस्य खलुशब्दोऽवधारणेऽलङ्कारे वा आत्मनो भाव आत्मसं तदर्थमात्मखार्थे संवृतख मनोवाकार्यः, परमार्थत एवंभूतस्यैवात्मभावोऽपरस्य खसंवृतस्यात्मत्वमेव नास्ति, सद्भूतात्मकार्याकरणात्, तदेव-18|॥३१६।। | पथः स विद्यते यस साधोरप्रमत्तस्य तदौर्या (स इपिथिकः तस्संदीया ) प्र. प्रत्यपेक्षया सावतत् ।
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cotaesestaesesesentsersese
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [२९], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[२९]
दीप अनुक्रम [६६१]
मात्मार्थ संवृतस्थानगारपर्यापथिकादिभिः पञ्चभिः समितिभिमनोवाकायैः समितस्य तथा तिसभिर्गुप्तिभिर्गुप्तस्य, पुनर्गुप्तिग्रह| णमेता भिरेव गुप्तिभिगुप्तो भवतीत्यस्यार्थस्याविर्भावनायात्यादरख्यापनार्थ वेति । तथा गुप्तेन्द्रियस्य नवब्रह्मचर्यगुप्युपेतब्रह्मचारिणश्च । | सतः, तथोपयुक्तं गच्छतस्तिष्ठतो निषीदतस्ववर्तनां कुर्वाणस्य तथोपयुक्तमेव वस्त्रं पतद्ग्रहं कम्बलं पादपुञ्छनकं वा गृहतो| | निक्षिपतो वा यावचक्षुःपक्ष्मनिपातमप्युपयुक्तं कुर्वतः सतोऽत्यन्तमुपयुक्तस्यापि अस्ति-विद्यते विविधा मात्रा विमात्रा तदेवंविधा|8 सूक्ष्माक्षिपक्ष्मसंचलनरूपादिकर्यापथिका नाम क्रिया केवलिनाऽपि क्रियते, तथाहि-सयोगी जीवो न शक्रोति क्षणमप्येकं निश्चलः स्थातुम् , अमिना ताप्यमानोदकवत्कार्मणशरीरानुगतः सदा परिवर्तयन्नेवास्ते, तथा चोकम् "केवली णं भंते ! अस्सि समयंसि | जेसु आगासपएसेमु" इत्यादि । तदेवं केवलिनोऽपि सूक्ष्मगात्रसंचारा भवन्ति, इह च कारणे कार्योपचारात्तया क्रियया यवध्यते | | कर्म तस्य च कर्मणो या अवस्थास्ता: क्रियाः, ता एव दर्शयितुमाह-'सा पढमसमये' इत्यादि, याऽसावकषाषिणः क्रिया तया/४ | यद्वध्यते कर्म तत्प्रथमसमय एव बद्धं स्पृष्टं चेतिकृता तक्रियैव बद्धस्पृष्टेत्युक्ता, तथा द्वितीयसमये वेदितेत्यनुभूता तृतीयसमये | | निजीर्णा, एतदुक्तं भवति-कर्म योगनिमित्तं बध्यते, तत्स्थितिश्च कषायायचा, तदभावाच न तस्स सांपरायिकस्येव स्थितिः, किंतु योगसद्भावाद्वध्यमानमेव स्पृष्टता-संश्लेष याति, द्वितीयसमधे खनुभूयते, तच्च प्रकृतितः सातावेदनीयं स्थितितो द्विसमयस्थितिकमनुभावतः शुभानुभावं अनुत्तरोपपातिकदेवमुखातिशायि प्रदेशतो बहुप्रदेशमस्थिरबन्धं बहुम्पयं च, तदेवं सेयोपथिका क्रिया
१ केवली भदन्त । अस्मिन् समये येच्चाकाशप्रदेशेषु । १ बगानस पक्षलादायस्य गणना तृतीयस्य तु निर्माण माणस्य निर्माणलान स्थिती गणनेति उकामिस्र्थ, ॥ भाष्ये तत्वार्थस्य तु एकसमयस्थितिकमिति ।
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [२९], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२९]
दीप
सूत्रकृताङ्गे प्रथमसमये बद्धस्पृष्टा द्वितीयसमये उदिता वेदिता निर्जीर्णा भवति, 'सेयकाले ति आगामिनि तृतीयसमये तत्कर्मापेक्षयाकर्म-18 क्रिया२ श्रुतस्क- | तापि च भवति, एवं तावद्वीतरागस्वेर्यानत्ययिक कर्म 'आधीयते' संबध्यते । तदेतत्रयोदशं क्रियास्थानं व्याख्यातं । ये पुन- स्थानाध्य० न्ध शीला- स्तेभ्योऽज्ये प्राणिनस्तेषां सांपरायिको बन्धः, ते तु यानि प्रागुक्तानीर्यापधवानि द्वादश क्रियास्थानानि तेषु वर्तन्ते तेषां च १३ इयोपशीयावृत्तिः तद्वर्तिनामसुमतां मिथ्यावाविरतिप्रमादकपाययोगनिमित्तः सांपरायिको बन्धो भवति, यत्र च प्रमादस्तत्र कषाया योगाच] निय
विकक्रिया ॥३१७॥
K माद्भवन्ति, कपायिणन योगाः, योगिनस्वेते भाज्याः, तत्र प्रमादकषायप्रत्ययिको बन्धोऽनेकप्रकारस्थितिः, सद्रहितस्तु केवल| योगप्रत्ययिको द्विसमयस्थितिरेवेर्याप्रत्ययिक इति स्थितम् ॥ एतानि त्रयोदश क्रियास्थानानि न भगवद्वर्धमानखामिन-11 बोक्तानि अपि खन्यैरपीत्येतद्दर्शयितुमाह से बेमी'त्यादि, सोऽहं ब्रवीमीति, यत्प्रागुक्तं तद्वा बचीमीति, तद्यथा-ये तेतिक्रान्ता काषभादयस्तीर्थकृतो ये च वर्तमानाः क्षेत्रान्तरे सीमन्धरस्वामिप्रभृतयो ये चागामिनः पद्मनाभादयोऽहन्ती भगवन्तः सर्वेऽपि || |ते पूर्वोक्तान्येतानि त्रयोदश क्रियास्थानान्यभाषिपुः भाषन्ते भाषिष्यन्ते च । तथा तरखरूपतस्तद्विपाकतश्च प्ररूपितवन्तः प्ररूपयन्ति | प्ररूपयिष्यन्ति च । तथेतदेव त्रयोदशं क्रियास्थानं सेवितवन्तः सेवन्ते सेविष्यन्ते च, यथा हि जम्बृद्वीपे मयदर्य तुल्यप्रकाश | भवति यथा या सरशीपकरणाः प्रदीपास्तुल्यप्रकाशा भवन्ति एवं तीर्थकृतोऽपि निरावरणखात् कालत्रयवतिनोऽपि तुल्योपदेशा | भवन्ति ।। साम्प्रतं त्रयोदशसु क्रियास्थानेषु यनाभिहितं पापस्थानं तद्विमणिपुराह--
॥३१७॥ अदुत्तरं च णं पुरिसविजयं विभंगमाइक्खिस्सामि, इह खलु णाणापपणाणं णाणाछंदाणं णाणासीलाणं १रः स्थितितः प्र. २ 'मिथ्या न भाषामि विशालनेो ।' इति यत्परस्मै ।
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अथ पापस्थानानी आरभ्यते
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३०], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३०]
दीप अनुक्रम [६६२]
जाणाविहीणं णाणालाईणं जाणारंभाणं णाणाज्झवसाणसंजुत्ताणं णाणाविहपावसुयज्झयणं एवं भवह, तंजहा-भोमं उपायं सुविणं अंतलिक्खं अंगं सरं लक्खणं बंजणं इत्थिलक्षणं पुरिसलक्खणं हयलक्षणं गयलक्षणं गोणलक्षणं मिडलक्खणं कुकडलक्षणं तित्तिरलक्वणं वगलक्खणं लावयलक्षणं चक्कलक्खणं छत्तलक्रवणं चम्मलक्षणं दंडलवणं असिलक्षणं मणिलक्षणं कागिणिलवणं सुभगाकर दुभगाकरं गम्भाकरं मोहणकरं आहबणि पागसासणि दवहोम खत्तियविजं चंदचरियं सरचरियं सुक्कचारियं बहस्सइचरियं उक्कापायं दिसादाहं मियचकं वायसपरिमंडलं मुढि केसवुढि मंसबुद्धि रुहिरवुद्धिं वेतालिं अद्भवेतालिं ओसोवर्णि तालुगधाडणि सोवागिं सोवरिं दामिलि कालिंगि गोरि गंधार ओवनणि उप्पयणि जंभणि थंभणि लेसणि आमयकरणिं विसल्लकरणिं पक्कमणिं अंतद्धाणि आयमिणिं, एवमाइआओ विजाओ अन्नस्स हे पउंजंति पाणस्स हेउं पउंजंति बत्थस्स हे पउंजंति लेणस्स हे पउंजति सयणस्स हेर्ड पति, अन्नसिं वा विरूवरूवाणं कामभोगाण हेउं पति, तिरिच्छं ते विजं सेवेति, ते अणारिया विप्पडिवना कालमासे कालं किच्चा अन्नयराई आसुरियाई किब्यिसियाई ठाणाई उववत्तारो भवंति, ततोऽवि विष्पमुचमाणा भुजो एलमूयताए तमअंधयाए पञ्चायति ॥ सूत्रं ३०॥
अस्मात्रयोदशक्रियास्थानप्रतिपादनादुत्तरं यत्र न प्रतिपादितं तदधुनोत्तरभूतेनानेन सूत्रसंदर्भण प्रतिपाद्यते, यथाऽऽचारे प्रथ-11 हमश्रुतस्कन्धे यन्माभिहितं तदुत्तरभूताभिलिकाभिः प्रतिपाद्यते, तथा चिकित्साशाखे मूलसंहितायां श्लोकस्थाननिदानशारीरचि-10
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३०], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३०]]
२ श्रुतस्क- न्धे शीला- कायावृत्तिः ३
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दीप
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कित्सितकल्पसंज्ञकायां यन्नाभिहितं तदुत्तरेऽभिधीयते, एवमन्यत्रापि छंदश्चित्यादावुत्तरसद्भावोजगन्तव्यः, तदिहापि पूर्वेण रक्रियायनाभिहितं तदनेनोत्तरग्रन्थेन प्रतिपाद्यत इति, चः समुच्चये, णमिति वाक्यालङ्कारे, पुरुषा विचीयन्ते-मृग्यन्ते विज्ञानदारेणा- स्थानाध्य. न्वेष्यन्ते येन स पुरुषविचयः पुरुषविजयो वा-केषाञ्चिदल्पसचानां तेन ज्ञानलवेनाविधिप्रयुक्तेनानर्थानुवन्धिना विजयादिति, भौमादिनस च विभङ्गवद्-अवधिविपर्ययवभिङ्गो-ज्ञानविशेषः पुरुषविचयश्चासौ विभङ्गश्च पुरुषविचयविभङ्गस्तमेवंभूतं ज्ञानविशेषमाख्यास्या
योक्तःफलं मि-प्रतिपादयिष्यामि, यादृशानां चासौ भवति ताल्लेशतः प्रतिपादयितुमाह-इह ग्वलु' इत्यादि, 'इह' जगति मनुष्यक्षेत्रे प्रवचने का नानाप्रकारा-विचित्रक्षयोपशमात् प्रज्ञायतेऽनयेति प्रज्ञा सा चित्रा येपां ते नानाप्रज्ञाः, तया चाल्पाल्पतराल्पतमया चिन्त्यमानाः पुरुषाः पदस्थानपतिता भवन्ति, तथा छन्द:-अभिप्रायः स नाना येषां ते तथा तेषां, नानाशीलानां तथा नानारूपा दृष्टिः-अन्तःकरणाप्रवृत्तिर्येषां ते तथा तेषामिति, तेषां च त्रीणि शतानि त्रिपवधिकानि प्रमाणमवगन्तव्यं, तथा नाना | रुचिर्येषां ते नानारुचयः, तथाहि--आहारविहारशयनासनाच्छादनाभरणयानवाहनगीतवादित्रादिषु मध्येऽन्यथान्याऽन्यस्थान्या 18 रुचिर्भवति तेषां नानारुचीनामिति, तथा नानारम्भाणां कृषिपाशुपाल्यविपणिशिल्पकर्मसेवादिष्वन्यतमारम्भेणेति, तथा नानाध्यवसायसंयुतानां शुभाशुभाध्यवसायभाजामिहलोकमात्रप्रतिबद्धानां परलोकनिष्पिपासानां विषयतृषितानामिदं नानाविध | पापश्रुताध्ययनं भवति, तद्यथा-भूमौ भवं भौमं निघोतभूकम्पादिकं, तथोत्पातं कपिहसितादिक, तथा स्वप्नं-गजवृषभसिंहादिकं, ॥३१८॥
तथाऽन्तरिक्षम्-अमोधादिकं, तथा अङ्गे भवमानम् अक्षिबाहुस्फुरणादिकं, तथा स्वरलक्षणं का कवरगम्भीरखरादिक, तथा | लक्षणं यवमत्स्यपद्मशङ्खचक्रश्रीवत्सादिकं व्यञ्जन-तिलकमषादिक, तथा स्त्रीलक्षणं रक्तकरचरणादिकं, एवं पुरुषादीनां
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३०], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३०]
दीप अनुक्रम [६६२]
शिकाकिणीरलपर्यन्तानां लक्षणप्रतिपादकशास्त्रपरिज्ञानमवगन्तव्यम् । तथा मत्रविशेषरूपा विद्याः, तद्यथा-दुर्भगमपि सुभगमाक-18 | रोति सुभगाकरां, तथा सुभगमपि दुर्भगमाकरोति दुर्भगाकरां, तथा गर्भकरां-गर्भाधान विधायिनी, तथा मोहो-व्यामोहो वेदोदयो।
वा तत्करणशीलामाथर्वणीमाथर्वणाभिधानां सद्योऽनर्थकारिणी विद्यामधीयते, तथा पाकशासनीम् [आथर्वणीम् ] इन्द्रजालसं-11 | झिका तथा नानाविधैर्द्रव्यैः-कणवीरपुष्पादिभिर्मधुघृतादिभिर्वोच्चाटनादिकः कार्यहोमो-हवनं यस्यां सा द्रव्यहवना तां, तथा क्षत्रियाणां विद्या धनुर्वेदादिकाऽपरा वा या खगोत्रक्रमेणायाता तामधीत्य प्रयुञ्जते, तथा नानाप्रकारं ज्योतिषमधीत्य व्यापारयतीति दर्शयति-'चंदचरिय' मित्यादि, चन्द्रस्य-ग्रहपतेश्वरितं चन्द्रचरितमिति, तब वर्णसंस्थानप्रमाणप्रभानक्षत्रयोगराहुग्रहा|दिक, सूर्यचरितं सिद-सूर्यस्य मण्डलपरिमाणराशिपरिभोगोद्योतावकाशराहूपरागादिकं, तथा शुकचारो-वीथीत्रयचारादिका, तथा बृहस्पतिचारः शुभाशुभफलप्रदः संवत्सरराशिपरिभोगादिकध, तथोल्कापाता दिग्दाहाथ वायच्यादिषु मण्डलेषु भवन्तः शखाप्रिक्षुत्पीडाविधायिनो भवन्ति, तथा मृगा-हरिणशगालादय आरण्यास्तेषां दर्शनरुतं ग्रामनगरप्रवेशादौ सति शुभाशुभं यत्र
[चिन्त्यते तन्मृगचक्र, तथा वायसादीनां पक्षिणां यत्र खानदिरुखराश्रयणात् शुभाशुभफलं चिन्त्यते तद्वायसपरिमण्डलं, तथा IS पासुकेशमांसरुधिरादिवृष्टयोऽनिष्टफलदा यत्र शाखे चिन्त्यन्ते तत्तदभिधानमेव भवति, तथा विद्या नानाप्रकाराः क्षुद्रकर्मकारि18|ण्यः, साधेमा:-चैताली नाम विधा नियताक्षरप्रतिवद्धा, सा च किल कतिभिजेपैदण्डमुत्थापयति, तथाऽर्धवैताली तमेवोपशमयति,
तथाऽप(व वापिनी तालोद्घाटनी श्वपाकी शाम्बरी तथाऽपरा द्राविडी कालिङ्गी गौरी गान्धार्यवपतन्युत्पतनी जृम्भणी स्तम्भनी श्लेपणी आमयकरणी विशल्यकरणी प्रक्रामण्यन्तर्धानकरणीत्येवमादिका विद्या अधीयते, आसां चार्थः संज्ञातोऽवसेय इति,
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३०], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३०]
दीप अनुक्रम [६६२]
सूत्रकृताङ्गे नवरं शाम्बरीद्रापिडीकालिङ्गयस्त देशोद्भवास्तद्भापानिबद्धा वा चित्रफलाः, अवपतनी तु जपन् खत एव पतत्यन्य वा पातयत्वे- २ क्रिया२ श्रुतस्क-1 मुत्पतन्यपि द्रष्टच्या । तदेवमेवमादिका पिया आदिग्रहणात्प्रज्ञत्यादयो गृयन्ते । एताब विद्याः पापण्डिका अविदित्तपरमार्था खानाध्य.
| गृहस्था वा खयूथ्या वा द्रच्पलिङ्गधारिणोऽनपानाधर्थ प्रयुञ्जन्ति, अन्येषां वा विरूपरूपाणाम्-उच्चावचानां शब्दादीनां काम- अधमपक्षः कीयावृत्तिः भोगानां कृते प्रयुञ्जन्ति । सामान्येन विद्याऽऽसेवनमनिष्टकारीति दर्शयितुमाह-'तिरिच्छ'मित्यादि, तिरबीनाम् अननुकला ||
ऽनुगामुक
त्वाद्याः ॥३१९॥
| सदनुष्ठानप्रतिघातिका ते अनार्या विप्रतिपमा विद्या सेवन्ते, ते च यद्यपि क्षेत्रार्या भाषार्यास्तथापि मिथ्याखोपहतबुद्धयोऽमार्यकमकारितादनार्या एव द्रष्टव्याः, ते च खायुषः क्षये कालमासे कालं कृता यदि कथञ्चिदेवलोकगामिनो भवन्ति ततोज्यतरेषु
आसुरीयकेषु किल्बिषिकादिषु स्थानेपूत्पत्स्यन्ते, ततोऽपि विप्रमुक्ताः-च्युता यदि मनुष्येषूत्पद्यन्ते, तत्र च तत्कर्मशेषतयैडमूकले18 नाव्यक्तभाषिणस्तमस्वेनान्धतया मूकतया वा प्रत्यागच्छन्ति, ततोऽपि नानाप्रकारेषु यातनास्थानेषु नरकतिर्यगादिषुत्पद्यन्ते ।। | साम्प्रतं गृहस्थानुद्दिश्याधर्मपक्षसेवनमुच्यते
से एगइओ आयोउं वा णापहे वा सयणहेउं वा अगारहेड वा परिचारहे वा नायगं वा सहवासियं वा णिस्साए अदुवा अणुगामिए १ अदुवा उवचरए २ अदुवा पडिपहिए ३ अदुवा संधिछेदए ४ अदुषा । गंठिछेदए ५ अदुवा उरम्भिए ६ अदुवा सोवरिए ७ अदुवा वागुरिए ८ अदुवा साउणिए ९ अदुवा मच्छिए १० अदुधा गोघायए ११ अदुवा गोवालए १२ अदुवा सोवणिए १३ अदुवा सोवणियंतिए १४ ॥ एगइओ आणुगामियभावं पडिसंधाय तमेव अणुगामियाणुगामियं हंता ऐसा भेत्ता लुपहत्ता विलुंपत्ता
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శాంతి తరంగాలను
॥३१९॥
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३१], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
दीप अनुक्रम [६६३]
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उहवइत्ता आहारं आहारेति, इति से महया पावहिं कम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ ॥ से एगइओ उवचरयभावं पडिसंधाय तमेव उवचरियं हंता छेत्ता भेत्ता लुपइत्ता विलुपइसा उहचइत्ता आहारं आहारेति, इति से महया पावेहिं कम्मेहिं अत्ताणं उबक्खाइत्ता भवइ ॥ से एगइओ पाडिपहियभावं पडिसंधाय तमेव पाडिपहे ठिच्चा हंता छेत्ता भेत्ता लुंपइत्ता विलुपइत्ता उद्दवइत्ता आहारं आहारेति, इति से महया पावेहिं कम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ ।। से एगइओ संधिछेदगभावं पडिसंधाय तमेव संधिं छेत्ता भेत्ता जाच इति से महया पावहिं कम्मेहिं अत्ताणं उवक्वाइत्ता भवइ ।। से एगइओ गंठिछेदगभावं पडिसंधाय तमेव गंठिं छेत्ता भेत्ता जाय इति से. महया पावहिं कम्मेहि अत्ताणं उवक्वाइसा भवद ॥ से एगइओ उरम्भियभावं पडिसंधाय उरभ वा अण्णतरं वा तसं पाणं हंसा जाब उबक्खाइसा भवइ । एसो अभिलायो सवत्थ ॥ से एगइओ सोयरियभावं पडिसंधाय महिसं वा अण्णतरं वा तसं पाणं जाव उवक्खाइत्ता भवह ॥ से एगइओ चागुरियभावं पडिसंधाय मियं वा अण्णतरं वा तसं पाणं हंता जाव उवक्खाइत्ता भवइ ॥ से एगइओ सउणियभावं पडिसंधाय सउर्णि वा अण्णतरं वा तसं पाणं हंता जाव उचक्खाइसा भवइ ॥ से एगइओ मच्छियभावं पडिसंधाय मच्छं वा अण्णतरं वा तसं पाणं हंता जाव उवक्खाइसा भवइ ॥ से एगइओ गोघायभावं पडिसंधाय तमेव गोणं वा अण्णयरं वा तसं पाणं हंता जाव उवक्खाइसा भवइ ॥ से एगइओ गोवालभावं पडिसंधाय तमेव गोवालं था परिजविय
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३१], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
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सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्ककीयावृत्तिः ॥३२०॥
[३१]
दीप अनुक्रम [६६३]
परिजविय हंता जाव उवक्खाइत्ता भवइ ॥ से एगइओ सोवणियभावं पडिसंधाय तमेव सुणगं वा
R२ क्रियाअन्नयरं वा तसं पाणं हंता जाव उवक्खाइत्ता भव ॥ से एगइओ सोवणियंतियभावं पडिसंधाय तमेव
स्थानाध्य. मणुस्सं वा अन्नयरं वा तसं पाणं हंता जाव आहारं आहारेति, इति से महया पावहिं कम्मेहिं अत्ताणं अधमेपथेउवक्वाइत्ता भवइ ॥ सूत्रं ३१॥
ऽनुगामुकस एकः कदाचिनिस्त्रिंशः साम्प्रतापेक्षी अपगतपरलोकाध्यवसायः कर्मपरतया भोगलिप्सुः संसारस्वभावानुवती आत्मनिमित्तं त्वाधा: वेत्येतान्यनुगामुकादीन्यन्यकर्तव्यहेतुभूतानि चतुर्दशासदनुष्ठानानि विधत्ते, तथा-ज्ञातयः-खजनास्तनिमित्तं तथाऽगारनिमिर्च-गृ-18 हसंस्करणार्थ सामान्येन वा कुटुम्बार्थ परिवारनिमित्तं वा-दासीदासकर्मकरादिपरिकरकृते तथा ज्ञात एव ज्ञातकः-परिचितस्तमुद्दिश्य तथा सहवासिकं वा प्रतिवेश्मिकै निश्रीकृत्यैतानि वक्ष्यमाणानि कुर्यादिति संबन्धः । तानि च दर्शयितुमाह-'अदुवे
त्यादि, अथवेत्येवं वक्ष्यमाणापेक्षया पक्षान्तरोपलक्षणार्थः, गच्छन्तमनुगच्छतीत्यनुगामुकः, स चाकार्याध्यवसायेन विवक्षितस्थान8 कालाधपेक्षया विरूपकर्तव्यचिकीपुस्तं गच्छन्तमनुगच्छति, अथवा तस्सापकर्तव्यस्थापकारावसरापेक्ष्युपचरको भवति, अथवा का तख प्रातिपथिको भवति-प्रतिपथ-संमुखीनमागच्छति, अथवाऽऽत्मखजनार्थ संधिरछेदको भवति-चौर्य प्रतिपद्यते, अथवोर:| मेषेवरारभ्रिकः अथवा सौकरिको भवति, अथवा शकुनिभिः-पक्षिभिश्वरतीति शाकुनिकः अथवा वागुरया-मृगादिवन्धनरज्ज्वा || ॥३२०॥ || चरति वागुरिका, अथवा मत्स्यैश्वरति मात्स्यिका, अथवा गोपालभावं प्रतिपद्यते, अथवा गोपातकः स्याद् , अथवा श्वभिश्वरति || शौवनिकः शुनां परिपालको भवतीत्यर्थः, अथवा 'सोवणियं ति श्वभिः पापाद्धं कुर्वन्मृगादीनामन्तं करोतीत्यर्थः ।।
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आगम
(०२)
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सूत्रांक
[३१]
दीप
अनुक्रम [६६३ ]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [३१], निर्युक्तिः [१६८ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
तदेवमेतानि चतुर्दशाप्युद्दिश्य प्रत्येकमादितः प्रभृति विवृणोति — तत्रैकः कश्चिदात्माद्यर्थ अपरस्य गन्तुर्ग्रामान्तरं किञ्चिद्रव्यजातमवगम्य तदादित्सुस्तस्यैवानुगामुकभावं 'प्रतिसंधाय' सहगन्तुभावेनानुकूल्यं प्रतिपय विवक्षितवञ्चनावसरका लायपेक्षी तमेव गच्छन्तमनुव्रजति, तमेव चाभ्युत्थान विनयादिभिरत्यन्तोपचारैरुपचर्यानुब्रज्य च विवक्षितमवसरं लब्ध्वा तस्यासौ हन्ता दण्डादिभिः तथा छेत्ता खङ्गादिना हस्तपादादेः तथा भेत्ता वज्रमुष्ध्यादिना तथा लुम्पयिता केशाकर्षणादिकदर्थनतः तथा विलुम्पयिता कशाप्रहारादिभिरत्यन्तदुःखोत्पादनेन तथा अपद्रावयिता जीविताद्व्यपरोपणतो भवतीत्येवमादिकं कृखाऽऽहारमाहारयत्यसौ, एतदुक्तं भवति - गलकर्तकः कचिदन्यस्य घनवतोऽनुगामुकभावं प्रतिपद्य तं बहुविधैरुपायैर्विश्रम्भे पातयिखा भोगार्थी मोहान्धः साम्प्रतेक्षितया तस्य रिक्थवतोऽपकृत्याहारादिकां भोगक्रियां विधत्ते । इत्येवमसौ महद्भिः क्रूरैः कर्मभिः - अनुष्ठानैर्महापातकभूतैर्वा तीत्रानुभावैदर्घस्थिति कैरात्मानमुपख्यापयिता भवति, तथाहि - अयमसौ महापापकारीत्येवमात्मानं लोके ख्यापयति, अष्टप्रकारैर्वा कर्मभिरात्मानं तथा बन्धयति यथा लोके तद्विपाकापादितेनावस्थाविशेषेण सता नारकतिर्यङ्नरामररूपतयाऽख्यात इति । तदेवमेकः कचिदकर्तव्याभिसंधिना परस्य स्वापतेयवतस्तद्वञ्चनार्थमुपचरकभावं 'प्रतिसंधाय प्रतिज्ञाय पश्चातं नानाविधैर्विनयोपायैरुपचरति, उपचर्य च विश्रम्भे पातथिवा तद्रव्यार्थी तस्य हन्ता छेत्ता भेता यावदपद्रावयिता भवतीत्येवमसावात्मानं 'महद्भिः' बृहद्भिः पापैः कर्मभिः उपाख्यापयिता भवतीति ॥ अथैकः कश्चित्प्रतिपथेन-अभिमुखेन चरतीति प्रातिपथिकस्तद्भावं प्रतिपद्या परस्यार्थवतस्तदेव प्रातिपथिकत्वं कुर्वन् प्रतिपथे स्थिता तस्यार्थवतो विश्रम्भतो हन्ता छेता यावदपद्रावयिता भवतीत्येवमसावात्मानं पापैः कर्मभिः ख्यापयतीति । अथैकः कश्विद्विरूपकर्मणा जीवितार्थी 'संधिच्छेदक भाव'
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३१], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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दीप अनुक्रम [६६३]
मूत्रकृताङ्गेखत्रखननसं प्रतिपद्यानेनोपायेनात्मानमहं कर्तयिष्यामीत्येवं प्रतिज्ञा कृता तमेव प्रतिपद्यते, ततोऽसौ संधि छिन्दन खत्रं खनन । २ क्रिया२श्रुतस्क- प्राणिनां (हन्ता) छेना भेत्ता विलुम्पयिता भवतीति, एतच कखाऽऽहारमाहारयतीति, एतचोपलक्षणमन्यांच कामभोगान् ||२||
स्थानाध्य० न्धे शीला- स्वतो भुलेऽन्यदपि शातिगृहादिकं पालयतीत्येवमसी महद्भिः पापैः कर्मभिरात्मानमुपल्यापयति ।। अर्थकः कबिदसदनुष्ठायी ||
अधर्मपक्षेझीयावृत्तिः 8 घुघुरादिना ग्रन्थिच्छेदकभावं प्रतिपद्य तमेवानुयाति, शेषं पूर्ववत् ॥ अथैकः कश्चिदधर्मकर्मवृत्तिः उरभ्रा-उरणकास्तैश्चरति
ऽनुगामुक॥३२॥
यः स औरधिकः, स च तदूर्णया तन्मांसादिना वाऽऽत्मानं वर्तयति, तदेवमसौ तद्भाव प्रतिपद्योरनं वाज्यं वा त्रसं प्राणिनं खमांसपुष्टयर्थ व्यापादयति, तस्य वा हन्ता छेत्ता भेत्ता भवतीति शेषं पूर्ववत् ॥ अत्रान्तरे सौकरिकपदं, तच्च स्वबुद्धा व्याख्येय, सौकरिका:-श्वपचाश्चाण्डाला. खट्टिका इत्यर्थः ॥ अथैकः कश्चित् क्षुद्रसच्चो 'वागुरिकभावं' लुब्धकलं 'प्र|तिसंधाय' प्रतिपय वागुरया 'मृग' हरिणमन्यं वा वसं प्राणिनं शशादिकमात्मवृत्यर्थ खजनावर्थ वा व्यापादयति, तस्य च
हन्ता छेत्ता मेत्ता भवति, शेष पूर्ववत् ।। अथैकः कश्चिदधमोपायजीवी शकुना-लावकादयस्तैश्चरति शाकुनिकस्तद्भाव प्रति| संधाय तन्मांसाद्यर्थी शकुनमन्यं वा त्रसं ग्यापादयति, तस्य च हननादिकां क्रियां करोतीति, शेषं पूर्ववत् ॥ अथैकः 181 |कश्विदधमाधमो मात्स्यिकमा प्रतिपद्य मत्स्य वाऽन्य(वा)जलचरं प्राणिनं व्यापादयेत् , हननादिकाः वा क्रियाः कुर्यात् , शेषं । | सुगमम् || अर्थकः कश्चिद्गोपालकभावं प्रतिपद्य कस्याविद्गोः कुपितः सन् तां गां 'परिविच्य' पृथक् कृखा तथा हन्ता ॥३२॥ | छेत्ता भेत्ता भूयो भूयो भवति, शेषं पूर्ववत् ॥ अथैकः कश्चित्क्रूरकर्मकारी गोपातकमावं प्रतिपद्य गामन्यतरं वा त्रसं|| प्राणिनं व्यापादयेत् , तस्य च हननादिकाः क्रियाः कुर्यादिति ॥ अथैकः कश्चिज्जघन्यकर्मकारी 'शौवनिकभावं प्रति
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अनुक्रम [६६३]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [३१], निर्युक्तिः [१६८ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
पथ' सारमेयपापर्द्धिभावं प्रतिज्ञाय तमेव श्वानं तेन वा 'परं' मृगसूकरादिकं असं प्राणिनं व्यापादयेत् तस्य च हननादिकाः क्रियाः कुर्यादिति । अथैकः कथिदनाय निर्विवेकः 'सोवणियंतिय भावं'ति श्रभिवरति शौवनिकः अन्तोऽस्यास्तीत्यन्तिकोइन्ते वा चरत्यान्तिकः पर्यन्तवासीत्यर्थः, शौवनिकवासावान्तिकथ शौवनिकान्तिकः -- क्रूर सारमेयपरिग्रहः प्रत्यन्तनिवासी च प्रत्यन्तनिवासिभिर्वा श्रभिवरतीति, तदसौ तद्भावं प्रतिसंधाय दुष्टसारमेयपरिग्रहं प्रतिपद्य, मनुष्यं वा कञ्चन पथिकमभ्यागतमन्यं वा मृगसूकरादिकं असं प्राणिनं हन्ता भवति, अयं च ताच्छीलिकस्तृन् द्रप्रत्ययो वा द्रष्टव्यः तृचि तु साध्याहारं प्राग्वव्याख्येयं तद्यथा- पुरुषं व्यापादयेत् तस्य च हन्ता छेता इत्यादि, तुन्तुद्रप्रत्ययौ प्रागपि योजनीयाविति । तदेवमसी महाक्रूरकर्मकारी महद्भिः कर्मभिरात्मानमुपख्यापयिता भवतीति । उक्ताऽसदाजीवनोपायभूता वृत्तिः, इदानीं कचित्कुतश्चिन्नि मित्तादभ्युपगमं दर्शयति
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से एगइओ परिसामज्झाओ उट्टित्ता अमेयं हणामित्तिकडु तित्तिरं वा वहगं वा लावगं वा कवोयगं वा जिला अन्न वा तसं पाणं हंता जाव उवक्वाइन्ता भवइ ॥ से एगहओ केणइ आयाणेणं विरुद्धे समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराधालएणं गाहाबतीण वा गाहावइपुताण वा सयमेव अगfuaryणं सस्साई झामेइ अनेणवि अगणिकाएणं सस्साई सामावेश अगणिकाएणं सस्साई झामतंपि अन्नं समजाण इति से महया पावकम्मेहिं अत्ताणं उबक्स्वाइत्ता भव || से एगइओ केणइ आयाणेणं विरुद्धे समाणे अडवा ग्वलदाणेणं अदुवा सुराधालपणं गाहावतीण वा गाहावपुत्ताण वा
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३२], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
२ क्रियास्थानाध्य.
प्रत सूत्रांक [३२]
सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥३२२॥
नैमित्तिका
| धमवृत्तिः
दीप अनुक्रम [६६४]
उहाण वा गोणाण वा घोडगाण वा गद्दभाण वा सयमेव घूराओ कप्पेति अन्नणवि कप्पावति कप्पतपि अन्नं समणुजाणइ इति से महया जाव भवइ ॥ से एगइओ केणइ आयाणेणं विरुद्धे समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराधालएणं गाहावतीण वा गाहावइपुत्ताण वा उसालाओ वा गोणसालाओ वा घोडगसालाओ वा गद्दभसालाओ वा कंटकवोंदियाए पडिपेहित्ता सयमेव अगणिकाएणं झामेइ अन्नेणवि झामावेइ झामंतंपि अन्नं समणुजाणइ इति से महया जाच भवइ ॥ से एगइओ केणइ आयाणेणं विरुद्धे समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराधालएणं गाहावतीण वा गाहावइपुत्ताण वा कुंडलं वा मणिं वा मोत्तियं वा सयमेव अवहरइ अन्नेणवि अवहरावह अवहरंतंपि अन्नं समणुजाणइ इति से महया जाव भव ॥ से एगइओ केणइबि आदाणेणं विरुद्ध समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराथालएणं समणाण वा माहणाण वा छत्सगं वा दंडगं वा भंडगं वा मत्सर्ग वा लर्हि वा भिसिगं वा चेलगं वा चिलिमिलिगं वा चम्मयं वा छेयणगं वा चम्मकोसियं वा सयमेव अवहरति जाव समणुजाणइ इति से महया जाव उवक्खाइत्ता भवह ॥ से एगइओ णो वितिगिंका तं०-गाहावतीण वा गाहावइपुत्ताण वा सयमेव अगणिकाएणं ओसहीओ झामेह जाव अन्नपि झामतं समणुजाणइ इति से महया जाय उवक्खाइत्ता भवति ॥ से एगइओ णो वितिगिंछइ, तं०-गाहावतीण वा गाहावइपुत्ताण वा उहाण वा गोणाण वा घोडगाण वा गद्दभाण वा सयमेव घूराओ कप्पेद अन्नेणवि कप्पावे
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॥३२२॥
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३२], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३२]
दीप अनुक्रम [६६४]
ति अन्नपि कप्पतं समणुजाणइ ॥ से एगइओ णो वितिगिंछह तं०-गाहावतीण बा गाहावइपुत्ताण वा उसालाओ वा जाव गहभसालाओ वा कंटकवोंदियाहिं पडिपेहित्ता सयमेव अगणिकाएक झामेइ जाँच समणुजाणइ ॥ से एगइओ णो वितिगिंछह, तं०-गाहावतीण वा गाहावापुत्ताण वा जाव मोतियं वा सयमेव अवहरह जाव समणुजाणइ ॥ से एगइओ णो वितिगिंछइ तं०-समणाण वा माहणाण या उत्सगं वा दंडगं वा जाव चम्मच्छेदणगं वा सयमेव अवहरद जाव समणुजाणइ इति से महया जाव उबक्खाइत्ता भव ॥ से एगइओ समणं वा माहणं वा दिस्सा णाणाबिहेहिं पावकम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ, अदुवा णं अच्छराए आफालित्ता भवइ, अदुवा णं फरुसं वदित्ता भवाइ, कालेणचि से अणुपचिट्ठस्स असणं वा पाणं वा जाव णो दवावेत्ता भवइ, जे इमे भबन्ति बोनमंता भारवंता अलसगा वसलगा किवणगा समणगा पवयंति ते इणमेव जीवितं धिजीवितं संपडिव्हेंति, नाइते परलोगस्स अट्ठाए किंचियि सिलीसंति, ते दुक्खंति ते सोयंति ते जूरंति ते तिप्पंति ते पिट्टति ते परितप्पति ते दुखणजूरणसोयणतिप्पणपिट्टणपरितिप्पणवहबंधणपरिकिलेसाओ अप्पडिविरया भवंति, ते महया आरंभेणं ते महया समारंभेणं ते महया आरंभसमारंभेणं विरूवरूवेहिं पावकम्मकिच्चेहिं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजित्तारो भवंति, तंजहा-अन्नं अन्नकाले पाणं पाणकाले वत्थं वत्थकाले लेणं लेणकाले सयणं सयणकाले सपुवावरं च ण पहाए कयबलिकम्मे
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३२], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
सूत्रकृताङ्गे
प्रत सूत्रांक [३२]
२ श्रुतस्कन्धे शीला-1 कीयावृत्तिः ॥३२३॥
दीप अनुक्रम [६६४]
कयकोउयमंगलपायरिछते सिरसा पहाए कंठमालाकडे आविद्धमणिमुवन्ने कप्पियमालामउली परिबद्ध- २ क्रियासरीरे बग्घारियसोणिसुत्तगमल्लदामकलावे अहतवस्थपरिहिए चंदणोक्खित्तगायसरीरे महतिमहालिया
स्थानाध्य० ए कूडागारसालाए महतिमहालयंसि सीहासणंसि इत्थीगुम्मसंपरिबुडे सचराइएणं जोइणा झियायमा
अधर्मपक्षे
भोगिनः णेणं महयाहयनहगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडपवाइयरवेणं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरह, तस्स णं एगमवि आणवेमाणस्स जाव चत्तारि पंच जणा अवुत्ता चेव अन्भुटुंति, भणह देवाणुप्पिया ! किं करेमो ? किं आहरेमो? किं उवणेमो ? किं आचिट्ठामो ! किंभे हियं इच्छियं ? किं भे आसगस्स सयइ?, तमेव पासित्ता अणारिया एवं वयंति-देवे खलु अयं पुरिसे, देवसिणारा खल्लु अयं पुरिसे, देवजीवणिजे खलु अयं पुरिसे, अन्नेवि य गं उवजीवंति, तमेव पासित्ता आरिया वयंति-अभितकरकम्मे ग्बलु अयं पुरिसे अतिधुन्ने अइयायरक्वे दाहिणगामिए नेरहए कण्हपक्विा आगमिस्साणं दुल्लहबोहियाए यावि भविस्सइ ।।श्चेयस्स ठाणस्स उडिया वेगे अभिगिझंति अणुडिया वेगे अभिगिजांति अभिझंझाउरा अभिगिनंति, एस ठाणे अणारिए अकेवले अप्पडिपुग्ने अणेयाउए असंसुद्धे असल्लगत्तणे असिद्धिमग्गे अमुत्तिमग्गे अनिवाणमग्गे अणिजाणमग्गे असदुक्खपही
॥३२॥ णमग्गे गगतमिकछे असाहु एस ग्वलु पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्वस्स विभंगे एवमाहिए ॥ सूत्रं ३२॥ अयं चात्र पूर्वमाद्विशेषः-पूर्वत्र वृत्तिः प्रतिपादिता प्रच्छन वा प्राणव्यपरोपणं कुर्यात् , इह तु कुतविधिमित्तात्साक्षासनमध्ये 18
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३२], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३२]
दीप अनुक्रम [६६४]
IS| पाणिच्यापादनप्रतिज्ञां विधायोपरछप्त इति दर्शयति । अथैकः कश्चिन्मांसादनेच्छया व्यसनेन क्रीडया कुपितो वा पर्षदो मध्या-13 ॥ दभ्युस्थायैवंभूतां प्रतिज्ञां विदध्यात्-यथाऽहम् 'एनं वक्ष्यमाणं प्राणिनं हनिष्यामीति प्रतिज्ञा कृला पश्चात्तित्तिरादिकं हन्ता
भेत्ता छेनेति ताच्छीलिकस्तन् लुट्प्रत्ययो वा, तस्य वा हन्तेत्यादि, यावदात्मानं पापेन कर्मणा ख्यापयिता भवतीति ॥
इह चाधर्मपाक्षिकेष्वभिधीयमानेषु सर्वेऽपि प्राणिद्रोहकारिणः कथञ्चिदभिधातव्याः, तत्र पूर्वमनपराधकुद्धा अभिहिताः, साम्प्रतसमपराधकुद्धान् दर्शयितुमाह-से एगइओ' इत्यादि, अथैका कश्चित्प्रकृत्या क्रोधनोऽसहिष्णुतया केनचिदादीयत इत्यादानं-181 | शब्दादिकं कारणं तेन विरुद्धः समानः परस्यापकुर्यात् , शब्दादानेन तावत्केनचिदाकृष्टो निन्दितो वा वाचा विरुध्येत, रूपादा-18
नेन तु बीभत्सं कश्चन दृष्ट्वाऽपशकुनाध्यवसायेन कुप्येत, गन्धरसादिक खादानं मूत्रेणैव दर्शयितुमाह-अथवा खलव-कुथिता-R | दिविशिष्टस्य दानं खलख पाल्पधान्यादेदानं खलदानं तेन कुपितः, अथवा सुरायाः स्थालक-कोशकादि तेन विवक्षितलाभा-18 Nभावात् कुपितः गृहपत्यादेरेतत् कुर्यादित्याह-स्वयमेवाग्निकायेन अग्निना तत्सस्यानि-खलकवर्तीनि शालिव्रीह्यादीनि 'ध्मापयेद्'। Sil दहेदन्येन वा दाहयेदहतो वाऽन्यान्समनुजानीयादित्येवमसी महापापकर्मभिरात्मानमुपख्यापयिता भवतीति ।। साम्प्रतमन्येन । प्रकारेण पापोपादानमाह-अधकः कश्चित्केनचित्तु खलदानादिनाऽऽदानेन गृहपत्यादेः कुपितस्तत्संबन्धिन उष्ट्रादेः स्वयमेवआत्मना परश्वादिना 'धूरीया(रा)ओ'त्ति जडाः खलका वा 'कल्पयति' छिनति अन्येन वा छेदयति अन्यं वा छिन्दन्तं समनुजा
नीते, इत्येवमसावात्मानं पापेन कर्मणोपाख्यापयिता भवति ।। किञ्च अथैकः कश्चिकेनचिनिमित्तेन गृहपत्यादेः कुपितस्तत्सं४बन्धिनामुष्ट्रादीनां शाला-गृहाणि 'कंटकवोंदियाए नि कण्टकशाखाभिः 'प्रतिविधाय' पिहिला स्थगिखा खयमेवाग्निना
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
[३२]
दीप
अनुक्रम [६६४ ]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३२], निर्युक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
सूत्रकृताङ्गे
२ श्रुतस्क
॥ ३२४ ॥
दहेत् । शेषं पूर्ववत् । अपिच--अर्थकः कश्चित्केनचिदादानेन कुपितो गृहपत्यादेः संबन्धि कुण्डलादिकं द्रव्यजातं स्वयमेवापहरेदवशिष्टं पूर्ववत् ॥ साम्प्रतं पाखण्डिकोपरि कोपेन यत्कुर्यात्तदर्शयितुमाह-अथैकः कवित्वदर्शनानुरागेण वा वादपरा न्धे शीला- १) जितो वायेन वा केनचिन्निमित्तेन कुपितः सभेतत्कुर्यादित्याह तद्यथा श्राम्यन्तीति श्रमणास्तेषामन्येषामपि तथाभूतानां कीयावृत्तिः केनचिदादानेन कुपितः सन् दण्डकादिकमुपकरणजातमपहरेत् अन्येन वा हारयेदन्यं वा हरन्तं समनुजानीयात् इत्यादि पूर्ववत् ॥ एवं तावद्विरोधिनोऽभिहिताः, साम्प्रतमितरेऽभिधीयन्ते -- अथैकः कश्चित् दृढमूढतया 'नो वितिछि ति न विमर्षति' न मीमांसते, यथाऽनेन कृतेन ममामुत्रानिष्टफलं स्यात्, तथा मदीयमिदमनुष्ठानं पापानुबन्धीत्येवं न पर्यालोचयति, तद्भावापञ्च यत्किञ्चनकारितया इहपरलोकविरोधिनीः क्रियाः कुर्यात् एतदेवोद्देशतो दर्शयति तद्यथा-गृहपत्यादेर्निर्निमित्तमेव - तत्कोपमन्तरेणैव स्वयमेवात्मनाऽनिकायेन - अग्निनौषधीः-शालिबीह्यादिकाः ध्मापयेत् — दहेत् तथाऽन्येन दाहयेद्दहन्तं च समनुजानीयादित्यादि । तथेहामुत्र च दोषापर्यालोचको निस्त्रिंशतया गृहपत्यादिसंबन्धिनां क्रमेलकादीनां जङ्घादीनवयवन्द्यिात् ॥ तथा शालां दहेत् ॥ तथा गृहपत्यादेः संबन्धि कुण्डलमणिमौक्तिकादिकमपहरेत् ॥ तथा श्रमगत्राह्मणादीनां दण्डादिकमुपकरणजातमपहरेदित्येवं प्राक्तना एवालापका आदानकुपितस्य येऽभिहितास्त एवं तदभावेनाभिधातव्या इति ॥ साम्प्रतं विपर्यस्तदृष्टयः आगाढ मिथ्यादृष्टयोऽभिधीयन्ते - अथैकः कश्चिदभिगृहीतमिध्यादृष्टिरभद्रकः साधुप्रत्यनीकतया श्रमणादीनां निर्गच्छतां प्रविशतां वा स्वतश्च निर्गच्छन् प्रविशन् वा नानाविधैः पापोपादानभूतैः कर्मभिरात्मानमुपख्यापयिता भवतीति एतदेव दर्शयति- ' अथवे' त्ययमुत्तरापेक्षया पक्षान्तरोपग्रहार्थः, कचित्साधुदर्शने सति मिथ्यात्खोपहतदृ
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१२ क्रियास्थानाध्य० अधर्मपक्षः
॥३२४||
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३२], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३२]
दीप अनुक्रम [६६४]
टितयाऽपशकुनोऽयमित्येवं मन्यमानः सन् राष्टिपथादपसारयन् साधुमुद्दिश्यावज्ञया 'अप्सराया' चप्पुटिकायाः आस्फालयिता भव-11 त्यथवा तत्तिरस्कारमापादयन् परुषं वचो ब्रूयात् , तद्यथा-ओदनमुण्ड ! निरर्थककायक्लेशपरायण दुर्बुद्धेऽपसराग्रतः, तदसौ भृकुटि वि-18 दध्यादसत्यं वा भूयात् , तथा भिक्षाकालेनापि 'से तस्य भिक्षोरन्येभ्यो भिक्षाचरेभ्योऽनु-पश्चात्प्रविष्टस्य सतोऽत्यन्तदुष्टतयानादेनों ||8|
दापयिता भवति, अपरं च दानोयतं निषेधयति तत्प्रत्यनीकतया, एतच ते थे इमे पापण्डिका भवन्ति त एवंभूता भवन्तीत्याह18'योण्ण'न्ति तृणकाष्ठहारादिकमधमकर्म तदू विद्यते येषां ते तद्वन्तः, तथा भारेण-पतुम्बभारेण पोहलिकादिभारेण वाऽऽक्रान्ताः| पराभग्राः सुखलिप्सवोऽलसा:-क्रमागतं कुटुम्ब पालयितुमसमथों: ते पाषण्डवतमाश्रयन्ति, तथा चोक्तम्-'गृहाश्रमपरो धर्मो, न भूतो ||| न भविष्यति । पालयन्ति नरा धन्याः, क्लीवाः पापण्डमाश्रितामा।।' इत्यादि, तथा 'वसलग ति पला-अधमाः शूद्रजातयतिवर्गप्रतिचारकाः, तथा 'कृपणाः क्लीबा अकिञ्चित्कराः श्रमणा भवन्ति-प्रव्रज्यां गृहन्तीति ।। साम्प्रतमेषामगारिकाणामत्यन्तविपर्यस्तमतीनामसद्वृत्तमाविर्भावयन्नाह ते हि साधुवर्गापवादिनः सद्धर्मप्रत्यनीका इदमेव 'जीवितं' परापवादोद्दद्दनजीवितं 'धिगजी[वितं' कुत्सितं जीवितं साधुजुगुप्सापरायणं संप्रतिवृहन्ति, एतदेवासवृत्तजीवितं प्रशंसन्तीति भावः। ते चेहलोकप्रतिबद्धाः साधुजु|| गुप्साजीविमो मोहान्धाः साधूनपवदन्ति, नापि च ते पारलौकिकस्वार्थस्य साधनम्-अनुष्ठान किश्चिदपि स्वल्पमपि 'श्लिष्यन्ति।
समाश्रयन्ति, केवलं से परान् साधून वागादिमिरनुष्ठानखयन्ति पीडामुत्पादयन्ति आत्मनः परेषां च, तथा तेऽज्ञानान्धास्तथा तस्कुर्वन्ति येनाधिकं शोषन्ते, परामपि शोचयन्ति-तुर्मापितादिमिः शोक चोत्पावयन्ति, तथा ते परान 'जूरयन्ति' गहेन्ति, तथा18 विष्यन्ति-सायावयन्त्यात्मानं पराश्य, तथा ते बराका अपुष्टवर्माणोऽसदनुष्टाना खतः पीयन्ते परांश्च पीडयन्ति, तथा ते पापे
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३२], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३२]
सूत्रकृताङ्गेन कर्मणा परितप्यन्ते अन्तर्दशन्तेपरांच परितापयन्ति । तदेवं तेऽसद्वृत्तयः सन्तो दुःखनशोचनादिक्लेशादप्रतिविरताः सदाभवन्ति।
२ क्रिया२ श्रुतस्क एवंभूताश्च सन्तस्ते महताऽऽरम्भेण-प्राणिव्यापादनरूपेण तथा महता समारम्भेण-प्राणिपरितापनरूपेण तथोभाभ्यामप्यारम्भस- स्थानाध्य न्धे शीला
मारम्भाभ्यां 'चिरूपरूपैश्च' नानाप्रकारः सावधानुष्ठानैः पापकर्मकृत्यैः 'उदारान्' अत्यन्तोटान् समग्रसामग्रीकान्मधुमद्यमांसा-18 झीयावृत्तिः छुपेतान् 'मानुष्यकान्' मनुष्यभवयोग्यान भोगेभ्योऽप्युत्कटान् भोगभोगान् ते सावधानुष्ठायिनो भोक्तारो भवन्ति । एतदेव दर्श-18
पक्षः ॥३२५॥ यितुमाह-'तंजहे त्यादि, तद्यथेत्युपप्रदर्शने, अन्नमन्त्रकाले यथेप्सितं तस्य पापानुष्ठानात्संपद्यते, एवं पानवखशयनासनादिकमपि।
सर्वमेतद्यथाकालं सपूर्वापरं संपद्यते, सह पूर्वेण-पूर्वाह्नकर्तव्येनापरेण च-अपराह्नकर्तव्येन यदिवा पूर्व यत् क्रियते स्नानादिक तथा परं च यत् क्रियते विलेपनभोजनादिकं तेन सह वर्तत इति सपूर्वापरम् , इदमुक्तं भवति-यद्यदा प्राथ्यते तत्तदा संपद्यत इति, अभिलषितार्थप्राप्तिमेव लेशनो दर्शयितुमाह-तद्यथा-विभूत्या स्नातस्तथा कृतं देवतादिनिमित्तं बलिकर्म येन स तथा, तथा
कृतानि कौतुकानि-अवतारणकादीनि मङ्गलानि च-सुवर्णचन्दनदध्यक्षतर्वासिद्धार्थकादर्शकस्पर्शनादीनि तथा दुःखमादिप्रति18| धातकानि प्रायश्चित्तानि येन स कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तः, तथा कल्पितश्चासौ मालाप्रधानो मुकुटव २ स तथा विद्यते यस्य स|
भवति कल्पितमालामुकुटी, तथा प्रतिबद्धशरीरो-दृढावयवकायो युवेत्यर्थः, तथा 'बग्घारिय'ति प्रलम्बितं श्रोणीसूत्रं-कटिसूत्र मल्लदामकलापश्च येन स तथा, तदेवमसौ शिरसिस्त्रातः नानाविधविलेपनावलिप्तथ कण्ठेकृतमालस्तथापरयथोक्तभूषणभूषितः॥४॥३२५|| सन्महत्याम्-उच्चायां 'महालियाएति विस्तीर्णायां कूटागारशालायां तथा 'महतिमहालये विस्तीर्णे 'सिंहासने' भद्रासने | | समुपविष्टः 'स्त्रीगुल्मेन' युवतिजनेन सार्द्धमपरपरिवारेण 'संपरिवृतो वेष्टितः, तथा 'महता' बृहत्तरेण प्रहतनाट्यगीतवादित्र-18
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३२], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३२]
दीप अनुक्रम [६६४]
शतव्यादिरवेणोदारान्मानुष्यकान् भोगभोगान्भुञ्जानो 'विहरति' प्रविचरति विजृम्भतीत्यर्थः ।। तस्य च कचित्प्रयोजने समुत्पन्ने
सति एकमपि पुरुषमाज्ञापयतो यावच्चत्वारः पञ्च वा पुरुषा अनुक्ता एव समुपतिष्ठन्ते, ते च किं कुर्वाणाः, एतद्ब्रक्ष्यमाणमूचुः,
तद्यथा-भण-आज्ञापय स्वामिन् ! धन्या वयं येन भवताऽप्येवमादिश्यन्ते, किं कुर्म इत्यादि सुगम, यावद्धदयेप्सितमिति, तथा 1] किं च 'ते' युष्माकम् 'आस्यकस्य मुखस्य 'खदते' खादु प्रतिभाति १, यदिवा यदेवास्य-भवदीयास्यस्य स्रवति
निर्गच्छति तदेव वयं कुर्म इति । तथा 'नमेवेत्यादि, तमेव राजानं तथा क्रीडमानं दृष्ट्वा अन्येऽनार्या एवं वदन्ति, तद्यथा
देवः खल्वयं पुरुषः, तथा 'देवस्नातको' देवश्रेष्ठो बहूनामुपजीव्यः, तथा तमेवं साम्प्रतेक्षितयाऽसदनुष्ठायिनं दृष्ट्वा 'आर्या' 18 विवेकिनः सदाचारवन्त एवं ब्रुवते, तद्यथा-अभिक्रान्तक्रूरकर्मा खल्वयं पुरुषो, हिंसादिक्रियाप्रवृत्त इत्यर्थः, तथा धूयते|| रेणुवद्वायुना संसारचक्रवाले भ्राम्यते येन तद्भूतं-कर्म, औणादिको नक्प्रत्ययः, अतीव---प्रभूतं धूतम्-अष्टप्रकारं कमें यस्य || सोऽतिधूतः, तथाऽतीवात्मनः पापैः कर्मभिः रक्षा यस्य सोऽत्यात्मरक्षः, तथा दक्षिणस्यां दिशि गमनशीलो दक्षिणगामुका, इद| मुक्तं भवति-यो हि क्रूरकर्मकारी साधुनिन्दापरायणस्तद्दाननिषेधकः स दक्षिणगामुको भवति-दाक्षिणात्येषु नरकतिर्यग्मनुष्याम | रेषु उत्पयते, तारग्भूतधायमतो दक्षिणगामुक इत्युक्तं, इदमेवाह-'नेरइए' इत्यादि, नरकेषु भवो नारका, कृष्ण पक्षोऽस्सा-12 स्तीति कृष्णपाक्षिका, तथा आगामिनि काले नरकादुद्वत्तो दुर्लभवोधिकवायं बाहुल्येन भविष्यति, इदमुक्तं भवति–दिक्षु मध्ये दक्षिणा दिग् अशस्ता, गतिषु नरकगतिः, पक्षयोः कृष्णपक्षः, तदस्य विषयान्धखेन्द्रियानुकूलवर्तिनः परलोकनिस्पृहमतेः साधु-पर प्रवेषिणो दानान्तरायविधायिनो दिगादिकमशस्तं दर्शितम् , अन्यदपि यदशस्तं तिर्यग्गत्यादिकमबोधिलाभादिकं च तद्योजनीय
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३२], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३२]
दीप अनुक्रम [६६४]
सूत्रकृताङ्गे शमसेति । एतद्विपरीतस्य तु विषयनिःस्पृहस्य इन्द्रियाननुकूलस्य परलोकभीरोः साधुप्रशंसावतः सदनुष्ठानरतस्यादक्षिणगामुकलं ||२ क्रिया२ श्रुतस्क-18 सुदेवलं शुरूपाक्षिकसं तथा सुमानुपसायातस्य सुलभवोधिखमित्येवमादिकं सद्धर्मानुष्ठायिनः सव भवतीति ।। साम्प्रतमुपसं-18| स्थानाध्य. न्धे शीला- जिघृक्षुराह-इत्येतस्य पूर्वोक्तस्य स्थानस्य ऐश्वर्यलक्षणस शृङ्गारमूलस्य सांसारिकस्य परित्यागबुद्ध्या एके केचन विपर्यस्तमतयः | अधार्मिककीयावृत्तिः
पापण्डिकोत्थानेनोत्थिताः परमार्थमजानाना 'अभिगिझंति'त्ति आभिमुख्येन 'लुभ्यन्ते' लोभवशगा भवन्तीत्यर्थः । तथा| पक्षः ॥३२६॥ एके केचन साम्प्रतक्षिणस्तस्मात्स्थानादनुपस्थिता गृहस्था एच सन्तः 'अभिझंझ'त्ति शम्झा-तृष्णा तदातुराः सन्तोऽर्थेष्व-1181
त्यर्थं लुभ्यन्ते, यत एवमतोऽदः स्थानमनार्यानुष्ठानपरखादनार्य महापुरुषानुचीर्ण न भवति, तथा न विद्यते केवलमसिन्नित्यके8वलम्-अशुद्धमित्यर्थः, तथेतरपुरुषाचीर्णखादपरिपूर्ण सद्गुणविरहात्तुच्छमित्यर्थः, तथा न्यायेन चरति नैयायिकं न नैयायिकमनै-|
यायिकम्-असच्यायवृत्तिकमित्यर्थः, तथा 'रगे लगे संवरणे शोभनं लगनं-संवरणं इन्द्रियसंयमरूपं सल्लगस्तद्भावः सल्ल-2 गसं न विद्यते सलगखमस्मिन्नित्यसल्लगलम् इन्द्रियासंवरणरूपमित्यर्थः, यदिवा शल्यवच्छल्यं मायानुष्ठानमकार्य तदायति-- कथयतीति, तच्छल्यर्ग यत्परिज्ञानं तन्नात्रेत्यशल्यगसमिति, तथा न विद्यते सिद्धेः--मोक्षस्य विशिष्ट स्थानोपलक्षितस्य मार्गों
यमिंस्तदसिद्धिमार्ग, तथा न विद्यते मुक्ते:-अशेषकर्मप्रच्युतिलक्षणाया मार्गः-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मको यसिस्तदमुक्तिमार्ग, & तथा न विद्यते परिनिर्धते:-परिनिर्वाणस्यात्मखास्थ्यापत्तिरूपस्य मार्गः-पन्था यस्मिन् स्थाने तदपरिनिर्वाणमार्ग, तथा न विद्यते |
||३२६॥ 1 सर्वदुःखाना-शारीरमानसानां प्रक्षयमार्गः सदुपदेशात्मको यस्मिंस्तदसर्वदुःखप्रक्षीणमार्ग, कुत एवंभूतं तत्स्थानमित्याशक्याह। 'एगते स्यादि, एकान्तेनैव तत्स्थानं यतो मिथ्याभूतं-मिथ्याखोपहतबुद्धीनां यतस्तद्भवत्यत एवासाधु असद्वृत्तखात्, न धयं सं
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३२], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३२]
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दीप अनुक्रम [६६४]
त्पुरुषसेवितः पन्था येन विषयान्धाः प्रवर्तन्त इति । तदयं प्रथमस स्थानस्याधर्मपाक्षिकस्य पापोपादानभूतस्य विभङ्गो-विभाKगो विशेष स्वरूपमितियावत् ॥ ५७ । साम्प्रतं द्वितीयं धर्मोपादानभूतं पक्षमाश्रित्याह
अहावरे दोचस्स हाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिजह, इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति, तंजहा-आयरिया वेगे अणारिया वेगे उच्चागोया वेगे णीयागोया वेगे कायमंता वेगे हस्समंता धेगे सुवन्ना वेगे दुबन्ना वेगे सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे, तेसिं च णं खेत्तवत्थूणि परिग्गहियाई भवंति, एसो आलाचगो जहा पोंडरीए तहा तबो, तेणेव अभिलावेण जाव सबोवसंता सवत्ताए परिनिबुडेत्तियेमि ॥ एस ठाणे आरिए केवले जाव सबढुक्खप्पहीणमग्गे एगंतसम्म साहु, दोबस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए ।। सर्व ३३ ॥
'अर्थ'त्यधर्मपाक्षिकस्थानादनन्तरमयमपरो द्वितीयस्य स्थानस्य 'धर्मपाक्षिकस्य' पुण्योपादानभूतस्य 'विभङ्गो विभागः I स्वरूप समाधीयते-सम्यगाख्यायते, तद्यथा-प्राचीनं प्रतीचीनमुदीचीनं दक्षिणं वा दिग्विभागमाश्रित्य 'सन्ति' विद्यन्ते एके। K केचन कल्याणपरम्परामाज: 'पुरुषा' मनुष्याः, ते च वक्ष्यमाणखमावा भवन्ति, 'तद्यथेत्ययमुपप्रदर्शनार्थः, आर्या एके केच
नार्यदेशोत्पन्नाः, तथाऽनार्याः शकयवनशवरवर्वरादय इत्याद्येवं यथा पौण्डरीकाध्ययने तथेहापि सर्व निरषयवं भणितव्यम् । है यावत्ते 'एवं पूर्वोक्तेन प्रकारेण सर्वेभ्यः पापस्थानेभ्य उपशान्ताः, तथा अत एव सर्वात्मतया परिनिर्वृता इत्यहमेवं ब्रवीमि ||
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
[33]
दीप
अनुक्रम [६६५]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [३३], निर्युक्तिः [१६८ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क
वे शीलाश्रीमापृचिः
॥ ३२७॥
आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
तदेवमेतत्स्थानं 'केवलिकं' प्रतिपूर्ण नैयायिकमित्यादि प्राग्वद्विपर्ययेण नेयं यावद्वितीयस्य स्थानस्य धार्मिकस्यैषः 'विभङ्गो' विभागः ७ २ क्रियाखरूपमाख्यातमिति । साम्प्रतं धर्माधर्मयुक्तं तृतीयं स्थानमाश्रित्याह---
अहावरे तच्चस्स द्वाणस्स मिस्सगस्स विभंगे एवमाहिज्जह, जे इमे भवंति आरण्णिया आवसहिया गामनियंतिया कण्हुरहस्सिता जाव ते तओ विप्पमुचमाणा भुजो एलभूयत्ताए तमूत्ताए पचायंति, एसठाणे अणारिए अकेवले जाव असवदुक्खपहीणमग्गे एगंतमिच्छे असाहू, एस खलु तचस्स ठाणस्स मिरसगस्स विभंगे एवमाहिए ॥ सूत्रं ३४ ॥
अथापरस्तृतीयस्य स्थानस्य मिश्रकाख्यस्य 'विभङ्गो विभागः स्वरूपमाख्यायते । अत्र चाधर्मपक्षेण युक्तो धर्मपक्षो मिश्र इत्युच्यते, तत्राधर्मस्येह भूयिष्ठतादधर्मपक्ष एवायं द्रष्टव्यः, एतदुक्तं भवति यद्यपि मिथ्यादृष्टयः काश्चित्तथा प्रकारां प्राणातिपातादिनिवृत्तिं विदधति तथाप्याशयाशुद्धवादभिनवे पित्तोदये सति शर्करामिश्रक्षीरपानवदूषरप्रदेशदृष्टिवद्विवक्षितार्थासाधकत्वान्निरर्थकतामापद्यते, ततो मिध्याखानुभावात् मिश्रपक्षोऽप्यधर्म एवावगन्तव्य इति । एतदेव दर्शयितुमाह- 'जे इमे भवंती त्यादि, ये इमेऽनन्तरमुच्यमाना अरण्ये चरन्तीत्यारण्यिकाः- कन्दमूलफलाशिनस्तापसादयो ये चावसथिकाः आवसथो-गृहं तेन चरन्तीत्यावसथिकाः गृहिणः, ते च कुतश्चित् पापस्थानान्निवृत्ता अपि प्रचलमिथ्या खोपहतबुद्धयः, ते यद्यप्युपवासादिना महता | कायक्लेशेन देवगतयः केचन भवन्ति तथापि ते आसुरीयेषु स्थानेषु किल्विषिकेषृत्पद्यन्त इत्यादि सर्व पूर्वोक्तं भणनीयं यावत्ततअयुता मनुष्यभवं प्रत्यायाता एलमूकलेन तमोऽन्धतया जायन्ते । तदेवमेतत्स्थानमनार्थमकेवलम् - असंपूर्णमनैयायिकमित्यादि याव -
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स्थानाध्य०
मिश्रपक्षब धर्मve:
॥३२७॥
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३४], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३४]
दीप अनुक्रम [६६६]
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देकान्तमिथ्याभूतं सर्वथैतदसाध्विति, तृतीयस्थानस्य मिश्रकस्यायं 'विभङ्गों विभागः स्वरूपमारुपातमिति ॥ उक्तान्यधर्मधर्ममिश्रस्थानानि, साम्प्रतं सदाश्रिताः स्थानिनोऽभिधीयन्ते यदिवा प्राक्तनमेवान्येन प्रकारेण विशेषिततरमुच्यते-तत्राथमधार्मिकस्थानकमाश्रित्याह
अहावरे पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिलइ-इह खलु पाईणं वा ४ संतेगतिया मणुस्सा भवंति-गिहत्था महिच्छा महारंभा महापरिग्गहा अधम्मिया अधम्माणुया(ण्णा) अधम्मिट्ठा अधम्मक्खाई अधम्मपायजीविणो अधम्मप(वि)लोई अधम्मपलज्जणा अधम्मसीलसमुदायारा अधम्मेणं चेव विर्ति कप्पेमाणा विहरंति ॥ हण छिंद भिंद विगत्तगा लोहियपाणी चंडा रुद्दा खुद्दा साहस्सिया उकुंचणवंचणमायाणियडिकूडकवडसाइसंपओगबहुला दुस्सीला दुवया दुष्पडियाणंदा असाहू सचाओ पाणाइवायाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए जाव सबाओ परिग्गहाओ अप्पडिविरया जावजीवाए सवाओ कोहाओ जाव मिच्छादसणसल्लाओ अप्पडिविरया, सवाओ पहाणुम्मद्दणवण्णगगंधविलेवणसहफरिसरसरूवर्गधमल्लालंकाराओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए सबाओ सगडरहजाणजुम्गगिल्लिथिल्लिसियासंदमाणियासयणासणजाणवाहणभोगभोयणपवित्थरविहीओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए सबाओ कयविक्कयमासद्धमा: सरूवगसंववहाराओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए सबाओ हिरण्णसुवण्णधणधषणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालाओ अप्पडिविरया जावजीचाए सवाओ कूडतुलकूडमाणाओ अप्पडिविरया जावजीवाए सबाओ
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३५], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३५]]
सूत्रकृताङ्ग २श्रुतस्कग्धे शीला
२ क्रियास्थानाध्य. अधर्मपक्षवन्तः
शीयावृत्तिः
॥३२८॥
दीप अनुक्रम [६६७]
आरंभसमारंभाओ अप्पडिविरया जावजीवाए सवाओ करणकारावणाओ अप्पडिविरया जावजीवाए सवाओपयणपयावणाओ अप्पडिविरया जावजीवाए सबाओ कुट्टणपिट्टणतजणताडणवहबंधपरिकिलेसाओ अप्पडिविरया जावजीवाए, जे आवण्णे तहप्पगारा सावजा अबोहिया कम्मंता परपाणपरियावणकरा जे अणारिएहिं कति ततो अप्पडिविरया जाबज्जीवाए, से जहाणामए केह पुरिसे कलममसरतिलमुग्गमासनिष्फावकुलस्थआलिसंदगपलिमंधगमादिएहिं अयंते कूरे मिच्छाद पउंजंति, एवमेव तहप्पगारे पुरिसजाए तित्तिरवदृगलावगकवोतकपिंजलमियमहिसघराहगाहगोहकुम्मसिरिसिवमादिएहिं अयंते करे मिच्छादं पउंजंति, जाविय से बाहिरिया परिसा भवइ, तंजहा-दासे इ वा पेसे इ वा भयए हुवा भाइल्ले इ वा कम्मकरण इवा भोगपुरिसे इ वा तेर्सिपि य णं अन्नयरंसि वा अहालहुगंसि अवराहंसि सयमेव गरुयं दंड निवत्तेइ, तंजहा-इम दंडेह इमं मुंडेह इमं तज्जेह इमं तालेह इमं अदुयबंधणं करेह इमं नियलबंधणं करेह इमं हड्डिबंधणं करेह हम चारगबंधणं करेह इमं नियलजुयलसंकोधियमोडियं करेह इम हत्यछिन्नयं करेह इमं पायछिन्नयं करेह इमं कन्नछिण्णर्य करेह इमं नकओहसीसमुहछिन्नयं करेह बेयगछहियं अंगछहियं पक्वाफोडियं करेह इमं णयणुप्पाडियं करेह इमं दसणुप्पाडियं वसणुप्पाडियं जिन्भुप्पाडियं ओलंविषं करेह घसियं करेह घोलियं करेह सूलाइयं करेह सलाभिन्नयं करेह खारवत्तियं करेह वज्रवत्तियं करेह सीहपुच्छियगं करेह वसभपुच्छियगं करेह दवग्गिवहयंग कागणिमंसखाषियंग
॥३२८॥
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३५], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३५]
दीप
भत्तपाणनिरुद्धगं इमं जावजीवं वहबंधणं करेह इर्म अन्नयरेणं असुभेणं कुमारेणं मारेह ।। जावि य से अभितरिया परिसा भवइ, तंजहा-माया इ वा पिया इ वा भाया इ वा भगिणी इ वा भज्जा इ वा पुत्ता इ वा धूता इ वा सुण्हा इ वा, तेसिपि य णं अन्नयरंसि अहालहुगंसि अवराहसि सयमेव गरुयं दंड णिवत्तेइ, सीओदगवियांसि उच्छोलित्ता भवइ जहा मित्तदोसवत्तिए जाव अहिए परंसि लोगंसि, ते दुक्खंति सोयंति जूरंति तिप्पंति पिट्ठति परितप्पति ते दुक्खणसोयणजूरणतिप्पणपिडणपरितप्पणवहवंधणपरिकिलेसाओ अपडिविरया भवंति । एवमेव ते इस्थिकामेहिं मुछिया गिद्धा गढिया अजमोववन्ना जाव वासाइं चउपंचमाई छ।समाई वा अप्पतरो वा भुजतरो वा कालं भुंजितु भोगभोगाई पविसुइत्ता वेरायतणाई संचिणित्ता बहई पावाई कम्माई उस्सन्नाई संभारकडेण कम्मणा से जहाणामए अयगोले इचा सेलगोले इवा उदगंसि पक्खिते समाणे उदगतलमइवइत्ता अहे धरणितलपइहाणे भवइ, एवमेव तहप्पगारे पुरिसजाते वजबहुले धूतबहुले पंकबहले वेरपहले अप्पत्तियबहले दंभयहुले णियडिबहुले साइबहुले अयसबहुले उरसन्नतसाणघाती कालमासे कालं किचा धरणितलमइवइत्ता अहे णरगतलपइटाणे भवइ ।। सूत्रं ३५॥
अथापरोऽन्यः प्रथमस्य स्थानसाधर्मपाक्षिकस 'विभङ्गो विभागः खरूपं व्याख्यायते-'इह खलु इत्यादि, सुगम यावन्मनुष्या एवंखभावा भवन्तीति । एते च प्रायो गृहस्था एव भवन्तीत्याह-'महेच्छा' इत्यादि, महती-राज्यविभवपरिवारादिका ||
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अनुक्रम [६६७]
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३५], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
२ श्रुतस्क
दीप अनुक्रम [६६७]
सूत्रकृताने सर्वातिशायिनी इच्छा-अन्तःकरणप्रवृत्चिर्येषां ते महेच्छाः, तथा महानारम्भो-वाहनोष्ट्रमण्डलिकागत्रीप्रवाहकृषिपण्डपोषणादिको किया.
