Book Title: Jain Pooja Sangraha
Author(s): Mahavir Prakash Jain Thekedar Delhi
Publisher: Mahavir Prakash Jain Thekedar Dehli
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 --------------------------------------------------------------------------  Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा संग्रह IMILN MERA दिनांक ... .. ।। प्रकाशक- , . महावीर प्रशाद जैन ठेकेदार मालिक फर्म महावीर प्रशाद एण्ड सन्स चावड़ी बाजार देहली। मूल्य स्वाध्याय मात्र Page #7 --------------------------------------------------------------------------  Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाला महावीर प्रशाद जैन ठेकेदार Page #9 --------------------------------------------------------------------------  Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची क्रम सं० विषय १ श्री जेनदर्शन पाठ २ पंचमंगल पांडे रूपचन्द ३ नित्य नियम पूजा ४ जलभिषेक पाठ हरजसराय ५ देव-शास्त्र-गुरु भाषा पूजा द्यानतराय ६ श्री विदेहक्षेत्र बीमतीर्थकर पूजा ७ अकृत्रिम त्यालयोंके अर्घ ८ अथ सिद्ध पजा ६ समुच्चय चौवीसी पूजा १० निर्वाणक्षेत्र पूजा धानतराय ११ सप्त-ऋषि पूजा मनरंगलाल १२ शांतिपाठ भाषा १३ भाषा स्तुति १४ विमर्जन १५ सोलहकारण पूजा द्यानतराय १६ पंचमेस पूजा १७ नंदोश्वर द्वीप (अष्टान्हिका) पूजा , • १०२ १८ दशलक्षणधर्म पूजा १६ रत्नत्रय पूजा २० आदिनाथ पूजा जिनेश्वरदास .. २१ १६ श्री शांतिनाथ जिन पूजा रामचन्द्र ___.. १२६ २२ २० श्रीमुनिसुव्रतनाथ जिनपूजा .. १३६ :: :: :: :: :: :: :: : : : : : ११५ १२६ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ २३ श्रीपार्श्वनाथ जिनपूजा- रामचन्द्र २४ २४ अथ श्रीवर्द्धमान जिनपूजा२५ अथ महाघ २६ स्वयम्भू स्त्रोत्र भाषा- द्यानतराय .. १६४ २७ शांति पाठ संस्कृत पन्नालाल .. १६ २८ भाषा प्रार्थना धानतराय .. १६६ २६ शास्त्र-पूजा विधान३० तत्त्वार्थ मूत्र पूजा गृद्धपिच्छाचार्य १७६ ३१ जिनवाणी स्तुति द्यानतराय .. २०१ ३२ क्षमावाणी पूजा भाषा ..२०२ ३३ पञ्चपरमेष्ठी आदि की भारती- भगवतीदास २०८ ३४ दीपमालिका विधान, निर्वाणकांड भाषा-पं.भागचन्द २०६ ३५ महावीराष्टकस्तोत्र रामचन्द २१२ ३६ श्री सम्मेदशिखरपूजा- सुमतिसागर .. ३७ श्री भक्तामरस्तोत्र पूजा २८ पंच बालयति तीथकर पूजा .. • . २५७ ३६ बाहुबलि स्वामी पूजा पूरनमल ०६६ ४० श्री चांदनगांव महावीर स्वामी पूजा- जौहरीमल ४१ आलोचनापाठ .. बुधमहाचन्द २८१ ४२ सामायिकपाठ भाषा- हमराज २८९ ४३ भक्तामर स्तोत्र भाषा ४४ पं० दौलतराम कृत स्तुति __ .. ३०४ ४५ पं० बुधजन कृत स्तुति .. ३११ ४६ गुरु स्तुति .. पं० भूधर दास ३१२ ४७ मेरी भावना- पं० जुगलकिशोर मुख्तार ३१४ २६६ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ जैन झंडा गायन- मास्टर शिवराम सिंह ३१६ ४६ पखवाड़ा भाषा टीका- धानतराय ५० अथ अठाई रामा- विनय कीर्ति ५१ श्री महावीरस्वामी पूजा वृन्दावन .. ३३१ ५२ श्री निर्वाणकांड भाषा- भगवनीदास ५३ बारह भावना भूदरदास ५४ लघु ममाधि मरण भाषा ३४५ ५५ श्री चौवीस तीर्थकरोंके चिन्ह Y NY my ly cww .. २४३ ३४७ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तारीख मेरे यम व नियम हस्ताक्षर Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द " । कर्म भूमि शुभ श्रार्य क्षेत्र अरु, मनुप गती उत्तम कुल धार । दीरघ आयु अन पूरणता, तन नीरोग जीविका सार || जगत मान्य हुख थान विपुल धन, निर्विकल्प हो हृदय उदार । पुत्र पौत्र परिवार सुखी सब, शुद्धाचरणी श्राज्ञाकार ॥ | १ || श्रवरण जिनागम सज्जन संगति, गुणियन कथा भक्ति जिनदेव | पूजा दान नेम व्रत संयम, बसें हृदय हो दूरि कुटे ऐसा दुर्लभ अवसर कोई, बड़े पुण्य से पाता है । ज्ञानी नर भव सफल करें, मुरख जन वृथा गमाता है ||२|| || 66 ये उपर्युक्त बातें कभी किसी को प्रवल पुण्योदय से मिलती हैं इसलिये धर्मात्मा पुरुषों को धर्म के कामों द्वारा मनुष्य जन्म सफल बनाना चाहिये । जैसा कहा है :जिनेन्द्र पूजा गुरु पर्युपास्ति सत्वानुकम्पा शुभ पात्र दानम् । गुणानुरागः श्रुतरागमस्य नृजन्म वृक्षस्य फलान्य मुनि ॥ अर्थात् - जिनेन्द्रदेव की पूजा गुरु की उपासना समस्त प्राणियों में दया शुभ पात्रों को दान गुणियों से अनुराग और शास्त्रों का श्रवण ये मनुष्य जन्म रूपी वृक्ष के फल हैं इसलिये गृहस्थियों को घर में रहते हुये नित्य पट कर्मों को साधन करना चाहिये । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) देव पूजा गुगेपास्ति स्वाध्याय संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानां षट् कर्माणि दिने दिने । गृहस्थों के पट कम में भगवान की पूजा और सुपात्रों को दान की मुख्यता है यहांपर हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि श्रीमान् लाला महावीर प्रसाद जी ठेकेदार और उनके ज्येष्ठ पुत्र लाला श्यामलाल जी भगवान की पूजा में और दान में सदैव संलग्न रहते हैं तथा आपके अन्य सब पुत्र पौत्र सबही का चित्त धार्मिक कामों में रहता है आपके यहां से हजारों रुपये का दान होता रहता है आपने यह “जैन नित्य पूजन पाठ संग्रह" नाम का गुटका करीब ४०० पृष्ठ का छपाया है जोकि इसकी ५०.० प्रतियां स्वाध्याय प्रेमी भक्तों को बिना मूल्य बांटेंगे इससे सर्व साधारण जनता को अत्यन्त धर्म लाभ होगा। प्राशा है अन्य भी धनी दानी धर्मात्मा अापका अनुकर्ण करेंगे। पं० मक्खनलाल जैन धरमपुरा छै घरा देहली नोट-इस गुटके को शुद्धता पूर्वक छपाने में ला० जुगलकिशोर जी मालिक फर्म धूमीमल धरमदास ने बड़ा परिश्रम किया है अतएव धन्यवाद के पात्र हैं। पुस्तक मिलने का पतामहावीर प्रशाद एन्ड सन्स चावड़ी बाजार देहलं', ६ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेन्द्राय नमः। श्री जैन पूजापाठ संग्रह मंगलाचरण दोहा श्रीमत वीर जिनेन्द्रको, बार बार शिर नाय । संग्रह पूजापाठ का, करू स्व-पर सुखदाय ।।१।। दर्शन पाठ दर्शनं देवदेवस्य, दर्शनं पापनाशनं । दर्शनं स्वर्गसोपानं, दर्शनं मोक्षसाधनं ॥१॥ दर्शनेन जिनेन्द्राणां, साधूनां वंदनेन च । न चिरं तिष्ठते पापं, छिद्रहस्ते यथोदकम् ॥२॥ वीतरागमुखं दृष्ट्वा , पनरागसमप्रभ । अनेकजन्मकृतं पापं, दर्शनेन विनश्यति ॥३॥ दर्शनं जिनसूर्यस्य संसारध्वान्तनाशनं । बोधनं चित्तपत्रस्य, समस्तार्थप्रकाशनं ॥४॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह दर्शनं जिनचन्द्रस्य, सद्धर्मामृतवर्षणं । जन्मदाहविनाशाय, वर्धनं सुखवारिधेः ।।५।। जीवादितत्वंप्रतिपादकाय, सम्यक्त्वमुख्याष्टगुणार्णवाय । प्रशांतरूपाय दिगंबराय, देवाधिदेवाय नमो जिनाय ॥६॥ चिदानन्देकरूपाय, जिनाय परमात्मने । परमात्मप्रकाशाय, नित्यं सिद्धात्मने नमः ॥७॥ अन्यथा शरणं नास्ति, त्वमेव शरणं मम । तस्मात्कारुण्यभावेन, रक्ष रक्ष जिनेश्वर ! |८|| न हि त्राता न हि त्राता, न हि त्राता जगत्त्रये । वीतरागात्परो देवो, न भूतो न भविष्यति ।।९।। जिने भक्तिर्जिने भक्तिर्जिने भक्तिर्दिने दिने । सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु भवे भवे ॥१०॥ जिनधर्मविनिमुक्तो, मा भवेच्चक्रवर्त्यपि । स्याच्चेटोऽपि दरिद्रोऽपि जिनधर्मानुवासितः ॥११॥ जन्म जन्म कृतं पापं, जन्मकोटिमुपार्जितं । जन्ममृत्युजरारोग, हन्यते जिनदर्शनात् ।।१२।। अद्याभवत्सफलता नयनद्वयस्य, देव त्वदीय चरणांबुजवीक्षणेन । अद्य त्रिलोकतिलकं प्रतिभाषते मे, संसारवारिधिरयं चुलुकप्रमाणम् ॥१३॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह पंच मंगल पणविवि पंच परमगुरु, गुरु जिनशासनो। सकलसिद्धिदातार सु विघनविनाशनो ॥ सारद अरु गुरु गौतम सुमति प्रकाशनो। मंगल कर चउ-संघहि पापपणासनो ॥ पापहिंपणासन गुणहिं गम्वा, दोष अष्टादश-रहिउ । धरि ध्यान कर्मविनाश केवल, ज्ञान अविचल जिन लहिउ ।। प्रभु पञ्चकल्याणक विराजित, सकल सुर नर ध्यावहीं। त्रैलोक्यनाथ सुदेव जिनवर. जगत मङ्गल गावहीं ॥१॥ १-गर्भकल्याणक जाके गरभकल्याणक धनपति आइयो। अवधिज्ञान-परवान सु इंद्र पठाइयो । रचि नव बारह जोजन, नयरि सुहावनी । कनकरयणमणिमंडित, मंदिर अति बनी ॥ अति बनी पौरि पगारि परिखा. सुवन उपवन माहये । नरनारि सुन्दर चतुर भेख मु, देख जनमन मोहय ।। नहं जनकगृह छहमास प्रथमहि, रतनधारा बरसियो । पुनि रुचिकवामिनि जननि-सेवा करहिं सबविधि हरसियों ॥२॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह सुरकुंजरसम कुंजर, धवल धुरंधरो । केहरि-केशरशोभित, नख-शिखसुन्दरो ॥ कमलाकलस-न्हवन, दुइ दाम सुहावनी। रवि-ससि मंडल मधुर, मीन जुग पावनी ॥ पावनि कनक घट जुगमपूरण, कमलकलित सरोवरो । कल्लोलमालाकुलितसागर, सिंहपीठ मनोहरो। रमणीक अमरविमान फणिपति-भवन भुविछवि छाजई। मचि रतनरासि दिपंत. दहन सु तेजपुंज विराजई ।।३।। ये सखि सोरह सुपने सूती सयनहीं । देखे माय मनोहर, पश्चिम रयनही ॥ उठि प्रभात पिय पूछियो, अवधि प्रकाशियो । त्रिभुवनपति सुत होसी, फल तिहँ भासियो । भासियो फल तिहिं चिंत दम्पति परम आनन्दित भय ! छहमासपरि नवमास पुनि तह. रयन दिन सुखमों गये ।। गर्भावतार महंत महिमा, सुनत सब सुख पावहीं । भणि 'रूपचन्द सुदेव जिनवर जगत मङ्गल गावहीं ॥५॥ २-जन्मकल्याणक मतिश्रु तअवधिविराजित, जिन जब जनमियो। तिहुँ लोक भयो छोभित. सुरगन भरमियो । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह कल्पवासि घर घंट अनाहद वज्जियो । जोतिषधर हरिनाद, सहज गल गज्जियो || गज्जियां सहजहिं संख भावन. भुवन सबद सुहावने । तिरनिलय पटु पटहिं बज्जिय. कहत महिमा क्यों बने ॥ कंपित सुरासन अवधिबल जिन-जनम निहचें जानियो । धनराज तब गजराज मायामयी निरमय आनियो || ५ || जोजन लाख गयंद, वदन सौ निरमये । बदन वदन वसुदंत, दंत-सर-संख्ये ॥ सरसर सौ-पनवीस, कमलिनी छाजहीं । कमलिनि कमलिनि कमल पचीस विराजहीं ॥ राजही कमलिनि कमलठातरसौ मनोहर दल बने । दलदलहि अपछर नटहिं नवरस हाव भाव सुहावने ॥ मणि कनककिंकरिण वर विचित्र मु अमरमण्डप सोहये । घन घंट चंवर धुजा पताका, देखि त्रिभुवन मोहये || ६ || तिहिं करि हरि चढ़ि आयउ सुरपरिवारियो । पुरहिं प्रदच्छन दे त्रय, जिन जयकारियो ॥ गुप्त जाय जिन- जननिहिं, सुखनिद्रा रची। मायामई सिसु राखि तौ, जिन आन्यो सची ॥ श्रान्यां सची जिनरूप निरखत नयन तृपति न हूजिये | Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह तब परम हरषित हृदय हरिने सहम लोचन १ पूजिये ।। पुनि करि प्रणाम जु प्रथम इन्द्र, उछंग धरि प्रभु लीनऊ । ईशान इन्द्र सुचंद्र छवि सिर, छत्र प्रभुके दीनऊ |जा सनतकुमार महेन्द्र, चमर दुइ ढारहीं। शेष शक जयकार, शबद उच्चारहीं॥ उच्छवसहित चतुरविधि सुर हरषित भये । जोजन सहस निन्यानवे, गगन उलंघि गये ॥ लँघिगये सुरगिरि जहां पांडुक. वन विचित्र विराजहीं। पांडुकशिला तह अर्द्धचन्द्र समान. मणि छवि छाजहीं ।। जोजन पचास विशाल दुगुणायाम, वसु ऊची गनी । वर अष्ट-मंगल-कनक कलशनि सिंहपीठ सुहावनी ॥८॥ रचि मणिमंडप शोभित, मध्य सिंहासनो। थाप्यो पूरब मुख तहँ प्रभु कमलासनो॥ बाजहिं ताल मृदंग, वेणु वीणा घने । दुंदुभि प्रमुख मधुरधुनि, और जु बाजने ॥ बाजने बाजहिं सची सब मिलि. धवल मङ्गल गावहीं । पुनि करहिं नृत्य सुरांगना सब, देव कौतुक ध्यावहीं ।। भरि छीरसागर जल जु हाथहिं, हाथ सुरगिरि ल्यावहीं । सौधर्म अरु ईशान इन्द्र सु कलश ले प्रभु न्हावहीं ॥॥ १-पूजिये अर्थात् सहस नेत्र बनाकर पूजा को Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह वदन उदर अवगाह, कलशगत जानिये। एक चार वसु जोजन, मान प्रमानिये ॥ सहस-अठोतर कलसा, प्रभुके सिर ढरे । पुनि सिंगार प्रमुख, आचार सबै करे ॥ करि प्रगट प्रभु महिमा महोच्छव, प्रानि पुनि मातहिं दयो। धनपतिहिं सेवा राखि सुरपति. श्राप सुरलोकहिं गयो । जन्माभिषेक महंत महिमा. सुनत सब सुख पावहीं। भणि 'रूपचन्द' सुदेव जिनवर जगत मङ्गल गावहीं ॥