[येषां ते महारम्भाः, ये चैर्वभूतास्ते महापरिग्रहा:-धनधान्यद्विपदचतुष्पदवास्तुक्षेत्रादिपरिग्रहवन्तः कचिदप्पनिवृत्ताः, अत स्थानाध्य
एवाधण चरन्तीत्याधर्मिकार, तथा अधर्मिष्ठा निस्विंशकर्मकारिखादधर्मबहुलाः, ततश्राधर्मे कर्तव्ये अनुज्ञा--अनुमोदनं येषां अधर्मषक्षकीयावृत्तिः ते भवन्त्यधर्मानुज्ञाः, एवमधर्मम् आख्यातुं शीलं येषां ते तथा, एवमधर्मप्रायजीविनः, तथा अधर्ममेव प्रविलोकयितुं शीलं येषां वन्तः ॥३२९॥
|ते भवन्त्यधर्मप्रविलोकिनः, तथा अधर्मप्रायेषु कर्मसु प्रकर्षेण रज्यन्त इति अधर्मप्ररक्ताः, रलयोरैक्यमिति रस खाने लकारोव कृत इति, तथाऽधर्मशीला अधर्मखभाषा तथाऽधर्मात्मकः समुदाचारो-यत्किञ्चनानुष्ठानं येषां ते भवन्त्यधर्मशीलसमुदाचाराः || तथाऽधर्मेण-पापेन सावधानुष्ठानेनैव दहनाङ्कननिर्लाञ्छनादिकेन कर्मणा वृत्तिः-वर्तनं 'कल्पयन्तः' कुर्वाणा 'विहरन्तीति
कालमतिवाहयन्ति ॥ पापानुष्ठानमेव लेशतो दर्शयितुमाह-'हण छिन्द भिन्दे'त्यादि खत एव हननादिकाः क्रियाः कुर्वाणा अपरे६|| वामप्येवमात्मकमुपदेशं ददति, सत्र हननं दण्डादिभिस्तत्कारयन्ति तथा छिन्द्धि कर्णादिकं मिन्द्धि शूलादिना, विकर्तकाः-प्रा-10 पणिनामजिनापनेतारः अत एव लोहितपाणयः, तथा चण्डा रौद्रा-निख्रिशाः क्षुद्राः क्षुद्रकर्मकारिला तथा 'साहसिका'8
असमीक्षितकारिणः, तथा उत्कुश्चनवश्चनमायानिकृतिकूटकपटादिभिः सहातिसंप्रयोगो-गाय तेन बहुला:-तत्प्रचुरास्ते तथा, तत्रोचं कुश्चन-शूलाधारोपणार्थमुत्तुश्चनं वञ्चनं-प्रतारणं तत् यथा अभयकुमारः प्रद्योतगणिकाभिर्धार्मिकवञ्चनया वञ्चितः
॥३२९॥ माया-वचनबुद्धिः प्रायो वणिजामिव निकृतिस्तु बकवृत्त्या कुर्कुटादिकरणेन दम्भप्रधानवणिक्श्रोत्रियसाध्वाकारेण परवञ्चनार्थ गलकर्तकानामिवावस्थान, देशभाषानेपथ्यादिविपर्ययकरणं कपट यथा आषाढभूतिना नटेनेवापरापरवेषपरावृत्त्याऽचार्योपा
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
[३५]
दीप
अनुक्रम [६६७]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [३५], निर्युक्तिः [१६८ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
ध्यायसंघाटकात्मार्थं चतारी मोदका अवाप्ताः कूटं तु कार्षापणतुला प्रस्यादेः परवश्चनार्थं न्यूनाधिककरणम्, एतैरुत्कुञ्चनादिभिः सहातिशयेन संप्रयोगो यदिवा- सातिशयेन द्रव्येण कस्तूरिकादिनाऽपरस्य द्रव्यस्य संप्रयोगः सातिसंप्रयोगस्तद्बहुलाः- तत्प्रधाना इत्यर्थः, उक्तं च- "सो होई सातिजोगो दबं जं छादियण्णदत्रेसु । दोसगुणा वयणेसु व अत्थविसंवायणं कुणइ ॥ १ ॥” एते चोत्कुश्चनादयो मायापर्याया इन्द्रशक्रादिवत् कथञ्चित्क्रियाभेदेऽपि द्रष्टव्याः । तथा दुष्टं शीलं येषां ते दुःशीलाःचिरमुपचरिता अपि क्षिप्रं विसंवदन्ति, दुःखानुमेया दारुणस्वभावा इत्यर्थः तथा दुष्टानि व्रतानि येषां ते तथा यथा मांसभक्ष| णत्रतकालसमाप्तौ प्रभूततरसच्वोपघातेन मांसप्रदानम्, अन्यदपि नक्तभोजनादिकं तेषां दुष्टव्रतमिति, तथाऽन्यस्मिन् जन्मान्तरे मधुमद्यमांसादिकमभ्यवहरिष्यामीत्येवमज्ञानान्धा जन्मान्तरविधिद्वारेण सनिदानमेव तं गृहन्ति, तथा दुःखेन प्रत्यानन्द्यन्ते दुष्प्रत्यानन्याः, इदमुक्तं भवति - तैरानन्दितेनापरेण केनचित्प्रत्युपकारेप्सुना गर्वाध्माता दुःखेन प्रत्यानन्द्यन्ते, यदिवा सत्यप्युपकारे प्रत्युपकारभीरवो नैवानन्यन्ते प्रत्युत शठतयोपकारे दोषमेवोत्पादयन्ति तथा चोक्तम् - " प्रतिकर्तुमशक्तिष्ठा, नराः पूर्वोपकारिणाम् । दोषमुत्पाद्य गच्छन्ति, महूनामिव वायसाः ॥ १ ॥ यत एवमतोऽसाधवस्ते पापकर्मकारित्वात्, तथा 'यावज्जीवं ' यावत्प्राणधारणेन सर्वस्मात्प्राणातिपाताद्प्रतिविरता लोकनिन्दनीयादपि ब्राह्मणघातादेरविरता इति सर्वग्रहणं, एवं सर्वस्मादपि कूटसाक्ष्यादेरप्रतिविरता इति, तथा सर्वसात्त्रीवालादेः परद्रव्यापहरणादविरताः, तथा सर्वस्मात्परस्त्रीगमनादेमैथुनादचिरताः, एवं सर्वस्मात्परिग्रहाद्यो निपोषकादप्यविरताः, एवं सर्वेभ्यः क्रोधमानमायालो मेभ्योऽविरताः, तथा प्रेमद्वेषकलहाभ्याख्यानपैशुन्य१ स भवति सातियोगो द्रव्यं यच्छादयिलाऽन्यत्रम्यैः दोषगुणांश्च वचनैरर्थनिसंवादनं करोति ॥ १ ॥
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३५], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क-
scecest
[३५]
हीयावृत्तिः । ॥३३०॥
दीप अनुक्रम [६६७]
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परपरिवादारतिरतिमायामृपावादमिथ्यादर्शनशल्यादिभ्योऽसदमुष्ठानेभ्यो यावज्जीवं येअतिविरता भवन्तीति । तथा सर्वसात्स्ना- २ क्रियामोन्मर्दनवर्णकविलेपनशब्दस्पर्शरूपरसगन्धमाल्यालङ्कारात्कामाङ्गान्मोहजनितादप्रतिविरता यावजीवयेति, इह च वर्णकग्रहणेन स्थानाध्य. वर्णविशेषापादक लोधादिकं गृह्यते, तथा सर्वतः शकटरथादेयोनविशेषादिकात्प्रतिविस्तरविधेः परिकररूपाल्परिग्रहादप्रतिविरताः, अधपक्षइह च शकटरथादिकमेव यानं शकटरथयानं, युग्यं-पुरुपोरिक्षप्तमाकाशयानं 'गिल्लित्ति पुरुषद्वयोरिक्षप्ता झोल्लिका 'थिल्लितिवन्तः वेगसरावयविनिर्मिती यान विशेषः तथा 'संवमाणिय'ति शिविकाविशेष एव, तदेवमन्यस्मादपि वखादेः परिग्रहादुपकरणभूताद-11 |विरताः, तथा सर्वतः-सर्वसाकयषिक्रयाभ्यां करणभूताभ्यां यो मापकार्धमाषकरूपकार्षापणादिभिः पण्यविनिमयात्मकः सं-16
व्यवहारस्तसाद विरता यावजीवयेति, तथा सर्वसाद्धिरण्यसुवर्णादेः प्रधानपरिग्रहादविरताः, तथा कूटतुलकूटमानादेरविरताः, | तथा सर्वतः कृषिपाशुपाल्यादेयत्खतः करणमन्येन च यत्किश्चित्कारयति तस्मादविरताः, तथा पचनपाचनतः तथा कण्डनकुट्टन|पिट्टनतर्जनताडनवृधवन्धादिना या परिक्लेशः प्राणिनां तस्मादविरताः, साम्प्रतमुपसंहरति-ये चान्ये तथाप्रकाराः परपीडाका-| |रिणः सावधाः कर्मसमारम्भा अबोधिका:-बोधभावकारिणः तथा परमाणपरितापनकरा-गोग्राहवन्दिग्रहग्रामघातात्मका येज्ना
यः क्रूरकर्मभिः क्रियन्ते ततोऽअतिषिरता यावञ्जीवयेति ॥ पुनरन्यथा बहुप्रकारमधार्मिकपदं प्रतिपिपादयिषुराह-'तय!'त्युपप्रदर्शनार्थो नामशब्दः संभावनायो, संभाव्यते अस्मिन्विचित्रे संसारे केचनवंभूताः पुरुषाः ये कलमममूरतिलमुद्गादिषु पच-18||३३०॥ नपाचनादिकया क्रियया खपरार्थमयता-अप्रयत्नवन्तो निष्कृपाः क्रूरा मिथ्यादण्डं प्रयुञ्जन्ति, मिथ्यैव-अनपराधिष्वेव दोषमा-18॥ रोप्य दण्डो मिथ्यादण्डस्तं विदधति, तथैवमेव-प्रयोजनं विनैव तथाप्रकाराः पुरुषा निष्करुणा जीवोपघातनिरतास्तित्तिरवर्तकला-1
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३५], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३५]
दीप
| वकादिषु जीवनप्रियेषु प्राणिष्वयताः क्रूरकर्माणो मिथ्यादण्डं प्रयुञ्जन्ति । तेषां च क्रूरधियां “यथा राजा तथा प्रजा" इति
प्रवादात् परिवारोऽपि तथाभूत एव भवतीति तथा दर्शयितुमाह-'जावि य से' इत्यादि, यापि च तेषां बाधा पर्षद्भवति, तद्य18था-'दासः खदासीसुतः 'प्रेष्यः' प्रेषणयोग्यो भृत्यदेश्यो 'भृतको वेतनेनोदकाद्यानयन विधायी तथा 'भागिको यः पष्ठांशा-18
दिलाभेन कृष्यादौ व्याप्रियते 'कर्मकरः प्रतीतः तथा नायकाश्रितः कश्चिद्भोगपरः, तदेवं ते दासादयोज्यस्ख लधावप्यपराधे |गुरुतरं दण्डं प्रयुञ्जन्ति प्रयोजयन्ति च । स च नायकस्तेषां दासादीनां बाझपर्पद्भुतानामन्यतरसिंस्तथा लघावप्यपराधे-शब्दाथ-II |वणादिके गुरुतरं दण्डं वक्ष्यमाणं प्रयुक्ते, तद्यथा-इमं दासं प्रेष्यादिकं वा सर्वस्वापहारेण दण्डयत यूपमित्यादि मूत्रसिद्धं यावदि| मभन्यतरेणाशुभेन कुत्सितमारेण व्यापादयत यूयम् ॥ यापिच क्रूरकर्मवतामभ्यन्तरा पर्षद्भवति, तद्यथा-मातापित्रादिका, IN मित्रदोषप्रत्ययिकक्रियास्थानवद् नेयं यावदहितोऽयमसिन् लोके इति, तथा हि आत्मनोऽपथ्यकारी परसिन्नपि लोके, तदेवं ते
मातापित्रादीनां स्वल्पापराधिनामपि गुरुतरदण्डापादनतो दुःखमुत्पादयन्ति, तथा नानाविधरुपायैस्तेषां शोकमुत्पादयन्ति-शोक- | | यन्तीत्येवं ते प्राणिनां बहुप्रकारपीडोत्पादकाः याबद्वधबन्धपरिक्लेशादप्रतिविरता भवन्ति ॥ ते च विषयासक्ततया एत| कुन्तीत्येतदर्शयितुमाह-एवमेव पूर्वोक्तस्वभावा एवं ते निष्कृपा निरनुक्रोशा वाद्याभ्यन्तरपर्षदोरपि कर्णनासाविकतेनादिना | दण्डपातनखभावाः खीप्रधानाः कामाः स्त्रीकामाः यदिवा खीपु-मदनकामविषयभूतासु कामेषु च-शब्दादिषु इच्छाकामेषु मूर्षिछता गृद्धा अथिता अध्युपपन्नाः, एते च शक्रपुरन्दरादिवत्पर्यायाः कथश्चिनेदं वाश्रित्य व्याख्येयाः, ते च भोगासक्ता व्यपगतपरलोकाध्यवसाया यावर्षाणि चतुःपञ्च पद सप्त वा दश वाऽल्पतरं वा कालं प्रभूततरं वा कालं भुक्ता भोगभोगान् इन्द्रियानुकू-18
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अनुक्रम [६६७]
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३५], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३५]
दीप अनुक्रम [६६७]
सूत्रकृताङ्गेलान् मधुमद्यमांसपरदारासेवनरूपान् भोगासक्ततया च परपीडोत्पादनतो 'वैरायतनानि' बैरानुबन्धान अनुप्रय-उत्पाद्य |
४२ क्रिया२ श्रुतस्क | विधाय तथा 'संचयित्वा' संचिन्त्योपचित्य 'बहूनि प्रभूततरकालस्थितिकानि 'क्रूराणि' क्रूरविपाकानि नरकादिषु यातना- स्थानाध्य न्धे शीला-1
अधमेपक्षस्थानेषु क्रकचपाटनशाल्मल्यवरोहणतप्तत्रपुपानात्मकानि कर्माण्यष्टप्रकाराणि बद्धस्पृष्टनिधननिकाचनावस्थानि विधाय तेन च ||
वन्तः |संभारकृतेन कर्मणा प्रेयमाणास्तत्कर्मगुरखो वा नरकतलप्रतिष्ठाना भवन्तीत्युत्तरक्रिययाऽऽपादितबहुवचनरूपयेति संवन्धः । असि-8 ॥३३ ॥ नेवार्थे सर्वलोकातीतं दृष्टान्तमाह-'से जहाणामए' इत्यादि, तद्यथा नामायोगोलक:-अयस्पिण्डः 'शिलागोलको' वृत्ताश्मश
कलं वोदके प्रक्षिप्तः समानः सलिलतलमतिवर्त्य-अतिलङ्घचाधो धरणीतलप्रतिष्ठानो भवति । अधुना दार्शन्तिकमाह-एवमेवेत्यादि, यथाऽसावयोगोलको वृत्तखाच्छीघ्रमेवाधी यायेवमेव तथाप्रकारः पुरुषजातः, तमेव लेशतो दर्शयति-वनवदर्ज गुरु-11
खात्कर्म तद्रहुल:-तत्प्रचुरो बध्यमानककर्मगुरुरित्यर्थः तथा धूयत इति धूतं-प्रारबद्ध कर्म तत्प्रचुरः, पुनः सामान्येनाह&ा पक्यतीति पर-पापं तद्बहुला, तथा तदेव कारणतो दर्शयितुमाह-'वैरबहलो बैरानुबन्धप्रचुरः, तथा 'अपत्तियति मनसो | दुष्प्रणिधानं तत्प्रधानः, तथा दम्मो मायया परवचनं तदुत्कटः, तथा निकृतिः-माया वेषभाषापरावृत्तिच्छमना परद्रोहबुद्धिस्तन्मयः, तथा 'सातिबहुल' इति सातिशयेन द्रव्येणापरस्य हीनगुणस्य द्रव्यस्य संयोगः सातिस्तबहुला--तत्करणप्रचुरः, तथा अयश:-अश्लाघा असद्भुसतया निन्दा, यानि यानि परापकारभूतानि कर्मानुष्ठानानि विधत्ते तेषु तेषु कर्मसु करचरणच्छेदनादिषु ॥३३१।। अयशोभाग्भवतीति, स एवंभूतः पुरुषःकालमासे खायुषः क्षये कालं कृता पृथिव्याः-रत्नप्रभादिकायास्तलम् 'अतिवत्यै योजनसहस्रपरिमाणमतिलङ्गच नरकतलप्रतिष्ठानोऽसौ भवति ।। नरकखरूपनिरूपणायाह
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३६], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३६]
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दीप अनुक्रम [६६८]
ते णं णरगा अंतो वद्दा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिया णिचंधकारतमसा वगयगहचंदसूरनक्वत्तजोइसप्पहा मेदयसामसरुहिरपूयपडलचिक्विल्ललित्ताणुलेवणतला असुई वीसा परमदग्भिगंधा कण्हा अगणिवन्नाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा णरगा अमुभा णरएम वेयणाओ ॥ णो चेव णरएम नेरड्या णिद्दायंति वा पयलायति वा सुई वा रति वा घिर्ति वा मतिं वा उबलभंते, ते णं तत्थ उज्जलं विउलं पगाढं कडुयं कक्कसं चंडं दुक्खं दुग्गं तिचं दुरहियासं गेरइया वेयणं पचणुभवमाणा विहरति ॥ सूत्रं ३६ ॥
णमिति वाक्यालङ्कारे ते नरकाः सीमन्तकादिका बाहुल्यमङ्गीकृत्यान्तः-मध्ये वृत्ता बहिरपि चतुरस्रा अधश्च क्षुरप्रसंस्थानसं| स्थिताः, एतच्च संस्थानं पुष्पावकीर्णानाश्रित्योक्तं, तेषामेव प्रचुरखान , आवलिकाप्रविष्टास्तु वृत्तव्यस्रचतुरस्रसंस्थाना एव भवन्ति, तथा नित्यमेवान्धतमसं येषु ते नित्यान्धतमसाः, कचित्पाठो नित्यान्धकारतमसा इति, मेघावच्छन्नाम्बरतलकृष्यापक्षरजनीवत् तमोबहुलाः, तथा व्यपगतो ग्रहचन्द्रसूर्यनक्षत्रज्योतिःपथो येषां ते तथा । पुनरप्यनिष्टापादनार्थ तेषामेव विशेषणान्याह-'मेद| वसेत्यादि, दुष्कृतकर्मकारिणां ते नरकास्तदुःखोत्पादनायेयंभूता भवन्ति, तद्यथा-मेदवसामांसरुधिरपूयादीनां पटलानि-सङ्खास्तै-18 लिप्सानि-पिच्छिलीकृतान्यनुलेपनतलानि-अनुलेपनप्रधानानि तलानि येषां ते तथा, अशुचयो विष्ठाऽसक्लेदप्रधानवाद् अत एवं | विश्राः कुथितमांसादिकल्पकर्दमावलिप्सखात् , एवं परमदुर्गन्धाः कुथितगोमायुकलेवरादपि असह्यगन्धाः, तथा कृष्णाग्निवर्णाभा | K रूपतः स्पर्शतस्तु कर्कश:-कठिनो बज्रकण्टकादप्यधिकतर स्पर्शो येषां ते तथा, किंबहुना, अतीव दुःखेनाधिसह्यन्ते, किमि
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अत्र नरक-स्वरुप निरूपणा क्रियते
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३६], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३६]
ति?, यतस्ते नरकाः पञ्चानामपीन्द्रियार्थानामशोभनबादशुभाः, तत्र च सत्वानामशुभकर्मकारिणामुग्रदण्डपातिनां च वनप्रचुरा-ISAR सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क-18 |णां तीत्रा अतिदुःसहवेदनाः शारीराः प्रादुर्भवन्ति, तया च वेदनयाभिभूतास्तेषु नरकेषु ते नारका नैवाक्षिनिमेषमपि कालं
स्थानाध्य न्धे शीला- निद्रायन्ते, नाप्युपविष्टाद्यवस्था अक्षिसंकोचनरूपामीपनिद्रामवाप्नुवन्ति, न शेवंभूतवेदनाभिभूतस्य निद्रालाभो भवतीति दर्शयति, अधर्मपक्षे दीयावृत्तिः तामुज्ज्वला तीवानुभावनोत्कटामित्यादिविशेषणविशिष्टां यायवेदयन्ति अनुभवन्तीति ।। अयं तावदयोगोलकपापाणदृष्टान्तः || नरकव० शीघ्रमधोनिमजनार्थप्रतिपादकः प्रदर्शितः, अधुना शीघ्रपातार्थप्रतिपादकमेवापरं दृष्टान्तमधिकृत्याह
दुर्लभबो॥३३२॥
से जहाणामए रुक्खे सिया पश्चयग्गे जाए मूले छिन्ने अग्गे गाए जओ णिपणं जओ विसमं जओ दुग्गं धिताच तओ पवडति, एवामेव तहप्पगारे पुरिसजाए गम्भातो गभं जम्मातो जम्मं माराओ मारं णरगाओ पारगं दुक्खाओ दुक्खं दाहिणगामिए रइए कण्हपक्खिए आगमिस्साणं दुल्लभयोहिए यावि भवइ, एस ठाणे अणारिए अकेवले जाव असवदुक्खपहीणमग्गे एगंतमिच्छे असाह पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स
विभंगे एवमाहिए ॥ सूत्रं ३७॥ । तयथा नाम कभिक्षः पर्वताने जाती मूले छिन्नः शीघ्रं यथा निम्ने पतति, रवमसावप्यसाधुकर्मकारी तत्कर्मवावेरितः शीघ्र-18 मेव नरके पतति, ततोऽप्युद्भुत्तो गर्भाद्गर्भमवश्यं याति न तस्य किंचित्राणं भवति, यावदागामिन्यपि कालेऽसौ दुर्लभधर्मप्रतिप- ॥३३२।। चिर्भवतीति । साम्प्रतमुपसंहरति-'एस ठाणे' इत्यादि, तदेतत्स्थानमनार्य पापानुष्ठानपरखायावदेकान्तमिथ्यारूपमसाधु । तदेवं प्रथमस्याधर्मपाक्षिकस्य स्थानस्य 'विभङ्गो विभागः स्वरूपमेप व्याख्यातः ।।
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दीप अनुक्रम [६६८]
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३८], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३८]
दीप अनुक्रम [६७०]
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अहावरे दोचस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिजइ-इह खलु पाइणं वा ४ संतेगतिया मणुस्सा भवंति, संजहा-अणारंभा अपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया धम्मिट्ठा जाव धम्मेणं चेव वितिं कप्पेमाणा विहरंति, मुसीला मुबया सुप्पडियाणंदा सुसाह सबतो पाणातिवायाओ पडिविरया जावजीवाए जाच जे यावन्ने तहप्पगारा सावज्जा अबोहिया कम्मंता परपाणपरियावणकरा कज्जति ततो विपडिविरता जावजीवाए ॥ से जहाणामए अणगारा भगवंतो ईरियासमिया भासासमिया एसणासमिया आपाणभंडमराणिक्खेवणासमिया उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपारिट्ठावणियासमिया [मणसमिया वयसमिया कायसमिया मणगुस्सा बयगुत्ता कायगुत्ता गुत्ता गुत्तिदिया गुत्तबंभयारी अकोहा अमाणा अमाया अलोभा संता पसंता उवसंता परिणिब्बुडा अणासवा अग्गंधा छिन्नसोया निरुवलेवा कंसपाई व मुक्कतोया संखो इव णिरंजणा जीव इव अपडिहयगती गगणतलंपिव निरालंबणा वाउरिव अपडियद्धा सारदसलिलं व सुद्धहियया पुक्खरपत्तं व निरुबलेवा कुम्मो इव गुत्तिदिया बिहग इव विप्पमुक्का खग्गिविसाणं व एगजाया 'भारंडपक्खीव अप्पमत्ता कुंजरो इव सोंडीरा वसभो इव जातत्यामा सीहो इव दुद्धरिसा मंदरो इव अप्पकंपा सागरो इव गंभीरा चंदो इव सोमलेसा सूरो इच दित्ततेया जबकंचणगं व जातरूवा वसुंधरा इव सबफासविसहा सुहुयहुयासणो विव तेयसा जलंता ।। णत्थि णं तेसिं भगवंताणं कवि पडिपंधे भवइ, से पडिबंधे चउबिहे पण्णसे, तंजहा-अंडए इ वा पोयए इवा उग्गहे इ वा पग्गहे
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[३८]
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अनुक्रम [६७०]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [३८], निर्युक्तिः [१६८ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
सूत्रकृताङ्गे
२ श्रुतस्क न्धे शीलाश्रीयावृत्तिः
॥३३३॥
Eucation Internationa
इ वा जन्नं जन्नं दिसं इच्छंति तनं तन्नं दिसं अपडिबद्धा सुइभूया लहुभूया अप्पगंधा संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति ॥ तेसिं णं भगवंताणं इमा एताख्या जायामायावित्ती होत्था, तंजाचत्थे भत्ते छुट्टे भन्ते अट्टमे भत्ते इसमे भत्ते दुवालसमे भन्ते चउदसमे भन्ते अद्धमासिए भत्ते मासिए भत्ते दोमासिए निमासिए चाउम्मासिए पंचमासिए छम्मासिए अनुत्तरं च णं उक्खित्तचरया णिक्खिउत्तरा उत्तिणिक्खित्तचरगा अंतचरगा पंतचरगा लूहचरगा समुद्राणचरगा संसट्टचरगा असंसचरंगा तज्जातसंसट्टचरगा दिल्लाभिया अदिहलाभिया पुलाभिया अपुलाभिया भिक्खलाभिया अभिक्खलाभिया अन्नायचरगा उचनिहिया संखादत्तिया परिमितपिंडवाड्या सुद्धेसणिया अंताहारा पंताहारा अरसाहारा विरसाहारा ढहाहारा तुच्छाहारा अंतजीवी पंतजीवी आयंबिलिया पुरिमडिया निधिगइया अज्जमंसासिणो णो नियामरसभोई ठाणाइया पडिमाठाणाइया उकटुआसणिया णेसज्जिया वीरामणिया गंडा अप्पाउडा अगत्तया अकंडया अणिहा] (एवं जहोववाइए) धुतके समंसुरोमनहा गायपडिकम्मविमुक्का चिईति । ते णं एतेणं विहारेण विहरमाणा बहु वासाई सामन्नपरियागं पाउणति २ बहुवहु आवाहंसि उत्पन्नंसि वा अणुष्पन्नंसि वा बहुई भत्तारं पञ्चक्खन्ति पञ्चकखाता बहूई भत्ताई अणसणाए छेदिति अणसणाए छेदित्ता जस्सद्वाए कीरति नग्गभावे मुंडभावे अण्हाणभावे अदंतवणगे अछत्तए अणोवाहणए भूमिसेज्जा फलगसेज्जा कहसेज्जा केसलोए बंभचेरवासे परधरपवेसे लद्वा
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२ क्रियास्थानाच्य० धर्मपक्षव
न्तः
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३८], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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दीप अनुक्रम [६७०]
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वलद्धे माणावमाणणाओ हीलणाओ निंदणाओ खिंसणाओ गरहणाओ तजणाओ तालणाओ उच्चावया गामकंटगा बावीसं परीसहोवसग्गा अहियासिज्जति तमटुंआराहंति, तमटुं आराहित्ता चरमेहिं उस्सासनिस्सासेहि अणतं अणुत्तरं निवाघातं निरावरणं कसिणं पडिपुण्णं केवलवरणाणदंसणं समुप्पाडेंति, समुप्पाडित्ता ततो पच्छा सिझंति वुझंति मुच्चंति परिणिद्यायंति सबदुक्खाणं अंतं करेंति ॥ एगवाए पुण एगे भयंतारोभवंति, अवरे पुण पुचकम्मावसेसेणं कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तंजहा-महहिएम महज्जुतिएच महापरक्कमेसु महाजसेसु महाबलेसु महाणुभावेसु महामुक्खेसुते णं तत्थ देवा भवंति महहिया महज्जुतिया जाव महासुक्खा हारविराइयवच्छा कडगतुडियधंभियभुया अंगयकुंडलमट्टगंडयलकन्नपीढधारी विचित्तहत्याभरणा विचित्तमालामउलिमउडा कल्लाणगंधपवरचत्वपरिहिया कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणधरा भासुरबोंदी पलंबवणमालधरा दिवेण रूपेणं विषेणं वनेणं दिवेणं गंधेणं दिवेणं फासेणं दिवेणं संघाएणं दिवेणं संठाणेणं दिवाए इडीए दिवाए जुत्तीए दिवाए पभाए दियाए छायाए दिवाए अचाए दिवेणं तेएणं दिवाए लेसाए दस दिसाओ उजोषमाणा पभासेमाणा गइकल्लाणा ठिइकल्लाणा आगमेसिभहया यावि भवंति, एस ठाणे आयरिए जाव सबदुक्खपहीणमग्गे एगंतसम्मे सुसाहू । दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्वस्स विभंगे एवमाहिए ॥ सूत्रं ३८ ॥
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३८], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८]
दीप अनुक्रम [६७०]
सूत्रकृताङ्गे अथापरस्य द्वितीयस्य स्थानस्य 'विभतो विभागः स्वरूपम् 'एवं' वक्ष्यमाणनीत्या व्याख्यायते, तद्यथा-'इह खलु' २ क्रिया२ मुतस्क- 18| इत्यादि, प्राच्यादिषु दिक्षु मध्येऽज्यतरस्यां दिशि 'सन्ति' विद्यन्ते, ते चैवंभूता भवन्तीति, तषथा-न विद्यते सावध आरम्भो स्थानाध्य. न्धे शीला- 18| येषां ते तथा, तथा 'अपरिग्रहा' निष्किश्वनाः, धर्मेण चरन्तीति धार्मिका यावद्धर्मणैवात्मनो वृत्ति परिकल्पयन्ति, तथा 8॥
धर्मपक्षवकीयावृत्तिः
18 सुशीलाः सुव्रताः सुप्रत्यानन्दाः सुसाधवः सर्वसालपाणातिपाताद्विरता एवं यावत्परिग्रहाद्विरता इति । तथा ये चान्ये तथाप्रकाराः ॥३३॥
I.|| सावया आरम्भा यावदचोधिकारिणस्तेभ्यः सर्वेभ्योऽपि विरता इति ॥ पुनरन्येन प्रकारेण साधुगुणान् दर्शयितुमाह-तयथा
नाम केचनोत्तमसंहननधृतिबलोपेता अनगारा भगवन्तो भवन्तीति, ते पञ्चभिः समितिभिः समिताः 'एव'मित्युपप्रदर्शने | औपपातिकमाचाराङ्गसंबन्धि प्रथममुपाङ्गं तत्र साधुगुणाः प्रबन्धेन व्यावर्ण्यन्ते तदिहापि तेनैव क्रमेण द्रष्टव्यमित्यतिदेशः। | यावद्भतम्-अपनीतं केशश्मश्रुलोमनखादिकं यैस्ते तथा, सर्वगात्रपरिकर्मविप्रमुक्ता निष्प्रतिकर्मशरीरास्तिष्ठन्तीति । ते चोप्रवि-% । हारिणः प्रव्रज्यापयोयमनुपाल्य, अबाधारूपे रोगातले समुत्पनेऽनुत्पन्ने वा भक्तप्रत्याख्यानं विदधति, किंबहुनीक्तन! यस्कूतेऽयमयोगोलकवनिरास्वाद: फरचालधारामार्गबदुरध्यवसायः श्रमणभावोऽनुपाल्यते तमर्थ-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राख्यमाराध्य अव्याहतमेकमनन्तं मोक्षकारणं केवलज्ञानमामुवन्ति, केवलज्ञानावाप्रूचं सर्वदुःखविमोक्षलक्षणं मोक्षमवानुवन्तीति । एक पुनरेकयाऽर्चया-एकेन शरीरेणैकरमाद्वा भवासिद्धिगतिं गन्तारो भवन्ति, अपरे पुनस्तथाविधपूर्वकर्मावशेपे सति तत्कर्मवशगाः कालं |3||३३४॥
कृता अन्यतमेषु वैमानिकेषु देवेतृत्पद्यन्ते तत्रेन्द्रसामानिकवायसिंशलोकपालपार्षदात्मरक्षप्रकीर्णेषु नानाविधसमृद्धिषु भवन्तीति, 18 न[ग्रन्था०१००००] साभियोगिककिल्विपिकादिष्विति । एतदेवाह-'तंजहे'त्यादि, तथा महर्यादिषु देवलोकेपूत्पद्यन्ते । देवास्वे
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३८], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३८]
दीप अनुक्रम [६७०]
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| भूता भवन्तीति दर्शयति-'ते णं तत्थ देवा' इत्यादि, ते देवा नानाविधतपश्चरणोपात्तशुभकर्माणो महादिगुणोपेता भवन्तीत्या-18 दिकः सामान्यगुणवर्णकः, ततो हारविराजितवक्षस इत्यादिक आभरणवस्त्रपुष्पवर्णकः, पुनरतिशयापादनार्थ दिव्यरूपादिप्रति-18 पादन चिकीराह-'दिवेणं रूपेण' मित्यादि, दिवि भवं दिव्यं तेन रूपेणोपपेता यावद्दिव्यया द्रव्यलेश्ययोपपेता दशापि | दिशः समुद्योतयन्तः, तथा 'प्रभासयन्तः अलंकुर्वन्तो 'गत्या' देवलोकरूपया कल्याणा:-शोभना मत्या वा-शीघ्ररूपया || |प्रशस्तविहायोगतिरूपया वा कल्याणाः, तथा स्थित्या उत्कृष्टमध्यमया कल्याणास्ते भवन्ति, तथाऽऽगामिनि काले भद्रकाः शोभ-118 |नमनुष्यभवरूपसंपदुपपेताः, तथा सद्धर्मप्रतिपत्तारख भवन्तीति । तदेतत्स्थानमार्यमेकान्तेनैव सम्यग्भूतं सुसावितीत्येतद्वितीयस्य स्थानस धर्मपाक्षिकस्य विभङ्ग एवमाख्यातः॥
अहावरे तबस्स ठाणस्स मीसगस्स विभंगे एवमाहिज्जइ-इह खलु पाईणं वा ४ संगतिया मणुस्सा भवंति, तंजहा-अप्पिच्छा अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुधा जाव धम्मेणं चेय विति कप्पेमाणा विहरंति सुसीला सुब्बया सुपडियाणंदा साह एगचाओ पाणाइवायाओ पडिविरता जावजीचाए एगचाओ अप्पडिविरया जाव जे यावण्णे तहप्पगारा सावजा अबोहिया कम्मंता परपाणपरितावणकरा कजंति ततोचि एगचाओ अप्पडिविरया ॥ से जहाणामए समणोवासगा भवंति अभिगयजीवाज़ीवा उवलद्धपुण्णपावा आसवसंवरवेयणाणिजराकिरियाहिगरणवंधमोक्खकुसला असहेजदेवासुरनागसुवपणजक्खरक्खसकिन्नरकिंपुरिसगरुलगंधवमहोरगाइएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणइक्कमणिज्जा
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३९], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३९]
सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥३३५॥
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२ क्रियास्थानाध्य० मिश्रे धर्मपक्षे श्रावकव० .
दीप अनुक्रम [६७१]
इणमेव निग्गंधे पावयणे हिस्संकिया णिकंखिया निवितिगिच्छा लट्ठा गहियट्टा पुच्छियट्ठा विणिच्छि- यट्ठा अभिगयट्ठा अद्विमिंजपेम्माणुरागरत्ता अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अट्टे अयं परमट्टे सेसे अणड़े उसियफलिहा अचंगुयदुवारा अचियत्तंतेउरपरघरपवेसा चाउद्दसट्टमुद्दिवपुषिणमासिणीसु पडिपुन्नं पोसह सम्म अणुपालेमाणा समणे निग्गंथे फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्यपडिग्गहकंबलपायपुंछणेणं ओसहभेसजेणं पीठफलगसेज्जासंथारएणं पडिलाभेमाणा बहहिं सीलचयगुणवेरमणपञ्चक्खाणपोसहोववासेहिं अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावमाणा विहरंति ॥ ते णं एपारवेणं विहारेणं विहरमाणा यहई वासाई समणोबासगपरियागं पाउणंति पाउणित्ता आवाहंसि उप्पन्नसि वा अणुप्पन्नंसि वा बहुई भत्ताई पञ्चक्खायंति बहई भत्ताई पञ्चक्खाएत्ता बहई भत्ताई अणसणाए छेदेन्ति पहुई भत्ताई अणसणाए छेत्ता आलोइयपडिकंता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवसाए उबवत्तारो भवंति, तंजहा-महड्डिएमु महज्जुइएसु जाव महामुक्वेसु सेसं तहेव जाच एस ठाणे आयरिए जाव एगंतसम्म साह । तच्चस्स ठाणस्स मिस्सगस्स विभंगे एवं आहिए ॥ अविरई पहुच बाले आहिजइ, विरई पडुच्च पंडिए आहिजइ, विरयाविरई पडुच्च बालपंडिए आहिजइ, तत्थ णं जा सा सवतो अविरई एस ठाणे आरंभट्ठाणे अणारिए जाव असबदुवप्पहीणमग्गे एगंतमिच्छे असाह, तत्थ णं जा सा सबतो बिरई एस ठाणे अणारंभट्ठाण आरिपजाव सबदुक्खप्पहीणमग्गे एगतसम्म साह, तस्थ
॥३३५॥
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३९], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३९]
दीप अनुक्रम [६७१]
णं जा सा सबओ विरयाविरई एस ठाणे आरंभणोआरंभट्ठाणे एस ठाणे आरिए जाच सबदुक्खप्पहीणमग्गे एगंतसम्म साहू ॥ सूत्रं ३९॥
अथापरस्य तृतीयस्य स्थानस्य मिश्रकारूपस्य विभङ्गः समाख्यायते--एतच्च यद्यपि मिश्रखाद्धर्माधर्माभ्यामुपपेतं तथापि धर्मभूयिष्ठखाद्धार्मिकपक्ष एवावतरति, तद्यथा-पहुपु गुणेषु मध्यपतितो दोषो नात्मानं लभते, कलङ्क इव चन्द्रिकायाः, तथा बहूदकमध्यपतितो मृच्छकलावययो नोदक कलुपयितुमलम् , एवमधर्मोऽपि धर्ममिति स्थितं धार्मिकपक्ष एवायं । 'इह असिन् जगति प्राच्यादिषु दिक्षु एके केचन शुभकर्माणो मनुष्या भवन्तीति, तद्यथा-अल्पा-स्तोका परिग्रहारम्भेष्विछा-अन्तःकरणप्रवृत्तिर्येषां ते तथा एवंभूता धार्मिकवृत्तयः प्रायः सुशीला: सुबताः सुप्रत्यानन्दाः साधवो भवन्तीति ।। तथैकस्मात्-स्थूलात्संकल्पकृतात् प्रतिनिवृत्ता एकरमाञ्च मूक्ष्मादारम्भजादप्रतिनिवृत्ता एवं शेषाण्यपि ब्रतानि संयोज्यानीति । एतसादपि सामान्येन निघृत्ता इत्यतिदिशन्नाह -'जे यावण्णे' इत्यादि, ये चान्ये सावद्या नरकादिगमनहेतवः कर्मसमारम्भास्तेभ्य एकस्साधन्त्रपीडननिलाञ्छनकपीवलादेर्निवृत्ता एकसाच क्रयविक्रयादेरनिवृत्ता इति ॥ तांश्च विशेषतो दर्शयितु| माह-विशिष्टोपदेशार्थ श्रमणानुपासते-सेवन्त इति श्रमणोपासकाः, ते च श्रमणोपासनतोऽभिगतजीवाजीवखभावाः तथो
|पलब्धपुण्यपापाः । इह च प्रायः सूत्रादर्शपु नानाविधानि मूत्राणि दृश्यन्ते न च टीकासंवायेकोऽप्यस्माभिरादर्शः समुपSलब्धोऽत एकमादर्शमङ्गीकृत्यासाभिर्विवरणं क्रियते इत्येतदवगम्य मूत्रविसंवाददर्शनाचित्तव्यामोहो न विधेय इति । ते श्रा| वकाः परिज्ञातबन्धमोक्षखरूपाः सन्तो न धर्माच्याम्यन्ते मेरुरिव निष्पकम्पा दृढमाहते दर्शनेऽनुरक्ताः । अत्र चार्थे सुखप्रतिप
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३९], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३९]
दीप अनुक्रम [६७१]
सूत्रकृताङ्गेयर्थ दृष्टान्तभूतं कथानक, तच्चेदं तद्यथा-राजगृहे नगरे कश्चिदेकः परित्राट् विद्यामत्रौषधिलब्धसामर्थ्यः परिवसति, स च २ किया२ श्रुतस्क- विद्यादिबलेन पत्तने पर्यटन यां यामभिरूपतरामङ्गनां पश्यति तां तामपहरति, ततः सर्वनागरै राज्ञे निवेदितं-यथा देव ! प्रत्यहं । स्थानाध्य न्ध शीला- पत्तनं मुष्यते केनापि, नीयते सर्वसारमङ्गनाजनोऽपि, यस्तस्यानभिमतः सोब केवलमास्ते, तदेवं (देव!) क्रियतां प्रसादस्तद-150 मिश्रे धर्मशायाहात न्वेषणेनेति । राज्ञाभिहित-गच्छत यूयं विश्रब्धा भवत अवश्यमहं तं दुरात्मानं लप्स्ये, किंच-यदि पञ्चपरहोमिने लभे चौरं वि-17
कव० मशेयुक्तोऽपि च त्यक्ष्याम्यात्मानमहं ज्वालामालाकुले वहौ, तदेवं कृतप्रतिज्ञं राजानं प्रणम्य निर्गता नागरिकाः, राज्ञा च सचि॥३३६॥
शेष नियुक्ता आरक्षकाः । आत्मनाऽप्येकाकी खड्गखेटकसमेतोऽन्वेष्टुमारब्धः, न चोपलभ्यते चौरः, ततो राज्ञा निपुणतरमन्वेषयता
पश्चमेऽहनि भोजनताम्बूलगन्धमाल्यादिकं गृहन् रात्रौ खतो निर्गतेनोपलब्धः स परिवाद, तत्पृष्ठगामिना नगरोयानवृक्षकोटरप्र- ||8| 8वेशेन गुहाभ्यन्तरं प्रविश्य व्यापादितः, तदनन्तरं समर्पितं यद्यस्य सत्कमङ्गनाजनोऽपीति । तत्र चैका सीमन्तिनी अत्यन्तमीष-18 |धिभिर्भाविता नेच्छत्यात्मीयमपि भर्तारं, ततस्तद्विद्भिरभिहितं यथाऽस्याः परिवाट्सत्कान्यस्थीनि दुग्धेन सह संघृष्य यदि दीयन्ते | तदेयं तदाग्रह मुञ्चति, ततस्तत्वजनैरेवमेव कृतं, यथा यथा चासौ तदस्थ्यभ्यवहारं विधत्ते तथा तथा तनहानुबन्धोऽपति, || | सोस्थिपाने चापगतः प्रेमानुबन्धः, तदनु रक्ता निजे भर्तरि । तदेवं यथाऽसावत्यन्तं भाविता तेन परिवाजा नेच्छत्यपरम् एवं श्रावकजनोऽपि नितरां भावितात्मा मौनीन्द्रशासने न शक्यते अन्यथाकर्तुम् , अत्यन्तं सम्यक्लोपन वासितखादिति । पुनरपि ॥३३६।। श्रावकान् विशिनष्टि-'जाव उसियफलिहा' इत्यादि, उच्छ्रितानि स्फटिकानीव स्फटिकानि अन्तःकरणानि येप ते तथा, एत-181 दुक्तं भवति–मोनीन्द्रदर्शनावाप्तौ सत्यां परितुष्टमानसा इति, तथा अप्रावृतानि द्वाराणि यैस्ते तथा, उद्घाटितगृहद्वारास्तिष्ठन्ति |
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३९], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३९]
दीप अनुक्रम [६७१]
अचियत्ता-अनभिमतोऽन्तापुरप्रवेशवत्परगृहद्वारप्रवेशोऽन्यतीर्थिकप्रवेशो येषां ते तथा, अनवरतं श्रमणानुयुक्तविहारिणो निम्रन्थान् प्रामुकेनपणीयेनाशनादिना तथा पीठफलकशय्यासंस्तारकादिना च प्रतिलाभयंतः तथा बहूनि वर्षाणि शीलवतगुण
व्रतप्रत्याख्यानपौषधोपवासरात्मानं भावयन्तस्तिष्ठन्ति ॥ तदेवं ते परमश्रावकाः प्रभूतकालमणुवतगुणव्रतशिक्षात्रतानुष्ठायिनः 8 साधूनामौषधवखपात्रादिनोपकारिणः सन्तो यथोक्तं यथाशक्ति सदनुष्ठानं विधायोत्पन्ने वा कारणेऽनुत्पन्ने वा भक्तं प्रत्याख्या
|यालोचितप्रतिक्रान्ताः समाधिप्राप्ताः सन्तः कालमासे कालं कलाऽभ्यतरेषु देवेषुत्पद्यन्त इति । एतानि चाभिगतजीवाजीवादिR| कानि पदानि हेतुहेतुमदावेन नेतण्यानि, तद्यथा-यस्मादभिगतजीवाजीवास्तसादुपलब्धपुण्यपापाः, यसादुपलब्धपुण्यपापास्त
सादुच्छ्रितमनसः, एवमुत्तरत्रापि एकैकं पदं त्यजद्भिरेकैकं चोत्तरं गृहद्भिर्वाच्य, ते च परेण पृष्टा अपृष्टा वा एतदूचुः, तद्यथाअयमेव मौनीन्द्रोक्तो मार्गः सदर्थः शेषस्वनों, यस्मादेवं प्रतिपद्यन्ते तसाचे समुच्छ्रितमनसः सन्तः साधुधर्म श्रावकधर्म च प्रकाशयन्तो विशेषेणैकादशोपासकप्रतिमाः स्पृशन्तो बिहरन्तोऽष्टमीचतुर्दश्यादिषु पौषधोपवासादी साधून प्रासुकेन प्रतिलाभयन्ति, पाचात्ये च काले संलिखितकायाः संस्तारकश्रमणभावं प्रतिपद्य भक्तं प्रत्याख्यायायुषः क्षये देवेधूत्पबन्ते । ततोऽपि च्युताः सुमानुपमा प्रतिपय तेनैव भवेनोत्कृष्टतः सप्तखष्टसु वा भवेषु सिध्यन्तीति । तदेतत्स्थान कल्याणपरम्परया सुखविपाकमितिकृसायमिति । अयं विभङ्गस्तृतीयस्य स्थानस्य मिश्रकारूपस्याख्यात इति ॥ उक्ता धार्मिकाः, अधार्मिकास्तदुभयरू
पाश्चाभिहिताः, साम्प्रतमेतदेव स्थानत्रिकमुपसंहारद्वारेण संक्षेपतो विभणिषुराह-येयमविरतिः-असंयमरूपा सम्यक्त्वाभावा18|न्मिध्यादृष्टे व्यतो विरतिरप्यविरतिरेव तां प्रतीत्य-आश्रित्य बालबद्वाल:-अज्ञः सदसद्विवेकविकलखात इत्येवम् 'आधीयते'
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३९], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३९]
सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कद्वीयावृत्तिः ॥३३७
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दीप
व्यवस्थाप्यते आख्यायते वा, तथा विरतिं च 'प्रतीत्य आश्रित्य पापाहीनः पण्डितः परमार्थशो वेत्येवमाधीयते आख्यायते वा. २ क्रियातथा विरताविरतिं चाथित्य बालपण्डित इत्येतत्वाग्वदायोग्यमिति । किमित्यविरति (विरताविरति) विरत्याश्रेयण (काल) बाल- थानाध्य० पाण्डिस्यपाण्डित्यापत्तिरित्याशवाह-'तस्थ ण' मित्यादि, 'तत्र' पूर्वोकेषु स्थानेषु येयं 'सर्वात्मना सर्वस्मात् 'अविरति विरतिपरिणामाभावः एतत्स्थानं सावधारम्भस्थानमाश्रय एतदाश्रित्य सर्वाण्यकार्याणि क्रियन्ते, यत एवमत एतदनार्य स्थान लि:-18 | शूकतया यत्किञ्चनकारिखाचावदसर्वदुःखप्रक्षीणमार्गोऽयं तथैकान्तमिध्यारूपोऽसाधुरिति । तत्र च येयं 'विरतिः' सम्यक्सपूर्विका सावद्यारम्भानिवृत्तिः सा स्थगितद्वारखान पापानुपादानरूपेति, एतदेवाह-तदेतत्स्थानम् अनारम्भखान-सावद्यानुष्ठानरहितला
संयमस्थानं, तथा चैतत्स्थानमार्यस्थानम् आराद्यातं सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्य तथा सर्वदुःखप्रक्षीणमार्ग:-अशेषकर्मक्षयपथ इति, त्यिकान्तसम्यग्भूतः, एतदेवाह-'साधु रिति, साधुभूतानुष्ठानात्साधुरिति । तत्र च येयं (विरता) विरतिरभिधीयते सैपा मिश्र-11 | स्थानभूता, तदेतदारम्भानारम्भरूपस्थानम् , एतदपि कथश्चिदायमेव, पारम्पर्येण सर्वदुःखप्रक्षीणमार्गः, तथैकान्तसम्पग्भूतः साधु-1 अति । तदेवमनेकविधोऽयमधर्मपक्षो धर्मपक्षस्तथा मिश्रपक्षश्चेति संक्षेपेणाभिहितः पक्षत्रयसमाश्रयणेन ।। साम्प्रतमसावपि मिश्रपक्षो। धर्माधर्मसमाश्रयणेनानयोरन्तर्वती भवतीति दर्शयतिएवमेव समणुगम्ममाणा इमेहिं व दोहि ठाणेहिं समोअरंति, तंजहा-धम्मे चेच अधम्मे येव उपसंते
॥३३७॥ चेव अणुवसंते येव, तत्थ णं जे से पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए, तत्थ णं इमाई तिन्नि तेवट्ठाई पायादुपसयाई भवतीति मक्खायाई (य), तंजहा-किरियावाईणं अकिरियावाईणं अन्ना
अनुक्रम [६७१]
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [४०], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४०]
दीप अनुक्रम [६७२]
णियवाईणं वेणइयवाइणं, तेवि परिनिवाणमासु, तेऽवि मोक्खमाहंसु तेऽवि लवंति, सावगा! तेऽवि लवंति सावइत्तारो ॥ सूत्रम् ४०॥ 'एवमेव' संक्षेपेण 'सम्यगनुगम्यमाना' व्याख्यायमानाः सम्यगनुगृह्यमाणाः 'अनयोरेव' धर्माधर्मस्थानयोरनुपतन्ति । किमिति , यतो यदुपशान्तस्थानं तद्धर्मपक्षस्थानमनुपशान्तस्थानमधर्मपक्षस्थानमिति । तत्र च यदधर्मपाक्षिकं प्रथम स्थानं तत्रामूनि त्रीणि त्रिपश्यधिकानि प्रावादुकशतान्यन्तर्भवन्तीत्येवमाख्यातं पूर्वाचायरिति । एतानि च सामान्येन दर्शयितुमाह'जहे त्यादि, तद्यथेत्युपदर्शनार्थः क्रियां-ज्ञानादिरहितामेकामेव स्वर्गापवर्गसाधनलेन वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनः, ते च दीक्षात एव मोक्षं बदन्तीत्येवमादयो द्रष्टव्या इति, तेषां च बहवो भेदाः, तथा अक्रियां परलोकसाधनखेन वदितुं शील येषां ते तथा तेषामिति, अज्ञानमेव श्रेयः इत्येवं वदितुं शीलं येषां ते भवन्त्यज्ञानवादिनस्तेषां, तथा विनय एव परलोकसाधने प्रधानं कारणं येषां ते तथा तेषामिति । अत्र च सर्वत्र षष्ठीबहुवचनेनेदमाह, तद्यथा-क्रियावादिनामशीत्युत्तरं शतं अक्रियावादिनां चतुरशीतिरज्ञानिकानां सप्तपष्टिीनयिकानां द्वात्रिंशदिति । तत्र च सर्वेऽप्येते मौलास्तच्छिष्याच प्रवदनशीलवात्प्रावा- 10 दुकाः, तेषां च भेदसंख्यापरिज्ञानोपाय आचार एवाभिहित इति नेह प्रतन्यते । ते सर्वेऽप्याहता इव परिनिर्वाणम्-अशेष-8 द्वन्द्वोपरमरूपमवर्णगन्धरसस्पर्शखभावमनुपचरितपरमार्थस्थानं ब्रह्मपदाख्यमवाधात्मक परमानन्दसुखस्वरूपमाहुः-उक्तवन्तः,
तथा तेऽपि प्रावादुकाः संसारचन्धनान्मोचनात्मकं मोक्षमाहुः, पूर्वेण निरुपाधिकं कार्यमेव निर्वाणारख्यमुक्तम् , अनेन तु तदेव Re कारणोपाधिकमित्ययं विशेषः । तत्र येषामप्यात्मा नास्ति ज्ञानसन्ततिवादिनां तेषामपि कर्मसंततेः संसारनिबन्धनम्ताया विच्छे-1
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
[४०]
दीप
अनुक्रम [६७२]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [४०], निर्युक्तिः [१६८ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
सूत्रकृताक्रे २ श्रुतस्क न्धे शीलाकीयावृत्तिः
॥ ३३८ ॥
दान्मोक्षभावाविरोधः तेषां चोपादानक्षयादनागतानुत्पत्तेः संततिच्छेद एव मोक्षः, प्रदीपस्येव तैलवर्त्यभावे निर्वाणमिति, तथा चाहु:- " न तस्य किञ्चिद्भवति, न भवत्येव केवल' मिति । एतच तेषां महामोह विजृम्भितं यतः-- "कर्म चास्ति फलं चास्ति, कर्ता नैवास्ति कर्मणाम् । संसारमोक्षवादित्वमहो ध्यान्ध्यविजृम्भितम् || १ ||" इति । येषां चात्माऽस्ति सांख्यादीनां तेषां प्रक्रतिविकारवियोगो मोक्षः, क्षेत्रज्ञस्य पञ्चविंशतितत्त्वपरिज्ञानादेव विद्यमानः प्रधानविकारैविमोचनं मोक्ष इति तेषामप्येकान्तनित्यवादितया मोक्षाभावः । एवमन्येऽपि नैयायिकवैशेषिकादयः संसाराभावमिच्छन्तोऽपि न मुच्यन्ते, सम्यग्दर्शनादिकस्योपायस्याभावाद् इत्यभ्यूवाह-यदि न तेषां मोक्षः कथं ते लोकस्योपास्या भवन्तीत्याशङ्कयाह – 'तेऽपि' तीर्थिका 'लपन्ति' बुवते, मोक्षं प्रति धर्मदेशनां विदधति, शुण्वन्तीति श्रावकाः हे श्रावका एवं गृहीत यूयं यथाऽहं देशयामि, तथा तेऽपि धर्मश्रावयितारः सन्त एवं 'लपन्ति' भाषन्ते यथाऽनेनोपायेन खर्गमोक्षावाप्तिरिति तद्वचनं मिथ्यात्वोपहतबुद्धयोऽवितथमेव गृह्णन्ति, कूटपण्य|दायिनां विपर्यस्तमतय इवेति । तदेवमादितीर्थंकास्तच्छिष्याश्च पारम्पर्येण मिथ्यादर्शनानुभावात्परान्प्रतारयन्ति तेऽपि च तेषां प्रतीयन्ति, आह-कथमेते प्रावादुका मिथ्यावादिनो भवन्तीति?, अत्रोच्यते, यतस्तेऽप्यहिंसां प्रतिपादयन्ति न च तां प्रधानमोक्षाङ्गभूतां सम्यगनुतिष्ठन्ति कथम् १, सांख्यानां तावज्ज्ञानादेव धर्मो न तेपामहिंसा प्राधान्येन व्यवस्थिता, किंतु पश्च इत्यादिको विशेष इति । तथा शाक्यानामपि दश कुशला धर्मपथा अहिंसापि तत्रोक्ता, न तु सैव गरीयसी धर्मसाधनलेन वैराश्रिता । वैशेषिकाणामपि 'अभिसेचनोपवासत्रह्मचर्य गुरुकुलवासप्रस्थादान यज्ञा दिनक्षत्रमन्त्रकालनियमा दृष्टाः तेषु चाभिषेचनादिषु १] ज्ञानसंतानस्य क्षणपरम्परकस्य वा २ ज्ञान सन्तानान्यभागरूपं हेतुत्वापेक्षया तृतीया हेतुत्वं च मोक्षस्य तदविनाभावित्यात् ४ प्रस्थान प्रस्वादन
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२ क्रियास्थानाध्य०
॥३३८॥
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [४०], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४०]
दीप अनुक्रम [६७२]
1 पर्यालोच्यमानेषु हिंसव संपद्यते । वैदिकानां च हिंसैव गरीयसी धर्मसाधनं, यज्ञोपदेशात् , तस्य च तयाऽविनाभावादित्यभिप्रायः, उक्तं च-"भुवः प्राणिवधो यज्ञे०" ।। तदेवं सर्वप्रावादुका मोक्षाङ्गभूतामहिंसां न प्राधान्येन प्रतिपद्यन्त इति दर्शयितुमाह
ते सच्चे पाचाउया आदिकरा धम्माणं णाणापन्ना णाणाछंदा णाणासीला णाणादिही णाणाई णाणारंभा णाणाझवसाणसंजुत्ता एगे महं मंडलिबंध किचा सवे एगो चिट्ठति ॥ पुरिसे य सागणियाणं इंगालाणं पाई बहुपडिपुग्नं अओमएणं संडासएणं गहाय ते सवे पावाउए आइगरे धम्माणं णाणापन्ने जाव णाणाझवसाणसंजुत्ते एवं वयासी-हंभो पावाउया ! आइगरा धम्माणं णाणापन्ना जाव णाणाअजझवसाणसंजुत्ता! इमं ताव तुम्भे सागणियाणं इंगालाणं पाई बहुपडिपुग्नं गहाय मुहत्तयं मुहुत्तगं पाणिणा घरेह, णो बहुसंडासगं संसारियं कुजा णो पहुअग्गिभणिय कुज्जा णो बहु साहम्मियवेयावडियं कुजा णो बहुपरधम्मियवेयावडियं कुजा उजुया णियागपडिवन्ना अमायं कुबमाणा पाणिं पसारेह, इति बुचा से पुरिसे तेसिं पावादुयाणं तं सागणियाणं इंगालाणं पाई बहुपडिपुग्नं अओमएणं संडासएणं गहाय पाणिंसु णिसिरति, तए णं ते पाचाया आइगरा धम्माणं णाणापन्ना जाव णाणाज्यवसाणसंजुत्ता पाणि पडिसाहरंति, तए णं से पुरिसे ते सवे पावाउए आदिगरे धम्माणं जाब णाणाजायसाणसंजुत्ते एवं वयासी-हंभो पाबादुया ! आइगरा धम्माणं णाणापन्ना जाव णाणाज्झवसाणसंजुत्ता ! कम्हा णं तुन्भे
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [४१], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
२क्रियास्थानाध्यक
प्रत सूत्रांक [४१]
सूत्रकृताङ्गे २श्रुतस्कन्धे शीला-18 बीयाधुचिः ॥३३९॥
दीप अनुक्रम [६७३]
पाणि पडिसाहरह?, पाणिं नो डहिज्जा, दड़े किं भविस्सइ, दुक्खं दुक्खंति मन्नमाणा पटिसाहरह, . एस तुला एस पमाणे एस समोसरणे, पत्तेयं तुला पत्तेयं पमाणे पत्तेयं समोसरणे, तत्व णं जे ते समणा माहणा एवमातिवंति जाव परुति-सच्चे पाणा जाव सत्वेसत्ता हतबा अजावेयवा परिघेतवा परितावेयवा किलामेतवा उद्दवेतवा, ते आगंतुछेयाए ते आगंतुभेयाए जाव ते आगंतुजाइजरामरणजोणिजम्मणसंसारपुणभवगन्भवासभवपवंचकलंकलीभागिणो भविस्संति, ते बद्दणं दंडणाणं वहणं मुंडणाणं तजणाणं तालणाणं अंबंधणाणं जाव घोलणाणं माइमरणाणं पिइमरणाणं भाइमरणाणं भगिणीमरणाणं भज्जापुत्तधूतमुण्हामरणार्ण दारिहाणं दोहग्गाणं अप्पियसंवासाणं पियविष्पओगाणं बहूणं दुक्खदोम्मणस्साणं आभागिणो भविस्संति, अणादियं च णं अणवयग्गं दीहमळू चाउरंतसंसारकतारं भुजो भुजो अणुपरियहिस्संति, ते णो सिझिस्संति णो बुझिस्संति जाव णो सबढुक्खाणं अंतं करिस्संति, एस तुला एस पमाणे एस समोसरणे पत्तेयं तुला पत्तेयं पमाणे पत्तेयं समोसरणे ॥ तत्थ णं जे ते समणा माहणा एवमाइक्खंति जाव परूवेंति-सवे पाणा सधे भूया सबे जीवा सवे सत्सा ण हंतवा ण अजावेयवा ण परिघेतवा ण उद्दवेयवा ते णो आगंतुछेयाए ते णो आगंतुभेयाए जाव जाइजरामरणजोणिजम्मणसंसारपुणभवगम्भवासभवपर्वचकलंकलीभागिणो भविस्संति, ते णो बहणं दंडणाणं जाव णो बहणं मुंडणाणं जाव बहणं दुक्खदोम्मणस्साणं णो भागिणो भविस्संति, अणादियं च णं अणवयग्गं
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॥३३९॥
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-1, मूलं [४१], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४१]
दीप अनुक्रम [६७३]
అందాలు
दीहमद्धं चाउरंतसंसारकतारं भुजो भुनो णो अणुपरियहिस्संति, ते सिन्झिस्संति जाव सबदुक्रवाणं अंतं करिस्संति ॥ (सूत्रं ४१) । प्रवदनशीलाः प्रावादुकाः 'सर्वेऽपि ते' त्रिषष्ठ्युत्तरत्रिशतपरिमाणा अपि आदिकरा यथाखं धर्माणां, येऽपि च तच्छिष्यास्तेऽपि । सर्वे नाना-भिन्ना प्रज्ञा-ज्ञानं येषां ते नानाप्रज्ञाः, आदिकरा इत्यनेनेदमाह-स्वरुचिविरचितास्ते न खनादिप्रवाहायाताः, ननु | चाहतानामपि आदिबविशेषणमस्त्येव, सत्यमस्ति, किंतु अनादिहेतुपरम्परेत्यनादिखमेव, तेषां च सर्वज्ञप्रणीतागमानाश्रयणानि-13 बन्धनाभावः तदभावाच्च भिन्नं परिज्ञानम् , अत एव नानाछन्दाः, छन्द:-अभिप्रायः, भिन्नाभिप्राया इत्यर्थः, तथाहि-उत्पादव्ययाव्यात्मके वस्तुनि सांख्यैरकान्तेनाविर्भावतिरोभावाश्रयणादन्वयिनमेव पदार्थ सत्यखेनाश्रित्य नित्यपक्षं (ते) समाश्रिताः, तथा| शाक्या अत्यन्तक्षणिकेषु पूर्वोत्तरभिन्नेषु पदार्थेषु सत्सु स एवायमिति प्रत्यभिज्ञाप्रत्ययः सदृशापरापरोत्पचिविप्रलब्धानां भवती|त्येतत्पक्षसमाश्रयणादनित्यपक्षं समाश्रिता इति । तथा नैयायिकवैशेषिकाः केषाञ्चिदाकाशपरमाण्यात्मादीनामेकान्तेन नित्यत्व-18 मेव कार्यद्रव्याणां च घटपटादीनामेकान्तेनानित्यतमेवाश्रिताः । एवमनया दिशाऽन्येऽपि मीमांसकतापसादयोऽभ्युद्या इति । तथा ते तीथिका नाना शीलं येषां ते तथा, शील-व्रतविशेषः, स च भिन्नस्तेषामनुभवसिद्ध एव । तथा नाना दृष्टि:-दर्शनं । | येषां ते तथा, तथा नाना रुचिर्येषां ते नानारुचयः, तथा नानारूपमध्यवसानम्-अन्तःकरणप्रवृत्तियेषां ते तथा, इदमुक्त भवति-अहिंसात्र प्रधान धर्माचं, सा च तेषां नानाभिप्रायखादविकलखेन न व्यवस्थिता । तस्या एव मूत्रकारः। प्राधान्यं दर्शयितुमाह-ते सर्वेऽपि प्रावादुका यथास्वपक्षमाश्रिता एकत्र प्रदेशे संयुता मंडलिवन्धमाधाय तिष्ठन्ति, तेषां |
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [४१], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४१]
दीप अनुक्रम [६७३]
सूत्रकृताङ्गेचैवं व्यवस्थितानामेकः कश्चित्पुरुषस्तेषां संवियर्थ ज्वलतामगाराणां प्रतिपूर्णा पात्रीम्-अयोमयं भाजनमयोमयेनैव २ क्रिया
| संदंशकेन गृहीखा तेषां ढौकितवान्, उवाच च तान् यथा-भोः प्रावादुकाः ! पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टा इदमारभृतं स्थानाध्य. न्धे शोला- भाजनमेकैकं मुहूर्त प्रत्येक बिभृत यूयं, न चेदं (ह) संदंशकं सांसारिक नापि चानिस्तम्भनं विदध्युः नापि च साधर्मिकान्यधार्मिकाणाद्वीयावृत्तिः मनिदाहोपशमादिनोपकारं कुर्युरिति, 'ऋजवो' मायामकुर्वाणाः पाणिं प्रसारयत, तेऽपि च तथैव कुर्युः, ततोऽसौ पुरुषः ॥३४॥
ताजनं पाणी समर्पयति, तेऽपि च दाहशङ्कया हस्तं सङ्कोचयेयुरिति, ततोऽसौ तानुवाच-किमिति पाणिं प्रतिसंहरत यूयं,
एवमभिहितास्ते ऊचुः-दाहमयादिति, एतदुक्तं भवति-अवश्यमग्निदाहभयान कविदयभिमुखं पाणिं ददातीत्येतत्परोऽयं । & दृष्टान्तः । पाणिना दग्धेनापि किं भवतां भविष्यतीति ?, दुःखमिति चेयद्येवं भवन्तो दाहापादितदुःखभीरवः सुखलिप्सवः, 18॥ तदेवं सति सर्वेऽपि जन्तवः संसारोदरविवरवर्तिन एवंभूता एवेत्येवम् 'आत्मतुलया' आत्मौपम्येन यथा मम नाभिमतं दुःख| मित्येवं सर्वजन्तूनामित्यवगम्याहिंसैव प्राधान्येनाश्रयणीया, 'तदेतत्प्रमाणं' सैषा युक्तिः 'आत्मवत्सर्वभूतानि, यः पश्यति स 81
पश्यति । तदेतत् समवसरणं स एव धर्मविचारो यत्राहिंसा संपूर्णा तत्रैव परमार्थतो धर्मः, इत्येवं व्यवस्थिते तत्र ये केचनावि-18 || दिवपरमार्थाः श्रमणब्राह्मणादयः 'एवं वक्ष्यमाणमाचक्षते परेषामात्मदान्धोत्पादनायैवं भाषन्ते तथैवमेव धर्म 'प्रज्ञापयन्ति | IS व्यवस्थापयन्ति, तथा अनेन प्राण्युपतापकारिणा प्रकारेण परेषां धर्म 'प्ररूपयन्ति' व्याचक्षते, तद्यथा-'सर्वे प्राणा' इत्यादि, ॥३४०॥
यावद्धन्तच्या दण्डादिभिः परितापयितव्या धर्मार्थमरघट्टादिवहनादिभिः परिग्राह्या विशिष्टकाले श्राद्धादी रोहितमत्स्यादय इव तथाऽपद्रावयितव्या देवतायागादिनिमित्तं वस्तादय इवेत्येवं ये श्रमणादयः प्राणिनामुपतापकारिणी भाषां भाषन्ते (ते) आगामिनि
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [४१], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४१]
दीप अनुक्रम [६७३]
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कालेऽनेकशो बहुशः स्वशरीरच्छेदाय भेदाय च भाषन्ते, तथा ते सावधभाषिणो भविष्यति काले जातिजरामरणानि बहूनि प्रामुवन्ति । योन्यां जन्म योनिजन्म तदनेकशो गर्भव्युत्क्रान्तजावस्थायां प्राप्नुवन्ति, तथा संसारप्रपश्चान्तर्गतास्तेजोवायुपूधैर्गोत्रो| दुलनेन कलकलीभावभाजो भवन्ति बहुशो भविष्यन्ति च, तथा ते बहूनां दण्डादीनां शारीराणां दुःखानामात्मानं भाजनं | कुर्वन्ति, तथा ते निर्विवेका मानवधादीनां मानसानां दुःखानां तथाऽन्येषामप्रियसंप्रयोगार्थनाशादिभिर्दुःखदौमनस्यानामाभागिनो भविष्यन्तीति । किंबहुनोक्तेन ?, उपसंहारव्याजेन गुरुतरमनर्थसंबन्धं दर्शयितुमाह-'अणादियं' इत्यादि, नास्यादि- रस्तीत्यनादि:--संसार, तदनेनेदमुक्तं भवति यत्कश्चिदभिहितं यथाज्यमण्डकादिक्रमेणोत्पादित इत्येतदपास्तं, न विद्यतेऽवद-18
-पर्यन्तो यस्य सोज्यमनवदग्रोऽपर्यन्त इत्यर्थः, तदनेनेदमुक्तं भवति-यदुक्तं कैचिद्यथा प्रलयकालेऽशेपसागरजलप्लावनं द्वादशा| दिस्योद्गमेन चात्यन्तदाह इत्यादिकं सर्व मिथ्येति, 'दीर्घ' मित्यनन्तपुद्गलपरावर्तरूपकालावस्थानं, तथा चत्वारोऽन्ता-गतयो
यस्य स तथा, चातुर्गतिक इत्यर्थः, तत्संसार एवं कान्तार: संसारकान्तारो, निर्जल: समयसागरहितोऽरण्यप्रदेशः कान्तार इति । | तदेवंभूतं 'भूयो भूयः' पौन:पुन्येनानुपरिवर्तिष्यन्ते-अरहट्टघटीन्यायेन तत्रैव भ्रमन्तः स्थास्वन्तीति, अत एवाह-यतस्ते प्राणिनां हन्तारः, कुत एतदिति चेत्सावयोपदेशाद् , एतदपि कथमिति चेदन्ततः आदेशिकादिपरिभोगानुज्ञयेत्येवमवगन्तव्यमित्यतस्ते कुप्रावचनिका नैव सेत्स्यन्ति-नैव ते लोकाग्रस्थानमाक्रमिष्यन्ति, तथा न ते सर्वपदार्थान् केवलज्ञानावास्या भोत्स्यन्ते, अनेन ज्ञानातिशयाभावमाह, तथा न तेऽष्टप्रकारेण कर्मणा मोक्ष्यन्ते, अनेनाप्यसिद्धेरकैवल्यावाप्तेश्च कारणमाह, तथा परिनिवृतिः। परिनिर्वाणं-आनन्दसुखावाप्तिस्तां ते नैव प्राप्स्यन्ते, अनेनापि सुखातिशयाभावः प्रदर्शितो भवतीति, तथा नेते शारीरमानसानां
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [४१], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४१]
सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क- कीयावृतिः ॥३४१॥
न्धे शीला
दीप
दुःखानामात्यन्तिकमन्तं करिष्यन्तीत्यनेनाप्यपायर्यातिशयाभावः प्रदर्शितो भवति । एषा तुला' तदेतदुपमानं यथा सावद्यानुष्ठा- २ क्रियानपरायणाः सावधभाषिणश्च कुप्रावचनिका न सिध्यन्त्येवं स्वयूच्या अप्योद्देशिकादिपरिभोगिनो न सिध्यन्तीति । तदेतत्प्रमाणं-स्थानाध्यक प्रत्यक्षानुमानादिकं, तथाहि-प्रत्यक्षेणैव जीवपीडाकारी चौरादिर्बन्धनान्न मुच्यते, एवमन्येऽपीति, अनुमानादिकमप्यायोज्यं । | तथा तदेतत्समवसरणम्-आगमविचाररूपमिति, प्रत्येकं च प्रतिप्राणि प्रतिप्रावादुकमेतत्तुलादिकं द्रष्टव्यमिति ।। ये पुनर्वि-11 दिततच्या आत्मौपम्येन-आत्मतुलया सर्वजीवेष्वहिंसां कुर्वाणा एवमाचक्षते, तद्यथा-सर्वेऽपि जीवा दुःखद्विषः सुखलिप्सवस्ते न हन्तव्या इत्यादि । तदेवं पूर्वोक्तं दण्डनादिकं सप्रतिषेध भणनीयं यावत्संसारकान्तारमचिरेणैव ते व्यतिक्रमिष्यन्तीति | || भणितानि क्रियास्थानानि, साम्प्रतमुपसंजिघृक्षुरेतदेव पूर्वोक्तं समासेन विभणिपुराह
इतेहिं बारसहिं किरियाठाणेहिं वहमाणा जीवा णो सिज्झिसु णो बुद्धिंसु णो मुधिंसु णो परिणिवाइंसु जाव णो सबदुक्खाणं अंतं करेंसु वा णो करेंति वा णो करिस्संति वा । एयंसि चेव तेरसमे किरियाठाणे वट्टमाणा जीवा सिद्धिंसु बुद्धिंसु मुचिंसु परिणिवाईसु जाव सबदुक्खाणं अंतं करेंसु वा करति वा करिस्संति वा । एवं से भिक्खु आयट्ठी आयहिते आयगुत्ते आयजोगे आयपरकमे आयरक्खिए आयाणुकंपए आयनिफेडए आयाणमेव पडिसाहरेज्जासि त्तिवेमि ॥ (सूत्रं ४२) ॥ इति बीयमुयक्खंधस्स किरियाठाणं नाम बीयमज्झयणं समत्तं ॥ १ पगमा कचित् काविच नायायाति २ आत्यन्तिकदुःखनाशाभाय इति ।
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [४२], नियुक्ति: [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४२]
दीप अनुक्रम [६७४]
इत्येतेषु द्वादशसु क्रियास्थानेष्वधर्मपक्षोऽनुपशमरूपः समवतार्यते, अत एतेषु वर्तमाना जीवा नातीते काले सिद्धा न वर्तमाने | सिध्यन्ति न भविष्यति सेत्स्यन्ति, तथा न बुबुधिरे न बुध्यन्ते न च भोत्स्यन्ते, तथा न मुमुचुन मुश्चन्ति न च मोक्ष्यन्ते, तथा न
| निवृता न निर्वान्ति न च निर्वास्यन्ति, तथा न दुःखानामन्तं ययुर्न पुनयोंन्ति न च यास्यन्तीति । साम्प्रतं त्रयोदशं क्रियास्थानं | || धर्मपक्षाश्रितं दर्शयितुमाह-एतसिंखयोदशे क्रियास्थाने वर्तमाना जीवाः सिद्धाः सिध्यन्ति सेत्स्वन्तीति यावत्सर्वदुःखानामन्तं |
करिष्यन्तीति स्थितं । तदेवं स भिक्षुर्यः पीण्डरीकाध्ययनेऽभिहितो द्वादशक्रियास्थानवर्जकः अधर्मपक्षानुपशमपरित्यागी धर्मपक्षे | स्थित उपशान्त आत्मना आत्मनो वाऽर्थः आत्मार्थः स विद्यते यस स तथा, यो बन्यमपायेभ्यो रक्षति स आत्मार्थ्यात्मवानि
त्युच्यते, अहिताचाराश्च चौरादयो नात्मवन्तोऽयं खात्महित ऐहिकामुष्मिकापायभीरुखात, तथाऽऽत्मा गुप्तो यस्य स तथा, एत18 दुक्तं भवति-खयमेवासी संयमानुष्ठाने पराक्रमते, तथाऽऽस्मयोगी आत्मनो योगः-कुशलमन:प्रवृत्तिरूप आत्मयोगः स 8 यस्यास्ति स तथा, सदा धर्मध्यानावस्थित इत्यर्थः, तथाऽऽत्मा पापेभ्यो दुर्गतिगमनादिभ्यो रक्षितो येन स तथा, दुर्गतिगमनहे
तुनिवन्धनस्य सावद्यानुष्ठानस्य निवृत्तवादितिभावः, तथाऽऽत्मानमेवानर्थपरिहारद्वारेणानुकम्पते शुभानुष्ठानेन सद्गतिगामिनं
विधत्त इति, तथाऽत्मानं सम्यग्दर्शनादिकेनानुष्ठानेन संसारचारकानिःसारयतीति, तथाऽऽत्मानमनर्थभूतेभ्यो द्वादशभ्यः क्रिNयास्थानेभ्यः प्रतिसंहरेत् , यदिवोपदेशः-आत्मानं सर्वापायेभ्यः प्रतिसंहियात् सर्वानथेभ्यो निवर्तयेदित्येतस्मिन्महापुरुषे संभा| व्यत इति । इति परिसमाप्त्यर्थे, ब्रवीमीति पूर्ववत् । नयाः पूर्ववयाख्येयाः । समाप्त क्रियास्थानाख्यं द्वितीयमध्ययनमिति ॥
कतरिप्रयोगे आद्यद्वये कमंग इस्पध्याहारः ।
foccercerceneraepriseseeCess
अत्र द्वितीयं-अध्ययनं परिसमाप्तं
~214~
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [४२...], नियुक्ति: [१६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क
अथ द्वितीयश्रुतस्कन्धे तृतीयाध्ययनप्रारम्भः॥
३ आहारपरिक्षा.
न्धे शीला
[४२]
दीयावृतिः ॥३४२॥
दीप अनुक्रम [६७४]
द्वितीयाध्ययनानन्तरं तृतीयमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः-कर्मक्षपणार्थमुद्यतेन भिक्षुगा द्वादशक्रियास्थानरहितेनान्त्य-18 क्रियाथानसेविना सदाहारगुप्तेन भवितव्यं, धर्माधारभूतस्य शरीरस्वाधारो भवत्याहारः, स च मुमुक्षुणोदेशकादिदोषरहितो 81 ग्राह्यः, तेन च प्रायः प्रतिदिनं कार्यमित्यनेन संबन्धेनाहारपरिज्ञाध्ययनमायातम् , अस्य चखार्यनुयोगद्वाराष्पक्रमादीनि भवन्ति,8 तत्रेदमध्ययन पूर्वानुपूर्ध्या तृतीयं पश्चानुपूर्व्या पञ्चममनानुपूर्त्या खनियतमिति, अर्थाधिकारः पुनरवाहारः शुद्धाशुद्धभेदेन निरूप्यते । निक्षेपविविधः-ओघादिः, तत्रौषनिष्पन्ने निक्षेपेऽध्ययन, नामनिष्पने तु आहारपरिक्षेति द्विपद नाम, तत्राहारपदनिक्षेपार्थमाह नियुक्तिकारः-- नामंठवणादविए खेत्ते भावे य होति बोद्धयो । एसो खलु आहारे निक्खेवो होइ पंचविहो ॥१९॥ दधे सश्चित्सादी खेत्ते नगरस्स जणवओ होइ । भावाहारो तिविहो ओए लोमे य पक्खेवे ॥ १७ ॥ सरीरेणोयाहारो तयाय फासेण लोमआहारो। पक्खेवाहारो पुण कावलिओ होइ नायबो ॥ १७१॥ ओयाहारा जीवा सबे अप्पजत्तगा मुणेयद्या । पजत्तगा य लोमे पक्वेवे होइ (होंति) नायबा ।। १७२ ।। एगिदियदेवाण नेरल्याणं च नत्थि पक्वेवो । सेसाणं पक्वेवो संसारस्थाण जीवाणं ॥ १७३ ।।
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॥३४२॥
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अत्र तृतीयं अध्यननं "आहार-परिज्ञा" आरभ्यते, पूर्व-अध्ययनेन सह अस्य अध्ययनस्य अभिसंबंध:, आहारपद शब्दस्य निक्षेपा:
~2154
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [४२...], नियुक्ति: [१७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४२]
दीप अनुक्रम [६७४]
accccersedesesepercedesecent
एकंच दो व समए तिन्नि घ समए मुहत्तमद्धं वा । सादीयमनिहणं पुण कालमणाहारगा जीवा ॥ १७४ ।। एकं च बो व समए केवलिपरिवजिया अणाहारा । ममि दोपिण लोए य पूरिए तिन्नि समया उ ॥१७॥ अंतोमुत्समद्धं सेलेसीए भवे अणाहारा । सादीयमनिहणं पुण सिद्धा यऽणहारगा होति ॥ १७६ ॥ जोएण कम्मएणं आहारेई अणंतरं जीवो । तेण परं मीसेणं जाव सरीरस्स निष्फत्ती ॥ १७७॥ णामं ठवणपरिना दचे भावे य होइ नायबा । दवपरित्ना तिविहा भावपरिन्ना भवे दुविहा ॥ १७८॥
नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रभावरूपः पञ्चप्रकारो भवति निक्षेप आहारपदाश्रय इति, तत्र नामस्थापने अनादृत्य द्रव्याहारं प्रतिपादयितुमाह-द्रव्याहारे चिन्त्यमाने सचित्तादिराहारविविधो भवति, तद्यथा-सचित्तोऽचित्तो मिश्रश्व, तत्रापि सचिवः पविधः पृथिवीकायादिका, तत्र सचित्तस पृथिवीकायस्स लवणादिरूपापन्नस्याहारो द्रष्टव्यः, तथाऽपकायादेरपीति, एवं मिश्रोऽचित्तश्च बोज्यः, नवरममिकायमचितं प्रायशो मनुष्या आहारयन्ति, ओदनादेस्तद्रूपलादिति । क्षेत्राहारस्तु यसिन्क्षेत्रे आहारः क्रियते उत्पवते व्याख्यायते वा, यदिवा नगरस यो देशो धान्येन्धनादिनोपभोग्यः स क्षेत्राहारः, तद्यथा-मथुरायाः समासन्नी देशः परिमोग्यो मथुराहारो मोढेरकाहारः बेडाहार इत्यादि । भावाहारस्वयं-क्षुधोदयाद्भक्ष्यपर्यायापन्न वस्तु यदाहारयति स भावा-IST हार इति । तत्रापि प्रायश आहारस्व जिह्वेन्द्रियविषयसाचिक्तकटुकषायाम्ललक्णमधुररसा गृह्यन्ते, तथा चोक्तम्-"राईभत्ते
पोछिकाची सचित्तामिमणिकामाद यहा कोरादयोऽप्रेक्षका इति किंवदन्ती २ ओदनादीनाममिनिषनरपेगाषितामिरूपाणी भलादीनां च शबूपतवा पक्षणाचादधुनाऽचित्ताभिकायता, भगवतीशी भग्निपरिणामव्याख्यानमप्योदनादौनामौण्ययोगादेव रात्रिम भावतविक या चावन्मधुरं वा ।
GEORGERese
आहारपद शब्दस्य निक्षेपा:,
~216~
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
[४२]
दीप
अनुक्रम
[६७४]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [-], मूलं [४२...], निर्युक्तिः [१७८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
सूत्रकृता २ श्रुतस्क न्धे शीलाडीयावृत्तिः
॥३४३ ॥
भावओ तिचे वा जाब मधुरे"त्यादि, अन्यदपि प्रसङ्गेन गृझते, तद्यथा-खरविशदमभ्यवहार्य भक्ष्यं तत्रापि बाप्पाठ्य ओदनः प्रशस्यते न शीतः उदकं तु शीतमेव, तथा चोक्तं "शैत्यमपां प्रधानो गुणः" एवं तावदभ्यवहार्य द्रव्यमाश्रित्य भावाहारः प्रतिपादितः, साम्प्रतमाहारकमाश्रित्य भावाहारं निर्मुक्तिकदाह- भावाहारस्त्रिविधः- त्रिप्रकारो भवति, आहारकस्य जन्तोत्रिभिः प्रकारैराहारोपादानादिति, प्रकारानाह - 'ओए'ति तेजसेन शरीरेण तत्सहचरितेन च कार्मणेनाभ्यां द्वाभ्यामप्याहारयति यावदपरमौदारिकादिकं शरीरं न निष्पद्यते, तथा चोक्तम्- "तेएर्ण कम्मएणं आहारेइ अनंतरं जीवो। तेण परं मिस्सेणं जाव सरीरस्स निष्पत्ती ॥ १ ॥” तथा ओआहारा जीवा सबै आहारगा अपज्जता ।" लोमाहारस्तु शरीरपर्याप्युत्तरकालं ब्राह्मया खचा, लोममिराहारो लोमाहारः, तथा प्रक्षेपेण कबलादेराहारः प्रक्षेपाहारः, स च वेदनीयोदयेन चतुर्भिः स्थानैराहारसंज्ञासद्भावावति, तथा चोक्तम्- "चंउहिं ठाणेहिं आहारसण्णा समुप्पअर, तंजहा- ओमकोट्याए १ छुहावेयणिअस्स कम्मस्स उदपणं २ मईए ३ तयट्टोवओगेणं" ति । साम्प्रतमेतेषां त्रयाणामप्येकबैव गाथया व्याख्यानं कर्तुमाह- तैजसेन कार्मणेन च शरीरेणौदारिकादिशरीरानिष्पत्तेर्मिश्रेण च य आहारः स सर्वोऽप्योजाहार इति केचित्याचक्षते - औदारिकादिशरीरपर्यात्या पर्याप्तकोऽपीन्द्रि यानापान भाषामनः पर्याप्तिभिरपर्याप्तकः शरीरेणाहारयन् ओजाहार इति गृह्यते, तदुत्तरकालं तु त्वचा स्पर्शेन्द्रियेण य आहारः स लोमाहार इति प्रक्षेपाहारस्तु 'कावलिकः' कवलप्रक्षेपनिष्पादित इति ज्ञातव्यो भवति । पुनरप्येषामेव स्वामिविशेषेण विशेषमा
१ तैजसेन कार्मणेन चाहारयस्यनन्तरं जीवः ततः परं मित्रेण यावच्छरीरस्य निष्यत्तिः ॥ १ ॥ २ ओजआद्वारा जीवाः सबै आहारका अपर्याप्ताः ॥ १ ॥ ३ चतुर्भिः स्थानराहारसंज्ञा समुत्पद्यते तद्यथा बामकोठतया भावेदनीयस्य कर्मण उदयेन मया तदर्योपयोगेन ॥ १ ॥
Education internation
आहारपद शब्दस्य निक्षेपाः
For Parts Use One
~217~
३ आहारपरिज्ञा
||३४३॥
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [४२...], नियुक्ति: [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४२]
दीप अनुक्रम [६७४]
विर्भावयन्नाह-यः प्रागुक्तः शरीरेणौजसाऽऽहारस्तेनाहारेणाहारका जीवाः सर्वेऽप्यपर्याप्तका ज्ञातव्याः, सर्वाभिः पर्याप्तिभिरपर्या-18 सास्ते वेदितव्याः, तत्र प्रथमोत्पत्ती जीवः पूर्वशरीरपरित्यागे विग्रहेणाविग्रहेण वोत्पत्तिदेशे तैजसेन कार्मणेन च शरीरेण तप्तस्नेहपतित| संपानकवत्तत्प्रदेशस्थानात् (स्थान) पुद्गलानादत्ते, तदुत्तरकालमपि यावदपर्याप्तकावस्था ताबदोजआहार इति, पर्याप्तकास्त्विन्द्रिया-|| || दिभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्ताः केषांचिन्मतेन शरीरपर्याप्तका वा गृह्यन्ते, तदेवं ते लोमाहारा भवन्ति, तत्र स्पर्शेन्द्रियेणोष्मादिना तप्त छायया शीतवायुनोदकेन वा प्रीयते प्राणी गर्भस्थोऽपि, पर्याप्युत्तरकालं लोमाहार एवेति, प्रक्षेपाहारे तु भजनीयाः, यदैव | प्रक्षेपं कुर्वन्ति तदैव प्रक्षेपाहारा नान्यदा, लोमाहारता तु वाय्वादिस्पर्शात्सर्वदेवेति, सच लोमाहारचक्षुष्मताम्-अर्वाग्दृष्टिमतां न दृष्टिपथमवतरति, अतोऽसौ प्रतिसमयवर्ती प्रायशः, प्रक्षेपाहारस्तूपलभ्यते प्रायः, स च नियतकालीयः, तद्यथा-देवकुरूत्तरकुरु (वादि) प्रभवा अष्टमभक्ता(घा)हाराः, संख्येयवर्षायुपामनियतकालीयः प्रक्षेपाहार इति।साम्प्रतं प्रक्षेपाहारं खामिविभागेन दर्शयितुमाहएकमेव स्पर्शेन्द्रियं येषां ते भवन्त्येकेन्द्रियाः पृथिवीकायादयस्तेषां देवनारकाणां च नास्ति प्रक्षेपः, ते हि पर्याप्त्युत्तरकालं स्पर्श|न्द्रियेणैवाहारयन्तीतिकृता लोमाहाराः, तत्र देवानां मनसा परिकल्पिताः शुभाः पुद्गलाः सर्वेणैव कायेन परिणमन्ति नारकाणां त्वशुभा इति, शेषास्त्वौदारिकशरीरा द्वीन्द्रियादयस्तिर्यअनुष्याश्च तेषां प्रक्षेपाहार इति, तेषां संसारस्थिताना कायस्थितेरेवाभावाप्रक्षेपमन्तरेण, कावलिक आहारो जिहेन्द्रियस्य सद्भावादिति, अन्ये त्वाचार्या अन्यथा व्याचक्षते-तत्र यो जिडेन्द्रियेण स्थूलः | शरीरे प्रक्षिप्यते स प्रक्षेपाहारः, यस्तु घ्राणदर्शनश्रवणैरुपलभ्यते धातुभावेन परिणमति स ओजाहारः, यः पुनः स्पर्शेन्द्रियेणे
१ वायुस्पर्शालोमाहारस्य सार्वदिकत्वात् , विप्रहादी व्यभिचार वारणाय प्रायश इति ।
आहारपद शब्दस्य निक्षेपा:
~218~
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [४२...], नियुक्ति: [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
परिज्ञा
[४२]
दीप अनुक्रम [६७४]
सूत्रकृताङ्गे शवोपलभ्यते धातुभावेन(च) प्रयाति स लोमाहार इति ।। साम्प्रतं कालविशेषमधिकृत्याऽनाहारकानभिधित्सुराह-तत्र 'विग्गहगइमा-18 आहार२ श्रुतस्क-इवना केवलिणो समुहया अयोगी या । सिद्धा य अगाहारा सेसा आहारगा जीवा ॥१॥' अस्सा लेशतोऽयमर्थ:-उत्पत्तिकाले ।
शीला- | विग्रहगतौ-वक्रगतावापन्नाः केवलिनो लोकपूरणंकाले समुद्घातावस्थिता अयोगिनः-शैलेश्यवस्थाः सिद्धाश्चानाहारकाः, शेषास्तु कीयावृत्तिः
जीवा आहारका इत्यवगन्तव्यं, तत्र भवाद्भवान्तरं यदा समश्रेण्या याति तदानाहारको न लभ्यते, यदापि विश्रेण्यामेकेन | ॥३४४॥
| वक्रेणोत्पद्यते तदापि प्रथमसमये पूर्वशरीरस्थेनाहारितं द्वितीये खवक्रसमये समाश्रितशरीरस्थेनेति, बक्रद्वये तु त्रिसमयोत्पत्ती ||
मध्यमसमयेऽनाहारक इति इतरयोस्वाहारक इति, वक्रत्रये तु चतुःसमयोत्पचिके मध्यवर्तिनोः समययोरनाहारका, चतुःसमयो । 18त्पतिवैवं भवति-प्रसनाब्धा बहिरुपरिष्टादधोऽधस्ताद्वोपर्युत्पद्यमानो दिशो विदिशि विदिशो वा दिशि यदोत्पद्यते तदा लभ्यते,
तत्रैकेन समयेन प्रसनाडीप्रवेशो द्वितीयेनोपर्यधो वा गमनं, तृतीयेन च बहिनिःसरणं, चतुर्थेन तु विदिक्षुत्पत्तिदेशे प्राप्तिरिति । पञ्चसमया तु प्रसनाव्या बहिरेव विदिशो विदिश्रुत्पत्तौ लभ्यते तत्र च मध्यवर्तिषु (त्रिषु) अनाहारक इत्यवगन्तव्यम् , आवन्तसमययोस्वाहारक इति । केवलिसमुद्घातेऽपि कार्मणशरीरवर्तिखात् तृतीयचतुःपञ्चमसमयेष्वनाहारको द्रष्टव्यः । शेषेषु तु औदारिकतन्I मिश्रशरीरवर्तिखादाहारक इति । 'मुहत्तमद्धं चाति अन्तर्मुहूर्त गृह्यते, तच्च केवली वायुपाक्षये सर्वयोगनिरोधे सति इस्वपश्चा
क्षरोद्विरणमात्रकालं यावदनाहारक इत्येवमवगन्तव्यं । सिद्धजीवास्तु शैलेश्यवस्थाया आदिसमयादारभ्यानन्तमपि कालमनाहा-II ||३४४॥ कारका इति ॥ साम्प्रतमेतदेव खामिपिशेषविशेपिततरमाह-केवलिपरिवर्जिताः संसारस्था जीवा एकं द्वौ वा अनाहारका भवन्ति ।
उपलक्षणापूर्णतासंहरणयोः वलोऽवांक, सामीप्य व सप्तमी ।
आहारपद शब्दस्य निक्षेपा:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [४२...], नियुक्ति: [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४२]
दीप अनुक्रम [६७४]
ते च द्विनिहत्रिविप्रोत्पची विचनुःसामविकायां द्रष्टष्याः, चतुर्विग्रहपञ्चसमयोत्पत्तिस्तु स्वल्पसत्त्वाश्रितेति न साक्षादुपात्ता, तथा चान्यत्राप्यभिहितम्-"एकजीवाऽनाहारक" (तत्त्वा० अ०२०३१), वाशब्दात् बीन् वा, आनुपूर्ध्या अप्युदय उत्कृष्टतो । विग्रहगतौ चतुरः समयानागमेऽभिहितः, ते च पञ्चसमयोत्पत्तौ लभ्यन्ते नान्यत्रेति । भवस्खकेवलिनस्तु समुत्पाते गन्थे तत्करणोपसंहारावसरे तृतीयपश्चमसमयौ द्वौ लोकपूरणाच्चतुर्थसमयेन सहितात्रयः समया भवन्तीति । पुनरपि नियुक्तिकारः सादिक-|
मपर्यवसान कालमनाहारकलं दर्शयितुमाह-शैलेश्यवस्थाया आरभ्य सर्वदाज्नाहारकः सिद्धावस्थाप्राप्तावनन्तमपि कालं याव8| दिति, पूर्व तु काचलिकन्यतिरेकेण प्रतिसमयमाहारकः कावलिकेन तु कादाचिक इति । ननु केवलिनो पातिकर्मक्षयेऽनन्तपी
र्यलाच भवत्येव कावलिक आवारः, तथादि-आहारादाने यानि वेदनादीनि पट् कारणाम्यभिहितानि तेषां मध्ये एकमपि न |
विद्यते केवलिनि तत्कथमसाबाहारं बहुदोषदुष्टुं गृहीयान् ?, नत्र न तावत्तस्य वेदनोत्पद्यते, तद्वेदनीयस्थ दग्धर स्थानिकखान, इसल्यामपि न तस तत्कृता पीडा, अनन्तवीर्यसात, वैयावृत्यकारणं तु भगवति सुरासुरनराधिपतिपूज्ये न संभाव्यत एवेति, IS ईयोपथः पुनः केवलज्ञानावरणपरिक्षयात्सम्यगवलोकयत्येवासौ, संयमस्तु सस बधाख्यातचारित्रिणो निष्ठिताखानाहार
ग्रहणाय कारणीभवति, प्राणवृत्तिस्तु तस्यानपवर्तिवात् आयुषोऽनन्तवीर्यसाधान्यथा सिद्धैव, धर्मचिन्तावसरस्वपगतो निष्ठिता-18
खात्, तदेवं केबलिनः काबलिकाहारो बहपायसान कथचि घटत इति स्थितम्, अत्रोच्यते, सत्र यत्ताचदुक्तं 'धातिकमेक्षये हा कवेलज्ञानोत्पत्तावनन्तवीर्यवान केवलिनो अक्ति'रिति, तदागमानभिज्ञस्य तत्वविचाररहितस युक्तिरदयमजानतो वचनं, तथाहा अन्तराणि सहल मन्धीभवनसमयः २ सति कारणताहापनाय ।
ARTMastaram.org
अनाहारकत्वं दर्शनं, केवलिन: भुक्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [४२...], नियुक्ति: [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४२]
दीप अनुक्रम [६७४]
सूत्रकृताङ्गे हि-यदाहारनिमित्तं वेदनीयं कर्म तत्तस्य तथैवाऽस्ते, किमिति सा शारीरी स्थितिः प्राक्तनी न भवाते , प्रमाण च-अस्ति केव-18 २ श्रुतस्क- लिनो भुक्तिः, समग्रसामग्रीकत्वात्पूर्वभुक्तिवत् , सामग्री चेयं प्रक्षेपाहारस्व, तद्यथा-पर्याप्सत्वं १ वेदनीयोदयः २ आहारपक्ति-18'
परिज्ञायां न्धे शीला
निमित्तं तैजसशरीरं ३ दीर्घायुष्कत्वं ४ चेति, तानि च समस्तान्यपि केवलि नि सन्ति, यदपि दग्धरजसंस्थानिकत्वमुच्यते वेदनीकीयावृत्तिः
केवलिनो
मुक्ति यस्य तदप्यनागमिकमयुक्तिसंगतं च, आगमे हत्यन्तोदयः सातस्य केवलिन्यभिधीयते, युक्तिरपि-यदि घातिकर्मक्षयाज्ञानादय॥३४५॥ तस्याभूवन् वेदनीयोद्भवायाः क्षुधः किमायातं ? येनासौ न भवति, न तयोश्छायातपयोरिव सहानवस्थानलक्षणो नापि भावा
A भावयोरिव परस्परपरिहारलक्षणः कश्चिद्विरोधोऽस्तीति, सातासातयोश्चान्तर्मुहूर्तपरिवर्तमानतया यथा सातोदय एवमसातोदयो
पील्पनन्तवीर्यत्वे सत्यपि शरीरबलापचयः क्षुद्धेदनीयोद्भवा पीडा च भवत्येव, न चाहारग्रहणे तय किंचित्क्षीयते, केवलमाहो-11 पुरुषिकामात्रमेवेति । यदप्युच्यते-वेदनीयस्थोदीरणाया अभावात्प्रभूततरपुद्गलोदयाभावस्तदभावाचात्यन्तं वेदनीयपीडाऽभाव || इति वायात्रं, तथाहि-अविरतसम्यग्दृष्यादिवेकादशसु स्थानकेषु वेदनीयस्य गुणश्रेणीसद्भावात्प्रभूतपुद्गलोदयसद्भावः ततः किं तेषु का प्राक्तनेभ्योऽधिकपीडासद्भाव इति, अपिच-यो जिने सातोदयस्तीवः किमसी प्रचुरखुद्गलोदये नेति, अतो यत्किश्चिदेतदिति ।। प्र तदेवं सातोदयवदसातोदयोऽपि केवलिन्यनिवारित इति, तयोरन्तर्मुहर्नकालेन परिवर्तमानत्वात् । यदपि कचिकैबिदभिधीयते-18॥ || विपच्यमानतीर्थंकरनाम्नो देवस्य च्यवनकाले पण्मासकालं यावदत्यन्त सातोदय एवेत्यसावपि यदि खान नो बाधायै, केव-18||३४५।। || लिनों भुक्तेरनिवारितत्वात् । यदप्युच्यते-आहारविषयाकासारूपा क्षुद्भवति, अभिकाना चाहारपरिग्रहबुद्धिा, सा च मोहनीय-11
१ आरमशक्त्याविष्करणमात्रं ३ पूर्वोक्तवादिमिः, षण्मासाधिकायुषामपि केवलाद्वेति ।
| केवलिन: भुक्ति: स्वरूपं
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [४२...], नियुक्ति: [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४२]
eroesesesekeesesesen
दीप अनुक्रम [६७४]
विकारः, तस्स चापगतत्वात्केवलिनो न भुक्तिरिति, एतदप्यसमीचीनं, यतो मोहनीयविपाका क्षुन्न भवति, तद्विपाकस्य प्रतिपक्षमावनया प्रतिसंख्यानेन निवर्त्यमानत्वात् , तथाहि-कषायाः प्रतिकूलभावनया निवर्त्यन्ते, तथा चोक्तम्-"उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे । मायं चऽजवभावण, लोभं संतुहिए जिणे ॥१॥" मिथ्यात्वसम्यक्त्वयोश्च परस्परनिवृत्तिर्भावनाकृता प्रतीतैव, वेदोदयोऽपि विपरीतभावनया निवर्तते, तदुक्तम् - "काम ! जानामि ते मूलं, संकल्पात्किल जायसे । ततस्तं न करि-18 प्यामि, ततो मे न भविष्यसि ॥१॥" हास्यादिषट्कमपि चेतोविकाररूपतया प्रतिसंख्यानेन निवर्तते, क्षुद्वेदनीयं तु रोगशीतोप्मादिवजीवपुद्गलविपाकितया न प्रतीपवासनामात्रेण निवर्ततेऽतो न मोहविपाकस्खभावा क्षुदिति । तदेवं व्यवस्थिते यत्कैश्चिदा-18
ग्रहगृहीतैरभिधीयते, यथा-'अपवर्त्यतेऽकृतार्थ नायुज्ञानादयो न हीयन्ते । जगदुपकृतावनन्तं वीर्य किं गततषो भुक्तिः ॥१॥ 8 तदेतत् प्लवते, यतश्छमस्थावस्थायामप्येतदस्तीति तत्रापि किमिति मुझे , तत्र समस्तवीर्यान्तरायक्षयाभावान्भुक्तिसद्भाव इति चेत्,
तदयुक्तं, यतः किं तत्रायुपोऽपवर्तनं सात् किं वा चतुर्णा ज्ञानानां काचिद्धानिः स्थायेन भुक्तिरिति, तस्माद्यथा दीर्घकालस्थित-18 रायुष्कं कारणमेवमाहारोऽपि । यथा सिद्धिगतेयुपरतक्रियस्य ध्यानस्य चरमक्षणः कारणमेवं सम्यक्त्वादिकमपीति । अनन्तवीर्यतापि तस्याहारग्रहणे सति न विरुध्यते, यथा तस्य देवच्छन्दादीनि विश्रामकारणानि गमननिषीदनानि च भवन्त्येवमाहारक्रियापि, विरोधाभावात् , नपत्र बलवत्तरवीर्यवतोऽल्पीयसी क्षुदिति, एवं च स्थिते यत्किश्चिदेतत् । अपि च-एकादश परीषहा | वेदनीयकृता जिने प्रादुषष्यन्ति, अपरे तु एकादश ज्ञानावरणीयादिकृतास्तत्क्षयेऽपगता इतीयमप्युपपत्तिः केवलिनि भुक्ति साध
१ उपशमेन हन्यात को मान माई पत्ता जयेत् मायां चावभावेन लोभ सन्तोषतो जवेत ॥१॥२ मोहर हितस्य, आकाढाया मोहरूपत्वात् ।
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केवलिन: भुक्ति: स्वरूपं
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [४२...], नियुक्ति: [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४२]
दीप अनुक्रम [६७४]
कता यति, तथाहि-क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाम्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याऽऽक्रोशवधयाजालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्र-18| आहार२ श्रुतस्क- ज्ञाज्ञानदर्शनानीत्येते द्वाविंशतिर्मुमुक्षुणा परिसोढव्याः परिषहाः, तेषां च मध्ये ज्ञानावरणीयोत्थी प्रज्ञाज्ञानाख्यो, दर्शनमोहनीयसंभ- परिज्ञायां न्धे शीला-18वो दर्शनपरिषहः, अन्तरायोत्थोऽलामपरिषहः, चारित्रमोहनीयसंभूतास्त्वमी-नाम्यारतिखीनिषद्याऽऽक्रोशयाजासत्कारपुरस्कारा केवलिनो हीयावृत्तिः एते चैकादशापि जिने केवलिनि न संभवन्ति, तत्कारणानां कर्मणामपगतत्वात् , न हि कारणाभावे कचित्कार्योपपत्तिः, शेषा-1| भुक्तिः ॥३४६॥
1| स्वेकादश जिने संभवन्ति, तत्कारणस्य वेदनीयस्य विद्यमानत्वात् , ते चामी-क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकचर्याशघ्यावधरोगतृण-|
| स्पर्शमलाख्याः, एते च वेदनीयप्रभवाः, तब केवलिनि विद्यन्ते, न च निदानानुच्छेदे निदानिन उच्छेदः संभाव्यते, अतः। हा केवलिनि क्षुद्वेदनीयादिपीडा संभाव्यते, केवलमसावनन्तवीर्यत्वान्न विकलीभवति, न चासौ निष्ठितार्थो निष्प्रयोजनमेव पीडाम-| | घिसहते, न च शक्यते वक्तुम्-एवंभूतमेव तस्स भगवतः शरीरं यदुत क्षुत्पीडा न बाधते आहारमन्तरेण(च) वर्तते, यथा स्वभा-| वेनैव प्रखेदादिरहितमेव प्रक्षेपाहाररहितमित्येतचाप्रमाणकवादपकर्णनीयम् । अपि च-केवलोत्पत्तेः प्राग मुक्तेरभ्युपगमारकेव-181 लोत्पत्तावपि तदेवीदारिकं शरीरमाहाराघुपसंस्कार्यम् , अधान्यथाभावः कैबिदुच्यते असावपि युक्तिरहितलादपुषगममात्र || |एवेति । तदेवं देशोनपूर्वकोटिकालस केवलिस्थितेः संभवादीदारिकशरीरस्थितेयं यथाऽऽयुष्कं कारणमेवं प्रक्षेपाहारोजप, तथा
हि-तैजसशरीरेण मृद्कृतस्याभ्यवहृतस्य नून्यस्य खपर्याणा परिणामितस्योत्तरोत्तरपरिणामक्रमेणौदारिकशरीरिणामनेन प्रकारण | अदुद्भवो भवति । वेदचीयोदये सति, इयं च सामग्री सर्वापि भगवति केवलिनि संभवति, तकिमर्थमसौ न अरे, न च धाति-IST
॥३४६॥ १ वीर्षकालस्थितिदर्शनाय । ३ विशेषणार्थः । ३ शारीरादिकपः ।
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| केवलिन: भुक्ति: स्वरूपं
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
[४२]
दीप
अनुक्रम
[६७४]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [-], मूलं [४२...], निर्युक्तिः [१७८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
| चतुष्टयस्य सहकारिकारणभावोऽस्ति येन तदभावात्तदभाव इत्युच्यते । तदेवं संसारस्था जीवा विग्रहगतौ जघन्येनैकं समयं उत्कृष्टतः समयत्रयं भवस्थकेवली च समुद्घातावस्यः समयत्रयमनाहारकः शैलेश्यवस्थायां सन्तर्मुहूर्त, सिद्धास्तु सादिकमपर्यन्तं कालमनाहारका इति स्थितं ॥ साम्प्रतं प्रथमाहारग्रहणं येन शरीरेण करोति तद्दर्शयति - ज्योतिः - तेजस्तदेव तत्र वा भवं तैजसं तेन कार्मणेन चाहारयति, तैजसकार्मणे हि शरीरे आसंसारभाविनी, ताभ्यामेव चोत्पत्तिदेशं गता जीवाः प्रथममाहारं कुर्वन्ति, ततः परमोदारिकमिश्रेण वैक्रियमिश्रेण वा यावच्छरीरं निष्पद्यते तावदाहारयन्ति, शरीरनिष्पत्तौ सौदारिकेण वैक्रियेण वाऽऽहा| रयन्तीति स्थितम् । साम्प्रतं परिज्ञानिक्षेपार्थमाह-तत्र नामस्थापनाद्रव्यभावभेदात्परिज्ञा चतुर्धा, तत्रापि नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य द्रव्यपरिज्ञां प्रतिपादयन् गाथापश्चार्द्धमाह-'द्रव्यपरिज्ञे' ति द्रव्यस द्रव्येण वा परिक्षा द्रव्यपरिज्ञा, सा च परिच्छेचद्रव्यप्राधान्यात्तस्य च सचित्ताचित्तमिश्रभेदेन त्रैविध्यात्रिविधेति । भावपरिज्ञाऽपि ज्ञपरिज्ञाप्रत्याख्यानपरिज्ञाभेदेन द्विविधेति शेषस्त्वागमनोआगमशशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तादिको विचारः शस्त्रपरिज्ञावद्रष्टव्यः । गता निक्षेपनिर्युक्तिः, अधुना सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारयितव्यं तचेदम्
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मूल-सूत्रस्य आरम्भः
सुर्य मे आउसंतेनं भगवया एवमक्वायं इह खलु आहारपरिण्णाणामज्झयणे, तस्स णं अयमट्ठे-इह खलु पाईणं वा ४ सहतो सवावंति च णं लोगंसि चत्तारि बीयकाया एवमाहिजंति, तंजहा-अग्गबीया मूलबीया पोरवीया खंधवीया, तेसिं च णं अहावीएणं अहावगासेणं इहेगतिया सत्ता पुढवीजोणिया पुढवीसंभवा पुढवीकमा तज्जोणिया तस्संभवा तदुवकमा कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थबुकमा णाणा
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [४३], नियुक्ति: [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३]
सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्तिः
३ आहारपरिज्ञार्या वृक्षाधि
कारः
॥३४७॥
विहजोणियासु पुढवीसु रुक्खत्ताए विउद्देति ॥ ते जीवा तेसिं णाणाविहजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहारेति, ते जीवा आहारेति पुढवीसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं ।। णाणाविहाण तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुवंति परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूवियकडं संतं ॥ अवरेऽवि य णं तेर्सि पुढविजोणियाणं रुक्खाणं सरीराणाणावण्णा जाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया गाणाबिहसरीरपुग्गलविउविता ते जीवा कम्मोववन्नगा भवंतित्तिमक्खायं ।। (सूत्रं ४३)॥ अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवुकमा तज्जोणिया तस्संभवा तदुवकमा कम्मोवगा कम्मनियाणणं तत्थवुकमा पुढवीजोणिएहि रुक्खेहिं रुक्खत्ताए विउदृति, ते जीवा तेसिं पुढबीजोणियाणं रुकवाणं सिणेहमाहारैति, ते जीवा आहारैति पुढवीसरीरं आउतेउवाउवणस्सइसरीरं णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीर अचित्तं कुवंति परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विष्परिणामियं सारूविकडं संतं अवरेवि य गं तेसिं रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपुग्गलचिउबिया ते जीवा कम्मोववन्नगा भवंतीतिमक्वायं ।। (सूत्रं ४४)॥ अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता रुक्वजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवुकमा तज्जोणिया तस्संभवा तदुवकमा कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तस्थवुकमा रुक्खजोणिएसु रुक्खत्ताए विउहति, ते जीवा तेर्सि रुक्खजोणियाणं
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दीप
अनुक्रम [६७५]
४
॥३४७॥
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [४५], नियुक्ति: [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४५]
दीप अनुक्रम [६७७]
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रुक्खाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारैति पुढवीसरीरं आउतेउवाउवणस्सइसरीरं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुबंति, परिविद्धत्वं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणामियं सारूविकडं संतं अवरेऽवि य णं तेर्सि रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सरीरा णाणावन्ना जाव ते जीवा कम्मोववन्नगा भवंतीतिमक्खायं ।। (सूत्रं४५)। अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्तारुक्वजोणियारुक्खसंभवा रुक्खवुकमा तज्जोणिया तस्संभवा तदुवकमा कम्मोवगा कम्मनियाणेणं तत्थबुकमा रुक्खजोणिएसु रुक्वेसु मूलताए कंदत्साए खंधत्ताए तयत्ताए सालत्ताए पवालत्ताए पत्तत्ताए पुष्फत्ताए फलताए बीयत्ताए विउइंति, ते जीवा तेसिं रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेंति पुढवीसरीरं आउतेउवाउवणस्सइ० णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुचंति परिविद्धत्थं तं सरीरगं जाव सारूविकडं संतं, अवरेऽवि य णं तेर्सि रुक्खजोणियाणं मूलाणं कंदाणं खंधाणं तयाणं सालाणं पवालाणं जाव बीयाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा जावणाणाविहसरीरपुग्गलविरबिया ते जीवा कम्मोववन्नगा भवंतीतिमक्खायं ॥ (सूत्रं ४६)॥ अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खबुक्कमा तजोणिया तस्संभवा तदुवकमा कम्मोचवन्नगा कम्मनियाणेणं तत्थवुफमा रुक्खजोणिएहिं रुक्खेहिं अज्झारोहत्ताए विउद्घति, ते जीवा तेसिं रुक्खजोणियाणं रुक्वाणं सिणेहमाहारैति, ते जीवा आहारेंति पुढवीसरीरं जाव सारूविकडं संतं, अवरेवि य णं तेसिं रुक्खजोणियाणं अज्झारुहाणं सरीरा
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [४७], नियुक्ति: [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
IN३ आहार
| परिज्ञायां
प्रत सूत्रांक [४७]
30059
मधेशीला
मूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्ककीयावृत्तिः ॥३४८॥
वृक्षाधिकार:
दीप अनुक्रम [६७९]
णाणावन्ना जावमक्खापं ॥ (सर्व४७)॥ अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता अज्झारोहजोणिया अज्झारोहसंभवा जाव कम्मनियाणेणं तत्ववुकमा रुक्खजोणिएम अज्झारोहेसु अज्झारोहत्ताए विउति, ते जीवा तेर्सि रुक्खजोणियाणं अज्झारोहाणं सिणेहमाहारेति, ते जीवा पुढवीसरीरं जाव सारूविकडं संतं, अवरेवि य गं तेर्सि अज्झारोहजोणियाणं अज्झारोहाणं सरीरा णाणावन्ना जावमक्खायं ॥ (सूत्रं ४८)। अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता अज्झारोहजोणिया अज्झारोहसंभवा जाव कम्मनियाणेणं तत्थबुकमा अज्झारोहजोणिएम अज्झारोहत्ताए विउति, ते जीवा तेसिं अज्झारोहजोणियाणं अज्झारोहाणं सिणेहमाहारंति, ते जीवा आहारंति पुढविसरीरं आउसरीरं जाव सारूधिकई संतं, अवरेऽवि य णं तेर्सि अज्झारोहजोणियाणं अज्झारोहाणं सरीरा णाणावन्ना जावमक्वायं ॥ (सनं ४९)॥ अहावरं पुरक्खायं इहंगतिया सत्ता अज्झारोहजोणिया अज्झारोहसंभवा जाव कम्मनियाणेणं तत्थवुकमा अज्झारोहजोणिएसु अज्झारोहेसु मूलत्ताए जाव बीयत्ताए विउति ते जीवा तेसिं अज्झारोहजोणियाणं अज्झारोहाणं सिणेहमाहारैति जाच अवरेऽवि य णं तेसिं अज्झारोहजोणियाणं मूलाणं जाव बीयाणं सरीरा णापरावन्ना जावमक्खायं (मूत्रं५०)। अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता पुढविजोणिया पुढविसंभवा जाव णाणाविहजोणियासु पुढवीसु तणत्ताए विउइंति, ते जीवा तेसिं गाणाविहजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहारैति जाव ते जीवा कम्मोववन्ना भवंतीतिमक्खायं ।। (सूत्रं५१) ॥ एवं पुडविजोणिएमु तणेसु तणत्ताए विउति
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॥३४८॥
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[२]
दीप अनुक्रम [६८४]
SPAPreDineseeneces
जावमक्खायं ॥ सूत्रं ५२॥ एवं तणजोणिएसु तणेसु तणत्ताए विउदृति, तणजोणियं तणसरीरंच आहारति जावमक्वायं ॥ एवं तणजोणिएसु तणेसु मूलत्ताए जाव बीयत्ताए विउति ते जीवा जाव एवमक्वायं ॥ एवं ओसहीणवि चत्तारि आलावगा ॥ एवं हरियाणवि चत्तारि आलावगा ।। सूत्रं ५३॥ अहावरं पुरक्वायं इहेगतिया सत्ता पुढविजोणिया पुढविसंभवा जाव कम्मनियाणेणं तत्थयुकमा णाणाविहजोणियासु पुतवीसु आयत्ताए वायत्ताए कापत्ताए कहणत्ताए कंदुकत्ताए उहणियत्ताए निवेहणियत्ताए सछत्साए छत्तगत्ताए वासाणियत्ताए करताए विउद्देति, ते जीवा तेर्सि णाणाविहजोणियाण पुढवीणं सिणेहमाहारंति, तेवि जीवा आहारति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽपि य णं तेसिं पुढविजोणियाणं आयत्ताणं जाव कराणं सरीरा णाणावपणा जावमक्खायं, एगो चेव आलावगो सेसा तिपिण णत्थि ।। अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता उद्गजोणिया उद्गसंभवा जाव कम्मनियाणेणं तत्थवुकमा णाणाविहजोणिएसु उदएम रुकवत्ताए विउति, ते जीवा तेसिं णाणाविहजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारंति, ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं जाव संतं, अबरेऽवि य णं तेसिं उद्गजोणियाणं रुक्खाणं सरीरा णाणावपणा जावमक्वायं । जहा पुढविजोणियाणं रुक्खाणं चत्तारि गमा अज्झारुहाणवि तहेच, तणाणं ओसहीणं हरियाणं चत्तारि आलावगा भाणियचा एकेके ॥ अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता उदगजोणिया उदगसंभवा जाव कम्मणियाणेणं तत्थवुकमा णाणाविहजोणिएसु उदएसु
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [१४], नियुक्ति: [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
३ आहारपरिज्ञाध्य
प्रत सूत्रांक [५४]
सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्तिः
॥३४९॥
दीप अनुक्रम [६८६]]
उदगत्ताए अवगत्ताए पणगसाए सेचालत्ताए कलंबुगत्ताए हडताए. कसेरुगत्ताए कच्छभाणियत्ताए उप्पलत्ताए पउमत्ताए कुमुयत्साए नलिणत्ताए सुभगत्ताए सोगंधियत्ताए पोंडरियमहापोंडरियत्ताए सयपत्तत्ताए सहस्सपत्तत्ताए एवं कल्हारकोंकणयत्ताए अरविंदत्ताए तामरसत्ताए भिसभिसमुणालपुक्खलत्ताए पुक्खलच्छिभगत्ताए विउति, ते जीवा तेसिं णाणाविहजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेति पुढवीसरीर जाव संतं, अवरेऽविय णं तेसिं उद्गजोणियाणं उदगाणं जाव पुक्खलच्छिभगाणं सरीरा णाणावपणा जावमक्वायं, एगोचेव आलावगो ॥ सूत्रं ५४॥ अहावरं पुरावार्य इहेगतिया सत्ता तेसिं चेव पुढचीजोणिएहिं रुक्वेहिं रुक्खजोणिएहिं रुकवेहि रुक्खजोणिएहिं मूलहिं जाव बीएहिं रुक्खजोणिएहिं अज्झारोहेहिं अज्झारोहजोणिएहिं अज्झारुहेहिं अज्झारोहजोणिएहिं मूलेहिं जाय धीएहिं पुढविजोणिएहिं तणेहिं तणजोणिएहिं तणेहिं तणजोणिएहिं मूलेहिं जाव बीपहिं एवं ओसहीहिवि तिन्नि आलावगा, एवं हरिएहिवि तिन्नि आलावगा, पुढविजोणिएहिवि आएहि काहिं जाव कुरेहि उद्गजोणिएहि मक्खेहिं रुक्खजोणिएहिं रुक्रवहिं रुक्खजोणिएहिं मूलेहिं जाय बीएहिं एवं अज्झामहेहिवि तिण्णि तणेहिपि तिपिण आलावगा, ओसहीहिपि तिपिण, हरिएहिपि तिपिण, उदगजोणिएहिं उदएहि अवरहि जाव पुक्खलच्छिभएहिं तसपाणत्ताए विउद्देति ॥ ते जीवा तेसिं पुढचीजोणियाणं उदगजोणियाणं रुक्खजोणियाणं अज्झारोहजोणियाणं तणजोणियाणं ओसहीजोणियाणं हरियजोणियाणं रुक्वाणं अज्झा
॥३४९॥
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [१५], नियुक्ति: [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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दीप अनुक्रम [६८७]
सहाणं तणाणं ओसहीणं हरियाणं मूलाणं जाव बीयाणं आयाणं कायाणं जाव कुरवा(करा) णं उदगाणं अवगाणं जाव पुक्खलच्छिभगाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेति पुढवीसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि यणं तेसिं रुक्वजोणियाणं अज्झारोहजोणियाणं तणजोणियाणं ओसहिजोणियाणं हरियजोणियाणं मूलजोणियाणं कंदजोणियाणं जाव बीयजोणियाणं आयजोणियाणं कायजोणियाणं जाव करजोणियाणं उदगजोणियाणं अवगजोणियाणं जाव पुक्वलच्छिभगजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा णाणावण्णा जावमक्वायं ॥ सूत्रं ५५॥
सुधर्मस्वामी जम्यूस्वामिनमुद्दिश्येदमाह-तद्यथा-श्रुतं मयाऽऽयुष्मता तु भगवतेदमाख्यातं, तद्यथा-आहारपरिज्ञदमध्ययन, तस्य चायमर्थ:-प्राच्यादिषु दिक्षु 'सर्वत' इत्यू/धो विदिक्षु च 'सवार्वति'त्ति सर्वसिन्नपि लोके क्षेत्रे प्रज्ञापकभावदिगाधारभूतेऽस्मिन् लोके चखारो 'बीजकाया' बीजमेव कायो येषां ते तथा, बीजं वक्ष्यमाणं, चखारो 'बीजप्रकाराः समुत्पत्तिभेदा भवन्ति, तद्यथा-अग्रे बीजं येषामुल्पद्यते ते तलतालीसहकारादयः शाल्यादयो वा, यदिवाऽग्राण्येवोत्पत्ती कारणतां प्रतिपद्यन्ते । येपां कोरण्टादीनां ते अग्रबीजाः, तथा मूलबीजा आर्द्रकादयः, पर्वबीजास्विक्ष्वादयः, स्कन्धबीजाः सल्लक्यादयः, नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-"यणस्सइकाइयाण पंचविहा बीजवकंती एवमाहिजइ-तंजहा-अग्गमूलपोरुसंधवीयरुहा छहावि एगेंदिया || | संमुच्छिमा बीया जायंते" यथा दग्धवनस्थलीषु नानाविधानि हरितान्युद्भवन्ति पछिन्यो वाभिनवतडागादाविति । तेषां च । चतुर्विधानामपि वनस्पतिकायानां यद्यस्य वीजम्-उत्पत्तिकारणं तयधाबीजं तेन वथाबीजेनेति, इदमुक्तं भवति-शाल्यबुरस्स
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वनस्पतिकायानां बीजस्य वर्णनं
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [१५], नियुक्ति: [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
३ आहारपरिज्ञाध्य.
प्रत सूत्रांक [५५]
दीप अनुक्रम [६८७]
सूत्रकृताङ्गे शालिवीजमुत्पत्तिकारणम् , एवमन्यदपि द्रष्टव्यं, 'यथावकाशेने ति यो यस्थावकाशान्ययस्योत्पत्तिस्थानमथवा भूम्यम्बुकाला- २ श्रुतस्क- काशबीजसंयोगा यथावकाशे गृह्यन्ते तेनेति, तदेवं यथाबीजं यथावकाशेन च 'इह' असिन् जगत्येके केचन सच्चा ये तथा- न्धे शीला-8 विधकर्मोदयानस्पतित्पित्सवः, ते हि वनस्पतावुत्पद्यमाना अपि पृथिवीयोनि का भवन्ति, यथा तेषां वनस्पतिबीजं कारणछीयावृत्तिः
मेवमाधारमन्तरेणोत्पतेरभावात्पृथिन्यपि शैवालजम्बालादेख्दकवदिति, तथा पृथिव्यां संभवः-सदा भवनं येषां वनस्पतीनां ॥३५॥
ते तथा, इदमुक्तं भवति-न केवलं ते तद्योनिकाः तत्स्थितिकाश्चेति, तथा पृथिव्यामेव विविधमुत्-प्रावल्येन क्रम:-क्रमणं येषां ते पृथिव्युक्रमाः, इदमुक्तं भवति-पृथिव्यामेव तेपामूर्धक्रमणलक्षणा वृद्धिर्भवति, एवं च ते तयोनिकास्तत्संभवास्तवथुक्रमा इत्येतदन्यापरं विधातुकाम आह-कम्मोवगा इत्यादि, ते हि तथाविधेन बनस्पतिकायसंभवेन कर्मणा प्रेर्यमाणास्तेषेव वनस्पति
धूप-सामीप्येन तस्यामेव च पृथिव्यां गच्छन्तीति कर्मोपगा भण्यन्ते, ते हि कर्मवशगा बनस्पतिकायादागत्य तेष्वेव पुनरपि P वनस्पतिवृत्पद्यन्ते, न चान्यत्रोप्ता अन्यत्र भविष्यन्तीति, उक्तं च-"कुसुमपुरोले पीजे मथुरायां नाङ्कः समुद्भवति । यत्रैव तस्य
बीजं तत्रैवोत्पद्यते प्रसवः ॥ १॥" तथा ते जीवाः कर्मनिदानेन-कारणेन समाकृष्यमाणास्तत्र-पृथिव्यां वनस्पति काये वा व्युकमाः समागताः सन्तो नानाविधयोनिकासु पृथिवीष्वित्यन्येयामपि पण्णां कायानामुत्पत्तिस्थानभूतासु सचिनाचिचमिश्रास वा | श्वेतकृष्णादिर्वणतिक्तादिरससुरभ्यादिगन्धमृदुकर्क शादिस्पर्शादिकविकल्पबहुप्रकारामु भूमिषु वृक्षतया विविधं वर्तन्ते विवर्त्तन्ते, |ते च तत्रोत्पन्नास्तासां पृथिवीना नेह' स्निग्धभावमाददते, स एव च तेपामाहार इति, न च ते पृथिवीशरीरमाहारयन्तः ॥ 1 पृथिव्याः पीडामुत्पादयन्ति ॥ एवमकायतेजोवायुवनस्पतीनामप्यायोज्यम् , अत्र च पीडानुत्पादनेऽयं दृष्टान्तः, तद्यथा
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३५०॥
वनस्पतिकायानां बीजस्य वर्णनं
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [१५], नियुक्ति: [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५]]
दीप अनुक्रम [६८७]
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अण्डोद्भवाचा जीवा मातुरुष्मणा विवर्धमाना गर्भस्था एवोदरगतमाहारयन्तो नातीव पीडामुत्पादयन्ति, एवमसावपि बनस्पति-19 कायिकः पृथिवीस्नेहमाहारयन्नातीव तस्याः पीडामुत्पादयति उत्पद्यमानः, समुत्पन्नव वृद्धिमुपगतोऽसदृशवणेरसाधुपेतखात् बाधा विदध्यादपीति । एवमष्कायस भौमसान्तरिक्षस्य वा शरीरमाहारयन्ति, तथा तेजसो भसादिकं शरीरमाददति, एवं वास्वादेरपीति ॥ द्रष्टव्यं, किंबहुनोक्तेन, नानाविधानां प्रसस्थावराणां प्राणिनां यच्छरीरं तने समुत्पद्यमानाः 'अचित्त'मिति खकायेनावष्टभ्य 10 | प्रामुकीकुर्वन्ति, यदिवा परिविध्वस्तं पृथिवीकायादिशरीरं किश्चित्प्रासुकं किञ्चित्परितापितं कुर्वन्ति, ते वनस्पतिजीवा एतेषां । पृथिवीकायादीनां तच्छरीरं 'पूर्वमाहारित'मिति तैरेव पृथिवीकायादिभिरुत्पत्तिसमये आहारितमासीत्-खकायखेन परिणामितमासीत् तदधुनाऽपि बनस्पतिजीवस्तत्रोत्पद्यमान उत्पन्नो वा खचा-स्पर्शनाहारयति, आहार्य च खकायलेन विपरिणामयति, | विपरिणामितं च तच्छरीरं खकायेन सह स्वरूपता नीतं सत्तन्मयतां प्रतिपद्यते, अपराण्यपि शरीराणि मूलशाखाप्रतिशाखापत्रपुष्पफलादीनि तेषां पृथिवीयोनिकानां वृक्षाणां नानावानि, तथाहि-स्कन्धस्थान्यथाभूतो वों मूलस चान्याश इति, एवं यावन्नानाविधशरीरपुद्गलविकुर्वितास्ते भवन्तीति, तथाहि-नानारसवीर्यविपाका नानाविधपुद्गलोपचयात्सुरूपकुरूपसंस्थानाः तथा दृढाल्पसंहननाः कुशस्थूलस्कन्धाश्च भवन्तीत्येवमादिकानि नानाविधस्वरूपाणि शरीराणि विकुर्वन्तीति स्थितं । केषांचिच्छाक्या-18 | दीनां वनस्पत्याद्याः स्थावरा जीया एव न भवन्तील्यतस्तत्प्रतिषेधार्थमाह-'ते जीवा' इत्यादि, 'ते' बनस्पतित्पना जीवा नाजीवाः, उपयोगलक्षणखाजीवानां, तथाहि-तेषामप्याश्रयोत्सर्पणादिकया क्रिययोपयोगो लक्ष्यते, तथा विशिष्टाहारोपचयापच-1 याभ्यां शरीरोपचयापचयसजावादर्भकवत् जीवाः स्थावराः तथा छिन्नप्ररोहणात्वापात्सर्वखगपहरणे मरणादित्येवमादयो हेतबो-re
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [१५], नियुक्ति: [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५]
दीप
सूत्रकृताङ्गे तात्र द्रष्टव्याः, यदत्र कैश्चित्स्पष्टेऽपि वनस्पतीनां चैतन्येऽसिद्धानकान्तिकखादिकमुक्त स्वदर्शनानुरागात् तदपकर्णनीय, नहि आहार२श्रुतस्क
सम्यगार्हतमताभिज्ञोऽसिद्धविरुद्धानकान्तिकोपन्यासेन व्यामोखते, सर्वस कथञ्चिदभ्युपगतसात्प्रतिषिद्धलाचेति । ते च जीवा-18 परिज्ञाध्य. न्धे शीला
स्तत्र बनस्पतिषु तथाविधेन कर्मणा उपपन्नगाः, तच्चेदम्-एकेन्द्रियजातिस्थावरनामवनस्पतियोग्यायुष्कादिकमिति, तत्कर्मोदयेन कीयावृत्तिः तत्रोत्पना इत्युच्यन्ते न पुन: कालेश्वरादिना तत्रोत्पाद्यन्ते इत्येवमाख्यातं तीर्थकरादिभिरिति । एवं तावत्पृथिवीयोनिका वृक्षा
अभिहिताः ॥ साम्प्रतं तयोनिकेष्वेव वनस्पतिषु अपरे समुत्पद्यन्त इत्येतद्दयितुमाह-सुधमेखामी शिष्योद्देशेनेदमाह-अधाप॥३५॥
रमेतदाख्यातं पुरा तीर्थकरेण यदिवा तस्यैव वनस्पतेः पुनरपरं वक्ष्यमाणमाख्यातं, तद्यथा-'इह' असिन् जगत्येके केचन तथाविधकर्मोदयवर्तिनः 'सत्त्वाः' प्राणिनो वृक्षा एव योनिः-उत्पत्तिस्थानमाश्रयो येषां ते वृक्षयोनिकाः, इह च यत्पृथिवीयोनिकेषु वृक्षेष्वभिहितं तदेतेष्वपि वृक्षयोनिकेषु बनस्पतिषु तदुपचयकर्तृ सर्वमायोज्यं यावदारूयातमिति ॥ साम्प्रतं वनस्पत्यवयवानधिकृत्याह– अथापरमेतदाख्यातं (यदाख्यात) तदर्शयति-'इह' असिन् जगत्येके न सर्वे तथाविधकर्मोदयवर्तिनो वृक्षयोनिकाः | सच्चा भवन्ति तदवयवाश्रिताश्च परे वनस्पतिरूपा एव प्राणिनो भवन्ति, तथा यो होको वनस्पतिजीवः सर्ववृक्षावयवव्यापी भवति, | तस्य थापरे तदवयवेषु मूलकन्दस्कन्धतकशासाप्रवालपत्रपुष्पफलबीजभूतेषु दशपु स्थानेषु जीवाः समुत्पद्यन्ते, ते च तत्रोत्पद्यमाना वृक्षयोनिका वृक्षोद्भवा वृक्षव्युत्क्रमाश्चोच्यन्ते इति, शेषं पूर्ववत् , इह च प्राक्चतुर्विधार्थप्रतिपादकानि सूत्राण्यभिहितानि, ॥३५१॥ तद्यथा-वनस्पतयः पृथिव्याश्रिता भवन्तीत्येकं १, तच्छरीरं अकायादिशरीरं वाऽऽहारयन्तीति द्वितीयं २, तथा विवृद्धास्तदाहारितं शरीरमचित्तं विध्वस्तं च कृखाऽऽत्मसात्कुर्वन्तीति तृतीयं ३, अन्यान्यपि तेषां पृथिवीयोनिकानां वनस्पतीनां शरीराणि
अनुक्रम [६८७]
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [१५], नियुक्ति: [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५]]
दीप अनुक्रम [६८७]
मूलकन्दस्कन्धादीनि नानावर्णानि भवन्तीति चतुर्थ ४, एवमत्रापि वनस्पतियोनिकानां वनस्पतीनामेवंविधार्थप्रतिपादकानि चितुःप्रकाराणि मूत्राणि द्रष्टव्यानीति यावत्ते जीवा बनस्पत्यवयवमूलकन्दस्कन्धादिरूपाः कर्मोपपन्नगा भवन्त्येवमाख्यातम् ।। | साम्प्रतं पक्षोपर्युत्पन्नान् वृक्षानाश्रित्याह--अथापरमेतत्पुराऽऽख्यातं यद्वक्ष्यमाणमिह के सवा वृक्षयोनिका भवन्ति, तत्र येते |
पृथिवीयोनिका वृक्षास्तेष्वेव प्रतिप्रदेशतया येऽपरे समुत्पद्यन्ते तसैकस्य बनस्पतेर्मूलारम्भकस्योपचयकारिणस्ते वृक्षयोनिका इत्य| भिधीयन्ते, यदिवा ये ते मूलकन्दस्कन्धशाखाप्रशाखादिकाः पूर्वोक्तदशस्थानवर्तिनस्त एवमभिधीयन्ते, तेषु च वृक्षयोनिकेषु ॥ M वृक्षेषु कर्मोपादाननिष्पादितेषु उपयुपरि अध्यारोहन्तीत्यध्यारुहाः-वृक्षोपरिजाता बृक्षा इत्यभिधीयन्ते, ते च वल्लीवृक्षामिधानाः
कामवृक्षाभिधाना वा द्रष्टव्याः, तद्भावे चापरे बनस्पतिकायाः समुत्पद्यन्ते वृक्षयोनिकेषु वनस्पतिष्विति, इहापि प्राग्वञ्चलारि | | सूत्राणि द्रष्टव्यानि, तद्यथा-वृक्षयोनिकेषु वृक्षेष्वपरेऽध्यारुहाः समुत्पद्यन्ते, ते च तत्रोत्पन्नाः खयोनिभूतं वनस्पतिशरीरमाहार| यन्ति, तथा पृथिव्यशेजोवारबादीनां च शरीरकमाहारयन्ति, तथा तच्छरीरमाहारितं सदचित्तं विध्वस्तं विपरिणामितमात्मसा| त्कृतं खकायावयवतया व्यवस्थापयन्ति, अपराणि च तेषामध्यारुहाणां नानाविधरूपरसगन्धस्पर्शपतानि नानासंस्थानानि शरीराणि भवन्ति, ते जीवास्तत्र खकृतकर्मोपपन्ना भवन्तीत्येतदाख्यातमिति प्रथमं सूत्रम्, द्वितीयं खिदम्-अथापरं पुराऽऽख्यातं ये ते प्राग्वृक्षयोनिकेषु वृक्षेषु अध्यारुहाः प्रतिपादितास्तेष्वेवोपरि प्रतिप्रदेशोपचयकर्तारोऽध्यारुहवनस्पतिलेनोपपद्यन्ते, ते च जीवा
अध्यारुहप्रदेशेषत्पन्ना अध्यारहजीवास्तेषां खयोनिभूतानि शरीराण्याहारयन्ति, तत्रापराष्यपि पृथिव्यादीनि शरीराणि आहारयसन्ति अपराणि चाध्यारुहसंभवानामध्यारुहजीवानां नानाविधवर्णकादिकानि शरीराणि भवन्तीत्येवमाख्यातम् , तृतीयं मिदम्
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [१५], नियुक्ति: [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
सूत्रकताओं
प्रत सूत्रांक [५५]
दीप अनुक्रम [६८७]
अथापरं पुराख्यातं, तद्यथा-इहके सच्चा अध्यारुहसंभवेवध्यारुहेष्वध्यारुहलेनोत्पयन्ते, ये चैवमुत्पयन्ते तेऽध्यारुहयो-11३ आहार२ श्रुतस्क- निकानामध्यारहाणां यानि शरीराणि तानि आहारयन्ति, द्वितीयसूत्रे घृक्षयोनिकानामध्यारुहाणां यानि शरीराणि तान्यपरे परिज्ञाध्य. न्धे शीला- | अध्यारुहजीवा आहारयन्ति, तृतीये सध्यारहयोनिकानामध्यारुहजीवानां शरीराणि द्रष्टव्यानीति विशेषः, इदं तु चतुर्थक, झीयावृत्तिः तद्यथा-अथापरमिदमाख्यातं, तद्यथा-इहैके सच्चा अध्यारुहयोनिकेष्वध्यारुहेपु मूलकन्दस्कन्धबक्शाखाप्रवालपत्रपुष्पफलबी-18 ॥३५२॥
जभावनोत्पद्यन्ते, ते च तथाविधकोपगा भवन्तीत्येतदाख्यातमिति, शेपं तदेवेति ॥ साम्प्रतं वृक्षव्यतिरिक्तं शेष बनस्प(ग्रन्थानं १०५००)तिकायमाश्रित्याह-अथापरमिदमाख्यातं यदुत्तरत्र वक्ष्यते, तद्यथा-इहैके सच्चाः पृथिवीयोनिकाः पृथि-16 वीसंभवाः पृथिवीव्युत्कमा इत्यादयो यथा वृक्षेषु चखार आलापका एवं तृणान्यप्याश्रित्य द्रष्टव्याः, ते चामी-नानाविधासु ६ | पृथिवीयोनिषु तृणलेनोत्पधन्ते पृथिवीशरीरं चाहारयन्ति द्वितीयं तु पृथवीयोनिकेषु तुणेपूत्पधन्ते तृणशरीरं चाहारयन्तीति तृतीयं तु तृणयोनिकेषु तृणेघृत्पद्यन्ते तृणयोनिकतृणशरीरं चाहारयन्तीति चतुर्थ तृणयोनिकेषु तृणावयवेषु मूलादिषु दशप्रकारेपृल्पयन्ते तृणशरीरं चाहारयन्ति, इत्येवं यावदाख्यातमिति । एवमौपध्याश्रयाशवार आलापका भणनीयाः, नवरमोपधिग्रहणं कर्तव्यम् । एवं हरिताश्रयाश्चखार आलापका भणनीयाः । कुहणेषु खेक एवालापको द्रष्टव्यः, योनिकानामपरेपामभावादिति | भावः । इह चामी वनस्पतिविशेषा लोकव्यवहारतोऽनुगन्तव्याः प्रज्ञापनातो वाऽवसेया इति । अत्र च सर्वेषामेव पृथिवीयोनिक-11
॥३५२॥ खात्पृथिवीसमाश्रयखेनाभिहिताः । इह च स्थावराणां वनस्पतेरेव प्रस्पष्टचैतन्यलक्षणखात्तस्यैव प्रारु प्रदर्शितं चैतन्यम् , साम्प्र-151 ॥ तमकाययोनिकस्य वनस्पतेः खरूपं दर्शयितुमाह-अथानन्तरमेतद्वक्ष्यमाणमाख्यातं, तद्यथा-इके सचालथाविधकर्मोदयादु-18
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [१५], नियुक्ति: [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५]]
दीप अनुक्रम [६८७]
दकं योनिः-उत्पत्तिस्थानं येषां ते तथा, तथोदके संभयो येषां ते तथा, यावत्कर्मनिदानेन संदानितास्तदुपक्रमा भवन्तीति ।। ते च तत्कर्मवशगा नानाविधयोनिषूदकेषु वृक्षसेन व्युत्क्रामन्ति-उत्पद्यन्ते । ये च जीवा उदकयोनिका वृक्षवेनोत्पन्नास्ते तछरी-18 | रम्-उदकशरीरमाहारयन्ति, न केवलं तदेवान्यदपि पृथिवीकायादिशरीरमाहारयन्तीति । शेष पूर्ववत् नेयं । यथा पृथिवीयो-14 |निकानां वृक्षाणां चखार आलापका एवमुदकयोनिकानामपि वृक्षाणां भवन्तीत्येवं द्रष्टव्यं, तदुत्पत्रानां वपरविकल्पाभावा-18 देक एवालापको भवति, एतेषां हि उदकाकृतीनां वनस्पतिकायानां तथा अवकपनकशवलादीनामपरस्य प्रागुक्तस्य विकल्प-181 स्वाभावादिति । एते च उदकाश्रया वनस्पतिविशेषाः कलम्बुकाहडादयो लोकव्यवहारतोऽबसेया इति ।। साम्प्रतमन्येन प्रका-13 रेण वनस्पत्याश्रयमालापकत्रयं दर्शयितुमाह-तद्यथा-पृथिवीयोनिकै वृक्षयोनिक्षस्तथा वृक्षयोनिकैलादिभिरिति, एवं वृक्षयोनिकैरध्यारुहैस्तथाऽध्यारुहयोनिकैरध्यारुहस्तथाध्यारुहयोनिकैर्मूलादिभिरिति । एवर्मन्येऽपि तृणादयो द्रष्टव्याः । एवमुदकयोनिकेष्वपि वृक्षेप योजनीयं ।। तदेवं पृथिवीयोनिकवनस्पतेरुदकयोनिकवनस्पतेव भेदानुपदाधुना तदनुवादेनोपसजिघृक्षुराह-'ते जीवा इत्यादि, ते वनस्पतित्पन्ना जीवाः पृथिवीयोनिकानां तथोदेकवृक्षाध्यारुहतृणीषधिहरितयोनिकानां पृक्षाणां यावत्स्नेहमाहारयन्तीत्येतदाख्यातमिति, तथा सानां प्राणिनां शरीरमाहारयन्त्येतदवसाने द्रष्टव्यमिति । तदेवं वनस्पतिकायि| कानां सुप्रतिपायचैतन्यानां खरूपमभिहितं, शेषाः पृथ्वीकायादयश्चखार एकेन्द्रिया उत्तरत्र प्रतिपादयिष्यन्ते, साम्प्रतं त्रस| कायस्यावसर, स च नारकतिर्यमनुष्यदेवभेदभिन्नः, तत्र नारका अप्रत्यक्षत्वेनानुमानग्रायाः-(तथाहि) दुष्कतकर्मफल भुजः
५ एवमन्ये वषि तृणादियोनिकैयपि यक्षेषु योजनीवं, तदेवं प्र० ३ तथोदकाना पक्षा०प्र० ।
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [१५], नियुक्ति: [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क
प्रत सूत्रांक [५५]
न्धे शीला
कीयावृत्तिः ॥३५३॥
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दीप
केचन संतीत्येवं ते ग्राह्योः । तदाहारोऽप्येकान्तेनाशुभपुद्गलनिर्वर्तित ओजसा न प्रक्षेपेणेति । देवा अप्यधुना बाहुल्येनानुमान- आहार
गम्या एव, तेषामप्याहारः शुभ एकान्तेनोजोनिवर्तितो न प्रक्षेपकृत इति, स चाभोगनिवर्तितोऽनाभोगकृतध, तत्रानाभोगकतः परिज्ञाध्य. | प्रतिसमयभावी आभोगकृतब जघन्येन चतुर्थभक्तकृत उत्कृष्टतस्तु त्रयस्त्रिंशद्वर्पसहस्रनिष्पादित इति । शेषास्तु तिर्यअनुष्याः,181 |तेपां च मध्ये मनुष्याणामभ्यर्हितखातानेच प्राग्दर्शयितुमाह
अहावरं पुरक्वायं णाणाविहाणं मणुस्साणं तंजहा-कम्मभूमगाणं अकम्मभूमगाणं अंतरदीवगाणं आरियाणं मिलकखुयाणं, तेसिं च णं अहावीएणं अहावगासेणं इत्थीए पुरिसस्स य कम्मकडाए जोणिए एत्थ णं मेहुणवत्तियाए [व] णामं संजोगे समुप्पजद, ते दुहओवि सिणेहं संचिणंति, तत्थ णं जीवा इस्थित्ताए पुरिसत्ताए गपुंसगत्साए विउटुंति, ते जीवा माओउयं पिउसुकतं तदुभयं संसह कलुसं किविसं तं पढमत्साए आहारमाहारेंति, ततो पच्छा जं से माया णाणाविहाओ रसविहीओ आहारमाहारेति ततो एगदेसेणं ओयमाहारेति, आणुपुत्रेण वुड्डा पलिपागमणुपवना ततो कायातो अभिनिधहमाणा इत्धि वेगया जणयंति पुरिसं गया जणयंति णपुंसगं वेगया जपायंति, ते जीवा डहरा समाणा माउक्खीरं सप्पि आहारति, आणुपुबेणं बुड्डा ओयणं कुम्मासं तसथावरे य पाणे, ते जीवा आहारति पुढ
॥३५३॥ १ सर्वग्वादर्शयति पाठ एषः, तथापि टीप्पणीतोऽन्तःप्रविष्ट इति ज्ञायते। लोमाहारोऽप्याजस्तया विवक्षितस्तेन केवल प्रक्षेपः प्रतिषिद्धः ।
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५]]
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दीप अनुक्रम [६८८]
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बिसरीरं जाव सारूविकर्ड संतं, अवरेऽवि य क तेसिं णाणाविहाणं मणुस्सगाणं कम्मभूमगाणं अकम्मभूमगाणं अंतरदीवगाणं आरियाणं मिलक्खूणं सरीराणाणावण्णा भवंतीतिमक्खायं ।। सूत्रं ५६॥
अथानन्तरमेतत् 'पुरा' पूर्वमाख्यातं, तद्यथा-आर्याणामनार्याणां च कर्मभूमिजाकर्मभूमिजादीनां मनुष्याणां नानाविधयो| निकानां खरूपं वक्ष्यमाणनीत्या समाख्यातं, तेषां च स्वीjनपुंसकभेदभिन्नानां 'यथाबीजेने ति यद्यस बीजं, तत्र खियाः संबन्धि शोणितं पुरुषस्य शुक्रं एतदुभयमप्यविध्वस्तं, शुक्राधिकं सत्पुरुषस्य शोणिताधिकं स्त्रियास्तत्समता नपुंसकस कारणतां प्रतिपद्यते, तथा 'यथावकाशेने ति यो यस्थावकाशो मातुरुदरकुत्यादिका, वत्रापि किल वामा स्त्रियो दक्षिणा कुक्षिः पुरुषस्योभयाश्रितः षण्ड इति । अत्र चाविध्यस्ता योनिरविध्वस्त बीजमिति चलारो भङ्गाः, तत्राप्याद्य एव भङ्गक उत्पत्तेरवकाशोन शेषेषु त्रिष्विति । अत्र च स्त्रीपुंसयोर्वेदोदये सति पूर्वकमनिवर्तितायां योनौ 'मैथुनप्रत्ययिको रताभिलाषोदयजनितोऽग्निकारणयोररणिकाष्ठयोरिव संयोगः समुत्पद्यते, तत्संयोगे च तच्छुक्रशोणिते समुपादाय तत्रोत्पित्सुवो जन्तवस्तैजसकार्मणाभ्यां शरीराभ्यां कर्मरज्जुसंदानितास्तत्रोत्पद्यन्ते । ते च प्रथममुभयोरपि लेहमाचिन्वन्त्यविध्वस्तायां योनौ सत्यामिति, विध्वस्यते तु योनिः पञ्चप-18 वाशिका (यदा) नारी सप्तसप्ततिकः पुमान् इति, तथा द्वादश मुहूर्तानि यावच्छुकशोणिते अविध्वस्तयोनिके भवतः तत ऊर्व समुपगच्छत इति । तत्र च जीवा उभयोरपि स्नेहमाहार्य स्वकर्मविपाकेन यथावं स्त्रीपुनपुंसकभावेन 'विउदृति चि वर्तन्ते । समुत्पद्यन्त इतियावत् , तदुत्तरकालं च सीकुक्षी प्रविष्टाः सन्तः खियाहारितसाहारस निर्यास नेहमाददति, तत्लेहेन च ॥
तेषां जन्तूनां कमोपचयाद् अनेन क्रमेण निष्पत्तिरुपजायते-'सत्ताह कललं होइ, सत्ताहं होइ बुब्बुर्य' इत्यादि । तदेवमनेन क्रमेण || 9 तदेकदेशेन वा मातुराहारमोजसा मिश्रेण वा लोमभिवाऽऽनुपूर्येणाहारयन्ति 'यथाक्रमम् आनुपूर्येण वृद्धिमुपागताः सन्तो
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
३ आहारपरिक्षाध्य.
[५५]]
दीप अनुक्रम [६८८]
सूत्रकृताङ्गे गर्भपरिपार्क' गर्भनिष्पत्तिमनुप्रपन्नास्ततो मातुः कायादभिनिवर्तमाना:-पृथग्भवन्तः सन्तस्तयोनेनिर्गच्छन्ति । ते च तथाविध- २ श्रुतस्क- कर्मोदयादात्मनः खीभावमप्येकदा 'जनयन्ति' उत्पादयन्त्यपरे केचन पुंभावं नपुंसकभावं च, इदमुक्तं भवति-खीपुंनपुंस- ग्ध शीला-18|कभावः प्राणिनां स्वकृतकर्मनिर्वतितो भवति, न पुनयों यादृगिह भवे सोमुष्मिन्नपि ताहगेवेति, ते च तदहर्जातबालकाः सन्तः18 कीयावृत्तिः ।
| पूर्वेभवाभ्यासादाहारामिलाषिणो मातुः स्तनस्तन्यमाहारयन्ति, तदाहारेण चानुपूर्येण च वृद्धास्तदुत्तरकालं नवनीतदध्योदना॥३५॥ | दिकं यावत्कुल्माषान भुञ्जते, तथाऽऽहारखेनोपगतांस्त्रसान् स्थावरांश्च प्राणिनस्ते जीवा आहारयन्ति, तथा नानाविधपृथिवीश
गरीरं लवणादिकं सचेतनमचेतनं वाऽऽहारयन्ति, तबाहारितमात्मसात्कृतं सारूप्यमापादितं सत् 'रसामनासमेदोऽस्थिमजाशुक्राणि
धातव' इति सप्तधा व्यवस्थापयन्ति, अपराण्यपि तेषां नानाविधमनुष्याणां शरीराणि नानावर्णान्याविर्भवन्ति, ते च तद्योनिक| खात्तदाधारभूतानि नानावर्णानि शरीराण्याहारयन्तीत्येवमाख्यातमिति ।। एवं तावद्गर्भव्युकान्तिजमनुष्याः प्रतिपादिताः, तदनन्तरं 18 18| संमूर्छनजानामवसरः, तांश्चोत्तरत्र प्रतिपादयिष्यामि, साम्प्रतं तिर्यग्योनिकाः, तत्रापि जलचरानुदिश्याह
अहावरं पुरक्खायं णाणाविहाणं जलचराणं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं, संजहा मच्छाणं जाव सुंसुमाराणं, तेसिं च णं अहावीएणं अहावगासेणं इत्थीए पुरिसस्स य कम्मकडा तहेव जाव ततो एगदेसेणं ओयमाहारेंति, आणुपुष्वेणं बुड़ा पलिपागमणुपवना ततो कायाओ अभिनिवद्यमाणा अंड वेगया जणयंति पोयं वेगया जणयंति, से अंडे उन्भिजमाणे इत्थ वेगया जणयंति पुरिसं वेगया जणयंति नपुंसर्ग वेगया जणयंति, ते जीवा डहरा समाणा आउसिणेहमाहारेंति आणुपुवेणं वुहा वणस्सतिकार्य तसथा--
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॥३५॥
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [१७], नियुक्ति: [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
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[५७]
दीप अनुक्रम [६८९]
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वरे य पाणे, ते जीवा आहारेंति पुडविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं णाणाविहाणं जलचरपंचिं. दियतिरिक्खजोणियाणं मच्छाणं सुंसुमाराणं सरीरा णाणावण्णा जावमक्खायं ।। अहावरं पुरक्वायं णाणाविहाणं चउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्वजोणियाणं, तंजहा-एगखुराणं दुखुराणं गंडीपदाणं सणफयाणं, तेसिं च णं अहावीएणं अहावगासेणं इत्थिपुरिसस्स य कम्म जाय मेहुणवत्तिए णामं संजोगे समुपजाइ, ते दुहओ सिणेहं संचिणंति, तम्थ णं जीवा इत्थित्ताए पुरिसत्ताए जाव विउद्देति, ते जीवा माओउयं पिउसुकं एवं जहा मणुस्साणं इस्थिपि वेगया जणयंति पुरिसंपि नपुंसगंपि, ते जीवा डहरा समाणा माउक्खीरं सपिं आहारति आणुपुत्रेणं वुड्डा वणस्सइकायं तसथावरे य पाणे, ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं णाणाविहाणं चउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं एगखुराणं जाव सणप्फयाणं सरीराणाणावण्णा जावमक्खायं ।। अहावरं पुरक्वायं णाणाविहाणं उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं, तंजहा अहीणं अयगराणं आसालियाणं महोरगाणं, तेसिं च णं अहाबीएणं अहावगासेणं इत्थीए पुरिस जाव एस्थ णं मेहुणे एवं तं चेव, नाणत्तं अंडं वेगइया जणयंति पोयं वेगइया जणयंति, से अंडे उन्मिजमाणे इत्थि वेगइया जणयंति पुरिसंपि णपुंसगंपि, ते जीवा डहरा समाणा घाउकायमाहारेंति आणुपुत्रेणं बुड्ढा वणस्सहकार्य तसथावरपाणे, ते जीवा आहारेति पुढ
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
[५७]
दीप
अनुक्रम
[६८९]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [-], मूलं [५७], निर्युक्तिः [१७८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
सूत्रकृता २ श्रुतस्क न्धे शीलाङ्कीयावृत्तिः
॥३५५॥
विसरीरं जाव संत, अवरेऽवि य णं तेसिं णाणाविहाणं उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्ख० अहीणं जाव महोरगाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा जावमक्खायं । अहावरं पुरक्खायं णाणाविहाणं भुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं, तंजहा-गोहाणं नउलाणं सिहाणं सरडाणं सल्लाणं सरवाणं वराणं घरकोइलियाणं विस्संभराणं मुसगाणं मंगुमाणं पयलाइयाणं विरालियाणं जोहाणं चप्पायाणं, तेसिं च णं अहाबीएणं अहावगासेणं इत्थीए पुरिसस्स व जहा उपरिसप्पाणं तहा भाणियवं जाव सारुचिकर्ड संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं णाणाविहाणं भुयपरिसप्पपंचिंदियथलयर तिरिक्खाणं तं० गोहाणं जावखायं ॥ अहावरं पुरखायं णाणाविहाणं जलचरपंचिंदियतिरिक्ग्वजोणियाणं, तंजाचम्पकवीण लोमक्खीणं समुग्गपक्खीणं विततपक्खीणं तेसिं च णं अहावीएणं अहावगासेणं इत्थीए जहा उरपरिसप्पाणं, नाणतं ते जीवा डहरा समाणा माउगात्तसिणेहमाहारेंति आणुपुत्रेणं बुड्डा वणस्सतिकार्य तसथावरे य पाणे, ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं जाव संत, अवरेऽवि य णं तेर्सि णाणाविहाणं खहचर पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं चम्मपक्खीणं जावमक्खायं (सूत्रं ५७ ) ॥
अथानन्तरमेतद्वक्ष्यमाणं पूर्वमाख्यातं, तद्यथा नानाविधजलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां संबन्धिनः कञ्चित्स्वनामग्राहमाह, तद्यथा- 'मच्छाणं जाव सुंसुमाराण' मित्यादि, तेपां मत्स्यकच्छपमकरग्राहसुंमुमारादीनां यथावीजेन यस्य यथा यद्वीजं यथाबीजं तेन तथा यथावकाशेन यो यस्योदरादाववकाशस्तेन स्त्रियाः पुरुषस्य च स्वकर्मनिर्वर्तितायां योनावुत्पद्यन्ते । ते च तत्राभिव्यक्ता मातु
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३ आहार. परिज्ञाध्य
| ॥ ३५५॥
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [१७], नियुक्ति: [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[५७]
दीप अनुक्रम [६८९]
शाराहारेण वृद्धिमुपगताः स्त्रीपुनपुंसकानामन्यतमत्वेनोत्पधन्ते, ते च जीवा जलचरा गर्भावयुत्क्रान्ताः सन्तस्तदनन्तरं यावद् 'डहर'ति लघवस्तावदपूनेहम्-अपूकायमेवाहारयन्ति आनुपूर्येण च वृद्धवाः सन्तो वनस्पतिकाय तथाऽपरांच सान् । स्थावरांचाहारयन्ति यावत्पश्चेद्रियानप्याहारयन्ति, तथा चोक्तम्-“अस्ति मत्स्यस्तिमिर्नाम, शवयोजनविस्तरः । तिमिनिलगिलोऽप्यस्ति, तद्गिलोऽप्यस्ति राघव! ॥१॥" तथा ते जीवाः पृथिवीशरीरं-कर्दमखरूपं क्रमेण वृद्धिमुपगताः सन्त आहारयन्ति, तचाहारितं सत्समानरूपीकृतमात्मसात्परिणामयन्ति, शेष सुगम, यावत्कर्मोपगता भवन्तीत्येवमाख्यातम् ।। साम्प्रतं | स्थलचरानुद्दिश्याह-'अहावर'मित्यादि, अथापरमेतदाख्यातं नानाविधानां चतुष्पदानां, तद्यथा एकखुराणामित्यश्वखरादीनां | तथा द्विखुराणां-गोमहिप्यादीनां तथा गण्डीपदानां-हस्तिगण्डकादीनां तथा सनखपदानां-सिंहव्याघ्रादीनां यथाबीजेन यथावकाशेन सकलपर्याप्तिमवाप्योत्पद्यन्ते ते चोत्पन्नाः सन्तस्तदनन्तरं मातुः स्तन्यमाहारयन्तीति, क्रमेण च वृद्धिमुपगताः सन्तोऽपरेषामपि शरीरमाहारयन्तीति शेषं सुगमं यावत्कोपगता भवन्तीति ॥ साम्प्रतमुरम्परिसर्पानुद्दिश्याह-'नानाविधानां' बहुप्रकारा-18 णामुरसा ये प्रसर्णन्ति तेषां, तद्यथा-अहीनामजगराणामाशालिकानां महोरगाणां यथावीजवेन यथावकाशेन चोत्पच्याउण्डजलेन पोतजलेन वा गर्भाभिगच्छन्तीति । ते च निर्गता मातुरूष्माणं वायुं चाहारयन्ति, तेषां च जातिप्रत्ययेन तेनैवाहारेण क्षीरादिनेव वृद्धिरुपजायते, शेष सुगम, याबदाख्यातमिति ॥ साम्प्रतं भुजपरिसर्पानुद्दिश्याह-नानाविधानां भुजाभ्यां ये परिसप्पैन्ति तेषां, तद्यथा-गोधानकुलादीनां खकर्मोपातेन यथाबीजेन यथावकाशेन चोत्पत्तिर्भवति, ते चाण्डजवेन पोतजलेन चोत्पन्नास्तदनन्तरं मातुरूष्मणा वायुना चाऽऽहारितेन पृद्धिमुपयान्ति, शेपं सुगम, यावदाख्यातमिति ॥ साम्प्रतं खचरानुद्दिश्याह- नानाविधानो
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [१७], नियुक्ति: [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
३ आहार
प्रत सूत्रांक [५७]
दीप अनुक्रम [६८९]
सूत्रकृताङ्गे खेचराणामुत्पत्तिरवं द्रष्टव्या-तद्यथा-चर्मपक्षिणां-चर्मकीटवल्गुलीप्रभृतीनां तथा लोमपक्षिणां-सारसराजहंसकाकाकादीनां तथा २ श्रुतस्क-18| समुद्गपक्षिविततपक्षिणां बहिपिवर्तिनामेतेपां यथाचीजेन यथावकाशेन चोत्पन्नानामाहारक्रियेवमुपजायते, तद्यथा-सा पक्षिणी | न्ध शीला. तदण्डकं स्वपक्षाभ्यामावृत्य तावत्तिष्ठति यावत्तदण्डकं तदृष्मणाहारितेन वृद्धिमुपगतं सत् कललावस्थां परित्यज्य चञ्चादिकानवयवान् कीयावृत्तिः
10 परिसमापय्य भेदमुपयाति, तदुत्तरकालमपि मात्रोपनीतेनाहारेण वृद्धिमुपयाति, शेषं प्राग्वत् ॥ व्याख्याताः पञ्चेन्द्रिया मनुष्यास्ति॥३५६|| थियञ्चश्व, तेषां चाहारो द्वेधा-आभोगनिवतितोऽनाभोगनिर्वतितश्व, तत्रानाभोगनिवर्तितः प्रतिक्षणभाषी आभोगनिर्वर्तितस्तु | यथार्ख क्षुवेदनीयोदयभावीति । साम्प्रतं विकलेन्द्रियानुद्दिश्याह--
अहावरं पुरग्वायं इहेगतिया सत्ता णाणाविहजोणियाणाणाविहसंभवा णाणाविहबुकमा तजोणिया तस्संभवा तनुवकमा कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्ववुकमा णाणाविहाणं तसधावराणं पोग्गलाणं सरीरेसु वा सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा अणुसूपत्ताए विउदंति, ते जीवा तेर्सि णाणाविहाणं तसथावराणं पाणार्ण सिणेहमाहारैति, ते जीवा आहारैति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य क तेसिं तसथावरजोणियाणं अणुसूयगाणं सरीरा णाणावपणा जावमक्वायं ।। एवं दुरूवसंभवत्ताए ॥ एवं खुरदुगत्साए ॥ (सूत्रं ५८)
अथानन्तरमेतदाख्यातं 'इह' असिन् संसारे एके केचन तथाविधकमोदयवर्तिनः 'सत्या' प्राणिनो नानाविधयोनिकाः 81 कर्मनिदानेन खकृतकौगोपादानभूतेन तत्रोत्पत्तिस्थाने 'उपक्रम्य' आगत्य नानाविधवसस्थावराणां शरीरेषु सचित्तेषु अचित्तेषु
॥३५६॥
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [१८], नियुक्ति: [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५८]
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दीप अनुक्रम [६९०]
१ वा 'अणुसयत्साए'त्ति अपरशरीराश्रिततया परनिश्रया विवर्तन्ते समुत्पद्यन्ते इतियावत, ते च जीवा विकलेन्द्रियाः सचिनेष मनुष्यादिशरीरेषु यकालिक्षादिकत्वेनोत्पद्यन्ते,तथा तत्परिभुज्यमानेषु मञ्चकादिष्वचित्तेषु मत्कुणत्वेनाविर्भवन्ति, तथाऽचित्तीभूतेषु || मनुष्यादिशरीरकेषु विकलेन्द्रियशरीरेषु वा ते जीवा अनुस्यूतत्वेन-परनिश्रया कृम्यादित्वेनोत्पद्यन्ते, अपरे तु सचित्ते तेजःकायादौ मूषिकादित्वेनोत्पद्यन्ते, यत्र चाग्निस्तत्र वायुरित्यतस्तदुद्भवा अपि द्रष्टव्याः, तथा पृथिवीमनुश्रित्य कुन्थुपिपीलिकादयो वर्षा-1 |दावृष्मणा संखेदजा जायन्ते, तथोदके पूतरकाडोल्लणकभ्रमरिकाछेदनकादयः समुत्पद्यन्ते, तथा वनस्पतिकाये पनकभ्रमरादयो जायन्ते । तदेवं ते जीवास्तानि खयोनिशरीराण्याहारयन्ति इत्येवमाख्यातमिति ॥ साम्प्रतं पञ्चेन्द्रियमूत्रपुरीपोद्भवानसुमतः प्रति| पादयितुमाह-'एव'मिति पूर्वोक्तपरामर्शः, यथा सचित्ताचित्तशरीरनिश्रया विकलेन्द्रियाः समुत्पद्यन्ते तथा तत्संभवेषु मूत्रपुरीपवान्तादिषु अपरे जन्तको दुष्ट-विरूपं रूपं येषां कृम्यादीनां ते दुरूपास्तत्संभवत्वेन तद्भावनोत्पद्यन्ते, ते च तत्र विष्ठादी देहानिर्गतेऽनिर्गते वा समुत्पद्यमाना उत्पन्नाथ तदेव विष्ठादिकं खयोनिभूतमाहास्यन्ति, शेष प्राग्वत् ।। साम्प्रतं सचित्तशरीराश्रयान | जन्तून् प्रतिपादयितुमाह-एवं मिति, यथा मूत्रपुरीषादावुत्पादस्तथा तिर्यशरीरेषु 'खुरदुगताए'त्ति चर्मकीटतया समुत्प| धन्ते, इदमुक्कं भवति-जीवतामेव गोमहिष्यादीनां चर्मणोऽन्तः प्राणिनः संमूच्छर्यन्ते, ते च तन्मांसचर्मणी भक्षयन्ति, भक्षय|न्तश्चमणो विवराणि विदधति, गलच्छोणितेषु विवरेषु तिष्ठन्तस्तदेव शोणितमाहारयन्ति, तथा अचित्तगवादिशरीरेऽपि, तथा | सचित्ताचित्तवनस्पतिशरीरेऽपि घुणकीटकाः संमूछर्यन्ते, ते च तत्र संमूर्छन्तस्तच्छरीरमाहारयन्तीति ।। साम्प्रतमपूकार्य प्रतिपि| पादयिपुस्लत्कारणभूतवातप्रतिपादनपूर्वकं प्रतिपादयतीत्याह
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [१९], नियुक्ति: [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
३ आहारपरिज्ञाध्य.
प्रत सूत्रांक [५९]
सूत्रकृताङ्गे २श्रुतस्कन्धेशीलाकीयावृत्तिः
॥३५७॥
दीप अनुक्रम [६९१]
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अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता णाणाविहजोणिया जाव कम्मणियाणेणं तत्थवुकमा णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा तं सरीरगं धायसंसिद्ध वा वायसंगहियं वा वायपरिग्गहियं उहृवाएमु उड्डभागी भवति अहेवाएमु अहेभागी भवति तिरियवाएसु तिरियभागी भवति, तंजहा-ओसा हिमए महिया करए हरतणुए सुद्धोदए, ते जीवा तेसिं णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारैति, ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव संत, अवरेऽपि य णं तेर्सि तसधावरजोणियाणं ओसाणं जाव सुद्धोदगाणं सरीरा णाणावण्णा जावमक्वायं ॥ अहावरं पुरावार्य इहेगतिया सत्ता उदगजोणिया उदगसंभवा जाव कम्मणियाणेणं तत्थवुकमा तसथावरजोणिएसु उदएसु उदगत्ताए बिउति, ते जीवा तेसि तसथावरजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारैति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं तसथावरजोणियाणं उदगाणं सरीरा णाणावण्णा जावमक्वायं ।। अहावरं पुरक्वायं इहेगतिया सत्ता उदगजोणियाणं जाव कम्मनियाणेणं तत्थबुकमा उद्गजोणिएसु उदएसु उदगत्ताए विउदृति, ते जीवा तेर्सि उद्गजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारैति, ते जीवा आहारैति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं उदगजोणियाणं उदगाणं सरीरा णाणावन्ना जावमक्वायं ।। अहावरं पुरक्वायं इहेगतिया सत्ता उदगजोणियाणं जाव कम्मनियाणेणं तत्थबुकमा उद्गजोणिएसु उदएमु तसपाणत्ताए विउति, ते जीवा तेसिं उदगजोणियाणं
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॥३५७॥
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [१९], नियुक्ति: [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[५९]
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दीप अनुक्रम [६९१]
उद्गाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽपि य णं तेसिं उदगजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा णाणावण्णा जाधमक्खायं ॥ (सूत्रं ५९)
अथानन्तरमेतदक्ष्यमाणं 'पुरा' पूर्वमाख्यातं, 'इह' अस्मिन् जगत्येके सवास्तथाविधकर्मोदयाद् नानाविधयोनिकाः सन्तो यावकर्मनिदानेन 'तन्त्र' तस्मिन्यातयोनिके पूकाये 'व्युत्क्रम्य' आगत्य 'नानाविधानां' बहुप्रकाराणां 'सानां दर्दुरप्रभृतीनां स्थावराणां च हरितलवणादीनां प्राणिनां सचित्ताचित्तभेदभिन्नेषु शरीरेषु तदप्कायशरीरं वातयोनिकखादप्कायस्य वायुनोपादानकारणभूतेन सम्यक 'संसिर्द्ध' निष्पादितं तथा वातेनैव सम्यग् गृहीतमभ्रकपटलान्तनिर्वृत्तं तथा वातेनान्योन्यानुग-1 तखात्परिगतं तथोर्ध्वगतेषु पातेपूर्वभागी भवत्यप्कायो, गगनगतवातवशादिवि संमूच्छेते जलं, तथाऽधस्ताद्गतेषु वातेषु तदशा-16 द्भवत्यधोभागी अपकाया, एवं तिर्यग्मतेषु यातेपु तिर्यग्भागी भवत्यपकाया, इदमुक्तं भवति यातयोनिकसादएकायस्य यत्र || यत्रासौ तथाविधपरिणामपरिणतो भवति तत्र तत्र तत्कार्यभूतं जलमपि संमूच्छते, तस्स चाभिधानपूर्वकं भेदं दर्शयितुमाह-तपथा-3 'ओसत्ति अवश्यायः 'हिमयेति शिशिरादौ बातेरिता हिमकणा महिका:-धूमिकाः करकाः-प्रतीताः 'हरितणुय'नि तृणाग्रव्यवस्खिता जलविन्दवः शुद्धोदकं-प्रतीतमिति । 'इह' अमिनुदकप्रस्ताये एके सच्चास्तत्रोत्पद्यन्ते स्वकर्मवशगास्तत्रोत्पन्नास्ते जीवास्तेषां नानाविधानां त्रसस्थावराणां खोत्पच्याधारभूतानां स्नेहमाहारयन्ति, ते जीवास्तच्छरीरमाहारयन्ति, अनाहारका न भवन्तीत्यर्थः, शेष सुगमं यावदेतदाख्यातमिति ॥ तदेवं वातयोनिकमपकायं प्रदश्यां धुनापकायसंभवमेवाएकार्य दर्शयितुमाहअथापरमाख्यातं 'इह' अस्मिन् जगति उदकाधिकार का एके सच्चास्तथाविधकर्मोदयाद्वातवशोत्पनत्रसखावरशरीराधारमुदकं
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [१९], नियुक्ति: [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[५९]
दीप अनुक्रम [६९१]
सूत्रकृताङ्गेयोनिः- उत्पत्तिस्थानं येषां ते तथा, तथोदकसंभवा यावत्कर्मनिदानेन तत्रोस्पित्सवस्त्रसस्थावरयोनिकेपूदकेष्वपरोदकतया
३आहार२ श्रुतस्क- विवर्तन्ते' समुत्पद्यन्ते, ते चोदकजीवास्तेषां प्रसस्थावरयोनिकानामुदकानां स्नेहमाहारयन्ति अन्यान्यपि पृथिव्यादिशरीराण्या
परिज्ञाच्या न्धे शीला
हारयन्ति, तब पृथिव्यादिशरीरमाहारितं सत् सारूप्यमानीयात्मसात्मकुर्वन्त्यपराण्यपि तत्र बसस्थावरशरीराणि विवर्तन्ते, तेषां कायापत्तिः चोदकयोनिकानामुदकानां नानाविधानि शरीराणि विवर्तन्ते इत्येतदाख्यातम् ॥ तदेवं त्रसस्थावरशरीरसंभवमुदके योनित्वेन | ॥३५टाप्रदाधुना निर्विशेषणमप्कायसंभवमेवाकार्य दर्शयितुमाह-अथापरमेतदाख्यातं 'इह' अस्मिन् जगत्पुदकाधिकारे वा एके सचाः 18| स्वकृतकर्मोदयादुदकयोनिषदकेषुत्पद्यन्ते, ते च तेषामुदकसंभवानामुदकजीवानामात्माधारभूतानां शरीरमाहारयन्ति, शेष सुगम |
याबदाख्यातमिति ।। साम्प्रतमुदकाधारान् परान् पूतरकादिकांखसान् दर्शयितुमाह-अथापरमेतदाख्यातमिहके सत्त्वा उदकेषु उद-18 | कयोनिषु चोदकेषु प्रसपाणितया पूतरकादिखेन 'विवतेन्ते' समुत्पद्यन्ते, ते चोत्पद्यमानाः समुत्पन्नाथ तेपामुदकयोनिकानामुद-18 |कानां स्नेहमाहारयन्ति, शेष सुगमं यावदाख्यातमिति ।। साम्प्रतं तेजःकायमुद्दिश्याह
अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता णाणाविहजोणिया जाव कम्मनियाणणं तत्ववुकमा णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा अगणिकायत्साए विउति, ते जीवा तेर्सि णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि
॥३५८॥ यणं तेसिं तसथावरजोणियाणं अगणीणं सरीरा णाणावण्णा जावमक्खायं, सेसा तिन्नि आलावगा जहा उदगाणं ।। अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता णाणाविहजोणियाणं जाव कम्मनियाणेणं तस्थ
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [६०]- (गाथा १-२), नियुक्ति: [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६०]
बुकमा णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा वाउकायत्ताए विउहृति, जहा अगणीणं तहा भाणियबा, चत्तारि गमा ॥ (सूत्रं ६०)॥ अथैतदपरमाख्यातं 'इह' अस्मिन् संसारे एके केचन 'सत्त्वाः ' प्राणिनस्तथाविधकर्मोदयवर्तिनो नानाविधयोनयः प्राक् | सन्तः पूर्वजन्मनि तथाविधं कोपादाय तत्कमनिदानेन नानाविधानां त्रसस्थावराणां प्राणिनां शरीरेषु सचित्तेष्वचितेषु चाग्नि-18 | खेन 'विवर्तन्ते' प्रादुर्भवन्ति, तथाहि-पञ्चेन्द्रियतिरश्था दन्तिमहिषादीनां परस्परं युद्धावसरे विषाणसंघर्ष सति अनिरुतिष्ठते, 18| |एवमचिचेष्वपि तदखिसंघपादनेरुत्थानं, तथा द्वीन्द्रियादिशरीरेष्वपि यथासंभवमायोजनीयं, तथा सावरेवपि पनस्पत्युपला
| दिपु सचित्ताचित्तेवग्निजीवाः समुत्पद्यन्ते, ते चाग्निजीवास्तत्रोत्पन्नास्तेषां नानाविधानां प्रसस्थावराणां स्नेहमाहारयन्ति, शेष 18 सुगम यावदवन्तीत्येवमाख्यातम् । अपरे त्रयोऽप्यालापकाः प्राग्वद् द्रष्टच्या इति ।। साम्प्रतं वायुकायमुद्दिश्याह-'अहावर'मित्यादि, अथापरमेतदाख्यातमित्यायनिकायगमेन व्याख्येयम् ।। साम्प्रतमशेषजीवाधारं पृथिवीकायमधिकृत्याह
अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता णाणाविहजोणिया जाव कम्मनियाणेणं तत्थवुकमा णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा पुढवित्ताए सकरत्ताए बालुयत्ताए इमाओ गाहाओ अणुगंतवाओ-'पुढवी य सकरा वालुया य उचले सिला य लोणूसे । अय तस्य तंब सीसग रुप्प सुवणे य वइरे य॥१॥ हरियाले हिंगुलए मणोसिला सासगंजणपवाले । अन्भपडल१ दम्सशकयोः परिमहापेक्षया सविसापायुफवापेक्षया वा वित्तभेदभिन्नता २ खोलतियुक्ताः ।
दीप अनुक्रम [६९२]
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [६१]- (गाथा २-४), नियुक्ति: [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६१] ||१-४||
सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्तिः
व्भवालुय बायरकाए मणिविहाणा ॥२॥ गोमेज्जए य रुपए अंके फलिहे य लोहियकरखे य । मरग
३आहारयमसारगल्ले भुयमोयग इंदणीले य ॥३॥ चंदण गेरुय हंसगम्भ पुलए सोगंधिए य योद्धये । चंदप्पन परिज्ञाध्य. वेलिए जलकंते सरकते य॥४॥ एयाओ एएसु भाणियबाओ गाहाओ जाव सूरकंतताए विउद्घति, ते जीवा तेसिं णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं तसथावरजोणियाणं पुडवीणं जाब सरकंताणं सरीरा णाणायण्णा जावमक्वायं, सेसा तिपिण आलाबगा जहा उदगाणं ।। (सूत्रं ६१)॥ अथापरमेतत्पूर्वमाख्यातं इहैके सच्चाः पूर्व नानाविधयोनिकाः स्वकृतकर्मयशा नानाविधत्रसस्थावराणां शरीरेषु सचिचेषु अचित्तेषु वा पृथिवीखेनोत्पद्यन्ते, तद्यथा-सपेशिरःसु मणयः करिदन्तेषु मौक्तिकानि विकलेन्द्रियेष्वपि शुल्यादिषु मौक्तिकानि | स्थावरेष्वपि घेण्यादिपु तान्येवेति, एवमचित्तेपूपरादिषु लवणभानोत्पद्यन्ते, तदेवं पृथिवीकायिका नानाविधामु पृथिवीपु | शर्करावालुकोपलशिलालवणादिभावन तथा गोमेदकादिरलभावेन च बादरमणि विधानतया समुत्पद्यन्ते, शेपं सुगमं यावश्चखा-18 | रोऽप्यालापका उदकगमेन नेतव्या इति ।। साम्प्रतं सर्वोपसंहारद्वारेण सर्वजीवान सामान्यतो विभणिपुराहअहावरं पुरक्वायं सचे पाणा सधे भूता सबे जीवा सब सत्ता णाणाबिहजोणिया जाणाविहमभवा
॥३५९॥ णाणाविहवुकमा सरीरजोणिया सरीरसंभवा सरीरबुकमा सरीराहारा कम्मोवगा कम्मनियाणा कम्मगतीया कम्मठिइया कम्मणा व विपरियासमुति।। से एवमायाणह से एवमायाणित्ता आहारगुत्ते सहिए समिए
दीप अनुक्रम [६९३६९८]
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [६२], नियुक्ति: [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६२]
दीप अनुक्रम [६९९]
सया जए तिमि ॥ (सनं ६२) ॥ पियसुयक्वंधस्स आहारपरिषणा णाम तईयमजतयणं समत्तं ॥
अथापरमेतदाख्यातं, तद्यथा-संबै 'प्राणाः' प्राणिनोत्र च प्राणिभूतजीवसत्त्वशब्दाः पर्यायत्त्वेन द्रव्याः, कथञ्चिद्भेदं 18वाऽऽश्रित्य व्याख्येयाः, ते च नानाविधयोनिका नानाविधासु योनिषूत्पद्यन्ते, नारकतिर्यनरामराणां परस्परगमनसंभवात् , 8 ते च यत्र यत्रोत्पद्यन्ते तत्तच्छरीराण्याहारयन्ति, तदाहारवन्तश्च तत्रागुप्तास्तद्वारायाततत्कर्मवशगा नारकतिर्यजनरामरगतिषु
जघन्यमध्यमोत्कृष्टस्थितयो भवन्ति, अनेनेदमुक्तं भवति यो यादगिह भवे स ताडगेवामुत्रापि भवतीत्येतनिरस्तं भवति, अपितु कोपगाः कर्मनिदानाः कोयत्तगतयो भवन्ति, तथा तेनैव कर्मणा मुखलिप्सबोऽपि तद्विपर्यास-दुःखमुपगच्छन्तीति ।।। साम्प्रतमध्ययनार्थमुपसंजिघृक्षुराह-यदेतन्मयादितः प्रभृत्युक्तं, तद्यथा-यो यत्रोत्पद्यते स तच्छरीराहारको भवति आहारागुप्तश्च कर्मादत्ते कर्मणा च नानाविधामु योनिपु अरहघटीन्यायेन पौनःपुन्येन पर्यटतीत्येवमाजानीत यूर्य, एतद्विपर्यासे दुःखमुपगच्छन्तीति । एतत्परिज्ञाय च सदसद्विवेकपाहारगुप्तः पञ्चभिः समितिभिः समितो यदिवा सम्यगनानादिके मार्गे इतो-18 गतः समितः तथा सह हितेन वर्तते सहितः सन् सदा-सर्वकालं यावदुरडासं तावद्यतेत सत्संयमानुष्ठाने प्रयलवान् भवेदिति ।। इतिः परिसमाप्त्यर्थे, अधीमीतिपूर्ववत् । गतोऽनुगमः । साम्प्रतं नयाः, ते च प्रामद् द्रएण्याः ॥ समाप्तमाहारपरिज्ञाख्या तृतीयमध्ययनम् ।। ३॥
इति श्रीमत्रदों द्वितीयश्रुतस्कन्धे आहारपरिज्ञाख्यं तृतीयमध्ययनं सवृत्तिकं समाप्तिमगात्
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अत्र तृतीयं अध्ययनं परिसमाप्तं
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
[६२]
दीप
अनुक्रम [६९९]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [ - ], मूलं [६२...], निर्युक्तिः [१७९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
सूत्रकृताङ्के
२ श्रुतस्क
न्धे शीलाझीयावृत्तिः
॥३६० ।।
Education Inte
अथ द्वितीयश्रुतस्कन्धे चतुर्थप्रत्याख्यानाध्ययनप्रारम्भः ॥
तृतीयाध्ययनानन्तरं चतुर्थमारभ्यते, अस्ख चायमभिसंबन्धः -- इहानन्तराध्ययने आहारागुप्तस्य कर्मबन्धोऽभिहितोऽतोऽत्र तत्प्रत्याख्यानं प्रतिपाद्यते, यदिवोत्तरगुण संपादनार्थं शुद्धेतराहारविवेकार्थमाहारपरिज्ञोक्ता सा चोत्तर गुणरूपा प्रत्याख्यानक्रियासमन्वितस्य भवतीत्यत आहारपरिज्ञानन्तरं प्रत्याख्यानक्रियाध्ययनमारभ्यते इत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्योपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपक्रमान्तर्गतोऽर्थाधिकारोऽयम्, तद्यथा-इह कर्मोपादानभूतस्याशुभस्य प्रत्याख्यानं प्रतिपाद्यत इति । साम्प्रतं निक्षेपः, तत्राप्योधनिष्पन्नेऽध्ययनं नामनिष्पत्रे प्रत्याख्यानक्रियेति द्विपदं नाम, तत्र प्रत्याख्यानपदनिक्षेपार्थं निर्युक्तिकृदाह-
णामटवणादविए अइच्छ पडिसेहए य भावे य । एसो पञ्चवाणस्स छविहो होइ निक्वेवो ॥ १७९ ॥ मूलगु पर्व पचवाणे इहं अधीगारो । होज हु तप्पचइया अप्पञ्चवाणकिरिया उ ॥ १८० ॥
नामस्थापनाद्रव्यादित्साप्रतिषेधभावरूपः प्रत्याख्यानस्यायं पोढा निक्षेपः, तत्रापि नामस्थापने सुगमे, द्रव्यप्रत्याख्यानं तु | द्रव्यस्य द्रव्येण द्रव्याद् द्रव्ये द्रव्यभूतस्य वा प्रत्याख्यानं द्रव्यप्रत्याख्यानं, तत्र सचित्ताचित्तमिश्रभेदस्य द्रव्यस्य प्रत्याख्यानं द्रव्यप्रत्याख्यानं, द्रव्यनिमित्तं वा प्रत्याख्यानं यथा धम्मिल्लस्य, एवमपराण्यपि कारकाणि स्वधिया योजनीयानि, तथा दातु
For Parts Only
अथ चतुर्थ अध्ययनं "प्रत्याख्यान" आरभ्यते, तृतीय- अध्ययनेन सह् अभिसंबन्ध:, प्रत्याख्यान- पदस्य निक्षेपाः
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४ प्रत्याख्यानाव्य.