१०॥ ३-तपकल्याणक श्रमजलरहित सरीर, सदा सब मलरहिउ । छीर वरन वर रुधिर, प्रथम आकृति लहिउ॥ प्रथम सार संहनन, सरूप विराजहीं । सहज सुगंध सुलच्छन, मंडित छाजहीं ॥ छाजहिं अतुल बल परम प्रिय हित. मधुर वचन सुहावन । दस सहज अतिशय सुभग मूरनि. बाललील कहावने । आबाल काल त्रिलोकपति मन. मचिर उचित जु नित नये । अमरोपनीत पुनीत अनुपम सफल भोग विभोगये ॥११॥ भव-तन-भोग-विरत्त, कदाचित चिंतए । धन-योवन पिय पुत्त, कलित्त अनित्तए । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह कोड न सरन मरनदिन, दुख चहुंगति भरयो। सुखदुख एकहि भोगत, जिय विधिवसि परयो॥ परणे विधिवस आन चेतन. आन जड़ जु कलेवरो । तन असुचि परतें होय आस्रव, परिहरे ते संवरो॥ निरजरा तपबल होय समकित, विन सदा त्रिभुवन भम्यो । दुर्लभ विवेक विना न कबहू, परम धरमविष रम्यो ॥१२॥ ये प्रभु बारह पावन, भावन भाइया । लोकांतिक वर देव, नियोगी आइया ॥ कुसुमांजलि दे चरन, कमल सिर नाइया। स्वयंबुद्ध प्रभुथुतिकर, तिन समुझाइया॥ समुझाय प्रभुको गये निजपुर, पुनि महोच्छव हरि कियो । रुचि रुचिर चित्र विचित्र सिविका,-करसु नंदन वन लियो । तहँ पंचमुट्ठो लोंच कीनों. प्रथम सिद्धिनि नुति करी। मंडिय महाव्रत पंच दुद्धर सकल परिगह परिहरी ॥१३।। मणिमयभाजन केश परिट्रिय सुरपती। छीरसमुद-जल खिपकरि, गयो अमरावती ॥ तपसंयमबल प्रभुको, मनपरजय भयो। मौन सहित तप करत, काल कछु तहँ गयो। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजापाठ संग्रह। गया कछु तहँ काल तपबल. रिद्धि वसुविधि सिद्धिया। जसु धर्मध्यानबलन खयगय, सप्त प्रकृति प्रसिद्धिया ।। खि प सातवें गुण जतनबिन तहँ, तीन प्रकृति जु बुधि बढ़िउ । करि करण तोन प्रथम सुकलबल. खिपकसेनी प्रभु चढ़िउ ॥१४॥ प्रकृति छतीस नवें, गुण-थान विनासिया । दसवें सूक्षमलोभ, प्रकृति तहँ नासिया ॥ सुकल ध्यानपद दूजो, पुनि प्रभु पूरियो । बाहरवें-गुण सोरह, प्रकृति जु चूरियो॥ चूरियौ त्रेसठ प्रकृति इहविधि, घातियाकरमनि तणी । तप कियो ध्यानपर्यन्त बारह-विधि त्रिलोकसिरोमणी । निःक्रमणकल्याणक सु महिमा. सनत सब सुख पावहीं । भणि 'रूपचंद' सुदेव जिनवर. जगत मंगल गावहीं ॥१५।। ४-ज्ञानकल्याणक तेहरवं गुणथान सयोगि जिनेसुरो। अनंतचतुष्टयमंडित, भयो परमेसुरो ॥ समवसरन तब धनपति, बहुविधि निरमयो । आगमजुगति प्रमान, गगनतल परिटयो ॥ परिठया चित्र विचित्र मणिमय. सभामण्डप साहय । तिहिमध्य बारह बन काठ, कनक सुरनर मोहय । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह। मुनि कनपवासिनि अरजिका पुनि ज्याति भौमि-व्यन्तरतिया । पुनि भवनव्यंतर नभग मरनर पसुनि काठे बेठिया ।।१६।। मध्यप्रदेश तीन, मणिपीठ तहां बने । गंधकुटी सिंहासन, कमल सुहावने ॥ तीन छत्र सिर सोहत त्रिभुवन मोहए। अंतरीच्छ कमलासन, प्रभुतन सोहए ॥ साहये चौमठ चमर ढरत. अशोकतातल छाजए । पुनि दिव्यधुनि प्रतिसबदजुत तहँ, देव दुदभि बाजाए ।। मुरपुहुपवृष्टि सुप्रभामण्डल. काटि रवि छवि छाजए । इमि अष्ट अनुपम प्रातिहारज, वर विभूति विराजए ॥१७॥ दुइस जोजनमान सुभिच्छ चहूं दिसी। गगनगमन अरु प्राणी, वध नहिं अहनिसी ॥ निरुपसर्ग निराहार, सदा जगदीशए । आनन चार चहूदिसि, सोभित दीसए ॥ दीमय असेस विसंस विद्या. विभव वर ईसुरपना । छायाविवर्जित सुद्ध फटिक समान तन प्रभुका बना । नहिं नयनपल कपतन कदाचित्. केश नख सम छाजहीं। य घातिया छयजनित अतिशय. दस विचित्र विराजहीं ॥१८॥ सकल अरथमय मागधि-भाषा जानिए । सकल जीवगत मैत्री-भाव बखानिए ॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। सकल रितुज फलफूल, वनस्पति मनहरै । दरपनसम मनि अवनि, पवन गति अनुसरै ॥ अनुसर परमानंद सबको, नारि नर जे सेवता। जोजन प्रमान धरा सुमार्जहिं. जहां मारुत देवता ।। पुनि करहिं मंघकुमार गंधोदक सुवृष्टि सुहावनी । पदकमलतर सुर खिपहिं कमलसु धरणि ससिसोभा बनी ॥१६॥ अमलगगनतल अरु दिसि, तहँ अनुहारहीं। चतुरनिकाय देवगण, जय जयकारहीं ॥ धर्मचक्र चलै आगें, रवि जहँ लाजहीं। पुनि भृगार-प्रमुख, वसु मंगल राजहीं ॥ राजहीं चौदह चार अतिशय. देव चित मुहावने । जिनराज केवलज्ञान महिमा. अवर कहत कहा बने ।। तब इन्द्र आय किया महाच्छव. सभा माभा अति बनी । धर्मोपदेश दिया नहीं. उच्चरिय वानी जिनननी ॥२०॥ छुधातृषा अरु राग, रोष असुहावने । जनम जरा अरु मरण, त्रिदोष भयावने ॥ रोग सोग भय विस्मय, अरु निद्रा घनी। खेद स्वेद मद मोह, अरति चिंता गनी ॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजापाठ संग्रह। गनिये अठारह दाप तिनकरि रहित देव निरंजनो। नव पाम कंवललब्धिमंडिय सिवरमनि-मनरंजना ।। श्रीज्ञानकल्याणक मुमहिमा. मुनत सब सुख पावहीं । भणि रूपचंद' सुदेव जिनवर. जगत मंगल गावहीं ।।२१।। ___५-निर्वाण कल्याणक केवलदृष्टि चराचर, देख्यो १जारिसो। भव्यनि प्रति उपदेश्यो, जिनवर २तारिसो । भव-भय-भीत भविकजन, सरण आइया । रत्नत्रयलच्छन सिवपंथ लगाइया ॥ लगाइया पंथ जु भव्य पुनि प्रभु तृतिय मुकल जु पूरियो । तजि तरवां गुणथान जोग अजागपथ पग धारिया । पुनि चौदहं चौथे मुकलबल बहत्तर तरह हती। इमि घाति वसुविध कर्म पहुंच्या. समयमें पंचमगती ॥२२॥ लोकसिखर तनुवात, बलयमहँ संठियो । धर्मद्रव्यविन गमन न, जिहि आगें कियो । मयनरहित मूषोदर, अंबर जारिसो। किमपि हीन निजतनुतें, भयो प्रभु तारिसो ॥ १-जारिसो-जैसा। २-तारिसो-तैसा। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजापाठ संग्रह। १ ३ तारिमो पर्जय नित्य अविचल. अर्थपञ्जय छनछयी। निश्चयनयेन अनंतगुण. विवहार नय वसुगुणमयी ।। वस्तुम्वभाव विभावविरहित. सुद्ध परिणति परिणयो । चिदम्पपरमानंद मंदिर. सिद्ध परमातम भयो ॥२३॥ तनुपरमाणू दामिनिवत, सब विरगए । रहे शेष नम्वकेश-रूप, जे परिणए ॥ तव हरिप्रमुख चतुरविधि, सुरगण शुभ सच्यो । मायामयि नखकेश-रहित, जिनतनु रच्यो । गचि अगर चंदन प्रमुग्ध परिमल. द्रव्य जिन जयकारियो । पदपनिन अगनिकुमार मुकुटानल, सुविध संस्कारियो ।। निर्वाणकल्याणक मु महिमा. सुनत मब सुख पावहीं । भगिण रूपचंद सुदव जिनवर. जगत मंगल गावहीं ||४|| मैं मनिहीन भगतिवस, भावन भाइया । मंगल गीतप्रबंध, सु जिनगुण गाइया ॥ जो नर सुनहिं वग्वानहिं सुर धरि गावहीं । मनवांछित फल सो नर, निह पावहीं ॥ पावहीं आठों सिद्धि नवनिधि. मन प्रतीन जो लावहीं । भ्रम भाव छुटै मकल मनके निज म्वरूप लखावही ।। पुनि हरहिं पानक टहि विधन सु होहिं मंगल नितनयं । भणि रूपचंद त्रिलोकपति. जिनदेव च उमंघहि जय ॥२५॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह जलाभिषेक वा प्रक्षालन पाठ प्रक्षाल करते समय पढ़ना चाहिये । जय जय भगवंते सदा, मंगल मूल महान । वीतराग सर्वज्ञ प्रभु, नमो जोरि जुगपान | ढाल मंगल की. छंद अल्लि और गीता श्रीजिन जगमैं ऐसो को बुधवंत जू । जो तुम गुणवरननि करि पावै अंत जू ॥ इंद्रादिक सुर चार ज्ञानधारी मुनी । कहि न सकै तुम गुणगण हे त्रिभुवनधनी ॥ अनुपम अमित तुमगुणनिवारिध, ज्यों लोकाकाश है । किमि धेरै हम उर कोपमें सो कथगुणमणिराश है || पै निजप्रयोजन सिद्धि की तुम नाममें ही शक्ति है । यह चित्तमें सरधान यातें नाम ही में भक्ति है ||१|| ज्ञानावरणी दर्शन - आवरण भने । कर्म मोहनी अंतराय चारों हने ॥ लोकालोक विलोक्यो केवलज्ञान में Į इंद्रादिकके मुकुट नये सुरथान में || तब इंद्र जान्यो अवधितै, उठि सुरनयुत बंदत भयो । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। १५ तुम पुन्यको प्रेरथो हरी है मुदित धनपतिसौं चयो । अब वेगि जाय रचौ समवसृति सफल सुरपदको करौ । साक्षात् श्री अरहंतके दर्शन करो कल्मष हरौ ॥२॥ ऐसे वचन सुने सुरपतिके धनपती । चल आयो तत्काल मोद धार अती ।। वीतराग छवि देखि शब्द जय जय चयो । दे प्रदच्छिना चार बार वंदत भयो । अति भक्तिभीनो नम्रचित ह समवशरण रच्यो सही । ताकी अनूपम शुभगतीको, कहन समरथ कोउ नहीं । प्राकार तोरण सभामंडप कनक मणिमय छाजहीं । नगजडित गंधकुटी मनोहर मध्यभाग विराजहीं ॥३॥ सिंहासन तामध्य बन्यो अद्भत दिप । तापर बारिज रच्यो प्रभा दिनकर छिप ॥ तीनछत्र सिर शोभित चौसठ चमरजी । महाभक्तियुत ढोरत हैं तहां अमरजी ।। प्रभु तग्न ताग्न कमल ऊपर, अन्तरीक्ष विगजिया । यह वीतरागदशा प्रतच्छ विलोकि भविजन सुख लिया । मुनि आदि द्वादश सभाके भविजीव मस्तक नायके । बहुभांति बारंबार पूज, नमै गुणगण गायकं ।।४।। परमोदारिक दिव्य देह पावन मही। क्षुधा तृषा चिंता भय गद दूषण नहीं । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजापाठ संग्रह। जन्म जरा मृति अरति शोक विस्मय नसे । राग गेप निद्रा मद मोह सबै खसे ॥ श्रमविना श्रमजलहित पावन अमल ज्योतिस्वरूपजी । शरणागतनिकी अशुचिता हरि, करत विमल अनूपजी ॥ ऐसे प्रभू की शांतिमुद्रा को न्हवन जलतें करें । 'जम' भक्तिवश मन उक्तित हम भानुढिग दीपक धरै ॥५॥ तुमतो सहज पवित्र यही निश्चय भयो । तुम पवित्रता हेत नहीं मजन ठयो । मैं मलीन रागादिक मलते ह रह्यो । महामलीन तनमें वसुविधिवश दुख सह्यो । त्रीत्यो अनंतो काल यह मेरी अशुचिता ना गई । तिम अशुचिताहर एक तुम ही भरहु बांछा चित ठई ॥ अब अष्टकर्म विनाश सब मल रोषरागादिक हगै । तनरूप कारागेहत उद्धार शिव वासा करो ॥६॥ मैं जानत तुम अष्टकर्म हरि शिव गये । आवागमन विमुक्त रागवर्जित भये ॥ पर तथापि मेरो मनोरथ पूरत मही । नयप्रमानतें जानि महा साता लही ॥ पापाचरण तजि न्हवन करता चित्तमें ऐसे धरू । साक्षात श्रीअरहंतका मानों न्हवन परसन करू । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह . १७ ऐसे विमल परिणाम होते अशुभ नसि शुभबंध तैं । विधि अशुभ नसि शुभबंधते ह्र शर्म सब विधि तासतें ॥७॥ पावन मेरे नयन, भये तुम दरसते । पानि भये तुम चरननि परसते ॥ पावन मन ह गयो तिहारे ध्यानतें । पावन रसना मानी, तुम गुण गानतें ॥ पावन भई परजाय मेरी, भयो मैं पूरणधनी । मैं शक्तिपूर्वक भक्ति कीनी, पूर्णभक्ति नहीं बनी ॥ धन धन्न ते बड़भागि भवि तिन नीव शिवघरकी धरी । वर क्षीरसागर आदि जलमणिकंभ भर भक्ती करी ॥८॥ विघनसघन-वनदाहन-दहन प्रचंड हो । मोहमहातमदलन प्रवल मारतण्ड हो । ब्रह्मा विष्णु महेश, आदि संज्ञा धरो । जगविजयी जमराज नाश ताको करो ॥ आनन्दकारण दुखनिवारण, परममंगल-मय सही । मोसो पतित नहिं और तुमसो, पतित-तार सुन्यो नहीं । चिंतामणी पारस कल्पतरु, एकभव सुखकार ही । तुम भक्तिनवका जे चढ़े ते, भये भवदधिपार ही ॥९॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह दोहातुम भवदधितै तरि गये, भये निकल अविकार तारतम्य इस भक्निको, हमें उतारो पार ॥१०॥ ॥ इति हरजसराय कृत अभिषेक पाठ ।। नित्य नियम पूजा पूजन प्रारम्भ करने के समय नौ बार णमोकार मन्त्र पढ़कर नीचे लिखा विनय पाठ बोल कर पूजा प्रारम्भ करना चाहिये । विनयपाठ दोहावाली इह विधि ठाडो होयके, प्रथम पढ़े जो पाठ । धन्य जिनेश्वर देव तुम, नाशो कर्मजु आठ ॥१॥ अनंत चतुष्टयके धनी, तुमही हो सिरताज । मुनिवधूके कंथ तुम, तीन भुवन के राज ॥२॥ तिहुं जगकी पीड़ाहरन, भवदधि शोषणहार । ज्ञायक हो तुम विश्वके शिवसुखके करतार ॥३॥ हरता अघअंधियारके, करता धर्मप्रकाश । थिरतापद दातार हो, धरता निजगुण रास ॥४॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। धर्मामृत उर जलधिसों, ज्ञानभानु तुम रूप। तुमरे चरणसरोजको, नावत तिहुंजग भूप ॥५॥ में बंदों जिनदेवको, कर अति निर्मल भाव । कर्मबंधके छेदने, और न कळू उपाव ॥६॥ भविजनकों भवकूपते, तुमही काढनहार । दीनदयाल अनाथपति, आतम गुणभंडार ॥७॥ चिदानंद निर्मल कियो, धोय कर्मरज मैल । सरल करी या जगतमें भविजनको शिवगैल ॥८॥ तुम पदपंकज पूजतें, विघ्न रोग टर जाय। शत्रु मित्रताको धरै, विष निरविषता थाय ॥६॥ चक्रीखगधरइंद्रपद, मिले आपते आप। अनुक्रमकर शिवपद लहैं,नेमसकल हनि पाप १०॥ तुमविन में व्याकुल भयो, जैसे जलबिन मीन। जन्मजरा मेरी हरो, करो मोहि स्वाधीन ॥११॥ पतित बहुत पावन किये, गिनती कौन करेव । अंजनसे तारे प्रभू, जय जय जय जिनदेव ॥१२॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह थकी नाव भवदधिविषै, तुम प्रभु पार करेय । खेवटिया तुम हो प्रभू, जय जय जय जिनदेव।१३। रागसहित जगमें रुल्यो, मिले सरागी देव । वीतराग भेट्यो अबै, मेटो राग कुटेव ॥१४॥ कित निगोद कित नारकी, कित तिर्यंच अज्ञान । आज धन्य मानुष भयो पायो जिनवर थान।१५। तुमको पूजें सुरपती, अहिपति नरपति देव । धन्य भाग्य मेरो भयो, करनलग्यो तुम सेव।१६। अशरणके तुम शरण हो, निराधार आधार । में डूबत भवसिंधुमें खेो लगाओ पार ॥१७॥ इन्द्रादिक गणपति थके, कर विनती भगवान। अपनो विरद निहारिक, कीजें आप समान।१८। तुमरी नेक सुदृष्टिते, जग उतरत है पार । हाहा डूबो जात हों, नेक निहार निकार ॥१६॥ जो मैं कहहूं औरसों, तो न मिटै उरझार । मेरी तो तोसों बनी, तातें करों पुकार ॥२०॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | २१ बंदों पाचौं परमगुरु, सुरगुरु चंदन जास | विघनहरन मंगलकरन, पूरन परम प्रकाश । २१ । चौबीसों जिनपद नमों, नमों शारदा माय । शिवमग साधक साधु नमि रच्यो पाठ सुखदाय | २२ पूजा प्रारम्भ जय जय जय । नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु | णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं || १ || ओं हृीं अनादिमूलमंत्रेभ्यो नमः । (पुष्पांजलि क्षेपण करना) चत्तारि मंगलं - अरहंतामंगल, सिद्धामंगलं, साहू मंगलं, केवलिपण्णत्तो, धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगुत्तमा - अरहंतालोगुत्तमा सिद्धालोगुत्तमा, माहूलोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मोलोगुत्तमा । चत्तारि सरणं पव्वज्जामि, अरहंते सरणं पव्वज्जामि, सिद्धं सरणं पव्वज्जामि, साहुसरणं पव्वज्जामि, केवलिपणत्तं धम्मं सरणं पव्वज्जामि || नमोऽहने स्वाहा | Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। - ( यहां पुष्पांजलि क्षेपण करना) अपवित्रः पवित्रो वा सुस्थितो दुःस्थितोऽपि वा । ध्यायेत्पंचनमस्कारं सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥१॥ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा। यः स्मरेत्परमात्मानं स बाह्याभ्यंतरे शुचिः ॥२॥ अपराजितमंत्रोऽयं सर्वविघ्नविनाशनः । मंगलेषु च सर्वेषु प्रथमं मंगलं मतः ॥३॥ एसो पंचणमोयारो सव्वपावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं पढम होइ मंगलं ॥४॥ अहमित्यनरं ब्रह्मवाचकं परमेष्ठिनः । सिद्धचक्रस्य सद्वीजं सर्वतः प्रणमाम्यहं ॥५॥ कर्माष्टकविनिर्मुक्त मोक्षलक्ष्मीनिकेतनं । सम्यक्त्वादिगुणोपेतं सिद्धचक्र नमाम्यहं ॥६॥ विघ्नौघाः प्रलयं यान्ति शाकिनीभूतपन्नगाः । विषो निर्विषतां याति स्तूयमाने जिनेश्वरे ॥७॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह (पुष्पांजलि ) पंचकल्याणक अर्घ उदकचंदनतंदुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलापकः । धवलमंगलगानरवाकुले जिनगृहे कल्याणमहं यजे ॥१॥ ___ओं ह्रीं श्रीभगवतो गर्भजन्मतपज्ञाननिर्वाणपंचकल्याणकेभ्योऽध्य निर्वपामीति स्वाहा ||१|| ____पंचपरमेष्ठी का अर्थ उदकचंदनतंदुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलाः । धवलमंगलगानरवाकुले जिनगृहे जिनइष्टमहं यजे ॥२॥ ओं ह्रीं श्री अरहंतसिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्योऽध्य निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥ यदि अवकाश हो, तो यहांपर सहस्रनाम पढ़कर दश अर्घ देना चाहिये । नहीं तो नीचे लिखा श्लोक पढ़कर एक अर्घ चढ़ाना चाहिये । उदकचंदनतंदुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलाघकैः । धवलमंगलगानरवाकुले जिनगृहे जिननाम अहं यजे ॥३॥ ओं ह्रीं श्री भगवज्जिनसहस्रनामभ्योऽय निर्वपामीति स्वाहा । स्वस्ति मंगल श्रीमजिनेंद्रमभिवंद्य जगत्त्रयेशं स्याद्वादनायक-मनंतचतुष्टयाहम् । श्रीमूलसंघसुदृशां सुकृतैकहेतु जैनेंद्रयज्ञविधिरेष मयाऽभ्यधायि ॥१॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह स्वस्ति त्रिलोकगुरवे जिनपुंगवाय, स्वस्ति स्वभावमहिमोदयसुस्थिताय । स्वस्ति प्रकाशसहजोर्जितदृङ्मयाय, स्वस्ति प्रसन्नललिताद्भुतवैभवाय ॥२॥ स्वस्त्युच्छलद्विमलबोधसुधाप्लवाय, स्वस्ति स्वभावपरभावविभासकाय । स्वस्ति त्रिलोकविततैकचिदुद्गमाय. स्वस्ति त्रिकालसकलायतविस्तृताय ॥३॥ द्रव्यस्य शुद्धिमधिगम्ययथानुरूपं. भावस्य शुद्धिमधिकामधिगंतुकामः । आलंबनानि विविधान्यवलंब्य वल्गन, भूतार्थयज्ञपुरुषस्य करोमि यज्ञं ॥४॥ अर्हत्पुराणपुरुषोत्तमपावनानि, वस्तून्यनूनमखिलान्ययमेक एव । अस्मिन् ज्वलद्विमलकेवलबोधवह्नौ, पुण्यं समग्रमहमेकमना जुहोमि ॥५॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजापाठ संग्रह। २५ श्रों विधियज्ञप्रतिज्ञानाय जिनप्रतिमान परिपुष्पांजलि क्षिपेत् । श्री वृषभो नः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीअजितः । श्रीसंभवः स्वस्ति, स्वस्ति, श्रीअभिनंदनः । श्रीसुमतिः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीपद्मप्रभः । श्रीसुपार्श्वः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीचन्द्रप्रभः । श्रीपुष्पदंतः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीशीतलः। श्रीश्र यांन् स्वस्ति, स्वस्ति श्रीवासुपूज्यः । श्रीविमलः स्वस्ति स्वस्ति श्रीअनंतः । श्रीधर्मः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीशांतिः । श्रीकुंथुः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीअरनाथः । श्रीमल्लिः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीमुनिसुव्रतः । श्रीनमिः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीनेमिनाथः । श्रीपार्श्वः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीवर्द्धमानः । (पुष्पांजलि क्षेपण ) इति जिनेन्द्र स्वस्तिमङ्गलविधानं । नित्याप्रकंपादतकेवलीयाः स्फुरन्मनःपर्ययशुद्धबोधाः । दिव्यावधिज्ञानवलप्रबोधाः स्वस्तिक्रियामुः परमर्षयो नः ।।१।। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह यहांसे प्रत्येक श्लोक के अंत में पुष्पांजलि क्षेपण करना चाहिये कोष्टस्थधान्योपममेकचीजं संभिन्नसंश्रोतृपदानुसारि । चतुर्विधं बुद्धिबलं दधानाः स्वस्तिक्रियासुः परमर्षयो नः ॥ २ ॥ संस्पर्शनं संश्रवणं च दूरादास्वादन घ्राणविलोकनानि । दिव्यान् मतिज्ञानबलाद्वहंतः स्वस्तिक्रियासुः परमर्षयो नः ॥ ३ ॥ प्रज्ञाप्रधानाः श्रमणाः समृद्धाः प्रत्येकबुद्धा दशसर्वपूर्वैः । प्रवादिनोऽष्टांगनिमित्तविज्ञाः स्वस्तिक्रियासुः परमर्षयो नः ॥ ४ ॥ जंघावलिश्रेणिफलांबुतंतुप्रसून बीजांकुरचारणाह्वाः । नभोंऽगणस्त्रैरविहारिणश्च स्वस्तिक्रियासुः परमर्षयो नः ||५|| अणिनि दक्षाः कुशला महिम्नि लघिम्नि शक्ताः कृतिनो गरिम्एि । मनोवपुर्वाग्बलिनश्च नित्यं, स्वस्तिक्रियासुः परमर्षयो नः ॥ ६॥ सकामरूपित्ववशित्वमैश्यं प्राकाम्यमतर्द्धिमथाप्तिमाप्ताः । तथाऽप्रतीघातगुणप्रधानाः स्वस्तिक्रियासुः परमर्षयो नः ||७|| दीप्त च तप्त च तथा महोग्र घोरं तपो घोरपराक्रमस्थाः । ब्रह्मापरं घोरगुणाश्चरंतःस्त्रस्तिक्रियासुः परमर्षयो नः ||८॥ श्रामर्ष सर्वोषधयस्तथाशीविषविपादृष्टिविषंविषाश्च । सखिल्ल विडजल्लमलौषधीशाः स्वस्तिक्रियासः परमर्षयो नः || ९ || क्षीरं स्रवतोऽत्र घृतं स्रवतो मधुस्रवतोऽप्यमृतं स्रवंतः । अक्षीणसंत्रासमहानसाश्च स्वस्तिक्रियासुः परमर्षयो नः || १०|| इति परमर्षिस्वस्तिमंगल विधानं । २६ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी जैन पूजापाठ संग्रह। २७ देवशास्त्रगुरु भाषा पूजा अडिल्लछन्द । प्रथम देव अरहंत सुश्र त सिद्धांतजू । गुरुनिरपथ महन्त मुकतिपुरपंथ जू ॥ तीन रतन जगमांहि सो ये भवि ध्याइये। तिनकी भक्रिप्रसाद परमपद पाइये ॥१॥ दोहा - पूजौं पद अरहंतके पूजौं गुरुपद सार । पूजौं देवी सरस्वती, नितप्रति अष्टप्रकार ॥१॥ ___ओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुमगृह ! अत्रावतरावतर. संवौषट पाहाननं। ओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ, ठः ठः स्थापनं । ओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट मन्निधिकरणं। गीता छन्द। सुरपति उरगनरनाथ तिनकर, बन्दनीक सुपदप्रभा । अति शोभनीक सुवरण उज्वल, देखि छवि मोहित सभा । वर नीर क्षीरसमुद्रघटभरि अग्रतसु बहुविधि नचं । अरहंत श्रुतसिद्धांत गुरु निरग्रन्थ नित पूजा रचं ॥१॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ श्री जैन पूजापाठ संग्रह। दोहामलिन वस्तु हरलेत सब, जल स्वभाव मलछीन । जासौं पूनौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥१॥ श्रओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्व०॥५।। जे त्रिजग उदर मँझार प्राणी तपत अति दुद्धर खरे। तिन अहितहरन सुवचन जिनके, परम शीतलता भरे । तसु भ्रमर लोभित घ्राण पावन सरस चंदन घमि सर्च । अरहंत श्रुतसिद्धांत गुरु निरग्रन्थ नित पूजा रचे ॥१॥ दोहाचंदन शीतलता कर, तपत वस्तु परवीन । जामों पूनौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥२॥ ओं ही देवशास्त्रगुरुभ्यः संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्व ।।२।। यह भवसमुद्र अपार तारण, के निमित्त सुविधि ठई। अति दृढ़ परमपावन जथारथ भक्ति वर नौका सही ।। उज्जल अखंडित सालि तंदुल पुंज धरि त्रयगुण जचं । अरहंत श्रुतसिद्धांत गुरु निरग्रन्थ नित पूजा रचे ॥१॥ दोहातंदुल सालि सुगंध अति, परम अखंडित वीन । जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन । ३।। ओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः अक्षयपदप्राप्तये अक्षतानिपामीति स्वाहा ॥ जे विनयवंत सुभव्य उर अंबुजप्रकाशन भान हैं। जे एक मुख चारित्र भाषत त्रिजगमाहिं प्रधान हैं। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जेन पूजा-पाठ संग्रह लहि कुंद कमलादिक पहुप, भव भव कुवेदनसों वचं । अरहंत श्रुतसिद्धांत गुरु निरग्रन्थ नित पूजा रचूं । १।। दोहाविविधभांति परिमल सुमन, भ्रमर जास आधीन । जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन । ४॥ ओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्य: कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निव० ॥४॥ अतिसबल मदकंदपं जाको क्षुधाउरग अमान है। दुस्मह भयानक तासु नाशनको सु गरुड़ समान है। उत्तम छहों रसयुक्त नित, नवेद्य करि घृतमें पचं । अरहंत श्रुतसिद्धांत गुरु निरग्रन्थ नित पूजा रचूं ॥१॥ दाहानानाविधि संयुक्तरस, व्यंजनसरस नवीन । जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥५॥ ओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः सुधारोगविनाशनाय नवयं निर्व० ॥५॥ जे त्रिजगउद्यम नाश कीने, माहांतामर महाबली । तिहिं कर्मघाती ज्ञानदीपप्रकाशजोतिप्रभावली ॥ इह भांति दीप प्रजाल कंचनके सुभाजनमें खर्च । अरहंत श्रुतसिद्धांत गुरु निरग्रन्थ नित पूजा रचूं ॥१॥ दाहा स्वपरप्रकाशक जोति अति, दीपक तमकरि हीन । जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥६॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह ओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो मोहांधकारविनाशनाय दीपं निवं० ।।६।। जो कर्म-इंधन दहन अग्निसमूह सम उद्धत लसै । वर धूप नासु सुगंधताकरि, सकल परिमलता हंसे ।। इहमांति धूप चढ़ाय नित भवज्वलनमाहिं नहीं पचं । अरहंत श्रुतसिद्धांत गुरु निरग्रन्थ नित पूजा रचें ॥१॥ दोहाअग्निमांहि परिमलदहन, चंदनादि गुणलीन । जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥७॥ ओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्योऽष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्व० ॥७॥ लोचन सुरसना घ्रान उर, उत्साहके करतार हैं। मो पै न उपमा जाय वरणी, सकलफल गुणसार हैं। सो फल चढ़ावत अर्थपूरन, परम अमृतरस सचं । अरहंत श्रुतसिद्धांत गुरु निरग्रन्थ नित पूजा रचे ॥१॥ दाहाजे प्रधान फल फलविर्षे, पंचकरण-रस लीन । _जासों पूजौं परमपद, देवशास्त्र गुरु तीन ॥८॥ ओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो मोक्षफल प्राप्तय फलं निर्वपामीति स्वाहा ।। जल परम उज्वल गंध अक्षत, पुष्प चरु दीपक धरू। वर धूप निरमल फल विविध, बहु जनम के पातक हरू। इहि भांति अर्घ चढ़ाय नित भवि करत शिवपंकति मचं। अरहंत श्रुतसिद्धांत गुरु निरग्रन्थ नित पूजा रचें ॥१॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह ३१ दोहावसुविधि अर्घ संयोजके, अति उछाह मन कीन । जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ।।९।। ओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्योऽनर्घपदप्राप्त ये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।। अथ जयमाला। देवशास्त्रगुरु रतन शुभ, तीन रतन करतार । भिन्न भिन्न कहुँ आरती, अल्प सुगुण विस्तार॥ पद्धरि छन्द। कर्मनकी त्रेसठ प्रकृति नाशि, जीते अष्टादशदोषराशि। जे परम सुगुण हैं अनंत धीर, कहवतके छयालिस गुण गंभीर ॥२॥ शुभ समवशरण शोभा अपार, शतइंद्र नमत कर सीस धार । देवाधिदेव अरहंत देव, बंदौं मनवचतन करि सु सेव ॥३॥ जिनकी ध्वनि ह्र ओंकाररूप, निर-अक्षरमय महिमा अनूप । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। दश अष्ट महाभाषा समेत, लघुभाषा सात शतक सुचेत ॥४॥ सो स्याद्वादमय सप्तभंग, गणधर गंथे बारह सुअंग । रवि शशि न हरै सो तम हराय, सो शास्त्र नमों बहु प्रीति ल्याय ॥५॥ गुरु आचारज उवझाय साधु, तन गमन रतनत्रयनिधि अगाध । संसारदेह वैराग्य धार, निरवांछि तपैं शिवपद निहार ॥६॥ गुण छत्तिस पच्चिस आठवीस, भवतारन तरन जिहाज ईस । गुरु की महिमा वरनी न जाय, गुरुनाम जपों मनवचनकाय ॥७॥ सोरठाकीजै शक्ति प्रमान, शक्ति बिना सरधा धरै । द्यानत सरधावान, अजर अमरपद भोगवै ॥८॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो महार्घं निर्वपामीति स्वाहा । दोहा श्री जिनके परसाद तें सुखी रहें सब जीव । यातें तन मन वचन तैं सेवो भव्य सदीव | इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत् । तीस चौबीसीका ३३ द्रव्य आठों जु लीना है, अर्घ करमें नवीना है । पूजतां पाप छीना है, भानुमल जोर कीना है । दीप अढ़ाई सरस राजै, क्षेत्र दश ताविषै छाजै । सातशत बीस जिनराजै, पूजतां पाप सब भाजै ॥ १ ॥ ह्रीं पांच भरत पांच ऐरावत दश क्षेत्रके विषै तीस चौबीसी के सात सौ बीस जिनेन्द्रभ्योऽधं निर्वपामीति स्वाहा ||१|| सूचना- आगे जिस भाई को निराकुलता हो, वह नीचे लिखे अनुसार बीस तीर्थकरोंकी भाषा पूजा करें। यदि स्थिरता न हो तो इस पूजा के आगे में जो अर्घ लिखा है उसको पढ़कर चढ़ा देवे । श्रीविदेहक्षेत्र बीस तीर्थंकर पूजा । द्वीप अढ़ाई मेरु पन, अरु तीर्थंकर बीस । तिन सबकी पूजा करू ं, मनवचतन धरि सीस ॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह ओं ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थकराः । अत्र अवतरत अवतरत संवौपट अाह्वाननं । ओं ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थकराः । अत्र तिष्ठत तिष्ठत, ठः ठः स्थापनं । श्रां ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थकराः । अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वपट् . सन्निधिकरणम । इंद्र फणींद्र नरेंद्र-बंद्य पद निर्मल धारी। शोभनीक संसार, सारगुण हैं अविकारी ॥ क्षीरोदधि सम नीरसों (हो), पूजों तृषा निवार। सीमंधर जिन आदि दे, वीस विदेह मँझार ॥ श्री जिनराज हो भव, तारणतरण जिहाज ॥१॥ ओं ह्रीं विद्यमानविशतितीर्थङ्कर भ्यां जन्ममृत्युविनाशनाय जलं. ( इस पूजामें बीस पुंज करना हो. तो इस प्रकार मंत्र बोलना ) ओं ह्रीं सीमंधर-युग्मंधर-बाहु-सुबाहु-संजातक-स्वयंप्रभ-ऋपभानन-अनंतवीर्य-सूरप्रभ-विशालकीति - वज्रधर-चंद्रानन-भद्रबाहुभुजंगम - ईश्वर-नेमिप्रभ-बीरसेन - महाभद्र - देवयाऽजिताति विंशतिविद्यमानतीर्थकरभ्यो जन्ममृत्युविनाशनाय जलं निवपार्माति स्वाहा ॥१॥ तीनलोकके जीव, पाप आताप सताये । तिनकों साता दाता, शीतल वचन सुहाये ॥ बावन चंदनसों जजू (हो) भ्रमन-तपन निरवार । सीमंधर जिन आदि दे, बीस विदेह मँझार ॥ श्री जिनराज हो भव, तारणतरण जहाज ॥२॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह ओं ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थङ्करभ्यो भवतापविनाशनाय चंदनं० ( इसके स्थानमें यदि इच्छा हो. तो बड़ा मंत्र पढ़े ) यह संसार अपार महासागर जिनस्वामी। तातें तारे बड़ी भकि-नौका जगनामी ॥ तंदुल अमल सुगंधसों (हो) पूजों तुम गुणसार। सीमंधर जिन आदि दे वीस विदेह मँझार ॥ श्री जिनराज हो भव, तारणतरण जहाज ॥३॥ ओं ह्रीं विद्यमानविंशनितीर्थकरभ्योऽक्षयपदप्राप्तये अक्षतान नि० भविक-सरोज-विकास, निंद्यतमहर रविसे हो । यति श्रावक आचार, कथनको, तुमही वड़े हो ॥ फूलसुवास अनेकसों (हो) पूजों मदन प्रहार । सीमंधर जिन आदि दे, वीस विदेह मँझार ॥ श्री जिनराज हो भव, तारणतरण जहाज ॥४॥ ओं ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थकरभ्य: कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं० काम-नाग विषधाम, नाशको गरुड़ कहे हो। क्षुधा महादवज्वाल, तासको मेघ लहे हो । नेवज बहुत मिष्टसों (हो) पूजों भूखविडार। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह सीमंधर जिन आदि दे बीस विदेह मँझार ॥ श्री जिनराज हो भव, तारणतरण जिहाज ॥५॥ ओं ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य. उद्यम होन न देत, सर्व जगमांहिं भरयो है। मोह महातम घोर, नाश परकाश करयो है ॥ पूजों दीपप्रकाशसों (हो) ज्ञानज्योतिकरतार । सीमंधर जिन आदि दे, वीस विदेह मँझार ॥ श्री जिनराज हो भव, तारणतरण जिहाज ॥६॥ ओं ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थङ्करभ्यो मोहांधकारविनाशनाय दीपं० कर्म आठ सब काठ,-भार विस्तार निहारा । ध्यान अगनि कर प्रकट, सरव कीनों निरवारा ॥ धूप अनूपम खेवतें (हो), दुःख जलें निरधार । सीमंधर जिन आदि दे, बीस विदेह मँझार ॥ श्री जिनराज हो भव, तारणतरण जिहाज ॥७॥ श्रओं ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थङ्करभ्योऽष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं० मिथ्यावादी दुष्ट, लोभऽहंकार भरे हैं। सबको छिनमें जीत जैनके मेरु खरे हैं ॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह फल अतिउत्तमसों जजों (हो) वांछितफलदातार। सीमंधर जिन आदि दे, वीस विदेह मँझार ॥ श्री जिनराज हो भव, तारणतरण जिहाज ॥८॥ ओं ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थङ्करभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्व० जल फल आठों दर्व, अरघकर प्रीति धरी है। गणधरइंद्रनहूतें, थुति पूरी न करी है ॥ द्यानत सेवक जानके (हो) जगते लेहु निकार । सीमंधर जिन आदि दे, बीस विदेह मँझार ॥ श्री जिनराज हो भव, तारणतरण जिहाज ॥६॥ ओं ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थङ्करभ्योऽनयपदप्राप्तये अर्घ्य निर्व० । अथ जयमाला। सोरठा-ज्ञान सुधाकर चंद, भविकखेतहित मेघ हो। भ्रमतमभान अमंद, तीर्थकर बीमों नमः । चौपाई १६ मात्रा। मीमंधर सीमंधर स्वामी, जुगमंधर जुगमंधर नामी । बाहुबाहु जिन जगजन तारे, करम सुबाहु बाहुबल दारे॥१॥ जात सुजातं केवलज्ञानं, स्वयंप्रभू प्रभु स्वयं प्रधानं । ऋषभानन ऋपि भानन दोपं, अनंतवीरज वीरजकोषं ॥२॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह सौरीप्रभ सौरीगुणमालं, सुगुण विशाल विशाल दयालं । वज्रधार भव गिरिवजर हैं, चंद्रानन चंद्रानन वर हैं ॥३॥ भद्रबाहु भद्रनिके करता, श्रीभुजंग भुजंगम भरता । ईश्वर सबके ईश्वर छाजे, नेमिप्रभु जस नेमि विराजै ॥४॥ वीरसेन वीरं जग जान, महाभद्र महाभद्र वखाने । नमों जसोधर जसघरकारी, नमों अजितवीरज बलधारी।।५।। धनुष पांचस काय विराजे, आयु कोडि पूरब सब छाजै। समवशरण शोभित जिनराजा, भवजलताग्नतरन जिहाजा॥६॥ सम्यक रत्नत्रयनिधिदानी, लोकालोक प्रकाशक ज्ञानी । शतइन्द्रनिकरि वंदित सोहैं, सुरनर पशु सबके मन मोहैं ।।७।। दाहातुमको पूर्जे बंदना, करै धन्य नर सोय । 'द्यानत' सरधा मन धरै, सो भी धरमी होय ॥ ओं ह्रीं विद्यमानविशतितीर्थङ्करभ्या महाघ निवपामीति म्वाहा ।। ___ विद्यमान बीस तीर्थङ्कगेका अर्थ उदकचंदनतंदुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधृपफलाकः । धवलमंगलगानरवाकुले जिनगृहे जिनराजमह यजे।। ___ओं ह्रीं श्री सीमंधरयुग्मंधरबाहु सुबाहुसंजातस्वयंप्रभऋपिभानन अनन्तवीय सूर्यप्रभविशालकीर्तिवज्रधरचंद्रानन भद्रबाहुभुजंगमईश्वरनेमिप्रभवीरसेनमहाभद्रदेवयशअजितवीर्यनि विशनिविद्यमानतीर्थङ्करेभ्योऽर्घ निर्वपार्माति स्वाहा । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह ३९ अकृत्रिम चैत्यालयोंके अर्घ कृत्याकृत्रिमचारुचैत्यनिलयान् नित्यं त्रिलोकींगतान्, वंदे भावनव्यंतग्यतिवरस्वर्गामरावामगान् । सद्गंधाक्षतपुष्पदामचरुकैः सद्दीपधूपैः फलै, नींगद्य श्च यजे प्रणम्य शिरसा दुष्कर्मणां शांतये ॥१॥ ओं ह्रीं कृत्रिमाकृत्रिमचैत्यालयमंबंधिजिनविम्बभ्योऽध्य निर्व० वर्षेषु वर्षांतरपर्वतेषु नंदीश्वरे यानि च मंदरेषु । यावंति चैत्यायतनानि लोके सर्वाणि वंदे जिनपुंगवानां ॥२॥ अवनितलगतानां कृत्रिमाकृत्रिमाणां, वनभवनगतानां दिव्यवैमानिकानां । इह मनुजनानां देवराजार्चितानां, जिनवरनिलयानां भावतोऽहं स्मरामि ॥३॥ जंबूधातकिपुष्कराव सुधाक्षेत्रत्रये भवाः, चन्द्रांभोजशिखंडिकण्ठकनकप्रावृधना भाजिनाः॥ सम्यग्ज्ञानचरित्रलक्षणधरा दग्धाष्टकमन्धनाः । भूतानागतवतमानसमये तेभ्यो जिनेभ्यो नमः ॥४॥ श्रीमन्मेरो कुनाद्री रजतगिरिवरे शाल्मली जंबुवृक्षे, वक्षारे चैत्यवृक्षे गतिकररुचिके कुंडले मानुपांके । इण्याकारेंजनाद्री दधिमुखशिखरे व्यन्तरे स्वर्गलोके, ज्योतिलों के भिवंदे भुवनमहितले यानि चैत्यालयानि ।।५।। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह द्वौ कुंदेंदुतुषारहारधवलौ द्वाविंद्रनीलप्रभौ, द्वौ बंधूकसभप्रभौ जिनवृषौ द्वौ च प्रियंगुप्रभो । शेषाः षोडश जन्ममृत्युरहिताः संतप्तहेमप्रभाः, ते संज्ञानदिवाकराः सुरनुताः सिद्धि प्रयच्छंतु नः ॥६॥ ओं ह्रीं त्रिलोकसंबंधि-कृत्याकृत्रिमचैत्यालयेभ्योऽयं निर्व० ____ (इच्छामि भक्ति बोलते समय पुष्पांजलि क्षेपण करना।) इच्छामि भंते चेइयभत्ति काअोसग्गो को तस्सालोचेो अहलोय तिरियलोय उड्ढलोयम्मि किट्टिमाकिट्टिमाणि जाणि जिणचेइयाणि ताणि सव्वाणि, तीसुवि लोयेसु भवणबासिय वाणवितरजोयसियकप्पवासियत्ति चउविहा देवाः सपरिवारा दिव्वेण गंधेण दिव्वेण पुफ्फेण दिव्वेण धुव्वेण दिव्वेण चुरणेण दिव्वेण वासेण दिव्वेण हाणेण णिचकालं अच्चंति पुज्जति वंदंति णमस्संति। अहमवि इहसंतो तत्थसंताइ णिच्चकालं अच्चेमि पुज्जेमि वंदामि णमस्सामि दुक्खक्खो कम्मक्खनो बोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मझ ॥ अथ पौर्वाहिक-माध्यान्हिक-आपराह्निकदेववंदनायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थ भावपूजाबंदनास्तवसमेतं श्रीपंचमहागुरुभक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहम् ॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह ( इत्याशीर्वादः । पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् ) णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरीयाणं । णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्यसाहूणं । तावकायं पावकम्मं दुचरियं वोस्मरामि । ___ ( यहां पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये ) अथ सिद्धपूजा ऊर्ध्वाधोरयुतं सविंदु सपरं ब्रह्मस्वरावेष्टितं । वर्गापूरितदिग्गतांबुजदलं तत्संधितत्त्वान्वितं ॥ अंतःपत्रतटेष्वनाहतयुतं ह्रींकार-संवेष्टितं । देवं ध्यायति यः स मुनिसुभगो वैरीभकंठीरवः॥ ओं ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपत ! सिद्धपरमेष्ठिन ! अत्र अवतर अवतर संवौषट ! ओं ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपत ! सिद्धपरमेष्ठिन ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं । ओं ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपते ! सिद्धपरमेष्ठिन ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वपट सन्निधिकरणम । निरस्तकर्मसंबंध, सूक्ष्म नित्यं निरामयम् । वन्देऽहं परमात्मानममूमनुपद्रवम् ॥१॥ (यहां सिद्धयंत्रकी स्थापना करना) जिनको बिना द्रव्य चढ़ाये भाव पूजा करना हो. वे आगे भावाष्टक छपा है, उसको बोलकर करें । अष्टद्रव्यसे पूजा करने वालों को भावपूजा का अष्टक नहीं बोलना चाहिये । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह द्रव्याष्टक। सिद्धौ निवासमनगं परमात्म्यगम्यं. हान्यादि-भावरहितं भववीतकायं । रेवापगावरसरोयमुनोद्भवानां , नीरैर्यजे कलशगैर्वरसिद्धचक्र ॥१॥ ओहीं सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्टिने जन्ममृत्युविनाशनाय जलं० आनंदकंदजनकं घनकर्ममुक्त, सम्यक्त्वशर्मगरिमं जननार्तिवीतं । सौरभ्यवासितभुवं हरिचंदनानां, गंधैर्यजे परिमलैर्वरसिद्धचक्रम् ॥२॥ श्री ह्रीं सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्टिने समारनापविनाशनाय चं० सर्वावगाहनगुणं सुसमाधिनिष्ठं, सिद्ध स्वरूपनिपुणं कमलं विशालं । सौगंध्यशालिवनशालिवराक्षतानां, पंजैर्यजे शशिनिभवरसिद्धचक्रम् ॥३॥ ओं ह्रीं मिद्धचक्राधिपतये मिद्धपरमष्टि अक्षयपदप्राप्रये अक्षनं. नित्यं स्वदेहपरिमाणमनादिसंज्ञं. द्रव्यानपेक्षममृतं मरणाद्यतीतम् । मंदारकुंदकमलादिवनस्पतीनां, पुष्पैर्यजे शुभतमैर्वरसिद्धचक्रम् ॥४॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह ४३ ओं ह्रीं सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्टिने कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं० ऊर्ध्वस्वभावगमनं सुमनोव्यपेतं, ब्रह्मादिवीजसहितं गगनावभासम् । नीरान्नसाज्यवटकै रसपूर्णगभैं नित्यं यजे चरुवरैर्वरसिद्धचक्रम् ॥५॥ ओं ही सिद्धचक्राधिपतये मिद्धपरमेष्टिन क्षुधा रोगविनाशनाय नैवेद्यं आतंकशोकभयरोगमदप्रशांतंनिद्वद्वभावधरणं महिमानिवेशं । कपरवर्तिबहुभिः कनकावदाते दीपैर्यजे रुचिवरैर्वरसिद्धचक्रम् ॥६॥ ओ ह्रीं मिद्धचक्राधिपतय सिद्ध परमेष्टिने माहांधकाविनाशनाय दीपं पश्यन्समस्तभुवन युगपन्नितात त्रैकाल्यवस्तुविषये निविडप्रदीपम् । सदद्रव्यगंधघनसारविमिश्रितानां धूपैर्यजे परिमलैर्वरसिद्धचक्रम् ॥७॥ ओं ह्रीं मिद्धचक्राधिपतय मिट्टपरमप्टिन अष्टकमदहनाय धूपं० सिद्धासुरादिपतियननरेंद्रचक्र, र्येयं शिवं सकलभव्यजनैः सुवंद्य । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ सग्रह नारिंगपूगकदलीफल नारिकेलैः सोऽहं यजे वरफलैर्वरसिद्धचक्रम् ॥८॥ ह्रीं सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोक्षफल प्राप्त ये फलं - गंधाढ्य सुपयोमधुत्रतगणैः संगं वरं चंदनं, पुष्पौघं विमलं सदक्षतचयं रम्यं चरु दीपकं । धूपं गंधयुतं ददामि विविधं श्र ेष्टं फलं लब्धये, सिद्धानां युगपत्क्रमाय विमलं सनोत्तरं वांछितं ॥ श्रीं ह्रीं सिद्धचकाधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ निर्वपामीति ज्ञानोपयोगविमलं विशदात्मरूपं, सूक्ष्मस्वभावपरमं यदनंतवीर्यं । कर्मोंघकनदहनं सुखशस्यवीजं, वंदे सदा निरुपमं वरसिद्धचक्रम् ॥१०॥ श्रीं ह्रीं सिद्धचकाधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने महार्घ निर्व० स्वाहा || त्रैलोक्येश्वरवंदनीयचरणाः प्रापुः श्रियं शाश्वतीं यानाराध्य निरुद्धचंडमनसः संतोऽपि तीर्थंकराः । सत्सम्यक्त्वविवोधवीर्य विशदाऽव्यावाधताय गुणे युक्तांस्तानिह तोष्टवीमि सततं सिद्धान्वि शुद्धोदयान् ॥ (पुष्पांजलिं) ४४ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह अथ जयमाला। विराग सनातन शांत निरंश । निरामय निर्भय निर्मल हंस ॥ सुधाम विवोधनिधान विमोह । प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धममूह ॥१॥ विदूरित-संमृतिभाव निरंग । समामृतपूरित देव विसंग ॥ अबंध कषाय-विहीन विमोह । प्रसीद विशुद्धसुसिद्धसमूह ॥२॥ निवारितदुष्कृतकर्मविपाश । सदामल केवलकेलिनिवास ॥ भवोदधिपारग शान्त विमोह । प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥३॥ अनंतसुखामृतसागर धीर । कलङ्करजोमलभूरिसमीर ॥ विखंडितकाम विराम विमोह । प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥४॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह विकार-विवर्जित तर्जितशोक । विवोधसुनेत्रविलोकितलोक ॥ विहार विराव विरंग विमोह । प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥५॥ रजोमलखेदविमुक विगात्र । निरंतर नित्य सुग्वामृतपात्र ॥ सुदर्शनराजित नाथ विमोह । प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥६॥ नरामरवंदित निर्मल भाव । अनंत मुनीश्वरपूज्य विहाव ॥ सदोदय विश्वमहेश विमोह । प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥७॥ विदंभ वितृष्ण विदोष विनिद्र । परापर शंकर सार वितंद्र ॥ विकोप विरूप विशंक विमोह । प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥८॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह जरामरणोज्झित बीतविहार । विचिंतित निर्मल निरहंकार ॥ अचिंत्यचरित्र विदर्प विमोह । प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥६॥ विवर्ण विगंध विमान विलोभ । विमाय विकाय विशब्द विशोभ ॥ अनाकुल केवल सर्व विमोह । प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥१०॥ असमसमयसारं चारुचैतन्यचिह्न, परपरणतिमुक्त पद्मनंदींद्रवंद्य । निखिलगुणनिकेतं सिद्धचक्र विशुद्ध, स्मरति नमति यो वास्तौति सोऽभ्येतिमुक्किं ॥११॥ ओं ही सिद्धपरमेष्टिभ्या महार्घ निर्वपामानि स्वाहा । अथाशीवादः । अडिल्लछन्द। अविनाशी अविकार परमरसधाम हो, समाधान सर्वज्ञ सहज अभिराम हो। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ सग्रह शुद्धबोध अविरुद्ध अनादि अनंत हो, जगत शिरोमणि सिद्ध सदा जयवंत हो॥१॥ ध्यान-अगनिकर कर्म कलंक सबै दहे, नित्य निरंजनदेव सरूपी ह रहे। ज्ञायकके आकार ममत्वनिवारिक, सो परमातम सिद्ध नमूं सिर नायके ॥२॥ दोहाअविचलज्ञान प्रकाशते, गुण अनंत की खान। ध्यान धरै सो पाइये, परमसिद्ध भगवान ॥३॥ अविनाशी आनन्दमय, गुणपूरण भगवान । शक्ति हिये परमातमा, सकल पदारथज्ञान ॥४॥ इत्याशीर्वादः। सिद्धपूजाका भावाष्टक तथा भाषा द्रव्याष्टक । निजमनोमणिभाजनभारया, समरसैकसुधारसधारया । सकलबोधकलारमणीयक, सहजसिद्धमहं परिपूजये ।। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ४६ मोहि तृषा दुख देत, सो तुमने जीती प्रभू । जलसे पूजं मैं तोय, मेरो रोग निवारियो॥ ओं ह्री गणमा सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिने ( मम्मन. णाण. दसण. वीर्यत्व, मुहमन. अवगाहनत्व. अगुम्लत्व. अव्याबाधव अष्टगुणसहिताय ) जन्मजगमृत्युविनाशनाय जलं निवपामति स्वाहा। सहजकर्म कलंकविनाशनम्मलभावमवामितचन्दनैः । अनुपमानगुगावलिनायकं मह जमिद्धमहं परियजय ।। हम भव आतप के मांहिं, तुम न्यारे संसारसे । कीज्यो शीतल छांह, चन्दनसे पूजा करूं॥ चन्दनं सहजभावमुनिर्मलतंदुलः. सकलदोपविशालविशोधनः । अनुपगंधसुबोधनिधानक. मह जमिद्धमह परिपूजय ॥ हम अवगुण समुदाय, तुम अनयगुणके भरे। पूजं अन्नतल्याय, दोष नाश गुण कीजियो॥अन्नतं ममयमाग्मुपुष्पमुमालया. महजकमकरंण विशाधया । परमयोगवलन वशीकृतं. मह जमिद्धमहं परि जय ।। काम अग्नि है मोहि, निश्चय शीलस्वभाव तुम। फूल चढ़ाऊं मैं तोय, मेरो रोग निवारियो । पुप्पं अकृताधमुदिव्यन वेद्यकविहिनजातजगमग्णांनकः । निरवधिप्रचुगत्मगुणालयं. महजमिद्धमहं परिपूजये ।। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह मोहि तुधा दुख भूर, ध्यान खड्ग करि तुम हती। मेरी बाधा चूर, नेवजसे पूजा करू॥ नैवेद्य सहजरत्नरुचिप्रतिदीपकः चिविभूतितमःप्रविनाशनः । निरवधिस्वविकासप्रकाशनैः सहजसिद्धमहं परिपूजये । मोह तिमिर हम पास, तुम पै चेतन ज्योति है। पूजों दीप प्रकाश, मेरो तम निरवारियो॥ दीपं निजगुणाक्षयरूपसुधूपनैः, स्वगुणघातिमलप्रविनाशनः । विशदबोधसुदीर्घसुखात्मक, सहजसिद्धमहं परिपूजय ।। अष्टकर्म बन जाल,मुकि माहिं स्वामी सुख करो। खेऊ धूप रसाल, अष्ट कर्म निरवारियो ॥ धूपं परमभावफलालिसम्पदा. सहजभावकुभावविशोधया । निजगुणस्फुरणात्मनिरंजनं. सहज सिद्ध नहं परिपूजये ।। अन्तराय दुख टाल, तुम अनन्त थिरता लही। पूजू फल दरशाय, विघ्न टाल शिवफल करो ॥ फलं नेत्रोन्मीलिविकासभावनिवहैरत्यन्तबोधाय व. _____ वागंधाक्षतपुष्पदामचम्कः सद्दीपधूपः फलः । यश्चिन्तामणिशुद्धभावपरमज्ञानात्मकरच येत् . सिद्धं स्वादुमगाधबोधमचलं सञ्चर्चयामो वयं ।।६।। हममें आठों ही दोष, जजहुं अर्घले सिद्धजी। दीज्यो वसु गुण मोय, करजोड़े सेवक खड़ा॥अर्घ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह सोलह कारणका अर्थ जल फल आठों द्रव्य चढ़ाय, 'द्यानत' वरत करों मन लाय। परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥ दरश विशुद्धि भावना भाय, सोलह तीर्थंकर पददाय । परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥१॥ ओ हो दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शीलवतप्वनतीचार, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, संवेग. शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप, साधुसमाधि, वैयावृत्यकरण. अर्हतभक्ति श्राचायभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रबचनभक्ति. आवश्यकापरिहानि, मागप्रभावना, प्रवचनवात्सल्य षोडशकारणेभ्यो अनयपदप्राप्तये अर्घ निर्वपार्माति स्वाहा ॥५॥ पंचमेरुका अर्थ आठ दरखमय अर्घ बनाय, द्यानत पूजों श्री जिनराय । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह महा सुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥ पांचों मेरु सी जिन धाम, सव प्रतिमाको करों प्रणाम । महा सुख होय. देखे नाथ परम सुख होय ॥ २ ॥ ह्रीं पंचमेसंबंध अस्सी जिनचैत्यालयस्थजिनविस्त्रेभ्यो अनिर्वपामीति स्वाहा ||२|| नंदीवर द्वीपका यह अरघ कियो निज हेत तुमको अरपत हों, द्यानत कीनों शिव खेत भूमि समरपतु हों ॥ नंदीश्वर श्रीजिनधाम वावन पुंज करें । वसु दिन प्रतिमा अभिराम आनंद भाव घरों ॥ ३ ॥ ह्रीं नंदीवर द्वीपे पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिगं द्विपंचाशज्जिनालयम्थजिनप्रतिमाभ्यां अनपदा अध्य निर्वपामीति つ दशलक्षण धर्मका अघ आठों द्रव्य संवार, द्यानत अधिक उछाह सों । भवताप निवार, दशलक्षण पूजों सदा ॥ ४ ॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह ओं ह्रीं उत्तमक्षमा माईव. श्राव. सत्य. शौच. संयम. तप, त्याग. आकिंचन. ब्रह्मचर्य दशलक्षणधर्म योऽय निर्वपामीति. रत्नत्रयका अर्थ आठ द्रव्य निरधार, उत्तमसों उत्तम लिये। जन्म रोग निरवार, सम्यकरतनत्रय भजों ॥५॥ आं ह्रीं अष्टांग सम्यग्दर्शनाय. अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय यत्रांदश प्रकार सम्यक चारित्राय अघ निवपाानि स्वाहा ।।५।। समुच्चयचाबीसी पूजा वृषभ अजित संभव अभिनंदन सुमति पदम सुपास जिनराय । चंद पुहुप शीतल श्रेयांस नमि, वासुपूज्य पूजितसुरराय ॥ विमल अनंत धर्म जस उज्वल, शांति कुंथु अर मल्लि मनाय । मुनिसुव्रत नमि नेमि पार्श्वप्रभु, वर्द्धमान पद पुष्प चढ़ाय ॥१॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजापाठ संग्रह। ओं ह्रीं श्री वृषभादिमहावीरांतचतुर्विशतिजिनसमूह ! अत्र अवतर अवतर, संवौषट् आह्वाननं। ओं ह्रीं श्रीवृषभादिमहावीरांतचतुर्विशतिजिनसमूह . अत्र तिष्ठ तिष्ठ, ठः ठः स्थापनं । ओं ह्रीं श्री वृपभादिमहावीरांतचतुर्विशतिजिनसमूह अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्, सन्निधिकरणम् । मुनिमनसम उज्वल नीर, प्रासुक गंध भरा। भरि कनककटोरी धीर दीनी धार धरा ॥ चौबीसों भीजिनचंद, आनंदकंद सही। पद जजत हरत भवफंद, पावत मोक्षमही ॥२॥ ओं ह्रीं श्रीवृषभादिवरितभ्यो जन्ममृत्युविनाशनाय जलं. गोशीरकपूर मिलाय, केशर रंगभरी। जिन चरनन देत चढ़ाय, भवाताप हरी । चौबीसों श्रीजिनचंद, आनंदकंद सही। पद जजत हरत भवफंद, पावत मोक्षमही ॥३॥ ओं ह्रीं श्रीवृषभादिवीरांतभ्यो भवातापविनाशनाय चंदनं० तंदुल सित सोमसमान, सुंदर अनियारे । मुकता-फलकी उनमान, पुंज धरों प्यारे॥ चौबीसों श्रीजिनचंद, आनंदकंद सही। पद जजत हरत भवफंद, पावत मोक्षमही ॥४॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी जैन पूजापाठ संग्रह। ओं ह्रीं श्रीवृषभादिवारांतेभ्योऽक्षयपदप्राप्तये अक्षतान नि० वरकंज कदंव कुरंड सुमन सुगंध भरे । जिन अग्र धरों गुनमंड, कामकलंक हरे ॥ चौबीसों श्रीजिनचंद, आनंदकंद सही। पद जजत हरत भवफंद, पावत मोनमही॥५॥ ओं ह्रीं श्रीबृपभादिवारांतभ्या कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं नि० मनमोहन मोदक आदि, सुंदर सद्य बने । रसपरित प्रासुक स्वाद, जजत क्षुधादि हने ॥ चौबीसों श्रीजिनचंद, आनन्दकन्द सही। पद जजत हरत भवफन्द, पावत मोक्षमही ॥६॥ ओं ह्रीं श्रीपभादिवागतभ्यः सुधागंगविनाशनाय नवेद्यं निक तमखंडन दीप जगाय, धारों तुम आगें। सब तिमिरमोह नयजाय, ज्ञानकला जागै॥ चौबीसों श्रीजिनचन्द, आनन्द कन्द सही। पद जजत हरत भवफन्द, पावत मोक्षमही ॥७॥ ओं ह्रीं श्रीवृषभादिवीरांतभ्यो मोहांधकारविनाशनाय दीपं नि. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह । दशगंध हुताशनमांहि, हे प्रभु खेवत हों। मिस धूमकरम अरिजाहि, तुमपद सेवत हो ॥ चौबीसों श्रीजिनचंद, आनंदकंद सही। पद जजत हरत भवफंद. पावत मोनमही ॥८॥ या ह्रीं श्रीवृषभादिवागंनभ्योऽष्टकमदहनाय बृपं नि० ॥७॥ शुचि पक्व सुरसफल सार. सव ऋतुके ल्यायो। देवत दृगमनको प्यार, पृजत सुग्व पायो । चौबीसों श्रीजिनचंद, आनंदकंद सही। पद जजत हरत भवफंद, पावत मोनमही ॥६॥ प्रां ह्रीं श्रीऋपभादिवागतम्या मोक्षफल प्राप्रय फलं निव०।८। जलफल आठों शुचिसार, ताको अर्घ करों। तुम को अरपों भवतार, भवतरि मोक्ष वरों ॥ चौबीसों श्रीजिनचन्द, आनन्दकन्द सही । पद जजत हरत भवफंद, पावत मोलमही ॥१०॥ ओं ह्रीं श्रीवृपभादिवारांनभ्या अनर्यपदप्राप्तय अयं निर्व जयमाला । दाहाश्रीमत तीरथनाथपद. माथ नाय हित हेत । गाऊं गुणमाला अव, अजर अमरपद देत ॥१॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह घत्ता । जय भवतमभंजन जनमनकंजन, रंजन दिनमनि स्वच्छ करा । शिवमगपरकाशक अरिगननाशक, चीबीसों जिनराज वरा ॥२॥ पद्विार छन्द । जय ऋषभदेव ऋषिगन नमंत, जय अजित जीत वसुअरि तुरंत । जय संभव भवभय करत चूर, जय अभिनंदन आनंद पूर ॥३॥ जय सुमति सुमतिदायक दयाल, जय पद्म पद्मदुतितन रसाल । जय जय सुपास भवपास नाश, जय चंद चंद तनदुतिप्रकाश ॥४॥ जय पुष्पदंत दुतिदंत सेत, जय शीतल शीतलगुन-निकेत । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। जय श्रेयनाथ नुतसहसभुज, जय वासवपूजित वासुपुज्ज ॥५॥ जय विमल विमलपद-देनहार, जय जय अनंत गुनगन अपार । जय धर्म धर्म शिवशर्म देत, जय शांति शांति पुष्टी करत ॥६॥ जय कुंथु कुंथुवादिक रग्वेय, जय अर जिन वसु अरि तय करेय । जय मल्लि मल्ल हत मोहमल्ल, जय मुनिसुव्रत तशल्ल दल्ल ॥७॥ जय नमि नित वासवनुत सपेम, जय नेमिनाथ वृषचक्र नेम। जय पारसनाथ अनाथनाथ, जय वर्द्धमान शिवनगर साथ ॥८॥ छन्द पत्तानंद चौबीस जिनंदा आनंदकंदा पापनिकंदा सुखकारी। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ साह। ५६ तिनपदजुगचंदा उदय अमंदा, वावस वंदा हितधारी ॥६॥ ओं ह्रीं श्रीवृपभादिचतुर्विशतिजिनभ्या महाघ निव० स्वाहा ।। सोरठाभुनि मुक्रि दातार, चौबीसों जिनराजवर । तिनपद मनवचधार, जो पूजे सो शिव लहै ॥ ( इत्याशीर्वादः । पुष्पाञ्जलिं क्षिपन ) निर्वाणक्षेत्र पूजा सारठापरम पूज्य चौवीस, जिहँ जिहँ थानक शिव गये। सिद्धभूमि निशदीस, मनवचतन पूजा करों ॥१॥ ओ ह्रीं चतुर्विनितीर्थ निवारण क्षेत्रागिण । अत्र अवतरत अवनग्न. संवीपट अाह्वाननं । श्रां ह्री चतुविशनितीर्थकरनिवागाक्षत्राणि । अत्र निष्ठत निष्टन, ठः ठः स्थापनं । ओं ह्रीं चतुर्विशातितीथकरनिर्वाण क्षेत्राणि : अत्र मम सन्निहितानि भवन भवन वपट मन्निधिकरणं । गीता छन्द। शुचि क्षीरदधि सम नीर निरमल, कनकझारी में भरों। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह संसार पार उतार स्वामी, जोरकर विनती करों ॥ सम्मेदगिरि गिरनार चंपा. पावापुरि कैलासकों। पूजों सदा चौबीसजिननिर्वाणभृमि निवासकों ॥१॥ आ ही श्राच व शनिनाथकरनिर्वाण नत्रभ्या जलं निर्व, स्वाहा ।। केशर कपूर सुगंध चंदन सलिल शीतल विस्तगे, भवतापको संताप मटा, जारकर विनती करा॥ सम्मेद गिरि गिरनारि चंपा, पावापुरि कैलासका। पूजों सदा चौवीसजिन निर्वाणभूमि निवासको ॥२॥ श्रां ह्रीं श्रीचतुर्विशतितार्थ करीनागनत्रभ्या चंदनं नि । मोतीसमान अखंड तंदल. अमल आनंद धरि तरौं । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह ६१ औगुन हरौ गुन करो हमको, जोरकर विनती कगें ॥ सम्मेदगिरि गिरनार चंपा. पावापुरि कैलासकों। पूजों सदा चौवीसजिननिर्वाण. भूमि निवासकों ॥३॥ श्रां हां श्रीचन व शतिनाथ निवाग नत्र या अनमान नि.. || || शुभ फूलगस मुवामवामित. ग्वेद सब मनकी हगें। दुग्वधामकाम विनाश मग जागकर विनती कगें॥ सम्मदगिरि गिरनार चंपा. पावापुरि केलामको। पूजों सदा चौवीमजिननिर्वाण. भृमि निवासकों ॥१॥ अं ही श्रीच शनायकनिवागा नाम: पप्पं नि ।। नेवज अनेक प्रकार जाग. मनोग धरि भय परिहग। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह नों ही श्रीचतुर्विशतिनाथकरनिर्वाण नत्रभ्यः फलं नि० ॥८।। जल गंध अनत पुष्प चम फल, दीप धृपायन धरौं । 'द्यानन' को निग्भय जगतमों, जोरकर विनती कगें । सम्मदगिरि गिरनार चंपा. पावापुरि कैनासको । पूजों सदा चौवीमजिननिर्वाण भूमि निवासकों ॥६॥ श्रा ही श्रीचव शाननीयकनिवाग नत्र या अन्य नि ॥६॥ थ जयमाला। श्रीचौवीसजिनेश. गिरि कैलाशादिक नमों । नीरथ महाप्रदेश. महापुम्प निरखागानं ॥ चपाई मात्रा। नमों ऋषभ कनामपहार. नेमिनाथ गिरनार निहारं । वामपन्य चंपापुर वंदा, मनमनि पावापुर अभिनंदा ।।१।। चंदी अजित जनपददाता, की मंभव भवदयघाना । बंदी अभिनदन गणनायक. बंदी सुमनि मुमति के दायक।।२।। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह बंदी पदममुकति पदमाधर, बंदौं सुपास भाशपासाहर। बंदौं चंद्रप्रभ प्रभुचंदा, बंदौं सुविधि सुविधिनिधि कंदा ॥३॥ बंदौं शीतल अघतपशीतल, बंदौं श्रेयांस श्रेयांस महीतल । बंदौं विमल विमल उपयोगी, बंदी अनंत अनंत सुखभोगी॥४॥ बंदौं धर्म धर्म-विस्तारा, बंदौं शांति शांतिमनधारा । बंदौं कंथु कंधु-रखवालं, बंदों पर अरिहर गुणमालं ॥५॥ बंदों मल्लि काममलचूरन, बंदी मुनिसुव्रत व्रतपूरन । बंदौ नमि जिन नमितसुरासर, बंदी पास पास भ्रमजगहर॥६।। बीसों सिद्धभूमि जा ऊपर, शिखर सम्मेद महागिरि भूपर । एकबार बंदै जो कोई, ताहि नरकपशुगति नहिं होई ॥७॥ नरगतिनृप सुरशक्र कहावं, तिहुँजग भोग भोगिशिव जावै । विघनविनाशक मंगलकारी, गुणविशाल बंदै नरनारी ॥८॥ घत्ताजो तीरथ जावे पाप मिटावै, ध्याचे गावं भगति करे। ताको जम कहिये संपति लहिये, गिरिके गुण को बुध उचरै ॥९॥ ओ ह्रीं श्रीचतुर्विशतिनाथङ्करनिर्वाणक्षत्रेभ्यो पूर्णाघ नि० ॥१०॥ इत्याशीवादः। सप्त-ऋषि पूजा छप्पय। प्रथम नाम श्रीमन्व दुतिय स्वरमन्व ऋषीश्वर । तीसर मुनि श्रीनिचय सर्वसुन्दर चौथो वर ॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह पंचम श्रीजयवान विनयलालस षष्ठम भनि। सप्तम जयमित्राख्य सर्व चारित्रधाम गनि ॥ ये सातों चारणऋद्धिधर, करू तासपद थापना। में पूजूं मनवचकायकरि, जो सुख चाहूं आपना॥ ओं ह्रीं चारणऋद्धिधग श्रीमप्त ऋषीश्वग ! अत्र अवतरत अवतग्त मंत्रीपद श्राहाननं । अत्र तिष्ठत निष्ठन ठः ठः स्थापनं । श्रत्र मम सन्निहिना भवन भवन वपट मन्निधिकरणम । अष्टक - गीता छन्द। शुभतीर्थउद्भव जल अनूपम मिष्ट शीतल लायकै । भवतृषा-कंद निकंदकारण, शुद्ध घट भरवायके ।। मन्वादिचारण ऋद्धिधारक, मुनिन की पूजा करू। ता करें पातिक हरें मारे, मकन आनन्द विस्तर ॥१॥ नों ह्रीं श्रीमन्व. स्वरमन्त्र. निच य. मर्वमुन्दर. जयवान. विनयलालस जयमित्र ऋषिभ्या जलं निर्वपामा नि स्वाहा ।।१।। श्रीखंड कदलीनंद केशर, मंद मंद घिमायके । तसुगंध प्रसरित दिगदिगंतर, भर कटोरी लायके ।। मन्वादिचारणऋद्धिधारक, मुनिन की पूजा करू। ता करें पातिक हरें सारे, सकल आनन्द विस्तरू ॥२॥ प्रां ह्रीं श्रीमन्वादिचारणऋद्धिधारकममऋषिभ्यः चंदनं निक Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह अति धवल अक्षत खण्ड-बर्जित मिष्ट राजन भोगके । कलधौत थारा भरत सुन्दर चुनित शुभ उपयोगके । मन्त्रादिचारणऋद्धिधारक, मुनिन की पूजा करू । ता करें पातिक हरें मारे, मकल आनन्द विस्तरू ॥३॥ ओं ह्रीं श्रीमन्वादिचारणऋद्विधारकसप्तऋषिभ्यो अक्षतान० बहुवरणेसुवरण सुमन पाछे, अमल कमल गुलावके । केतली चंपा चारु मरुश्रा, चुने निज कर चावके ।। मन्वादिचारणऋद्धिधारक, मुनिन की पूजा करू। ता करें पातिक हरें मारे, मकल आनन्द विस्तां ॥४॥ ओं ह्रीं श्रीमन्वादिचारणऋद्धिधारकमप्रऋषिभ्यः पुष्पं नि० पकवान नानाभांति चातुर, रचित शुद्ध नये नये । सदामिष्ट लाह आदि भर बहू, पुरटके थाग लये ॥ मन्वादिचारणऋद्धिधारक, मुनिन की पूजा करू। ता करें पातिक हरें मारे, मकल आनन्द विस्तरू॥५॥ श्रां ह्रीं श्रीमन्वादिचारणऋद्धिधाग्कमप्रऋपिझ्या नवयं निक कलधौत दीपक जड़ित नाना, भरित गोघृतमारसों। अति ज्वलितजगमगज्योति जाकी, तिमिग्नाशनहारसों । मन्वादिचारणऋद्विधारक, मुनिन की पूजा करू। ना करें पातिक हरें मारे, मकल आनन्द विस्तरू॥६॥ ओ ही श्रीमन्वादिचारणऋद्धिधारकमप्तऋषिभ्या दीपं निक Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी जैन पूजा-पाठ संग्रह दिक्चक्र गधित होत जाकर, धूप दशअंगी कही। सो लाय मनवचकाय-शुद्ध, लगायकर खेऊ सही ।। मन्वादिचारणऋद्धिधारक, मुनिन की पूजा करू। ता करें पातिक हरें सारे, सकल आनन्द विस्तरू ॥७॥ ओं ह्रीं श्रीमन्वादिचारणऋद्धिधारकसप्तऋषिभ्यो धूपं निक वर दाख खारक अमित प्यारे, मिष्ट चुष्ट चुनायकै । द्राबड़ी दाडिम चारु पुंगी, थाल भर भर लायक ॥ मन्वादिचारणऋद्विधारक, मुनिन की पूजा करू। ता करें पातिक हरें सारे, सकल आनन्द विस्वरू॥८॥ ओं ह्रीं श्रीमन्वादिचारणऋद्धिधारकसप्तऋषिभ्यः फलं निक जलगंधमक्षतपुष्पचरुबर, दीप धूप सु लावना । फल ललित पाठों द्रव्यमिश्रित, अघं कीजे पावना ॥ मन्वादिचारणऋद्धिधारक, मुनिन की पूजा करू। ता करें पातिक हरें सारे, सकल आनन्द विस्तरू।९।। ओ ह्रीं श्रीमन्वादिचारणऋद्धिधारक सप्तऋषिभ्यो अर्घ निक ___ अथ जयमाला । छन्द त्रिभंगी। वन्, ऋषिराजा, धर्मजहाजा, निजपरकाजा, करत भले। करुणाके धारी, गगनविहारी, दुख अपहारी, भरम दल । काटत जमफंदा, भविजन इंदा, करत अनंदा चरणनमें। जो पूजै ध्यावे मंगल गाउँ, फेर न आवें भववनमें ॥१॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह छन्द पद्धरी। जय श्रीमनु मुनिराजा महंत, त्रस थावरकी रक्षा करत । जय मिथ्यातम नाशक पतंग, करुणारसपूरित अंग अंग॥२॥ जय श्रीस्वरमनु अकलंकरूप, पदसेव करत नित अमर भूप । जय पंच अक्ष जीते महान, तप तपत देह कंचनससान ॥३॥ जय निचय सप्त तत्वार्थभाम, तप-रमातनों तनमें प्रकाश । जय विपयरोध संबोध भान, परणतिके नाशन अचल ध्यान ॥४॥ जय जयहि सर्वमंदर दयाल, लखि इंद्रजालवत जगतजाल । जय तृष्णाहारी रमण गम, निज परणतिमें पायो विराम॥५॥ जय आनंदघन कल्याणरूप, कल्याण करत सबको अनूप । जय मद नाशन जयवान देव, निरमद विचरत सब करत सेव ।।६।। जय जयहि विनयलालम अमान, सब शत्रु मित्र जानत समान। जय कृशितकाय तपके प्रभाव, छवि छटा उडति आनंद दाय।७।। जयमित्र सकल जगके सुमित्र, अनगिनत अधम कीने पवित्र। जय चंद्रवदन राजीव-नैन, कबहुं विकथा बोलत न वैन ।।८॥ जय सातौं मुनिवर एकमंग, नित गगन-गमन करते अभंग। जय आये मथुरापुरमँ झार, तहँ मरी रोगको प्रति प्रचार॥९॥ जय जय तिन चरणनिके प्रसाद, सब मरी देवकृत मई वाद। जयलोक कर निर्भय समस्त, हम नमत सदा तिन जोड़हस्त १०॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह जय ग्रीषमऋतु परवत मँझार, नित करत अतापन योगसार । जय तृपापरीपह करत जेर, कहुं रंच चलत नहिं मनसुमेर ११।। जय मूल अठाइस गुणनधार, तप उग्र नपत आनंदकार । जय वर्षाऋतुमें वृक्षतीर, तहँ अति शीतल झेलत समीर ॥१२॥ जय शीतकाल चौपटमँझार, के नदी सरोवर तट विचार । जय निवसत ध्यानारूढ़ होय, रंचक नहिं मटकत रोम कोय १३॥ जय मृतकासन वज्रासनीय, गोदूहन इत्यादिक गनीय । जय आसन नाना भांतिधार, उपसर्ग सहत ममता निवार॥१४॥ जय जपत तिहारो नाम कोय, लख पुत्र पौत्र कुलवृद्धि होय । जय भरे लक्ष अतिशय भंडार, दारिद्र तनों दुख होय छार १५॥ जय चोरअग्निडाकिनपिशाच, अरु ईति भीति सब नसत सांच। जय तुम सुमरत सुख लहत लोक, सुर असुरनवत पद देत धोक १६ छन्द रोला। ये सातों मुनिराज, महातप लछमी धारी। परम पूज्य पद धरें, सकल जगक हितकारी ॥ जो मन वच तन शुद्ध होय सेवे औ ध्यावै । सो जन मनरंगलाल अष्टऋद्धिनकौं पावे ॥१७॥ दाहा। नमन करत चरनन परत, अहो गरीब निवाज । पंच परावतेननितें, निरवारो ऋषिराज ॥१८॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह ७१ ओं ह्रीं श्रीमन्वादिचारणऋद्धिधारकसप्तऋषिभ्यः पूर्घ नि. ब्रतों का अर्घ उदकचंदनतंदुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलापकैः । धवलमंगलगानवाकुले जिन गृहे जिनवृत्तमहं यजे ॥१॥ ओं ह्रीं श्रीभगवज्जिनभाषितवतेभ्यो अर्घ्य निर्व० ॥१॥ समुच्चय अर्घ प्रभूजी अष्ट दरबदरवजु ल्यायो भावसों, प्रभू थां का हरप हरष गुण गाऊं महाराज। यो मन हरख्यो प्रभू थांकी पूजा जी रे कारणे ॥ प्रभू जी थांकी तो पूजा भवि जन नित कर, जाका अशुभ कर्म कट जाय महाराज । यो मन हरख्यो प्रभू थांकी पूजा जी रे कारणे ॥१॥ प्रभूजी थांकी तो पूजा भवि जीव जो कर, सो तो सुरग मुकतिपद पात्र महाराज । यो मन हरख्यो प्रभू थांकी पूजा जी रे कारणे ॥२॥ प्रभूजी इन्द्र धरणेंद्रजी सब मिलि गाय, प्रभू का गुणांको पार न पाइया । प्रभूजी थे छो जी अनन्ता जी गुणवान, थांने तो सुमरयां संकट परिहरै। प्रभूजी थे छो जी साहिव तीनों लोक का, Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह जिनराय मैं ; जी निपट अज्ञानी महाराज । यो मन हरख्यो प्रभू थांकी पूजा जी रे कारणे ॥३॥ प्रभूजी थांका तो रूपजी निरखन कारणे, सुरपति रचिया छ नयन हजार महाराज । यो मन हरख्यो प्रभू थांकी पूजा जी रे कारणे ॥४॥ प्रभूजी नरक निगोदमें भव भव मैं रुल्यो, जिनराय सहिया छ दुःख अपार महाराज । यो मन हरख्यो प्रभू थांकी पूजा जो रे कारणे ॥५॥ प्रभूजी अब तो शरणोजी थारो मैं लियो, किस विधि कर पार लगावो महाराज । यो मन हरख्यो प्रभू थांकी पूजा जी रे कारणे ॥६॥ प्रभूजी म्हारो तो मनड़ो थांमेंजी घुल रह्यो, ज्यों चकरी बिच रेशमकी डोरी महाराज । यो मन हरख्यो प्रभू थांकी पूजा जी रे कारणे ॥७॥ प्रभृजी तीन लोक में है जिन-विम्ब, कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय पूजस्यां । प्रभूजी जल चंदन अक्षत पुष्प नैवेद, दीप धूप फल अर्घ चढ़ाऊं महाराज, जिन चैत्यालय महाराज, सब चैत्यालय जिनराज । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह ७३ यो मन हरख्यो प्रभू थांकी पूजा जी रे कारणे ॥८॥ प्रभूजी अष्ट दरव जुल्याओ बनाय, पूजा रचाऊं श्रीभगवान की ॥९॥ श्रीं ह्रीं भावपूजा भावबंदना त्रिकालपूजा त्रिकालबंदना करे करावे भावना भावे श्रीश्ररहंतजी सिद्धजी आचार्यजी उपाध्यायजी सर्वसाधुजी पंचपरमेष्ठिभ्यो नमः । प्रथमानुयोगकररणानुयोगचरणानुयोगद्रव्यानुयोगेभ्यो नमः । दर्शन विशुद्धयादिपोडशकारणेभ्यो नमः । उत्तम क्षमादि दश लाक्षणिक धर्मेभ्यो नमः । सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक चारित्रेभ्यो नमः । जलके विषै थल के विषै श्राकाशके विषै गुफाके विषै पहाड़ के विषै नगर नगरी विषै ऊर्ध्वलोक मध्यलोक पाताललोक विषै विराजमान कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालय जिनबिम्बेभ्यो नमः | विदेहक्षेत्रे विद्यमान बीस तीर्थङ्करेभ्यो नमः | पांच भरत पांचऐरावत देशक्षेत्र सम्बन्धी तीस चौबीसीके सातसौ बीस जिनराजेभ्यो नमः । नंदीश्वर द्वीपसम्बन्धि बावन जिन चैत्यालयेभ्यो नमः । पंचमेरु सम्बन्धि अस्सी जिन चंत्यालयेभ्यो नमः । सम्मेद शिखर कैलाश चंपापुर पावापुर गिरनार आदि सिद्धक्षेत्रेभ्यो नमः । जैनबद्री मूलबद्री राजगृही शत्रुंजय तारंगा चमत्कार महावीर स्वामी आदि अतिशयक्षेत्रेभ्यो नमः | श्री चारण ऋद्धिधारी सप्त परमर्षिभ्यो नमः । श्रीं ह्रीं श्रीमंत भगवन्तं कृपालसन्तं श्रीवृषभादि महावीर पर्यन्त चतुर्विंशति तीर्थंकर परमदेवं श्रद्यानां आये जम्बू द्वीपे भरतक्षेत्रे आर्यखण्डे.. नाम्नि नगरे मासानामुत्तमे मासे पक्षे शुभ तिथौ वासरे ... • मासे शुभे .. .... Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह मुनि प्रायिकानां श्रावकश्राविकानां क्षुल्लकक्षुल्लिकानां सकल कम क्षयार्थ ( जलधारा) अनर्घपदप्राप्तये महाघ सम्पूर्णाघ निर्वपामीति स्वाहा । भावपूजावंदनास्तवसमतं श्रीपंचमहागुम्भक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहम्। यहां पर कायोत्सर्ग पूर्वक नौ बार णमोकारकार मंत्र जपना चाहिये। शांतिपाठ भाषा शांतिपाठ बोलते समय पुष्प क्षपण करते रहना चाहिये । चौपाई १६ मात्रा। शांतिनाथ मुख शशि उनहारी, शीलगुणवत-संयमधारी। लखन एक सौ आठ विराजें, निरखत नयन कमलदल लाजै ॥१॥ पंचम चक्रवर्ति पदधारी, सोलम तीर्थंकर सुखकारी । इन्द्र नरेन्द्र पूज्य निज नायक, नमो शांतिहित शान्नि विधायक ॥२॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह दिव्य विटप पुहुपनकी वरषा, दुन्दुभि आसन वाणी सरसा । छत्र चमर भामण्डल भारी, ये तुव प्रातिहार्य मनहारी ॥३॥ शांति जिनेश शांति सुखदाई, जगतपूज्य पूजौं शिरनाई । परमशांति दीजै हम सबको, पढ़ें तिन्हें पुनि चार संघको ॥४॥ पूर्जे जिन्हें मुकुट हार किरीट लाके, इन्द्रादि देव अरु पूज्य पदाब्ज जाके । सो शांतिनाथ वरवंश जगतप्रदीप, मेरे लिये करहिं शांति सदा अनूप ॥५॥ ___ इन्द्रवत्रा संपूजकों को प्रतिपालकों को, यतीन को औ यतिनायकों को। राजा प्रजा राष्ट्र सुदेश को ले, कीजै सुखी हे जिन शांति को दे ॥६॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी जन पूजा-पाठ संग्रह स्नग्धरा छन्द। होवै सारी प्रजाको, सुख बलयुत हो धर्मधारी नरेशा। होवै वर्षा समै पै तिलभर न रहै व्याधियों का अन्देशा। होवै चोरी न जारी, सुसमय वरतै हो न दुष्काल भारी। सारे ही देश धारें, जिनवर वृषको जो सदा सौख्यकारी ॥७॥ ___ दोहाघातिकर्म जिन नाश करि, पायो केवलराज । शांति करें ते जगतमें, वृषभादिक जिनराज॥८॥ मन्दाक्रान्ता। शास्त्रों का हो, पठन सुखदा, लाभ सत्संगती का। सद्वृत्तों का, सुजस कहके, दोष ढांकू सभीका ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०७ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह बोलू प्यारे वचन हितके, आप का रूप ध्याऊं । तौलों सेऊ चरण जिनके, मोन जौ लौ न पाऊं ॥६॥ प्राय्या तब पद मेरे हियमें, मम हिय तेरे पुनीत चरणों में। तबलौं लीन रहो प्रभु, जबलौं पाया न मुनि पद मैंने ॥१०॥ अक्षर पद मात्रा से, दूषित जो कछु कहा गया मुझ से । क्षमा करो प्रभु सो सब, करुणा करि पुनि छुड़ाहु भवदुःखसे॥११॥ हे जगबन्धु जिनेश्वर, पाऊं तव चरण चरण बलिहारी । मरण-समाधि सुदुर्लभ, कर्मों का क्षय सुवोध सुखकारी ॥१२॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SE श्री जन पूजा-पाठ संग्रह (परिपुष्पांजलि क्षेपण) यहां पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये । भजन । नाथ! तोरी पूजाको फल पायो, मेरेयों निश्चय व आयो । टेक।। मेंढक कमल पांखड़ी मुखमें, वीर जिनेश्वर धायो, श्रेणिक गजके पगतल मूवो तुरत स्वर्गपद पायो । नाथ! तोरी पूजाको फल पायो, मेरेयों निश्चय अब आयो ॥ १ ॥ मैना सुन्दरि शुभमन सेती, सिद्धचक्र गुण गायो, अपने पतिको कोढ़ गमायो, गंधोदक फल पायो । नाथ! तोरी पूजाको फल पायो, मेरेयों निश्चय च आयो || २ || अष्टापदमें भरत नरेश्वर, आदिनाथ मन लायो, अष्टद्रव्य से पूजा कीनी अवधिज्ञान दरशायो 1 नाथ! तोरी पूजाको फल पायो, मेरेयों निश्चय व आयो ॥३॥ अंजनसे सब पापो तारे, मेरो मन हुलसायो, महिमा मोटी नाथ तुमारी, मुक्तिपुरी सुख पायो । नाथ ! तोरी पूजाको फल पायो, मेरे यों निश्चय अब आयो ॥४॥ थकि थकि हारे सुरपति, नरपति आगम सीख जतायो, देवेंद्रकीर्ति गुरु ज्ञान मनोहर, पूजा ज्ञान बतायो । नाथ! तोरी पूजाको फल पायो, मेरे यों निश्चय अब आयो ॥५॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह भाषा स्तुति । तुम तरणतारण भवनिवारण, भविकमन श्रानन्दनो । श्रीनाभिनन्दन जगतवंदन, आदिनाथ निरंजनो || १ || तुम आदिनाथ अनादि सेऊँ सेय पदपूजा करू । कैलाश गिरिपर ऋषभजिनवर, पदकमल हिरदै धरू ॥२॥ तुम अजितनाथ अजीत जीते, अष्टकर्म महावली । यह विरद सुनकर शरण आयो, कृपा कीज्यो नाथजी ॥३॥ तुम चंद्रवदन सु चंद्रलच्छन चंद्रपुरि परमेश्वरो । महासेननंदन, जगतवंदन चंद्रनाथ जिनेश्वरो ||४|| तुम शांति पांचकल्याण पूजों, शुद्धमनवचकाय जू । दुर्भिक्ष चौरी पापनाशन, विघन जाय पलाय जू ||५|| तुम बालब्रह्म विवेकसागर, भव्यकमल विकाशनो । श्री नेमिनाथ पवित्र दिनकर, पापतिमिर विनाशनो || ६ || जिन तजी राजुल राजकन्या, कामसेन्या वश करी । चारित्ररथ चढ़ि भये दूलह, जाय शिवरमणी वरी ||७|| कंदर्प दर्प सुसर्पलच्छन, कमठ शठ निर्मद कियो । अश्वसेननंदन जगतवंदन सकलसंघ मंगल कियो ||८|| जिनधरी बालकपणे दीक्षा, कमठमानविदारक । श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र के पद, मैं नमों शिरधारकै ॥९॥ जह Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह तुम कर्मघाता मोक्षदाता, दीन जानि दया करो। सिद्धार्थनंदन जगतवंदन, महावीर जिनेश्वरो ॥१०॥ छत्र तीन सोहें सुरनर मोहैं, वीनती अब धारिये । करजोड़ि सेवक वीन. प्रभु आवागमन निवारिये ॥११॥ अब होउ भव भव स्वामि मेरे, मैं सदा सेवक रहों । करजोड़ यो वरदान मांग, मोक्षफल जावत लहों ॥१२॥ जो एक मांहीं एक राजे एक मांहि अनेकनो । इक अनेककी नहीं संख्या नमं सिद्ध निरंजनो ॥१३॥ चौपाईमैं तुम चरणकमलगुणगाय, बहुविधि भक्ति करौं मनलाय । जनम जनम प्रभु पाऊं तोहि, यह सेवाफल दीजे मोहि॥१४॥ कृपा तिहारी ऐसी होय, जीवन मरन मिटावो मोय । बारबार मैं विनती करू, तुम सेयां भवसागर तरू॥१५॥ नाम लेत सब दुःख मिटजाय, तुम दर्शन देख्यो प्रभु आय । तुम हो प्रभु देवनके देव, मैं तो करू चरण तव सेव ॥१६॥ जिन पूजा तैं सब सुख होय, जिन पूजा सम अवर न कोय । जिनपूजाः स्वर्ग विमान, अनुक्रम तैं पावै निर्वाण ॥१७॥ मैं आयो पूजनके काज, मेरो जन्म सफल भयो आज । पूजा करके नवाऊ शीश, मुझ अपराध क्षमहु जगदीश ॥