॥३६०॥
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [६२...], नियुक्ति: [१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६२]
मिच्छा दित्सा न दित्सा अदित्सा तया प्रत्याख्यानमदित्साप्रत्याख्यान-सत्यपि देये सति च संप्रदानकारके केवल दातात| मिच्छा नास्तीत्यतोऽदित्साप्रत्याख्यान, तथा प्रतिषेधप्रत्याख्यानमिदं, तद्यथा-विवक्षितद्रव्याभावाद्विशिष्टसंग्रदानकारकाभावाद्वा | सत्यामपि दित्सायां यः प्रतिषेधस्तत्प्रतिषेधप्रत्याख्यानं, भावप्रत्याख्यानं तु द्विधा अन्तःकरणशुद्धस्य साधोः श्रावकस वा|| मूलगुणप्रत्याख्यानमुत्तरगुणप्रत्याख्यानं चेति, चशब्दादेतद् द्विविधमपि नोआगमतो भावप्रत्याख्यानं द्रष्टव्यं, नान्यदिति । साम्प्रतं क्रियापदं निक्षेप्तव्यं, तच्च क्रियास्थानाध्ययने निक्षिप्तमिति न पुननिक्षिप्यते । इह पुनर्भावप्रत्याख्यानेनाधिकार इति दर्शयितुमाह-मूलगुणा:-प्राणातिपातविरमणादयस्तेषु प्रकृतम्-अधिकारः प्राणातिपातादेः प्रत्याख्यानं कर्तव्यमितियावत् 'इहा। प्रत्याख्यानक्रियाध्ययनेाधिकारो, यदि मूलगुणप्रत्याख्यानं न क्रियते ततोऽपाय दर्शयितुमाह-प्रत्याख्यानाभावेऽनियतत्वाध-INI किञ्चनकारितया तत्प्रत्ययिका-तनिमित्ता भवेद्-उत्पद्येत अप्रत्याख्यानक्रिया-सावद्यानुष्ठानक्रिया तत्ात्ययिकश्च कर्मवन्धः। तनिमित्तय संसार इत्यतः प्रत्याख्यान क्रिया मुमुक्षुणा विधेयेति । गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, अधुना सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारयितव्यं, तच्चेदम्सुर्य मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु पञ्चक्खाणकिरियाणामायणे, तस्सणं अयम? पण्णते-आया अपचक्रवाणी.यावि भवति आया अकिरियाकुसले यावि भवति आया मिच्छासंठिए याचि भवति आया एगंतदंडे यावि भवति आया एगंतवाले यावि भवति आया एगंतसुत्ते यावि भवति आया अवियारमणवयणकायवके यावि भवति आया अप्पडिहयअपचक्खायपावकम्मे पावि भवति,
दीप अनुक्रम [६९९]
2900merasa92902
प्रत्याख्यान-पदस्य निक्षेपाः, मूलसूत्रस्य आरम्भ:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [६३], नियुक्ति: [१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीला
प्रत सूत्रांक [६३]
दीप अनुक्रम [७००]
एस खलु भगवता अक्खाए असंजते अविरते अप्पडिहयपञ्चक्वायपावकम्मे सकिरिए असंबुडे एगतदंडे एगंतवाले एगतसुत्से, से बाले अवियारमणवयणकायवके सुविणमवि ण परसति, पावे य से
| ख्याना कम्मे कजइ ॥ (सून ६३)॥
अविरतस्य बीयावृत्तिः
पापबन्धः अस्स चानन्तरपरम्परमूत्रैः सह संबन्धो वक्तव्यः, स चायम्-इहानन्तराध्ययनपरिसमाप्ताविदं सूत्रम्-'आहारगुप्तः समितः1% ॥३६१॥ सहितः सदा यतेते'ति एतन्मया श्रुतमायुष्मता भगवतेदमाख्यातम् , एवमनया दिशा परम्परसूत्ररपि संवन्धोभ्यूद्या, 'इह'
[ असिन प्रवचने सूत्रकृताङ्गे वा 'खल्वि'ति वाक्यालङ्कारे प्रत्याख्यानक्रियानामाध्ययनं तस्थायमर्थो वक्ष्यमाणलक्षणः, अततीत्यात्मा !
-जीवः प्राणी, स चानादिमिथ्याखाविरतिप्रमादकपाययोगानुगततया स्वभावत एवाप्रत्याख्यान्यपि भवति, अपिशब्दात्स एव | कुतधिनिमित्तात्प्रत्याख्यान्यपि, तत्रात्मग्रहणमपरदर्शनव्युदासार्थ, तथाहि-सायानामग्रच्युतानुत्पनखिरकम्खभाव आत्मा, स च तृणकुजीकरणेऽप्यसमर्थतयाकिश्चित्करत्वान्न प्रत्याख्यानक्रियायां भवितुमर्हति, बौद्धानामप्यात्मनोऽभावात् ज्ञानस्य च क्षणिक-RM
तया खितेरभावात् कुतः प्रत्याख्यानक्रियेति, एवमन्यत्रापि प्रत्याख्यानक्रियाया अभावो वाच्यः, तथा सदनुष्ठान क्रिया तस्यां || ४ कुशलः क्रियाकुशलस्तत्प्रतिषेधादक्रियाकुशलोऽप्यात्मा भवति, तथाऽऽत्मा मिथ्यात्वोदयसंस्थितोऽपि भवति, तथकान्तेनापरान् 181
प्राणिनो दण्डयतीति दंडस्तदेवभूतधारमा भवति, तथाऽसारतापादनाद्रागद्वेषाकुलितखाद्वालवद्वाल आत्मा भवति, तथा सुप्तवत्सुप्तः || | यथा हि द्रव्यसुप्तः शब्दादीन् विषयान् न जानाति हिताहितप्राप्तिपरिहारविकलश्च तथा भावसुप्तोऽप्यात्मैवंभूत एव भवतीति, एवमविचारणीयानि-अशोभनतयाऽनिरूपणीयान्यपर्यालोचनीयानि मनोवाकायवाक्यानि यस्य स तथा, तत्र मन:-अन्तःकरणं |
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [६३], नियुक्ति: [१८०]
प्रत सूत्रांक
[६३]
वार-वाणी कायो-देहः अर्थप्रतिपादकं पदसमूहात्मकं वाक्यमेकतिङ सुबन्तं बा, तत्र वाग्ग्रहणेनैव वाक्यस्य गतार्थत्वायत्पुनशाक्यग्रहणं करोति तदेवं ज्ञापयति-इह याग्रन्यापारस्य प्रचुरतया प्राधान्यं, प्रायशस्तत्प्रवृत्त्यैव प्रतिषेधविधानयोरन्येषां प्रवर्तनं ।
भवति, तदेवमप्रत्याख्यानाक्रियः सन् आत्माऽविचारितमनोवाकायवाक्यश्चापि भवतीति, तथा प्रतिहतं-प्रतिस्खलितं प्रत्याक्यात-- निराकृतं विरतिप्रतिपच्या पापकर्म असदनुष्ठानं येन स प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा तत्प्रतिषेधादसदनुष्ठानपरमात्मा भवतीति ।। | तदेवमेष-पूर्वोक्तोऽसंयतोऽविरतो प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा सक्रियः ससाबधानुष्ठानः, तथाभूतश्चासंधुतो मनोवाकार्यरगुप्तोऽ-15 | सखाचात्मनः परेषां च दण्डहेतुखाद्दण्डः, तदेवंभूतश्च सन् एकान्तेन बालबद्वालः सुप्तवदेकान्तेन सुप्तः, तदेवंभूतथ बालमुप्तत
या विचाराणि-अविचारितरमणीयानि परमार्थविचारणया युक्त्या वा विघटमानानि मनोवाकायवाक्यानि यस्य स तथा, यदिवा | 18|परसंबन्ध्यविचारितमनोवाकायवाक्यः सन् क्रियासु प्रवर्चते, तदेवंभूतो निर्विवेकतया पद्धविज्ञानरहितः स्वममपि न पश्यति, तस्य || | चाव्यक्तविज्ञानस्य खममप्यपश्यतः पापं कर्म बध्यते, तेनैवंभूतेनाव्यक्तविज्ञानेनापि पायं कर्म क्रियत इति भावः ।। तत्र चैवं 181 व्यवस्थिते चोदकः प्रज्ञापकमेवमवादीत-अत्र चाचार्याभिप्रायं चोदकोऽनूय प्रतिषेधयति
तत्य चोयए पन्नवर्ग एवं वयासि-असंतएणं मणेणं पावएणं असंतियाए वतीए पावियाए असंतएणं कारणं पावएणं अहणंतस्स अमणक्खस्स अवियारमणवयकायवकस्स सुविणमवि अपस्सओ पावकम्मे णो कज्जइ, कस्स णं तं हे?, चोयए एवं बबीति अन्नयरेणं मणेणं पावएणं मणवत्तिए पावे कम्मे कज्जर, अन्नयरीए वतिए पावियाए बतिवत्तिए पावे कम्मे कजइ, अन्नयरेणं कारणं पावएणं कायवत्तिए पावे कम्मे
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दीप अनुक्रम [७००]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [६४], नियुक्ति: [१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६४]
सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्ये शीलाकीयावृचिः ॥३६२॥
४प्रत्याख्याना अविरतस्य पापवन्धः
कजइ, हर्णतस्स समणक्खस्स सवियारमणवयकायवकरस सुविणमवि पासओ एवंगुणजातीयस्स पावे कम्मे कजइ । पुणरवि चोयए एवं बवीति-तत्व णं जे ते एवमाहंसु-असंतएणं मणेणं पावएणं असंतीयाए बतिए पावियाए असंतएणं काएणं पावएणं अहणंतस्स अमणक्वस्स अवियारमणवयणकायवक्कस्स सुविणमवि अपस्सओ पावे कम्मे काइ, तस्थ णं जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमाहंसु ॥ तस्थ पन्नवए चोयर्ग एवं वयासी-तं सम्मं जं मए पुचं वुत्तं, असंतएणं मणेणं पावएणं असंतियाए बतिए पावियाए असंतएणं काएणं पावएणं अहणंतस्स अमणक्खस्स अवियारमणवयणकायवक्करस सुविणमवि अपस्सओ पावे कम्मे कवति, तं सम्म, कस्स णं तं हेउं ?, आचार्य आह-तस्थ खलु भगवया छजीवणिकायहेऊ पण्णता, तंजहा-पुढचिकाइया जाव तसकाइया, इच्छेएहिं छहिं जीवणिकाएहिं आया अप्पडिहयपच्चक्खायपावकम्मे निचं पसढविउवातचित्तदंडे, तंजहा-पाणातिवाए जाव परिग्गहे कोहे जाव मिच्छादसणसल्ले ॥ आचार्य आह-तत्थ खलु भगवया वहए दिट्टते पण्णत्ते, से जहाणामए बहए सिया गाहावइस्स वा गाहावइपुत्तस्स वा रपणो वा रायपुरिसस्स वा खणं निहाय पविसिस्सामि खणं लद्भूर्ण वहिस्सामि पहारेमाणे से किं नु हु नाम से वहए तस्स गाहावइस्स वा गाहावइपुत्तस्स वा रपणो वा रायपुरिसंस्स वा खणं निहाय पविसिस्सामि खणं लणं बहिस्सामि पहारेमाणे दिया वा राओ वा मुसे वा जागरमाणे वा तिहाए प्र० । २ किण्हु । ३ पुत्तस्स (टीका)।
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दीप अनुक्रम [७०१]
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॥३६॥
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [६४], नियुक्ति: [१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६४]
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अमित्तभूए मिच्छासंठिते निच्चं पसहविउवायचित्तदंडे भवति?, एवं वियागरेमाणे समियाए वियागरे चोयए-हंता भवति ॥ आचार्य आह-जहा.से वहए तस्स गाहावइस्स वा तस्स गाहावइपुत्तस्स वा रपणो वा रायपुरिसस्स वा खणं निद्दाय पविसिस्सामि स्वणं लणं वहिस्सामित्ति पहारेमाणे दिया वाराओ वा सुत्ते वा जागरमाणे चा अमित्तभूए मिच्छासंठिते निचं पसढविज्वायचित्तदंडे, एवमेव वालेवि सबेसि पाणाणं जाव सबेसि सत्ताणं दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिते निचं पसढचिउवायचित्तदंडे, तं०-पाणातिवाए जाव मिच्छादसणसल्ले, एवं खलु भगवया अक्वाए असंजए अविरए अप्पडिहयपञ्चक्खायपावकम्मे सकिरिए असंबुडे एगंतदंडे एगंतबाले एगंतसुत्ते यावि भवह, से बाले अवियारमणबयणकायवके सुविणमवि ण पस्सह पावे य से कम्मे कजइ ॥ जहा से बहए तस्स वा गाहावइस्स जाव तस्स वा रायपुरिसरस पत्तेयं पत्तेयं चित्तसमादाए दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिते निचं पसढविउवायचित्तदंडे भवइ, एवमेव वाले सबेसिं पाणाणं जाव सवेसिं सत्ताणं पत्तेयं पत्तेयं चित्तसमादाए दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूते मिच्छासंठिते निचं पसढविउवायचित्तदंडे भवइ ।। (सूत्रं ६४)॥ ___ 'असंतएणमित्यादि, अविद्यमानेन-असता मनसाऽप्रवृत्चेनाशोभनेन तथा वाचा कायेन च पापेनासता तथा सचाननतः तथाऽमनस्कस्याविचारमनोवाकायवाक्यस्य स्वप्नमप्यपश्यतः खप्नान्तिकं च कर्म नोपचयं यातीत्येवमव्यक्तविज्ञानस्य पापं
दीप अनुक्रम [७०१]
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [६४], नियुक्ति: [१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६४]
दीप अनुक्रम [७०१]]
सूत्रकृताङ्गे 18 कर्म न बध्यते, एवंभूतविज्ञानेन पाप कर्म न क्रियत इतियावत् । 'कस्य हेतोः?' केन हेतुना केन कारणेन तत्पाप कर्म बध्यते , ॥8॥ ४ प्रत्या२श्रुतस्क- 18 नात्र कश्चिदश्यक्तविज्ञानखात्पापकर्मबन्धहेतुरिति भावः । तदेवं चोदक एवं खाभिप्रायेण पापकर्मबन्धहेतुमाह-'अन्नयरेण मि-18 ख्याना० म्वे शीला-18| त्यादि, कर्माश्रवद्वारभूतैर्मनोवाकायकर्मभिः कर्म बध्यत इति दर्शयति-अन्यतरेण लिष्टेन प्राणातिपातादिप्रवृत्त्या मनसा वाचा
| अविरतस्य हीयावृत्तिः शिकायेन च तत्प्रत्ययिक कर्म बध्यत इति, इदमेव स्पष्टतरमाह-प्रतस्सत्वान्समनस्कख सविचारमनोवाकायवाक्यस्य खममपि पश्यतः
पापबन्धः ॥३६॥ प्रस्पष्टविज्ञानपेतद्गुणजातीयस पापं कर्म बध्यते, न पुनरेकेन्द्रियविकलेन्द्रियादेः पापकर्मसंभव इति, तेषां घातकस्य मनोवाकाय
| व्यापारस्थाभावात् , अथैतद्वयापारमन्तरेणापि कर्मबन्ध इष्यते एवं च सति मुक्तानामपि कर्मवन्धः स्यात् । न चैतदिप्यते, तस्मा- |वमखमान्तिकमविज्ञोपचितं च कर्म वध्यत इति, तेत्र यदेवंभूतैरेव मनोवाकायच्यापारः कर्मबन्धोऽभ्युपगम्यते । तदेवं व्यव|स्थिते सति ये ते एवमुक्तवन्तः-तद्यथा-अविद्यमानरेवाशुभैयोगैः पापं कर्म क्रियते, मिथ्या त एवमुक्तवन्त इति स्थितम् । तदेवं
चोदकेनाचार्यपक्षं दूषयिसा खपक्षे व्यवस्थापिते सत्याचार्य आह-तत्राचार्यः खमतमन्द्य तत्सोपपत्तिकं साधयितुमाह-'तं सम्म'-161 मित्यादि, यदेतन्मयोक्तं प्राग् यथाऽस्पष्टाव्यक्तयोगानामपि कर्म बध्यते तत्सम्यक्-शोभनं युक्तिसंगतमिति, एवमुक्ते पर आह| 'कस्य हेतोः? केन कारणेन तत्सम्यगिति चेदाह-तत्थ खलु' इत्यादि, तत्रेति वाक्योपन्यासार्थ खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे
॥३६३॥ भगवता वीरवर्द्धमानखामिना पङ् जीवनिकायाः कर्मबन्धहेतुखेनोपन्यस्ताः, तद्यथा-पृथिवीकायिका इत्यादि यावत्रसकायिका
१नोदकस्यैव वारूप प्रशापर्क प्रति । २ नोदकपक्षे । ३ यद्येवं प्रातस्मादित्यादिवाक्यस्यायें हेतुभूतः सात् । ४ स्पष्टविज्ञानयुफैः । ५ आचार्यवाक्यमिदं पूर्वपक्षे हेतुदर्शनाय ।
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [६४], नियुक्ति: [१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६४]
| इति । कथमेते षड् जीवनिकायाः कर्मबन्धस्य कारणमित्याह-'इच्चेएहि मित्यादि, इत्येतेषु पृथिव्यादिषु पइजीवनिकायेषु प्रतिहतं
विनितं प्रत्याख्यातं-नियमितं पापं कर्म येन स तथा, पुनर्नसमासेनाप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा य आत्मा-जन्तुस्तथा ॥ तद्भावलादेव नित्यं सर्वकालं प्रकर्षेण शठः प्रशठस्तथा व्यतिपाते-प्राणच्यपरोपणे चित्तं यस्य स व्यतिपातचित्तः खपरदण्डहेतु
बादण्डः प्रशठश्चासौ व्यतिपातचित्तदण्डश्चेति कर्मधारय इति, एतदेव प्रत्येक दर्शयितुमाह-'तंजहे त्यादि, तद्यथा प्राणातिपाते। | विधेये प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डः, एवं मृषावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहेष्वपि वाच्यं, यावन्मिथ्यादर्शनशल्यमिति । तेषामिहकेन्द्रि16 | यविकलेन्द्रियादीनामनिवृत्तखान्मिथ्याखाविरतिप्रमादकपाययोगानुगतसं द्रष्टव्यं, तद्भावाच ते कथं प्राणातिपातादिदोषवन्तो न
भवन्ति, ग्राणातिपातादिदोपवचया चाव्यक्तविज्ञाना अपि सन्तोऽस्वमाद्यवस्थायामपि ते कर्मबन्धका एव । तदेवं व्यवस्थिते | । यत्प्रागुक्तं परेण यथा नाव्यक्तविज्ञानानामतताममनस्कानां कर्मबन्ध इत्येतत् प्लवते ।। साम्प्रतमाचार्यः स्वपक्षसिद्धये दृष्टान्तमाह-'तत्व स्खलु भगवया' तत्रेति वाक्योपन्यासार्थमाह, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे, भगवत्ता-ऐश्वर्यादिगुणोपेतेन चतुखिशदतिशयसमन्वितेन तीर्थकृता बधकदृष्टान्तः 'प्रज्ञप्तः प्ररूपितः, तद्यथा नाम वधकः कश्चित्स्यादिति, कुतश्चिनिमित्तात्कु-% पितः सन् कस्यचिद्वधपरिणतः कश्चित्पुरुपो भवति, यस्यासौ वधकरतं विशेषेण दर्शयितुमाह-गाहावइस्स वेत्यादि, गृहस्य पति
गृहपतिस्तत्पुत्रो वा, अनेन सामान्यतः प्राकृतपुरुषोऽभिहितः, तस्योपरि कुतचिनिमित्ताधकः कश्चित्संवृत्तः, स च वधपरिणामपरिपणतोऽपि कसिंश्चिक्षणे पापकारिणमेनं घातयिष्यामीति । तथा राज्ञस्तत्पुत्रस वोपरि कुपित एतत्तुर्यादित्याह-'स्वर्ण निहाय
योग्वेऽयसरे । २ अपाया।
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दीप अनुक्रम [७०१]]
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [६४], नियुक्ति: [१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६४]
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इत्यादि, क्षणम् अवसरं 'णिद्दाय'त्ति प्राप्य लब्ध्वा वध्यस्य पुरे गृहे वा प्रवेक्ष्यामीत्येतदध्यवसायी भवति, तथा क्षणम्-अवसरं ४ प्रत्या२भुतस्क- छिद्रादिकं वध्यस्य लब्ध्वा तदुत्तरकालं तं वध्यं हनिष्यामीत्येवं संप्रधारयति, एतदुक्तं भवति-गृहपतेः सामान्यपुरुपस्य राज्ञो वा न्धे शीला- | विशिष्टतमस्य कस्यचिद्धपरिणतोऽप्यात्मनोऽवसरं लब्ध्वाऽपरकार्यक्षणे सति तथा वध्यस्य च छिद्रमपेक्षमाणस्तदवसरापेक्षी कंचि- अविरतस कीयावृत्तिः | कालमुदास्ते, स च तत्रीदासीन्यं कुर्वाणोऽपरकार्य प्रति व्यग्रचेताः संस्तसिन्नवसरे वधं प्रत्यस्पष्टविज्ञानो भवति, स चर्वभूतोऽपि |
पापबन्धः ॥३६४॥
यथा तं वध्यं प्रति नित्यमेव प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डो भवति, एवमविद्यमानैरपि प्रव्यक्तैरशुभैयाँगरेकेन्द्रियविकलेन्द्रियादयोऽस्सएविज्ञाना अपि मिथ्यासाविरतिप्रमादकषाययोगानुगतखात्प्राणातिपातादिदोषवन्तो भवन्तीति, न च तेऽवसरमपेक्षमाणा उदा-18 | सीना अप्परिण इति, एवमस्पष्टविज्ञाना अप्यवैरिणो न भवन्तीति, अत्र च वध्यवधकयोः क्षणापेक्षया घसारो भङ्गाः, तद्यथा-18 R| वध्यस्थानवसरो १ वधकस्य च २ उभयोर्वाऽनवसरो ३ द्वयोरप्यवसर इति ४ । नागार्जुनीयास्तु पठन्ति 'अप्पण्णो अपखणयाए
तस्स वा पुरिसस्स छिदं अलभमाणे णो बहेइ, तं जया मे खणो भविस्सइ तस्स पुरिसस्स छिई लभिस्सामि तया मे स पुरिसे | अवस्सं बहेयो भषिस्सइ, एवं मणो पहारेमाणे'त्ति मूत्रं, निगदसिद्धम् ।। साम्प्रतमाचार्य एवं स्वाभिप्रेतमर्थ परप्रश्नपूर्वकमा-151 18|| विभावयन्नाह-से किं नु हु'इत्यादि, आचार्यः खतो हि निीतार्थोऽमयया परं पृच्छति-किमिति परप्रश्ने, नुरिति वितकै हुशब्दो। S| वाक्यालङ्कारे, किमसौ वधकपुरुषोऽवसरापेक्षी 'छिद्रम्' अवसरं 'प्रधारयन्' पोलोचयनहर्निशं सुप्तो जाग्रदवसो वा 'तस्य ॥३६॥ || गृहपते राहो वा वध्यसामित्रभूतो मिथ्यासंस्थितो नित्यं प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डो भवत्याहोखिनेति', एवं पृष्टः परः समतया
१ फधिकारणकोपाद्धपरिणतोऽप्या प्र० । २ परचित्तस्था याऽसूया-यथार्थऽयथार्थतोद्भावनरूपा तया देवभूतया ।
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [६४], नियुक्ति: [१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६४]
दीप अनुक्रम [७०१]]
माध्यस्थ्यमवलम्बमानो यथावस्थितमेव व्यागृणीयात् , तद्यथा-हन्ताचार्य ! भवत्यसावमित्रभूत इतीत्यादि । तदेवं दृष्टान्त प्रदर्य | दान्तिकं दर्शयितुमाह-यथाऽसौ वधक इत्यादिना दृष्टान्तमनूद्य दार्शन्तिकमर्थ दर्शयितुमाह-एवमेवेत्यादि, एवमेवेति यथासौ। वधकोऽवसरापेक्षितया वध्यस्य व्यापत्तिमकुर्वाणोऽप्यमित्रभूतो भवत्येवमेवासावपि बालबबालोऽस्पष्टविज्ञानो भवत्येव, निवृत्तेरभावायोग्यतया सर्वेषां प्राणिनां व्यापादको भवति यावन्मिथ्यादर्शनशल्योपेतो भवति, इदमुक्तं भवति-ययप्युत्थानादिकं विनयं ||8| | कुतधिनिमित्तादसी विधते तथाऽप्युदायिनपव्यापादकवदन्तर्दुष्ट एवेति, नित्यं प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डव यथा परशुरामः कृत-18 | वीर्य व्यापाचापि तदुत्तरकालं सप्तवारं निक्षत्रां पृथिवीं चकार, आह हि- "अपकारसमेन कर्मणा न नरस्तुटिमुपति शक्ति| मान् । अधिकां कुरुतेरियातनां द्विषतां मूलमशेपमुद्धरेत् ॥१॥" इत्येवमसावमित्रभूतो मिथ्याविनीतश्च भवतीति । साम्प्रत-IN | मुपसंहरन् प्राक् प्रतिपादितमर्थमनुवदन्नाह-'एवं खलु भगवया इत्यादि, यथाऽसौ वधकः स्वपरावसरापेक्षी सन्न तावद् घात| यत्यथ चानिवृत्तवादोषदुष्ट एव, एवमसावप्यकेन्द्रियादिकोऽस्पष्टविज्ञानोऽपि तथाभूत एवाविरताप्रतिहतप्रत्याख्यातासस्क्रियादि-113 दोपदुष्ट इति, शेष सुममं यावत्पापं कर्म क्रियत इति ॥ तदेवं दृष्टान्तदान्तिकप्रदर्शनेन पूर्वप्रतिपादितार्थस्य निगमनं कृत्वाs-18 धुना सर्वेषामेव प्रत्येकं प्राणिनां दुष्ट आत्मा भवति इत्येतत्प्रतिपादयितुकाम आह-यथाऽसौ वधकः परात्मनोरवसरापेक्षी तस्य | गृहपतेस्तत्पुप्रस वाऽभ्यर्हितस्य वा राजादेस्तत्पुत्रस्य वैकमेकं पृथक पृथक् सर्वेष्वपि वध्येषु घातकचित्तं समादाय प्राप्तावसरो|हमेनं वैरिणं मदाधिविधायिनं घातयिष्यामीत्येवं प्रतिज्ञाय दिवा वा रात्रौ वा सुप्तो वा जाग्रद्वा सर्वाखवस्थासु सर्वेषामेव वध्यानां प्रत्येकममित्रभूतोऽवसरापेक्षितयाजानपि मिथ्यासंस्थितो नित्यं प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डो भवति, एवं रागद्वेपाकुलितो बालवद्वालो18
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [६४], नियुक्ति: [१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
ख्याना
शीयावृत्तिः
[६४]
दीप अनुक्रम [७०१]]
सूत्रकृताङ्गे 18 ज्ञानावृत एकेन्द्रियादिरपि सर्वेषामेव प्राणिनां विरतेरभावात्तद्योग्यतया प्रत्येकं बध्येषु घातकचित्तं समादाय नित्यं प्रशठव्यतिपातदि- ४ प्रत्या
सदण्डो भवतीति, इदमुक्तं भवति-यथाऽसौ तसाहपतिराजादिधातादनुपशान्तवैरः कालावसरापेक्षितया वधमकुर्वाणोऽप्यविरतिन्धे शीला
सद्भावाद्वैरान निवर्तते तत्प्रत्ययिकेन च कर्मणा बध्यते एवं तेऽपि एकेन्द्रियविकलेन्द्रियादयस्तत्प्रत्ययिकेन [च] कर्मणा वध्यन्ते, एवं अविरतख मृपावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहेष्वपि प्रतिज्ञाहेतुदृष्टान्तोपनयनिगमनार्थविधानेन पञ्चावयवत्वं वाच्यमिति, इहवं पञ्चावयवस
पापत्रन्धः वाक्यस्य सूत्राणां विभागो द्रष्टव्यः, तबधा-'आया अपञ्चक्खाणी यावि भवतीत्यत आरभ्य यावत्पावे य से कम्मे कजइति। | इतीयं प्रतिज्ञा, तत्र परः प्रतिज्ञामात्रेणोक्तमनुक्तसममितिकला चोदयत्ति, तद्यथा-'तस्थ चोयए पण्णवर्ग एवं वयासीत्यत आरभ्य।
यावजे ते एवमासु मिच्छ ते एवमासु'त्ति । तत्र प्रज्ञापकदोदकं प्रत्येवं बदेव , तबधा यन्मया पूर्व प्रतिज्ञातं तत्सम्यक्, कस्स
हेतोः-केन हेतुनेति चेत् , तत्र हेतुमाह 'तत्थ खलु भगवया छ जीवनिकाया हेऊ पण्णत्ता इत्यत्त आरभ्य यावत् मिच्छादसराणसल्ले' इत्ययं हेतुः, तदस्य हेतोरनैकान्तिकलव्युदासार्थ स्वपक्षे सिद्धिं दर्शयितुं उष्टान्तमाह, तद्यथा-'तत्थ खलु भगक्या वहए 18 दिलुते पण्णत्ते इत्यत आरभ्य यावत् खणं लभूर्ण बहिस्सामीति पहारेमाणे ति, तदेवं दृष्टान्त प्रदर्य तत्र च हेतोः सत्ता स्वाभि-18
प्रेतां परेण भाणयितुमाह-से किं नु हु णाम से वहए इत्यादेरारभ्य यावद्धन्ता भवति तदेवं हेतोदृष्टान्ते सत्वं प्रसाध्य हेतोः पक्षधर्मख दर्शयितुमुपनया दृष्टान्तधार्मिणि हेतोः सत्ता परेणाभ्युपगतामनुवदति-'जहा से वहए इत्यत आरभ्य यावण्णिचं पस- ३६५॥ ढविउवायचित्तदंडे'ति, साम्प्रतं हेतोः पक्षधर्मखमाह-'एवमेव वाले अवीत्यादीत्यत आरभ्य यावत्पावे य से कम्मे कजईत्ति । तदेवं प्रतिज्ञाहेतुदृष्टान्तोपनयप्रतिपादकानि यथाविधि सूत्राणि विभागतः प्रदर्याधुना प्रतिज्ञाहेखोः पुनर्वचनं निगमनमित्ये
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [६४], नियुक्ति: [१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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[६४]
दीप अनुक्रम [७०१]]
तत्प्रतिपादयितुमाह-'जहा से वहए तस्स वा गाहावइस्स इत्यादि यावपिणचं पसढविउवायचित्तदंडे'त्ति, एतानि च प्रतिज्ञाहेतुदृष्टान्तोपनयनिगमनान्यर्थतः सूत्रः प्रदर्शितानि, प्रयोगस्वेवं द्रष्टव्या-तत्राप्रतिहतप्रत्याख्यातक्रिय आत्मा पापानु
बन्धीति प्रतिज्ञा, सदा पड्जीवनिकायेषु प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डखादिति हेतुः, खपरावसरापेक्षितया कदाचिदव्यापादयन्नपि । & राजादिवधकवदिति दृष्टान्तः, यथाऽसौ वधपरिणामादनिवृत्तवाध्यस्यामित्रभूतस्तथाऽऽत्माऽपि चिरतेरभावात्सर्वेष्वपि सच्चेषु नित्यं प्रशठन्यतिपातचित्रदण्ड इत्युपनयः, यत एवं तसात्पापानुवन्धीति निगमनम् । एवं मृपावादादिष्यपि पश्चावयवलं योज-18 नीयमिति, केवलं मृपावादादिशब्दोचारणं विधेयं, तच्चानेन विधिना नित्यं प्रशठमिथ्यावादचित्तदण्डखात् तथा नित्यं प्रशठाद
चादानचित्तदण्डलादित्यादि । तदेवं सर्वात्मना पट्खपि जीवनिकायेषु प्रत्येकममित्रभूततया पापानुवन्धिले प्रतिपादिते परो 187 व्यभिचारं दर्शयन्नाह
णो इणढे सम? [चोदकः ] इह खल्लु बहवे पाणा जे इमेणं सरीरसमुस्सएणं णो विट्ठा वा सुया वा नाभिमया वा चिन्नाया वा जेसिं णो पत्तेयं पत्तेयं चित्तसमायाए दिया वा राओ वा मुत्ते वा जागरमाणे वा अमिसभूते मिच्छासंठिते निचं पसदविउवायचित्तदंडे तं० पाणातिवाए जाव मिच्छादसणसल्ले (सूत्रं६५) आचार्य आह-तत्व खलु भगवया दुवे दिटुंता पण्णत्ता, तं०-सन्निदिटुंते य असन्निदिढते य, से किं तं सन्निदिढते , जे इमे सनिपंचिंदिया पज्जत्तगा एतेसि णं छजीवनिकाए पहुच तं०-पुढवीकार्य जाव तसकार्य, से एगइओ पुढवीकारणं किचं करेइवि कारवेइवि, तस्स णं एवं भवइ-एवं खलु अहं पुढवीकारणं
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [६६], नियुक्ति: [१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क
न्धे शीला
|४ प्रत्याख्याना० अविरतस पापबन्धः
कीयावृत्तिः
10
[६६]
दीप अनुक्रम [७०३]
किचं करेमिवि कारवेमिवि, णो चेव णं से एवं भवइ इमेण वा इमेण वा, से एतेणं पुढवीकारणं किचं फरे- । इवि कारवइवि सेणं तातो पुढवीकायाओ असंजयअविरयअप्पडिहयपचक्खायपाचकम्मे यावि भवइ, एवं जाव तसकाएत्ति भाणियचं, से एगइओ छजीवनिकाएहिं किच्चं करेइवि कारवेइपि, तस्स णं एवं भवइ-एवं खलु छजीवनिकाएहिं किचं करेमिवि कारवेमिवि, णो चेव णं से एवं भवइ-इमेहिं वा इमेहिं वा, से य तेहिं छहिं जीवनिकाएहिं जाव कारवेइवि, से य तेहिं छहिं जीवनिकाएहिं असंजयअविरयअप्पडिहयपचक्यायपावकम्मे तं० पाणातिवाए जाव मिच्छादसणसल्ले, एस खलु भगवया अक्खाए असंजए अविरए अप्पडिहयपचक्खायपावकम्मे सुविणमवि अपस्सओ पावे य से कम्मे कज्जइ, से तं सन्निदिटुंते ॥ से किं तं असन्निदिट्टते ?, जे इमे असन्निणो पाणा तं०-पुढवीकाइया जाव वणस्सइकाइया छट्ठा धेगड्या तसा पाणा, जेसिं णो तका इ वा सन्ना ति वा पन्ना ति वा मणा ति वा बई वा सयं वा करणाए अन्नेहि वा कारावेत्तए करतं वा समणुजाणित्तए, तेऽवि णं बाले सोसिं पाणाणं जाव सबेसि सत्ताणं दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूता मिच्छासंठिया निचं पसढविउबातचित्तदंडा तं०-पाणाइवाते जाव मिच्छादसणसल्ले, इच्चेव जाव णो चेव मणो णो चेव वई पाणाणं जाव सत्तार्ण दुक्खणयाए सोयणयाए जूरणयाए तिप्पणयाए पिट्टणयाए परितप्पणयाण ते नुक्रवणसोयणजावपरितप्पणवहवंधणपरिकिलेसाओ अप्पडिविरया भवंति ॥ इति खलु से असन्निणोऽवि सत्ता अहोनिसिं पाणातिवाए
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॥३६६।।
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [६६], नियुक्ति: [१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६६]
दीप अनुक्रम [७०३]
उबक्खाइजंति जाब अहोनिसिं परिग्गहे उवक्खाइजति जाव मिच्छादसणसल्ले उबक्खाइजंति, [ एवं भूतवादी] सबजोणियावि खलु सत्ता सन्निणो हुचा असन्निणो होति असन्निणो हुचा सन्निणो होति, होचा सन्नी अदुवा असन्नी, तस्थ से अविविचित्ता अविधूणित्ता असंमुच्छित्सा अणणुतावित्ता असन्निकायाओ वा सन्निकाए संकमंति सन्निकायाओ वा असन्निकार्य संकर्मति सन्निकायाओ वा सन्निकार्य संकमंति असन्निकायाओ वा असन्निकार्य संकमंति, जे एए सन्नि वा असन्नि वा सचे ते मिच्छायारा निच्च पसदविउवायचित्तदंडा, तं०-पाणातिवाए जाव मिच्छादसणसल्ले, एवं खलु भगवया अक्खाए असंजए अविरए अप्पटिहयप्पचक्यायपावकम्मे सकिरिए असंबुडे एगंतदंडे एगंतवाले एगतसुत्ते से वाले अवियारमणवयणकायवके सुविणमचि ण पासइ पावे य से कम्मे कलह ॥ (मत्रं ६६)॥ नायमर्थः समर्थ इति-प्रतिपतुं योग्यः, तद्यथा-सर्वे प्राणिनः सर्वेषामपि सच्चानां प्रत्येकममित्रभूता इति, तत्र परः स्वपक्षसिद्धये सर्वेषां प्रत्येकममित्राभावं दर्शयितुं कारणमाह-'इह' असिंश्चतुर्दशरज्वात्मके लोके बहयोऽनन्ताः प्राणिनः मूक्ष्मवादरपर्याप्तकापर्याप्तकादिभेदभिन्नाः सन्ति, ययेवं ततः किमित्याह-ते च देशकालखभावविप्रकृष्टास्तथाभूता बहवः संति ये प्राणिनः १ सूक्ष्मविप्रकृष्टाद्यवस्थाः 'अमुना शरीरसमुच्छ्रयेणे'त्यनेनेदमाह-प्रत्यक्षासन्नवाचितादिदमोऽनेनाग्दिर्शिज्ञानसमन्वितसमुच्छ|येण न कदाचिद्दष्टाश्चक्षुषा न श्रुताः श्रवणेन्द्रियेण विशेषतो नाभिमता-इष्टा न च विज्ञाताः प्रातिभेन खयमेवेत्वतः कथं तद्विषय| स्तस्यामित्रभावः स्यात् ।, अतस्तेषां कदाचिदप्यविज्ञानानां कथं प्रत्येकं वधं प्रति चित्तसमादानं भवति, न चासौ तान् प्रति नित्यं
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [६६], नियुक्ति: [१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत्याख्यानाध्य.
प्रत सूत्रांक [६६]
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दीप अनुक्रम [७०३]
सूत्रकृताङ्गे 8 प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डो भवतीति, शेष सुगमम् ॥ एवं व्यवस्थिते न सर्वविषयं प्रत्याख्यानं झुंज्यते ॥ इत्येवं प्रतिवादिते २ श्रुतस्क-II परेण सत्याचार्य आह-यद्यपि सर्वेष्वपि सत्त्वेषु देशकालखभावविप्रकृष्टेषु वधकचित्तं नोपयते तथाप्यसावविरतिप्रत्ययसाय- न्धे शीला- मुक्तवैर एव भवति, अस्स चार्थस्य मुखप्रतिपत्तये भगवता तीर्थकृता द्वौ दृष्टान्तौ 'प्रज्ञप्ती प्ररूपितो, तद्यथा-संशिष्टान्तोऽसकायााता ज्ञिदृष्टान्तथ । अथ कोऽयं संजिटष्टान्तो ?, ये केचन 'इमे प्रत्यक्षासन्नाः पाभिरपि पर्यातिभिः पर्याप्ताः ईहापोह विमर्शरूपा ॥३६७
संज्ञा विद्यन्ते येषां ते संजिना, पञ्चेन्द्रियाणि येषां ते पञ्चेन्द्रियाः, करणपर्याप्या पर्याप्तकाः, एषां च मध्ये कश्चिदेकः षड्जीवनिकायान् प्रतीत्यैवंभूतां 'प्रतिज्ञा' नियमं कुर्यात् , तद्यथा-अहं पट्सु जीवनिकायेषु मध्ये पृथिवीकायेनैवैकेन वालुकाशिलोपललवणादिखरूपेण 'कृत्यं कार्य कुर्या, स चैत्र कृतप्रतिज्ञस्तेन तस्मिन् तसा या करोति कारयति च, शेषकायेभ्योऽहं विनिवृत्तः,
तस्य च कृतनियमस्वंभूतो भवत्यध्यवसायः, तद्यथा-एवं खल्वहं पृथिचीकायेन कृत्यं करोमि कारयामि च, तस्य च सामान्यकृतप्रति8 ज्ञस्य विशेषाभिसंधिव भवति, तद्यथा-अमुना कृष्णेनामुना वा श्वेतेन पृथिवीकायेन कार्य करोमि कारयामि च, स तसात्पृ|थिवीकायादनिवृत्तोऽप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा भवति, तत्र खननस्थाननिषीदनखम्बर्तनोचारप्रश्रवणादिकरणक्रियासद्भावाद्, एव
मप्तेजोवायुवनस्पतिष्वपि वाच्यं, तत्रापूकायेन स्नानपानावगाहनभाण्डोपकरणधावनादिषु उपयोगः, तेजःकायेनापि पचनपाशचनवितापनप्रकाशनादिषु, वायुनापि व्यञ्जनतालवृन्तोडपादिच्यापारादिषु प्रयोजन, वनस्पतिनाऽपि कन्दमूलपुष्पफलपत्रसक्
शाखाद्युपयोगः, एवं विकलेन्द्रिय पञ्चेन्द्रियेवप्यायोज्यमिति । तथैकः कश्चित् पट्स्वपि जीवनिकायेषु अविरतः असंयतखाच तेरसौ 'कार्य' सावधानुष्ठानं स्वयं करोति कारयति च तत्परः, तस्य च कचिदपि निवृत्तेरभावादेवंभूतोऽध्यवसायो भवति, तद्य
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॥३६७॥
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [६६], नियुक्ति: [१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक
[६६]
दीप अनुक्रम [७०३]
ISHथा--एवं खल्वहं पइभिरपि जीवनिकायः सामान्येन कुत्यं करोमि, न पुनस्तद्विशेषप्रतिक्षेति, स च तेषु पदस्खपि जीवनिकाये8| वसंयतोऽविरतोऽप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकमों भवति, एवं मृषावादेऽपि वाच्यं, नद्यथा-इदं मया वक्तव्यमन्तमीहरभूतं तु न वक्त
व्यं, स च तसान्मृपावादादनिवृत्तवादसंयतो भवति, तथाऽदत्तादानमप्याथिल्य वक्तव्यं, तद्यथा-इदं मया दत्तादान ग्राह्यमिदं ।
तु न ग्राह्यमित्येवं मैथुनपरिग्रहेप्वपीति । तथा क्रोधमानमायालोभेष्वपि खयमभ्यूह्य वाच्यं । तदेवमसौ हिंसादीन्यकर्वनप्पविरतखा-81 18 तत्प्रत्ययिक कमोश्रवति, तथा चासावविरतिप्रत्ययिकं कम चिनोतीति, एवं देशकालखभावविप्रकृष्टेष्यपि जन्तुष्यमित्रभूतो
सौ भवति तत्प्रत्यधिकं च कर्माचिनोतीति, सोऽयं संजिदृष्टान्तो भिहितः । स च कदाचिदेकमेव पृथिवीकार्य व्यापादयति । शेषेषु निवृत्तः कदाचिहावे त्रिकादिकाः संयोगा भणनीया यावत्सवानपि पापादयतीति । स च सपा व्यापादकलेन व्यव-11
स्थाप्यते, सर्व विषयारम्भप्रवृत्तेः, सत्प्रवृत्तिरपि तदनिवृत्तेः, यथा कश्चिद् ग्रामघातादौ प्रवृत्तो यपि च न तेन विवक्षितकाले 10 केचन पुरुषा दृष्टास्तथाऽप्यसौ तत्प्रवृत्तिनिवृत्तेरभावात्तयोग्यतया तद्घातक इत्युच्यते, इत्येवं दाटोन्तिकेप्यायोज्यम् ।।
| संजिशान्तानन्तरमसंज्ञिदृष्टान्तः प्रागुपन्यस्तः सोऽधुना प्रतिपाद्यते-संज्ञानं संज्ञा सा विद्यते येषां ते संशिनस्तत्प्रतिषेधादसं| झिनो मनसो ,व्यताया अभावानीबातीबाध्यवसायविशेषरहिताः प्रसुप्तमत्तमूञ्छितादिवदिति, ये हमेऽसंज्ञिनः तद्यथा-पृथिवी-181 कायिका यावदनस्पतिकायिकाः, तथा पष्ठा अप्येक त्रसाः प्राणिनी विकलन्द्रिया यावत्समूच्छिनः पञ्चन्द्रियाः, ते सर्वेऽप्यसंज्ञिनी । येषां नो 'तकों' विचारो मीमांसा विशिष्टविमों विद्यते यथा कस्यचित्संज्ञिनो मन्दमन्दप्रकाशे स्थाणुपुरुषोचिते देशे किमयं ।।
१ कतव्याक्त्तव्यभेदानपेक्ष्य महत्वं । २ व्यापारयति प्र.1३न प्रवृत्तः । ४ उपयोगस्य भावमनोरुपतास्वीकारात, स चास्ति तेषां । ५ तीनाः संक्षिपर्याप्तकस्वोत्कटयोगिनः अती वस्तु सूक्ष्मसंपरायाणां । गुणदोपानोपणपुरस्सरः ।।
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [६६], नियुक्ति: [१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६६]
मत्रकता २श्रुतस्कन्धे शीला- कीयात्तिः ॥३६८॥
दीप अनुक्रम [७०३]
स्थाणुरुत पुरुष इत्येवमात्मक ऊहस्तकः संभवति, नेवं तेषामसंज्ञिनां तकाः संभवन्तीति, तथा संज्ञानं संज्ञा-पूपिलब्धेर्थे तदुत्त-॥8॥ ४ प्रत्यारकालपर्यालोचना, तथा प्रज्ञानं प्रज्ञा-खबुद्ध्योत्प्रेक्षणं स एवायमित्येवंभूतं प्रत्यभिज्ञानं च, तथा मननं मनो मतिरित्यर्थः, सा चाव- ख्यानाध्य ग्रहादिरूपा, तथा प्रस्पष्टवर्णा वाक् सा च न विद्यते तेषामिति, यद्यपि च द्वीन्द्रियादीनां जिडेन्द्रियगलविवरादिकमस्ति तथापि || न तेषां अस्पष्टवर्णलं, तथा न चपा पापं हिंसादिकं करोमि कारयामि वेत्येवंभूताध्यवसायपूर्विका बागिति, तथा स्वयं करोम्यन्यैर्वा कारयामीत्येवंभूतोऽध्यवसायो न विद्यते तेषां । तदेवं तेऽप्यसंज्ञिनो बालबद्वालाः सर्वेषां प्राणिनां धातनिवृत्तेरभावात्चयोग्यतया घातका व्यापादकाः, तथाहि-द्वीन्द्रियादयः परोपघाते प्रवर्तन्ते एव, तद्भक्षणादिना, अनृतभाषणमपि विद्यते तेषामविरतत्वात् , केवलं कर्मपरतत्राणां वागभावः, तथाऽदत्तादानमपि तेषामस्त्येष दध्यादिभक्षणात् तथेदमसदीयमिदं च पारक्यमि| त्येवंभूतविचाराभावायेति, तथा तीबनपुंसकवेदोदयान्मैथुनाविरतेश्च मैथुनसद्भावोऽपि, तथाऽशनादेः स्थापनात्परिग्रहसद्भावोऽ| पीत्येवं क्रोधमानमायालोमा यावन्मिथ्यादर्शनशल्यसद्भावश्च तेपामवगन्तव्यः, तत्सद्भावाच ते दिवा रात्री पा सुप्ता जाग्रदवस्था वा नित्यं प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डा भवंति, तदेव दर्शयितुमाह-'तंजहा इत्यादि, ते हासशिनः कचिदपि निवृतेरभावात्तत्प्रत्ययिककर्मबन्धोपेता भवंति, तद्यथा-प्राणातिपातयावन्मिध्यादर्शनशल्यवन्तो भवन्ति, तद्वत्तया च यद्यपि ते विशिष्टमनोवाग्थ्यापाररहितास्तथापि सर्वेषां प्राणिनां दुःखोत्पादनतया तथा शोचनतया-शोकोत्पादनसेन तथा 'जरणतया जूरणं-वयोहानिरूपं ॥३५८। तत्करणशीलतया तथा त्रिभ्यो-मनोवाकायेभ्यः पातनं त्रिपातनं तद्भावस्तया यदिवा 'तिप्पणयाए'ति परिदेवनतया तथा १मध्यमाभ्यवसायवत्वात् , चित्तमत्राप्यवसावस्य सादशस्य वाचकं भावमनीषाचकं या ।
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [६६], नियुक्ति: [१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६६]
Receरक
दीप अनुक्रम [७०३]
पिट्टणयाए'ति मुष्टिलोष्टादिप्रहारेण तथा 'तथाविधपरितापनतया' बहिरन्तश्च पीडया, ते चासंझिनोऽपि यद्यपि देशकालस्व
भावविप्रकृष्टानां न सर्वेषां दुःखमुत्पादयन्ति तथापि विरतेरभावात्तद्योग्यतया दुःखपरितापक्लेशादेरपतिविरता भवन्ति, तत्सद्भाSil वाच तत्प्रत्ययिकेन कर्मणा वध्यन्ते । तदेवं विप्रकृष्टविषयमपि कर्मबन्धं प्रदोपसंजिहीपुराह-इतिरुपनदर्शने खलुशब्दो
वाक्यालछारे विशेषणे वा, किं विशिनष्टि ? ये इमे पृथिवीकायादयोऽसंझिनः प्राणिनस्तेषां न तों न संज्ञा न प्रज्ञा न मनो॥
न वाक् न स्वयं कर्तु नान्येन कारयितुं न कुर्वन्तमनुमन्तुं वा प्रवृत्तिरस्ति, ते चाहनिशममित्रभूता मिथ्यासंस्थिता नित्यं प्रश1 ठव्यतिपातचित्तदण्डा दुःखोत्पादनयावत्परितापनपरिकेशादेरपतिविरता असंन्निनोऽपि सन्तोऽहर्निशं सर्वकालमेव प्राणातिपाते
कर्तव्ये तद्योग्यतया तदसंग्राप्तावपि ग्रामघातकवदुपाख्यायन्ते यावन्मिध्यादर्शनशल्य उपाख्यायन्त इति, उपाख्यानं चासंशिनोऽपि | योग्यतया पापकर्मानिवृत्तेरित्यभिप्रायः । तदेवं दर्शिते दृष्टान्तद्वये तत्प्रतिवद्धमेवार्थशेष प्रतिपादयितुं चोधं क्रियते, तयथाकिमेते सत्त्वाः संशिनोऽसंज्ञिनश्च भव्याभव्यखवानियतरूपा एवाहोवित्संज्ञिनो भूखाऽसंज्ञिख प्रतिपद्यन्ते असंशिनोऽपि संज्ञिखमित्येवं चोदिते सत्याहाचार्य:-'सबजोणियावि खलु इत्यादि, यदिवा सन्त्येवंभूता वेदान्तवादिनो य एवं प्रतिपादयन्ति-'पुरुषः पुरुषसमश्नुते पशुरपि पशुख मिति, तदत्रापि संन्निनः संजिन एव भविप्यन्त्यसंज्ञिनोऽप्यसंज्ञिन इति, तन्मतव्यवच्छेदार्थमाह-श 'सबजोणियावी'त्यादि, यदिवा किं संशिनोऽसन्निकर्मबन्धं प्राक्तने सत्येव कमणि कुर्वन्ति किंवा नेत्येवमसंज्ञिनोऽपि संज्ञिकर्मबन्धं प्राक्तने सत्येव कुर्वन्त्याहोखिन्नेत्येतदाशयाह'सबजोणियावी'त्यादि, सर्वा योनयो येषां ते सर्वयोनयः संवृतविवृतो। संझिसमुच्चयाय । २ अप्रति विरततःसद्भावात् । ३ सहित्यावाप्ता यह तस्मिन्-वेशदिके । यहा संशयावाप्तिनिमित्त
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [६६], नियुक्ति: [१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६६]
दीप अनुक्रम [७०३]
सूत्रकृताङ्ग भयशीतोष्णोभयसचित्ताचित्तोभयरूपयोनय इत्यर्थः, ते च नारकतिर्यश्नरामरा अपिशब्दाद्विशिष्टैकयोनयोऽपि, सल्विति विशे-18| ४ प्रत्या
पणे, एतद्विशिनष्टि-तजन्मापेक्षया सर्वयोनयोऽपि सवाः पर्याप्त्यपेक्षया यावन्मनःपर्याप्तिन निष्पयते तावदसंझिनः करणतः ख्यानाध्य. न्धे शीला- सन्तः पश्चात्संझिनो भवन्त्येकमिन्नेव जन्मनि, अन्यजन्मापेक्षया वेकेन्द्रियादयोऽपि सन्तः पश्चान्मनुष्यादयो भवन्तीति, तथासीयावृतिः
भूतकर्मपरिणामात् , न पुनर्भव्याभव्यखवत् व्यवस्थानियमो, भव्याभव्यते हि न कर्मायत्ते अतो नानयोमेभिचार:, ये पुनः कर्म॥३६९॥
वशगास्ते संज्ञिनो भूखाऽन्यत्रसंज्ञिनो भवन्त्यसंजिनश्च भूसा संझिन इति । वेदान्तवादिमतस्य तु प्रत्यक्षेणैव व्यभिचारः समु-18|| | पलभ्यते, तद्यथा-संश्यपि कश्चिन्मूर्छाद्यवस्थायामसंज्ञिख प्रतिपद्यते, तदपगमे तु पुनः संशिलमिति, जन्मान्तरे तु सुतरां व्यभिचार इति । तदेवं संत्यसंझिनोः कर्मपरतत्रखादन्योऽन्यानुगतिरविरुद्धा, यथा प्रतिबुद्धो निद्रोदयास्वपिति सुप्तश्च प्रतिबुध्यते || इत्येवं स्वापप्रतियोधयोरन्योन्यानुगमनमेवमिहापीति । तत्र प्राक्तनं कर्म यदुदीर्ण यच बद्धमास्ते तसिन् सत्येव तदविविच्य-अपृथक्कृत्य तथाऽविधूय-असमुच्छिद्याऽननुताप्यते चाबिविच्यादयश्चवारोऽप्येकाथिका अवस्था विशेष वाश्रित्य भेदेन व्याख्या-181 | तव्याः । तदेवमपरित्यक्तप्राक्तनकर्मणोऽसंज्ञिकायात् संज्ञिकार्य संक्रामन्ति तथा संक्षिकायादसंशिकायमिति संज्ञिकायासंझिकार्य || असंज्ञिकायादसंज्ञिकार्य यथा नारकाः सावशेषकमाण एव नरकादुद्धत्य प्रतनुवेदनेपु तिर्यक्षुत्पयन्ते, एवं देवा अपि प्रायशस्त-13 स्कमशेषतया शुभस्थानपूत्पद्यन्ते इत्यवगन्तव्यं, अत्र च चतुर्भगकसंभवं मत्रेणैव दर्शयति । साम्प्रतमध्ययनार्थमुपसंजिघृक्षुः प्राक्
R ॥३६९॥ || प्रतिपन्नमर्थ निगमयबाह-'जे एते से त्यादि, ये एते सर्वाभिरपि पर्याप्तिभिः पर्याप्ताः लब्ध्या करणेन च तद्विकलाश्चाप-18 पर्याप्तकाः अन्योऽन्यसंक्रमभाजः संझिनोऽसंशिनो वा सर्वेऽप्येते मिथ्याचारा अप्रत्याख्यानिखादित्यभिप्रायः, तथा सर्वजीवेष्वपि
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [६६], नियुक्ति: [१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
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दीप अनुक्रम [७०३]
नित्यं प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डा भवन्तीत्येवंभूताश्च प्राणातिपातायेषु सर्वेष्वप्याश्रवद्वारेषु वर्तन्त इति । तदेवं व्यवस्थिते यदुक्तं चोदकेन तद्यथा-इहाविद्यमानाशुभयोगसंभवे कथं पापं को बध्यत इत्येतनिराकृत्य विरतेरभावानयोग्यतया पापकर्मसद्भाव दर्शयति-'एवं खलु इत्यादि 'एवं' उक्तनीत्या खल्ववधारणेऽलकारे वा भगवता तीर्थकृतेत्यादिना यत्प्राक् प्रतिज्ञातं तदनुबदति यावत्पापं च कर्म क्रियत इति ॥ तदेवमप्रत्याख्यानिनः कर्मसंभवात्तत्संभवाश्च नारकतियङ्नरामरगतिलक्षणं संसारमवगम्य |संजातवैराग्यश्चोदक आचार्य प्रति प्रवणचेताः प्रश्नयितुमाह
चोदकः-से कि कुचं किं कारवं कहं संजयविरयप्पडिहयपचक्वायपावकम्मे भवद ?, आचार्य आहतत्थ खलु भगवया छज्जीवणिकाय हेऊ पपणत्ता, तंजहा-पुढवीकाइया जाव तसकाइया, से जहाणामए मम अस्सातं डंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलूण वा कवालेण वा आतोडिजमाणस्स वा जाव उवद्दविजमाणस्स वा जाव लोमुक्वणणमायमवि हिंसाकारं दुक्खं भयं पडिसंवेदेमि, इचेवं जाण सधे पाणा जाव सवे सत्ता दंडेण वा जाव कवालेण वा आतोडिजमाणे वा हम्ममाणे वा तजिजमाणे वा तालिजमाणे वा जाव उवद्दविजमाणे वा जाव लोमुक्खणणमायमवि हिंसाकारं दुकावं भयं पडिसंवेदेति, एवं णचा सवे पाणा जाच सवे सत्ता न हंतचा जाव ण उद्दवेयचा, एस धम्मे धुवे णिइए सासए समिञ्च लोग खेयन्नेहिं पवेदिए, एवं से भिक्खू विरते पाणाइवायातो जाब मिच्छादसणसल्लाओ, से भिक्खू णो दंतपक्खालणेणं दंते पक्खाले जा, णो अंजणं णो वमणं णो धूवणित्तं पिआइते, से भिक्खू अकिरिए अलूसए
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [६७], नियुक्ति: [१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक
न्धे शीला
[६]]
दीप अनुक्रम [७०४]
सूत्रकृताझे
अकोहे जाव अलोभे उवसंते परिनिम्बुडे, एस खलु भगवया अक्खाए संजयविरयपडिहयपचक्खायपाव- ४प्रत्या२ श्रुतस्क-100 कम्मे अकिरिए संबुडे एगंतपंडिए भवइ तिबेमि (सूत्रं ६७)।। इति वीयसुयक्वंधस्स पचक्खाणकिरिया णाम | ख्यानाध्य.
चउत्थमज्झयणं समत्तं ।। २-४॥ कीयावृत्तिः अथ किमनुष्ठानं खतः कुर्वन् किं वा परं कारयन् ‘कथं वा केन प्रकारेण संयतविरतप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा जन्तुर्भवति !,
संयतस्य हि विरतिसद्भावात्सावधक्रियानिवृत्तिस्तनिवृत्तेश्च कृतकर्मसंचयाभावस्तदभावानरकादिगत्यभाव इत्येवं पृष्टे सत्याचार्य ॥३७०11
आह-तत्थ खलु'इत्यादि, [ग्रन्थाग्रं ११०००] तत्र-संयमसद्भाचे षड् जीवनिकाया भगवता हेतुसेनोपन्यस्ताः, यथा प्रत्याख्यानर18 हितस्य पड् जीवनिकायाः संसारगतिनिबन्धनलेनोपन्यस्ताः एवं त एवं प्रत्याख्यानिनो मोक्षाय भवन्तीति, तथा चोक्तम्
"जे जत्तिया य हेऊ भवस्स ते चेव तचिया मोक्खे । गणणाईया लोगा दोण्हवि पुण्णा भवे तुला ॥ १॥"इत्यादि., इदमुक्तं | भवति-यथाऽऽत्मनो दण्डाघुपधाते दुःखमुत्पद्यते एवं सर्वेषामपि प्राणिनामित्यात्मोपमया तदुपधातान्त्रिवतते, एप 'धर्मः' सा-18| | पायत्राणलक्षणो 'भुवः' अप्रत्युतानुत्पन्नस्थिरस्वभावो 'नित्य' इति परिणामानित्यतायामपि सत्या स्वरूपाच्यवनात् तथा आदित्योतिरिव शश्वद्भवनाच्छाश्वत:-परैः कचिदप्यस्खलितो युक्तिसंगतखादित्यभिप्रायः, अयमेवंभूतश्च धर्मः 'समेत्य' अवगम्य
'लोक' चतुदर्शरख्वात्मकं 'खेदज्ञः सर्वहः प्रवेदितः, तदेवं स भिक्षुनिवृत्तः सर्वाश्रवद्वारेभ्यो दन्तप्रक्षालनादिकाः क्रिया: अकु-1181 ||2|| बेन् सावधक्रियाया अभावाद क्रियोऽक्रियताच प्राणिनामलूषकः-अव्यापादको यावदेकान्तेनैवासी पण्डितो भवति । इतिः परि।
Hel MIसमाप्त्यर्थे, प्रवीमीति पूर्ववत् , नयाः प्राग्वद्वयाख्येयाः ॥ समाप्तं प्रत्याख्यानाख्यं चतुर्थमध्ययनमिति ॥ ४ ॥
ये यावन्तो हेतबध भवस ते तावन्तधैव मोक्षस्य । गणनातिगा लोका इयोरपि पूर्णा भवेयुस्तुल्याः ॥ १ ॥
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| अत्र चतुर्थ अध्ययनं परिसमाप्तं
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [६७...], नियुक्ति: [१८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
अथ पञ्चरमाचारश्रुताध्ययनप्रारंभः।
प्रत सूत्रांक
[७]
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दीप
साम्प्रतं पञ्चममारभ्यते, अस्स चायमभिसंबन्धः, इहानन्तराध्ययने प्रत्याख्यानक्रियोका, सा चाचारव्यवस्थितस्य सतो भव-18 तीत्यतस्तदनन्तरमाचारभुताध्ययनमभिधीयते, यदिवानाचारपरिवर्जनेन सम्यक् प्रत्याख्यानमस्खलितं भवतीत्यतोऽनाचारभुता-18 ध्ययनमभिधीयते, यदिवा प्रत्याख्यानयुक्तः समाचारवान् भवतीत्यतः प्रत्याख्यानक्रियाऽनन्तरमाचारश्रुताध्ययनं तत्प्रतिपक्षभूस-18 मनाचारधुताध्ययनं वा प्रतिपाधत इत्यनेन संबन्धेनाऽज्यातस्यास्याध्ययनस्योपक्रमादीनि चखायनुयोगद्वाराणि भवन्ति । तत्रोपक-| मान्तर्गतोऽर्थाधिकारोऽयं, तद्यथा-अनाचारं प्रतिषिध्य साधूनामाचार: प्रतिपाद्यते, नामनिष्पने तु निक्षेपे आचारश्रुतमिति । | द्विपदं नाम, तदनयोनिक्षेपार्थ नियुक्तिकदाह। णामंठवणायारे दवे भावे य होति नायचो । एमेव य सुत्तस्सा निक्वेवो चउविहो होति ॥ १८१॥
आयारसुयं भणियं यजेयवा सया अणायारा । अबहुसुयस्स हु होज विराहणा इत्थ जायचं ॥ १८२॥ एयरस उ पडिसेहो इहमज्झयणंमि होति नायबो। तो अणगारसुयंति य होई नामं तु एयरस ॥ १८३ ॥ तत्राचारो नामस्थापनाद्रव्यभावभेदभिनश्चतुर्धा द्रष्टव्यः, एवं श्रुतमपीति । तत्राचारश्रुतयोरन्यत्राभिहितयोलोषवार्थमतिदेशे कुर्वनाह-आचारश्च श्रुतं च आचारश्रुतं द्वन्द्वकवद्भावस्तदुभयमपि भणितम्' उक्त, तत्राचारः क्षुल्लिकाचारकथायामभिहितः श्रुतं |
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अनुक्रम [७०४]
अथ पंचमं अध्ययनं “आचारश्रुत" आरभ्यते, पूर्व अध्ययनेन सह अस्य अभिसंबन्ध:, आचार एवं श्रुत शब्दस्य निक्षेपा:
अत्र अध्ययनस्य नाम्नी मुद्रणदोष: वर्तते (प्रतमें ऊपर शीर्षकमें "पंचरमा,,.." ऐसा लिखा है, यहाँ "पंचममा...." होना चाहिए
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [५], उद्देशक -, मूलं [गाथा-१], नियुक्ति: [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
3
प्रत सूत्रांक ||१||
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धुवाध्य.
दीप
सूत्रकृताझे तु विनयश्रुते, भावार्थस्तु 'वर्जयितव्याः परिहार्याः 'सदा' सर्वकालं यावजीवं साधुनाऽनाचाराः, तांश्च 'अबहुश्रुतः' अगीतार्थों ५आचार२ श्रुतस्कन सम्यग् जानातीत्यतसय विराधना भवेत, हुशब्दोऽवधारणे, अबहुश्रुतस्यैव विराधना न गीतार्थत्यतः 'अत्र' सदाचारे तत्पन्धे शीला-18 रिज्ञाने च यतितव्यं, यथा हि मार्गज्ञः पथिकः कुमार्गवर्जनेन नापथगामी भवति न चोन्मार्गदोपैयुज्यते एवमनाचारं वर्जयहापा नाचारवान् भवति न चानाचारदोषैर्युज्यत इत्यतस्तत्प्रतिषेधार्थमाह -'एतस्य' अनाचारस्य सर्वदोपास्पदस दुर्गतिगमनैकहेतोः ॥३७१॥ 'प्रतिषेधो निराकरणं सदाचारप्रतिपच्यर्थम् इह-अध्ययने ज्ञातव्यः, स च परमार्थतोऽनगारकारणमिति, ततः केपांचिन्मतेनैत-II
साध्ययनस्थानगारश्रुतमित्येतनाम भवतीति । गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, तदनन्तरं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारयितव्यं, तबेदम्___ आदाय बंभचेरं च, आसुपने इमं वई । अस्सि धम्मे अणायारं, नायरेज कयाइवि ॥१॥ (सूत्रं) .
अस्स चानन्तरपरम्परमूत्रः संबन्धो वाच्यः, तत्रानन्तरमूत्रेण सहायम्-एकान्तपण्डितो भवति, कथम् ?-'आदाय ब्रह्मचर्य-12 | मिति, परम्परसूत्रसंवधस्त्वयं-'बुध्येत तथा त्रोटयेद् बन्धन' किं कृतेत्याह-आदाय ब्रह्मचर्यमिति, एवमन्यैरपि मूत्रः संवन्धो वाच्यः, अर्थस्वयम्-'आदाय' गृहीखा, किं तद् !, ब्रह्मचर्य-सत्यतपोभूतदयेन्द्रियनिरोधलक्षणं तच्चर्यते-अनुष्ठीयते यस्मिन् तन्मीनीन्द्रं प्रवचनं ब्रह्मचर्यमित्युच्यते तदादाय 'आशुप्रज्ञः' पटुप्रज्ञः सदसद्विवेकज्ञः, क्खाप्रत्ययस्योत्तरक्रियासव्यपेक्षिखातामाह--
॥३७॥ |'इमां'समस्ताध्ययनेनामि धीयमानां प्रत्यक्षासनभूतां वाचम्-'इदं शाश्वतमेवे'त्यादिका कदाचिदपि 'नाचरेत्' नाभिदध्यात, तथाऽसिन्ध-सर्वज्ञप्रणीते व्यवस्थितः सन्ननाचार-सावद्यानुष्ठानरूपं 'न समाचरेत्' न विदयादिति संबन्धः, यदिवाऽऽशु
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अनुक्रम [७०५]
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| ["मूलं-६७"] ऊपर दिया गया ये सूत्रक्रम के बाद मूल सम्पादक ने गाथा के अलग क्रमांक दिए है, इसीलिए हमने मूलं के बाद गाथा-१ ऐसा लिखा है, अब आगे पृष्ठ ८१४ तक अर्थात् गाथा ५५ तक ऊपर मूल के साथ गाथा शब्द ही मिलेगा उसके आगेसे फिर मूलसूत्र क्रम-६८ से आरम्भ हो जाएगा |
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
||१||
दीप
अनुक्रम
[७०५]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-१], निर्युक्तिः [१८३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
प्रज्ञः - सर्वज्ञः प्रतिसमयं केवलज्ञानदर्शनोपयोगिता त्तत्संबन्धिनि धर्मे व्यवस्थितः 'इमां वक्ष्यमाणां वाचम् अनाचारं च कदाचिदपि | नाचरेदितिश्लोकार्थः ।। १ ।। तत्रानाचारं नाचरेदित्युक्तम्, अनाचारथ मौनीन्द्रप्रवचनादपरोऽभिधीयते मौनीन्द्रप्रवचनं तु | मोक्षमार्गहेतुतया सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकं सम्यग्दर्शनं तु तवार्थश्रद्धानरूपं तत्त्वं तु जीवाजीव पुण्यपापाश्रवबन्धसंवर निर्ज रामोक्षात्मकं, तथा धर्माधर्माकाशपुद्गलजीवकालात्मकं च द्रव्यं नित्यानित्यस्वभावं सामान्य विशेषात्मकोऽनाद्यपर्यवसानयतुर्दशरज्ज्वात्मको वा लोकस्तच्चमिति ज्ञानं तु मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलस्वरूपं पञ्चधा, चारित्रं सामायिकच्छेदोपस्थापनीय| परिहारविशुद्धीयमूक्ष्म संपराययथाख्यातरूपं पञ्चचैत्र मूलोत्तरगुणभेदतो वाऽनेकधेत्येवं व्यवस्थिते मौनीन्द्रप्रवचने 'न कदाचिदनीदृशं जग' दितिकुलानाद्यपर्यवसाने लोके सति दर्शनाचारप्रतिपक्षभूतमनाचारं दर्शयितुकाम आचार्यो यथावस्थितलोकस्वरूपोद्घट्टनपूर्वकमाह---
अणादीयं परित्राय, अणवदग्गेति वा गुणो । सासयमसासए वा इति दिहिं न धारए ॥ २ ॥ ( सूत्र ) एएहिं दोहिं ठाणेहिं वबहारो ण विजई। एएहिं दोहिं ठाणेहिं, अणायारं तु जाणए ॥ ३ ॥ सूत्रं ) नास्य चतुर्दशरज्ज्यात्मकस्य लोकस्य धर्माधर्मादिकस्य वा द्रव्यस्यादिः प्रथमोत्पत्तिर्विद्यत इत्यनादिकस्तमेवंभूतं 'परिज्ञाय' | प्रमाणतः परिच्छिय तथा 'अनवदग्रम्' अपर्यवसानं च परिज्ञायो भयनयात्मकव्युदासेनैक नयदृपाऽवधारणात्मकप्रत्ययमनाचारं दर्शयति- शश्वद्भवतीति शाश्वतं नित्यं सांख्याभिप्रायेणाप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावं स्वदर्शने चानुयायिनं सामान्यांशमव१ प्रमाणरूपत्वान्मन्द्रागमयोभवनयात्मकता २०त्मकं प्रत्ययः प्रत्ययं ज्ञानं प्रतीयस्य चाध्याहारः ३ मिध्यात्वकारणकं ४ का
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [५], उद्देशक -, मूलं [गाथा-३], नियुक्ति: [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||३||
दीप
सूत्रकृताङ्गेलम्ब्य धर्माधर्माकाशादिष्वनादिसमपर्यवसान चोपलभ्य सर्वमिदं शाश्वतमित्येवंभूतां दृष्टिं 'न धारये दिति एवं पक्षं न समा- ५आचार२ श्रुतस्क- श्रयेत् । तथा विशेषपक्षमाश्रित्य 'वर्तमाननारकाः समुच्छेत्स्यन्तीत्येतच मूत्रमङ्गीकृत्य यत्सत्तत्सर्वमनित्यमित्येवंभूतबौद्धदर्शनाभि-18 श्रुताध्य.
प्रायेण च सर्वमशाश्वतम्-अनित्यमित्येवंभूतां च दृष्टिं न धारयेदिति ॥२॥ किमित्येकान्तेन शाश्वतमशाश्वतं वा वस्वित्येवंकीयावृत्तिः
भूतां दृष्टिं न धारयेदित्याह-सर्व नित्यमेवानित्यमेव वैताभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्यामभ्युपगम्यमानाभ्यामनयोर्वा पक्षयोर्व्यवहरणं ॥३७२।। व्यवहारो-लोकस्यैहिकामुष्मिकयोः कार्ययोः प्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणो न विद्यते, तथाहि-अप्रच्युतानुत्पस्थिरैकस्वभावं सर्वं नित्य
मित्येवं न व्यवहियते, प्रत्यक्षेणैव नवपुराणादिभावेन प्रध्वंसाविन वा दर्शनात् , तथैव च लोकस्य प्रवृत्तेः, आमुष्मिकेऽपि नित्य-18 एखादात्मनो बन्धमोक्षायभावेन दीक्षायमनियमादिकमनर्थकमिति नै व्यवहियते । तथैकान्तानित्यवेऽपि लोको धनधान्यघटपटा-1
दिकमनागतभोगार्थ न संगृह्णीयात् , तथाऽमुष्मिकेपि क्षणिकखादात्मनः प्रवृत्तिन स्वात् , तथा च दीक्षाविहारादिकमनर्थक, तस्मानित्यानित्यारमके एव स्थाद्वादे सर्वव्यवहारप्रवृत्तिः, अत एव तयोनित्यानित्ययोः स्थानयोरेकान्तवेन समाश्रीयमाणयो रेहि-|| | कामुष्मिककार्यविध्यसरूपमनाचारं मौनीन्द्रागमबाह्यरूपं विजानीयात् , तुशब्दो विशेषणार्थः, कथचिनित्यानित्ये वस्तुनि सति | व्यवहारो युज्यत इत्येतद्विशिनष्टि, तथाहि-सामान्यमन्वयिनमंशमाश्रित्य स्थानित्यमिति भवति, तथा विशेषांश प्रतिक्षणमन्यथा |च अन्यथा च नवपुराणादिदर्शनतः स्यादनित्य इति भवति, तथोत्पादव्ययध्रौव्याणि चाईदर्शनाश्रितानि व्यवहाराज भवति ॥३७२।।
१पसरूपोऽभाषा, तेन तापणेख्यर्थः, ईयया साधुरितिवद् प्रकृल्या चार्वितिवहा तृतीया । २ अनकतगा निवृत्तिरूपफलतया । ३ सामान्यांशापेक्षया नपुं० । | ४ विशेषांशापेक्षया पुंस्त्वं । ५ भवन्ति ( विधेयतोत्पादादीनां ) ।
अनुक्रम [७०७]
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम [७०७]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-३], निर्युक्तिः [१८३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
|
| तथा चोक्तम् — “घटमौलि सुवर्णार्थी, नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं, जनो याति सहेतुकम् ।। १ ।। इत्यादि । तदेवं नित्यानित्यपक्षयोर्व्यवहारो न विद्यते, तथाऽनयोरेवानाचारं विजानीयादिति स्थितम् ॥ ३ ॥ तथाऽन्यमप्यनाचारं प्रतिपेद्धुकाम आहसमुच्छिहिंति सत्धारो, सबै पाणा अणेलिसा । मंठिगा वा भविस्संति, सासयंति व णो वए ॥ ४ ॥ एहिं दोहिं ठाणेहिं ववहारो ण विज्जइ । एएहिं दोहिं ठाणेहिं, अणायारं तु जाणए ॥ ५ ॥ ( सूत्र ) सम्यक् - निरवशेषतया 'उच्छेत्स्यन्ति' उच्छेदं यास्यन्ति-क्षयं प्राप्स्यन्ति सामस्त्येनोत् - प्राबल्येन सेत्स्यन्ति वा सिद्धिं यास्यन्ति, के ते? - शास्तारः - तीर्थकृतः सर्वज्ञास्तच्छासनप्रतिपन्ना वा 'सर्व' निरवशेषाः सिद्धिगमनयोग्या भय्याः, ततवोच्छिन्नभव्यं जग| त्स्यादिति, शुष्कतर्काभिमानग्रहगृहीता युक्तिं चाभिदधति - जीवसद्भावे सत्यप्यपूर्वोत्पादाभावादभव्यस्य च सिद्धिगमनासंभवा| त्कालस्य चानन्त्यादनारतं सिद्धिगमन संभवेन तव्ययोपपत्तेरपूर्वायाभावाद्भव्योच्छेद इत्येवं नो वदेत् तथा सर्वेऽपि 'प्राणिनो' | जन्तवः 'अनीदृशा' विसदृशाः सदा परस्परविलक्षणा एव, न कथञ्चित्तेषां सादृश्यमस्तीत्येवमध्ये कान्तेन नो वदेत् यदिवासर्वेषां भन्यानां सिद्धिसद्भावेऽवशिष्टाः संसारे 'अनीदृशा' अभव्या एव भवेयुरित्येवं च नो वदेत्, युक्ति चोत्तरत्र वक्ष्यति । तथा कर्मात्मको ग्रन्थो येषां विद्यते ते ग्रन्थिकाः सर्वेऽपि प्राणिनः कर्मग्रन्थोपेता एवं भविष्यन्तीत्येवमपि नो वदेत्, इदमुक्तं भवति--सर्वेऽपि प्राणिनः सेत्स्वन्त्येव कर्मावृता वा सर्वे भविष्यन्तीत्येवमेकमपि पक्षमेकान्तिकं नो वदेत् । यदिवा — 'ग्रन्थिका' इति ग्रन्थिकसच्चा भविष्यन्तीति, ग्रन्थिभेदं कर्तुमसमर्था भविष्यन्तीत्येवं च नो वदेत्, तथा 'शाश्वता' इति शास्तारः | 'सदा' सर्वकालं स्थायिनस्तीर्थकरा भविष्यन्ति 'न समुच्छेस्यन्ति' नोच्छेदं यास्यन्तीत्येवं नो वदेदिति ॥४॥ तदेवं दर्शनाचारवा
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [9], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-9], नियुक्ति: [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||५||
सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्तिः
॥३७३||
देनिषेधं वायात्रेण प्रदाधुना युक्ति दर्शयितुकाम आह–'एतयोः अनन्तरोक्तयोईयोः स्थानयोः, तद्यथा-शास्तारः क्षयं आचारयावन्तीति शाश्वता वा भविष्यन्तीति, यदिवा सर्वे शास्तारस्तद्दर्शनप्रतिपना वा सेत्स्यन्ति शाश्वता वा भविष्यन्ति, यदिवा सर्वे ॥ श्रुताध्य. प्राणिनी बनीटशा:-विसदृशाः सदृशा वा, तथा ग्रन्थिकसत्तास्तद्रहिता वा भविष्यन्तीत्येवमनयोः स्थानयोर्व्यवहरणं व्यवहारस्तद-18 स्तिले युक्तरभावान विद्यते, तथाहि-यत्तावदुक्तं 'सर्वे शास्तारः क्षयं यासन्ती'त्येतदयुक्तं, क्षयनिवन्धनस कर्मणोऽभावारिस-18 द्धानां क्षयाभावः, अथ भवस्थकेवल्यपेक्षयेदमभिधीयते, तदप्यनुपपन्न, यतोनाद्यनन्तानां केवलिनां सद्भावात्प्रवाहापेक्षया तदभावाभावः । यदप्युक्तम्-'अपूर्वस्वाभावे सिद्धिगमनसद्भावेन च व्ययसद्भावाव्यशून्यं जगत् स्थादित्येतदपि सिद्धान्तपरमार्थावेदिनो बचनं, यतो भव्यराशे राद्धान्ते भविष्यत्कालस्येवानन्त्यमुक्तं, तश्चैवमुपपद्यते यदि क्षयो न भवति, सति च तसिन् आनन्त्यं न स्यात्, नापि चावश्यं सर्वस्यापि भव्यस्य सिद्धिगमनेन भाय्यमित्यानन्त्यानव्यानां तत्सामग्र्यभावाद्योग्यदलिकप्रतिमावसदनुपपचिरिति । तथा नापि शाश्वता एव, भवस्थकेवलिनां शास्तॄणां सिद्धिगमनसद्भावात्प्रवाहापेक्षया च शाश्वतखमतः कथश्चिच्छाश्वताः कथंचिदशाश्वता इति । तथा सर्वेऽपि प्राणिनो विचित्रकर्मसद्भावान्नानागतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गादिसमन्वितखादनीदृशाः-विसदृशास्तथोपयोगासंख्येयप्रदेशखामूर्तखादिभिर्धः कथश्चित्सदृशा इति, तथोल्लसितसवीर्यतया केचिद्भिन्नग्रन्थयोऽपरे च तथाविधपरिणामाभावाद् ग्रन्थिकसचा एव भवन्तीत्येवं च व्यवस्थिते नैकान्तेनैकान्तपक्षो भवतीति प्रतिषिद्धः, तदेवमेतयोरेव द्वयोः स्थानयोरु-181 कनील्यानाचारं विजानीयादिति स्थितम् । अपिच आगमे अनन्तानन्तास्वप्युत्सर्पिण्यवसर्पिणीषु भन्यानामनन्तभाग एवं सिय-
दर्शभामाचारवादनिषेध प्र० । २ दर्शनाचारविषये वादस निवेध । ३ योग्यता व सामन्याधुपेततारूपा । ४ सफलभन्यानां मुल्यनुपपत्तेः ।
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दीप अनुक्रम [७०९]
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [५], उद्देशक -, मूलं [गाथा-५], नियुक्ति: [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||५||
दीप अनुक्रम [७०९]
नीत्ययमर्थः प्रतिपायते, यदा चैवंभूतं तदानन्त्य तत्कथं तेषां क्षयः, युक्तिरप्यत्र-संवन्धिशब्दावेतौ, मुक्तिः संसारं विना न भवति, संसारोऽपि न मुक्तिमन्तरेण, ततश्च भव्योच्छेदे संसारस्याप्यभावः सादतोऽभिधीयते नानयोर्व्यवहारो युज्यत इति॥५॥
अधुना चारित्राचारमङ्गीकृत्याहIS जे केइ खुरगा पाणा, अदुवा संति महालया । सरिसं तेहिं बेरंति, असरिसंती य णो वदे ॥६॥
एएहिं दोहिं ठाणेहिं, ववहारो ण विजई । एएहिं दोहिं ठाणेहि, अणायारं तु जाणए ॥७॥ (सूत्र)
ये केचन क्षुद्रकाः सच्चाः प्राणिन एकेन्द्रियगीन्द्रियादयोऽल्पकाया वा पञ्चेन्द्रिया अथवा 'महालया' महाकायाः 'सन्ति' विद्यन्ते तेषां च क्षुद्रकाणामल्पकायानां कुन्वादीनां महानालय:-शरीरं येषां ते महालया-हस्त्यादयस्तेषां च व्यापादने सदर्श 'वैर'मिति वजं कर्म विरोधलक्षणं वा वैरं तत् 'सदृशं' समानं तुल्यप्रदेशवात्सर्वजन्तूनामित्येवमेकान्तेन नो बदेत, तथा 'विसह|शम्' असरशं तद्वयापचौ वैरं कर्मबन्धो विरोधो वा इन्द्रियविज्ञानकायानां विसशसात् सत्यपि प्रदेशतुल्यते न सदर्श वैरमि| त्येवमपि नो वदेत् , यदि हि वध्यापेक्ष एव कर्मवन्धः स्यात्तदा तत्तदशात्कर्मणोऽपि सादृश्यमसारश्य वा वक्तुं युज्येत, न प तशादेव | | बन्धः अपि सध्यवसायवशादपि, ततथ तीबाध्यवसायिनोऽल्पकायसवव्यापादनेऽपि महरिम् , अकामस तु महाकायसवच्यापादनेऽपि खल्पमिति ॥ ६॥ एतदेव सूत्रेणैव दर्शयितुमाह-आभ्यामनन्तरोक्ताभ्यां खानाभ्यामनयोर्वा स्थानयोरल्पकायमहाकायव्यापादनापादितकर्मवन्धसदृशखासदृशखयोर्व्यवहरणं व्यवहारो नियुक्तिकखात्र युज्यते, तथाहि-न वध्यस्थ सदृशखमसदृशवं १ अत्र हि हसदीर्घत्ववदू घटतदभाववत्सत्यापेक्षता न टु कार्यकारणरूपेण, तथा च न मुक्तिमन्तरेण न संसार इत्यत्र विरोधः ।
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [५], उद्देशक -, मूलं [गाथा-७], नियुक्ति: [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||७||
दीप अनुक्रम [७११]
सूत्रकृताङ्गे
नागा चैकमेव कर्मबन्धख कारणम् , अपितु वधकस्य तीवभावो मन्दभावो ज्ञानभावोऽज्ञानभावो महावीर्यखमल्पवीर्यवं चेत्येतदपि । ५आचार२ श्रुतस्क- तदेवं वध्यवधकयोर्विशेषात्कर्मवन्धविशेष इत्येवं व्यवस्थिते वध्यमेवाश्रित्य सदृशखासदृशखध्यवहारो न विद्यत इति । तथाऽनयोरेवर श्रुताध्य. न्धे शीला-18 स्थानयोः प्रवृत्तस्थानाचारं विजानीयादिति, तथाहि-यजीवसाम्यात्कर्मबन्धसदृशसमुच्यते, तदयुक्त, यतो न हि जीवव्याप-IN कीयावृत्तिः18]च्या हिंसोच्यते, तस्स शाश्वतखेन व्यापादयितुमशक्यवाद् , अपि खिन्द्रियादिव्यापया, तथा चोक्तम्-"पश्चेन्द्रियाणि त्रिविधं चल ॥३७॥
॥हाच, उच्छासनिःश्वासमथान्यदायुः । प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्तास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ॥१॥" इत्यादि । अपिच भाव-18|
सम्पपेक्षस्यैव कर्मबन्धोऽभ्युपेतुं युक्तः, तथाहि-वैद्यखागमसधपेक्षस्य सम्यक् क्रियां कुर्वतो यद्यप्यातुरविपत्तिभवति तथापि न वैरानुपङ्गो भावदोपाभावाद्, अपरस्य तु सर्पबुद्धा रज्जुमपि मतो भावदोषाकर्मवन्धः, तंद्रहितस्य तु न बन्ध इति, उक्तं | चागमे 'उच्चालियंमि पाए इत्यादि, तण्डुलमत्स्याख्यानक तु सुप्रसिद्धमेव ।। तदेवं विधवध्यवधकभावापेक्षया स्यात् सदशलं || सादसशसमिति, अन्यथाऽनाचार इति ॥ ७॥ पुनरपि चारित्रमधिकृत्याहारविषयानाचाराचारौ प्रतिपादयितुकाम आह
अहाकम्माणि भुजंति, अण्णमण्णे सकम्मुणा । उवलितेति जाणिज्जा, अणुवलित्तेति वा पुणो ॥८॥ (सू०)। एएहिं दोहि ठाणेहि, ववहारो ण विजई । एएहिं दोहिं ठाणेहिं, अणायारं तु जाणए ॥ ९॥ (मू०)
साधु प्रधानकारणमाधाय-आश्रित्य कर्माण्याधाकर्माणि, तानि च वस्त्रभोजनवसत्यादीन्युच्यन्ते, एतान्याधाकमोणि ये भुज-IM॥३७४।। 1 १ असंख्यप्रदेशत्वादिना । २ भवेदोषा. प्र. शासप्रसिद्धत्वात्पूर्व व्यतिरे किणं प्रदय अन्नवी एष कर्मबन्ध इति । ४ भावदोषरहितस्य । ५ उचालिते पाये। हामादाय प्र०
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आगम
(०२)
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सूत्रांक
||९||
दीप
अनुक्रम [७१३]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [-], मूलं [गाथा - ९], निर्युक्तिः [१८३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
न्ते- एतैरुपभोगं ये कुर्वन्ति 'अन्योऽन्यं' परस्परं तान् खकीयेन कर्मणोपलिप्तान् विजानीयादित्येवं नो वदेत् तथाऽनुपलिप्तानिति वा नो वदेत्, एतदुक्तं भवति - आधाकर्मापि श्रुतोपदेशेन शुद्धमितिकृला भुञ्जानः कर्मणा नोपलिप्यते, तदाधाकर्मोपभोगेनावश्यतया कर्मबन्धो भवतीत्येवं नो वदेत् तथा श्रुतोपदेशमन्तरेणाहारगृज्याऽऽयाकर्म भुञ्जानस्य तन्निमित्तकर्मबन्धसद्भावात् | अतोऽनुलिप्तानपि नो वदेत्, यथावस्थितमौनीन्द्रागमज्ञस्य खेवं युज्यते वक्तुम् - आधाकर्मोपभोगेन स्वात्कर्मबन्धः स्यान्नेति, यत उक्तम् "किंचिच्छुद्धं कल्प्यमकल्प्यं वा स्यादकल्प्यमपि कल्प्यम् । पिण्डः शय्या वस्त्रं पात्रं वा भेषजाद्यं वा ॥ १॥" तथाऽन्यैरप्यभिहितम् - "उत्पद्येत हि सावस्था, देशकालामयान्प्रति । यस्यामकार्य कार्य स्यात्कर्म कार्यं च वर्जयेद् ||१||" इत्यादि ॥८॥ किमित्येवं स्याद्वादः प्रतिपाद्यत इत्याह- आभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्यामाश्रिताभ्यामनयोर्वा स्थानयोराधाकमोंपभोगेन कर्मबन्धभावाभावभूतयोर्व्यवहारो न विद्यते, तथाहि-- यद्यवश्यमाधाकर्मोपभोगेन कान्तेन कर्मबन्धोऽभ्युपगम्येत एवं चाहाराभावेनापि कचित्सुतरामनर्थोदयः स्यात्, तथाहि-- क्षुत्मपीडितो न सम्यगीर्यापथं शोधयेत् ततश्च व्रजन् प्राण्युपमर्दमपि कुर्यात् मूर्च्छादिसद्भाव| तया च देहपाते सत्यवश्यंभावी प्रसादिव्याघातोऽकालमरणे चाविरतिरङ्गीकृता भवत्यार्तध्यानापत्तौ च तिर्यग्गतिरिति, आगमश्च"संवत्थ संजमं संजमाओ अप्पाणमेव रक्खेज्जा" इत्यादिनाऽपि तदुपभोगे कर्मबन्धाभाव इति, तथाहि आधाकर्मण्यपि निष्पाद्यमाने षड्जीवनिकायवधस्तद्वधे च प्रतीतः कर्मबन्ध इत्यतोऽनयोः स्थानयोरेकान्तेनाश्रीयमाणयोर्व्यवहरणं व्यवहारो न युज्यते, तथा ऽऽभ्यामेव स्थानाभ्यां समाश्रिताभ्यां सर्वमनाचारं विजानीयादिति स्थितम् ॥९॥ पुनरप्यन्यथा दर्शनं प्रति वागनाचारं दर्शयितुमाह१ सर्वत्र संगमादात्मानमेव रक्षेत् ।
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [५], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-१०], नियुक्ति: [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
||१०||
सूत्रकृताङ्के
जमिदं ओरालमाहारं, कम्मगं च तहेव य (तमेव तं)। सवत्थ चीरियं अस्थि, णत्विसवत्थ वीरियं ॥१०॥(सू०) आचार२ श्रुतस्तएएहिं दोहिं ठाणेहिं, ववहारो ण विजई । एएहिं दोहिं ठाणेहिं, अणायारं तु जाणए ॥११॥ (सू०)
श्रुताध्य. न्धे शीला- यदिवा योऽयमनन्तरमाहारः प्रदर्शितः स सति शरीरे भवति शरीरं च पञ्चधा तस्य चौदारिकादेः शरीरस्य भेदाभेदं प्रतिकीयावृत्तिः
पादयितुकामः पूर्वपक्षद्वारेणाह-'जमिदमित्यादि, यदिदं सर्वजनप्रत्यक्षमुदारैः पुद्गलैनिवृत्तमौदारिकमेतदेवोरालं निस्सारखाद् ॥३७५॥
एतच तिर्यअनुष्याणां भवति, तथा चतुर्दशपूर्वविदा कचित्संशयादावाहियत इत्याहारम् , एतद्ग्रहणाच्च वैकियोपादानमपि
द्रष्टव्यं, तथा कर्मणा निर्वृत्तं कार्मणम् , एतत्सहचरितं तैजसमपि प्रायम् । औदारिकवैक्रियाहारकाणां प्रत्येकं तैजसकार्मणाम्यां | || सह युगपदुपलब्धः कस्यचिदेकलाशा सादतस्तदपनोदार्थं तदभिप्रायमाह-तदेव तद' यदेवौदारिकं शरीरं ते एव तैजसकार्मणे ।।
शरीरे, एवं बैंक्रियाहारकयोरपि वाच्य, तदेवभूतां संज्ञां नो निवेशयेदित्युचरश्लोके क्रिया, तथैवेषामात्यन्तिको भेद इत्येवंभूतामपि संज्ञां नो निवेशयेत् । युक्तिश्चात्र-ययेकान्तेनाभेद एव तत इदमौदारिकमुदारपुद्गलनिष्पन्न तथैतत्कर्मणा निर्वर्तित | कार्मणं सर्वेस्थतस्य संसारचक्रवालभ्रमणस्य कारणभूतं तेजोद्रव्यैर्निष्पनं तेज एव तैजसं आहारपक्तिनिमित्तं तैजसलब्धिनिमिर्च
चेत्येवं भेदेन संज्ञा निरुक्त कार्य च न स्यात् । अथात्यन्तिको भेद एव ततो घटवद्भिन्नयोर्देशकालयोरप्युपलब्धिः स्यात्, न8 | नियता युगपदुपलब्धिरिति, एवं च व्यवस्थिते कथञ्चिदेकोपलब्धेरभेदः कथश्चिच्च संज्ञाभेदाभेद इति स्थित । तदेवमौदारिकादीनां ॥३७॥ शरीराणां भेदाभेदौ प्रदाधुना सर्वस्यैव द्रव्यस्य भेदाभेदौ प्रदर्शयितुकामः पूर्वपक्षं श्लोकपश्चार्द्धन दर्शयितुमाह-'सव्यस्थ र
श्रीदारिककार्य स्य धर्माधर्मार्जनमुत्यनात्यादेः प्रसिद्धत्वाम निर्देशः।
दीप अनुक्रम [७१४]
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आगम
(०२)
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सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम [७१५]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [ - ], मूलं [गाथा - ११], निर्युक्तिः [१८३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
वीरिय' मित्यादि, 'सर्वं सर्वत्र विद्यत इतिकृला सांख्याभिप्रायेण सत्त्वरजस्तमोरूपस्य प्रधानस्यैकत्वात्तस्य च सर्वस्यैव कारणखात् | अतः सर्व सर्वात्मकमित्येवं व्यवस्थिते 'सर्वत्र' घटपटादौ अपरस्य - व्यक्तस्य 'वीर्य' शक्तिर्विद्यते, सर्वस्यैव हि व्यक्तस्य प्रधानकार्यलात्कार्यकारणयोकत्वाद्, अतः सर्वस्य सर्वत्र वीर्यमस्तीत्येवं संज्ञां नो निवेशयेत्, तथा 'सर्वे भावोः स्वभावेन, स्वस्वभावव्यवस्थिता' इति प्रतिनियतशक्तिवान सर्वत्र सर्वस्य 'वीर्य' शक्तिरित्येवमपि संज्ञां नो निवेशयेत् । युक्तिवात्र- यत्तावदुच्यते 'सांख्याभि| प्रायेण सर्व सर्वात्मकं देशकालाकारप्रतिबन्धात्तु न समानकालोपलब्धि' रिति, तदयुक्तं, यतो भेदेन सुखदुःखजीवितमरणदूरासन्नम्मूक्ष्मवादरसुरूपकुरूपादिकं संसारवैचित्र्यमध्यक्षेणानुभूयते, न च दृष्टेऽनुपपन्नं नाम, न च सर्व मिथ्येत्यभ्युपपत्तुं युज्यते, यतो दृष्टानिरष्टकल्पना च पापीयसी । किंच सर्वथैक्येऽभ्युपगम्यमाने संसारमोक्षाभावतया कृतनाशोऽकृताभ्यागमश्र बलादापतति, | यचैतत् सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः प्रधानमित्येतत्सर्वस्यास्य जगतः कारणं तन्निरन्तराः सुहृदः प्रत्येष्यन्ति, निर्युक्तिकलाई, | अपिच-सर्वथा सर्वस्य वस्तुन एकलेऽभ्युपगम्यमाने सत्वरजस्तमसामध्येकलं स्यात्, तद्भेदे च सर्वस्य तद्वदेव भेद इति । तथा यदप्युच्यते- 'सर्वस्य व्यक्तस्य प्रधानकार्यलात्सत्कार्यवादाच्च मयूराण्डकरणे चक्षुपिच्छादीनां सतामेवोत्पादाभ्युपगमाद् असदुत्पादे चात्रफलादीनामप्युत्पत्तिप्रसङ्गा' दित्येतद्वाच्ात्रं, तथाहि यदि सर्वथा कारणे कार्यमस्ति न तर्क्युत्पादो निष्पन्नघटस्येव, अपिच मृत्पिण्डावस्थायामेव घटगताः कर्मगुणव्यपदेशा भवेयुः, न च भवन्ति, ततो नास्ति कारणे कार्यम्, अथानभिव्यक्तमस्तीति चेन्न तर्हि सर्वात्मना विद्यते, नाप्येकान्तेनासत्कार्यवाद एव, तद्भावे हि व्योमारविन्दानामध्ये कान्तेनासतां मृत्पिण्डादेर्घटादेरिवोत्पत्तिः स्यात् न चैतद्दृ१] कार्यस्य २ शयः ३ सरूपेण ४ खखाधारपदार्थेषु ५ पपन्नं प्र०
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आगम
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सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम [७१५]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [ - ], मूलं [गाथा - ११], निर्युक्तिः [१८३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
सूत्रकृताङ्गे
२ श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्तिः
॥३७६ ॥
टमिष्टं वा, अपिच एवं सर्वस्य सर्वस्मादुत्पत्तेः कार्यकारणभावानियमः स्याद् एवं च न शाल्यङ्कुरार्थी शालीवीजमेवादद्याद् अपि तु यत्किञ्चिदेवेति, नियमेन च प्रेक्षापूर्वकारिणाम्मुपादानकारणादौ प्रवृत्तिः, अतो नासत्कार्यवाद इति । तदेवं सर्वपदार्थानां सच्चज्ञेयत्वप्रमेयखादिभिर्धमः कथञ्चिदेकत्वं तथा प्रतिनियतार्थकार्यतया यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थतः सदितिकृत्वा कथञ्चिद्भेद इति सामान्यविशेषात्मकं वस्थिति स्थितम् । अनेन च स्यादस्ति स्यानास्तीतिभङ्गकद्वयेन शेषभङ्गका अपि द्रष्टव्याः, तत सर्व वस्तु सप्तभङ्गीस्वभावं ते चामी - खद्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया स्यादस्ति, परद्रव्याद्यपेक्षया स्यान्नास्ति, अनयोरेव धर्मयोयाँगपद्ये| नाभिधातुमशक्यत्वात्स्यादवक्तव्यं, तथा कस्यचिदंशस्य स्वद्रव्याद्यपेक्षया विवक्षितत्वात्कस्यचिच्चांशस्य परद्रव्याद्यपेक्षया विवक्षितखात् स्यादस्ति च स्यान्नास्ति चेति, तथैकस्यांशस्य स्वद्रव्याद्यपेक्षया परस्य तु सामस्त्येन स्वपरद्रव्याद्यपेक्षया विवक्षितसात्स्यादस्ति चावक्तव्यं चेति, तथैकस्यांश्चस्य परद्रव्याद्यपेक्षया परस्य तु सामस्त्येन वद्रव्याद्यपेक्षया विवक्षितत्वात् स्यान्नास्ति चाचक्तव्यं | चेति, तथैकस्यांशस्य स्वद्रव्याद्यपेक्षया परस्य तु परद्रव्याद्यपेक्षयाऽन्यस्य तु यौगपद्येन स्वपरद्रव्याद्यपेक्षया विवक्षितनात्स्यादस्ति च नास्ति चाबक्तव्यं चेति, इयं च सप्तभङ्गी यथायोगमुत्तरत्रापि योजनीयेति ॥ १० ॥ ११ ॥ तदेवं सामान्येन सर्वस्यैव वस्तुनो भेदाभेदी प्रतिपाद्याधुना सर्वशून्यवादिमतनिरासेन लोकालोकयोः प्रविभागेनास्तित्वं प्रतिपादयितुकाम आह--यदिवा 'सर्वत्र वीर्यमस्ति नास्ति सर्वत्र वीर्य' मित्यनेन सामान्येन वस्वस्तिखमुक्तं, तथाहि — सर्वत्र वस्तुनो 'वीर्य' शक्तिरर्थक्रियासामर्थ्यमन्तशः | स्वविषयज्ञानोत्पादनं तचैकान्तेनात्यन्ताभावाच्छशविषाणादेरप्यस्तीत्येवं संज्ञां न निवेशयेत् सर्वत्र वीर्य नास्तीति नो एवं संज्ञां
१ मनसः प्र० । २ भावाभावा प्र०३ सर्वत्र वीर्यमित्येवंरूपा ।
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५ आचारश्रुवाध्य.
॥ ३७६ ॥
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दीप
अनुक्रम [७१६]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [ - ], मूलं [गाथा - १२], निर्युक्तिः [१८३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
निवेशयेदिति, अनेनाविशिष्टं वस्त्वस्तित्वं प्रसाधितम् इदानीं तस्यैव वस्तुन ईषद्विशेषितलेन लोकालोकरूपतयाऽस्तित्वं प्रसाधयन्नाहणत्थि लोए अलोए वा, शेवं सन्नं निवेसए। अस्थि लोए अलोए वा, एवं सन्नं निवेस ॥ १२ ॥ णत्थि जीवा अजीवा वा, जैवं सन्नं निवेसए। अस्थि जीवा अजीवा वा, एवं सन्नं निवेस || १३ || (सू० 'लोकः' चतुर्दशरज्ज्यात्मको धर्माधर्माकाशादिपञ्चास्तिकायात्मको वा स नास्तीत्येवं संज्ञां नो निवेशयेत् । तथाऽऽकाशास्तिकायमात्रकस्स्वलोकः स च न विद्यते एवेत्येवं संज्ञां नो निवेशयेत् । तदभावप्रतिपत्तिनिबन्धनं खिदं तद्यथा-प्रतिभासमानं वस्त्ववयचद्वारेण वा प्रतिभासेतावयविद्वारेण वा ? तत्र न तावदवयवद्वारेण प्रतिभासनमुत्पद्यते, निरंशपरमाणूनां प्रतिभासनासंभवात्, सर्वारातीयभागस्य च परमाण्वात्मकत्वात्तेषां च उपस्थविज्ञानेन द्रष्टुमशक्यखात्, तथा चोक्तम् - "यावदृश्यं परस्तावद्भागः स च न दृश्यते । निरंशस्य च भागस्य, नास्ति छद्मस्थदर्शनम् ॥ १ ॥ इत्यादि, नाप्यवयचिद्वारेण, विकल्प्यमानस्यावयविन एवाभावात् तथाहि असौ खावयवेषु प्रत्येकं सामस्त्येन वा वर्चेत १ अंशांशिभावेन वा १, न सामस्त्येनावयवि बहुवप्रसङ्गात्, नाप्यंशेन पूर्वविकल्पानतिक्रमेणानवस्थाप्रसङ्गात् तस्माद्विचार्यमाणं न कथञ्चिद्रस्वात्मभावं लभते ततः सर्वमेवैतन्मायास्वमे|न्द्रजालमरुमरीचिका विज्ञानसदृशं तथा चोक्तम्- "यथा यथाऽर्थाश्विन्त्यन्ते, विविच्यन्ते तथा तथा । यद्येते (तत्) स्वयमर्थेभ्यो, रोचन्ते (ते) तत्र के वयम् १ ॥ १ ॥" इत्यादि । तदेवं वस्त्वभावे तद्विशेषलोकालोकाभावः सिद्ध एवेत्येवं नो संज्ञां निवेशयेत् । किंवस्ति लोक ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्रूपो वैशाखस्थानस्थित कटिन्यस्तकरयुग्म पुरुषसदृशः पश्चास्तिकायात्मको वा तद्व्यतिरिक्तञ्चालोकोऽप्यस्ति संबन्धिशब्दवात्, लोकव्यवस्थाऽन्यथाऽनुपपत्तेरिति भावः युक्तिवात्र- यदि सर्व नास्ति तत सर्वान्तःपातिना
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अनुक्रम [७१७]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [ - ], मूलं [गाथा - १३], निर्युक्तिः [१८३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
सूत्रकृताङ्गे
२ श्रुतस्क न्धे शीलाङ्कीयावृतिः
॥३७७॥
स्प्रतिषेधकोऽपि नास्तीत्यतस्तदभावात्प्रतिषेधाभावः, अपि च-सति परमार्थभूते वस्तुनि मायास्वतेन्द्रजालादिव्यवस्था, अन्यथा किमाश्रित्य को वा मायादिकं व्यवस्थापयेदिति । अपिच "सर्वाभावो यथाऽभीष्टो, युक्त्यभावे न सिद्ध्यति । साऽस्ति चेत्सेव नस्तलं, तत्सिद्धौ सर्वमस्तु सद् ॥ १ ॥" इत्यादि । यदप्यवयवावयविविभागकल्पनया दूषणमभिधीयते तदप्यार्हतमतानभिज्ञेन तन्मतं त्वेवंभूतं, तद्यथा-नैकान्तेनावयवा एव नाप्यवयव्येव चेत्यतः स्वाद्वादाश्रयणात्पूर्वोक्त विकल्पदोपानुपपत्तिरित्यतः कथञ्चिद्धोकोऽस्त्येवम लोकोऽपीति स्थितम् ॥ १२ ॥ तदेवं लोकालोकास्तित्वं प्रतिपाद्याधुना तद्विशेषभूत योजवाजीवयोरस्तित्वप्रतिपादनायाह'णत्थि जीवा अजीवे'त्यादि, जीवा उपयोगलक्षणाः संसारिणो मुक्ता वा ते न विद्यन्ते, तथा अजीवाथ धर्माधर्माकाशपुद्गल कालात्मका गतिस्थित्यवगाहदानच्छायातपोद्योतादिवर्त्तनालक्षणा न विद्यन्त इत्येवं संज्ञां परिज्ञानं नो निवेशयेत्, नास्तिलनिबन्धनं सिदं प्रत्यक्षेणानुपलभ्यमानत्राजीवा न विद्यन्ते, कायाकारपरिणतानि भूतान्येव धावनवल्गनादिकां क्रियां कुर्वन्तीति तथाऽऽत्माद्वैतवादमताभिप्रायेण 'पुरुष एवेदं झिं सर्व' यद्भूतं यथ भाव्य' मित्यागमात् तथां अजीवा न विद्यन्ते सर्वस्यैव चेतनाचेतनरूपस्यात्ममात्र विवर्त्तत्वात् नो एवं संज्ञां निवेशयेत्, किंत्वस्ति जीवः सर्वस्यास्य सुखदुःखादेर्निबन्धनंभूतः खसंवित्तिसिद्धोऽहंप्रत्ययग्राह्यः, तथा तद्वयतिरिक्ता धर्माधर्माकाशपुद्गलादयश्च विद्यन्ते, सकलप्रमाण ज्येष्ठेन प्रत्यक्षेणानुभूयमानत्वात्तद्गुणानां भूतचैतन्यवादी च वाच्यः किं तानि भवदभिप्रेतानि भूतानि नित्यान्युतानित्यानि १, यदि नित्यानि ततोऽप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावत्वान्न कायाकारपरिणतिः, नापि प्रागविद्यमानस्य चैतन्यस्य सद्भावो, नित्यत्वहानेः । अथानित्यानि किं तेष्वविद्यमानमेव चैतन्यमुत्पद्यते
१ सर्व वस्तु प्र० । २ पक्षाभ्युचये ३ विवर्ति० प्र० ४ नरूपः प्र० ।
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५ आचारश्रुताध्य.
॥३७७॥
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [५], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-१३], नियुक्ति: [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||१३||
दीप अनुक्रम [७१७]
आहोस्विद्विधमान ?, न तावदविद्यमानमतिप्रसङ्गाद, अभ्युपेतागमलोपाद्वा, अथ विद्यमानमेव सिद्धं तर्हि जीवनम् । तथाऽऽत्माद्वैतवाद्यपि वाग्यः-यदि पुरुषमात्रमेवेदं सर्व कथं घटपटादिषु चैतन्य नोपलभ्यते , तथा तदैक्येज्मेदनियन्धनानां पक्षहेतुरष्टान्तानामभावात्साध्यसाधनाभावः, तस्माकान्तेन जीवाजीवयोरभावः, अपितु सर्वपदार्थानां स्थाद्वादाश्रयणाजीवः स्थाजीवः स्वादजीवः अजीवोऽपि च साद जीवः खाजीव इति, एतच स्वाद्वादाश्रयणं जीवपुद्गलयोरन्योन्यानुगतयोः शरीरप्रत्यक्षतयाऽध्यक्षेणैवोपलम्भाद्रष्टव्यमिति ॥ १३ ॥ जीवास्तिले च सिद्धे तेभिबन्धनयोः सदसत्क्रियाद्वारायातयोधर्माधर्मयोरस्तिखप्रतिपादनायाह
णस्थि धम्मे अधम्मे वा, णेवं सन्नं निवेसए । अत्धि धम्मे अधम्मे वा, एवं सत्रं निवेसए ॥ १४ ॥ णस्थि बंधे व मोक्खे वा, णेवं सन्नं निवेसए । अस्थि बंधे व मोक्खे वा, एवं सत्र निवेसए ॥१५॥ (सू०)। 'धर्मः' श्रुतचारित्रात्मको जीवस्यात्मपरिणामः कर्मक्षयकारणम् , एवमधर्मोऽपि मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकपाययोगरूपः कर्मबन्ध-18 कारणमात्मपरिणाम एच, तावेवंभूती धर्माधौं कालखभावनियतीश्वरादिमतेन न विद्यते इत्येवं संज्ञा नो निवेशयेत्-कालादय 81 एवास्य सर्वस जगद्वैचित्र्यस्य धर्माधर्मव्यतिरेकेणैकान्ततः कारणमित्येवमभिप्रायं न कुर्यात्, यतः त एवैकका न कार-18|| णमपि तु समुदिता एवेति, तथा चोक्तम्-"नं हि कालादीहिंतो केवलएहितो जायए किंचि । इह मुग्गरंधणाइविता सो समुदिया हेऊ ॥१॥"इत्यादि । यतो धर्माधर्मान्तरेण संसारवैचित्र्यं न घटामियर्त्यतोऽस्ति धर्मः सम्यग्दर्शनादिकोऽधर्मश्च
सबभेदसिदिनियन्धनानां । भेदनिबन्धनानामिति चेद् भेदजाना मित्यर्थः । २ नैव कालादिभ्यः केवलेभ्यो जायते किश्चिदपि । इह मुद्रधनायपि ततः सर्वे समुदिता हेतुः ॥ १॥३ नारकलादिविशिष्टजीवनिबन्धनयोः बहुमीहियों।
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [५], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-१५], नियुक्ति: [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
मुत्रकता २ श्रुतस्क- न्धे शीला
||१५||
कीयावृत्तिः
॥३७८॥
दीप अनुक्रम [७१९]
मिथ्यात्वादिक इत्येवं संज्ञा निवेशयेदिति ॥१४॥ सतोच धर्माधर्मयोधमोक्षसद्भाव इत्येतदर्शयितुमाह-वन्धः-प्रकृतिस्थित्यनु- ५आचारभावप्रदेशात्मकतया कर्मपुद्गलानां जीवेन खव्यापारतः खीकरणं, स चामूर्तस्यात्मनो गगनखेव न विद्यत इत्येवं नो संज्ञा निवे- श्रुवाध्य. शयेत् , तथा तदभावाच मोक्षस्थाप्यभाव इत्येवमपि संज्ञां नो निवेशयेत् । कथं तर्हि संज्ञां निवेशयेदित्युत्तरार्द्धन दर्शयति-अस्ति | बन्धः कर्मपुद्गलैजीवसेत्येवं संज्ञा निवेशयेदिति, यत्तूच्यते-अमृतस्य मूर्तिमता संवन्धो न युज्यत इति, तदयुक्तम् , आकाशस्य सर्वव्यापितया पुद्गलैरपि संबन्धो दुर्निवार्यः, तदभावे तव्यापित्वमेव न स्वाद्, अन्यच अस्य विज्ञानस्य हत्पूरमदिरादिना विकारः समुपलभ्यते न चासौ संपन्धमृते अतो यत्किञ्चिदेतत् । अपिच-संसारिणामसुमता सदा तैजसकार्मणशरीरसद्धावादात्यन्तिक-| ममूर्तत्वं न भवतीति । तथा तत्प्रतिपक्षभूतो मोक्षोऽप्यस्ति, तदभावे बन्धस्याप्यभावः सादित्यतोऽशेषबन्धनापगमखभावो मोक्षोऽस्तीत्येवं च संज्ञां निवेशयेदिति ॥ १५ ॥ बन्धसद्भावे चावश्यं भावी पुण्यपापसद्भाव इत्यतस्तद्भाव निषेधद्वारेणाहणस्थि पुण्णे व पावे वा, णेवं सन्नं निवेसए । अस्थि पुण्णे व पावे वा, एवं सन्नं निवेसए ॥१६॥ णस्थि आसवे संवरे वा, वं सनं निवेसए । अस्थि आसवे संवरे वा, एवं सन्नं निवेसए ॥ १७॥ (सू०) || 'नास्ति' न विद्यते 'पुण्यं शुभकर्मप्रकृतिलक्षणं तथा 'पापं तद्विपर्ययलक्षणं 'नास्ति' न विद्यते इत्येवं संज्ञा नो निवेशयेत् ।। तदभावप्रतिपचिनियन्धनं लिद-तत्र केपाश्चिनास्ति पुण्यं, पापमेव झुत्कर्षावस्थं सत्सुखदुःखनिबन्धनं, तथा परेषां पापं नास्ति, पुण्यमेव || | अपचीयमानं पापकार्य कुयोंदिति, अन्येषां तूभगमपि नास्ति, संसारवैचित्र्यं तु नियतिखभावादिकतं, तदेतदयुक्तं, यतः पुण्यपाप
१ मूर्तस्यामूर्तिमता प्र.। २ तद्भावे प्र• कर्मपुद्गलानामनिजेरणेन मोक्षाभावारसर्वेषां कालेनादानादपरेषां वाभावाद्वन्धाभावः)। ३ संबन्भिशब्दत्वात् ।
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [५], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-१७], नियुक्ति: [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||१७||
दीप अनुक्रम [७२१]
शब्दौ संबन्धिशब्दी संबंधिशब्दानामेकांशख सत्ताऽपरसचानान्तरीयका अतो नैकतरस सचेति, नाप्युमयाभावः शक्यते वक्तुं, निर्निबन्धनस्य जगद्वैचित्र्यस्याभावात्, न हि कारणमन्तरेण क्वचित्कार्यस्योत्पचिदृष्टा, नियतिखभावादियादस्तु नष्टोत्तराणां पादनसारिकाप्रायः, अपि च-तद्वादेऽभ्युपगम्यमाने सकलक्रियावयर्थ्य तत एव सकलकार्योत्पत्तेरित्यतोऽस्ति पुण्यं पापं चेत्येवं संज्ञां निवे|शयेत् । पुण्यपापे चर्वरूपे, सबधा-"पुद्गलकर्म शुभं यत्तत्पुण्यमिति जिनशासने दृष्टम् । यदशुभमथ तल्पापमिति भवति सर्वज्ञनिर्दि-18 | एम् ॥११॥” इति ॥१६॥ न कारणमन्तरेण कार्यस्खोत्पत्तिरतः पुण्यपापयोः प्रागुक्तयोः कारणभूतावाश्रवसंवरी तत्प्रतिपेधनिषेधद्वारेण 18 दर्शयितुकाम आह-आश्रवति-प्रविशति कर्म येन स प्राणातिपातादिरूप आश्रवः-कर्मोपादानकारणं, तथा तनिरोधः संवरः, एतौ । द्वायपि न स्त इत्येवं संज्ञां नो निवेशयेत् , तदभावप्रतिपच्याशङ्काकारणं विद-कायवाचनःकमें योगः, स आश्रव इति, यथेदमुक्त । तथेदमप्युक्तमेव-'उच्चालियंमि पाए' इत्यादि, ततश्च कायादिव्यापारण कर्मबन्धो न भवतीति, युक्तिरपि-किमयमाश्रव आत्मनो। भिन्न उताभिन्नः ।, यदि भिन्नो नासावाश्रयो घटादिवद, अभेदेऽपि नाश्रवलं, सिद्धात्मनामपि आश्रवप्रसङ्गात् , तदभावे च | तन्निरोधलक्षणस्य संवरस्याप्यभावः सिद्ध एवेत्येवमात्मकमध्यवसायं न कुर्यात् । यतो यत्तदनैकान्तिकसं कायव्यापारस्य 'उचालयंमि |पाए'इत्यादिनोक्तं तदसाकमपि संमतमेव, यतो नबसाभिरप्युपयुक्तस कर्मबन्धोऽभ्युपगम्यते, निरुपयुक्तस वस्त्येव कर्मबन्धः, तथा भेदाभेदोभयपक्षसमाश्रयणाचदेकपक्षाश्रितदोपाभाव इत्यस्त्याश्रवसनावा, तनिरोधन संवर इति, उक्तं च-'योगः
१वचालिते पादे रियासमियसा संकमलाए । पावनिन कुलिंगी मरिज तं जोगमाराज ॥१॥नम तस्स राणिमित्तो यो बहुमोऽपि देसिओ समए । अगवन्नो उ पओगेण सा उ पगादोति निद्दिडा ॥२॥
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [५], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-१७], नियुक्ति: [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||१७||
न्धे शीला
दीप अनुक्रम [७२१]
सूत्रकृताङ्गे
शुद्धः पुण्याश्रवस्तु पापस्य तद्विपर्यासः । वाकायमनोगुप्तिर्निरायवः संवरस्तूक्तः॥१॥" इत्यतोऽस्त्याश्रवस्तथा संवरश्चेत्येवं आचार२ श्रुतस्क-18 संज्ञां निवेशयेदिति ॥ १७ ॥ आश्रवसंवरसद्भावे चावश्यंभावी वेदनानिजेरासद्भाव इत्यतस्तं (तत्) प्रतिपेधनिषेधद्वारेणाह
श्रुताध्य. णत्थि वेपणा णिजरा वा, जेवं सन्नं निवेसए । अस्थि वेयणा णिज्जरा वा, एवं सन्न निवेसए ॥१८॥ कीयावृत्तिः णस्थि किरिया अकिरिया वा, णेवं सन्नं निवेसए । अत्थि किरिया अकिरिया वा, एवं सन्नं निवेसए ॥१९॥ सूत्रं ||
वेदना-कर्मानुभवलक्षणा तथा निर्जरा-कर्मपुद्गलशाटनलक्षणा एते द्वे अपि न विद्यते इत्येवं नो संज्ञां निवशयत् ।। ॥३७॥
तदभावं प्रत्याशशकारणमिद, तद्यथा-पल्योपमसागरोपमशैतानुभवनीयं कर्मान्तहर्तेनैव क्षयमुपयातीत्यभ्युपगमात , तदुक्तम्-8| "जं अण्णाणी कर्म खवेइ बहुयाहि वासकोडीहिं । तं गाणी तिहि गुचो खबेइ ऊसासमिनेणं ।। १॥" इत्यादि, तथा क्षपक-21 श्रेण्यां च झटित्येव कर्मणो भसीकरणाद्यथाक्रमबद्धस्स चानुभवनाभावे वेदनाया अभावः तदभावाच निर्जराया अपीत्येवं नो | संज्ञां निवेशयेत् । किमिति !, यतः कस्यचिदेव कर्मण एवमनन्तरोक्तया नीत्या क्षपणात्तपसा प्रदेशानुभवेन च अपरख तूदयोदीरणाभ्यामनुभवनमित्यतोऽस्ति वेदना, यत आगमोऽप्येवंभूत एव, तद्यथा-'पुर्वि दुभिणाणं दुप्पडिकंताणं कम्भाणं वेइत्ता मोक्खो, णत्थि अवेदत्ता इत्यादि, वेदनासिद्धौ च निर्जराऽपि सिवेत्यतोऽस्ति वेदना निर्जरा चेत्येवं संज्ञां निवेशयेदिति ॥१८॥18
१आश्रय बन्धात् ततो देवना संवरात्तपततो निर्जराया अस्तित्वं । २ निषेधद्वारेण प्र० । ३ जाती बहुत्वं, तथा च कोटाकोव्याऽनुभवीप्यविरुदः, तत्र क्षपणेऽपि ॥३७९॥ न वेदनाऽस्तीति हेतुदर्शमाय । ४ यदहानी कर्म क्षपयति बहुकाभिर्वर्षकोटीभिः । समानी निमिर्गतः क्षायत्युच्वासमात्रेण ॥१॥ ५ पूर्व दुधीर्णानां दुष्पति| कान्तानां कर्मणां वेदयित्वा मोक्षो नास्ववेदविखा।
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [५], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-१९], नियुक्ति: [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
||१९||
दीप अनुक्रम [७२३]
वेदनानिजेरे च क्रियाक्रियायचे, ततस्तत्सद्भाव प्रतिषेधनिषेधपूर्वकं दर्शयितुमाह-क्रिया-परिस्पन्दलक्षणा तद्विपर्यस्ता क्रिया, ते IS द्वे अपि 'न तो न विद्यते, तथाहि-सांख्यानां सर्वव्यापिवादात्मन आकाशस्खेव परिस्पन्दात्मिका क्रिया न विद्यते, शाक्यानां तु
क्षणिकलात्सर्वपदार्थानां प्रतिसमयमन्यथा चान्यथा चोत्पत्तेः पदार्थसत्व, न तव्यतिरिका काचिस्क्रियाऽस्ति, तथा चोक्तम्-"भूतियेषां क्रिया सैव, कारक सैव चोच्यते" इत्यादि, तथा सर्वपदार्थानां प्रतिक्षणमवस्थान्तरगमनात्सक्रियसमतोऽक्रिया न विद्यते
इत्येवं संज्ञा नो निवेशयेत् , किं तर्हि , अस्ति क्रिया अक्रिया चेत्येवं संज्ञा निवेशयेत् , तथाहि-शरीरात्मनोर्देशाद्देशान्तरावाप्ति18 निमित्ता परिस्पन्दात्मिका क्रिया प्रत्यक्षेणबोपलभ्यते, सर्वथा निष्क्रियले चात्मनोऽभ्युपगम्यमाने गगनस्पेय बन्धमोक्षायभावः, | स च दृष्टेष्टबाधिता, तथा शाक्यानामपि प्रतिक्षणोत्पत्तिरेव क्रियेत्यतः कथं क्रियाया अभावः?, अपि च-एकान्तेन क्रियाऽभावे 18
संसारमोक्षाभावः स्यादित्यतोऽस्ति क्रिया, तद्विपक्षभूता चाक्रियेत्येवं संज्ञां निवेशयेदिति ॥१९॥ तदेवं सक्रियात्मनि सति क्रोधा| दिसद्भाव इत्येतद्दर्शयितुमाह
णत्थि कोहे व माणे वा, णेवं सन्नं निवेसए । अन्थि कोहे व माणे वा, एवं सन्नं निवेसए ॥२०॥ णस्थि माया व लोभे वा, णेवं सन्नं निवेसए । अस्थि माया व लोभे वा, एवं सन्नं निवेसए ॥२१॥ णत्थि पेज्जे व दोसे वा, णेवं सन्नं निवेसए । अस्थि पेज्जे व दोसे वा, एवं सन्नं निवेसए ॥ २२ ॥ मूत्रं .
खपरात्मनोरप्रीतिलक्षणः क्रोधः, स चानन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनभेदेन चतुर्धाऽऽगमे पठ्यते, तथै| तावद्भेद एव मानो गर्वः, एतौ द्वावपि 'न स्तो' न विद्यते, तथाहि-क्रोधः केषांचिन्मतेन मानांश एव अभिमानग्रहगृहीतस्य |
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [५], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-२२], नियुक्ति: [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||२२||
दीप
सूत्रकृता
तस्कृतावत्यन्तक्रोधोदयदर्शनात् , क्षपकश्रेण्यां च भेदन क्षपणानभ्युपगमात् , तथा किमयमात्मधर्म आहोखित्कर्मण उतान्य| खेति ?, तत्रात्मधर्मले सिद्धानामपि क्रोधोदयप्रसङ्गः, अथ कर्मणस्ततस्तदन्यकषायोदयेऽपि तदुदयप्रसङ्गात् मूर्तखाच कर्मणो
५आचारन्धे शीला-18 घटस्येव तैदाकारोपलब्धिः खाद्, अन्यधर्मले खकिश्चित्करखमतो नास्ति क्रोध इत्येवं मानाभावोऽपि वाच्य इत्येवं संज्ञां नो
18| श्रुताध्य. शीयातिः | निवेशयेत् , यतः कषायकर्मोदयवर्ती दष्टोष्टः कृतभृकुटीमङ्गो रक्तवदनो गलत्स्वेदबिन्दुसमाकुलः क्रोधाध्मातः समुपलभ्यते, ॥३८॥
न चासौ मानांशः, तत्काकिरणात् तथा परनिमित्तोत्थापितखाचेति, तथा जीवकर्मणोरुभयोरप्ययं धर्मः, तद्धर्मले च प्रत्येकविकल्पदोषानुपपत्तिः, अनभ्युपगमात् , संसार्यात्मनां कर्मणा सार्द्ध पृथग्भवनाभावात्तदुभयस्य च नरसिंहवद्वस्त्वन्तरखादित्यतो|ऽस्ति क्रोधो मानथेत्येवं संज्ञां निवेशयेत् ।। २० ।। साम्प्रतं मायालोभयोरस्तिवं दर्शयितुमाह-अत्रापि प्राग्वन्मायालोभयो|रभाववादिनं निराकृत्यास्तिवं प्रतिपादनीयमिति ॥ २१ ॥ साम्प्रतमेपामेव क्रोधादीनां समासेनास्तित्वं प्रतिपादयन्नाहप्रीतिलक्षणं प्रेम-पुत्रकलत्रधनधान्याद्यात्मीयेषु रागस्तद्विपरीतस्त्वात्मीयोपघातकारिणि द्वेपः, तावेतौ द्वावपि न विद्यते, तथाहिकेषाश्चिदभिप्रायो यदुत-मायालोमावेवावयवौ विद्यते, न तत्समुदायरूपो रागोजयव्यस्ति, तथा क्रोधमानावेव स्तः, न तत्समुदायरूपोऽवयवी द्वेष इति, तथाहि-अवयवेभ्यो यद्यभिन्नोऽवयवी वहि तदभेदात्त एव नासौ अथ भिन्नः पृथगुपलम्भः स्वाद् घटपटवदित्येवमसद्विकल्पमूढतया नो संज्ञां निवेशयेत् , यतोऽवयवावयविनोः कथञ्चिद्भेद इत्येवं भेदाभेदारपतृतीयपक्षसमाश्र-IINon
मानकियायां मानिकिवायदा। २ अनन्तानुयन्ध्यानाख्यानप्रत्याख्यानावरणानो युगपक्षपणात् संम्वलनकोषस्यापि मानदलिकेषु क्षेपण क्षपणान् । ३ कर्मभूतकोवस्त स्वतन्त्राकारोएलस्थिप्रसङ्गात् । ४ तत्कार्यतचापरनि प्रक।
अनुक्रम [७२६]
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [५], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-२२], नियुक्ति: [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||२२||
दीप
यणात्प्रत्येकपक्षाश्रितदोषानुपपत्तिरिति, एवं चास्ति प्रीतिलक्षणं प्रेमाप्रीतिलक्षणश्च द्वेष इत्येवं संज्ञां निवेशयेत् ॥ २२ ॥ साम्प्रतं | कषायसद्भावे सिद्ध सति तत्कार्यभूतोऽवश्यंभावी संसारसद्भाव इत्येतत्प्रतिषेधनिषेधद्वारेण प्रतिपादयितुमाह
त्थि चाउरते संसारे, णेवं सन्नं निवेसए । अस्थि चाउरंते संसारे, एवं सन्नं निवेसए ॥ २३ ॥ णस्थि देवो व देवी वा, वं सन्नं निवेसए । अत्थि देवो व देवी वा, एवं सन्नं निवेसए ॥ २४ ॥ सूत्र चत्वारोऽन्ता-गतिभेदा नरकतिर्यजनरामरलक्षणा यस संसारस्थासौ चतुरन्तः संसार एव कान्तारो भयैकहेतुत्वात् , स च चतु-18 विधोऽपि न विद्यते, अपितु सर्वेषां संमृतिरूपत्वात्कर्मबन्धात्मकतया च दुःखैकहेतुत्वादेकविध एव, अथवा नारकदेवयोरनुपलभ्य-18 मानत्वात्तिर्यमनुष्ययोरेव सुखदुःखोत्कर्षतया तव्यवस्थानाद् द्विविधः संसारः, पर्यायनयाश्रयणाचनेकविधः, अतश्चातुर्विध्यं न | कथश्चिद् घटत इत्येवं संज्ञां नो निवेशयेद् , अपितु अस्ति चतुरन्तः संसार इत्येवं संज्ञां निवेशयेत् । यत्तूक्तम्-एकविधः संसारः, MALI तन्नोपपद्यते, यतोऽध्यक्षेण तिर्यमनुष्ययोर्भेदः समुपलभ्यते, न चासावेकविधत्वे संसारस्य घटते, तथा संभवानुमानेन नारकदेवानामप्यस्तित्वाभ्युपगमाद् द्वैविध्यमपि न विद्यते, संभवानुमानं तु-सन्ति पुण्यपापयोः प्रकृष्टफलभुजा, तन्मध्यफलभुजां तिर्यन-1 नुष्याणां दर्शनाद्, अतः संभाव्यन्ते प्रकृष्टफलभुजो, ज्योतिषां प्रत्यक्षेणैव दर्शनाद्, अथ तद्विमानानामुपलम्भः, एवमपि तद
धिष्ठातृभिः कैश्चिद्भवितव्यमित्यनुमानेन गम्यन्ते, ग्रहगृहीतवरप्रदानादिना च तदस्तित्वानुमितिः, तदस्तित्वे तु प्रकृष्टपुण्यफलभुज 18 इव प्रकृष्टपापफलम्भिरपि भाष्यमित्यतोऽस्ति चातुर्विध्यं संसारस, पोयनयाश्रयणे तु यदनेकविधस्समुल्यते तदयुक्तं, यतः सप्तप
थिव्याश्रिता अपि नारकाः समानजातीयाश्रयणादेकप्रकारा एव, तथा तियेचोऽपि पृथिव्यादयः स्थावरास्तथा द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियाश्च
Secenesceceaesesesesesesesented
अनुक्रम [७२६]
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [५], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-२४], नियुक्ति: [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||२४||
सूत्रकृताङ्गे द्विषष्टियोनिलक्षप्रमाणाः सर्वेऽप्येकविधा एव, तथा मनुष्या अपि कर्मभूमिजाकर्मभूमिजान्तरद्वीपकसमूर्छनजात्मकभेदमनात्यैक-18 आचार२श्रुतस्क- विधवेनैवाश्रिताः, तथा देवा अपि भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकभेदेन भिन्ना एकविधत्वेनैव गृहीताः, तदेवं सामान्यवि- श्रुताध्य. न्धे शीला
| शेषाश्रयणाचातुर्विध्य संसारस्य व्यवस्थित नेकविधत्वं, संसारवैचित्र्यदर्शनात , नाप्यनेकविधत्वं सर्वेषां नारकादीनां खजात्यन-IN कीयाधुचिः
तिक्रमादिति ॥ २३ ॥ २४ ॥ सर्वभावानां सप्रतिपक्षत्वात्संसारसद्भावे सति अवश्यं तद्विमुक्तिलक्षणया सिद्ध्यापि भवितथ्यमि॥३८॥ यतोऽधुना सप्रतिपक्षां सिद्धि दर्शयितुमाह
त्थि सिद्धी असिद्धी वा, णेवं सन्नं निवेसए । अत्थि सिद्धी असिद्धी चा, एवं सन्न निषेसए ॥ २५ ॥ । णस्थि सिद्धी नियं ठाणं, णेवं सन्नं निवेसए । अस्थि सिद्धी नियं ठाणं, एवं सन्नं निवेसए ।॥ २६ ॥ सूत्रं
सिद्धिः अशेषकर्मच्युतिलक्षणा तद्विपर्यस्ता चासिद्धिर्नास्तीत्येवं नो संज्ञां निवेशयेद, अपि त्वसिद्धेः-संसारलक्षणायाधातुर्विध्येनानन्तरमेव प्रसाधिताया अविगानेनास्तित्वं प्रसिद्ध, तद्विपर्ययेण सिद्धेरप्यस्तित्वमनिवारितमित्यतोऽस्ति सिद्धिरसिद्धिर्वेत्येवं संज्ञा || निवेशयेदिति स्थितम् , इदमुक्तं भवति-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकस्य मोक्षमार्गस्य सद्भावात्कर्मक्षयस्य च पीडोपशमादिना-18 ध्यक्षेण दर्शनादतः कस्यचिदात्यन्तिककर्महानिसिद्धरस्ति सिद्धिरिति, तथा चोक्तम् -"दोपावरणयोहानिनिःशेषाऽस्त्यतिशायिनी। कचिद्यथा खहेतुभ्यो, पहिरन्तर्मलक्षयः ॥ १॥"इत्यादि, एवं सर्वज्ञसद्भावोपि संभवानुमानाद्रष्टव्यः, तथाहि-अभ्यस्यमानायाः ||
॥३८॥ प्रज्ञाया व्याकरणादि[ना] शास्त्रसंस्कारेणोत्तरोत्तरवृद्ध्या प्रज्ञातिशयो दृष्टः, तत्र कस्यचिदत्यन्तातिशयप्राप्तेः सर्वज्ञत्वं खादिति संभ19 वानुमानं, न चैतदाशङ्कनीयं, तद्यथा-ताप्यमानमुदकमत्यन्तोष्णतामियानानिसाद्भवेत , तथा 'दशहस्तान्तरं व्योनि यो नामो
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [५], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-२६], नियुक्ति: [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
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दीप अनुक्रम [७३०]
प्लत्य गच्छति । न योजनमसौ गन्तुं, शक्तोऽभ्यासशतरपि ॥१॥" इति, दृष्टान्तदाान्तिकयोरसाम्यात् , तथाहि-ताप्यमान जलं प्रतिक्षणं क्षयं गच्छेत् प्रज्ञा तु विवर्द्धते, यदिवा प्लोषोपलब्धेरव्याहतमग्नित्वं, तथा प्लवनविषयेऽपि पूर्वमर्यादाया अनतिक्रमा| योजनोत्प्लवनाभावः, तत्परित्यागे चोत्तरोत्तरं वृद्धया प्रज्ञाप्रकर्षगमनबद्योजनशतमपि गच्छेदित्यतो दृष्टान्तदाान्तिकयोरसाम्या
देतन्नाशङ्कनीयमिति खितम् , प्रज्ञावृद्धेश्च बाधकप्रमाणाभावादस्ति सर्वज्ञत्वप्राप्तिरिति । यदिवा अञ्जनभृतसमुद्गकदृष्टान्तेन जीवा18 कुलत्वाजगतो हिंसाया दुर्निवारवासियभावः, तथा चोक्तम्-"जले जीवाः स्थले जीवा, आकाशे जीवमालिनि । जीवमाला18 कुले लोके, कथं भिक्षुरहिंसका ॥१॥"इत्यादि, तदेवं सर्वस्यैव हिंसकत्वात्सियभाव इति, तदेतदयुक्तं, तथाहि-सदोपयुक्तस्य |
पिहिताश्रवद्वारस्य पञ्चसमितिसमितस्य त्रिगुप्तिगुप्तस्य सर्वथा निरवद्यानुष्ठायिनो द्विचत्वारिंशद्दोषरहितभिक्षाभुज ईर्यासमितस्य । | कदाचिद्रव्यतः प्राणिव्यपरोपणेऽपि तत्कृतवन्धाभावः, सर्वथा तस्यानवद्यत्वात् , तथा चोक्तम्-"उच्चालियंमि पाए,"इत्यादि प्रतीतं, | तदेवं कर्मबन्धाभावात्सिद्धेः सद्भावोऽव्याहृतः, सामय्यभावाद सिद्धिसद्भावोऽपीति ॥ २५॥ साम्प्रतं सिद्धानां स्थाननिरूपणायाह-'णत्थि सिद्धी त्यादि, सिद्धेः-अशेषकर्मच्युतिलक्षणाया निजं स्थानं-पत्यारभाराख्यं व्यवहारतो निश्चयतस्तु तदुपरि । योजनक्रोशषड्भागः, तत्प्रतिपादकप्रमाणाभावात्स नास्तीत्येवं संज्ञां नो निवेशयेत् , यतो बाधकप्रमाणाभावात्साधकस्य चाग-1 मस्स सद्भावात्तत्सत्ता दुर्निवारेति । अपिच-अपगताशेषकल्मपाणां सिद्धानां केनचिद्विशिष्टेन स्थानेन भाव्यं, तच्चतुर्दशरज्ज्वात्मकस लोकस्खाग्रभूतं द्रष्टव्य, न च शक्यते वक्तुमाकाशवत्सर्वव्यापिनः सिद्धा इति, यतो लोकालोकव्याप्याकाशं, न चालोकेऽपरद्रव्यस्य संभवः, तस्याकाशमात्ररूपत्वात् , लोकमात्रव्यापित्वमपि नास्ति, विकल्पानुपपत्तेः, तथाहि-सिद्धावस्थायां तेषां व्यापि
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [५], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-२६], नियुक्ति: [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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सूत्रकृताङ्ग
त्वमभ्युपगतमुत प्रागपि, न तावत्सिद्धावसायां, तद्व्यापित्वभवने निमित्ताभावात , नापि प्रागवस्थायां, तदावे सर्वसंसारिणां||५आचार२श्रुतस्क
प्रतिनियतसुखदुःखानुभवो न स्यात् । न च शरीरादहिरवस्थितमवस्थानमस्ति, तत्सत्तानिबन्धनस्य प्रमाणसाभावात, अतः सर्व- श्रुताध्य. न्धे शीला- च्यापितं विचार्यमाणं न कथश्चिद् घटते, तदभावे च लोकाग्रमेव सिद्धानां स्थानं, तद्गतिश्च 'कमविमुक्तयोध्य गति'रितिकृता || कीयावृत्तिः
भवति, तथा चोक्तम्-"लाउ एरंडफले अग्गी धूमे य उसु धणुविमुके । गइ पुत्वपओगेणं एवं सिद्धाणचि गईओ ॥१॥"इत्या
दि । तदेवमस्ति सिद्धिस्तस्याश्च निजं स्थानमित्येवं संज्ञां निवेशयेदिति ॥ २६ ॥ साम्प्रतं सिद्धेः साधकानां साधूनां तत्प्रतिपक्ष॥३८२॥
भूतानामसाधूनां चास्तित्वं प्रतिपिपादयिषुः पूर्वपक्षमाह
णस्थि साह असाहू वा, णेवं सन्नं निवेसए । अत्थि साहू असाहू वा, एवं सन्नं निवेसए ॥ २७ ॥ णधि कल्लाण पावे या, णेवं सनं निवेसए । अस्थि कल्लाण पावे चा, एवं सन्नं निवेसए ॥ २८॥ सूत्रं
'नास्ति' न विद्यते ज्ञानदर्शनचारित्रक्रियोपेतो मोक्षमार्गव्यवस्थितः साधुः, संपूर्णस्य रखत्रयानुष्ठानसाभावात् , तदभावाच | तत्प्रतिपक्षभूतस्यासाधोरप्यभावः, परस्परापेक्षित्वादेतव्यवस्थानहँकतराभावे द्वितीयस्थाप्पभाव इत्येवं संज्ञां नो निवेशयेत्, अपि
तु अस्ति साधुः, सिद्धेः प्राक्साधितत्वात् , सिद्धिसत्ता च न साधुमन्तरेण, अतः साधुसिद्धिः, तत्प्रतिपक्षभूतस्य चासाधोरिति । यश्च || संपूर्णरखत्रयानुष्ठानाभावः प्रागाशद्धितः स सिद्धान्ताभिप्रायमवुद्धैव, तथाहि-सम्पग्दृष्टरुपयुक्तस्यारक्तद्विष्टस्य सत्संयमवतः श्रुता-| Su ३८२॥ 8 नुसारेणाऽऽहारादिकं शुद्धबुद्ध्या गृह्णतः कचिदज्ञानादनेषणीयग्रहणसंभवेऽपि सततोपयुक्ततया संपूर्णमेव रलत्रयानुष्ठानमिति,
१सलापुरण्यफलामिधूमेषु पर्मुक्त इयौ पूर्वप्रयोगेण गतिरेयं सिद्धानामपि गतयः ॥ १॥
दीप
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [५], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-२८], नियुक्ति: [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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। यब भक्ष्यमिदमिदं चाभक्ष्य गम्यमिदमिदं चागम्यं प्रासुकमेषणीयमिदमिदं च विपरीतमित्येवं रागद्वेषसंभवेन समभावरूपस्य
सामायिकस्याभावः कश्चिचोयते तत्तेषां चोदनमज्ञान विजृम्भणात् , तथाहि न तेषां सामायिकवतां साधूनां रागद्वेषतया भक्ष्या-18 1 भक्ष्यादिविवेकः, अपितु प्रधानमोक्षाङ्गस्य सच्चारित्रस्य साधनार्थम् , अपि च-उपकारापकारयोः समभावतया सामायिकं न पुन
भक्ष्याभक्ष्ययोः समप्रवृत्त्येति ॥ २७ ॥ तदेवं मुक्तिमार्गप्रवृत्तस्य साधुत्वमितरस्य चासाधुत्वं प्रदश्योधुना च सामान्पेन कल्याण-| | पापवतोः सद्भाव प्रतिषेधनिषेधद्वारेणाह-'णस्थि कल्लाण पावे वा इत्यादि, यथेष्टार्थफलसंप्राप्तिः कल्याणं तन्त्र वियते, सर्वा-181
शुचितया निरात्मकत्वाच्च सर्वपदार्थानां बौद्धाभिप्रायेण, तथा तदभावे कल्याणवांश्च न कश्चिद्विद्यते, तथाऽऽत्माद्वैतवाद्यभिप्रायेण 'पुरुष एवेदं सर्वमितिकृत्वा पापं पापवान् वा न कधिद्विद्यते, तदेवमुभयोरप्यभावः, तथा चोक्तम्-"विद्या विनयसंपन्ने, ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । शुनि चैव श्वपाके च, पण्डिताः समदर्शिनः ॥१॥" इत्येवमेव कल्याणपापकाभावरूपां संज्ञां नो निवेशयेद्, अपि | त्वस्ति कल्याणं कल्याणवांश्व विद्यते, तद्विपर्यस्तं पापं तद्वांश्च विद्यते, इत्येवं संज्ञां निवेशयेत् , तथाहि-नैकान्तेन कल्याणाभावो यो बौद्धरभिहितः, सर्वपदार्थानामशुचित्वासंभवात, सर्वाशुचित्वे च बुद्धस्थाप्यशुचित्वप्राप्तः, नापि निरात्मानः खद्रव्यक्षेत्र-15 कालभावापेक्षया सर्वपदार्थानां विद्यमानत्वात् परद्रव्यादिभिस्तु न विद्यन्ते, सदसदात्मकत्वाद्वस्तुनः, तदुक्तम्-"खपरसत्ताब्युदासोपादानापाद्यं हि वस्तुनो वस्तुत्व"मिति । तथाऽऽत्माद्वैतभावाभावात्पापाभावोऽपि नास्ति, अद्वैतभावे हि मुखी दुःखी सरोगो नीरोगः सुरूपः कुरूपो दुर्भगः सुभगोऽर्थवान् दरिद्रस्तथाऽयमन्तिकोऽयं तु दवीयान् इत्येवमादिको जगद्वैचित्र्यभावोऽध्य| क्षसिद्धोऽपि न स्यात् । यच समदर्शित्वमुच्यते ब्रामणचाण्डालादिषु तदपि समानपीडोत्पादनतो द्रष्टव्यं, न पुनः कर्मापादित
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [५], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-२८], नियुक्ति: [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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न्धे शीला
दीप
सूत्रकृताङ्गे वैचित्र्यभावोऽपि तेषां ब्राह्मणचाण्डालादीनां नास्तीति, तदेवं कथश्चित्कल्याणमस्ति तद्विपर्यस्तं तु पापकमिति । न चैकान्तेन ५आचार२ श्रुतस्क- कल्याणं कल्याणमेव, यतः केवलिनां प्रक्षीणघनघातिकर्मचतुष्टयानां सातासातोदयसद्भावात्तथा नारकाणामपि पश्चेन्द्रियत्वविशि- श्रुताध्य.
1 एज्ञानादिसद्भावान्नैकान्तेन तेऽपि पापबन्त इति तस्मात्कथञ्चित्कल्याण कयश्चित्पापमिति स्थितम् ॥ २८ ॥ तदेवं कल्याणपाप-10 कीयावृत्तिः योरनेकान्तरूपत्वं प्रसाध्यैकान्तं दूषयितुमाह॥३८॥
कल्लाणे पावए चावि, बबहारो ण विजइ । जं वेरं तं न जाणंति, समणा बाल पंडिया ॥२९॥ असेसं अक्षयं वावि, सबदुक्खेति वा पुणो । वज्झा पाणा न वज्झत्ति, इति वायं न नीसरे ॥३०॥ दीसंति समियायारा, भिक्खुणो साहुजीविणो । एए मिच्छोवजीवंति, इति दिहिं न धारए ॥ ३१॥ सूत्रं |
कल्यं सुखमारोग्यं शोभनत्वं वा तदणतीति कल्याणं तदस्यास्तीति कल्याणो मत्वर्थीयाच्यत्ययान्तोऽर्शआदिभ्योऽजित्यनेन, | कल्याणवानितियावत् । एवं पापकशब्दोऽपि मत्वर्थीयाच्प्रत्ययान्तो द्रष्टव्यः । तदेवं सर्वथा कल्याणवानेवायं तथा पापवानेवाय-18 |मित्येवंभूतो व्यवहारो न विद्यते, तदेकान्तभूतस्यैवाभावात् , तदभावस्य च सर्ववस्तूनामनेकान्ताश्रयणेन प्राक्प्रसाधितत्वादिति ।। एतच्च व्यवहाराभावाश्रयणं सर्वत्र प्रागपि योजनीयं, तद्यथा-सर्वत्र पीयमस्ति नास्ति वा सर्वत्र वीर्यमित्येवंभूत एकान्तिको व्यवहारो न विद्यते, तथा नास्ति लोकोऽलोको वा तथा न सन्ति जीवा अजीवा इति चेत्येवंभूतो व्यवहारो न विद्यत इति सर्वत्र संबन्ध- ३८३॥ नीयं । तथा वैरं-वजं तद्वत्कर्म वैरं विरोधो वा वैरं तद्येन परोपधातादिनैकान्तपक्षसमाश्रयणेन वा भवति तत्ते 'श्रमणाः' तीथिका बाला इव रागद्वेषकलिताः 'पण्डिताः' पण्डिताभिमानिनः शुष्कतर्कदप्पांध्माता न जानन्ति, परमार्थभूतस्साहिंसालक्षणस्य धर्म-11
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [५], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-३१], नियुक्ति: [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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ASI स्पानेकान्तपक्षस्य वाऽनाश्रयणादिति । यदिवा यद्वैरं तत्ते श्रमणा बालाः पण्डिता वा न जानन्तीत्येवं वाचं न निमजेदित्युत्तरेण
संपन्धः, किमिति न निराजेत् ?, यतस्तेऽपि किश्चिजानन्त्येव । अपिच तेषां तनिमित्तकोपोत्पत्तेः, यर्वभूतं वचस्तन वाच्यं, यत | उक्तम्-"अप्पत्तियं जेण सिया, आसु कुप्पिज वा परो । सबसो त ण भासेजा, भासं अहियगामिणि ॥१॥"इत्यादि ।॥२९॥ अप-1 रमपि वाक्संयममधिकृत्याह-'असेस'मित्यादि, अशेष-कृत्तं तत्सांख्याभिप्रायेण अक्षतं नित्यमित्येवं न ब्रूयात् , प्रत्यर्थ प्रतिसमयं चान्यथाऽन्यथाभावदर्शनात् स एवायमित्येवंभूतस्यैकत्वसाधकस्य प्रत्यभिज्ञानख लूनपुनर्जातेषु केशनखादिष्वपि प्रदर्शनात् , तथा अपिशब्दादेकान्तेन क्षणिकमित्येवमपि वाचं न निसृजेत् , सर्वथा क्षणिकत्वे पूर्वस्य सर्वथा विनष्टत्वादुत्तरस्य निर्हेतुक उत्पादः | | स्यात् , तथा च सति 'नित्यं सचमसच वाऽहेतोरन्यानपेक्षणा'दिति । तथा सर्वं जगहुःखात्मकमित्येवमपि न भूयात् , सुखात्मक| स्थापि सम्यग्दर्शनादिभावेन दर्शनात् , तथा चोक्तम्-"तणसंथारनिसणोऽपि मुणिवरो भट्टरागमयमोहो । जं पावइ मुत्तिसुहं कत्तोतं चकवट्टीवि?॥१॥" इत्यादि, तथा वध्याश्चौरपारदारिकादयोऽयध्या वा तत्कानुमतिप्रसङ्गादित्येवंभूतां वाचं खानुष्ठानपरायणः साधुः परग्यापारनिरपेक्षो न निसजेत, तथा हि सिंहव्याघ्रमार्जारादीन्परसत्त्वव्यापादनपरायणान् दृष्ट्वा माध्यस्थ्यमवलम्ब-1 येत् , तथा चोक्तम्-"मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि सत्वगुणाधिक क्लिश्यमानाविनेयेष्वि"ति, (तच्या०अ०७५०६) एवमन्योऽपि
अप्रीतिकं यया स्यावाश कृप्या परः सर्वथा तान भाषेत भाषामहितगामिनी ॥ २ तृणसंस्तारकनिषण्णोऽपि मुनिवरो पराममदमोहः । यत्प्राप्नोति मुक्तिमुखं कुतस्तत् चक्रवर्त्यपि ॥१॥३वध्यकथने दिसादिकर्मणां अवघ्यकथने चायाँदिकर्मणां । ४ एनमर्थप्रतिवाक्ये समुधये इतिवचनात्समुनये न बाचं निसृजेत् माध्यस्थ्यं न अवलम्बयेत् इति ।
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [५], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-३१], नियुक्ति: [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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सबकतावासयमो द्रष्टव्यः, तद्यथा-अमी गवादयो वाया न बाबा वा तथाऽमी वृक्षादयश्छेद्या न छेया बेत्यादिकं यचो न वाच्यं साधु- ५आचार २ श्रुतस्क- नेति ॥३०॥ अयमपरो वासंयमप्रकारोऽन्तःकरणशुद्धिसमाश्रितः प्रदश्यते-'दीसंती'त्यादि, 'दृश्यन्ते' समुपलभ्यन्ते खशास्त्रोक्तेन | श्रुताध्य. न्धे शीला- | विधिना निभृतः-संयत आत्मा येषां ते निभृतात्मानः, कचित्पाठः 'समियाचार'त्ति सम्यक्-वशास्त्रविहितानुष्ठानादविपरीत | कीयावृत्तिः आचार:-अनुष्टानं येषां ते सम्यगाचाराः, सम्यग्वा-इतो व्यवस्थित आचारो येषां ते समिताचाराः, के ते ?-भिक्षणशीला भिक्षवो॥३८॥
भिक्षामात्रवृत्तयः, तथा साधुना विधिना जीवितुं शीलं येषां ते साधुजीविनः, तथाहि-ते न कस्यचिदुपरोधविधानेन जीवन्ति, | तथा शान्ता दान्ता जितक्रोधाः सत्यसंधा दृढव्रता युगान्तरमात्रदृष्टयः परिमितोदकपायिनो मौनिनः सदा तायिनो विविक्तका-18 न्तध्यानाध्यासिनः अकौकुच्यास्तानेवभूतानवधार्यापि 'सरागा अपि वीतरागा इव चेष्टन्ते' इति मत्वते मिथ्यात्वोपजीविन इत्येवं
दृष्टिं न धारयेत्-नवंभूतमध्यवसायं कुर्यात्राप्येवंभूतां वाचं निमजेद् यथैते मिथ्योपचारप्रवृत्ता मायाविन इति, छमस्थेन ह्या18|ग्दर्शिनवंभूतस्य निश्चयस्य कर्तुमशक्यत्वादित्यभिप्रायः, ते च स्वयूथ्या या भवेयुस्तीर्थान्तरीया बा, तावुभावपि न वक्तव्यौ साधु|ना, यत उक्तम् -"यावत्परगुणपरदोषकीतने व्यापृतं मनो भवति । तावद्वरं विशुद्धे ध्याने व्यग्रं मनः कर्तुम् ॥ १॥"इत्यादि ॥३१॥ किंचान्यत्दक्षिणाए पडिलंभो, अत्थि वा णत्थि वा पुणो । ण वियागरेज मेहावी, संतिमग्गं च बृहए ॥ ३२॥
॥३८४॥ इच्चेएहिं ठाणेहिं, जिणदिढहिं संजए। धारयंते उ अप्पाणं, आमोक्खाए परिवएज्जासि ॥३३॥त्तियेमि ॥ सूत्रं इति बीयसुयक्वंधस्स अणायारणाम पंचममज्झयणं समत्तं ॥
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [५], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-३३], नियुक्ति: [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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दीप अनुक्रम [७३७]
दानं दक्षिणा तस्याः प्रतिलम्भ:-प्राप्तिः स दानलाभोऽस्साहस्थादेः सकाशादस्ति नास्ति वेत्येवं न व्यागृणीयात् मेधावी| मर्यादाव्यवस्थितः । यदिवा खयूथ्यस्य तीर्थान्तरीयस्य वा दानं ग्रहणं वा प्रति यो लाभः स एकान्तेनास्ति-संभवति नास्ति वेत्येवं न | बेयादेकान्तेन, तहानग्रहणनिषेधे दोषोत्पत्तिसंभवात् , तथाहि-तदाननिषेधेऽन्तरायसंभवस्तद्वैचित्यं च, तद्दानानुमतावप्यधिकरणोद्भव8 इत्यतोऽस्ति दानं नास्ति वेत्येवमेकान्तेन न बूयात् । कथं तर्हि ब्यादिति दर्शयति-शान्तिः-मोक्षस्तस्य मार्गः सम्यग्दर्शनशानचारित्रात्मकस्तमुपहयेद्-वधयेत् , यथा मोक्षमार्गाभिवृद्धिर्भवति तथा ब्रूयादित्यर्थः, एतदुक्तं भवति-पृष्टः केनचिद्विधिप्रतिषेधमन्त-| रेण देयप्रतिग्राहकविषय निरवद्यमेव ब्रूयादित्येवमादिकमन्यदपि विविधधर्मदेशनावसरे वाच्यं, तथा चोक्तम्-'सावजणवजाणं वयणाणं जो न जाणइ विसेस'इत्यादि ॥३२॥ साम्प्रतमध्ययनार्थमुपसंजिघृक्षुराह-'इचे एहि'मित्यादि, इत्येतरेकान्तनिषेधद्वारेणानेकान्तविधायिभिः स्थानक्सिंयमप्रधानैः समस्ताध्ययनोक्कै रागद्वेषरहितजिनदृष्टः-उपलब्धर्न खमतिविकल्पोत्थापितेः संयतः-18॥ || सत्संयमवानात्मानं धारयन्-एभिः स्थानैरात्मानं वर्तयन्नामोक्षाय-अशेषकर्मक्षयाख्यं मोक्षं यावत्परिः-समन्तात्संयमानुष्ठाने बजे गच्छेस्त्वमिति विधेयस्योपदेशः । इति परिसमात्यर्थे, बचीमीति पूर्ववत् । नया अभिहिताः अभिधास्थमानलक्षणायेति ॥ ३३ ॥ समाप्तमनाचारभुताख्यं पश्चममध्ययनमिति ।।
॥ इति श्रीमूत्रकृताङ्गे द्वितीयश्रुतस्कन्धे पश्चममनाचाराध्ययनं समाप्तम् ॥
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१ साचद्यानवयानो बचनानां यो न जानाति विशेष ।
अत्र पञ्चमं अध्ययनं परिसमाप्त
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्" - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-३३...], नियुक्ति: [१८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||३३||
सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥३८५॥
दीप अनुक्रम [७३७]
अथ षष्ठमध्ययनम् ॥
आईका
ध्ययन. उक्तं पश्चममध्ययनं, साम्प्रतं पष्ठमारभ्यते, अस चायमभिसंबन्धः-इहानन्तराध्ययने आचार: प्रतिपादितोऽनाचारपरिहा-|| रच, स च येनाचीर्णः परिहतवासावधुना प्रतिपाद्यते, यदिवाऽनन्तराध्ययने स्वरूपमाचारानाचारयोः प्रतिपादितं, तच्चाशक्या-IST नुष्ठानं न भवत्यतस्तदासेवको दृष्टान्तभूत आर्द्रका प्रतिपाद्यत इति, अथवाज्नाचारफलं ज्ञाखा सदाचारे प्रयलः कार्यों यथाऽर्द्रककुमारेण कृत इत्येतद्दर्शनार्थमिदमध्ययनम् । अस्य चखार्यनुयोगद्वाराण्युपक्रमादीनि वाच्यानि, तत्रोपक्रमान्तर्गतोाधिकारोऽयं, तद्यथा-आद्रककुमारवक्तव्यता, यथाऽसावभयकुमारप्रतिमाव्यतिकरात्प्रतिबुद्धः तथात्र सर्व प्रतिपाद्यत इति । निक्षेपविधातत्रौघनिष्पन्ने निक्षेपेऽध्ययनं, नामनिष्पन्ने निक्षेपे वार्द्रकीयं, तत्रार्द्रपदनिक्षेपार्थ नियुक्तिकदाह-- नामंठवणाअई दवई चेव होइ भावई । एसो खलु अद्दस्स उ निक्खेवो चउविहो होइ ।। १८४ ।। उदगई सारई छवियह वसह तहा सिलेसई । एयं दवई खलु भावेणं होइ रागई ॥ १८५॥ एगभवियवद्धाउए य अभिमुहए य नामगोए य । एते तिन्नि पगारा दबद्दे होंति नायचा ॥ १८६॥
Rel||३८५॥ अहपुरे अदसुतो नामणं अद्दओत्ति अणगारो । तत्तो समुट्टियमिणं अज्झयणं अद्दइजति ॥१८॥ कामं दुवालसंगं जिणवयणं सासयं महाभागं । सबज्झयणाइंतहा सबक्खरसपिणवाया य ॥१८८॥
| अथ षष्ठं अध्ययनं "आर्द्रकियं" आरभ्यते, पञ्चम-अध्ययनेन सह अस्य अभिसंबन्ध:, आर्द्र पदस्य निक्षेपा:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-३३...], नियुक्ति: [१८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
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दीप अनुक्रम [७३७]
तहवि य कोई अत्यो उप्पचति तम्मितमि समयंमि। पुषभणिओ अणुमतो अहोइ इसिभासिएसु जहा ॥१८९
नामस्थापनाद्रव्यभावभेदाचतुर्थोऽऽऽकस्य निक्षेपो द्रष्टव्यः, तत्र नामस्थापने अनाहत्य द्रव्याप्रतिपादनार्थमाह-सत्र न्याई। | द्विधा-आगमतो नोआगमतच, आगमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः 'अनुपयोगी द्रव्य'मितिकृखा, नोआगमतस्तु शरीरभव्यशरी| रव्यतिरिक्तं यदुदकेन मृत्तिकादिकं द्रव्यमाद्रीकृतं तदुदकानें, सारा तु यदहिशुष्काकारमप्यन्तमध्ये सार्द्रमास्ते. यथा श्रीपर्णी-18 का सोवर्चलादिक 'छविआई तु यत् स्निग्धखगद्रव्यं मुक्ताफलरकाशोकादिकं तदभिधीयते, वसयोपलिप्तं वसा, तथा श्लेपार्द्र वन-13 | लेपायपलिम स्तम्भकुड्यादिकं यद्रव्यं तखिग्धाकारतया श्लेषामित्यभिधीयते, एतत्सर्वमप्युदकाोदिक द्रव्यामेवाभिधीयते, 12 | खलुशब्दस्यैवकारार्थखात् । भावार्द्र तु पुनः रागा-स्नेहो भिष्वङ्गतेनाद्रं यज्जीवद्रव्यं तद्धावाईमित्यभिधीयते । साम्प्रतमाईककु-18 |मारमधिकत्यान्यथा द्रव्या प्रतिपादयितुमाह-एकेन भवेन यो जीवः स्वगोंदेरागत्याककुमारखेनोत्पत्स्यते तथा ततोऽप्यास
भतरो बद्धायुष्का तथा ततोऽप्यासन्नतमोऽभिमुखनामगोत्रो-योऽनन्तरसमयमेवाकलेन समुत्पत्स्यते, एते च त्रयोपि प्रकारा | द्रव्याईके द्रष्टच्या इति । साम्प्रतं भावाईकमधिकृत्याह-आर्द्रकायुष्कनामगोत्राण्यनुभवन् भावाद्रों भवति, यद्यपि शृङ्गवेरादी| नामप्याकसंज्ञाव्यवहारोऽस्ति तथापि नेदमध्ययनं तेभ्यः समुत्थितमतो न तैरिहाधिकारः, किंसाककुमारानगारात्समुल्थितम[ तस्तेनैवेहाधिकार इतिकृसा तद्वक्तव्यताभिधीयते । एतदेव नियुक्तिकृदाह-अस्साः समासेनायमर्थः-आर्द्रकपुरे नगरे आनेको नाम |
| राजा, तस्सुतोऽप्याईकाभिधानः कुमारः, तद्वंशजाः किल सर्वेऽप्याकाभिधाना एव भवन्तीतिकला, स चानगारः संवृत्तः, तस्स | Kच श्रीमन्महाबीरवर्द्धमानखामिसमवसरणावसरे गोशालकेन सार्द्ध हस्तितापसैश्च वादोऽभूत , तेन च ते एतदध्ययनार्थोपन्या
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आर्द्र पदस्य निक्षेपा:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-३३..], नियुक्ति: [१८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
ध्ययन
प्रत सूत्रांक ||३३||
न्धे शीला
2292906
दीप अनुक्रम [७३७]
सूत्रकृताङ्गे || सेन पराजिता अत इदमभिधीयते-'ततः तमादाईकात्समुत्थितमिदमध्ययनमाईकीयमिति गाथासमासार्थः । व्यासार्थ तु ॥ २ श्रुतस्क- खत एव नियुक्तिकृदाकपूर्वभवोपन्यासेनोत्तरत्र कथयिष्यतीति । ननु च शाश्वतमिदं द्वादशाङ्गमपि गणिपिटकम् आर्द्रककथानकं ॥
IS तु श्रीवर्द्धमानतीर्थावसरे तत्कथमस्य शाश्वतखमित्याशझ्याह-'काम'मित्येतदभ्युपगमे इष्टमेवैतदसाकं तयथा-द्वादशाङ्गमपि हीयावृत्तिः
जिनवचनं नित्यं शाश्वतं 'महाभार्ग' महानुभावमामपोषध्यादिऋद्धिसमन्वितत्वात् न केवल मिदं सर्वाण्यप्यध्ययनान्येवंभूतानि, ॥३८६|| तथा सर्वाक्षरसनिपाताश्च-मेलापका द्रव्यार्थादेशानित्या एवेति । ननु च मतानुज्ञानाम निग्रहस्थानं भवत इत्याशवाह-'जइवि'
| यद्यपि सवेमपीदं द्रव्यार्थतः शाश्वतं तथाऽपि कोऽप्यर्थस्तसिन्समये तथा क्षेत्रे च कुतषिदाकादेः सकाशादाविर्भावमास्कन्दति स ||8| &| तेन ध्यपदिश्यते । तथा पूर्वमप्यसावर्थोऽन्यमुद्दिश्योक्तोऽनुमतश्च भवति, ऋषिभाषितेषूत्तराध्ययनादिषु यथेति । साम्प्रतं 8 १४ विशिष्टतरमध्ययनोत्थानमाह
अज्जदएण गोसालभिक्खुर्षभवतीतिदंडीणं । जह हत्थितावसाणं कहियं इणमो तहा बुच्छ ॥१९॥ गामे वसंतपुरए सामइतो घरणिसहितो निक्खंतो। भिक्खायरियादिहा ओहासियभत्तवेहासं ॥ १९१ ॥ संवेगसमावन्नो माई भत्तं चइत्त दियलोए । चइऊणं अद्दपुरे अद्दसुओ अद्दओ जाओ ॥ १९२।। पीती य दोण्ह दूओ पुरुङणमभयस्स पट्टचे सोऽवि । तेणावि सम्मदिहित्ति होज पडिमा रहेमि गया ॥१९॥
IM॥३८६।। दहूं संबुद्धो रक्खिओ य आसाण वाहण पलातो । पवावंतो धरितो रज्जं न करेति को अन्नो ? ॥ १९४ ॥ अगणितो निक्र्वतो विहरइ पडिमाइ वारिगा वरिओ। सुवण्णवसुहाराओ रन्नो कहणं च देवीए ॥ १९५॥
| आई पदस्य निक्षेपाः, आर्द्रकुमार संबन्धे विशिष्ट वक्तव्यता
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-३३...], नियुक्ति: [१९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
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दीप अनुक्रम [७३७]
तं नेह पिता तीसे पुच्छण कहणं च वरण दोचारे । जाणाहि पायवियं आगमणं कहण निग्गमणं ॥ १९६ ॥ पडिमागतस्समीवे सप्परीवारा अभिक्ख पडिवयणं । भोगा सुताण पुच्छण सुतबंध पुण्णे य निग्गमणं ॥१९७।।। रायगिहागम चोरा रायभया कहण तैसि दिक्खाय। गोसालभिक्खुबंभी तिदंडिया तावसेहि सह वादो ॥१९८।
वादे पराइइत्ता सविय सरणमन्भुवगता ते । अगसहिया सचे जिणवीरसगासे निक्खंता ॥ १९९॥ । | ण दुकरं वाणरपासमोयणं,गयस्स मत्तस्स वर्णमि राया।जहा उवत्तावलिएणतंतुणा,सुदुकरं मे पडिहाइ मोयण२००॥
आर्यादिकेण समवसरणाभिमखमञ्चलितेन गोशालकभिक्षोस्तथा ब्रह्मातिनां त्रिदण्डिनां यथा हस्तितापसानां च कथितमिदमध्य-15 IS यनाथेजाते तथा वक्ष्ये सूत्रेणेति ।। साम्प्रतं सपूर्वभवमाईककथानकं गाथाभिरेव नियुक्तिकदाह-'गामे' इत्यादि माथाष्टक, आसां चार्थः
कथानकादवसेयः, तवेद-मगधाजनपदे वसन्तपुरको ग्रामः, तत्र सामायिको नाम कुटुम्बी प्रतिवसति, स च संसारभयोद्वियो । धमेघोषाचायोन्तिके धर्म ध्रुखा सपलीकः प्रबजितः, स च सदाचाररतः संविनैः साधुभिः सार्द्ध विहरति, इतरापि साध्वीभिः सहेति ।। कदाचिचासावेकसिनगरे भिक्षार्थमटन्ती दृष्टा तामसी तथाविधकर्मोदयात्पूर्वरतानुसरणेन तस्सामध्युपपना, तेन चात्मीयोऽभिप्रायो। । द्वितीयस साधोर्निवेदितः, तेनापि च तत्प्रवर्तिन्याः, तयाऽपि तस्याः, तयापि चाभिहितं न मम देशान्तरे एकाकिन्या गमनं युज्यते, न चासी तत्राप्यनुबन्धं त्यक्ष्यतीत्यतो ममासिन्नवसरे भक्तप्रत्याख्यानमेव श्रेयो न पुनर्बतविलोपनमित्यतस्तया भक्तप्रत्याख्यानपूर्वकमात्मोदन्धनमकारि, मृता चासौ अगाद्देवलोकं । श्रुखा चैनं व्यतिकरमसी परं संवेगमुपगतचिन्तितं च तेन-त्या व्रतभाभ
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आर्द्रकुमार संबन्धे विशिष्ट वक्तव्यता,
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्" - अगसूत्र-२ (मूल+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-३३...], नियुक्ति: [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
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दीप अनुक्रम [७३७]
सूत्रकृताङ्गे 8 यादिदमनुष्ठितं मम खसौ संजात एवेत्यतोऽहमपि भक्तप्रत्याख्यानं करोमीत्याचार्यस्यानिवेद्यैवासौ मायावी अथ च परमसंवेगा-18| आका२श्रुतस्क- पन्नः असावपि भक्तं प्रत्याख्याय दिवं गतः, ततोऽपि च प्रत्यागत्याद्रपुरे नगरे आद्रकसुत आकाभिधानो जातः, साऽपिच । ध्ययन.
देवलोकायुता वसन्तपुरे नगरे श्रेष्ठिकुले दारिका जाता | इतरोऽपि च परमरूपसंपन्नो यौवनस्थः संवृत्तः, अन्यदाऽस्याकरिता कीयावृत्तिः
राजगृहे नगरे श्रेणिकस्य राज्ञः स्नेहाविष्करणार्थ परमप्राभृतोपेतं महत्तमं प्रेषयति, आर्द्रककुमारणासौ पृष्टो यथा-कस्यैतानि महा॥३८७॥
1 होण्यत्युग्राणि प्राभूतानि मत्पित्रा प्रेषितानि यास्यन्तीति, असायकथयद् यथा आर्यदेशे तब पितुः परममित्रं श्रेणिको महाराजः।।
| तस्यैतानीति, आर्द्रककुमारेणाप्यभाणि-किं तस्यास्ति कश्चिद्योग्यः पुत्रः, अस्तीत्याह, यद्येवं मत्ाहितानि प्राभृतानि भवता तख | समर्पणीयानीति मणिखा महार्हाणि प्राभूतानि समप्याभिहितं-वक्तव्योऽसौ मद्वचनात् यथाऽककुमारस्वयि नितरां नियतीति, ।। 18 स च महत्तमो गृहीतोभयपाभृतो राजगृहमगात् , गवा च राजद्वारपालनिवेदितो राजकुलं प्रविष्टो, दृष्टश्च श्रेणिका, प्रणामपूर्वकं | | निवेदितानि प्राभृतानि, कथितं च यथासंदिष्ट, तेनाप्यासनाशनताम्बूलादिना यथार्हप्रतिपच्या सन्मानितः, द्वितीये चादयाईक
कुमारसत्कानि प्राभृतान्यभयकुमारस्य समर्पितानि, कथितानि च तत्प्रीत्युत्पादकानि तत्संदिष्टवचनानि, अभयकुमारेणापि पारिणा| मिक्या घुझ्या परिणामितं-नूनमसौ भन्यः समासनमुक्तिगमनच तेन मया सार्द्ध प्रीतिमिच्छतीति, तदिदमत्र प्राप्तकालं यदा-18॥
दितीर्थकरप्रतिमासंदर्शनेन तस्यानुग्रहः त्रिमत इति मखा तथैव कृतं, महार्हाणि च प्रेषितानि प्राभृतानीति, उक्तवासी महत्तमो ॥३८७॥ । यथा-मत्प्रहितग्राभृतमेतदेकान्ते निरूपणीयं, तेनापि तथैव प्रतिपन, गतश्चासावाकपुरं, समर्पितं च प्राभृतं राजा, द्वितीये चा
हयाककुमारस्पति, कथितं च यथासंदिष्टं, तेनाप्येकान्ते स्थिखा निरूपिता प्रतिमा, तां च निरूपयत ईहापोहविमर्शनेन समुत्पन्न
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| आर्द्रकुमार संबन्धे विशिष्ट वक्तव्यता
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-३३...], नियुक्ति: [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
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दीप अनुक्रम [७३७]
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जातिसरणं, चिन्तितं च तेन यथा-ममाभयकुमारेण महानुपकारोऽकारि सद्धर्मप्रतिबोधत इति, ततोऽसावाईक: संजातजातिस-1 रणोऽचिन्तयत्-यस्य मम देवलोकभोगैर्यथेप्सितं संपद्यमानस्तृप्ति भूत तस्थामीभिस्तुच्छैानुपैः खल्पकालीनः कामभोगैस्तृप्तिम-श विष्यतीति कुतस्त्यमिति, एतत्परिगणय्य निर्विणकामभोगो यथोचितं परिभोगमकुर्वन् राज्ञा संजातभयेन मा कचिद्यास्पति अतः पञ्चभिः शते राजपुत्राणां रक्षयितुमारेभे, आद्रेककुमारोऽप्यश्ववाहनिकया विनिर्गतः प्रधानावेन प्रपलायितः । ततथ प्रब-181 ज्यां गृह्णन् देवतया सोपसर्ग भवतोऽद्यापीति भणिखा निवारितोऽप्यसावा को राज्यं तावन्न करोति कोऽन्यो मां विहाय प्रवज्यां | ग्रहीष्यतीत्यभिसंधाय तां देवतामवगणय्य प्रबजितः। विहरनन्यदाज्यतरप्रतिमाप्रतिपन्नः कायोत्सर्गव्यवस्थितो बसन्तपुरे तया देवलोकच्युतया श्रेष्ठिदुहित्राऽपरदारिकामध्यगतया रमन्त्य(ममाणय)प मम भत्त्येवमुक्ते सत्यनन्तरमेव तत्सभिहितदेवतया त्रयोद-18 |शकोटिपरिमाणा शोभनं वृतमनयेति भणिखा हिरण्यवृष्टिर्मुक्ता, तांच हिरण्यवृष्टिं राजा गृहन देवतया सद्युत्थानतो विधृतोऽभिहितं । च तया यथा-एतद्धिरण्यजातमस्या दारिकायाः नान्यस्य कस्यचिदित्यतस्तत्पित्रा सर्व संगोपितम् , आईककुमारोऽप्यनुकूलोपसर्ग इतिमखाऽऽश्वेवान्यत्र गतः, गच्छति च काले दारिकाया वरकाः समागच्छन्ति, पृष्टौ च पितरौ तया-किमेपामागमनप्रयोजन, कथितं च ताभ्यां यथैते तव वरका इति, ततस्तयोक्तं-तात ! सत्कन्याः प्रदीयन्ते नानेकशः, दत्ता चाहं तौ यत्संबन्धि हिरण्यजातं भवद्भिगृहीतं, ततः सा पित्राऽभाणि किं त्वं तं जानीपे , तयोक्तं-तत्पादगताभिज्ञानदर्शनतो जानामीति, तदेवमसौ तत्परिज्ञानार्थ सर्वस्य भिक्षार्थिनी भिक्षां दापयितुं निरूपिता, ततो द्वादशभिर्वर्षगतेः कदाचिच्चासौ भवितव्यतानियोगेन तत्रैच 80 विहरन् समायातः, प्रत्यभिज्ञातश्च तया तत्पादचिह्नदर्शनतः, ततोऽसौ दारिका सपरिवारा तत्पृष्ठतो जगाम, आर्द्रककुमारोपि
aureturasurare.org
| आर्द्रकुमार संबन्धे विशिष्ट वक्तव्यता
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्" - अगसूत्र-२ (मूल+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-३३...], नियुक्ति: [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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सूत्रकृताओं
| देवतावचनं सरंस्तथाविधकर्मोदयानावश्यंभाविभवितव्यतानियोगेन च प्रतिभन्नस्तया सार्द्ध भुनक्ति भोगान् , पुत्रवोल्पना, आका२ श्रुतस्क- पुनराईककुमारेणासावभिहिता-साम्प्रतं ते पुत्रो द्वितीयः अहं च स्वकार्यमनुतिष्ठामि, तया सुतच्युत्पादनार्थ कासकर्तनमारब्धं, ध्ययन. न्धे शीला- पृष्टा चासौ बालकेन-किमबैतद्भवत्या प्रारब्धमितरजनाचरितं , ततोऽसाववोचद्-यथा तव पिता प्रबजितुकामः त्वं चाद्यापि कीयावृत्तिः शिशुरसमर्थोजिने ततोऽहमनाथा स्त्रीजनोचितेनानिन्येन विधिनात्मानं भवन्तं च किल पालयिष्यामीत्येतदालोच्येदमारब्ध૨૮૮ાા
|| मिति । तेनापि बालकेनोत्पन्नप्रतिभया तत्कर्तितसूत्रेणव कार्य मद्धो यास्थतीति मन्मनभाषिणोपविष्ट एवासौ पिता परिवेष्टितः,
| तेनापि चिन्तितं-यावन्तोऽमी बालककृतबेष्टनतन्तवस्तावन्त्येव वर्षाणि मया गृहे स्थातव्यमिति, निरूपिताश्च तन्तवो यावद् द्वादश 1 तावन्त्येव वर्षाण्यसौ गृहवासे व्यवस्थितः, पूर्णेषु च द्वादशसु संवत्सरेषु गृहानिर्गतः प्रत्रजितश्चेति । ततोऽसौ सूत्रार्थनिष्पन्न एका18 किविहारेण विहरन् राजगृहाभिमुखं प्रस्थितः, तदन्तराले च तद्रक्षणार्थ यानि प्राक पित्रा निरूपितानि पञ्च राजपुत्रशतानि तसि-18 18 नश्वेन नष्टे राजभयाद्विलक्ष्याच न राजान्तिकं जग्मुः, तत्राटवीदुर्गे चौर्येण वृत्ति कल्पितवन्तः, तैवासौ दृष्टः प्रत्यभिज्ञातच, ते 8 |च तेन पृष्टाः-किमिति भवद्भिरेवंभूतं कर्माश्रितं , तैश्च सर्व राजभयादिकं कथितम् , आईककुमारवचनाच संबुद्धाः प्रबजिताय ।। तथा राजगृहनगरप्रवेशे गोशालको हस्तितापसाः ब्राह्मणाश्च वादे पराजिताः । तथाककुमारदर्शनादेव हस्ती बन्धनाद्विमुक्ता, ते च हस्तितापसादय आर्द्रककुमारधर्मकथाक्षिप्ता जिनवीरसमवसरणे निष्क्रान्ताः । राज्ञा च विदितवृत्तान्तेन महाकुतूहलापूरित
। ३८८॥ हदयेन पृष्टो-भगवन् ! कथं बद्दर्शनतो हस्ती निरर्गलः संवृत्त इति ?, महान् भगवतः प्रभाव इत्येवमभिहितः सन्नाककुमारोन|वीत् नवमगाथयोत्तरं-न दुष्करमेतषनरपाशर्बद्धमत्तवारणस्य विमोचनं वने राजन् ! एतत्तु मे प्रतिभाति दुष्करं यश्चतत्रावलितेन
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अनुक्रम [७३७]
| आर्द्रकुमार संबन्धे विशिष्ट वक्तव्यता
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक -, मूलं [गाथा-१], नियुक्ति: [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[०२, अंग सूत्र-[२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
అలవాట
प्रत सूत्रांक ||१||
दीप
!! सन्तुना बद्धस्य मम प्रतिमोचनमिति । स्नेहतन्तवो हि जन्तूनां दुरुच्छेदा भवन्तीति भावः । गतमार्द्रककथानकम् , नामनिष्पन्न-131 निक्षेपश्च । तदनन्तरं सूत्रानुगमेस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुगारपितब्ध, तच्चेदम् ---
पुराकडं अह ! इमं सुणेह, मेगंतयारी समणे पुरासी । से भिक्खुणो उवणेत्ता अणेगे, आइक्षतिहि पुढो वित्थरेणं ॥१॥ साऽऽजीविया पट्टविताऽधिरेणं, सभागओ गणओ भिक्खुमज्झे । आइक्खमाणो बहुजन्नमत्थं, न संधयाती अवरेण पुर्व ॥२।। एगंतमेवं अदुवा विहर्णिह, दोऽवण्णमन्नं न समेति जम्हा । सूत्रं यथा गोशालकेन सार्द्ध वादोऽभूदाककुमारस्य तथाऽनेनाध्ययनेनोपदिश्यते, तं च राजपुत्रकमाईककुमार प्रत्येकबुद्ध भगव-181 समीपमागच्छन्तं गोशालकोववीत्-यथा हे आर्द्रक ! यदहं ब्रवीमि तच्छृणु-'पुरा' पूर्व यदनेन भवत्तीर्थकृता कृतं, तचेद-11%81 मिति दर्शयति -एकान्ते जनरहिते-प्रदेशे चरितुं शीलमवेत्येकान्तचारी, तथा धाम्यतीति श्रमणः पुराऽऽसीत्तपश्चरणोयुक्तः, साम्प्रतं | तूप्रैस्तपवरणविशेषनिर्भसितो मां विहाय देवादिमध्यगतोऽसौ धर्म किल कथयति, तथा 'बहून्' भिक्षून् 'उपनीय' प्रभूतशि-12 प्यपरिकर कृखा भवद्विधानां च मुग्धजनानामिदानी पृथक् पृथग्विस्तरेणाचष्टे धर्ममिति शेषः ॥१॥ पुनरपि गोशालक एव | 'साजीविए'त्याचाह, येयं बहुजनमध्यगतेन धर्मदेशना युष्मद्गुरुणाऽऽरब्धा साऽऽजीविका प्रकर्षेण स्थापिता प्रस्थापिता, एकाकी विहरंल्लोकिकैः परिभूयत इतिमला लोकपक्लिनिमित्तं महान् परिकरः कृतः, तथा चोच्यते-"छत्र छात्रं पात्र वसं यष्टि च चर्च-| यति भिक्षुः । वेषेण परिकरेण च कियताऽपि विना न भिक्षापि ॥ १॥" तदनेन दम्भप्रधानेन जीविकार्थमिदमारब्धं । किंभू-19 तेन ?-अस्थिरेण, पूर्व अयं मया साईमेकाक्यन्तप्रान्ताशनेन शून्यारामदेवकुलादी वृत्ति कल्पितवात् , न च तथाभूतमनुष्ठानं |
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अनुक्रम [७३८]
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| आर्द्रकुमार संबन्धे विशिष्ट वक्तव्यता, मूलसूत्रस्य आरम्बः:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक -, मूलं [गाथा-३], नियुक्ति: [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||३||
दीप अनुक्रम [७४०]
सूत्रकृताङ्गे 18|सिकताकवलवचिरास्वाद यावजीवं कर्तुमलम् अतो मां विहायायं बहून् शिष्यान् प्रतावंभूतेन स्फटाटोपेन विहरतीत्यतः कर्तव्ये 18|| आर्द्रका२ श्रुतस्क- 'अस्थिरः चपला, पूर्वचर्यापरित्यागेनापरकल्पसमाश्रयात् , एतदेव दर्शयति-'सभायां गतः सदेवमनुजपर्षदि व्यवस्थितो
ध्ययन. न्धे शीला
| 'गणओ'त्ति गणशो यहुशोऽनेकश इतियावत् भिक्षणांमध्ये 'गतो' व्यवस्थित आचक्षाणो बहुजनेभ्यो हितः अर्थों बहुजन्योऽर्थ-18 दीयावृत्तिः
स्तमर्थ बहुजनहितं कथयन् विहरति, एतच्चास्यानुष्ठानं पूर्वापरेण न संधत्ते, तथाहि-यदि साम्प्रतीयं वृत्तं प्राकारत्रयसिंहासनाशो॥३८॥18कवृक्षभामण्डलचामरादिकं मोक्षाङ्गमभविष्यत्ततो या प्राक्तन्येकचर्या लेशबहुलाऽनेन कृता सा क्लेशाय केवलमस्पेति, यदि सा कर्म
निर्जरणहेतुका परमार्थभूता ततः साम्प्रतावस्था परप्रतारकबादम्भकल्पेत्यतः पूर्वोत्तरयोरनुष्ठानयोः-मौनव्रतिकधर्मदेशनारूपयोः। परस्परतो विरोध इति ॥२॥ अपिच-ययेकान्तचारित्वमेव शोभनं पूर्वमाश्रितत्वात् ततः सर्वदान्यनिरपेक्षस्तदेव कर्तव्यम् , अथ ||१!
चेदं साम्प्रतं महापरिवारवृतं साधुं मन्यसे ततस्तदेवादावप्याचरणीयमासीद्, अपिच वे अप्येते छायातपवदत्यन्तविरोधिनी वृत्ते 18 नैकत्र समवायं गच्छतः, तथा यदि मौनेन धर्मस्ततः किमियं महता प्रबन्धेन धर्मदेशना, अथानयैव धर्मस्ततः किमिति पूर्व मौनव्रतमनेनाललम्बे', यस्मादेवं तस्मात्पूर्वोत्तरच्याहतिः । तदेवं गोशालकेन पर्यनुयुक्त आईककुमारः श्लोकपश्चार्द्धनोत्तरदानायाह
पुद्धिं च इहि च अणागतं वा, एगंतमेवं पडिसंधयाति ॥ ३ ॥ समिच लोगं तसथावराणं, खेमंकरे समणे माहणे वा । आइक्खमाणोवि सहस्समझे, एगतयं सारयती तहाचे ॥४॥ धम्मं कहतस्स उ णधि दोसो,
॥३८९॥ खंतस्स दंतस्स जितिंदियस्स । भासाय दोसे य विचजगस्स, गुणे य भासाय णिसेवगस्स ॥५॥ महबए पंच अणुचए य, तहेव पंचासव संवरे य । विरतिं इहस्सामणियंमि पन्ने, लवावसकी समणेत्तिवेमि ॥६॥ सूत्रं
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक -, मूलं [गाथा-६], नियुक्ति: [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||६||
दीप
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'पूर्व पूर्वसिन्काले यन्मौनवतिकत्व या चैकचर्या तच्छद्मस्थत्वा घातिकर्मचतुष्टयक्षयार्थ, साम्प्रतं यन्महाजनपरिवृतस्य धर्मदेशना || विधानं तत्प्रारबद्धभवोपवाहिकर्मचतुष्टयक्षपणोद्यतस्य विशेषतस्तीर्थकरनाम्नो वेदनार्थ अपरासां चोर्गोत्रशुभापुर्नामादीनां शुभप्रकतीनामिति । यदिवा पूर्व साम्प्रतमनागते च काले रागद्वेषरहितत्वादेकत्वभावनानतिक्रमणाचैकत्वमेवानुपचरितं भगवानशेषजनहितं धर्म कथयन् प्रतिसंदधाति, न तस्य पूर्वोत्तरयोरवस्थयोराशंसारहितत्वा दोस्ति, अतो यदुच्यते भवता-पूर्वोत्तरयोरवस्थयोरसाङ्गत्यं तत् प्लवत इति ॥३॥ यादेतद्-धर्मदेशनया प्राणिनां कश्चिदुपकारो भवत्युत नेति ?, भवतीत्याह-'समिच लोय' मित्यादि, सम्यग| यथावस्थित 'लोक' पइद्रव्यात्मकं 'मत्वा' अवगम्य केवलालोकेन परिच्छिद्य त्रस्यन्तीति प्रसा:-त्रसनामकर्मोदया द्वीन्द्रियादयः,
तथा तिष्ठन्तीति स्थावरा:-स्थावरनामकर्मोदयात्स्थावराः पृथिव्यादयस्तेषामुभयेषामपि जन्तूनां 'क्षेम' शान्तिः रक्षा तत्करणशील: | क्षेमकरः श्राम्यतीति श्रमणो द्वादशप्रकारतपोनिष्टतदेहः, तथा मा हणत्ति प्रवृत्तिर्यस्थासौ माहनो ब्राह्मणो या स एवंभूतो 'निर्म
मो' रागद्वेषरहितः प्राणिहितार्थ न लाभपूजाख्यात्यर्थ धर्ममाचक्षाणोऽपि प्राम्बत् छद्मस्थावस्थायां मौनव्रतिक इव वाक्संयत एव, उत्पन्नदिव्यज्ञानत्वादापागुणदोषविवेकज्ञतया भाषणेनेव गुणावाप्तेः, अनुत्पन्नदिव्यज्ञानस्य तु मौनप्रतिकत्येनेति, तथा देवासुरनरतिर्यक्सहस्रमध्येऽपि व्यवस्थितः पङ्काधारपङ्कजवत्तदोषव्यासङ्गाभावान्ममत्वविरहादाशंसादोपविकलवादेकान्तमेवासी 'सारयति' प्रख्याति नयति साधयतीतियावत् । ननु चैकाकिपरिकरोपेतावस्खयोरस्ति विशेषः, प्रत्यक्षेणैवोपलभ्यमानत्वात् , सत्यम् , अस्ति विशेषो बाद्यतो न त्वान्तरतोपि, दर्शयति-'तथा' प्राग्वदर्चा-लेश्या शुक्लध्यानाख्या यस्य स तथाः, यदिवा अर्चा-शरीरं तच्च प्राग्वद्यस्य स तथाः, तथाहि-असावशोकाद्यष्टप्रातिहार्योपेतोऽपि नोत्सेकं याति, नापि शरीर संस्कारायत्तं विदधाति, स हि
अनुक्रम [७४३]
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक -, मूलं [गाथा-६], नियुक्ति: [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
आर्द्रकाध्ययन.
प्रत सूत्रांक ||६||
दीप अनुक्रम [७४३]
मनकता भगवानात्यन्तिकरागद्वेषप्रहाणादेकाक्यपि जनपरिवृतोऽप्येकाकी, न तस्य तयोरवस्थयोः कश्चिद्विशेोऽस्ति, तथा चोक्तम्-"रागद्वेषी २ श्रुतस्क- विनिर्जित्य, किमरण्ये करिष्यसि । अथ नो निर्जितावेती, किमरण्येकरिष्यसि ॥१॥" इत्यतो बाबमनङ्गमान्तरमेव कषायज- न्धे शीला-
Iयादिकं प्रधानं कारणमिति स्थितम् ।। ४ ।। अपगतरागद्वेषस्य प्रभापमाणस्यापि दोषाभावं दर्शयितुमाह-तस्य भगवतोऽपगतपनघा-18 कीयावृत्तिः तिकलङ्कस्योत्पन्नसकलपदार्थावि विज्ञानस्य जगदभ्युद्धरणप्रवृत्तस्पैकान्तपरहितप्रवृत्तस्य खकार्यनिरपेक्षस्य धर्म कथयतोऽपि ॥३९ ॥
तुशब्दस्यापिशब्दार्थत्वात् नास्ति कविदोषः । किंभूतस्येत्याह-क्षान्तस्य शान्तिसंपन्नस्यानेन क्रोधनिरासमाह, तथा 'दान्तस्य' | उपशान्तस्पानेन तु मानव्युदासं, तथा जितानि स्वविषयप्रवृत्तिनिषेधेनेन्द्रियाणि येन स जितेन्द्रियो वश्येन्द्रियोऽनेन तु | लोभनिरासमाचष्टे, मायायास्तु लोभनिरासादेव निरासो द्रष्टव्यः, तन्मूलत्वात्तस्याः, भाषाया दोषा-असत्यासत्यामृपा-18 | कर्कशासभ्यशब्दोचारणादयस्तद्विवजेकस्य-तत्परिहर्तुंस्तथा भाषाया ये गुणा-हितमितदेशकालासंदिग्धभाषणादयस्तभिषेषकस्य ४ | सतो बुबतोऽपि नास्ति दोषः, छमस्थस्य हि बाहुल्येन मौनव्रतमेव श्रेयः, समुत्पत्रकेवलस्य तु भाषणमपि गुणायेति ॥५॥ | किंभूतं धर्ममसी कथयतीत्याह 'महब्बए पंचे'त्यादि, महान्ति च तानि व्रतानि-प्राणातिपातविरमणादीनि तानि च साधूनां | प्रज्ञापितवान् , पश्चापि तदपेक्षयाऽणूनि-लघूनि ब्रतानि अणुव्रतानि पश्चैव तानि श्रावकानुद्दिश्य प्रज्ञापितवान , पश्चाश्रयान्प्राणातिपातादिरूपान् कर्मणः प्रवेशद्वारभूतान् तत्संबरं च सप्तदशप्रकारं संयम प्रतिपादितवान , संवरवतो हि विरतिर्भवतीत्यतो विरतिं च प्रतिपादितवान् चशब्दात्तत्फलभूती निर्जरामोक्षौ च, 'इह' अस्मिन्प्रवचने लोके वा श्रमणभावः श्रामण्यं-संपूर्णसं| यमस्तमिन् वा विधेये मूलगुणान्-महाव्रताणुव्रतरूपान् तथोत्तरगुणान्-संवरविरत्यादिरूपान् 'पूर्ण कृत्स्ने संयमे विधातथ्ये 'प्राज्ञ'
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॥३९०॥
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आगम
(०२)
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दीप
अनुक्रम
[७४३]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-६], निर्युक्तिः [२००]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
| इति वा कचित्पाठः, प्रज्ञावानेतत्प्रतिपादितवानिति । किंभूतोऽसौ ? - लवं कर्म तस्माद् 'अवसक्कर'ति अवसर्पणशीलोऽवसप श्राम्यतीति श्रमणः - तपश्चरणयुक्त इत्येतदहं ब्रवीमि स्वयमेव च भगवान्पञ्च महाव्रतोपपन्न इन्द्रियनोइन्द्रियगुप्तो विरतवासी लवावसप्पी सन् स्वतोऽन्येषामपि तथाभूतमुपदेशं दत्तवानित्येतद् ब्रवीमीति । यदिवाऽऽर्द्धककुमारवचनमाकर्ण्यासौ गोशालकस्तत्यतिपक्षभूतं अर्थ वक्तुकाम इदमाह - इत्येतद्वक्ष्यमाणं यदहं ब्रवीमि तच्छृणु । समिति ॥ ६ ॥ यथाप्रतिज्ञातमेवाह गोशालक :सीओदगं सेव बीयकार्य, आहायकम्मं तह इत्थियाओ। एगंतचारिस्सिह अम्ह धम्मे, तबस्सिणो णाभिसमेति पावं ॥ ७ ॥ सीतोद्गं वा तह बीयकार्य, आहायकम्मं तह इत्थियाओ। एयाई जाणं पडिसेवमाणा, अगारिणो अस्समणा भवंति ॥ ८ ॥ सिया य बीओदग इत्थियाओ, पडिसेवमाणा समणा भवंतु। अगारिणोऽवी समणा भवंतु, सेवंति उ तंवि तहष्पगारं ॥ ९ ॥ जे यावि बीओदगभोति भिक्खू, भिक्खं विहं जायति जीविथट्टी । ते णातिसंजोगमविष्पहाय, कायोवगा अंतकरा भवंति ॥ १० ॥ भवतेदमुग्राहितं - परार्थं प्रवृत्तस्याशोकादिप्रातिहार्यपरिग्रहस्तथा शिष्यादिपरिकरो धर्मदेशना च न दोषायेति यथा तथाऽसाकमपि सिद्धान्ते यदेतद्वक्ष्यमाणं तन्न दोषायेति । शीतं च तदुदकं च शीतोदकम् - अप्रासुकोदकं तत्सेवनं परिभोगं करोतु, तथा वीजकायोपभोगमा धाकर्माश्रयणं स्त्रीप्रसङ्गं च विदधातु, अनेन च खपरोपकारः कृतो भवतीत्यसदीये धर्मे प्रवृत्तस्य 'एकान्तचारिणः' आरामोद्यानादिष्वेका किविहारोद्यतस्य तपखिनो 'नाभिसमेति' न संबन्धमुपयाति 'पापम्' अशुभकर्मेति, इदमुक्तं भवति एतानि शीतोदकादीनि यद्यपी पत्कर्मबन्धाय तथापि धर्माधारं शरीरं प्रतिपालयत एकान्तचारिणस्तपखिनो बन्धाय न
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-१०], नियुक्ति: [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
न्धे शीला-
च्छ्रमणलक्षण
||१०||
दीप अनुक्रम [७४७]
मत्रताले भवन्तीति ।। ७॥ एतत्परिहतुकाम आह-'सीतोदग'मित्यादि, 'एतानि' प्रागुपन्यस्तानि अप्रासुकोदकपरिभोगादीनि प्रति-8 आईका२ श्रुतस्क
| सेवन्तोऽगारिणो-गृहस्थास्ते भवन्ति अश्रमणाश्च-अप्रवजिताश्चैवं जानीहि, यतः-'अहिंसा सत्यमस्तेयं, ब्रह्मचर्यमलुब्धता' इत्येत्त- ध्ययन.
|च्छ्रमणलक्षणं, तचैषां शीतोदकवीजाऽऽधाकर्मस्त्रीपरिभोगवतां नास्तीत्यतस्ते नामाकाराभ्यां श्रमणा न परमार्थानुष्ठानत इति ॥८॥ कीयावृतिः
पुनरप्याक एवैतहूषणायाह-स्थादेतद्भवदीयं मत-यथा ते एकान्तचारिणः क्षुत्पिपासादिप्रधानतपश्चरणपीडिताच तत्कथं ते न ॥३९१॥
तपखिन इत्येतदाशवाईक आह-यदि बीजाद्युपभोगिनोऽपि श्रमणा इत्येवं भवताऽभ्युपगम्यते एवं तीगारिणोऽपि-गृहस्थाश्रमणा भवन्तु, तेषामपि देशिकावस्थायामासावतामपि निष्किश्चनतर्यकाकिविहारिवं क्षुत्पिपासादिपीडनं च संभाव्यते । अत आह'सेवंति उ तुरवधारणे सेवन्त्येव 'तेऽपि' गृहस्थास्तथाप्रकारमेकाकिविहारादिकमिति ॥ ९॥ पुनरप्याको बीजोदकादिभो-10
जिनां दोषाभिधित्सयाऽह-जे यावी'त्यादि, ये चापि 'भिक्षवः प्रबजिता वीजोदकभोजिनः सन्तो द्रव्यतो ब्रह्मचारिणोऽपि || भिक्षा चाटन्ति जीवितार्थिनस्ते तथाभूता 'ज्ञातिसंयोग' खजनसंबन्धं विप्रहाय'त्यक्खा कायान् कायेषु वोपगच्छन्तीति
कायोपगास्तदुपमईकारम्भप्रवृत्तवात् संसारस्यानन्तकरा भवन्तीति, इदमुक्तं भवति-केवलं स्त्रीपरिभोग एव तैः परित्यक्तोऽसावपि द्रव्यतः, शेषेण तु बीजोदकाद्युपभोगेन गृहस्थकल्पा एव ते, यत्तु भिक्षाटनादिकमुपन्यस्त तेषां तद्गृहस्थानामपि केषाश्चित्संभा| व्यते, नैतावता श्रमणभाव इति ॥१०॥ अधुनैवदाकर्ण्य गोशालकोऽपरमुत्तरं दातुमसमर्थोऽन्यतीथिकान्सहायान् विधाय
101॥३९॥ सोल्लुण्ठमसारं वक्तुकाम आह- इमं वयं तु तुम पाउकुवं, पावाइणो गरिहसि सब एव । पावाइणो पुढो कियंता, सयं सयं दिवि करेंति
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-११], नियुक्ति: [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
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दीप अनुक्रम [७४८]
पाज ॥ ११॥ ते अन्नमन्नस्स उ गरहमाणा, अक्खंति भो समणा माहणा य । सतो य अस्थी असतो य पत्थी, गरहामो दिढि ण गरहामो किंचि ॥ १२॥ ण किंचि रूवेणऽभिधारयामो, सदिहिमग्गं तु करेमु पाउं । मग्गे इमे किहिए आरिएहिं, अणुत्तरे सप्पुरिसेहिं अंजू ॥ १३॥ उर्दू अहेयं तिरिय दिसासु, तसा य जे धावर जे य पाणा । भूयाहिसंकाभि दुगुंछमाणा, णो गरहती बुसिमं किंचि लोए ॥ १४ ॥ (म०) 'इमां' पूर्वोक्तां वाचं तुशब्दो विशेषणार्थः ख 'प्रादुष्कुर्वन् प्रकाशयन् सर्वानपि प्रावादुकान् 'गर्हसि जुगुप्ससे, यसा(त्सर्वेऽपि तीथिका बीजोदकादिभोजिनोऽपि संसारोच्छित्तये प्रवर्तन्ते, ते तु भवता नाभ्युपगम्यन्ते, ते तु प्रावादुकाः पृथक् पृथक् । खीयां स्वीयां दृष्टिं प्रत्येकं वदर्शनं कीर्तयन्तः 'प्रादुष्कुर्वन्ति' प्रकाशयन्ति । यदिवा श्लोकपबार्द्धमाककुमार आह-सर्वेऽपि % प्रावादुका यथावस्थित खदर्शनं प्रादुरकुर्वन्ति, तत्प्रामाण्याच वयमपि स्वदर्शनाविभावनं कुर्मः, तथाहि-अप्रासुकेन बीजोदका| दिपरिभोगेन कर्मबन्ध एव केवलं न संसारोच्छेद इतीदमसदीयं दर्शनम् , एवं व्यवस्थिते कात्र परनिन्दा को वाऽऽत्मोत्कर्ष इति ।
॥११॥ किं च--'ते अण्णमण्णस्से'त्यादि, 'ते' प्रावादुकाः 'अन्योऽन्यस्य' परस्परेण तु खदर्शनप्रतिष्ठाशया परदर्शनं गह|माणाः खदर्शनगुणानाचक्षते, तुशब्दात्परस्परतो व्याहतमनुष्ठानं चानुतिष्ठन्ति, ते च 'श्रमणा' निग्रन्धादयो 'ब्राह्मणा'द्विजा| तयः सर्वेऽप्येते वकं पदं समर्थयन्ति परकीयं च दुपयन्ति । तदेव पश्चाद्धेन दर्शयति-'खत' इति खकीये पक्षे स्वाभ्युपग-|| K मेऽस्ति पुण्यं तत्कार्य च खर्गापवर्गादिकमस्ति, अवतश्च-पराभ्युपगमाच नास्ति पुण्यादिकमित्येवं सर्वेऽपि तीथिकाः परस्परच्या-18
घातेन प्रवृत्ताः, अतो वयमपि यथावस्थिततचनरूपणतो युक्तिविकलखादेकान्तदृष्टिं 'गहोमो'जुगुप्सामो-न बसावेकान्तो
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-१४], नियुक्ति: [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
आर्द्रकाध्ययन,
प्रत सूत्रांक ||१४||
दीप अनुक्रम [७५१]
सूत्रकताओं यथावस्थिततत्त्वाविर्भावको भवतीति, एवं च व्यवस्थिते तचस्वरूपं वयमाचक्षाणा न कंचिद्गर्हामः काणकुण्टोघट्टनादिप्रकारेण, २ श्रुतस्क-18 केवलं खपरखरूपाविर्भावनं कुर्मो, न च वस्तुस्वरूपाविर्भावने परापवादः, तथा चोक्तम्-नित्रनिरीक्ष्य बिलकण्टककीटसर्पान , न्धे शीला-19 सम्यक पथा बजेति तान्परिहत्य सर्वान् । कुज्ञानकुथुतिकुमार्गकुदृष्टिदोषान् , सम्यग्विचारयत कोऽत्र परापवाद: ॥१॥" इत्यादि। कीयात्तः यदियकान्तवादिनामेव-अस्त्येव नास्त्येव नित्यमेवानित्यमेव सामान्यमेव विशेषा एवेत्याद्यभ्युपगमवतामयं-परस्परगोरुपो दोषो, 11३९२।।
नासाकमनेकान्तवादिनां, सर्वेस्थापि सदसदादेः कथञ्चिदभ्युपगमात् । एतदेव श्लोकपधार्दैन दर्शयति-'स्वत' इति, खद्रव्यक्षे[त्रकालभावरस्ति, तथा 'परत' इति परद्रव्यादिभिनास्तीत्येवं पराभ्युपगभं दूषयन्तो गहोमोऽन्यानेकान्तवादिनः, तत्खरूपनिरूपण| तस्तु रागद्वेषविरहान किश्चिदर्हाम इति स्थितम् ।। १२॥ एतदेव स्पष्टतरमाह-न कश्चन श्रमणं ब्राह्मण वा स्वरूपेण-जुगुप्सिवाङ्गावयवोद्घटनेन जात्या तल्लिङ्गग्रहणोघट्टनेन वा 'अभिधारयामो' गर्हणाबुढ्योद्घयामः, केवलं 'स्वदृष्टिमार्ग' तदभ्युपगतं दर्शनं 'प्रादुष्कुर्मः' प्रकाशयामः, तद्यथा-"ब्रह्मा लूनशिरा हरिशि सरुग्न्यालुप्तशिश्नो हरः, सूर्योऽप्युलिखितोऽनलोऽप्पखिलभु
क् सोमः कलकादितः । खनाथोऽपि विसंस्थुलः खलु वपुःसंस्वरुपस्थैः कृतः, सन्मार्गस्खलनाद्भवन्ति विपदः प्रायः प्रभूणामपि 18|॥१॥"इत्यादि । एतच तैरेव वागमे पापठ्यते वयं तु श्रोतारः केवलमिति । आर्द्रककुमार एव परपक्षं दूषयिता स्वपक्षसाध
नार्थ श्लोकपश्चार्द्धनाह-अयं 'मार्गः' पन्थाः सम्यग्दर्शनादिकः 'कीर्तितो' व्यावर्णितः, कै?-'आय' सर्वस्त्याज्यधर्मदूरवतिभिः, किंभूतो धर्मो ? नामादुत्तर:-प्रधानो विद्यत इत्यनुत्तरः पूर्वापराव्याहतखायथावस्थितजीवादिपदार्थखरूपनिरूपणाच, १ अजत प्र० कियाऽभिव्याहारे तवलयः उद्धा । २ काण कुन्टादि।
Saa02030203020363
॥३९॥
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-१४], नियुक्ति: [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
||१४||
दीप अनुक्रम [७५१]
H|| किंभूतैराय: -सन्तश्च ते पुरुषाश्च सत्पुरुषास्तैश्चतुर्विंशदतिशयोपेतैराविर्भूतसमस्तपदार्थाविर्भावकदिव्यज्ञानः, किंभूतो मार्गों ?-13॥
'अंजू व्यक्तः निर्दोषत्वात्प्रकटः ऋजुर्वा वकान्तपरित्यागादकुटिल इति ॥१३॥ पुनरपि सद्धर्मस्वरूपनिरूपणायाह-'उहुं अहे-18 यमित्यादि, ऊर्वमधस्तियक्ष्वेवं सर्वाखपि दिक्षु प्रज्ञापकापेक्षया भावद्गिपेक्षया वा तासु ये वसा ये च स्थावराः प्राणिनः |
चशब्दो खगतानेकभेदसंसूचकी, 'भूत' सद्भूतं तथ्यं तत्राभिशङ्कया-तध्यनिर्णयेन प्राणातिपातादिकं पातकं जुगुप्समानो गहे-18 18माणो वा यदिवा भूताभिशया प्राण्युपमर्दशङ्या सर्वसावद्यमनुष्ठानं जुगुप्समानो नैवापरलोक कश्चन गर्हति निन्दति 'बुसि-18
मति संयमवानिति । तदेवं रागद्वेषवियुक्तस्य वस्तुखरूपाविर्भावने न काचिद्गति, अथ तत्रापि गहरे भवति न त ष्णोऽग्निः शीतमुदकं विषं मारणात्मकमित्येवमादि किञ्चिद्वस्तुखरूपमाविर्भावनीयमिति ॥ १४ ॥ स एवं गोशालकमतानुसारी त्रैराशिको निराकृतो पुनरन्येन प्रकारेणाह
आगंतगारे आरामगारे, समणे उ भीते ण उवेति वासं । दक्खा हु संती बहवे मगुस्सा, ऊणातिरित्ता य लवालवा य ॥१५॥ महाविणो सिक्खिय बुद्धिमंता, मुत्तेहि अत्थेहि य णिच्छयन्ना । पुछिसु मा णे अणगार अन्ने, इति संकमाणो ण उवेति तत्थ ॥१६॥णो कामकिचा ण य बालकिचा, रायाभिओगेण कुओ भएणं । वियागरेज पसिणं नवावि, सकामकिचेणिह आरियाणं॥ १७॥ गंता च तत्था अदुवा अगंता, वियागरेजा समियासुपन्ने । अणारिया दंसणओ परित्ता, इति संकमाणो ण उवेति तत्थ ॥१८॥ (सू०)
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-१८], नियुक्ति: [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||१८||
दीप
सूत्रकृताङ्गेस विप्रतिपन्नः सन्नाईकमेवमाह-योऽसौ भवत्संबन्धी तीर्थकरः स रागद्वेषभययुक्तः, सथाहि-असावागन्तुकानां कार्पटि- आईका२ श्रुतस्क- कादीनामगारमागन्तागार तथायामेऽगारमारामागारं तत्रासौ 'श्रमणों' भवत्तीर्थकरः, तुशब्द एवकारार्थे, भीत एवासौ तदप-1॥ध्ययन, न्धे शीला- धंसनभयात् 'तत्र' आगन्तागारादौ 'नवासमुपैति' न तत्रासनखानशयनादिकाः क्रियाः कुरुते । किं तत्र भयकारणमिति ।। झीयावृत्तिः
चेत्तदाह-'दक्षाः' निपुणाः प्रभूतशाखविशारदाः, हुशब्दो यस्मादर्थे, यसाबहवः सन्ति मनुष्याः तस्मादसौ तद्भीतो न वासं | ॥३९३॥
| तत्र समुपैति-न तत्र धासमातिष्ठते । किंभूता: ?-'न्यूना: खतोऽवमा हीना जाल्याचतिरिक्ता वा ताभ्यां पराजितस महाश्छायाभ्रंश इति । तानेव विशिनष्टि लपन्तीति लपा-वाचालाः घोषितानेकतर्कविचित्रदण्डकाः तथा अलपा-मौनवतिका निष्ठितयोगाः गुडिकादियुक्ता या यशादभिधेयविषया वागेव न प्रवर्तते ततस्तगयनासौ युष्मत्तीर्थकदागन्तागारादौ नैव ब्रजतीति
॥१५॥ पुनरपि गोशालक एवाह-'मेहाविणो' इत्यादि, मेधा विद्यते येषां ते मेधाविनो-ग्रहणधारणसमर्थाः, तथाऽऽचार्यादेः18 18 समीपे शिक्षा ग्राहिताः शिक्षिताः तथौत्पत्तिक्यादिचतुर्विधबुब्युपेता बुद्धिमन्तः, तथा 'सूत्रे' सूत्रविषये विनिधयज्ञाः तथा अर्थ-18||
विषये च निश्चयज्ञा यथावस्थितसूत्राथवेदिन इत्यर्थः । ते चैर्वभूताः सूत्रार्थविषयं मा प्रभ कार्युरन्येऽनगारा एके केचनेत्येवमसी शकमान:-तेषां विभ्यन्न 'तत्र तन्मध्ये उपैति-उपगल्छतीति, ततश्च न ऋजुर्मामः, इति भययुक्तलात्तस्य, तथा म्लेच्छविषयं गता
न कदाचिद्धर्मदेशनां च करोति, आर्यदेशेऽपि न सर्वत्र अपितु कुत्रचिदेवे त्यतो विषमरष्टिखाद्रागडेपवर्त्यसाविति ।। १६ ॥ एत-18| S| गोशालकमतं परिहतुकाम आईक आह-स हि भगवान्प्रेक्षापूर्वकारितया नाकामकृत्यो भवति, कमनं कामः-इच्छा न कामोऽ
कामस्तेन कृत्यं-कर्तव्यं यस्खासावकामकृत्या, स एवंभूतो न भवति, अनिच्छाकारी न भवतीत्यर्थः, यो झप्रेक्षापूर्वकारितया वर्तते ।
अनुक्रम [७५५]
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-१८], नियुक्ति: [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||१८||
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दीप
सोऽनिष्टमपि स्वपरात्मनोनिरर्थकमपि कृत्यं वति, भगवास्तु सर्वज्ञः सर्वदर्शी परहितैकरतः कथं खपरात्मनोनिरुपकारकमेयं IS कुर्यात् , तथा च बालखेव कृत्यं यस्य स बालकृत्यो, न चासौ बालबदनालोचितकारी, न परानुरोधानापि गौरवाद्धर्मदेशना
दिकं विधने अपितु यदि कस्यचिद्भव्य सत्वस्योपकाराय तद्भाषितं भवति ततः प्रवृत्तिर्भवति, नान्यथा, तथा न राजा|भियोगेनासौ धर्मदेशनादौ कश्चित्प्रवर्तते, ततः कुतस्तस्य मयेन प्रवृत्तिः स्यादित्येवं व्यवस्थिते केनचित्कचित्सं-16 शयकृतं प्रश्नं च्यागृणीयाद् यदि तस्योपकारो भवति, उपकारमन्तरेण 'न च' नैव व्यागृणीयाद्, यदिवाऽनुत्तरसुराणां मनःपर्यायज्ञानिनां च द्रव्यमनसैव तनिर्णयसंभवादतो न व्यागृणीयादित्युच्यते । यदप्युच्यते भवता-यदि वीतरागोऽसौ 8॥ किमिति धर्मकां करोतीति चेदित्याशङ्कयाह-'खकामकृत्येन' खेच्छाचारिकारितयाऽसावपि तीर्थकुनामकर्मणः क्षपणाय न यथाकथंचिद्, अतोऽसावग्लानः 'इह' असिन्संसारे आर्यक्षेत्रे वोपकारयोग्ये, आर्याणां सर्वहेयधर्मदूरवर्तिनां तदुपकाराय धर्मदेशनां व्यागृणीयादसाविति ।। १७ ॥ किंचान्यत्-'गते'त्यादि, स हि भगवान् परहितैकरतो गखापि विनेयासनमथवाऽप्यगखा यथा यथा भव्यसत्त्वोपकारो भवति तथा तथा भगवन्तोर्हन्तो धर्मदेशनां विदधति, उपकारे सति गखापि कथयन्त्यसति तु स्थिता अपि न कथयन्तीत्यतो न तेषां रागद्वेषसंभव इति, केवलमाशुप्रज्ञ-सर्वज्ञः 'समतया' समदृष्टितया चक्रवर्तिद्रमकादिषु | पृष्टोऽपृष्टो वा धर्म व्यागृणीयात् 'जहा पुण्णस्स कत्थइ तहा तुलस्स कत्थई' इति वचनादित्यतो न रागद्वेषसद्भावस्तस्येति । यत्पु
नरनार्यदेशमसौ न ब्रजति तत्रेदमाह-अनार्याः क्षेत्रभाषाकर्मभिर्वहिष्कृता दर्शनतोऽपि परि-समन्तादिता:-गताः प्रभ्रष्टा इतिहै यावत् । तदेवमसौ भगवानित्येतनेषु सम्यग्दर्शनमात्रमपि कथञ्चिन्न भवतीत्याशङ्कमानस्तत्र न बजतीति । यदिवा-अविपरीत-18
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अनुक्रम [७५५]
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-१८], नियुक्ति: [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
आईकाध्ययन.
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दीप अनुक्रम [७५५]
सूत्रहताङ्गे दर्शनाः-साम्प्रतक्षिणो दीर्घदर्शनिनो न भवन्त्यनार्याः शकयवनादयः, ते हि वर्तमानसुखमेवैकमङ्गीकय प्रवर्तन्ते न पारलौकिकम-8 २ श्रुतस्क- शीकुर्वन्त्यतः सद्धर्मपराशुखेषु तेषु भगवान याति, न पुनस्तद्वेषादिबुद्धयेति । यदप्युच्यते खया-'यथाऽनेकशाख विशारदगुडि- न्धे शीला
कासिद्धविद्यासिद्धादितीर्थिकपराभवभयेन न तत्समाजे गच्छत्ती'त्येतदपि बालप्रलपितप्रायं, यतः सर्वज्ञस्य भगवतः समस्तैरपि वीयावृत्तिः
प्रावादुकैमुखमप्यवलोकयितुं न शक्यते वादस्तु दूरोत्सादित एवेत्यतः कुतस्तत्पराभवः ?, भगवांस्तु केवलालोकेन यत्रैव स्वपरो॥३९४॥ ॥ पकारं पश्यति तत्रैव गत्वापि धर्मदेशनां विधत्त इति ॥ १८॥ पुनरन्येन प्रकारेण गोशालक आह
पन्नं जहा वणिए उदयट्ठी, आयस्स हेउँ पगरेति संग । तऊवमे समणे नायपुत्ते, इच्चेव मे होति मती वियका ॥ १९॥ नवं न कुज्जा विहुणे पुराणं, चिच्चाऽमई ताइ य साह एवं । एतोवया बंभवतित्ति वुत्ता, तस्सोदयट्ठी समणेत्तिवेमि ॥ २० ॥ समारभंते वणिया भूयगामं, परिग्गहं चेव ममायमाणा । ते णातिसंजोगमविप्पहाय, आयस्स हेर्ड पगरंति संग ॥२१॥ वित्तेसिणो मेहुणसंपगाढा, ते भोयणहा वणिया वयंति ।। वयं तु कामेसु अझोववन्ना, अणारिया पेमरसेम गिद्धा ॥२२॥ आरंभगं व परिग्गहं च, अविउस्सिया णिस्सिय आयदंडा। तेर्सि च से उदए जं वयासी, चउरंतणंताय दुहायणेह ॥२॥ गत णचंतिव ओदए सो, वयंति ते दो विगुणोदयंमि । से उदए सातिमणंतपत्ते, तमुदयं साहयह ताइ णाई ।। २४॥ अहिंसयं सवपयाणुकंपी, धम्मे ठियं कम्मविवेगहेउं । तमायदंडेहिं समायरंता, अबोहीए ते पडिरूवमेयं ॥ २५ ॥
॥३९४॥
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-२५], नियुक्ति: [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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दीप अनुक्रम [७६२]
यथा वणिक् कश्चिद् 'उदयार्थी लाभार्थी 'पण्यं' व्यवहारयोग्य भाण्डं कर्पूरागरुकस्तूरिकाम्बरादिकं गृहीखा देशान्तरं गता। विक्रीणाति, तथा 'आयस्स' लाभस 'हेतोः' कारणान्महाजनसङ्गं विधत्ते, तदुपमोऽयमपि भवत्तीर्थकरः श्रमणो ज्ञातपुत्र इत्येवं 'मे' मम मतिर्भवति, वितर्को-मीमांसा वेति ॥ १९ ॥ एवमुक्त गोशालकेनाईक आह-'नवं न कुजा इत्यादि, योऽयं भवता || | दृष्टान्त प्रदर्शितः स किं सर्वसाधम्र्येणोत देशतः, यदि देशतस्ततो न नःक्षतिमावहति, यतो वणिग्वत् यत्रैवोपचयं पश्यति || | तव क्रियां व्यापारयति न यथाकथञ्चिदित्येतावता साधर्म्यमस्त्येव, अथ सर्वसाधम्र्पण तन्त्र युज्यते, यतो भगवान् विदितवे-1
बतया सावद्यानुष्ठानरहितो 'नवं' प्रत्यग्रं कर्म न कुर्यात् , तथा 'विधूनयति अपनयति पुरातनं यद्भवोपग्राहि कमें बद्धं, तथा 8 | त्यक्सा 'अमति' विमति 'बायीं भगवान् सर्वस्व परित्राणशीलो, विमतिपरित्यागेन चैवंभूत एव भवतीति भावः, तायी वा 8 | मोक्ष प्रति, अयवयमयपयचयतयणय गतावित्यस्य रूपं, स एव-भगवानेवाह-यथा विमतिपरित्यागेन मोक्षगमनशीलो भवती-|| त्येतावता च संदर्भण ब्रह्मणो-मोक्षस्य व्रतं ब्रह्मत्रतमित्येतदुक्तं, तसिंश्चोक्ते तदर्थे चानुष्ठाने क्रियमाणे तस्योदयस्यार्थी-- लाभार्थी श्रमण इति अधीम्यहमिति ॥ २० ॥ न चैवंभूता वणिज इत्येतदाककुमारो दर्शयितुमाह-ते हि वणिजश्वतुर्दशप्रकारमपि 'भूतग्राम' जन्तुसमूह 'समारभन्ते तदुपमर्दिकाः क्रियाः प्रवयन्ति क्रयविक्रयार्थ शकटयानवाहनो|ष्ट्रमण्डलिकादिभिरनुष्ठानैरिति, तथा 'परिग्रहं द्विपदचतुष्पदधनधान्यादिकं 'ममीकुर्वन्ति' ममेदमित्येवं व्यवस्थापयन्ति, ते
हि वणिजो 'ज्ञातिभिः' खजनैः सह यः संयोगस्तम् 'अविप्रहाय' अपरित्यज्य 'आयस्य लाभस्स हेतोः' निमिचादपरेण 18सार्द्ध 'सङ्गं संबन्धं कुर्वन्ति । भगवांस्तु षड्जीवरक्षापरोऽपरिग्रहस्त्यक्तखजनपक्षः सर्वत्राप्रतिबद्धो धोऽऽयमन्वेषयन् गतापि
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-२५], नियुक्ति: [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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दीप अनुक्रम [७६२]
सूत्रकृताङ्गे || धर्मदेशनां विधत्ते, अतो भगवतो वणिग्भिः साई न सर्वसाधर्म्यमस्तीति ॥ २१ ॥ पुनरपि वणिजा दोषमुनावयमाह- आका२ श्रुतस्क- 'वित्तेसिणों इत्यादि, वित-द्रव्यं तदन्बेष्टुं शीलं येषां ते वित्तैषिणः, तथा 'मैथुने स्त्रीसंपर्के 'संप्रगाढा' अध्युपपना, न्धे शीला
| तथा ते 'भोजनार्थम् ' आहारार्थ वणिज इतश्चेतश्च ब्रजन्ति बदन्ति वा । तांस्तु वणिजो वयमेवं घूमो-यथते कामेष्वध्युपकीयावृत्तिः
| पन्ना-गृद्धाः, अनार्यकर्मकारिखादनार्या रसेषु च-सातागौरवादिषु गृद्धा-मूर्छिताः, न त्वेवंभूता भगवन्तोर्हन्तः, कथं तेषां तैः ॥३९५॥
| सह साधर्म्यमिति ?, दूरत एवं निरस्तैषा कथेति ॥ २२ ॥ किंचान्यत् -'आरम्भं सावधानुष्ठानं च तथा परिग्रहं च 'अव्यु
त्सृज्य अपरित्यज्य तस्मिन्नेवारम्भे क्रयविक्रयपचनपाचनादिके तथा परिग्रहे च-धनधान्यहिरण्यसुवर्णद्विपदचतुष्पदादिके | निश्चयेन श्रिता-अवबद्धा निःश्रिता वणिजो भवन्ति, तथाऽऽत्मैव दण्डयतीति दण्डो येषां ते भवन्त्यात्मदण्डा असदाचारप्रवृत्ते-18 | रिति, भावोऽपि चैषां वणिजा परिग्रहारम्भवतां स उदयो लाभो यदर्थ ते प्रवृत्ताः यं च सं लाभं वदसि स तेषां 'चतुरन्तः'18 | चतुर्गतिको यः संसारोऽनन्तस्तस्मै तदर्थ भवतीति, तथा दुःखाय च भवतीति, न चेहासावेकान्तेन तत्प्रवृत्तसापि भवतीति ॥२३॥ एतदेव दर्शयितुमाह-'णेगंतिणचंति इत्यादि, एकान्तेन भवतीत्येकान्तिकः, तथा न, लाभार्थ प्रवृत्तख विपर्ययस्थापि दर्शनात् , तथा नाप्यात्यन्तिकः सर्वकालभावी, तत्क्षयदर्शनात् , स तेषां उदयो-लाभोज्नैकान्तिकोऽनात्यन्तिकश्चेत्येवं तद्विदो बदन्ति । तौ च द्वावपि भावौ विगतगुणोदयौ भवतः, एतदुक्तं भवति-किं तेनोदयेन लामरूपेण योनैकान्तिकोऽनात्यन्तिकश्च, शा
| ॥३९५|| | यशानायेति । यश्च भगवतः 'से' तस्य दिव्यज्ञानप्राप्तिलक्षणः 'उदयों लाभो यो वा धर्मदेशनावाप्तनिर्जरालक्षणः स च सादि-18 | रनन्तश्च, तमेवंभूतमुदर्य प्राप्तो भगवानन्येषामपि तथाभूतमेवोदयं 'साधयति' कथयति श्लाघते वा। किंभूतो भगवान् ?-'तायी
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-२५], नियुक्ति: [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक ||२५||
दीप अनुक्रम [७६२]
'अयवयपयमयचयतयणय गता' वित्यस्य दण्डकधातोणिनिप्रत्यये रूपं, मोक्षं प्रति गमनशील इत्यर्थः, त्रायी वा आसन्नभच्यानां त्राणकरणात , तथा 'ज्ञाती' ज्ञाता:-क्षत्रिया ज्ञातं वा वस्तुजातं विद्यते यस्य स ज्ञाती, विदितसमस्तवेद्य इत्यर्थः । तदेवंभूतेन भगवता तेषां वणिजा निर्विवेकिनां कथं सर्वसाधर्म्यमिति ॥ २४ ॥ साम्प्रतं देवकृतसमवसरणपद्मावलीदेवच्छन्दकसिंहासनाधु
पभोगं कुर्वनप्याधाकर्मकृतवसतिनिषेवकसाधुवत्कथं तदनुमतिकृतेन कर्मणाऽसौ न लिप्यत इत्येतद्गोशालकमतमाशङ्कयाह101 असौ भगवान् समवसरणाघुपभोगं कुर्वनप्यहिंसका, स उपभोगं करोति, एतदुक्तं भवति-न हि तत्र भगवतो मनागष्याशंसा
प्रतिवन्धो वा विद्यते, समतृणमणिमुक्तालोष्टकाञ्चनतया तदुपभोग प्रति प्रवृत्तेः, देवानामपि प्रवचनोद्विभावयिषूणां कथं नु नाम भव्यानां धर्माभिमुखं प्रवृत्तिर्यथा सादित्येवमर्थमात्मलाभार्थं च प्रवर्तनादतोऽसौ भगवानहिंसकः, तथा सर्वेषां प्रजायन्त इति । प्रजा-जन्तवस्तदनुकम्पी च तान्संसारे पर्यटतोऽनुकम्पते भगवान् तच्छीलन तमेवरूप'धर्मे परमार्थभूते व्यवस्थित कर्मविवेकहेतुभूतं
भवद्विधा आत्मदण्डैः समाचरन्त-आत्मकल्पं कुर्वन्ति वणिगादिभिरुदाहरणः, एतच्चाबोधेः-अज्ञानस प्रतिरूपं वर्तते, एक तावदिदशमज्ञानं यत्स्वतः कुमार्गप्रवर्तन द्वितीयं चैतत्प्रतिरूपमज्ञानं यद्भगवतामपि जगद्वन्द्यानां सर्वातिशयनिधानभूतानामितरैः समलापादनमिति ॥२५।। साम्प्रतमाद्रककुमारमपहस्तितगोशालकं ततो भगवदभिमुखं गच्छन्तं दृष्ट्वाऽपान्तराले शाक्यपुत्रीया भिक्षव इदमूचुः
पिन्नागपिंडीमवि विद्ध सूले, केइ पएजा पुरिसे इमेत्ति । अलाउयं वावि कुमारएत्ति, स लिप्पती पाणिवहेण अम्हं ।। २६ ॥ अहवावि विद्रूण मिलक्खु सूले, पिन्नागवुद्धीइ नरं परजा । कुमारगं वावि अलावु१ आधाकर्मकृतवसतेर्मिषेयो बस्य स आधाकर्मकृतवसतिनिषधकः ।
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-२७], नियुक्ति: [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२, अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥३९६॥
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दीप अनुक्रम [७६४]
यंति, न लिप्पह पाणिवहेण अम्हं ॥ २७ ॥ पुरिसं च विद्रूण कुमारगं वा, मूलंमि केई पए जायतेए।
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ध्ययन. पिनाय पिंडं सतिमारुहेत्ता, बुद्धाण तं कप्पति पारणाए ॥ २८॥ (सू०)
यदेतद्वणिग्दृष्टान्तदूषणन बाधमनुष्ठानं दृषितं तच्छोभनं कृतं भवता यतोऽतिफल्गुप्राय बाह्यमनुष्ठान, आन्तरमेव स्वनुष्ठानं | संसारमोक्षयोः प्रधानाङ्गम् , अस्मसिद्धांत चैतदेव व्यावय॑ते, इत्येतदाककुमार भो राजपुत्र! बमवहितः शृणु श्रुखा चावधारये ति | भणिता ते भिक्षुका आन्तरानुष्ठानसमर्थकमात्मीयसिद्धान्ताविर्भावनायेदमाहुः 'पिन्नागे त्यादि, 'पिण्याक' खलस्तस्य 'पिण्डिः' | भिन्न तदचेतनमपि सत् कश्चित् संभ्रमे म्लेच्छादिविषये केनचिन्नश्यता प्रावरणं खलोपरि प्रक्षिप्तं तच म्लेच्छेनान्वेष्टुं प्रवृत्तेन | पुरुषोऽयमिति मला खलपिण्ड्या सह गृहीतं, ततोऽसौ म्लेच्छो वस्त्रवेष्टितां तां खलपिण्डी पुरुषबुद्ध्या शूले प्रोतां पावके पचेत् , | तथा 'अलावुकं' तुम्बकं कुमारकोऽयमिति मखानावेव पपाच, स चैवं चित्तस्य दुष्टखात्प्राणिवधजनितेन पातकेन लिप्यते असत्सिद्धान्ते, चित्तमूलखाच्छुभाशुभवन्धस्पति, एवं तावदकुशलचित्तप्रामाण्यादकुर्वन्नपि प्राणातिपातं प्राणिघातफलेन युज्यते ।। २६ ॥ अमुमेव दृष्टान्तं वपरीत्येनाह-अथवापि सत्यपुरुषं खलबुद्ध्या कश्चिन्म्लेच्छः शूले प्रोतमन्नौ पचेत्, तथा कुमारकं च लायुकबु-12 ध्याऽमावेव पचेत् , न चासौ प्राणिवधजनितेन पातकेन लिप्यतेऽलाकमिति ॥ २७ ॥ किंचान्यत्-'पुरिसमित्यादि, पुरुपं वा
॥३९६॥ कुमारकं वा विद्धा शूले कश्चित्पचेत् 'जाततेजसि' अनावारुह्य खलपिण्डीयमिति मला 'सती' शोभनां, तदेतदुद्धानामपि 'पारणाय' भोजनाय 'कल्पते' योग्यं भवति, किमुतापरेषाम् ?, एवं सर्वाखवस्थास्वचिन्तितं-मनसाऽसंकल्पितं कर्म चयं न ग
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आगम
(०२)
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सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम [७६५]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [-], मूलं [गाथा - २८], निर्युक्तिः [२००] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
च्छत्यसत्सिद्धान्ते, तदुक्तम् - " अविज्ञानोपचितं परिज्ञानोपचितमीर्यापथिकं स्वमान्तिकं चेति कर्मोपचयं न याति ॥ २८ ॥ | पुनरपि शाक्य एव दानफलमधिकृत्याह
सिणगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए नियए भिक्खुयाणं । ते पुन्नस्वधं सुमहं जिणित्ता, भवंति आरोप्प महंतसत्ता ।। २९ ।। अजोगरूवं इह संजयाणं, पावं तु पाणाण पसज्झ काउं । अबोहिए दोपहवि तं असाहु, वयंति जे यावि पडिस्सुणंति ॥ ३० ॥ उ अहेयं तिरियं दिसासु, विन्नाय लिंगं तस्थावराणं । भूयाभिसकाइ दुगुंछमाणे, वदे करेजा व कुओ विहत्थी ? ॥३१॥ पुरिसेन्ति विन्नत्ति न एवमत्थि, अणारिए से पुरिसे तहा हु । को संभवो ? पिन्नगपिंडियाए, बायाचि एसा बुझ्या असता ॥ ३२ ॥ वायाभियोगेण जमावहेजा, णो तारिसं वायमुदाहरिजा । अट्टाणमेयं वयणं गुणाणं, णो दिखिए बूय सुरालमेघं ॥ ३३ ॥ लद्धे अड्डे अहो एव तुम्भे, जीवाणुभागे सुविचितिए व पुत्रं समुदं अवरं च पुढे, उलोइए पाणितले ठिए वा ॥ ३४ ॥ जीवाणुभागं सुविचितयंता, आहारिया अन्नविहीय सोहिं । न वियागरे छन्नपओपजीवि, एसोऽणुधम्मो इह संजयाणं ॥ ३५ ॥ सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए नियए भिक्खुयाणं । असंजए लोहियपाणि से ऊ, नियच्छति गरिहमिहेव लोए ॥ ३६ ॥ ananta: शब्दात्पञ्चशिक्षापदिकादिपरिग्रहः, तेषां भिक्षुकाणां सहस्रद्वयं 'निजे' शाक्यपुत्रीये धर्मे व्यवस्थितः कश्चिदुपासकः पचनपाचनाद्यपि कृता भोजयेत् समांसगुडदाडिमेनेष्टेन भोजनेन, ते पुरुषा महासच्चा: श्रद्धालयः पुण्यस्कन्थं
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-३६], नियुक्ति: [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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सूत्रकृताले महान्तं समावj तेन च पुण्यस्कन्धेनारोप्याख्या देवा भवन्त्याकाशोपगाः(मा.), सर्वोत्तमा देवगतिं गच्छन्तीत्यर्थः ॥२९॥ तदेवं
श६आदेका२ श्रुतस्क- युद्धेन दानमूलः शीलमूलश्च धर्मः प्रवेदितः, तद् 'पहि' आगच्छ बौद्धसिद्धान्तं प्रतिपद्यस्खेत्येवं भिक्षुकैरभिहितः सन्नाकोऽना- ध्ययन. न्धे शीला- कुलया दृष्ट्या तान्वीक्ष्योवाचेदं वक्ष्यमाणमित्याह-'अजोगरूव'मित्यादि, 'इह' अस्मिन् भवदीये शाक्यमते 'संयताना' कीयावृत्तिः भिक्षूणां यदुक्तं प्राक्तदत्यन्तेनायोग्यरूपम्-अघटमानकं, तथाहि-अहिंसार्थमुत्थितस्य त्रिगुप्तिगुप्तस्य पञ्चसमितिसमितस्य सतः ॥३९७॥
प्रबजितस्य सम्यगज्ञानपूर्विका क्रियां कुर्वतो भावशुद्धिः फलवती भवति, तद्विपर्यस्तमतेस्वज्ञानावृतस्य महामोहाकुलीकतान्तरा-18 | स्मतया खलपुरुषयोरपि विवेकमजानतः कुतस्त्या भावशुद्धिः, अतोऽत्यंतमसाम्प्रतमेतदुद्धमतानुसारिणां यत्खलवुझ्या पुरुषस्य | शूलपोतनपचनादिक, तथा बुद्धस्य पिन्नाकबुद्धया पिशितभक्षणानुमत्यादिकमिति । एतदेव दर्शयति-प्राणानाम्-इन्द्रियादीना-1 मपगमेन तुशब्दस्यैवकारार्थखात्पापमेव कृला रससातागौरवादिगृद्धास्तदभावं व्यावर्णयन्ति, एतच तेषां पापाभावव्यावर्णनम् | 'अयोध्य' अयोधिलाभार्थं तयोईयोरपि संपद्यते, अतोऽसाध्वेतत् । कयोयोरित्याह-ये वदन्ति पिण्याकबुद्धया पुरुषपाकेऽपि पातकाभावं, ये च तेभ्यः शृण्वन्ति, एतयोद्वयोरपि वर्गयोरसाध्वेतदिति । अपिच-नाज्ञानावृतमूढजने भावशुद्ध्या शुद्धिर्भवति, यदि च स्यात्संसारमोचकादीनामपि तर्हि कर्मविमोक्षः स्यात् , तथा भावभुद्धिमेव केवलामभ्युपगच्छतां भवतां शिरस्तुण्डमुण्डनपिण्डपातादिकं चैत्यकर्मादिकं चानुष्ठानमनर्थकमापद्यते, तसानैवंविधया भावशुद्ध्या शुद्धिरुपजायत इति खितम् ॥ ३०॥
परपक्षं यिखाऽऽर्द्रका स्वपक्षाविर्भावनायाह-ऊर्ध्वमधस्तियक्षु या दिशः प्रज्ञापकादिकास्तासु सखिपि दिक्षु त्रसानां स्थावराणां Kच जन्तूनां यत्रसस्थावरखेन जीवलिङ्ग-चलनस्पन्दनाङ्कुरोद्भवच्छेदम्लानादिकं तद्विज्ञाय अतो 'भूताभिशङ्कया'जीवोपमर्दोऽत्र
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [ - ], मूलं [गाथा - ३६], निर्युक्तिः [२००] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
भविष्यतीत्येवंबुद्ध्या सर्वमनुष्ठानं जुगुप्समानः- तदुपमर्दं परिहरन् वदेत् कुर्यादप्यतः कुतोऽस्तीह-असिन्नेवंभूतेऽनुष्ठाने क्रियमाणे प्रोच्यमाने वाऽस्मत्पक्षे युष्मदापादितो दोष इति ॥ ३१ ॥ अधुना पिण्या पुरुषबुद्ध्या असंभवमेव दर्शयितुमाह - 'पुरिसें| त्यादि, तस्यां पिण्याकपिण्ड्यां पुरुषोऽयमित्येवमत्यन्तजडस्यापि चिज्ञप्तिरेव नास्ति, तस्माद्य एवं वक्ति सोऽत्यन्तं पुरुषस्तथाभ्युपगमेन हुशब्दस्यैव कारार्थत्वेन अनार्य एवासौ यः पुरुषमेव खलोऽयमितिमता हतेऽपि नास्ति दोष इत्येवं वदेत् तथाहि — कः संभवः पिनाकपिण्ड्यां पुरुषबुद्धेरित्यतो वागपीयमीदृगसत्येति सच्चोपघातकलात्, ततश्च निःशङ्कप्रहार्थनालोचको निर्विवेकतया बच्यते, तस्मात्पिण्याककाष्टादावपि प्रवर्त्तमानेन जीवोपमर्द्द भीरुणा साशङ्केन प्रवर्त्तितव्यमिति ||३२|| किञ्चान्यत् - वाचाऽभियोगो वागभियोगस्तेनापि 'यद्' यस्मादावहेत्पापं कर्म अतो विवेकी भाषागुणदोषज्ञो न तारशी भाषामुदाहरेत्-नाभिदध्याद्, यत एवं तवोऽस्थानमेतद्वचनं गुणानां न हि प्रब्रजितो यथावस्थितार्थाभिधायी एतद् 'उदार' सुष्ठु परिस्थूरं निःसारं निरुपपत्तिकं वचनं ब्रूयात्, तद्यथा-पिण्या कोऽपि पुरुषः पुरुषोऽपि पिण्याकः, तथाऽलाबुकमेव बालको बालक एव वाऽलाबुकमिति ||३३|| साम्प्रतमाईककुमार एव तं भिक्षुकं युक्तिपराजितं सन्तं सोल्लुण्ठं विभणिपुराह – 'लद्धे' इत्यादि, अहो युष्माभिरथ-अनन्तरं एवंभूताभ्युपगमे |सति लब्धोऽथ विज्ञानं यथावस्थितं तत्त्वमिति, तथाऽवगतः सुचिन्तितो भवद्भिर्जीवानामनुभागः कर्मविपाकस्तत्पीडेति, तथैवभूतेन विज्ञानेन भवतां यशः पूर्वसमुद्रमपरं च स्पृष्टं, गतमित्यर्थः, तथा भवद्भिरेवंविधविज्ञानावलोकनेनावलोकितः पाणितलस्थ इवायं लोक इति अहो ! भवतां विज्ञानातिशयो यदुत-भवन्तः पिण्याकपुरुषयोर्चालालाकयोर्वा विशेषानभिज्ञतया पापस्य कर्मणो यथैतद्भावाभावं प्राकल्पितवन्त इति ॥ ३४ ॥ तदेवं परपक्षं दूषयित्वा स्वपक्षस्थापनायाह - मौनीन्द्रशासन प्रतिपन्नाः सर्वज्ञोत
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-३६], नियुक्ति: [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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मार्गानुसारिणो जीवानामनुभागम्-अवस्थाविशेष तदुपमर्दैन पीडां वा सुष्टु 'विचिन्तयन्ता' पर्यालीचयन्तोऽनविधी शुद्धि- आईकासूत्रकृताङ्गे २ शतकम् 'आहृतवन्तः' खीकृतयन्तो द्विचत्वारिंशदोषरहितेन शुद्धेनाहारेणाहारं कृतवन्तो न तु यथा भवतां पिशिताधपि पात्रपतितं न ध्ययन न्धे शीला- दोषायेति । तथा 'छन्नपदोपजीवी' मातृस्थानोपजीवी सन् न व्यागृणीयादू 'एषः अनन्तरोक्तोऽनु-पश्चाद्धर्मोऽनुधर्मस्तीर्थकराकीयावृत्तिः नुष्ठानादनन्तरं भवतीत्यनुना विशिष्यते, 'इह' असिन् जगति प्रबचने वा सम्यग्यतानां संयताना-सत्साधूना, न तु पुनरेवं
| विधो भिषणामिति । यच भवद्भिरोदनादेरपि प्राण्यङ्गसमानतया हेतुभूतया मांसादिसारश्यं चोद्यते तदविज्ञाय लोकतीर्थान्त॥३०॥
रीयमतं, तथाहि-प्राण्यङ्गत्वे तुल्येऽपि किश्चिन्मांस किचिचामांसमित्येवं व्यवहियते, तद्यथा-गोक्षीररुधिरादेर्भक्ष्याभल्यव्यवस्थितिः, तथा समानेऽपि स्त्रीले भार्यास्ववादी गम्यागम्यव्यवस्थितिरिति । तथा शुष्कतर्करल्या योऽयं प्राण्याखादिति हेतुर्भ-| |वतोपन्यस्यते तद्यथा- 'भक्षणीयं भवेन्मांसं, प्राण्यङ्गत्वेन हेतुना । ओदनादिवदित्येवं, कश्चिदाहातितार्किकः ॥१॥ सोऽसिद्धानेकान्तिकविरुद्धदोषदुष्टखादपकर्णनीयः, तथाहि-निरंशलाद्वस्तुनस्तदेव मांसं तदेव च प्राण्यामिति प्रतिज्ञार्थकदेशासिद्धः। तयथा-नित्यः शब्दो नित्यवाद, अथ भिन्न प्राण्यङ्गं ततः सुतरामसिद्धो, व्यधिकरणखाद्, यथा देवदत्तस्य गृहं काकस्स का|ण्यो , तथाऽनेकान्तिकोऽपि श्वादिमासस्थाभक्ष्यखाव , अथ तदपि कचित्कदाचिकेवाञ्चिद्भक्ष्यमिति चेदेवं च सत्यध्यादेरभक्ष्य| खादनैकान्तिकर्स, तथा विरुद्धाव्यभिचार्यपि, यथाऽयं हेतुर्मासस्य भक्ष्यवं साधयत्येवं बुद्धास्थ्नामपूज्यखमपि । तथा लोकषि-II रोधिनी चेयं प्रतिज्ञा, मांसौदनयोरसाम्यादृष्टान्तविरोधश्चेत्येवं व्यवस्थिते यदुक्तं प्राग यथा बुद्धानामपि पारणाय कल्पत एतदिति,13 तदसाञ्चिति स्थितम् ॥३५॥ अन्यदपि भिक्षुकोक्तमाईककुमारोऽनूध दूषयितुमाह-'सिणायगाणं तु' इत्यादि, 'लातकानां'
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-३६], नियुक्ति: [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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| बोधिसत्त्वकल्पानां भिक्षणां नित्यं यः सहस्रद्वयं भोजयेदित्युक्तं प्राक् तदूषयति-असंयतः सन् रुधिरक्लिन्नपाणिरनार्य इस 'गहीं' निन्दा जुगुप्सापदवीं साधुजनानामिहलोक एव निश्चयेन गच्छति परलोके चानार्यगम्यां गतिं यातीति ॥३६॥ एवं| तावत्सावधानुष्ठानानुमन्त्रणामपात्रभूतानां यद्दानं तत्कर्मवन्धायेत्युक्तं, किंचान्यत
थूलं उरम्भं इह मारियाणं, उद्दिभत्तं च पगप्पएत्ता । तं लोणतेल्लेण उवक्खडेत्ता, सपिप्पलीयं पगरंति मंसं ॥ ३७॥ तं भुजमाणा पिसितं पभूतं, णो उबलिप्पामो वयं रएणं । इच्चेवमाहंसु अणजधम्मा, अणारिया बाल रसेस गिद्धा ॥ ३८॥जे यावि भुंजंति तहप्पगारं, सेवंति ते पायमजाणमाणा । मणं न एयं कुसला करेंती, वायावि एसा बुइया उ मिच्छा ॥ ३९ ॥ सवेसि जीवाण दयट्टयाए, सावज्जदोसं परिवजयंता । तस्संकिणो इसिणो नायपुत्ता, उदिहभतं परिवजयंति ॥४०॥ भूयाभिसंकाऍ दुगुंछमाणा, सवेसि पाणाण निहाय दंडं । तम्हा ण भुंजंति तहप्पगारं, एसोऽणुधम्मो इह संजयाणं ॥४१॥ निग्गंधधम्ममि इम समाहिं, अस्सि सुठिचा अणिहे चरेज्जा । बुद्धे मुणी सीलगुणोववेए, अञ्चत्थतं(ओ) पाउणती सिलोगं ॥४२॥
आर्द्रकुमार एवं तन्मतमाविष्कुर्वन्निदमाह, स्थूल' बृहत्कायमुपचितमांसशोणितमुरभ्रम्-ऊरणकमिह-शाक्यशासने भिक्षुकसंघोद्देशेन 'व्यापाद्य' धातयिखा तथोद्दिष्टभक्तं च प्रकल्पयित्वा विकर्त्य वा तमुरभ्रं तन्मांसं च लवणतैलाभ्यामुपस्कृत्य | पाचयिता सपिप्पलीकमपरसंस्कारकद्रव्यसमन्वितं प्रकर्षेण भक्षणयोग्यं मांसं कुर्वन्तीति ॥ ३७ ॥ संस्कृत्य च यत्कुर्वन्ति तद्द-16
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-४२], नियुक्ति: [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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सूत्रकृताङ्गे शेयितुमाह-'तं भुंजमाणा इत्यादि, 'तत्' पिशितं शुक्रशोणितसंभूतमनार्या इव भुजाना अपि प्रभूतं तद्रजसा पापेन II आर्द्रका२ श्रुतस्क- कर्मणान वयमुपलिप्यामह इत्येवं धार्थोपेताः प्रोचुः अनार्याणामिव धर्मः-खभावो येषां ते तथा अनार्यकर्मकारिखादनार्या वाला
ध्ययन, इव बाला विवेकरहितवाद्रसेषु च-मांसादिकेषु 'गृद्धा' अध्युपपन्नाः ॥ ३८॥ इत्येतच तेषां महतेऽनायेति दर्शयतिकीयावृत्तिः ये चापि रसगौरवगृद्धाः शाक्योपदेशवर्तिनस्तथाप्रकारं स्थूलोरभ्रसंभूतं घृतलवणमरिचादिसंस्कृतं पिशितं 'भुञ्जते' अश्नन्ति ॥३९९॥
| तेनार्याः 'पाप' कल्मषमजानाना निर्विवेकिनः 'सेवन्ते' आददते, तथा चोक्तम्-"हिंसामूलममेध्यमास्पदमलं ध्यानस्य रौद्रस्य 1 यद्वीभत्स रुधिराविलं कृमिगृहं दुर्गधि पूयादिम् । शुक्रासक्प्रभवं नितान्तमलिनं सद्भिः सदा निन्दितं, को हो नरकाय राक्षससमो
मांसं तदात्मद्रुहः ॥१॥" अपिच-"मां स भक्षयिताभुत्र, यस्य मांसमिहाम्यहम् । एतन्मांसस्य मांससं, प्रवदन्ति मनीषिणः | 18||२||" तथा । "योति यस्य च तन्मांसमुभयोः पश्यतान्तरम् । एकस्य क्षणिका तृप्तिरन्यः प्राणैर्वियुज्यते ॥३॥(ग्रन्थाग्रं१२०००)18॥ R| तदेवं महादोष मांसादनमिति मला यद्विधेयं तदर्शयति-तदेवंभूतं मांसादनाभिलापरूपं मन:-अन्तःकरण 'कुशला' निपुणा || कामांसाशिखविपाकवेदिनस्तनिवृत्तिगुणाभिज्ञाय न कुर्वन्ति, तदभिलापात् मनो निवर्तयन्तीत्यर्थः, आस्तां तावद्भक्षणं, वागप्येषा |
यथा 'न मांसभक्षणे दोष'इत्यादिका भारत्यप्यभिहिता-उक्ता मिथ्या, तुशब्दान्मनोऽपि तदनुमत्यादी न विधेयमिति, तनिवृत्ती पाचहेबानुपमा श्लाघाऽमुत्र च वर्गापवर्गगमनमिति, तथा चोक्तम्-"श्रुला दुःखपम्परामतिघृणां मांसाशिनां दुर्गति, ये कुर्वन्ति ॥३९९॥
शुभोदयेन विरतिं मांसादनस्यादरात् । सद्दीर्घायुरदूषितं गदरुजा संभाव्य यास्यन्ति ते, मर्येद्भटभोगधर्ममतिषु स्वर्गापवर्गेषु च ॥ २॥"इत्यादि ।। ३९ ॥ न केवलं मांसादनमेव परिहार्यम् , अन्यदपि मुमुक्षूणां परिहर्तव्यमिति दर्शयितुमाह-'सबेसिमि-13
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-४२], नियुक्ति: [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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त्यादि, सर्वेषां जीवानां प्राणार्थिनां, न केवलं पञ्चेन्द्रियाणामेवेति सर्वग्रहणं, 'दयार्थतया दयानिमित्तं सावधमारम्भ महानयं दोष इत्येवं मसा तं परिवर्जयन्तः साधवस्तच्छंकिनो-दोषशङ्किनः 'ऋषयो महामुनयो 'ज्ञातपुत्रीयाः' श्रीमन्महावीरवड़े-18 मानशिष्याः 'उदिष्टं' दानाय परिकल्पितं यद्भक्तपानादिकं तत्परिवर्जयन्ति ॥४०॥ किश्च-'भूतानां जीवानां उपम-18 ईशङ्कया सावद्यमनुष्ठानं 'जुगुप्समानाः' परिहरन्तः, तथा सर्वेषां प्राणिनां दण्डयतीति दण्डः-समुपतापस्तं 'निधाय' परित्यज्य सम्यगुत्थानेनोत्थिताः सत्साधबो-यतयस्ततो न भुञ्जते तथाप्रकारमाहारमशुद्धजातीयम् एषोऽनुधर्मः 'इह' अस्मिन् प्रवचने 'संयतानां यतीनां, तीर्थकराचरणादनु-पश्चाचर्यत इत्यनुना विशेष्यते, यदिवाऽणुरिति स्तोकेनाप्यतिचारेण बाध्यते शिरीषपुप्पमिव सुकुमार इत्यतोऽणुना विशेष्यत इति ॥४१॥ किंचान्यत्-'णिग्गंथधम्म'मित्यादि, नासिन्मौनीन्द्रधर्मे वाद्याभ्यन्तररूपो ग्रन्थोऽसास्तीति निर्ग्रन्थः स चासौ धर्मश्च निर्ग्रन्थधर्मः स च श्रुतचारित्राख्यः क्षान्त्यादिको वा सर्वज्ञोक्तस्तमिन्नेवंभूते धर्मे व्यवस्थितः 'इमं पूर्वोक्त समाधिमनुप्राप्तः अस्मिंश्राशुद्धाहारपरिहाररूपे समाधौ सुष्ठु-अतिशयेन स्खिला 'अनिहः' अमायोऽथवा निहन्यत इति निहो न निहोनिह:-परीपहरपीडितो यदिवा "निह बंधने' अस्निह इति स्नेहरूपबन्धनरहितः संयमानुष्ठान 18 चरेत् , तथा बुद्धोऽवगततत्त्वो 'मुनिः कालत्रयवेदी 'शीलेन' क्रोधाद्युपंशमरूपेण 'गुणैश्च मूलोत्तरगुणभूतैरुपपेतो युक्त इत्येवंगुणकलितोऽत्यर्थतां(तः)-सर्वगुणातिशायिनी सर्वद्वन्द्वोपरमरूपां संतोषात्मिका 'श्लाघां प्रशंसा लोके लोकोचरे वाऽमोति, तथा चोक्तम्-"राजानं तृणतुल्यमेव मनुते शकेपि नैवादरो, वित्तोपार्जनरक्षणव्ययकृताः प्राप्नोति नो वेदनाः । संसारान्तरवर्त्यपीह लभते शं मुक्तवनिर्भयः, संतोषात्पुरुषोऽमृतत्वमचिराद्यायात्सुरेन्द्रार्चितः ॥१॥"इत्यादि ।॥ ४२ ॥ तदेवमार्द्रककुमारं निराकृतगो
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अनुक्रम [७७९]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [ - ], मूलं [गाथा- ४२ ], निर्युक्तिः [२००] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
सूत्रकृताशे २ श्रुतस्कन्धे शीलाङ्कीयावृत्तिः
॥४००॥
| शालकाजीचकच मतमभिसमीक्ष्य साम्प्रतं द्विजातयः प्रोचुः, तद्यथा-भो आर्द्रककुमार ! शोभनमकारि भवता यदेते वेदना द्वे अपि मते निरस्ते, तत्साम्प्रतमेतदप्याईतं वेदवाद्यमे वातस्तदपि नाश्रयणाहं भवद्विधानां, तथाहि भवान् क्षत्रियवरः, क्षत्रियाणां च सर्ववर्णोत्तमा ब्राह्मणा एवोपास्था न शूद्राः, अतो यागादिविधिना ब्राह्मणसेवैव युक्तिमतीत्येतत्प्रतिपादनायाह
सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए णियए माहणाणं । ते पुन्नखंधे सुमहऽज्जणित्ता, भवंति देवा इति वेयवाओ ॥ ४३ ॥ सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए णियए कुलालयाणं । से गच्छति लोलुवसंपगाढे, तिघाभितावी रगाभिसेवी ॥ ४४ ॥ दद्यावरं धम्म दुर्गुछमाणा, वहावहं धम्म पसंसमाणा । एपि जे धोयती असलं, णिवो णिसं जाति कुओ सुरेहिं ? ॥ ४५ ॥ दुह ओवि धम्मंमि समुट्ठियामो, अस्सिं सुट्टिचा तह एसकालं । आयारसीले बुझ्एह नाणी, ण संपरायंमि विसेसमत्थि ॥ ४६ ॥
तुशब्दो विशेषणार्थः, षट्कर्माभिरता वेदाध्यापकाः शौचाचारपरतया नित्यं स्नायिनो ब्रह्मचारिणः स्नातकास्तेषां सहस्रद्वयं नित्यं ये भोजयेयुः कामिकाहारेण ते समुपार्जितपुण्यस्कन्धाः सन्तो देवाः स्वर्गनिवासिनो भवन्तीत्येवंभूतो बेदवाद इति ॥ ४३ ॥ अधुनाऽऽर्द्रककुमार एतद्दूपयितुमाह – 'सिणायगाणं तु' इत्यादि, स्नातकानां सहस्रद्वयमपि नित्यं ये भोजयन्ति, किंभूतानां :| कुलानि - गृहाण्यामिषान्वेषणार्थिनो नित्यं येष्टन्ति ते कुलाटाः - मार्जाराः कुलाटा इव कुलाटा ब्राह्मणाः, यदिवा--कुलानि - क्षत्रियादिगृहाणि तानि नित्यं पिण्डपातान्वेषिणां परतर्कुकाणामालयो येषां ते कुलालयास्तेषां निन्द्यजीविकोपगतानामेवंभूतानां स्नातकानां यः सहस्रद्वयं भोजयेत्सोऽसत्पात्रनिक्षिप्तदानो गच्छति बहुवेदनासु गतिषु । किंभूतः सन् १-'लोलुपैः' आमिषगृद्वै
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६ आर्द्रकाध्ययन.
॥४००॥
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-४६], नियुक्ति: [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||४६||
दीप अनुक्रम [७८३]
Doceaeo203090
| रससातागौरवाद्युपपन्नः जिहेन्द्रियवशगैः संप्रगाढो-व्याप्तो, यदिवा किंभूते नरके याति?-लोलुपैः--आमिषगृभुभिरसुमद्भिाप्तो यो नरकस्तमिबिति, किंभूतथासौदाता नरकाभिसेवी भवति तद्दर्शयति-तीव:-असद्यो योऽमिताप:-क्रकचपाटनकुम्भीपाकत-IN पत्रपुपानशाल्मल्यालिङ्गनादिरूपः स विद्यते यस्थासौ स तीत्राभितापीत्येवंभूतवेदनाभितप्तसयविंशत्सागरोपमाणि यावदप्रतिष्ठाननरकाधिवासी भवतीति ।। ४४ ॥ अपिच दया-प्राणिषु कृपा तया वरः-प्रधानो यो धर्मस्तमेवंभूतं धर्म 'जुगुप्समानों निन्दन तथा वध-प्राण्युपमईमावहतीति वधावहस्तं तथाभूतं धर्म 'प्रशंसन् ' स्तुवन् एकमप्यशीलं-निश्शीलं नितं पइजीव-131 कायोपमर्दैन यो भोजयेत् , किं पुनः प्रभूतान् ?, नृपो राजन्यो वा यः कश्चिन्मूढमतिर्धार्मिक आत्मानं मन्यमानः, स वराको | निशेष नित्यान्धकारखानिशा-नरकभूमिस्तां याति, कुतस्तस्यासुरेष्वपि-अधमदेवेष्वपि प्राप्तिरिति । तथा कर्मवशासुमा विचि-1 त्रजातिगमनाजातेरशाश्वतसमतो न जातिमदो विधेय इति । यदपि कैश्चिदुच्यते-यथा 'बामणा ब्रह्मणो मुखाद्विनिर्गता बाहुभ्यां | क्षत्रिया ऊरुभ्यां वैश्याः पयां शूद्राः' इत्येतदप्यप्रमाणखादतिफल्गुप्रायं, तदभ्युपगमे च न विशेषो वर्णानां स्वाद, एकस्मात्प्र-18 सूतेव॒भशाखाप्रतिशाखाग्रभूतपनसोदुम्बरादिफलवद् , ब्रह्मणो वा मुखादेवयवानां चातुर्वर्ण्यावाप्तिः स्यात् , न चैतदिष्यते भवद्भिः || तथा यदि ब्राह्मणादीनां ब्रह्मणो मुखादेरुद्भवः साम्प्रतं किं न जायते?, अथ युगादावेतदिति एवं च सति दृष्टहानिरदृष्टकल्पना । खादिति । तथा यदपि कैत्रिदभ्यधायि सर्वज्ञनिक्षेपावसरे, तबधा-सर्वज्ञरहितोऽतीतः कालः कालखाद्वर्तमानकालवत्, एवं च सत्येतदपि शक्यते वक्तुं यथा-नातीतः कालो ब्रह्ममुखादिविनिर्गतचातुर्वर्ण्यसमन्वितः काललावर्चमानकालवद, भवति च विशेषे पक्षी-1 कृते सामान्य हेतुरित्यतः प्रतिज्ञार्थंकदेशासिद्धता नाशङ्कनीयेति । जातेधानित्यत्वं युष्मसिद्धान्त एवाभिहितं, तद्यथा-'शू
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-४६], नियुक्ति: [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
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सूत्रकृताङ्गे
गालो वै एष जायते यः सपुरीपो दह्यत इत्यादिना, तथा 'सद्यः पतति मांसेन, लाक्षया लवणेन च । व्यहेन शूद्रीभवति, त्रा२ श्रुतस्क- बणः क्षीरविक्रयी ॥ १॥ इत्यादि, परलोके चावश्यंभावी जातिपातः, यत उक्तम्-"कायिकैः कर्मणां दोषैर्याति स्थावरतां ध्ययन. न्धं शीला-18| नरः । वाचिकैः पक्षिमृगता, मानसैरन्त्यजातिताम् ।।१॥"इत्यादि, गुणैरप्येवंविधैर्न ब्राह्मणवं युज्यते, तद्यथा-"पद शतानि कायावृत्ति नियुज्यन्ते, पशूनां मध्यमेऽहनि । अश्वमेधस्य वचनान्यूनानि पशुभित्रिभिः ॥१॥"इत्यादि, वेदोक्तखानायं दोष इति चेत् । 801 नन्विदमभिहितमेव-'न हिंसात्सर्वभूतानी'त्यतः पूर्वोत्तरविरोधः, तथा "आततायिनमायान्तमपि वेदान्तर्ग रणे । जिघांसन्तं ||
जिघांसीयान तेन ब्रह्महा भवेत् ॥१॥" तथा 'शुद्रं हवा प्राणायाम जपेत् अपहसितं वा कुर्यात् यत्किञ्चिद्वा दद्यात्', तथा 'अनस्थिजन्तूनां शकटभरं मारयिखा ब्राह्मणं भोजयेद्' इत्येवमादिका देशना विद्वजनमनांसि न रञ्जयतीत्यतोऽत्यर्थमसमञ्जसमिव लक्ष्यते | युष्मदर्शन मिति । तदेवमा ककुमार निराकृतबामणविवादं भगवदन्तिकं गच्छन्तं दृष्ट्वा एकदण्डिनोऽन्तराले एवोचुः, तद्यथा--भो । | आर्द्रककुमार ! शोभनं कृतं भवता यदेते सर्वारम्भप्रवृत्ता गृहस्थाः शब्दादिविषयपरायणाः पिशिताशनेन राक्षसकल्पा द्विजातयो| निराकृताः, तत्साम्प्रतमस्मसिद्धान्तं शृणु श्रुखा चावधारय, तद्यथा-सत्वरजस्तमसा साम्यावस्था प्रकृतिः, प्रकृतेमहांस्ततोऽहङ्कारस्त साद्गणश्च पोडशकस्तसादपि पोडशकात्पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि, तथा चैतन्यं पुरुषस खरूपमित्येतत्त्वाहतैरप्याश्रितम् , अतः | पञ्चविंशतितत्चपरिज्ञानादेव मोक्षाराप्तिरित्यतोऽसत्सिद्धान्त एव श्रेयानापर इति ॥४५॥ तथा न युष्मसिद्धान्तोऽतिदूरेण भिद्यत इत्येतद्दर्शयितुमाह-'दुहओऽवी'त्यादि, योऽयमसद्धर्मों भवदीयवाहतः स उभयरूपोऽपि कथञ्चित्समाना, तथाहियुष्माकमपि जीवास्तिखे सति पुण्यपापबन्धमोक्षसद्भावो न लोकायतिकानामिव तदभावे प्रवृत्तिः नापि बौद्धानामिव सर्वाधार
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दीप अनुक्रम [७८३]
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-४६], नियुक्ति: [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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भूतस्यान्तरात्मन एवाभावः, तथाऽसाकमपि पञ्च यमाः अहिंसादयो भवतां च त एव पञ्च महाव्रतरूपाः, तथेन्द्रियनोइन्द्रिय-13|| | नियमोऽप्यावयोस्तुल्य एव, तदेवमुभयसिन्नपि धर्मे बहुसमाने सम्यगुत्थानोत्थिता यूयं वयं च तस्माद्ध मुष्ठ स्थिताः पूर्वस्मिन् काले | | वर्तमाने एष्ये च यथागृहीतप्रतिज्ञानिर्वोढारो, न पुनरन्ये, यधा व्रतेश्वरयागविधानेन प्रवज्यां मुक्तवन्तो मुश्चन्ति मोक्षन्ति चेति, तथाऽऽचारप्रधानं शीलमुक्तं यमनियमलक्षणं न फल्गु कल्ककुहकाजीवनरूपम् अथानन्तरं ज्ञानं च मोक्षाङ्गतयाऽभिहितं, तच श्रुतज्ञानं केवलाख्यं च यथाखमावयोर्दर्शने प्रसिद्ध, तथा संपर्यन्ते-खकर्मभिर्धाम्यन्ते प्राणिनो यसिन्स संपरायः-संसारस्तसिंश्चावयोर्न विशेषोऽस्ति, तथाहि-यथा भवतां कारणे कार्य नैकान्तेनासदुत्पद्यते असाकमपि तथैव, द्रव्यात्मतया नित्यलं भवद्भिरप्याश्रितमेव, तथोत्पादविनाशावपि युष्मदभिप्रेतावाविभावतिरोभावाश्रयादसाकमपीति ॥ ४६ ।। पुनरपि त एवेकद
ण्डिनः सांसारिकजीवपदार्थसाम्योपादनायाहुःII अवतरूवं पुरिसं महंत, सणातणं अक्खयमवयं च । सबेसु भूतेसुवि सघतो से, चंदो व ताराहि सम
तरूवे.॥४७॥ एवं ण मिजंति ण संसरंती, ण माणा खत्तिय घेस पेसा । कीटा य पक्खी य सरीसिवा य, नरा य सबै तह देवलोगा ॥४८॥
पुरि शयनात्पुरुषो-जीवस्तं यथा भवन्तोऽभ्युपगतवन्तस्तथा वयमपि, तमेव विशिनष्टि-अमूर्तलादब्यक्तं रूपं-खरूपमखासावव्यक्तरूपः तं, करचरणशिरोग्रीवायवयवतया खतोऽनवस्थानात् , तथा 'महान्तं' लोकव्यापिनं तथा 'सनातन' शाश्वतं द्रव्या
१ वक्ष्यमाणानां विशेषणानां सापेक्षमभ्युपगमापेक्षया ।
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दीप अनुक्रम [७८३]
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-४८], नियुक्ति: [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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॥४०॥
सूत्रकृताङ्गेर्थतया नित्यं, नानाविधगतिसंभवेऽपि चैतन्यलक्षणात्मखरूपस्याप्रच्युतेः, तथा 'अक्षयं केनचित्प्रदेशानां खण्डशः कर्तुमशक्य-४६आईका२ श्रुतस्क- 8 खात्, तथा 'अव्ययम्' अनन्तेनापि कालेनैकस्यापि तत्प्रदेशस्य व्ययाभावात् , तथा सर्वेष्वपि भूतेषु कायाकारपरिणतेषु प्रतिश- ध्ययन,
शीला- रीरं सर्वतः सामस्त्यानिरंशवादसावात्मा संभवति, क इव -'चन्द्र इव' शशीय 'ताराभि:' अश्विन्यादिभिर्नक्षत्रैः यथा कीयावृत्तिः
'समस्तरूपः' संपूर्णः संबन्धमुपयाति एवमसावपि आत्मा प्रत्येकं शरीरैः सह संपूर्णः संबन्धमुपयाति । तदेवमेकदण्डिभिर्द
नसाम्यांपादनेन सामवादपूर्वकं खदर्शनारोपणार्थमाईककुमारोऽभिहितो, यत्रैतानि संपूर्णानि-निरुषचरितानि पूर्वोक्तानि विशेपणानि धर्मसंसारयोवियन्ते स एव पक्षः सश्रुतिकेन समाश्रयितव्यो भवति । एतानि चासदीय एव दर्शने यथोक्तानि सन्ति, नाऽऽहते, अतो भवताऽप्यमदर्शनमेवाभ्युपगन्तव्यमिति ॥४७॥ तदेवमभिहितः सन्नाईककुमारस्तदुत्तरदानायाह-'एव'मित्यादि.18 | यदिवा प्राक्तनः श्लोकः 'अबत्तरूव'मित्यादिको वेदान्तवाद्यात्माद्वैतमतेन व्याख्यातव्यः, तथाहि ते एकमेवान्यक्तं पुरुषम्|आत्मानं महान्तमाकाशमिव सर्वच्यापिनं सनातनम् अनन्तमक्षयमव्ययं सर्वेष्वपि भूतेषु-चेतनाचेतनेषु सर्वतः-सर्वात्मतयाऽसी | स्थित इत्येवमभ्युपगतवन्तो, यथा सर्वास्वपि ताराखेक एव चन्द्रः संवन्धमुपयात्येक्मसावपीति । अस्य चोत्तरदानायाह-'एव'मित्यादि, | 'एवं मिति यथा भवतां दर्शने एकान्तेनैव नित्योऽविकार्यात्माऽभ्युपगम्यते इत्येवं पदार्थाः सर्वेपि नित्याः, तथा च सति कुतो
IS४०२॥ बन्धमोक्षसद्भावः, बन्धाभावाच्च न नारकतियनरामरलक्षणश्चतुर्गतिकः संसारः, मोक्षाभावाच निरर्थकं व्रतग्रहणं भवतां पञ्चरानोपदिष्टयमनियमप्रतिपत्तिश्चेति, एवं च यदुच्यते भवता-यथा 'आवयोस्तुल्यो धर्म' इति, तदयुक्तमुक्तं, तथा संसारान्तर्गतानां च पदार्थानां न साम्यं, तथाहि-भवतां द्रव्यैकसवादिना सर्वस्व प्रधानादभिन्नखात्कारणमेवास्ति, कार्य च कारणाभिन्नखा
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दीप अनुक्रम [७८५]
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-४८], नियुक्ति: [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
||४८||
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| सर्वात्मना तत्र विद्यते, अस्माकं च द्रव्यपर्यायोभयवादिना कारणे कार्य द्रव्यात्मतया विद्यते न पर्यायात्मकतया, अपिच-अस्माकमत्पादव्ययधीव्ययुक्तमेव सदित्युच्यते, भवतां तु ध्रीव्ययुक्तमेव सदिति, यावया विभावतिरोभावी भवतोच्येते तावपि ।। नोत्पादविनाशावन्तरेण भवितुमुत्सहेते, तदेवमैहिकामुष्मि कचिन्तायामावयोन कथश्चित्साम्यं। किंच-सर्वव्यापिसे सत्यात्मनामविकारिखे चात्माद्वैते चाभ्युपगम्यमाने नारकतियेझ्नरामरभेदेन चालकुमारसुभगदुर्भगाढ्यदरिद्रादिभेदेन या न मीयेरन्न परिच्छिोरन् , नापि खकर्मचोदिता नानागतिषु संसरन्ति, सर्वव्यापिखादेकखाद्वा, तथा न बामणा न क्षत्रिया न पैश्या न प्रेष्या-न शूद्रा नापि कीटपक्षिसरीसृपाश्च भवेयुः, तथा नराश्च सर्वेऽपि देवलोकाचेत्येवं नानागतिभेदेन न मियेरन् , अतो न सर्वव्यापी आत्मा, नाप्यात्माद्वैतवादो ज्यायान् , यतः प्रत्येकं सुखदुःखानुभवः समुपलभ्यते, तथा शरीरखपर्यन्तमात्र एवात्मा, तत्रैव तद्गुणविज्ञानोपलब्धेरिति स्थितम् , तदेवं व्यवस्थिते युष्मदागमो यथार्थाभिधायी न भवति, असर्वेशप्रणीतखाद्, असर्वज्ञप्रणीतसं चैकान्तपक्षसमाश्रयणादिति ।। ४९ ॥ एवमसर्वज्ञस्य मार्गोद्भावने दोपमाविर्भावयन्नाहलोयं अयाणित्तिह केवलेणं, कहंति जे धम्ममजाणमाणा । णासंति अप्पाण परं च णट्ठा, संसार घोरंमि अणोरपारे॥४९॥ लोयं बिजाणंतिह केवलेणं, पुन्नेण नाणेण समाहिजुत्ता । धम्म समत्तं च कहति जे उ, तारंति अप्पाण परं च तिन्ना ॥५०॥ 'लोक' चतुर्दशरज्ज्वात्मकं चराचरं वा लोकमज्ञाखा केवलेन दिव्यज्ञानावभासेन 'इह' असिन् जगति ये तीथिका 'अजानाना' अविद्वांसो 'धर्म' दुर्गतिगमनमार्गस्वार्गलाभूतं 'कथयन्ति' प्रतिपादयन्ति ते खतो नष्टा अपरानपि नाशयन्ति, क?
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दीप अनुक्रम [७८५]
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-५०], नियुक्ति: [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
आर्द्रकी
या०
प्रत सूत्रांक ||५०||
कीयावृत्तिः8
అలాంటి
दीप अनुक्रम [७८७]
सूत्रकृताङ्गे 'घोरे' भयानके संसारसागरे 'अणोरपारेति अर्वाग्भागपरभागवर्जितेऽनाधनन्ते इति, एवंभूते संसारार्णवे आत्मानं प्रक्षिपन्तीति- २ श्रुतस्क
यावत् ॥ ४९ ॥ साम्प्रतं सम्यगज्ञानवतामुपदेष्टणां गुणानाविर्भावयन्नाह–'लोय'मित्यादि, 'लोकं' चतुर्दशरज्ज्वात्मकं केव-18 न्धे शीला
| लालोकेन केवलिनो विषिधम्-अनेकप्रकार जानन्ति-विदन्तीह-अस्मिन् जगति, प्रकर्षण जानाति प्रज्ञः, पुण्यहेतुवाद्वा पुण्यं,
| तेन तथाभूतेन ज्ञानेन समाधिना च युक्ताः समस्त 'धर्म' श्रुतचारित्ररूपं ये तु परहितैषिणः 'कथयन्ति' प्रतिपादयन्ति ते MRI महापुरुषाः स्वतः संसारसागरं तीर्णाः, परं च तारयन्ति सदुपदेशदानत इति । केवलिनो लोकं जानन्तीत्युक्तेऽपि यत्पुनहानेने
|त्युक्तं तद् बौद्धमतीच्छेदेन ज्ञानाधार आत्मा अस्तीति प्रतिपादनार्थमिति, एतदुक्तं भवति-यथा देशिका सम्पगमार्गज्ञ आत्मानं || | परं च तदुपदेशवर्तिनं महाकान्ताराद्विवक्षितदेशप्रापणेन निस्तारयति, एवं केवलिनोऽप्यात्मानं परं च संसारकान्ताराचिस्तारयन्तीति ॥ ५० ॥ पुनरप्याककुमार एवमाह
जे गरहियं ठाणमिहावसंति, जे यावि लोए चरणोववेया । उदाहडं तं तु समं मईए, अहाजसो विप्परि- 8 यासमेव ।। ५१॥ संवच्छरेणावि य एगमेग, बाणेण मारेउ महागयं तु । सेसाण जीवाण दयट्टयाए, वासं वयं वित्ति पकप्पयामो ॥५२॥
असर्वज्ञप्ररूपणमेवंभूतं भवति, तद्यथा-ये केचित्संसारान्तर्वतिनोऽशुभकर्मणोपपेताः-समन्वितास्तद्विपाकसहाया 'गर्हितं' निन्दित 18| जुगुप्सितं निर्विवेकिजनाचरितं 'स्थान' पदं कर्मानुष्ठानरूपमिह-असिन् जगत्यासेव(बस)न्ति-जीविकाहेतुमाश्रयन्ति, तथा
|| ये च सदुपदेशवर्तिनो लोकेऽस्मिन् 'चरणेन' विरतिपरिणामरूपेणोपपेताः-समन्विताः, तेषामुभयेषामपि पदनुष्ठानं-शोभना
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आगम
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प्रत
सूत्रांक ||५२ ||
दीप
अनुक्रम [७८९]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [ - ], मूलं [गाथा - ५२ ], निर्युक्तिः [२००] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
- शोभनस्वरूपमपि सत् तदसर्वज्ञैः -- अर्वाग्दर्शिभिः 'समं' सदृशं तुल्यमुदाहृतं – उपन्यस्तं 'खमत्या' स्वाभिप्रायेण, न पुनर्यथावस्थित पदार्थनिरूपणेन, अथवाऽऽयुग्मन हे एकदण्डिन् ! 'विपर्यासमेव' विपर्ययमेवोदाहरेद् असर्वज्ञो - यदशोभनं तच्छो| मनसेनेतरच्चितरथेति, यदिवा विपर्यास इति मदोन्मत्तप्रलापवदित्युक्तं भवतीति ॥५१॥ तदेवमेकदण्डिनो निराकृत्यार्द्रककुमारो यावद्भगवदन्तिकं व्रजति वावद्धस्तितापसाः परिवृत्य तस्थुरिदं च प्रोचुरित्याह- 'संवच्छरण' इत्यादि, हस्तिनं व्यापाद्यात्मनो वृत्ति कल्पयन्तीति हस्तितापसास्तेषां मध्ये कथिद्धतम एतदुवाच तद्यथा--मो आर्द्रककुमार ! सश्रुतिकेन सदाऽल्पबहुत्वमालोचनीयं तत्र ये अभी तापसाः कन्दमूलफलाशिनस्ते बहूनां सत्त्वानां स्थावराणां तदाश्रितानां चोदुम्बरादिषु जङ्गमानामुपघाते वर्त्तन्ते, येऽपि च भैक्ष्येणात्मानं वर्तयन्ति तेऽप्याशंसादोपदूषिता इतश्चेतश्चाटाव्यमानाः पिपीलिकादिजन्तूनां उपघाते वर्तन्ते, वयं तु संवत्सरेणापि अपिशब्दात् षण्मासेन चैकैकं हस्तिनं महाकायं बाणप्रहारेण व्यापाद्य शेषसत्त्वानां दयार्थमात्मनो 'वृत्ति' वर्त्तनं | तदामिषेण वर्षमेकं यावत्कल्पयामः, तदेवं चयमल्पसच्त्वोपघातेन प्रभूततरसत्त्वानां रक्षां कुर्म इति ॥ ५२ ॥ साम्प्रतमेतदेवार्द्रककुमारो हस्तितापसमतं दूषयितुमाह
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संवच्छरेणावि य एगमेगं, पाणं हणंता अणियत्तदोसा । सेसाण जीवाण वहेण लग्गा, सिया यथो गिहिणोऽवि तम्हा ॥ ५३ ॥ संवच्छरेणावि य एगमेगं, पाणं हणंता समणवसु । आयाहिए से पुरिसे अणजे, ण तारिसे केवलिणो भवति ॥ ५४ ॥ बुद्धस्स आणाऍ इमं समाहिं, असि सुठिया तिविण
For Parts Only
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-५५], नियुक्ति: [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
आर्द्रकी
प्रत सूत्रांक ||५५|
सूत्रकृताङ्गे
ताई । तरिउं समुदं व महाभवोघं, आयाणवं धम्ममुदाहरेजा ॥ ५५ ॥ त्तियेमि, इति अबइजणाम छ?२ श्रुतस्क
मज्झयणं समत्तं ।। न्धे शीला- संवत्सरेणैकैकं प्राणिनं प्रतोऽपि प्राणातिपातादनिवृत्तदोषास्ते भवन्ति, आशंसादोषश्च भवतां पश्चेन्द्रियमहाकायसत्त्ववधपरायणा-18 कीयावृतिः नामतिदुष्टो भवति, साधूनां तु सूर्यरश्मिप्रकाशितषीथिषु युगमात्रदृष्ट्या गच्छतामीर्यासमितिसमिताना द्विचत्वारिंशदोषरहितमाहा॥४०४॥
रमन्वेषयतां लाभालाभसमवृत्तीनां कुतस्त्य आशंसादोपः पिपीलिकादिसच्चोपघातो वेत्यर्थः, स्तोकसचोपघातेनैवंभूतेन दोषाभावो भवताऽभ्युपगम्यते, तथा च सति गृहस्था अपि खारम्भदेशवर्तिन एव प्राणिनो प्रन्ति शेषाणां च जन्तूनां क्षेत्रकालव्यवहितानां | भवद मित्रायेण वधेन प्रवृत्ताः, यत एवं तसात्कारणात्स्यादेवं 'स्तोक मिति खल्पं यस्मात् नन्ति ततस्तेऽपि दोषरहिता इति ॥५३॥ साम्प्रतमार्द्रककुमारो हस्तितापसान्दूषयिखा तदुपदेष्टारं दूषयितुमाह-'संवच्छरेणे'त्यादि, श्रमणानां यतीनां व्रतानि श्रमणबतानि ते ध्वपि व्यवस्थिताः सन्त एकैकं संवत्सरेणापि ये मन्ति ये चोपदिशन्ति तेऽनायाः, असत्कर्मानुष्ठायित्वात् , तथा आत्मानं परेषां || चाहितास्ते पुरुषाः, बहुवचनमापखात् , नताशाः केवलिनो भवन्ति, तथाहि-एकस्य प्राणिनः संवत्सरेणापि धाते येऽन्ये पिशि
ताश्रितास्तत्संस्कारे च क्रियमाणे स्थावरजङ्गमा विनाशमुपयान्ति ते तैः प्राणिवधोपदेष्टुमिन दृष्टाः, न च तैनिरवद्योपायो माधु-18 कर्या वृच्या यो भवति स दृष्टः, अतस्ते न केवलमकेवलिनो विशिष्टविवेकरहितामेति । तदेवं हस्तितापसान्निराकृत्य भगवदन्तिकं |
गच्छन्तमाईककुमार महता कलकलेन लोकेनाभिष्ट्रयमानं तं समुपलभ्य अभिनवगृहीतः सर्वलक्षणसंपूर्णों वनहस्ती समुत्पन्न-1 । तथाविधविवेको चिन्तयत्-यथाध्यमाईककुमारोऽपाकृताशेषतीर्थिको निष्प्रत्यूह सर्वज्ञपादपद्मान्तिक वन्दनाय प्रजति तथाऽहमपि
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दीप अनुक्रम [७९२]
॥४०४॥
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-५५], नियुक्ति: [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||५५|
| यद्यपगताशेषबन्धनः स्यां तत एनं महापुरुषमाककुमारं प्रतिबुद्धतस्करपश्चशतोपेतं तथा प्रतिबोधितानेकवादिगणसमन्धितं परमया ॥ भक्त्यैतदन्तिकं गला बन्दामीत्येवं यापदसी हस्ती कृतसंकल्पस्तावत्रटवटादिति त्रुटितसमस्तबन्धनः सभाककुमाराभिमुखं प्रदत्त-18 कर्णतालस्तथोर्ध्वप्रसारितदीर्घकरः प्रधावितः, तदनन्तरं लोकेन कृतहाहारवगर्भकलकलेन पूत्कृतं-यथा धिरु कष्टं हतोऽयमाईककमारो महर्षिहापुरुषः, तदेवं प्रलपन्तो लोका इतश्वेतश्च प्रपलायमानाः (सन्ति), असावपि वनहस्ती समागत्याककुमारसमीपं भक्ति-18 संभ्रमावनताग्रभागोत्तमाङ्गो निवृत्तकर्णतालस्त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य निहितधरणीतलदन्ताग्रभागः स्पृष्टकराग्रतच्चरणयुगलः सुप्रणिहित-18
मनाः प्रणिपत्य महर्षि वनाभिमुखं ययाविति । तदेवमाककुमारतपोऽनुभावाद्वन्धनोन्मुक्तं महागजमुपलभ्य सपौरजनपद: श्रेणि-2 श्रीकराजस्तमाककुमारं महर्षि तत्तपाप्रभावं चाभिनन्धाभिवन्य च प्रोवाच-भगवन्नाश्चर्यमिदं यदसौ वनहस्ती ताम्बिधाच्छनाइच्छेवाङ्गलाबन्धनाधुष्मत्तपःप्रभावान्मुक्त इत्येतदतिदुष्करमित्येवमभिहिते आईककुमारः प्रत्याह-भोः श्रेणिकमहाराज! नैत-18
दुष्करं यदसौ वनहस्ती बन्धनान्मुक्ता, अपि खेतदुष्करं यत्स्नेहपाशमोचनं, एतञ्च प्राशनियुक्तिगाथया प्रदर्शितं । सा चेय| "ण दुकर वा णरपासमोयणं, गवस्स मत्तस्स वर्णमि राय !| जहा उ चत्तावलिएण तंतुणा, मुदुक्करं मे पडिहाइ मोयणं ॥१॥ एवमाककुमारो राजानं प्रतियोध्य तीर्थकरान्तिकं गवाऽभिवन्ध च भगवन्तं भक्तिभरनिभेर आसांचक्रे, भगवानपि तानि पञ्चापि शतानि प्रवाज्य तच्छिष्यखेनोपनिन्य इति ।।५४।। साम्प्रतं समस्ताध्ययनार्थोपसंहारार्थमाह-'बुद्धस्से त्यादि, 'बुद्धः' अवगततत्वः सर्वज्ञो वीरवर्द्धमानस्वामी तस्याशया-तदागमेन इमं 'समाधि' सद्धर्मावाप्तिलक्षणं अवाप्यासिंश्च समाधौ सुष्टु स्थिखा मनोवाकायैः सुप्रणिहितेन्द्रियो न मिथ्यादृष्टिमनुमन्यते, केवलं तदावरणजुगुप्सां त्रिविधेनापि करणेन विधत्ते, स एवंभूत आ
दीप अनुक्रम [७९२]
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-५५], नियुक्ति: [२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||५५|
सूत्रकृताङ्गे २श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्तिः
स्मनः परेषां च त्रायी-त्राणशीलस्तायी वा-गमनशीलो मोक्षं प्रति, स एवंभूतस्तरीतुम् अतिलल्य समुद्रमिव दुस्तरं महाभवौघं आर्द्रकी| मोक्षार्थमादीयत इत्यादान-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूपं तद्विद्यते यस्खासावादानवान् साधुः, सच सम्यग्दर्शनेन सता पर
या० तीर्थिकतपःसमृयादिदर्शनेन मौनीन्द्रादर्शनाम प्रच्यवते, सम्यगज्ञानेन तु यथावस्थितवस्तुप्ररूपणतः समस्तपावादुकवाद निरा-|| करणेनापरेषां यथावस्थितमोक्षमार्गमाविर्भावयतीति, सम्यक्चारित्रेण तु समस्तभूतग्रामहितैषितया निरुद्धाश्रयद्वारः सन् तपोविशेषाचानेकभवोपार्जितं कर्म निर्जरयति खतोऽज्येषां चैवंप्रकारमेव धर्ममुदाहरे-व्यागृणीयात् आविर्भावयेदित्यर्थः । इतिः परिसमाप्त्यर्थे । प्रवीमीति नयाच प्राम्बदेव वाच्याः, वक्ष्यन्ते चोत्तरत्र ।। ५५ ॥ समाप्त चेदमाईकीयाख्यं पष्ठमध्ययनमिति ॥ ६॥
॥४०५॥
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दीप अनुक्रम [७९२]
इति श्रीसूत्रकृताङ्गे इदमाईकीयाख्यषष्ठमध्ययनं समाप्तम् ॥
॥४०५॥
अत्र षष्ठं अध्ययनं परिसमाप्तं
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-५५...], नियुक्ति: [२०१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
अथ सप्तमनालन्दीयाध्ययनप्रारम्भः ।
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प्रत सूत्रांक ||५५|
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दीप अनुक्रम [७९२]
व्याख्यातं षष्ठमध्ययनम् , अधुना सप्तममारभ्यते, अस्स चायमभिसंबन्धः-इह प्राग्व्याख्यातेनाखिलेनापि सूत्रकृताङ्गेन खसमयपरसमयप्ररूपणाद्वारेण प्रायः साधूनामाचारोभिहितोऽनेन तु श्रावकगतो विधिरुच्यते, यदिवाऽनन्तराध्ययने परखादनिराकरणं कृखा साध्वाचारस्य य उपदेष्टा स उदाहरणद्वारेण प्रदर्शिता, इह तु श्रावकधर्मस्य य उपदेष्टा स उदाहरणद्वारेणैव प्रदश्यते, यदिवाऽनन्तराध्ययने परतीथिकैः सह बाद इह तु स्वयूथ्यैरिति । अनेन संचन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चखार्यनुयोगद्वाराण्युपवर्णितव्यानि उपक्रमादीनि, तत्रापि नामनिष्पने निक्षेपे नालन्दीयाभिधानमिदमध्ययनम् , इदं चैवं व्युत्पाद्यते-प्रतिषेधवाचिनो नकारस्य तदर्थस्यैवालंशब्दस 'हुदा दाने' इत्येतस्य धातोमीलनेन नालं ददातीति नालंदा, इदमुक्तं भवति-प्रतिषेधप्रतिषेधेन धातर्थस्यैव प्राकृतस गमनात्सदार्थिभ्यो यथाभिलपितं ददातीति नालन्दा-राजगृहनगरबाहिरिका तस्यां भवं नालन्दीयमिद-15 मध्ययन, अनेन चाभिधानेन समस्तोऽप्युपोद्घात उपक्रमरूप आवेदितो भवति, तत्खरूपं च पर्यन्ते खत एव नियुक्तिकारः 'पासा-8 वचिजे इत्यादिगाथया निवेदयिष्यतीति । साम्प्रतं संभविनमलंशब्दस्य निक्षेपं नदी परित्यज्य कर्तुमाह
णामअलं ठवणअलं दधअलं चेव होइ भावअलं । एसो अलसइंमिउ निक्खेवो चउविहो होइ ॥ २०१॥ पजत्तीभावे खलु पदमो बीओ भवे अलंकारे । ततितो उ पडिसेहे अलसद्दो होइ नापषो ।। २०२॥
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अथ सप्तमं अध्ययनं "नालन्दीय" आरब्धं, पूर्व-अध्ययनेन सह अस्य अध्यायनस्य अभिसंबंध:, 'अलं" शब्दस्य निक्षेपा:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अगसूत्र-२ (मूल+नियुक्ति :+वृत्ति :)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक -1, मूलं [गाथा-५५...], नियुक्ति: २०३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||५५||
दीप अनुक्रम [७९२]
सूत्रकृताङ्गे पडिसेहणगारस्सा इस्थिसहेण व अलसहो । रायगिहे नयरंमी नालंदा होइ बाहिरिया ॥२०३॥
७नाल२ श्रुतस्क- नालंदाए समिवे मणोरहे भासि इंदभूणा उ । अज्झयणं उदगस्स उ एयं नालंदाजंतु ॥ २०४॥
न्दीयाध्य. न्धे शीला- तत्र अमानोनाः प्रतिषेधवाचकाः, तद्यथा-अगौः अघट इत्याद्यकार: प्रायो द्रव्यस्यैव प्रतिपेधवाचीत्यलंदानेन सहास्य प्रयोकीयावृत्तिः ।
गाभावः, माकारस्त्वनागतक्रियाया निषेधं विधत्ते, तद्यथा-मा का स्तमकार्य मा मंस्थाः संस्था नो युष्मदधिष्ठितदिगेव वीता॥४०६॥
येत्यादि, नोकारस्तु देशनिषेधे सर्वनिषेधे च वर्चते, तद्यथा-नो घटो घटैकदेशो घटैकदेशनिषेधेन, तथा हास्यादयो नोकषायाः
कषायमोहनीयैकदेशभूताः, नकारस्तु समस्तद्रव्यक्रियाप्रतिषेधाभिधायी, तद्यथा-न द्रव्यं न कर्म न गुणोऽभावः, तथा नाकार्ष ९ 18न करोमि न करिष्यामीत्यादि, तथाऽन्यैरप्युक्तं-"न याति न च तत्रासीदस्ति पश्चानवांशवत् । जहाति पूर्व नाधारमहो व्यस-10
नसंततिः ॥१॥" किंचान्यत्-“गतं न गम्यते तावदगतं नैव गम्यते । गतागतविनिर्मुक्तं, गम्यमानं तु गम्यते ॥"इत्यादि । तदेवमत्र नकारः प्रतिषेधविधायकोऽप्युपात्तः, अलंशब्दोऽपि यद्यपि 'अलं पर्याप्ति 'वारणभूषणेष्वपीति त्रिवर्थेषु पठ्यते, तथाऽपीह || प्रतिषेधवाचकेन नत्रा साहचयोत्प्रतिषेधार्थ एव गृह्यते, तत्र चालंशब्दे नामस्थापनाद्रव्यभावभेदाचतुर्विधो निक्षेपो भवति, तत्र | नामालं यस्य चेतनस्य अचेतनस्य वाऽलमिति नाम क्रियते, स्थापनालं तु यत्र निश्चित्रपुस्तकादौ पापनिषेधं कुर्वन्साधुः स्थाप्यते, ॥ द्रव्यनिषेधस्तु नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यस्य चौराद्याहृतस्यैहिकापायभीरुणा यो निषेधः क्रियते स द्रव्य-|| ॥४०६॥ निषेधः, एवं द्रव्येण द्रव्याद् द्रव्ये वा निषेधः, भावनिषेधं तु खत एव नियुक्तिकारोऽलंशब्दस्य संभविनमर्थ दर्शयन्त्रिमणिपुराह-॥ पर्याप्तिभावः-सामथ्र्य तत्रालंशब्दोवतते, अलं मल्लो मल्लाय, समर्थ इत्यर्थः, लोकोतरेऽपि "नालं ते तब ताणाए वा सरणाए वा" ||S
'अलं" शब्दस्य निक्षेपाः,
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-५५...], नियुक्ति: [२०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||५५|
IS अन्यैरप्युक्तम् -"द्रव्यास्तिकरथारूढः, पर्यायोद्यतकामुकः । युक्तिसन्नाहवान्वादी, कुवादिभ्यो भवत्यलम् ॥ १॥" अयं प्रथमो-181 19 लंशब्दार्थों भवति, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे, द्वितीयस्वर्थोऽलङ्कारे-अलङ्कारविषये भवेत् , संभावनायां लिङ्, तद्यथा-अलं
|कृतं देव ! देवेन खकुलं जगच नाभिमूनुने'त्यादि । तृतीयस्खलंशब्दार्थ प्रतिषेधे ज्ञातव्यो भवति, तद्यथा--अलं मे गृहवा-|| | सेन, तथा 'अलं पापेन कर्मणा' उक्तं च-"अलं कुतीथैरिह पर्युपासितैरलं वितर्काकुलकालैमतैः । अलं च मे कामगुणैनिये-18 | वितैभयंकरा ये हि परत्र चेह च ॥१॥" तदिह प्रतिषेधवाचिनाऽलंशब्देनाधिकार इत्येतद्दर्शयितुमाह-सत्यप्पलंशब्दस्वार्थत्रये 8
नकारख सान्निध्यात्प्रतिषेधविधाय्येवेह गृह्यते, ततश्च निरुक्तविधानादयमर्थः-नालं ददातीति नालन्दा, वाहिरिकायाः स्त्रियोहे| शकत्वेन वाचकवेन च नालन्दशब्दख स्त्रीलिंगता, सा च सदैहिकामुष्मिकसुखहेतुखेन मुखपदा राजगृहनगरबाहिरिका धनक-18 नकसमृद्धलेन सत्साध्वाश्रयखेन च सर्वकामप्रदेति । साम्प्रतं प्रत्ययार्थ दर्शयितुकाम आह–नालन्दायाः समीपे मनोरथाख्थे । उद्याने इन्द्रभूतिना गणधरणोदकाख्यनिर्ग्रन्थपृष्टेन तुशब्दस्सैक्कारार्थखात्तस्यैव भाषितमिदमध्ययनं । नालन्दायां भवं नालन्दीयं । नालन्दासमीपोद्यानकथनेन वा निर्वृत्तं नालन्दीयं । यथा चेदमध्ययनं नालन्दायां संवृत्तं तथोत्तरत्र "पासावधिजे" इत्यादिकया सूत्रस्पर्शिकगाथयाऽऽविष्करिष्यते, साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारयितव्यं, तच्चेदंतेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्या, रिद्धिस्थिमितसमिद्धे वण्णओ जाव पडिरूवे, तस्स णं रायगिहस्स नयरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए, एस्थ णं नालंदानाम बाहिरिया होत्या, अणेगभवणसयसन्निविट्ठा जाव पडिरूवा (सू०६८)। तस्य णं नालंदाए बाहिरियाए लेवे नाम गाहावई होत्था,
दीप अनुक्रम [७९२]
actatiseacoccerscreesecse roce
'अलं" शब्दस्य निक्षेपाः, नालन्द शब्दस्य परिचय, मूलसूत्रस्य आरम्भ:
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [६८], नियुक्ति: [२०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
७नाल
सूत्रकृताले २ श्रुतस्क
प्रत सूत्रांक
न्धे शीला
कीयावृत्तिः
[६८]
॥४०७॥
अहे दित्ते विसे विच्छिण्णविपुलभवणसयणासणजाणवाहणाइण्णे बद्धणबहुजायरूबरजते आओगपओ- II गसंपउत्ते विच्छड्डियपउरभत्तपाणे बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूए बहुजणस्स अपरिभूए याविहोत्था॥ || न्दीयाध्य.
अस्य चानन्तरपरम्परसूत्रैः सह संबन्धो वाच्यः, तत्रानन्तराध्ययनपर्यन्ते मूत्रमिदम्-आदानवान् धर्ममदाहरेत , धर्मश्च ।। साधुश्रावकभेदेन द्विधा, तत्र पूर्वोक्तनाद्वयेन प्रायः साधुगतो विधिरभिहितोऽनेन तु श्रावकगतो विधिरुच्यते । परम्परसूत्रसंच-18 |न्धस्त्वयं-'बुध्येते'त्येतदादि सूत्र, किं तत्र बुध्येत', यदेतद्वक्ष्यत इति । सूत्रार्थस्वयं-सप्तम्यर्थे तृतीया, यसिन्काले यसिंथावसरे | राजगृहं नगर यथोक्तविशेषणविशिष्टमासीत् , तस्मिन् काले तसिंश्च समये इदमभिधीयते । राजगृहमेव विशिनष्टि-प्रासादाः | संजाता यसिंस्तत्प्रासादितमाभोगमद्वा, अत एव दर्शनीयं-दर्शनयोग्यं दृष्टिसुखहेतुवात् , तथाऽऽभिमुख्येन रूपं यस्य तदभिरूपं, | तथाऽप्रतिरूपमनन्यसदृशं, प्रतिरूपं वा-प्रतिबिम्ब वा वर्गनिवेशस्य, तदेवंभूतं राजगृहं नाम नगरं 'होत्य'त्ति आसीत् । यद्यपि | तत्कालत्रयेऽपि सत्तां पिभर्ति तथाप्यतीताख्यानकसमाश्रयणादासीदित्युक्तं । तस्य च राजगृहस्य बहिरुत्तरपूर्वस्यां दिशि नालन्दा नाम बाहिरिका आसीत्, सा चानेकभवनशतसनिविष्टा-अनेकभवनशतसंकीर्णेत्यर्थः ॥ तस्यां च लेपो नाम 'गृहपतिः' कुटुम्बिक आसीत् ,स चान्यो दीप्त:-तेजस्वी 'विसः सर्वजनविख्यातो विस्तीर्णविपुलभवनशयनासनयानवाहनाकीर्णो बहुधनबहुजातरूपरजतः
॥४०७॥ आयोगा:-अर्थोपाया यानपात्रोष्ट्रमंडलिकादयः तथा प्रयोजनं प्रयोगः-प्रायोगिकलं तैरायोगायोगैः संप्रयुक्तः समन्वितः, तथेतश्चे-18
दीप अनुक्रम [७९३]
दीयमा
आभोगव.प्र. वरुणच्छत्रयायोरिति यमबदा मूलपाठे तु परिपूर्णतावत् ।
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [६९], नियुक्ति: [२०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक
[६८]
दीप अनुक्रम [७९३]
18| तब विक्षिप्तप्रचुरभक्तपानो बहुदाखादिपरिवृतो बहुजनस्यापरिभूतश्वासीत् । तदियता विशेषणकदम्बकेनैहिकगुणा विष्करणेन | द्रव्यसंपदभिहिता ।। अधुनाऽऽमुष्मिकगुणाविर्भावेन भावसंपदभिधीयते
से णं लेचे नाम गाहावई समणोवासए यावि होत्था, अभिगयजीवाजीवे जाव विहरह, निग्गंथे पावयणे निस्संकिए निकंखिए निवितिगिच्छे लद्धढे गहियढे पुच्छियट्टे विणिच्छियटे अभिगहियवे अट्टिमिजापेमाणुरागरत्ते, अयमाउसो ! निग्गंधे पावयणे अयं अहे अयं परम? सेसे अणद्वे, उस्सियफलिहे अप्पावयदुवारे चिपत्तंतेउरप्पवेसे चाजद्दसट्टमुद्दिद्वपुण्णमासिणीसु पडिपुन्नं पोसह सम्म अणुपालेमाणे समणे निग्गंधे तहाविहेणं एसणिजेणं असणपाणखाइमसाइमणं पडिलाभेमाणे बहहिं सीलबयगुणविरमणपञ्चक्वाणपोसहोषवासेहिं अप्पाणं भावेमाणे एवं च णं विहरद ॥ (सू०६९)॥
णमिति वाक्यालङ्कारे, स लेपाख्यो गृहपतिः श्रमणान्-साधूनुपास्ते-प्रत्यहं सेवत इति श्रमणोपासकः, तदनेन विशेषणेन तख जीवादिपदार्थाविर्भावकश्रुतज्ञानसंपदावेदिता भवति, एतदेव दर्शयति अभिगतजीवाजीचेत्यादिना ग्रन्थेन यावदसहायोऽपि देवासुरादिभिर्देवगणैरनतिक्रमणीयः-अनतिलहनीयोधर्मादाच्यावनीय इतियावत् , तदियता विशेषणकलापेन तस्य सम्यगज्ञानिस-11 मावेदितं भवति । साम्प्रतं तस्य विशिष्टसम्यग्दर्शनिख प्रतिपादयितुमाह-निग्गंथे' इत्यादि, 'निर्ग्रन्धे आहेते प्रवचने निर्गता शङ्का देशसर्वरूपा यस्य स निःशङ्कः, 'तदेव सत्यं निःशवं यजिनैः प्रवेदित'मित्येवं कृताध्यवसायः, तथा निर्गता कासा-अन्यान्यदर्शनग्रहणरूपा यथासौ निराकासः, तथा निर्गता विचिकित्सा-चित्तविलतिर्विद्वज्जुगुप्सा वा यस्यासी निर्षिचिकित्सो, यत
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [६९], नियुक्ति: [२०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१९]
मूत्रकृताने २ श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्तिः I૪૦૮
दीप अनुक्रम [७९४]
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एवमतो लब्धः--उपलब्धोऽर्थः परमार्थरूपो येन स लब्धार्थी ज्ञाततत्व इत्यर्थः, तथा गृहीतः स्वीकृतोऽर्थों-मोक्षमार्गरूपो येन । नाल|स गृहीतार्थः, तथा-विशेषतः पृष्टोऽर्थों येन स पृष्टार्थो, यत एवमतो विनिचितार्थः ततोऽभिगत:-पृष्टनिर्वचनतः प्रतीतोऽयोंन्दीयाध्य.
येन सोऽभिगतार्थः, तथास्थिमिञ्जा-अस्थिमध्यं यावत् स धर्मे प्रेमानुरागेण रक्तः अत्यन्तं सम्यक्सवासितान्तश्वेता इतियावत् , | एतदेवाविर्भावयवाह-'अयमाउसो'इत्यादि, केनचिद्ध सर्वेखं पृष्टः सन्नेतदाचष्टे, तद्यथा-भो आयुष्मभिदं नन्थं मीनीन्द्रप्रवचनमर्थः-सद्भतार्थः तथाप्ररूपणतया, तथेदमेवाह-अयमेव परमार्थः, कपतापच्छेदैरस्यैव शुद्धखेन निषेटितखान , शेषस्तु | सर्वोऽपि लौकिकतीथिंकपरिकल्पितोऽनर्थः, तदनेन विशेषणकदम्बकेन सम्यक्त्रगुणाविष्करणं कृतं भवति । साम्प्रतं तस्यैव सम्य-|| ग्दर्शनशानाभ्यां कृतो यो गुणस्तदाविष्करणायाह-'उस्सिय'इत्यादि, उच्छृतं-प्रख्यात स्फटिकवनिर्मलं यशो यस्थासावुचिन्त-161 स्फटिकः, प्रख्यातनिर्मलयशा इत्यर्थः, तथाऽग्रावृतम्-अस्थगितं द्वार-गृहमुखं यस्य सोमायतद्वारः, इदमुक्तं भवति-गृह प्रविश्य परतीर्थिकोऽपि यद्यत्कथयति तदसौ कथयतु न तस्य परिजनोऽप्यन्यथा भावयितुं सम्यक्त्वाच्यावपितु शक्यत इतियावत् , तथा राज्ञां वल्लभान्तःपुरद्वारेषु प्रवेष्टुं शीलं यस्य स तथा, इदमुक्तं भवति-प्रतिषिद्धान्यजनप्रवेशान्यपि यानि स्थानानि |भाण्डागारान्तः पुरादीनि तेष्वप्यसौ प्रख्यातश्रावकाख्यगुणवेनास्खलितप्रवेशः, तथा चतुर्दश्यष्टम्यादिषु तिथिखूपदिष्टासु-महा-
II कल्याणकसंबन्धितया पुण्यतिथिखेन प्रख्यातासु तथा पौर्णमासीषु च तिसृष्वपि चतुर्मासकतिथिवित्यर्थः, एवंभूतेषु धर्म-शा दिवसेषु सुष्टु-अतिशयेन प्रतिपूर्णी यः पौषधो-त्रताभिग्रहविशेषस्तै प्रतिपूर्णम्-आहारशरीरसत्कारब्रह्मचर्याव्यापाररूपं पौषध-4 मनुपालयन् संपूर्ण श्रावकधर्ममनुचरति, तदनेन विशेषणकलापेन विशिष्टं देशचारित्रमावेदितं भवति । साम्प्रतं तस्यैवोत्तरगुणख्या
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [६९], नियुक्ति: [२०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६९]
Kापनेन दानधर्ममधिकृत्याह-'समणे निग्गंधे इत्यादि, सुगम यावत् पडिलाभेमाणे ति, साम्प्रतं तस्यैव शीलतपोभावनात्मक
धर्ममावेदयन्नाह–'बहूहि'मित्यादि, बहुभिः शीलवतगुणविरमणप्रत्याख्यानपौषधोपवासैस्तथा यथापरिगृहीतैश्च तपःकर्मभिरास्मानं भावयन् , एवं चानन्तरोक्तया नीत्या विहरति-धर्ममाचरंस्तिष्ठति चः समुच्चये णमिति वाक्यालङ्कारे ।।
तस्स णं लेवस्स गाहावइस्स नालंदाए बाहिरिवाए उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए एत्थ णं सेसदविया नाम उद्गसाला होस्था, अणेगखंभसयसन्निविट्ठा पासादीया जाव पडिरूवा, तीसे णं सेसदविपाए उद्गसालाए उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए, एत्थणं हत्यिजामे नाम वणसंडे होत्था,किण्हे वण्णओ वणसंडस्स||(स.७०) तस्सिं च णं गिहपदेसंमि भगवं गोयमे बिहरह, भगवं च णं अहे आरामंसि । अहे णं उदए पेढालपुत्ते भगवं पासावचिजे निपंठे मेयजे गोतेणं जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छा, उवागच्छदत्ता भगवं गोयम एवं वयासी-आउसंतो! गोयमा अत्थि खलु मे केइ पदेसे पुच्छियवे, तं च आउसो! अहासुर्य अहादरिसियं मे वियागरेहि सवार्य, भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं बयासी-अवियाइ आउसो! सोचा निसम्म जाणिस्सामो सवायं, उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं एवं बयासी-1 (स.७१)
तस चैवंभूतस्य लेपोपासकस्य गृहपतेः संबन्धिनी नालन्दायाः पूर्वोत्तरस्यां दिशि शेषद्रव्याभिधाना-गृहोपयुक्तशेषद्रव्येण || | कता शेषद्रव्येत्येतदेवाभिधानमस्सा उदकशालायाः, सैर्वभूताऽऽसीदनेकस्तम्भशतसनिविष्टा प्रासादीया दर्शनीयाऽभिरूपा प्रति-|| रूपेति, तस्यायोचरपूर्वदिग्विभागे हस्तियामाख्यो वनखण्ड आसीत् , कृष्णावभास इत्यादिवर्णकः ।। तसिंध बनखण्डगृहप्रदेशे |
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७१], नियुक्ति: [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
नालन्दीयाध्य.
प्रत सूत्रांक
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||७१||
॥४०९॥
सूत्रकृताङ्गे 18| भगवान् गौतमस्वामी श्रीवर्धमानखामिगणधरो विहरति । अथानन्तरं भगवान् गौतमखामी तस्मिन्नारामे सह साधुभिर्व्यवस्थितः, २ श्रुतस्क- 'अथ' अनन्तरं णमिति वाक्यालङ्कारे उदकाख्यो निर्ग्रन्थः पेढालपुत्रः 'पाश्र्थापत्यस्य' पार्श्वस्वामिशिष्यस्थापत्यं-शिष्यः पार्था- न्ध शाला- पत्यीयः, स च मेदायों गोत्रेण, येनैवेति सप्तम्यर्थे तृतीया, यसां दिशि यसिन्वा प्रदेशे भगवान् श्रीगौतमखामी तस्यां दिशि कीयावृत्तिः
तसिन्या प्रदेशे समागत्येदं-वक्ष्यमाणं प्रोवाचेति । अत्र नियुक्तिकारोऽध्ययनोत्थानं तात्पर्य च गाथया दर्शयितुमाहपासावचिजो पुच्छियाइओ अजगोयमं उदगो । सावगपुच्छा धम्म सोउं कहियंमि उवसंता ॥ २०५॥ पार्श्वनाथशिष्य उदकाभिधान आर्यगौतम पृष्टवान् , किं तत् ? -श्रावकविषयं प्रश्नं, तद्यथा-भो इन्द्रभूते ! साधोः श्रावकाणुव्रतदाने सति स्थूलपाणातिपातादिविषये तदन्येषां सूक्ष्मवादराणां प्राणिनामुपधाते सत्यारंभजनिते तदनुमतिप्रत्ययजनितः कर्मपन्धः कसान भवति , तथा स्थूलप्राणातिपातवतिनस्तमेव पयोयान्तरगर्त व्यापादयतो नागरिकवधनिवृत्तस तमेव बहिास्य | व्यापादयत इव तद्वतभङ्गजनितः कर्मबन्धः कसान भवतीत्येतत्प्रश्नस्योत्तरं गृहपतिचौरग्रहणविमोक्षणोपमया दत्तवान् , तब श्रावकप्रश्नस्यौपम्यं गौतमखामिना कथितं श्रुखोदकाख्यो निर्ग्रन्थः 'उपशांतः' अपगतसंदेहः संवृत्त इति । साम्प्रतं सूत्रमनुस्रियते'स' उदको गौतमखामिसमीपं समागत्य भगवन्तमिदमवादीत् , तद्यथा-आयुष्मन्गौतम! 'अस्ति मम वियते कश्चित्पदेशः प्रष्टव्यः' तत्र संदेहात् , तं च प्रदेशं यथाश्रुतं भवता यथा च भगवता संदर्शितं तथैव मम 'व्यागृणीहि प्रतिपादय । एवं पृष्टः स चार्य भगवान् , यदिवा सह बादेन सबादं पृष्टः सद्वाचं वा-शोभनभारतीकं वा प्रश्नं पृष्टा, तमुदकं पेढालपुत्रमेवमवादीत् ।
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अनुक्रम [७९६]
॥४०९॥
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७१], नियुक्ति: [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||७||
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तयथा-अपिचायुष्मन्बुदक ! श्रुला भवदीयं प्रश्नं निशम्य च-अवधार्य च गुणदोषविचारणतः सम्यगासे, तदुच्यता विश्रब्धं भवता खाभिप्रायः 'सवाय' सद्वाचं चोदका, सवादं सदाचं वोदकः पेढालपुत्रो भगवन्त गौतममेवमवादीत् ॥
आउसो ! गोयमा अस्थि खलु कुमारपुत्तिया नाम समणा निग्गंधा तुम्हाणं पवयर्ण पवयमाणा गाहावई समणोवासगं उवसंपनं एवं पचक्खाति–णण्णत्व अमिओएणं गाहावइचोरगहणविमोकखणयाए तसेहिं पाणेहिं णिहाय दंडं, एवं पहं पच्चक्खंताणं दुप्पच्चक्खायं भवइ, एवं ण्हं पचक्खावेमाणाणं दुपञ्चक्खाविय भवइ, एवं ते परं पञ्चक्खावेमाणा अतियरंति सयं पतिण्णं, कस्स णं सं हे, संसारिया खलु पाणा धावरावि पाणा तसत्ताए पञ्चायंति, तसावि पाणा थावरत्साए पचायंति, थावरकायाओ विप्पमुच्चमाणा तसकायंसि उवववति, तसकायाओ विष्पमुच्चमाणा धावरकायंसि उववजंति, तेर्सि च णं थावरकार्यसि उपवण्णाणं ठाणमेयं धत्तं ॥ (स.७२) एवं ण्हं पञ्चक्वंताणं सुपचक्खायं मवह, एवं ण्हं पञ्चक्खावेमाणाणं सुपचक्खावियं भवह, एवं ते परं पञ्चक्खावेमाणा णातियरंति सयं पइपणं, णण्णस्थ अभिओगेणं गाहावदचोरग्गहणविमोक्खणयाए तसभूएहिं पाणेहिं णिहाय दंड, एवमेव सह भासाए परक्कमे विजमाणे जे ते कोहा वा लोहा वा परं पच्चक्खावेंति अयंपि णो उवएसे णो णेआउए भवइ, अवियाई आउसो! गोयमा! तुन्भपि एवं रोयइ? (म.७३) सवायं भगवं गोयमे ! उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी-आउसंतो! उदगा नो खलु अम्हे एयं रोयइ, जे ते समणा वा माहणा वा एवमाइक्खंति
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दीप
अनुक्रम [७९६]
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७४], नियुक्ति: [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
सूत्रकृताङ्गे
२ श्रुतस्क-18 न्धे शीला
प्रत सूत्रांक ||७४||
कीयावृत्तिः
॥४१०॥
दीप अनुक्रम [७९९]
जाव परुति णो खस्तु ते समणा वा णिग्गंधा वा भासं भासंति, अणुतावियं खलु ते भासं भासंति, ७नालअभाइक्खंति खलु ते समणे समणोवासए वा, जेहिंवि अन्नेहिं जीवहिं पाणेहिं भूएहिं सत्तेहिं संजम- वन्दीयाध्य. यंति ताणवि ते अभाइक्खंति, कस्स णं तं हेडं, संसारिया खलु पाणा, तसावि पाणा धावरत्ताए पञ्चायति धावराविपाणा तसत्ताए पञ्चायति तसकायाओ विप्पमुच्चमाणा थावरकायंसि उववजंति थावरकायाओ विप्पमुच्चमाणा तसकायंसि उवचजंति, तेसिं च णं तसकायंसि उववन्नाणं ठाणमेयं अघत्तं (सू.७४)
तद्यथा-भो गौतम! अस्तीत्ययं विभक्तिप्रतिरूपको निपात इति वदर्थवृत्तिर्गृहीतः, ततश्चायमर्थः-'सन्ति' विद्यन्ते कुमारपुत्रा नाम निग्रन्था युष्मदीयं प्रवचनं प्रवदन्तः, तद्यथा-गृहपतिं श्रमणोपासकमुपसंपन-नियमायोत्थितमेवं 'प्रत्याख्यापपन्ति' प्रत्याख्यानं कारयन्ति, तद्यथा-स्थूलेषु प्राणिषु दण्डयतीति दण्डः-प्राण्युपमर्दस्तं 'निहाय' परित्यज्य, प्राणातिपात|| नितिं कुर्वन्ति, तामेवापबदति-नान्यत्रेति, खमनीपिकाया अन्यत्र राजापभियोगेन यः प्राण्युपधातो न तत्र नितिरिति । तत्र फिल स्थूलपाणिविशेषणाचदन्येषामनुमतिप्रत्ययदोपः स्थादित्याशङ्कावानाह-'गाहावई'इत्यादि, अस्स चामुत्तरत्रावि-18|| भावयिष्यामः । येनाभिप्रायेणोदकचोदितवांस्तमाविष्कुर्ववाह-'एवं पह'मित्यादि, हमिति वाक्यालङ्कारे, अवधारणे वा, III एवमेव प्रसपाणि विशेषणनेनापरत्रसभूतविशेषणरहितलेन प्रत्याख्यानं गृहां श्रावकाणां दुष्प्रत्याख्यानं भवति, प्रत्याख्यानम-IN
सद्भावात् , तथैवमेव प्रत्याख्यापयतामपि साधूनां दुष्ट प्रत्याख्यानदानं भवति, किमित्यत आह-एवं ते श्रावकाः प्रत्या-18 ! ख्यानं गृहन्तः साधवश्व परं प्रत्याख्यापयन्तः खां प्रतिज्ञामतिचरन्ति-अतिलक्यन्ति । 'कस्स णं हेजति प्राकृतशेल्या कला-118
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॥७४||
दीप
अनुक्रम [७९९]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [-], मूलं [७४], निर्युक्तिः [२०५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
देतोरित्यर्थः । तत्र प्रतिज्ञाभङ्गकारणमाह- 'संसारिया' इत्यादि, संसारो विद्यते येषां ते सांसारिकाः, खलुरलङ्कारे, 'प्राणाः' जन्तवः स्थावराः 'प्राणिनः' पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः सन्तोऽपि तथाविधकर्मोदयात्रसतया - त्रसत्वेन द्वीन्द्रियादिभावेन प्रत्यायान्ति- उत्पद्यन्ते, तथा प्रसा अपि स्थावरतयेति, एवं च परस्परगमने व्यवस्थिते सत्यवश्यंभावी प्रतिज्ञाविलोप:, तथाहि -नागरिको मया न हन्तव्य इत्येवंभूता येन प्रतिज्ञा गृहीता स यदा बहिरारामादी व्यवस्थितं नागरिकं व्यापादयेत् किमेतावता तस्य भवेत्प्रतिज्ञाविलोपः ?, एवमत्रापि येन त्रसबधनिवृत्तिः कृता स यदा तमेव त्रसं प्राणिनं स्थावर काय स्थितं व्यापादयेत् किं तस्य न भवेत्प्रतिज्ञाविलोपः १, भवत्येवेत्यर्थः । एवमपि त्रसस्थावर काये समुत्पन्नानां त्रसानां यदि तथाभूतं किञ्चिदसाधारणं लिङ्गं | स्यात् ततस्ते त्रसाः स्थावर खेनाप्युत्पन्नाः शक्यन्ते परिहर्तु न च तदस्तीत्येतद्दर्शयितुमाह- 'धावरकायाओ' इत्यादि, स्थावरकायात्सकाशाद्विविधम्- अनेकैः प्रकारैः प्रकर्षेण मुच्यमानाः स्थावरकायायुषा तद्योग्यैवापरैः कर्मभिः सर्वात्मना सकाये समुस्पद्यन्ते, तथा त्रसकायादपि सर्वात्मना विमुच्यमानास्तत्कर्मभिः स्थावरकाये समुत्पद्यन्ते तत्र चोत्पन्नानां तथाभूतत्रसलिङ्गाभावात्प्रतिज्ञालोप इत्येतत्सूत्रेणैव दर्शयितुमाह- 'तेसिं च ण'मित्यादि, 'तेषां च' त्रसानां स्थावरकाये समुत्पन्नानां गृहीतत्रसप्राणातिपातविरतेः श्रावकस्याप्यारम्भप्रवृत्तत्वेनैतत्स्थावराख्यं घात्यं स्थानं भवति, तस्मादनिवृत्तत्वात्तस्येति ॥ तदेवं व्यवस्थिते नागरिकदृष्टान्तेन त्रसमेव स्थावरत्वेनायातं व्यापादयतोऽवश्यंभावी प्रतिज्ञाविलोपो यतः तत एव मदुक्तया वक्ष्यमाणनीत्या प्रत्याख्यानं कुर्वतां सुप्रत्याख्यातं भवति, एवमेव च प्रत्याख्यापयतां सुप्रत्याख्यापितं भवति, एवं च ते प्रत्याख्यापयन्तो नातिचरन्ति | स्वीयां प्रतिज्ञामित्येतदर्शयितुमाह- 'णण्णत्थे'त्यादि, तत्र गृहपतिः प्रत्याख्यानमेवं गृह्णाति, तद्यथा - 'सभूतेषु वर्तमानकाले
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७४], नियुक्ति: [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||७४||
सत्रकृताने २श्रुतस्क- न्धे शीला- कीयावृत्ति ॥४११॥
दीप अनुक्रम [७९९]
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सखेनोत्पनेषु प्राणिषु दण्डयतीति दण्डः-प्राण्युपमर्दस्तं 'विहाय परित्यज्य प्रत्याख्यानं करोति, तदिह भूतसविशेषणात्स्था-|| नालवरपर्यायापनवधेऽपि न प्रतिज्ञाविलोपः । तथा 'नान्यत्राभियोगेने ति राजाद्यमियोगादन्यत्र प्रत्याख्यानमिति । तथा गृहपति- न्दीयाध्य. चौरविमोक्षणतयेति, एतच भवद्भिः सम्यगुक्त, एतदपि त्रसकाये भूतसविशेषणमभ्युपगम्यतामिति, एतदभ्युपगमेऽपि हि यथा क्षीरविकृतिप्रत्याख्यायिनो दधिभक्षणेऽपि न प्रतिज्ञाविलोपः तथा असभूताः सत्त्वा न हन्तव्या इत्येवं प्रतिज्ञावतः स्थावरहिंसायामपि न प्रत्याख्यानातिचारः । तदेवं विद्यमाने सति 'भाषाया' प्रत्याख्यानवाचः 'पराक्रमें भूतविशेषणादोपपरिहारसा-18 मध्ये एवं पूर्वोक्तया नीत्या सति दोषपरिहरणोपाये ये केचन क्रोधाद्वा लोभावा 'परं' श्रावकादिक निर्विशेषणमेव प्रत्याख्या-1 | यन्ति, तेषां प्रत्याख्यानं ददतां मृपावादो भवति, गृह्णतां चावश्यंभावी व्रतविलोप इति, तदेवमयमपि नः असदीयोपदेशाभ्यु-18 | पगमो भूतखविशेषणविशिष्टः पक्षः किं भवतां 'नो' नैव 'नैयायिको न्यायोपपत्रो भवति , इदमुक्तं भवति-भूतखविशेषणेन हि
प्रसान् स्थावरोत्पन्नान् हिंसतोऽपि न प्रतिज्ञातिचार इति, अपि चैतदायुष्मन् गौतम! तुभ्यमपि रोचते-एवमेतद्यथा मया व्याख्या-MI | तम् । एवममिहितो गौतमः सदाचं सवादं वा तमुदकं पेढालपुत्रमेवं वक्ष्यमाणमवादीत् , तथा नोखत्वायुष्मनुदकासभ्यमेतदेव || यद्यथा खयोच्यते तद्रोचत इति, इदमुक्तं भवति-यदिदं त्रसकायविरतौ भूतख विशेषणं क्रियते तनिरर्थकतयाऽसब न रोचत । इति । तदेवं व्यवस्थिते भो उदक! ये ते श्रमणा वा ब्राह्मणा वा एवं भूतशब्दविशेषणलेन प्रत्याख्यानमाचक्षते, परैः पृष्टास्त-S४१शा थैव भाषन्ते प्रत्याख्यानं, स्वतः कुर्वन्तः कारयन्तचैवमिति-सविशेषणं प्रत्याख्यानं भाषन्ते, तथैवमेव सविशेषणप्रत्याख्यानमरूपणावसरे सामान्येन प्ररूपयन्ति, एवं च प्ररूपयन्तो न खलु ते श्रमणा वा निर्ग्रन्था वा यथार्थों भाषा भाषन्ते, अपिलनुताप
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[७९९ ]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [-], मूलं [७४], निर्युक्तिः [२०५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
यतीत्यनुतापिका तां तथाभूतां च खलु ते भाषां भाषन्ते, अन्यथामापणे हापरेण जानता बोधितस्य सर्वोऽनुतापो भवतीत्यतोऽनुतापिकेत्युच्यत इति । पुनरपि तेषां सविशेषणप्रत्याख्यानवतामुल्बणदोषोद्विभावविषयाऽऽह - 'अन् माइक्रवंती त्यादि, ते हि सविशेषणप्रत्याख्यानवादिनो यथावस्थितं प्रत्याख्यानं ददतः साधून गृहतश्च श्रमणोपासकानभ्याख्यान्ति - अभूतदोपोद्रावनतोऽभ्याख्यानं ददति । किंचान्यत् – 'जेहिंवि' इत्यादि, वेष्वप्यन्येषु प्राणिषु भूतेषु जीवेषु सन्धेषु विषयभूतेषु विशिष्य ये संयमं कुर्वन्ति संयमयन्ति तद्यथा— ब्राह्मणो न मया हन्तव्य इत्युक्ते स यदा वर्णान्तरे तिर्यक्षु वा व्यवस्थितो भवति तद्वधे ब्राह्मणवध आपद्यते, भूतशब्दा विशेषणात्, तदेवं तान्यपि विशेषव्रतानि सूकरो मया न हन्तव्य इत्येवमादीनि ते भूतशब्दविशेषणवादिनोऽभ्याख्यान्ति दूषयन्ति । किमित्यत आह- 'कस्स णमित्यादि कस्माद्धेतोस्तदसद्भूतं दूषणं भवतीति १, यस्मात्सांसारिकाः खलु प्राणाः परस्परजातिसंक्रमणभाजो यतस्ततस्त्रसाः प्राणिनः स्थावरलेन प्रत्यायान्ति स्थावराम त्रसलेनेति । सकायाश्च सर्वात्मना त्रसायुष्कं परित्यज्य स्थावरकाये तद्योग्यकर्मोपादानादुत्पद्यन्ते, तथा स्थावर कायाच्च तदायुष्कादिना कर्मणा विमुच्यमानाखसकाये समुत्पद्यन्ते तेषां च त्रसकाये समुत्पन्नानां स्थानमेतत्रसकायाख्यमघात्यम्--- अघाताईं भवति यसाचेन | श्रावकेण त्रसानुद्दिश्य स्थूलप्राणातिपातविरमणं कृतं, तस्य तीव्राध्यवसायोत्पादकखाल्लोकगर्हितखाच्चेति, तत्रासौ स्थूलप्राणातिपातान्निवृत्तः, तनिवृत्या च प्रसस्थानमघात्यं वर्तते, स्थावरकायाचानिवृत्त इति तद्योग्यतया तत्स्थानं घात्यमिति । तदेवं भवदभिप्रायेण विशिष्टसच्चोद्देशेनापि प्राणातिपातनिवृत्तौ कृतायामपरपर्यायापनं प्राणिनं व्यापादयतो व्रतभङ्गो भवति, ततश्च न कस्यचिदपि सम्यग्वतपालनं स्यादित्येवमभ्याख्यातम् -- असभूतदोषोद्भावनं भवन्तो ददति । यदपि भवद्भिर्वर्तमानकालविशेष
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७४], नियुक्ति: [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||७४||
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दीप अनुक्रम [७९९]
सूत्रकृताङ्गेणखेन किलायं भूतशब्द उपादीयते असावपि व्यामोहाय केवलमुपतिष्ठते, तथाहि-भूतशब्दोऽयमुपमानेऽपि वर्तते, तद्यथा- |७नाळ२ श्रुतस्क
देवलोकभूतं नगरमिदं, न देवलोक एव, तथात्रापि त्रसभूताना-प्रससदृशानामेव प्राणातिपातनिवृत्तिः कृता स्यात् , न तु सा- न्दीयाध्य. न्धे शोला- | नामिति, अथ तादर्थे भूतशब्दोऽयं, यथा शीतीभूतमुदकं, शीतमित्यर्थः, एवं वसभूतास्त्रसख प्राप्ताः, तथा च सति सशब्देनैव || कीयावृत्तिः गतार्थखात्पौनरुक्त्यं साद्, अथैवमपि स्थिते भूतशब्दोपादानं क्रियते, तथा च सत्यतिप्रसङ्गः स्थात् , तथाहि-क्षीरभूतवि॥४१२॥
कृतेः प्रत्याख्यानं करोम्येवं घृतभूतं मे ददखैवं घटभूतः पटभूत इत्येवमादावप्यायोग्यमिति ॥ तदेवं निरस्ते भूतशब्दे-18| | सत्युदक आह
सवायं उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयम एवं वयासी-कयरे खलु ते आपसंतो गोयमा ! तुन्भे वयह तसा पाणा तसा आउ अन्नहा', सवायं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी-आउसंतो उदगा ! जे तुम्भे वयह तसभूता पाणा तसा ते वयं वयामो तसा पाणा, जे वयं वयामो तसा पाणा ते तुम्भे वयह तसभूया पाणा, एए संति दुवे ठाणा तुल्ला एगट्ठा, किमाउसो ! इमे भे सुप्पणीयतराए भवइ तसभूया पाणा तसा, इमे भे दुप्पणीयतराए भवइ-तसा पाणा तसा, ततो एगमाउसो ! पडिकोसह एक अभिणंदह,
॥४१२॥ अयंपि भेदो से णो णेआउए भव ॥ भगवं च णं उदाहु-संतेगइआ मणुस्सा भवंति, तेसिं च णं एवं वुत्तपुर्व भवइ-णो खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवइत्तए, सावयं ण्डं अणुपुत्वेणं
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७५], नियुक्ति: [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||७५||
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गुत्तस्स लिसिस्सामो, ते एवं संखति ते एवं संखं उवयंति ते एवं संखं ठावयंति नन्नस्थ अभिओएणं गाहावइचोरग्गहणविमोक्खणयाए तसेहिं पाणेहिं निहाय दंडं, तंपि तेसिं कुसलमेव भव ॥ (सू०७५) |
सद्वाचं सवादं बोदकः पेढालपुत्रो भगवन्तं-गौतममेवमवादीत , तद्यथा-हे आयुष्मन् गौतम ! कतरान्प्राणिनो यूयं वदथ, असा | एव ये प्राणा:-प्राणिनस्त एवं प्रसाः प्राणा इत्युतान्यथेति, एवं पृष्टो भगवान् गौतमस्तमुदकं सद्वार्च पेढालपुत्रमेवमयादीत , तयथा-18 | आयुष्मअदक! याप्राणिनो यूयं वदथ त्रसभूताः-वसलेनाविभूताः प्राणिनो नातीता नाप्येष्याः, किंतु वर्तमानकाल एव |
साःप्राणा इति, तानेव वयं वदामखसाः-त्रसख प्राप्तास्तत्कालवर्तिन एवं प्रसाः प्राणा इति, एतदेव व्यत्ययेन बिभणिषु-18 राह-'जे वय'मित्यादि, यान् वयं वदामखसा एवं प्राणास्त्रसाः प्राणास्तानेव यूयमेवं वदथ-सभूता एवं प्राणास्त्रसभूताः18 || प्राणाः, एवं च व्यवस्थिते एते अनन्तरोक्ते द्वे अपि स्थाने एकार्थे-तुल्ये भवतो, न बत्रार्थभेदः कविदस्त्यन्यत्र शब्दभेदादिति, एवं च81 व्यवस्थिते किमायुष्मन् ! युष्माकमयं पक्षः सुष्टु प्रणीततरो-युक्तियुक्तः प्रतिभासते , तद्यथा-सभूता एव प्राणास्त्रसभूताः18 प्राणा इति, अयं तु पक्षो दुष्प्रणीततरो 'भवति' प्रतिभासते भवतां , तद्यथा-सा एवं प्राणाखसाः प्राणाः, सन्ति चैकार्थ-121 | त्वेन (सति चैकार्थत्वे) भवतां कोऽयं व्यामोहो? येन शब्दभेदमात्रमाश्रित्यात एक पक्षमाक्रोशयथ द्वितीयं खभिनन्दथ | इति । तदयमपि तुल्येऽप्यर्थे सत्येकस्य पक्षस्याक्रोशनमपरस्य सविशेषणपक्षस्थाभिनन्दनमित्येष दोषाभ्युपगमो भवतां 'नो नैया-18
यिको' न न्यायोपपनो भवति, उभयोरपि पक्षयोः समानखात् , केवलं सविशेषणपक्षे भूतशब्दोपादानं मोहमाबहतीति । & यच भवताऽस्माकं प्राग्दोषोद्भावनमकारि, तद्यथा-सानां वधनिवृत्तौ तदन्येषां वधानुमतिः स्यात् साधोः, तथा भूतशब्दानु-॥
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [-], मूलं [७५], निर्युक्तिः [२०५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
सूत्रकृताङ्के
२ धुतस्क न्धे शीला
॥४१३ ॥
पादानेऽनन्तरमेव श्रसं स्थावरपर्यायापनं व्यापादयतो व्रतभङ्ग इत्येतत्कुचयजातं परिहर्तुकाम आह्णमिति वाक्यालङ्कारे, भगवान्गोतमस्वामी, चशब्दः पुनः शब्दार्थे, पुनराह तद्यथा-' सन्ति' विद्युन्ते एके केचन लघुकर्माणों मनुष्याः प्रव्रज्य कर्तुमसमर्धाः, तद्व्यतिरेकेणैव धर्म चिकीर्षवः, तेषां चैवमध्यवसायिनां साधोर्धर्मोपदेशप्रवणस्याग्रत इदमुक्तपूर्व भवति, तद्यथा-भोः कीयावृत्तिः साधो न खलु वयं शक्रमो मुण्डा भवितुं प्रवज्यां ग्रहीतुमगाराद्-गृहादनगारतां साधुभावं प्रतिपत्तुं वयं त्वानुपूर्व्येण - क्रमशो * 'गोत्रस्येति गां त्रायत इति गोत्रं साधुखं तस्य साधुभावस्य पर्यायेण परिपाव्याऽऽत्मानमनु श्लेषयिष्यामः, इदमुक्तं भवति-पूर्व | देशविरतिरूपतया श्रावकधर्मं गृहस्थयोग्यमनिन्द्यमनुपालयामः, ततोऽनुक्रमेण पथाच्छ्रमणधर्ममिति । तत एवं ते 'संख्यां' व्यवस्थां 'श्रावयन्ति' प्रत्याख्यानं कुर्वन्तः प्रकाशयन्ति, तद्यथा - नान्यत्राभियोगेन स चाभियोगो राजाभियोगो गणाभियोगों क्लाभियोगो देवताभियोगो गुरुनिग्रहश्रेत्येवमादिनाऽभियोगेन व्यापादयतोऽपि असे न व्रतभङ्गः । तथा गृहपतिचोरविमोक्षणतयेत्यस्यायमर्थः - कस्यचिगृहपतेः पटू पुत्राः, तेथ सत्यपि पितृपितामहक्रमायाते महति वित्ते तथाविधकर्मोदयाद्राजकुलभाण्डागारे चौर्यमकारि, राजपुरुषश्च भवितव्यतानियोगेन गृहीतास्ते इत्येके, परे वन्यथा व्याचक्षते, तद्यथा-रत्नपुरे नगरे रत्नशेखरो नाम राजा, तेन च परितुष्टेन रत्नमालाग्रमहिषीप्रमुखान्तः पुरस्य कौमुदी प्रचारोऽनुज्ञातः, तदवगम्य नागरलोकेनापि राजानुमत्या | स्वकीयस्य स्त्रीजनस्य तथैव क्रीडनमनुमतं राज्ञा च नगरे सडिण्डिमशब्दमाघोषित, तद्यथा— अस्तमनोपरि कौमुदीमहोत्सवे प्रवृत्ते यः कचित्पुरुषः समुपलभ्यते नगरमध्ये तस्याविज्ञप्तिकः शरीरनिग्रहः क्रियत इति, एवं च व्यवस्थिते सत्येकस्य वणिजः पटू पुत्राः, ते च कौमुदीदिने क्रयविक्रयसंव्यवहारव्यग्रतया तावत्स्थिता यावत्सविताऽस्तमुपगतः । तदनन्तरमेव स्थगितानि च
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [-], मूलं [७५], निर्युक्तिः [२०५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
नगरद्वाराणि तेषां च तत्कालात्ययान्न निर्गमनमभूत्, ततस्ते भयसंभ्रान्ता नगरमध्य एवात्मानं गोपयित्वा स्थिताः, ततो निष्क्रान्ते कौमुदीप्रचारे राज्ञाऽऽरक्षिकाः समाहूयादिष्टाः यथा सम्यक निरूपयत यूयं नात्र नगरे कौमुदीचारे कश्चित्पुरुषो व्यवस्थित १ इति, तैरप्यारक्षिकैः सम्यग् निरूपयद्भिरुपलभ्य पचणिक्पुत्रवृत्तान्तो यथावस्थित एव राज्ञे निवेदितः, राज्ञाऽप्याज्ञाभङ्गकुपितेन तेषां षण्णामपि वधः समादिष्टः, ततस्तत्पिता पुत्रवधसमाकर्णन गुरुशोकविहलोऽकाण्डा पतितकुलक्षयोद्भ्रान्तलोचनः किंकर्तव्यतामूढतया गणितविधेया विधेयविशेषो राजानमुपस्थितोऽवादीच्च गद्गदया गिरा — यथा मा कृथा देवास्माकं कुलक्षयं, गृह्यतामिदमस्मदीयं कुलक्रमायातं स्वभुजोपार्जितं प्रभूतं द्रविणजातं, मुध्यतां मुच्यताममी पट् पुत्राः क्रियतामयमस्माकमनुग्रह इति । एवमभिहितो राजा तद्वचनमनाकर्ण्य पुनरपि सविशेषमादिदेश, असावपि वणिक्सर्ववधाशङ्की सर्वमोचनानभिप्राय राजानमवेत्य पञ्चानां मोचनं याचितवान् तानप्यसौ राजा न मोक्तुमना इत्येवमभिगम्य चतुर्मोचनकृते सादरं विशप्तवान् तं तथापि राजा तमनादृत्य कुपितवदन एव स्थितः, ततस्त्रयाणां विमोचने कृतादरस्तत्पिताऽभूत्, तानप्यमुञ्चन्तं राजानं ज्ञाता गणितखापराधो द्वयोर्मोचनं प्रार्थितवान्, तत्राप्यवज्ञाप्रधानं नृपतिमवगम्य ततः पौरमहतमसमेतो राजानमेवं विज्ञप्तवान्, तद्यथा| देवाकाण्ड एवास्माकं कुलक्षयः समुपस्थितः, तसाच भवन्त एव त्राणायालम्, अतः क्रियतामेकमत्पुत्रविमोचनेन प्रसाद इति भणिवा पादयोः सपौरमहत्तमः पतितो, राज्ञापि संजातानुकम्पेन मुक्तस्तदेको ज्येष्ठपुत्र इति । तदेवमस्य दृष्टान्तस्य दार्शन्तिकयोजनेयं, तद्यथा-साधुनाऽभ्युपगतसम्यग्दर्शनमवगम्य श्रावकमखिलप्राणातिपातविरतिग्रहणं प्रति चोदितोऽप्यशक्तितया यदा न सर्वप्राणातिपातविरतिं प्रतिपद्यते, यथाऽसौ राजा वणिजाऽत्यर्थं विज्ञापितोऽपि न पडपि पुत्रान् मुमुक्षति, नापि पञ्चचतुस्त्रिद्वि
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [-], मूलं [ ७५ ], निर्युक्तिः [२०५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्तिः
॥४१४॥
संख्यान् पुत्रानिति, तत एकविमोक्षणेनात्मानं कृतार्थमिव मन्यमानः स्थितोऽसौ एवं साधोरपि श्रावकस्य यथाशक्ति व्रतं गृजत|स्तदनुरूपमेवाशुव्रतदानमविरुद्धमिति, यथा च तस्य वणिजो न शेषपुत्रवधानुमतिलेशोऽप्यस्ति, एवं साधोरपि न शेषप्राणिवधानुमति| प्रत्ययजनितः कर्मबन्धो भवति, किं तर्हि ?, यदेव व्रतं गृहीत्वा यानेव सच्चान् वादरान् संकल्पजप्राणिवधनिवृच्या रक्षति तनिमित्तः कुशलानुबन्ध एवेत्येतत्सूत्रेणैव दर्शयितुमाह- 'तसेहि' मित्यादि, त्रस्यन्तीति श्रसाः - द्वीन्द्रियादयस्तेभ्यः सकाशान्निधाय निहाय वा परित्यज्येतियावत् कं ?-दण्डयतीति दण्डस्तं परित्यज्य, त्रसेषु प्राणातिपात विरतिं गृहीत्वेत्यर्थः, 'तदपि च' त्रसप्राणा| तिपातविरमणवतं 'तेषां' देशविरतानां कुशलहेतुत्वात्कुशलमेव भवति ॥ यच्च प्रागभिहितं तद्यथा तमेव त्रसं स्थावरपर्यायापनं नागरकमित्र बहिःस्थं व्यापादयतोऽवश्यंभावी व्रतभङ्ग इत्येतत् परिहर्तुकाम आह---
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तसावि बुचति तसा तससंभारकडेणं कम्मुणा णामं च णं अब्भुवगयं भवइ, तसाउयं च णं पलिक्खीणं काय ते तओ आउयं विप्पजहंति, ते तओ आइयं विप्पजहित्ता धावरत्ताए पच्चायंति । थावरावि च॑ति थावरा थावरसंभारकडेणं कम्मुणा णामं च णं अन्भुवगयं भवइ, धावराज्यं च णं पलिक्खीणं भवइ, थावरकायट्टिया ते तओ आउयं विप्पजहंति तओ आयं विप्पजहित्ता भुजो परलोइयत्ताए पञ्चायति, ते पाणावि बुचंति, ते तसावि बुचति, ते महाकाया ते चिरद्विइया ॥ (सूत्रं ७६ )
'बसा अपि द्वीन्द्रियादयोऽपि सा इत्युच्यन्ते च त्रसाः ससंभारकृतेन कर्मणा भवन्ति, संभारो नामावश्यंतया कर्मणो
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७६], नियुक्ति: [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||७६||
विपाकानुभवेन वेदनं, तच्चेह वसनाम प्रत्येकनामेत्यादिकं नामकर्माभ्युपगतं भवति, वसलेन यत्परिवद्धमायुष्कं तबदोदयप्राप्त भवति, तदा त्रससंभारकृतेन कर्मणा वसा इति व्यपदिश्यन्ते, न तदा कथञ्चित्स्थावरखव्यपदेशः, यदाच तदायुः परिक्षीणं भवति, णमिति वाक्यालङ्कारे, सकायस्थितिकं च कर्म यदा परिक्षीणं भवति, तच्च जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कृष्टतः सातिरेकसहस्रदयसागरो
पमपरिमाणं, तदा ततस्त्रसकायस्थितेरभावात्तदायुष्कं ते परित्यजन्ति, अपराण्यपि तत्सहचरितानि कर्माणि परित्यज्य स्थावरखे४ान प्रत्यायान्ति, स्थावरा अपि स्थावरसंभारकृतेन कर्मणा तत्रोत्पद्यन्ते, स्थावरादिनाम च तत्राभ्युपगतं भवति, अपराग्यपि तत्सह-14
चरितानि सर्वात्मना त्रससं परित्यज्य स्थावरखनोदयं यान्ति इति, एवं च व्यवस्थिते कथं स्थावरकार्य व्यापादयतो गृहीतत्रसका18| यप्राणातिपातनिवृत्तेः आवकस्य व्रतभङ्ग इति । किंचान्यत्-'थावराज्यं च ण'मित्यादि, यदा तदपि स्थावरायुष्कं परि-%
क्षीणं भवति तथा स्थावरकायस्थितिश्च, सा जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कृष्टतोऽनन्तकालमसंख्येयाः पुद्गलपरावतः इति, ततस्तत्कायस्थि-12 | तेरभावाचदायुष्कं परित्यज्य 'भूयः पुनरपि पारलौकिकलेन स्थावरकायस्थितेरभावात् बसलेन सामर्थ्यात्प्रत्यायान्ति, तेषां च | बसानामन्वर्णिकान्यभिधानान्यभिधित्सुराह-'ते पाणावी'त्यादि, ते त्रससंभारकृतेन कर्मणा समुत्पन्नाः सन्तः सामान्यसं-18 ज्ञया प्राणा अप्युच्यन्ते, तथा विशेषतः 'वस भयचलनयो रिति धात्वर्थानुगमाद्यचलनाभ्यामुपपेताखसा अप्युच्यन्ते, तथा महान् कायो येषां ते महाकायाः योजनलक्षप्रमाणशरीरविकुर्वणात् , तथा चिरस्थितिका अप्युच्यन्ते, भवस्थित्यपेक्षया त्रयस्ति|शत्सागरोपमायुष्कसद्भावात् , ततखसपर्यायव्यवस्थितानामेव प्रत्याख्यानं तेन गृहीतं, न तु स्थावरकायत्त्वेन व्यवस्थितानामपीति । यस्तु नागरकदृष्टान्तो भवतोपन्यस्तः असावपि दृष्टान्तदाान्तिकयोरसाम्यात्केवलं भवतोऽनुपासितगुरुकुलबासित्वमावि
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [-], मूलं [७६], निर्युक्तिः [२०५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कवे शीलाकीयावृतिः
॥४१५॥
ष्करोति, तथाहि - नगरधर्मैर्युक्तो नागरिकः स च मया न हन्तव्य इति प्रतिज्ञां गृहीत्वा यदा तमेव व्यापादयति बहिः स्थितं पर्यायापनं तदा तस्य किल व्रतभङ्ग इति भवतः पक्ष इति, स च न घटते, यतो यो हि नगरधर्मैरुपेतः स वहिःस्थोऽपि नागरिक एव, अतः पर्यायापन इत्येतद्विशेषणं नोपपद्यते, अथ सामस्त्येन परित्यज्य नगरधर्मानसौ वर्तते अतस्तमेवेत्येतद्विशेषणं नोपपद्यते, तदेवमत्र त्रसः सर्वात्मना त्रसत्वं परित्यज्य यदा स्थावरः समुत्पद्यते तदा पूर्वपर्यायपरित्यागादपरपर्यायापन्नत्वात्रस एवासौ न भवति, तद्यथा - नागरिकः पल्यां प्रविष्टस्तद्धर्मोपेतत्वात्पूर्वधर्मपरित्यागाच्च नागरिक एवासी न भवतीति ॥ पुनरप्यन्यथोदकः पूर्वपक्षमारचयितुमाह
सवायं उदर पैढालपुत्ते भएवं गोयमं एवं वयासी- आउसंतो गोयमा ! णत्थि णं से केह परियाए जपणं समणोवासगस्स एगपाणातिवायविरएव दंडे निक्खित्ते, कस्स णं तं हे ?, संसारिया खलु पाणा, थावराव पाणा तसत्ताए पञ्चायंति, तसाबि पाणा थावरत्ताए पच्चायंति, थावरकायाओ विप्पमुचमाणा सवे तसकार्यसि उबवजंति, तसकायाओ विप्पमुचमाणा सबै थावरकायंसि उववज्जंति, तेसिं च पंथावरकायंसि बन्नाणं ठाणमेयं धत्तं ॥ सवायं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी- णो खलु आउसो ! अस्माकं वत्तवएणं तुम्भं चैव अणुष्पवादेणं अस्थि णं से परियाए जे णं समणोवासगस्स सबपाणेहिं सर्वभूएहिं सङ्घजीवेहिं सहसत्तेहिं दंडे निक्खित्ते भवर, कस्स णं तं हेडं १, संसारिया खलु पाणा, तसावि पाणा धाव रत्ताए पचायंति, थावरावि पाणा तसत्ताए पचायंति, तसकायाओ विप्पमुचमाणा
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७७], नियुक्ति: [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
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सबे थाघरकार्यसि उववज्जति, थावरकायाओ विप्पमुचमाणा सबे तसकार्यसि उववजंति, तेसिं च णं तसकार्यसि उववन्नाणं ठाणमेयं अघतं, ते पाणावि बुचंति, ते तसावि बुचंति, ते महाकाया ते चिरहिया. ते वहयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपचक्खायं भवति, ते अप्पयरागा पाणा जेहि समणोबासगस्स अपचक्खायं भवइ, से महया तसकायाओ उवसंतस्स उपट्ठियस्स पडिविरयस्स जन्नं तुब्भे वा अन्नो वा एवं बदह-णत्थि णं से केइ परियाए जंसि समणोवासगस्स एगपाणाएवि दंडे णिक्खित्ते, अयंपि भेदे से णो णेयाउए भवइ ।। सूत्रं ७७॥ सदाचं सवादं वोदका पेढालपुत्रो भगवन्तं गौतममेवमयादीत् , तद्यथा-आयुष्मन गौतम ! नास्त्यसौ कविपर्यायो यसिने-18 कमाणातिपातविरमणेऽपि श्रमणोपासकस विशिष्टविषयामेव प्राणातिपातनिवृत्तिं कुर्वतो दण्डः-प्राण्युपमर्दनरूपो निक्षिप्तपूर्वःपरित्यक्तपूर्वो भवति, इदमुक्तं भवति-श्रावकेण प्रसपयोयमेकमुद्दिश्य प्राणातिपातविरतिव्रतं गृहीतं, संसारिणां च परस्परगम-18 नसंभवात् ते च प्रसाः सर्वेऽपि किल स्थावरखमुपगतास्ततश्च सानामभावानिर्विषयं तत्प्रत्याख्यानमिति । एतदेव प्रश्नपूर्वक दर्शयितुमाह-'कस्स गं तं हेज'मित्यादि, णमिति वाक्यालङ्कारे, कस्य हेतोरिदमभिधीयते, केन हेतुनेत्यर्थः । सांसारिकाः प्राणाः परस्परसंसरणशीला यतस्ततः स्थावराः सामान्येन त्रसतया प्रत्यायान्ति, असा अपि स्थावरतया प्रत्यायान्ति । तदेवं संसारिणां परस्परगमनं प्रदाधुना यत्परेण विवक्षितं तदाविष्कुर्ववाह-'थावरकायाओ'इत्यादि, स्थावरकायाद्विप्रमुच्यमानाः वायुपा तत्सहचरितैश्च कर्मभिः सर्वे-निरवशेपास्त्रसकाये समुत्पद्यन्ते, त्रसकायादपि तदायुषा विप्रमुच्यमानाः सर्वे स्थावरकाये |
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अनुक्रम [८०२]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [-], मूलं [७७], निर्युक्तिः [२०५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
सूत्रकृताने २ श्रुतस्क न्धे शीलाकीमाकृतिः
॥४१६ ॥
समुत्पद्यन्ते तेषां च त्रसानां सर्वेषां स्थावर कायसमुत्पन्नानां स्थानमेतद् घात्यं वर्तते, तेन श्रावकेण स्थावरकायवधनिवृत्तेरकर - शाद्, अतः सर्वस्य त्रसकायस्य स्थावरका यत्वेनोत्पत्तेर्निर्विषयं तस्य श्रावकस्य त्रसवध निवृत्तिरूपं प्रत्याख्यानं प्राप्नोति, तद्यथाकेनचिद्रतमेवंभूतं गृहीतं यथा-मया नगरनिवासी न इन्तव्यः, तच्चोइसितं नगरम्, अतो निर्विषयं तत्तस्य प्रत्याख्यानम्, एवमत्रापि सर्वेषां त्रसानामभावान्निर्विषयत्वमिति । एवमुदकेनाभिहिते सति तदभ्युपगमेनैव गौतमस्वामी दूषयितुमाह सद्वाचं सवाद वा तमुदकं पेढालपुत्रं गौतमस्वाम्येवमवादीत्, तद्यथा-नो खल्वायुष्मन्नुदक! अस्माकमित्येतन्मगधदेशे आगोपालाङ्गनादिप्रसिद्धं संस्कृतमेवोश्चार्यते तदिहापि तथैवोच्चारितमिति, तदेवमस्साकं संबन्धिना वक्तव्येन नैतदशोभनं किं तर्हि ?, युष्माकमेवानुप्रवादेनैतदशोभनं इदमुक्तं भवति - अस्मद्वक्तव्येनास्य चोद्यस्यानुत्थानमेव, तथाहि नैतद्भूतं न च भवति नापि कदाचिद्भविष्यति यदुत -- सर्वेऽपि स्थावरा निर्लेपतया त्रसत्वं प्रतिपद्यन्ते, स्थावराणामानन्त्यात्रसानां चासंख्येयत्वेन तदाधारत्वानुपपत्तेरित्यभिप्रायः, तथा त्रसा अपि सर्वेऽपि न स्थावरस्वं प्रतिपन्ना न प्रतिपद्यन्ते नापि प्रतिपत्स्यन्ते इदमुक्तं भवतियद्यपि विवक्षितकालवर्तिनसाः कालपर्यायेण स्थावरकायत्वेन यास्यन्ति तथापि अपरापरत्रसोत्पच्या त्रसजात्यनुच्छेदान्त्र कदाचिदपि त्रसकायशून्यः संसारो भवतीति, तदेवमसन्मतेन चोद्यानुत्थानमेव, अभ्युपगम्य च भवदीयं पक्षं युष्मद्भ्युपगमेनैव परिहियते—तदेव पराभिप्रायेण परिहरति-अस्त्यसौ पर्यायः - स चायं भवदभिप्रायेण यदा सर्वेऽपि स्थावरास्त्रसत्वं प्रतिपद्यन्ते यस्मिन्पर्याये - अवस्थाविशेषे श्रमणोपासकस्य कृतन्त्र सप्राणातिपातनिवृत्तेः सतः त्रसत्वेन च भत्रदभ्युपगमेन सर्वप्राणिनामुत्पत्तेः तैव सर्वप्राणिभित्रसत्वेच भूतैः- उत्पन्नैः करणभूतैस्तेषु वा विषयभूतेषु दण्डो निक्षिप्तः - परित्यक्तः, इदमुक्तं भवति यदा
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७७], नियुक्ति: [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||७७||
सर्वेऽपि स्थावराः भवदभिप्रायेण त्रसत्वेनोत्पद्यन्ते तदा सर्वप्राणिविषयं प्रत्याख्यानं श्रमणोपासकस्य भवतीति । एतदेव प्रश्नपूके दर्शयितुमाह-'कस्स णं हेउ'मित्यादि, सुगमं यावत्रसकाये समुत्पन्नानां स्थानमेतदघाल्यम्-अधाताई, तत्र विरतिस-18 द्भावादित्यभिप्रायः । ते च सा नरकतिर्यनरामरगतिभाजः सामान्यसंज्ञया प्राणिनोऽप्यभिधीयन्ते, तथा विशेषसंजया भयचलनोपेतत्वातसा अप्युच्यन्ते, तथा महान् कायः शरीरं येषां ते महाकायाः, क्रियशरीरस्य योजनलक्षप्रमाणत्वादिति ।। तथा चिरस्थितिकाः त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमपरिमाणत्वाद्भवस्थितेः, तथा (च) ते प्राणिनखसा बहुतमा-भूयिष्ठा यैः श्रमणोपासकस सुप्रत्याख्यानं भवति, सानुद्दिश्य तेन प्रत्याख्यानस्य ग्रहणात् तदभ्युपगमेन च सर्वस्थावराणां त्रसत्वेनोत्पचेरतस्तेऽल्पतरकाः प्राणिनो यैः करणभूतैः श्रावकस्याप्रत्याख्यानं भवति, इदमुक्तं भवति-अल्पशब्दस्वाभाववाचित्वाब सन्त्येव ते येवप्रत्याख्यानमितीत्येवं पूर्वोक्तया नीत्या 'से तस्य श्रमणोपासकस्य महतस्त्रसकायादुपशान्तस्य-उपरतस्य प्रतिविरतस्य सतः सुप्रत्याख्यानं | भवतीति संबन्धः, तदेवं व्यवस्थिते णमिति वाक्यालङ्कारे यधूयं वदथान्यो वा कश्चित्तद्यथा-नास्त्यसावित्यादि सुगर्म यावत् 'योणेयाउए भवइति ।। साम्प्रतं प्रसानां स्थावरपर्यायापनानां व्यापादनेनापि न व्रतमङ्गो भवतीत्यर्थस्य प्रसिद्धये दृष्टान्तत्रयमाह
भगवं च णं उदाह नियंठा खलु पुच्छियवा-आउसंतो! नियंठा इह खल्लु संतेगइया मणुस्सा भवंति, तेसिं च एवं वुत्तपुवं भवइ-जे इमे मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पदइए, एसिं च णं आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते, जे इमे अगारमावसंति एएसिणं आमरणताए दंडे णो णिक्वित्ते, केई चणं समणा
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दीप अनुक्रम [८०२]
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७८], नियुक्ति: [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
सूत्रकृताङ्गे २श्रुतस्क
न्धे शीला
प्रत सूत्रांक ||७८||
कीयावृचिः ॥४१७॥
७ नालन्दीयाध्य. श्रावकात्याख्यानख सविषयता
दीप अनुक्रम [८०३]
Reesercomeseacherserence
जाव वासाइं चउपचमाई छट्ठहसमाई अप्पयरो वा भुजयरोवा देसं दूई जित्ता अगारमावसेजा ?, हतावसेज्जा, तस्स णं तं गारत्थं वहमाणस्स से पञ्चक्खाणे भंगे भवइ ?, णो तिणढे समढे, एवमेव समणोवासगस्सवि तसेहिं पाणेहिं दंडे णिक्खित्ते, थावरेहिं पाणेहिं दंडे णो णिक्खित्ते, तस्स गं तं थावरकायं वहमाणस्स से पच्चक्खाणे णो भंगे भवह, से एवमायाणह? णियंठा 1, एवमायाणियचं ॥ भगवं च णं उदाहु नियंठा खलु पुच्छियवा-आउसंतो नियंठा! इह खलु गाहावेइ वा गाहावइपुत्तो वा तहप्पगारेहिं कुलेहिं आगम्म धम्मं सवणवत्तियं उबसंकमेजा, हंता उघसंकमेजा,तेर्सिचणं तहप्पगारार्ण धम्म आइक्खियचे?, हंता आइक्खियवे, किं ते तहप्पगारं धम्मं सोचा णिसम्म एवं वएजा-इणमेव निग्गंध पावयणं सचं अणुत्तरं केवलियं पडिपुणं संसुद्धं णेयाउयं सल्लकत्तणं सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्गं निजाणमग्गं निहाणमग्गं अवितहमसंदिद्धं सबदुक्खप्पहीणमग्गं, एत्थं ठिया जीवा सिझंति बुझंति मुचंति परिणिवायंति सबदुक्खाणमंतं करेंति, तमाणाए तहा गच्छामो तहा चिट्ठामो तहा णिसियामो तहा तुयद्दामो तहा भुंजामो तहा भासामो तहा अब्भुट्ठामो तहा उट्ठाए उडेमोत्ति पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं संजमेणं संजमामोत्ति वएज्जा ?, हंता वएजा, किं ते तहप्पगारा कप्पंति पवावित्तए !, हंता कप्पति, किं ते तहप्पगारा कप्पंति मुंडावित्तए, हंता कप्पंति, किं ते तहप्पगारा कप्पंति सिक्खावित्तए !, हंता कप्पंति, किं ते तहप्पगारा कप्पंति उचट्ठावित्तए ?, हंता कप्पंति, तेसिं च णं तहप्पगाराणं सबपाणेहिं जाव सबसत्तेहिं
४१७॥
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७८], नियुक्ति: [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||७८||
दंडे णिक्खित्ते', हंता णिक्खित्ते, सेणं एयारूवेणं विहारणं विहरमाणा जाव यासाई चउपंचमाई छट्ठसमाई वा अप्पयरो वा भुजयरो वा देसं दृइजेत्ता अगारं वएजा?, हंता वएजा, तस्सणं सबपाणेहिं जाव सबसत्तेहिं दंडे णिक्खित्ते , णोइणढे समढे, से जे से जीवे जस्स परेणं सबपाणेहिं जाव सबसत्तेहिं दंडे णो णिक्खित्ते, से जे से जीवे जस्स आरेणं सवपाणेहिं जाव सत्तेहिं दंडे णिक्वित्ते, से जे से जीवे जस्स इयाणि सबपाणेहिं जाव सत्तेहिं दंडे णो णिक्खित्ते भवइ, परेणं असंजए आरेणं संजए, इयाणिं असंजए, असंजयस्स णं सबपाणेहिं जाव सत्तेहिं दंडे णो णिक्खित्ते भवइ, से एवमायाणह? णियंठा !, से एवमायाणियर्ष ॥ भगवं च णं उदाहुणियंठा खलु पुच्छियवा-आउसंतो! नियंठा इह खलु परिवाइया वा परिवाइआओ वा अन्नयरेहितो तित्थाययणेहिंतो आगम्म धम्म सवणवत्तियं उवसंकमज्जा ?, हता उपसंकमेजा, किंतेसिं तहप्पगारेणं धम्मे आइक्खियचे ?, हंता आइक्खियो, तं चेव उवट्ठावित्तए जाव कप्पति ?, हंता कप्पंति, किं ते तहप्पगारा कप्पंति संभुंजित्तए ?, हंता कप्पंति, तेणं एयारवेणं विहारेणं विहरमाणा तं चेव जाव अगारं वएना, हंता वएज्जा, ते णं तहप्पगारा कप्पति संभुजित्तए ?, णो इणढे समढे, से जे से जीवे जे परेणं नो कप्पंति संभुजित्तए, सेजे से जीवे आरेणं कप्पंति संभुंजित्तए, से जे से जीवे जे इयाणीणो कप्पंति संभंजित्तए, परेणं अस्समणे आरेणं समणे, इयाणि अस्समणे, अस्समणेणं सद्धिं णो कप्पति समणाणं निग्गंथाणं संभुंजित्तए, से एवमायाणह ? णियंठा !, से एवमायाणियवं ।। सूत्रं ७८ ॥
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दीप अनुक्रम [८०३]
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७८], नियुक्ति: [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||७८||
दीप अनुक्रम [८०३]
सूत्रकृताङ्गे णमिति वाक्यालङ्कार, चशब्दः पुनःशब्दार्थे, पुनरपि भगवान् गौतमखाम्बेवाह-स्खौद्धृत्यपरिहरणार्थमपरानपि तत्स्थविरान् नाळ२ श्रुतस्क- साक्षिणः कर्तुमिदमाह–'निर्ग्रन्धा' युष्मत्स्थविराः खलु प्रष्टव्याः, तद्यथा-आयुष्मन्तो निर्गन्धा! युष्माकमप्येतद्वक्ष्यमाणमभिम- न्दीयाध्य. न्धे शीला- तमाहोखिनेति, अवष्टम्भेन चेदमाह, युष्माकमप्येतदभिप्रेतं यदहं बच्मि, तद्यथा--शान्तिः-उपशमस्तत्प्रधाना एके केचन मनुष्या आवकाकीयावृत्तिः भवन्ति, न नारकतिर्यग्देवाः, किं तर्हि !, मनुष्याः, तेपि नाकर्मभूमिजा नापि म्लेच्छा अनार्या वा, तेयां चार्यदेशोत्पन्नानामु
त्याख्यान
स्य सविष॥ पशमप्रधानानाम् एतद् उक्तपूर्व भवति-अयं व्रतग्रहणविशेषो भवति, तद्यधा-य इमे मुण्डा भूत्वाऽगाराद्-गृहानिर्गत्यानगारता ॥४१॥
। यता प्रतिपन्नाः-प्रबजिता इत्यर्थः, एतेषां चोपर्यामरणान्तं मया दण्डो निक्षिप्त:--परित्यक्तो भवति, इदमुक्तं भवति-कश्चित्तथा-18 विधो मनुष्यो यतीनुद्दिश्य व्रतं गृह्णाति, तद्यथा-न मया यावज्जी यतयो हन्तव्याः, तथा ये चेमेऽगार-गृहवासमावसन्ति तेषां | दण्डो निक्षिप्त इत्येवं केषांचिद् व्रतग्रहणविशेषे व्यवस्थिते सति इदमपदिश्यते-तत्र केचन श्रमणाः प्रबजिताः कियन्तमपि कालं
प्रव्रज्यापर्याय प्रतिपाल्य, तमेव कालविशेष दर्शयति--यावद्वर्षाणि चत्वारि पञ्च वा पड़ दश वा, अख चोपलक्षणार्थत्वादन्योऽपि । 18|| कालविशेष द्रष्टव्यः, तमेवाह-अल्पतरं वा प्रभूततरं वा कालं तथा देशं च 'दूइजित्त'त्ति विहत्य कुतबित्कर्मोदयाचथाविधप-118|| परिणतेरगार-गृहवासं बसेयुः-गृहस्था भवेयुरित्येवंभूतः पर्यायः किं संभाव्यते । उत नेत्येवं पृष्टा निर्ग्रन्थाः प्रत्यूचुः-हन्त गृह-1%
वासं ब्रजेयुः, तस्य च यतिवधगृहीतव्रतस्य तं गृहस्वं व्यापादयतः किं व्रतभङ्गो भवेदुत नेति', आहुर्नेति, एवमेव श्रमणोपासक-8॥११॥
स्वापि त्रसेषु दण्डो निक्षिप्तो न स्थावरेविति, अतस्त्रसं स्थावरपर्यायापन व्यापादयतस्तत्प्रत्याख्यानभको न भवतीति ॥ साम्प्रतं ॥ पुनरपि पयोयापजस्थान्यथात्वं दर्शयितुं द्वितीयं दृष्टान्तं प्रत्याख्यातृविषयगतं दर्शयितुकाम आह-भगवानेव गौतमस्खाम्याह,
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७८], नियुक्ति: [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||७८||
तद्यथा-गृहस्थाः यतीनामन्तिके समागत्य धर्म श्रुत्वा सम्यक्त्वं प्रतिपद्य तदुत्तरकालं संजातवैराग्याः प्रत्रज्यां गहीत्वा पुनस्तथा-1 विधकर्मोदयातामेव त्वजन्ति, ते च पूर्व गृहस्थाः सर्वारम्भप्रवृत्तास्तदारतः प्रबजिताः सन्तो जीवोपमईपरित्यक्तदण्डाः पुनः प्रबज्यापरित्यागे सति नो परित्यक्तदण्डाः, तदेवं तेषां प्रत्याख्यातां यथावस्थात्रयेऽप्यन्यथात्वं भवत्येवं त्रसस्थावरयोरपि द्रष्टव्यम्, एतच्छ "भगवं च णमुदाहुरित्याग्रन्थस्य 'से एवमायाणिय,' इत्येतत्पर्यवसानस तात्पर्य, अक्षरघटना तु सुगमेति स्वबुझ्या कार्या ॥ तदेवं द्वितीयं दृष्टान्तं प्रदाधुना तृतीयं दृष्टान्तं परतीधिकोद्देशन दर्शयितुमाह-'भगवं चणं उदाहु इत्यादि, यावत् से एवमायाणिय'ति उचानार्थे । तात्पयोर्थस्त्वयं-पूर्व परिव्राजकादयः सन्तोऽसंभोग्याः साधूनां गृहीतश्रामण्याः साधूनां संभोग्याः संवृत्ताः पुनस्तदभावे त्वसंभोग्या इत्येवं पर्यायान्यथात्वं त्रसस्थावराणामप्यायोजनीयमिति ॥ तदेवं दृष्टान्तत्रये प्रथम दृष्टान्ते 8 || हन्तव्यविषयभूतो यतिगृहस्थभावेन पर्यायभेदो दर्शितो द्वितीये दृष्टान्ते प्रत्याख्यातृविषयगतो गृहस्थयतिपुनर्गृहस्थभेदेन पर्या-18 यभेदः प्रदर्शितः, तृतीये तु दृष्टान्ते परतीर्थिकसाधुभावोनिष्क्रमणभेदेन संभोगासंभोगद्वारेण पर्यायभेदोव्यवस्थापित इति । तदेवं दृष्टान्तप्राचुर्येण निर्दोषां देशविरतिं प्रसाध्य पुनरपि तद्गतमेव विचारं कर्तुकाम आह
भगवं च णं उदाहु संतेगइया समणोवासगा भवंति, तेसिं च णं एवं वुत्तपुवं भवइ-णो खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवइत्तए, वयं णं चाउद्दसहमुद्दिपुण्णिमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्म अणुपालेमाणा बिहरिस्सामो, थूलगं पाणाइवायं पचक्खाइस्सामो, एवं धूलगं मुसावायं थूलगं अदिन्नादाणं थूलगं मेहुणं धूलगं परिग्गरं पञ्चक्खाइस्सामो, इच्छापरिमाणं करिस्सामो, दुविहं तिवि
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दीप अनुक्रम [८०३]
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
||७९||
दीप
अनुक्रम [८०४]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७९], निर्युक्ति: [२०५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
सूत्रकृताक्रे
२ श्रुतस्क
न्धे शीलाङ्कीयावृतिः
॥४१९॥
Eucation Intentiona
हेणं, मा खलु समझाए किंचि करेह वा करावेह वा तत्थवि पक्वाइस्सामो, ते णं अभोचा अपिचा असिणाइत्ता आसंदीपेढियाओ पञ्चारुहित्ता, ते तहा कालगया किं तवं सिया-सम्मं कालगतन्ति ?, सिया, ते पाणावि बुबंति ते तसावि दुयंति ते महाकाया ते चिट्ठिया, ते बहुतरगा पाणा जेहिं समोवासगस्स सुपचक्खायं भवइ, ते अप्पयरागा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपचक्खायं भवद्द, इति से महयाओ जण्णं तुम्भे वग्रह तं चैव जाव अयंपि भेदे से णो णेयाउए भवइ ॥ भगवं व उदासंगइया समणोवासगा भवति, तेसिं च णं एवं वुत्तपुत्रं भवइ, णो खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता अगाराओ जाव पवइन्तए, णो खलु वयं संचाएमो चाउद्दसमुद्दिपुण्णमासिणीसु जाव अणुपालेमाणा बिहरित्तए, वयं णं अपच्छिममारणंतियं संलेहणाजूसणाजूसिया भक्तपाणं पडियाइक्खिया जाव काल अणवखमाणा विहरिस्सामो, सर्व पाणाश्वायं पचक्वाइस्सामो जाव सवं परिग्गहं पञ्चक्वाइस्सामो तिविहं तिविहेणं, मा खलु ममट्ठाए किंचिवि जाव आसंदीपेढियाओ पचोरुहिता एते तहा कालगया, किं वत्त सिया संमं कालगयत्ति ?, वत्तवं सिया, ते पाणावि बुचंति जाव अयंपि भेदे से णो णेयाउए भवत् ॥ भगवं च णं उदाहू संतेगइया मणुस्सा भवति, तंजहा- महइच्छा महारंभा महापरिग्गहा अहम्मिया जाव दुष्पडियाणंदा जाव सबाओ परिग्गहाओ अप्पडिविरया जावजीवाए, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते, ते ततो आउगं विप्पजहंति, ततो भुजो सगमाद्राए
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७ नालन्दीयाध्य.
श्रावकप्र स्याख्यानस्य सविष
यता
॥४१९ ॥
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
||७९||
दीप
अनुक्रम [८०४]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७९], निर्युक्ति: [२०५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
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आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
दुग्गइगामिणो भवति, ते पाणावि युद्धंति ते तसावि बुधंति ते महाकाया ते चिरहिया ते बहुवरगा आयाणसो, इति से महयाओ णं जपणं तुम्भे वदह तं चैव अपि भेदे से णो णेयाउए भवइ ॥ भगवं चणं उदा संतेगइया मणुस्सा भवति, तंजहा- अणारंभा अपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया जाव सङ्घाओ परिग्गहाओ पडिविरया जावज्जीवाए, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते ते तओ आउगं विप्पजहंति ते तओ भुजो सगमादाए सोग्गहगामिणो भवति, ते पाणावि बुबंति जाव णो घाउ भवइ ॥ भगवं च णं उदाहू संतेगइया मणुस्सा भवंति, तंजहा- अप्पेच्छा अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया जाव एगचाओ परिग्गहाओ अप्पडिविरया, जेहिं समणोवासगस्स आयासो आमरणंताए दंडे णिक्खिते, ते तओ आउगं विप्पजहंति, ततो भुज्जो सगमादाए सोग्गहगामिणो भवति, ते पाणावि बुचंति जाब णो णेयाउए भवइ ॥ भगवं च णं उदाहु संतेगइया मणुस्सा भवंति, तंजहा- आरण्णिया आवसहिया गामणियंतिया कण्हुई रहस्सिया, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते भवइ, णो बहुसंजया णो बहुपडिविरया पाणभूयजीवसत्तेहिं, अप्पणा सचामोसाई एवं विप्पडिवेदेति-अहं ण हंतो अन्ने तवा, जाव कालमासे कार्ल किया अन्नयराई आसुरियाई किडिसियाई जाव उववत्तारो भवंति, तओ विप्पमुचमाणा भुजो एलमुयत्ताए तमोरुवताए पचायंति, ते पाणावि बुचंति जाव णो णेयाउएं भवइ ॥ भगवं च णं उदाहु संतेगइया पाणा दीहाउया
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७९], नियुक्ति: [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क
न्धे शीला
||७||
कीयावृत्तिः ॥४२०॥
| ७नालन्दीयाध्य. श्रावकात्याख्यान ख सविषयता
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दीप अनुक्रम [८०४]
जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणताए जाव दंडे णिक्खित्ते भवइ, ते पुवामेव कालं करेंति, करित्ता पारलोइयत्ताए पचायंति, ते पाणावि बुचंति ते तसावि वुचंति ते महाकाया ते चिरहिइया ते दीहाउया ते बहुपरगा, जेहिं समणोवासगस्स सुपचक्वायं भवइ, जाव णो णेयाउए भवइ ।। भगवं च णं उदाहु संतेगइया पाणा समाज्या, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणताए जाव दंडे णिक्खित्ते भवाइ, ते सयमेव कालं करेंति करित्ता पारलोइयत्ताए पञ्चायंति, ते पाणावि बुचंति तसावि बुचंति ते महाकाया ते समाउया ते बहुपरगा जेहिं समणोवासगस्स सुपचक्खायं भवद जाव णो णेयाउए भवह ॥ भगवं च णं उदाहु संतेगइया पाणा अप्पाउया, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए जाव दंडे णिक्खित्ते भवइ, ते पुषामेव कालं करेंति करेत्ता पारलोइयत्ताए पञ्चायंति,ते पाणावि बुचंति ते तसावि चुचंति ते महाकाया ते अप्पाउया ते बहुयरगा पाणा, जेहिं समणोवासगरस सुपचक्खायं भवह, जाव णो णेयाउए भवइ ॥ भगवं च णं उदाहु संतेगइया समणोवासगा भवंति, तेर्सि च णं एवं बुतपुर्व भवइ-णो खलु वयं संचाएमो मुंडे भवित्ता जाव पचहत्तए, णो खलु वयं संचाएमो चाउद्दसहमु. दिपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसह अणुपालित्तए, णो खलु वयं संचाएमो अपच्छिम जाव विहरित्तए, वयं च णं सामाइयं देसावगासियं पुरत्या पाईणं वा पडिणं वा दाहिणं वा उदीणं वा एतावता जाव सबपाणेहिं जाव सबसत्तेहिं दंडे णिक्खित्ते सबपाणभूयजीवसत्तेहिं खेमकरे अहमसि, तस्थ आरेणं जे
।
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७९], नियुक्ति: [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||७९||
दीप अनुक्रम [८०४]
S9929092029200229292929202
तसा पाणा जेहिं समणोबासगस्स आयाणसो आमरणताए दंडे णिक्वित्ते, तओ आउं विष्पजहंति विप्पजहित्ता तत्थ आरेणं चेव जे तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो जाव तेसु पचायंति, जेहिं समणोवासगस्स सुपञ्चक्खायं भवइ, ते पाणावि जाच अयंपि भेदे से॥(सूत्रं ७९)॥
पुनरपि गौतमखाम्युदकं प्रतीदमाह-तयथा-पहुभिः प्रकारेखससद्भावः संभाव्यते, ततधाशून्यस्तैः संसार, तदशून्यत्वे | न निर्विपर्य आवकस्य त्रसवधनिपुत्तिरूपं प्रत्याख्यानं । तदधुना बहुप्रकारत्रससंभूत्याऽशून्यतां संसारस दर्शयति- भगवानाह 'सन्ति' विद्यन्ते शान्तिप्रधाना वा एके केचन श्रमणोपासका भवन्ति, तेषां चेदमुक्तपूर्व भवति-संभाव्यते च श्रावकाणामेवंभूतस्य वचस: संभव इति, तद्यथा-न खलु वयं शक्नुमः प्रत्रज्यां ग्रहीतुं, किंतु वयं णमिति वाक्यालङ्कारे चतुर्दश्यष्टमीपाणे| मासीषु संपूर्ण पौषधमाहारशरीरसत्कारत्रमचर्याव्यापाररूपं पौषधं सम्यगनुपालयन्तो विहरिष्यामः, तथा स्थूलपाणातिपातमृपा| वादादचादानमैथुनपरिग्रह प्रत्याख्यास्यामो 'द्विविध मिति कृतकारितप्रकारद्वयन अनुमतेः श्रावकस्याप्रतिषिद्धत्वात् तथा 'त्रिविधेने ति मनसा वाचा कायेन च, तथा 'मा' इति निषेधे 'खलु' इति वाक्यालङ्कारे मदर्थ पचनपाचनादिकं पोषधस्थस्य | मम कृते मा कोष्ट, तथा परेण मा कारयत, तत्राप्यनुमतावपि सर्वथा यदसंभवि तत्प्रत्याख्यास्यामः, ते एवंभूतकृतप्रतिज्ञाः। सन्तः श्रावकाः अभुक्तापीखानासा च पौषधोपेतबादासन्दीपीठिकातः प्रत्यारुम अवतीर्य सम्यक् पौषधं गृहीसा काल कृतवन्तः, ते तथाप्रकारेण कृतकालाः सन्तः किं सम्पकृतकाला उतासम्यगिति, कथं वक्तव्यं स्वादिति, एवं पृष्टेनिग्रन्थैरवश्यमेवं वक्तव्यं स्यात्-सम्यकालगता इति, एवंच कालगतानामवश्यंभावी तेषां देवलोकेपूलादः, तदुत्पनच त्रस एव, ततव कथ |
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७९], नियुक्ति: [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
||७९||
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दीप अनुक्रम [८०४]
मूत्रकृताज़ानावश्यताला
निर्विषयता प्रत्याख्यानस्योपासकपेति । पुनरन्यथा श्रावकोद्देशेनैव प्रत्याख्यानस्स विषय प्रदर्शयितुमाह-गौतमखाम्पेवाह-तपथा | ७ नाल२ श्रुतस्क- 'सन्ति' विद्यन्ते एके केचन श्रमणोपासकाः, तेषां चैतदुक्तपूर्व भवति, तद्यथा-खलु न शक्नुमो वयं प्रव्रज्यां ग्रहीत, नापिन्दीयाध्य, न्धे शीला-ISचतर्दश्यादिषु सम्पक पौषधं पालयितुं, वयं चापत्रिमया संलेखनक्षपणया क्षपितकाया यदिवा लेखनाजोषणया सेवनवा कीयावृत्तिः जोषिताः-सेविता उत्तमार्थगुणरित्येवंभूताः सन्तो मक्तपानं प्रत्याख्याय 'काल' दीर्घकालमनवकाक्षमाणा विहरिष्यामः, इदमुक्त ॥४२॥ TR भवति-न वयं दीर्घकालं पौषधादिकं व्रतं पालयितुं समर्थाः, किंतु चयं सर्वमपि प्राणातिपातादिकं प्रत्याख्याय संलेखनया
भवति-न व दान संलिखितकायाचतुर्विधाहारपरित्यागेन जीवितं परित्यक्तुमलमिति, एतत्सूत्रेणैव दर्शयति–'सचं पाणाइवाय'मित्यादि, सुगम, | यावत्ते तथा कालगताः किं वक्तव्यमेतत्स्थान-सम्यक् ते कालगता इति', एवं पृष्टा निग्रेन्था एतदनुः, यथा-से सन्मनसः-11
शोभनमनसस्ते कालगता इति, ते च सम्यक्सलेखनया यदा काल कुर्वन्ति तदाऽवश्यमन्यतमेषु देवलोकेषूत्पबन्ते, नव चोरपना। कायद्यपि ते व्यापादयितुं न शक्यन्ते तथापि त्रसत्वाचे श्रावकस्य वसवधनिवृत्तख विषयता प्रतिपद्यन्ते । पुनरप्यन्यथा प्रसास्या
नस्य विषयमुपदर्शयितुमाह-भगवानाह-एके केचन मनुष्या एवंभूता भवन्ति, तद्यथा-महेच्छा महारम्भा महापरिग्रहा इत्यादि का सुगम, यावद्यैर्येषु वा श्रमणोपासकस्यादीयत इत्यादान-प्रथमव्रतग्रहणं, तत आरभ्याऽऽमरणान्ताद्दण्डो निक्षिप्त:-परित्यक्तो ||
भवति, ते च वाग्विधास्तस्माद्भवात्कालात्यये वायुपं विजहन्ति, त्यक्त्वा त्रसजीवितं ते भूयः पुनः स्वकर्म-खकृतं किल्विष-| ॥४२॥ मादाय-गृहीला दुर्गतिगामिनो भवन्ति, एतदुक्तं भवति-महारम्भपरिग्रहखाते मृताः पुनरन्यतरपृथिव्यां नारकत्रसत्वेनोत्पद्यन्ते, KI च सामान्यसंज्ञया प्राणिनो विशेषसंज्ञया त्रसा महाकायाः चिरस्थितिका इत्यादि पूर्ववद्यावत् 'णो णेयाउए चि पुनरप्यन्ये
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७९], नियुक्ति: [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||७९||
दीप अनुक्रम [८०४]
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इस प्रकारेण प्रत्याख्यानस्य विषयं दर्शयितुमाह 'भगवं च णं उदाहु'रित्यादि, पूर्वोक्तभ्यो महारम्भपरिग्रहवदादिभ्यो विपर्यस्ता 134
सुशीलाः सुव्रताः सुप्रत्यानन्दाः साधव इत्यादि सुगनं यावत् 'णो णेयाउए भवति, एते च सामाम्पथावकार, नेपि असे-II प्लेवान्यतरेषु देवेपूत्पधन्ते, ततोऽपि न निर्विपयं प्रत्याख्यानमिति ॥ किचान्यत्-'भगवं च णं उदाहुरित्यादि सुगम बाबद 'णो णेयाषए भवईति, एते चाल्पेच्छादिविशेषणविशिष्टा अवश्यं प्रकृतिभद्रकतया सद्गतिगामित्वेन त्रसकायेत्पयन्स इति द्रष्टव्य । किश्चान्यत् 'भगवं च णं उदाहु' रित्यादि-गौतमस्वाम्मेव प्रत्याख्यानस्य विपर्य दर्शयितुमाह-एके केचन मनुष्या एवंभूता भवन्ति, तद्यथा-अरण्ये भवा आरण्यका:-तीथिकविशेषाः तथा आवसथिका:-तीधिकविशेषा एव, तथा ग्राम-10 | निमत्रिकाः तथा 'कण्हुईरहस्सिय'ति कचित्कार्ये रहस्सकाः कचिद्रहसकाः, एते सर्वेऽपि तीपिकविशेषाः, सेमो बहुसं-18 | यता हस्तपादादिक्रियासु, तथा ज्ञानावरणीयावृतसात् ग बहुविरताः सर्वप्राणभूतजीवसचेभ्वस्तत्वरूपापरिज्ञानात्तद्वधादविरता 8 | इत्यर्थः । ते तीथिकविशेषा बहसंयताः स्वतोऽविरता आत्मना सत्यामृपाणि वाक्यानि 'एच'मिति वक्ष्यमाणनीत्या वियुञ्जन्ति,
एवं विपडिवेदेति' कचित्पाठोऽस्यायमर्थ:-एवं विधप्रकारेण परेपो प्रतिवेदयन्ति-ज्ञापयन्ति, तानि पुनरेवंभूतानि वाक्यानि दर्शयति, तपथा-अहं न हन्तव्योज्ये पुनर्हन्तव्याः तथाऽहं नाज्ञापयितव्योऽन्ये पुनराज्ञापयितव्या इत्यादीन्युपदेशवाक्यानि | KRI ददति, ते चैवमेवोपदेशदायिनः स्त्रीकामेषु मूर्षिछता गृद्धा अध्युपपमा यावद्वर्षाणि चतुःपञ्चमानि वा पइदशमानि वा अतो-18
ऽप्यल्पतरं वा प्रभूततरंवा काल भुक्त्वा उत्कटा भोगा भोगभोगास्तान् ते तथाभूताः किञ्चिदज्ञानतपःकारिणः कालमासे कालं कुता-18 |ऽन्यतरेष्वासुरीयेषु स्थानेषु किल्विषेष्वसुरदेवाधमेषु स्थानेपूपपत्तारो भवन्ति, यदिवा प्राण्युपघातोपदेशदायिनो भोगाभिलाषुका
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७९], नियुक्ति: [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
२ श्रुतस्क-18
न्धे शीला
||७||
दीप अनुक्रम [८०४]
सूत्रकृताने I'असूर्यपु'नित्यान्धकारेषु किल्विषप्रधानेषु नरकस्थानेषु ते समुत्पद्यन्ते, ते च देवा नारका वा सत्वं न व्यभिचरन्ति, तेषु
प नाळ| यद्यपि द्रव्यप्राणातिपातो न संभवति तथापि ते भावतो यः प्राणातिपातस्तद्विरतेविषयता प्रतिपद्यन्ते, ततोऽपि च देवलोकाच्युता शन्दीयाध्य.
| नरकोद्धृताः क्लिष्टपञ्चेन्द्रियतिर्यक्षु तथाविधमनुष्येषु चैडमूकतया समुत्पद्यन्ते, तथा 'तमोस्वत्ताए'चि अन्धबधिरतया प्रत्यायान्ति, कीयावृत्तिः ते चोभयोरप्यवस्थयोखसत्वं न व्यभिचरन्ति इत्यतो न निर्विषयं प्रत्याख्यानम् , एतेषु च द्रव्यतोऽपि प्राणातिपातः संभवतीति ।। ॥४२२।।
| साम्प्रतं प्रत्यक्षसिद्धमेव विरतेविषयं दर्शयितुमाह-'भगवं च णं उदाहुरित्यादि, भगवानाह-यो हि प्रत्याख्यानं गृह्णाति तसा-18 दीर्घायुष्काः 'प्राणाः' प्राणिनः, ते च नारकमनुष्यदेवा द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियतियश्चश्व संभवन्ति, ततः कथं निर्विषयं प्रत्याख्यान-1
| मिति , शेष सुगम, यावत् 'णो णेयाउए भवई' ।। एवमुत्तरसूत्रमपि तुल्यायुष्कविषयं समानयोगक्षेमसायाख्येयं ॥ तथाऽल्पा-161 18 युष्कसूत्रमप्यतिस्पष्टखात्सूत्रसिद्धमेव, इयांस्तु विशेषो यावत्ते न म्रियन्ते तावत्प्रत्याख्यानस्य विषयखसेषु वा समुत्पन्नाः सन्तो, 18 विषयतां प्रतिपयन्त इति ॥ पुनरपि आवकाणामेव दिग्बतसमाश्रयणतः प्रत्याख्यानस्य विषयं दर्शयितुमाह---'भगवं च ण
मित्यादि सुगम यावत् 'वयं णं सामाइयं देसावकासियंति देशेऽवकाशो देशावकाशः तत्र भवं देशावकाशिक, इदमुक्तं | भवति-पूर्वगृहीतस दिग्बतस्य योजनशतादिकस्य यत्प्रतिदिनं संक्षिप्ततरं योजनगण्यूतिपत्तनगृहमर्यादादिकं परिमाणं विधते | तद्देशावकाशिकमित्युच्यते । तदेव दर्शयति-'पुरत्या पायीण'मित्यादि, 'पुरत्वि' चि प्रातरेव प्रत्याख्यानावसरे दिगाश्रितमे
४२२॥ ISI भूतं प्रत्याख्यानं करोति, तद्यथा-'प्राचीनं' पूर्वाभिमुखं प्राच्या दिश्येतावन्मयाऽय गन्तव्यं, तथा 'प्रतीचीनं' प्रतीच्यामप-IM
रस्सां दिशि, तथा दक्षिणाभिमुखं दक्षिणस्थामेवमुदीच्या दिश्वेतावन्मयाऽद्य पञ्चयोजनमात्रं तदधिकभूनतरं वा गन्तव्यमित्येवंभूतं
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७९], नियुक्ति: [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||७९||
IS|स प्रतिदिनं प्रत्याख्यान विधाने, तेन च गृहीतदेशाधकाशिकेनोपासकेन सर्वप्राणिभ्यो गृहीतपरिमाणात्परेण दण्डो निक्षिप्तः-18
परित्यक्तो भवति, ततश्चासौ श्रावकः सर्वप्राणभूतजीवसन्वेषु क्षेमकरोऽहमसि इत्येवमध्यवसायी भवति, तत्र गृहीतपरिमाणे देशे ये आरेण त्रसाः प्राणा येषु श्रमणोपासकस्थादान इत्यादेरारभ्याऽऽमरणान्तो दण्डो निक्षिप्तः-परित्यक्तो भवति, ते च प्रसाः प्राणाः स्वायुष्कं परित्यज्य तत्रैव गृहीतपरिमाणदेश एव योजनादिदेशाभ्यन्तर एवं प्रसाः प्राणास्तेषु प्रत्यायान्ति, इदमुक्तं | | भवति-गृहीतपरिमाणदेशे वसायुष्कं परित्यज्य सेवेवोत्पद्यन्ते, ततश्च तेषु श्रमणोपासकस्य सुप्रत्याख्यानं भवति, उभयथापि त्रसखसद्भावात् , शेषं सुगम, यावत् 'णो णेयाउए भवति ॥ तत्थ आरेणं जे तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणताए दंडे णिक्खित्ते ते तओ आउ विप्पजहंति विप्पजहित्ता तत्थ आरेणं चेव जाव धावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते अणट्ठाए दंडे णिक्खित्ते तेसु पञ्चायंति, तेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते अणट्ठाए दंडे णिक्खित्ते ते पाणावि वुचंति ते तसा ते चिरहिइया जाव अर्यपि भेदे से०॥ तत्थ जे आरेणं तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणताएतओ आउं विप्पजहंति विप्पजहित्ता तत्थ परेणं जे तसा थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणताए. तेसु पञ्चायंति, तेहिं समणोवासगस्स सुपचक्खायं भवइ, ते पाणावि जाव अयंपि भेदे से०॥ तत्थ जे आरेणं थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते अणट्ठाए निक्खित्ते ते तओ आउं विप्पजहंति विप्पन
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दीप अनुक्रम [८०४]
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [८०], नियुक्ति: [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
७ नाललन्दीयाध्य.
प्रत सूत्रांक ||८०||
सूत्रकृवाङ्ग २ श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥४२३॥
दीप अनुक्रम [८०५]
जहित्ता तत्थ आरणं चेव जे तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए. तेसु पचायंति तेसु समणोबासगस्स सुपचक्खायं भवइ, से पाणावि जाव अयंपि भेदे से णो०॥ तत्थ जेसे आरेणं जे थावरा पाणा जेहिं समणोबासगस्स अट्टाए दंडे अणिक्खित्ते अणट्ठाए णिक्खित्ते, ते तओ आविष्य जहंति विप्पजहित्ता ते तत्थ आरेणं चेव जे थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अट्टाए दंडे अणिक्षिसे अणट्ठाए णिक्खित्ते तेसु पञ्चायंति, तेहि समणोबासगस्स अढाए अणट्ठाए ते पाणाथि जाव अयंपि भेटे से णो०॥ तत्थ जे ते आरेणं धावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खिसे अपवाए मिक्खित्ते तओ आउं विप्पजहंति विप्पजहित्ता तत्थ परेणं जे तसथावरा पाणा जेहिं समणोषासगस्स आयाणसो आमरणताए तेसु पञ्चायति तेहिं समणोवासगस्स सुपञ्चक्खायं भवइ, ते पाणावि माघ अयंपि भेदे से णो णेयाउए भवइ ॥ तत्थ जे ने परेणं तसथावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए० ते तओ आउं विप्पजहंति विष्पजहित्सा तत्थ आरेणं जे तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणताए तेसु पञ्चायंति, तेहिं समणोवासगस्स सुपचक्खायं भवइ, ते पाणावि जाप अयंपि भेदे से णो गेयाउए भवइ ।। तत्य जे ते परेणं तसथावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणलाए. ते तओ आउं विप्पजहंति विप्पजाहिसा सस्थ आरेणं जे थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अट्वाए दंडे अणिक्खित्ते अणट्ठाए मिक्खित्ते तेसु पचायंति, जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए अणि
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॥४२३॥
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(०२)
प्रत
सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम
[८०५]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [-], मूलं [८०], निर्युक्तिः [२०५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
अणद्वार क्विन्ते जाव ते पाणावि जाव अपि भेदे से णो० ॥ तत्थ ते परेण तस्थावरा पाया जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए० ते तओ आउं विप्पजहंति विप्पजहिता से तत्थ परेक चैव जे तसथावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताएं० तेसु पञ्चायति, जेहिं समणोवासगस्स सुपचक्वायं भवइ, ते पाणावि जाव अपि भेदे से णो० ॥ भगवं च णं उदाहण एवं भूयं ण एतं भवं ण एतं भविस्संति जपणं तसा पाणा वोच्छिजिहिंति धावरा पाणा भविस्संति, धावरा पाणावि वोच्छिजिहिंति तसा पाणा भविस्संति, अवोच्छिन्नेहिं तसथावरेहिं पाणेहिं जपणं तुम्भे वा अन्नो बा एवं वदह-स्थि णं से केद परियाए जाव णो णेयाउए भवइ || (सूत्रं ८० ) ॥
|
एवमन्यान्यप्यष्ट सूत्राणि द्रष्टव्यानि सर्वाण्यपि, नवरं तत्र प्रथमे सूत्रे तदेव यद्व्याख्यातं तचैवंभूतं, तद्यथा-गृहीतपरिमाणे | देशे ये सास्ते गृहीत परिमाणदेशस्थास्तेष्वेव त्रसेषूत्पद्यन्ते । तथा द्वितीयं सूत्रं वारादेशवर्तिनस्त्रसाः आरादेशवर्तिषु स्वतवरेत्पद्यन्ते ॥ तृतीये खारादेशवर्तिनसा गृहीतपरिमाणादेशावहियें साः स्थावराच तेषुत्पद्यन्ते । तथा चतुर्थसूत्रं खाराद्देशवर्तिनो ये स्थावरास्ते तदेशवर्तिष्वेव वसेत्पद्यन्ते ॥ पञ्चमं सूत्रं तु आरादेशवर्तिनो ये स्थावरास्ते तद्देशवर्तिष्वेव स्थावरेत्पद्यन्ते ॥ षष्ठं सूत्रं तु परदेशवर्तिनो ये स्थावरास्ते गृहीतपरिमाणस्थे (परदेशवसिं) पु त्रसस्थावरे पुत्पद्यन्ते ।। सप्तमसूत्रं लिदं - परदेशवर्तिनो ये त्रसस्थावरास्ते आराद्देशवर्तिषु त्रसेवृत्पद्यन्ते || अष्टमसूत्रं तु परदेशवर्तिनो ये सस्थावरास्ते आरादेशवर्तिषु स्थावरेवृत्पद्यन्ते ॥ नवमसूत्रं तु परदेशवर्तिनो ये सस्थावरास्ते परदेशवर्तिष्वेव सस्थावरेभूत्पद्यन्ते । एवमनया प्रक्रियया नवापि सूत्राणि भणनी
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [८०], नियुक्ति: [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
सूत्रकृताङ्ग
प्रत सूत्रांक ||८०||
कीयावृत्तिः |
॥४२४॥
दीप अनुक्रम [८०५]
यानि, तत्र यत्र यत्र त्रसास्तत्रादानशः-आदेरारभ्य श्रमणोपासकेनामरणान्तो दण्डस्त्यक्त इत्येवं योजनीयं, यत्र तु स्थावरास्त- नाकवार्थाय दण्डो न निक्षिप्तो-न परित्यक्तोऽनाय च दण्डः परित्यक्त इति । शेषाक्षरघटना तु स्वबुद्ध्या विधेयेति ॥ तदेवंन्दीयाध्य. बहुभिदृष्टान्तः सविषयतां श्रावकप्रत्याख्यानस्य प्रसाध्याधुनात्यन्तासंबद्धतां चोधस्स मूत्रेणैव दर्शयितुमाह-'भगवं च णं उदाहु' रित्यादि, भगवान् गौतमखाम्युदकं प्रत्येतदाह, तद्यथा नैतद्भूतमनादिके काले प्रागतिक्रान्ते नाप्येतदेयेऽनन्ते काले भाव्यं नाप्ये| तद्वर्तमानकाले भवति ये (यत्) त्रसाः प्राणाः सर्वथा निलेपतया खजात्युच्छेदेनोच्छेत्स्यन्ति-स्थावरा भविष्यन्तीति, तथा स्थावराश्च । प्राणिनः कालत्रयेऽपि नैव समुच्छेत्स्यन्ति-घसा भविष्यन्ति, यद्यपि तेषां परस्परसंक्रमेण गमनमस्ति तथापि न सामस्त्येनान्यतरेषामितरत्र सद्भावः, तथाहि-नोवंभूतः संभवोऽस्ति यदुत प्रत्याख्यानिनमेकं विहायापरेषां नारकाणां द्वीन्द्रियादीनां तिरश्चा मनुष्यदेवानां च सर्वदाऽप्यभावः, एवं च असविषयं प्रत्याख्यानं निविषयं भवति यदि तस्य प्रत्याख्यानिनो जीवत एव सर्वेऽपि नारकादयखसाः समुच्छिद्यन्ते, न चास्य प्रकारस्य संभवोऽस्त्युक्तन्यायेनेति, स्थावराणां चानन्तानामनन्तलादेव नासंख्येयेषु त्रसेपूत्पाद इति सुप्रतीतमिदं । तदेवमव्यवच्छिन्नैखसैः स्थावरैश्च प्राणिभिर्यद्वदत यूयमन्यो वा कबिद्वदति, तबधा-नास्त्यसौ 81 पर्यायो यत्र श्रमणोपासकसैकत्रसविषयोऽपि दण्डपरित्याग इति, तदेतदुक्तनीत्या सर्वमशोभनमिति ॥ सांप्रतमुपसंजिघृक्षुराह-8
भगवं च णं उदाहु आउसंतो! उद्गा जे खलु समणं वा माहणं वा परिभासेइ मित्ति मन्नंति आगमि- ॥४२४॥ त्ता णाणं आगमित्ता दंसणं आगमित्ता चरितं पावाणं कम्माणं अकरणयाए से खलु परलोगपलिमंथताए चिट्ठह, जे खलु समणं वा माहणं वा णो परिभासइ मित्ति मन्नंति आगमित्सा णाणं आगमित्ता
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[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [८१], नियुक्ति: [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||८||
दीप अनुक्रम [८०६]
दसणं आगमित्ता चरित्तं पावाणं कम्माणं अकरणयाए से खलु परलोगविसुद्धीए चिट्ठइ, तए णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयम अणादायमाणे जामेव दिसिं पाउन्भूते तामेव दिसिं पहारेत्थ गमणाए ॥ भगवं च णं उदाहु आउसंतो उदगा! जे खलु तहाभूतस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं धम्मियं सुक्यणं सोचा निसम्म अप्पणो चेव सुहुमाए पडिलेहाए अणुत्तरं जोगखेमपर्य लंभिए समाणे सोवि ताव तं आढाइ परिजाणेति वंदति नमसति सक्कारेइ संमाणेइ जाव कल्लाणं मंगलं.देवयं चेइयं पञ्जुवासति ॥ तए णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयम एवं वयासी-एतेसि णं भंते ! पदाणं पुविं अन्नाणयाए असवणयाए अयोहिए अणभिगमेणं अदिवाणं असुयाणं अमुयाणं अविनायाणं अबोगडाणं अणिगूढाणं अविच्छिन्नाणं अणिसिहाणं अणिबूदाणं अणुबहारियाणं एयमढ णो सद्दहियं णो पत्तिय णो रोइयं, एतेसि णं भंते ! पदाणं एहि जाणयाए सवणयाए बोहिए जाव उवहारणयाए एयमé सहहामि पत्तियामि रोएमि एवमेव से जहेयं तुन्भे बदह । तर भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं बयासीसद्दहाहि णं अजो! पत्तियाहि णं अज्जो रोएहि णं अजो! एवमेयं जहा णं अम्हे वयामो, तए णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयम एवं वयासी-इच्छामि णं भंते! तुम्भं अंतिए चाउजामाओ धम्माओ पंचमहपाइयं सपडिकमणं धम्म उपसंपजित्ता णं विहरित्तए ।तए णं से भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं गहाय जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद, उवागच्छइत्ता तए णं से उदए पेढालपुत्ते समणं भगवं महा
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [८१], नियुक्ति: [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
||८१||
दीप अनुक्रम [८०६]
सूत्रकृता वीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, तिक्तुत्तो आयोहिणं पयाहिणं करिसा वंदर नमसति, बंदि
७नाल
१९ नमसात, वाद- २ श्रुतस्क- त्ता नमंसित्ता एवं बयासी-इच्छामि णं भंते! तुम्भं अंलिए चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहपाइयं सप न्दीयाध्य. न्धे शीला-1
डिकमणं धर्म उपसंपज्जित्ता णं चिहरित्तए, तए णं समणे भगवं महावीरे उदयं एवं ययासी-अहासुई कीयावृत्तिः
देवाणुप्पियामा पडिबंधं करेहि, तए णं से उदए पेढालपुत्ते समणस्स भगवओ महाषीरस्स अंतिए ॥४२५॥
चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहबइयं सपडिकमणं धम्म उघसंपबित्ता णं विहरइ सियेमि ॥ (सूत्रं ८१)। इति नालंदाजं सत्तमं अज्झयणं समत्तं ॥ इति सूयगडांगवीयसुयक्खंधो समतो ।। ग्रंधाग्रं० २१००३
'भगवं च णं उदाहु'रित्यादि गीतमखाम्याह-आयुष्मनुदक! यः खलु श्रमण वा-यथोक्तकारिणं माहनं वा-सहमचर्योपेतं. 18|'परिभाषते' निन्दति मैत्री मन्यमानोऽपि, तथा सम्यय ज्ञानमागम्य तथा दर्शनं चारित्रं च पापानां कर्मणामकरणाय समु-18
त्थितः, स खलु लघुप्रकृप्तिः पण्डितमन्यः 'परलोकस्य' सुगतिलक्षणस तत्कारणस्य वा सत्संयमस्य 'पलिमन्थाय' तहिलोडनाय तद्विघाताय तिष्ठति, यस्तु पुनर्महासत्वो रक्षाकरवद्गम्भीरो न श्रमणादीन् परिभाषते तेषु च परमां मैत्री मन्यते सम्बन्दनज्ञानचारित्राण्यनुगम्य तथा पापानां कर्मणामकरणायोत्थितः स खलु परलोकविशुद्ध्यावतिष्ठते, अनेन च परपरिभाषावनेन | यथावस्थितार्थस्वरूपदर्शनतो गौतमखामिना खौद्धत्यं परिहतं भवति, तदेवं यथावस्थितमर्थ मौतमस्वामिनावगमितोऽप्युदकः ॥४२५॥ पेढालपुत्रो यदा भगवन्तं गौतममनाद्रियमाणो यस्या एवं दिशा प्रादुर्भूतस्तामेव दिशं गमनाय संप्रधारितवान् ॥ तं चैवभिप्रायमुदकं दृष्ट्वा भगवान्गौतमखाम्याह, तद्यथा-आयुष्मचुदक! यः खलु तथाभूतस्य श्रमणख ब्राह्मणस बान्तिके-समीपे एकमपि
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
॥८१॥
दीप
अनुक्रम [८०६ ]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [-], मूलं [८१], निर्युक्तिः [२०५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
| योगक्षेमाय पद्यते गम्यते येनार्थस्तत्पदं योगक्षेमपदं, किंभूतम् ? - जार्यम् आर्यानुष्ठानहेतुवादार्य, तथा धार्मिक तथा शोमनवचनं | सुवचनं सद्गतिहेतुलात् तदेवंभूतं पदं श्रुला निशम्य - अवगम्य चात्मन एव तदनुत्तरं योगक्षेमपदमित्येवमवगम्य सूक्ष्मया कुशाश्रीयमा बुद्ध्या 'प्रत्युपेक्ष्य' पर्यालोच्य तद्यथा अहमनेनैवंभूतमर्थपदं 'लम्भितः' प्रापितः समसावपि तावलौकिकसमुपदेशदातारमाद्रियते पूज्योऽयमित्येवं जानाति, तथा कल्याणं मङ्गलं देवतामिव स्तौति पर्युपास्ते च यद्यप्यसौ पूजनीयः किमपि नेच्छति तथापि तेन तस्य परमार्थोपकारिणो यथाशक्ति विधेयम् ।। तदेवं गौतमस्वामिनाऽभिहित उदक इदमाह तद्यथा एतेषां पदानां | पूर्वमज्ञानतयाऽश्रवणतयाऽबोच्या चेत्यादिना विशेषण कदम्बकेन न श्रद्धानं कृतवान्, साम्प्रतं तु युष्मदन्तिके विज्ञायैनमर्थं श्रद्दधिऽहं ॥ एवमवगम्य गौतमस्वाम्युदकमेवाह-यथा अस्मिन्नर्थे श्रद्धानं कुरु, नान्यथा सर्वज्ञोक्तं भवतीतिमत्ता, पुनरप्युदक एवमाह - इष्टमेवैतन्मे, किं लघुष्माचातुर्यामिकाद्धर्मात्पञ्चयामिकं धर्म सम्प्रति सप्रतिक्रमणमुपसंपद्य विहर्तुमिच्छामि ॥ ततोऽसौ मौतमस्वामी तं गृहीला तीर्थकरान्तिकं जगाम । उदकथ भगवन्तं वन्दिला पञ्चयामिकधर्मग्रहणायेोत्थितः, भगवताऽपि तस्य सत्रतिक्रमणः पञ्चयामो धर्मोऽनुज्ञातः, स च तं तथाभूतं धर्ममुपसंपद्य विहरतीति । इति परिसमाप्यर्थे । ब्रवीमीति पूर्ववद, सुधस्वामी स्वशिष्यानिदमाह, तद्यथा-सोऽहं ब्रवीमि येन मया भगवदन्तिके श्रुतमिति । गतोऽनुगमः ।
सांप्रतं नयाः, ते चामी - नैगम १ संग्रह २ व्यवहार ३र्जु सूत्र ४ शब्द ५ समभिरूडै ६ वंभूता७ख्याः सप्तैव तेषां च मध्ये नैगमाद्याश्रला| रोऽप्यर्थनयाः अर्थमेव प्राधान्येन शब्दोपसर्जनमिच्छन्ति, शब्दाद्यास्तु त्रयः शब्दनयाः शब्दप्राधान्येनार्थमिच्छन्ति । तत्र नैगमस्येदं १] देवताप्रतिमरूपत्वाथैत्यस्य देवतया गतार्थत्वान्न पृथनिर्देशः, सूत्रे तु स्थापनायाः पूज्यतमत्वापेक्षया स्पष्टं पृषभिर्देशः इति भाति ।
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
||८१||
दीप
अनुक्रम
[८०६]
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [८१], निर्युक्ति: [२०५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
सूत्रकृताने २ श्रुतस्कन्धे शीलाझीयावृतिः
॥४२६॥
| स्वरूपं, तद्यथा - सामान्य विशेषात्मकस्य वस्तुनो नैकेन प्रकारेणावगमः परिच्छेदो निगमस्तत्र भवो नैगमो, नैकगमो वा नैगमःमहासामान्यापान्तरालसामान्यविशेषाणां परिच्छेदकः, तत्र महासामान्यं सर्वपदार्थानुयायिनी सत्ता अपान्तरालसामान्यं द्रव्यखजीदत्ताजीवतादिकं, विशेषाः परमाणवादयस्तद्गता वा शुक्लादयो गुणाः, तदेतत्रितयमप्यसाविच्छतीति निलयन प्रस्वकादिदृष्टान्तैरनुयोगद्वारप्रसिद्धैस्तत्स्वरूपमवसेयम्, अयं च नैगमः सामान्यविशेषात्मक वस्तु समाश्रयणेऽपि न सम्यग्दृष्टिः, भेदेनैव सामान्य विशेपयोराश्रयणात्, तन्मताश्रितनैयायिकवैशेषिकवत् । तथा संग्रहोऽप्येवंखरूपः, तद्यथा सम्यक पदार्थानां सामान्याकारतया ग्रहणं सङ्ग्रहः, तथाहि अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकखभावमेव सत्तारूपं वस्त्रसावभ्युपगच्छति, सत्तातो व्यतिरिक्तस्यावस्तुत्वं खरविषाणस्येव, स च संग्रहः सामान्य विशेषात्मकस्य वस्तुनः सामान्यांशस्यैवाश्रयणान्मिथ्यादृष्टिः, तन्मताश्रित सांख्यवत् । व्यवहारनयस्य तु स्वरूपमिदं तद्यथा-यथालोकग्राहमेव वस्तु, यथा च शुष्कतार्किकैः स्वाभिप्रायकृतलक्षणानुगतं तथाभूतं वस्तु न भवत्येव, नहि प्रतिलक्षणमर्थानामात्मभेदो भवति, किं तर्हि ?, यथा यथा लोकेन विशिष्ट भूयिष्ठतयाऽर्थक्रियाकारि वस्तु व्यवहियते | तथैव तद्वस्वित्याबालगोपालाङ्गनादिप्रसिद्धत्वाद्वस्तुस्वरूपस्येति, अयमप्युत्पादव्ययधीव्ययुक्तस्य वस्तुनोऽनभ्युपगमात् मिध्यादृष्टिः, तथाविधरध्यापुरुषवदिति । ऋजुसूत्रमतं त्विदं-ऋजु-प्रगुणं तच विनष्टानुत्पन्नतयाऽतीतानागतवत्रपरित्यागेन वर्त्तमानकालक्षणभावि यद्वस्तु वत्सूत्रयति--प्रतिपादयत्याश्रयतीति ऋजुसूत्रः, तस्यैवार्थक्रियाकारितया वस्तुवलक्षणयोगादिति, अयमपि सामान्यविशेषोभयात्मकस्य वस्तुनः सामान्यांशपरित्यागेन विशेषांशस्यैव समाश्रयणाच्छौद्धोदनवन सम्यग्दृष्टिः, कारणभूतद्रव्यानभ्युपगमेन तदाश्रितविशेषस्यैवाभावादिति । शब्दनयस्वरूपं खिदं तद्यथा - शब्दद्वारेणैवास्यार्थप्रतीत्यभ्युपगमालिङ्गवचन साधनोप
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७ नाक
न्दीयाध्य
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आगम (०२)
[भाग-4] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [८१], नियुक्ति: [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||८||
दीप अनुक्रम [८०६]
ग्रहकालभेदाभिहितं वस्तु भिन्नमेवेच्छति, तत्र लिहंगभेदाभिहितं वस्यन्यदेव भवति, तयथा-पुष्यस्तारका नक्षत्रमेव संख्याभिन्न जलमापो वर्षा ऋतुः, साधनभेदस्वयं-एहि मन्ये रथेन यास्यसि, नहि यातस्ते पिता, अस्थायमर्थः-एवं त्वं मन्यसे यथाऽहं रथेन यास्यामीत्यत्र मध्यमोचमपुरुषयोयत्ययः, उपग्रहस्तु परस्मैपदात्मनेपदयोर्व्यत्ययः, तद्यथा-तिष्ठति प्रतिष्ठते रमते उपरमती-18 त्यादि, कालभेदस्तु अनिष्टोमयाजी पुत्रोऽस्य भविता, अस्थायमर्थ:-अग्निष्टोमयाजी अग्निष्टोमेनेष्टवान्, भूते णिनिः, भवितेति RI भविष्यदनद्यतने लुद, तत्रायमर्थः-णिनिप्रत्ययो भवितेत्यस्य संबन्धाद्भूतकालतां परित्यज्य भविष्यत्कालता प्रतिपद्यते, तेनेदमुक्त भवति-एवंभूतोऽस्य पुत्रो भविष्यति योऽग्निष्टोमेन यक्ष्यति । तदेवंभूतं व्यवहारनयं शब्दनयो नेच्छति, लिङ्गायभिन्नांस्तु पर्या
यान् अनेकविषयखेनेच्छति, तयथा----घटः कुटः कुम्भः इन्द्रः शक्रः पुरन्दर इत्यादि, अयमप्यर्थव्यञ्जनपयर्यायोभयरूपस्य वस्तुनो | 18| व्यञ्जनपर्यायस्यैव समाश्रयणान्मिथ्यादृष्टिरिति । तथा पर्यायाणां नानार्थतया समभिरोहणात्समभिरूढो, न बयं घटादिपर्याया-18
णामेकार्थतामिच्छति, तथाहि-घटना घट: कुटनात्कुटः को भातीति कुम्भो, नहि घटनं कुटनं भवति, तथेन्दनादिन्द्रः पुर्दा-18 |रणात्पुरन्दर इत्यादेरपि शब्दप्रवृत्तिनिमित्तस न परस्परानुगतिरिति, तदयमपि मिथ्यादृष्टिः, पर्यायाभिहितधर्मवद्वस्तुनोऽनाथ-RI यणाद् गृहीतप्रत्येकावयवान्धहस्तिज्ञानवदिति । एवंभूताभिप्रायस्वयं-यदैव शब्दप्रवृत्तिनिमित्तं चेष्टादिकं तसिन्घटादिके वस्तुनि तदेवासी युवतिमस्तकारूढ उदकाथाहरणक्रियाप्रवृत्तो घटो भवति, न नियापारः, एवंभूतस्याथेस समाश्रयणादेवभूताभिधानो18 नयो भवति, तदयमप्यनन्तधर्माध्यासितस्य बस्तुनोनाश्रयणान्मिथ्याष्टिः, रलावल्यवयवे पमरागादौ कृतरत्नावलीव्यपदेश-181 | रुषवदिति । तदेवं सर्वेऽपि नयाः प्रत्येकं मिथ्यादृष्टयोऽन्योऽन्यसव्यपेक्षास्तु सम्पत्वं भजन्ति । अत्र च ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष इति
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
॥८१॥
दीप
अनुक्रम [८०६]
भाग
[भाग-4] “सूत्रकृत्” – अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [८१], निर्युक्तिः [२०५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र -[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
सूत्रकृताङ्गे
२ श्रुतस्क मधे शीला
कीयावृत्तिः
॥४२७॥
कृत्वा ज्ञानक्रियानययोः सर्वेऽप्येते स्वधिया समवतारणीयाः । तत्रापि ज्ञाननय ऐहिकामुष्मिकयोर्ज्ञानमेव फलसाधकलेनेच्छति न क्रियां, क्रियानयस्तु क्रियामेव न ज्ञानं, परमार्थस्तूभयमपि समुदितमन्योऽन्यसन्यपेक्षं पंम्वन्धवदभिप्रेतफलसिद्धयेऽल मिति एतदुभययुक्त एव साधुरभिप्रेतमर्थं साधयति, उक्तं च "सवेसिपि णयाणं बहुविहवत्तद्वयं णिसामेत्ता । तं सङ्घणयविसुद्ध जं चरणगुणडिओ साहू || १ ||" समाप्तमिदं नालन्दाख्यं सप्तममध्ययनम् ॥ इति समाप्तेयं सूत्रकृतद्वितीयाङ्गस्य टीका । कृता चेयं शीलाचार्येण वाहरिगणिसहायेन || यदवासमत्र पुण्यं टीकाकरणे मया समाधिभृता । तेनापततमस्को भव्यः कल्याणभागू भवतु ॥ १ ॥ ग्रंथाग्रं ( १२८५० ) ।।
१ सर्वेषामपि नयान बहुविधतव्यतां निशम्य तद् सर्वनयसंमतं यत् परमगुणस्थितः साधुः ॥ १ ॥
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इति श्रीमच्छीलाङ्काचार्य विरचितविवृतियुते श्रीसूत्रकृताङ्गे द्वितीयः श्रुतस्कन्धः समाप्तः समाप्तं च द्वितीयमङ्गमेवम् ॥
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श्री 4204595
७ नाल
न्दीयाध्य.
अत्र सप्तमं अध्ययनं समाप्तं. द्वितीय श्रुतस्कंधोऽपि समाप्तः
सूत्रकृताङ्गसूत्र श्रुतस्कंध १, अध्यननानि १४ से १६ एवं श्रुतस्कंध २ मूलं एवं शीलांकाचार्य रचिता टीका परिसमाप्तः मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुनः संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D. श्रुतमहर्षि]
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॥४२७॥
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भाग
कुलपृष्ठ ३१४
01
५८६
४९८
३९२
५९४
४९४ ३३८ ५९२ ५५२
“सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि" भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा?
इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति भाग-१ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन- १,२ आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन- ३ से ९, श्रुतस्कन्ध-२ आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन- १ से १३ आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन १४ से १६, श्रुतस्कन्ध-२ आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ स्थान- १ से ४ आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ स्थान- ५ से १० संपूर्ण आगम ०४ समवाय मूलं एवं वृत्ति. आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ शतक-१ से ६ आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ शतक-७ से ११ | आगम ०५ भगवती मलं एवं वृत्ति, भाग-३ शतक- १२ से २० | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ शतक- २१ से ४१ संपूर्ण आगम ०६ ज्ञाताधर्मकथा मूलं एवं वृत्ति.. आगम-७,८,९,१०उपासकदशा, अंतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण मूलं एवं वृत्ति. | आगम-११,१२, विपाक, उववाई मुलं एवं वृत्ति.
आगम १३ राजप्रश्नीय मूलं एवं वृत्ति. | आगम९४ जीवाजीवाभिगम भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत सूत्र- १ से १३८ आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत] सूत्र- १३९ से प्रतिपत्ती-१० संपूर्ण आगम १५ प्रज्ञापना भाग-१ मुलं एवं वृत्ति. पद-१ से ५ आगम १५ प्रज्ञापना भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. पद-६ से २२ आगम १५ प्रज्ञापना भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. पद- २३ से ३६ संपूर्ण | आगम १६ सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति.
५१४
३८४
13
५२२ ५३८ ३८४ ३१४ ४८० ४८८ ४२६
20 21
५१४ ३३६ ६१०
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भाग
कुलपृष्ठ ६१४ ३७६ ४२६ ३४४
३१२
३३०
४६६
४४२
“सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि" भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा?
इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम आगम १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. आगमा८ जंबूदविपप्रज्ञप्ति भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- १ एवं २. आगमा८ जंबूदविपप्रज्ञप्ति भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ३ एवं ४.
वृत्ति. वक्षस्कार-३ एव ४. आगम१८ जंबूदविपप्रज्ञप्ति भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार-५ से ७. आगम १९ थी ३२ निरयावलिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा, चतुःशरण, आतुरपरत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान,
भक्तपरिज्ञा, तंदुलवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविदया, देवेन्द्रस्तव मूलं एवं छाया आगम ३३ थी ३९ मरणसमाधि मूलं एवं छाया, निशीथ, बुहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध, जीतकल्प/पंचकल्प, महानिशीथ मूलं एव आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, नियुक्ति-१ से २१ आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, नियुक्ति- ५२२ से ९५१ आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ नियुक्ति- ९५२ से १२७३ अपूर्ण, [अध्ययन- १ से ४ अपूर्ण] आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ नियुक्ति- १२७३ अपूर्ण से १६२३, [अध्ययन- ४ अपूर्ण से ६ संपूर्ण) आगम ४१/१ ओघनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम ४१।२ पिंडनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम ४२ दशवैकालिक मूलं एवं वृत्ति. आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, अध्ययन- १ से ५ आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, अध्ययन- ६ से २१ आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-३, अध्ययन- २२ से ३६ आगम ४४ नन्दिसूत्र मूलं एवं वृत्ति. आगम ४५ अनुयोगद्वार मूलं एवं वृत्ति. | कल्प(बारसा)सूत्र... चतुःशरण, तन्दुलवैचारिक, गच्छाचार मूलं एवं वृत्ति.
४६४
४२६ ४७२
३७६
५९०
५२२ ४८२
४६६
५२८
५६०
40
३९४
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नमो नमो निम्मलदंसणस्स
पूज्य आनंद-क्षमा-ललित -सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः
भाग- 4
पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरादसूरीश्वरेण संशोधितः संपादितश्च “सूत्रकृताङ्गसूत्र” [मूलं, भद्रबाहूस्वामी रचित निर्युक्तिः एवं शिलांकाचार्य विहित वृत्तिः]
(किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह )
मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित:
“सूत्रकृत् मूलं एवं वृत्तिः” नामेण
श्रुतस्कंध-१, अध्ययन १४ - १६ एवं श्रुतस्कंध - २ परिसमाप्तः
“सवृत्तिक - आगम- सुत्ताणि” श्रेणि, भाग- 4
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MEIE
आगम
आगम
12201190 MEDITA
आवास
आगम आजम
आजम
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वैजगत आजम
राजस
आजम
आजम 23 राज
उपजम आगम
THIQUE
2210171
Miam
TOTAL
CHICKE
TEASE
HAR HAN HIGH
VINDR
आजम आ
terra
BETH $31STA SUP desc आजम
MINIS
Examen
आगम वाचना शताब्दी वर्ष
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आजम
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आजम 4.आजम
BITSTE
RUMAH
STOTP 30900 आगम
हजुर म
जम
Brand
आजस
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आम
3710177
strant आगरा
आगम
आगम
20STR
आइस
CHOTHE
श्री आजम आणम
आगम आजम शिवराम के इरणाम विभागमभन भय कमा
आगम आगम
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नमो नमो निम्मलदसणस्स
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
मूल संशोधक
अभिनव-संकलनकर्ता
HTS
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज
आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
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प्रत प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका
मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855198253062751
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ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
श्री आगम मंदिर
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________________ आगम आगम आगम आगम मूल संशोधकथाजसा S पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आगम आगम आगम आगम आगम - 02 'सूत्रकृत्' मूलं एवं वृत्ति: [2] आजम आज- अभिनव-संकलनकर्ता आजमा __ आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी आगम [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] ME आजम आगम आजम आजम आगम आजम आजम आगा ~392~