१८॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह। दोहा। सुख देना दुख मेटना, यही तुम्हारी वान । मो गरीवकी बीनती, सुन लीज्यो भगवान ॥१६॥ पूजन करते देवकी, आदि मध्य अवसान । सुरगन के सुख भोगकर, पावै मोन निदान ॥२०॥ जैसी महिमा तुमविर्षे, और धरै नहिं कोय । जो सूरजमें जाति है, नहिं तारागण सोय॥२१॥ नाथ तिहारे नामतें, अघ छिनमांहिं पलाय । ज्यों दिनकर परकाशतं, अंधकार विनशाय २२॥ बहुत प्रशंसा क्या करू', में प्रभु बहुत अजान। पूजाविधि जान नहीं, सरन राखि भगवान ॥२३॥ विसर्जन बिन जाने वा जानके, रही टूट जो कोय । तुव प्रसाद तें परमगुरु, सो सब पूरन होय ॥१॥ पूजनविधि जानों नहीं, नहिं जानों आह्वान । और विसर्जन हू नहीं, नमा करो भगवान ॥२॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह । मंत्रहीन धनहीन हूँ क्रियाहीन जिनदेव । नमा करहु राग्वहु मुझे, देहु चरणकी सेव ॥३॥ आये जो जो देवगन, पूजे भकि प्रमान । ते सव जावहु कृपाकर, अपने अपने थान ॥४॥ इत्याशीवादः। आशिका लेनका मन्त्र । दाहा। श्री जिनवरकी आशिका. लीजे शीस चढ़ाय । भव भवके पातक कटें. दुःश्व दूर हो जाय ॥१॥ आरती श्री पाश्वनाथ म्वामी की । ( चाल. जय जगदीश हर ) जय पारश दवा म्वामा जय पारश देवा । मुर नर मुनि जन तव चरगानका करत नित सवा टर।। पाप वदा ग्याग्स काशी में आनन्द अनि भार्ग, म्वानी आनन्द अति भार्ग । अश्वसेन वामा माता उर लाना अवनाग ।। जय ||१|| श्याम वरण नवहम्त काय पग-उग्ग लखन माह म्वामी उग्ग लखन साहै। सुरकृत अति अनप पट भूषण सबका मन माह ।। जय०।। जलत देख नाग नागिनका मंत्र नवकार दिया, म्वामी मंत्र नवकार दिया । हरा कमठका मान ज्ञान का भानु प्रकाश किया ।।जय।। मात पिता तुम स्वामी मर. आश कम किसकी. म्वामी ' आश कर Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। किसकी । तुम बिन दाता और न कोई शरण गहूं जिसकी|जय०॥४|| तुम परमातम तुम अध्यातम तुम अंतरयामी. स्वामी तुम अंतरयामी। स्वर्ग मोक्षके दाता तुम हो त्रिभुवनके स्वामी ॥ जय० ॥ ५॥ दीनबंधु दुखहरण जिनेश्वर ! तुम ही हो मेरे. स्वामी तुम ही हो मेरे। द्या शिवधामको वास दास, हम द्वार खड़े तेरे ॥ जय० ॥ ६ ॥ विपद विकार मिटाओमनका अर्ज सुना दाता, स्वामी अर्ज सुनोदाता। मवक द्वयकर जाड़ प्रभूकं चरणों चित लाता ।। जय पारश० ॥७॥ इति । के समाप्त * Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | सोलहकारण पूजा | डिल्ल सोलहकारण भाय तीर्थंकर जे भये, हरपे इन्द्र पार मेरुपर ले गये । पूजा करि निज धन्य लखो बहु चावसों, हम हूं षोडस कारण भावें भावसों ॥ श्रीं ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिपोडश कारणानि अत्र अवतरत अवतरत संवौपट आह्वाननं अत्र तिष्टत तिष्ठत ठः ठः स्थापनं, अत्र मम सन्निहितानि भवत भवत वषट् सन्निधीकरणं । अथाष्टकम | कंचनझारी निर्मल नीर, पूजूं जिनवर गुणगंभीर, परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो । दरशविशुद्धि भावना भाय, सोलह तीर्थंकर पद पाय, परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो । श्रीं ह्रीं दर्शनविशुद्धि १. विनयसम्पन्नता २. शीलत्रतेष्वन-. तीचार ३. अभीक्ष्णज्ञानोपयोग ४. संवेग ५. शक्तितस्त्याग ६, शक्तितस्तप ७. साधुसमाधि वैयावृत्यकरण ६ अर्हभक्ति १०. आचार्यभक्ति ११. बहुश्रुतभक्ति १२. प्रवचनभक्ति १३. आवश्यक परिहाणि १४. मार्गप्रभावना १५. प्रवचनवात्सल्य १६. इति षोडशकारणेभ्यो नमः जलं ।। १ ।। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | ८५ चंदन घसों कपूर मिलाय, पूजं श्रीजिनवरके पांय । परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो || दरशविशुद्धि भावना भाय, सोलह तीर्थंकर पद पाय, परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥ २ ॥ ह्रीं दर्शन विशुद्ध्यादिपोडशकारग्भ्यः चंदनं । तन्दुल धवल अखंड अनूप, पूजं जिनवर तिहुं जगभूप । परमगुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥ दरशविशुद्धि भावना भाय, सोलह तीर्थंकर पद पाय, परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥ ३॥ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिपोडशकाराभ्यां अक्षतं नि० फूल सुगन्ध मधुप गुंजार, पूजूं जिनवर जग आधार । परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो | दरशविशुद्धि भावना भाय, सोलह तीर्थंकर पद पाय, परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥ ४ ॥ ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिपोडशकार भ्यः पुष्पं० सद नेवज बहु विधि पकवान, पूजूं श्रीजिनवर गुणखान | परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥ दरशविशुद्धि भावना भाय, सोलह तीर्थकर पद पाय, परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥ ५ ॥ ह्रीं दर्शन विशुद्ध्यादिपोडशकारभ्यां नवां Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ मंग्रह। दीपक ज्योति तिमिर क्षयकार, पूर्ज श्रीजिन केवलधार । परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥ दरशविशुद्धि भावना भाय, सोलह तीर्थकर पद पाय, परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥ ६ ॥ ___ओं ह्रीं दर्शविशुद्ध्यादिषोडशकारणभ्या दीपं० अगर कपूर गन्ध शुभ खेय, श्री जिनवर आगे महकेय । परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो । दाशविशुद्धि भावना भाय, सोलह तीर्थकर पद पाय, परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥ ७ ।। ___ओं ह्रीं दर्शविशुद्ध्यादिषोडशकारणभ्यां धूपं निर्व श्रीफल आदि बहुत फल सार, पूजं जिन बांछितदातार । परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ।। दरशविशुद्धि भावना भाय, सोलह तीर्थकर पद पाय, परम गुरु हो. जय जय नाथ परम गुरु हो ॥ ८॥ ___ श्री ही दर्शविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्यः फलं निव जल फल आठों द्रव्य चढ़ाय, 'द्यानत' बरत कगें मनलाय । परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ।। दरशविशुद्धि भावना भाय, सोलह तीर्थकर पद पाय, परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥ ९ ॥ ओं ह्रीं दर्शविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्यो अघ० Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | सोलह अंगों के १६ अर्थ | साडेसा पावे | दरशन शुद्ध न होवत तो लग जीव मिथ्याती काल अनंत फिगं भवमें, महादुःखनको कहुं पार न दोष पचीस रहित गुण- अम्बुधि. सम्यकदर्शन शुद्ध ठरावे । 'ज्ञान' कहे नर सोहि बड़ो, मिथ्यात्व तजे जिन-मारग ध्यावै ॥ ह्रीं दर्शनविशुद्धभावनायें नमः श्रयं ॥ १ ॥ देव तथा गुरुराय तथा, तप संयम शील व्रतादिक-धारी । पापके हारक कामके लारक, कर्म - निवारी | शल्य - निवारक धर्मके धीर कषायके भेदक, पंत्र प्रकार संसारके तारी । १२ जो जो लग. कहावे । ८७ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। 'ज्ञान' कहे विनयो सुखकारक, भाव धरो मन राखो विचारी ॥ ओं ह्रीं विनयमम्पन्नताभावनाय नमः अर्घ ॥ २ ॥ शील सदा सुखकारक है, अतिचार-विवर्जित निर्मल कीजे । दानव देव करें तसु सेव, विषानल भूत पिशाच पतीजे । शील बड़ो जगमें हथियार, जु शीलको उपमा काहेकी दीजे । 'ज्ञान' कहे नहिं शील बरावर, तातें सदा दृढ़ शील धरीजे ॥ ओ ही निरतिचारशीलवतभावनाय नमः अर्थ ।। ३ ।। ज्ञान सदा जिनराजको भाषित. आलस छोड़ पढ़े जो पढ़ावे । द्वादस दोउ अनेकहुं भेद. सुनाम मती श्रुति पंचम पावे । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह चार हुँ भेद निरन्तर भाषित, ज्ञान अभीक्षण शुद्ध कहावे । 'ज्ञान' कहे श्रु त भेद अनेक जु, लोकालोक हि प्रगट दिखावे ॥ ओं ह्रीं अभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावनाय नमः अर्घ ॥ ४ ॥ भ्रात न तात न पुत्र कलत्र न, संयम सज्जन ए सब खोटो । मन्दिर सुन्दर काय सम्वा, सबको इहको हम अन्तर मोटो । भाउके भाव धरी मन भेदन, नाहिं संवेग पदारथ छोटो । 'ज्ञान' कहे शिव-साधनको जैसो, साहको काम करे जु वणोटो ॥ प्रों ह्रीं मंवेगभावनाय नमः अर्घ ॥ ५ ॥ पात्र चतुर्विध देव अनृपम, दान चतुर्विध भावसुं दीजे । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह अभ्यागतको, शनि - समान अति आदरसे प्रणिपत्य करीजे । देवत जे नर दान सुपात्रहि, तास अनेकहिं कारण सीजे | बोलन 'ज्ञान' देहि शुभ दान जु, भांग सुभूमि महासुख लीजे ॥ ६० श्रीं ह्रीं शक्तितत्यागभावनाये नमः अथ । ६ ॥ पाप कर्म कठोर गिरावनको निज. शक्ति-समान उपोषण कीजे । बारह भेद तपे भेद तपे तप सुन्दर. जलांजलि काहे न दीजे । भाव धरी तप घोर करो नर. जन्म सदा फल काहे न 'ज्ञान' कहे कहे तप जे नर ताके अनेकहिं पातक कीजे ॥ लीजे भावत, ह्रीं शक्तितस्तपभावनाये नमः अयं ॥ ७ ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ६१ साधुसमाधि करो नर भावक, पुण्य बड़ो उपजे अघ छीजे । साधु की संगति धर्मको कारण, भक्रि करे परमारथ सीजे । साधुसमाधि करे भव छूटत, कीर्ति-छटा त्रैलोक में गाजे । 'ज्ञान' कहे यह साधु बड़ो, गिरिशृङ्ग गुफा बिच जाय विराजे ॥ प्रां ह्रीं माधुममाधिभावनाय नम: अघ ।। ८ ।। कर्मके योग व्यथा उदई मुनि, पुंगव कुन्तसभेषज कीजे । पीत कफान लसास भगन्दर, तापको मूल महागद छीजे । भोजन साथ बनायके औषध. पथ्य कुपथ्य विचार के दोज । 'ज्ञान' कहे नित ऐमी वैय्यावृत्य करे तस देव पनीजे ॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह । ___ओं ह्रीं वैयावृत्यकरणभावनाये नमः अर्घ ॥ ६ ॥ देव सदा अरिहन्त भजो जेई, दोष अठारा किये अति दूरा । पाप पखाल भये अति निर्मल, कर्म कठोर किये चकचूरा । दिव्य-अनन्त-चतुष्टय शोभित, घोर मिथ्यान्ध-निवारण सूरा । 'ज्ञान' कहे जिनराज अराधो, निरन्तर जे गुण-मन्दिर पूरा ॥ ओं ह्रीं अद्भक्तिभावनायै नमः अर्घ ॥ १० ॥ देवत ही उपदेश अनेक सु, आप सदा परमारथ-धारी । देश विदेश विहार करें, दश धर्म धरें भव-पार उतारी । ऐसे अचारज भाव-धरी भज, सो शिव चाहत कर्म निवारी । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह 'ज्ञान' कहे गुरु-भक्ति करो नर, देखत हो मनमांहि विचारी ॥ ओं ह्रीं प्राचार्यभक्तिभावनाय नम: अर्घ ।। ११ ।। आगम छन्द पुराण पढ़ावत, साहित तर्क वितर्क बखाने । काव्य कथा नव नाटक पूजन, ज्योतिष वैद्यक शास्त्र प्रमाने । ऐसे बहुश्रु त साधु मुनीश्वर, जो मनमें दोउ भाव न आने । बोलत 'ज्ञान' धरी मनसान जु, भाग्य विषेशतें जानहिं जाने ॥ _ओं ह्रीं बहुश्रुतभक्तिभावनाय नमः अर्घ । १२ ॥ द्वादस अंग उपांग सदागम, ताकी निरंतर भक्ति करावे । वेद अनूपम चार कहे तस, अर्थ भले मन माहिं ठरावे । : Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह। पढ़ बहु भाव लिखा निज अक्षर, भक्ति करी बड़ि पूज रचावे । 'ज्ञान' कहे जिन-आगम-भकि, करो सद-बुद्धि बहुश्रुत पाव ॥ __ा ही प्रवचनक्तिभावनाय नमः अर्थ ॥ १३ ॥ भाव धरे समता सब जीवसु, स्तोत्र पढ़े मुग्व से मनहारी । कायोत्सर्ग करे मन प्रीतसं, बंदन देव-तणों भव तारी । ध्यान धरी मद दूर करी, दोउ बेर करे पड़कम्मन भारी । 'ज्ञान' कहे मुनि सो धनवन्त जु, दर्शन ज्ञान चरित्र उधारी ॥ ओं ही आवश्यकापरिहाणिभावनाय नम: अर्घ ॥ १४ ॥ जिन-पूजा रचो परमारथसं, जिन आगल नृत्य महोत्सव ठाणों । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह। गावत गीत बजावत ढोल. मृदंगके नाद सुधांग वग्वाणो । संग प्रतिष्ठा रचो जल-जातरा. सदगुरुको साहमा कर आणो । 'ज्ञान' कहे जिनमार्ग प्रभावन, भाग्य-विशेषसुं जानहिं जाणो ॥ ओं ही मार्गप्रभावनाय नमः अयं ॥ १५ ॥ गौरव-भाव धरी मनसे मुनिपुङ्गवको नित वत्सल कीजे । शीलके धारक भव्यके तारक, तासु निरंतर स्नेह धरीजे । धेनु यथा निजबालकके, अपने जिय छोड़ि न और पतीजे । 'ज्ञान' कहे भवि लोक सुनो, जिन वत्सल भाव धरे अघ छीजे ॥ ओं ह्रीं प्रवचनवान्मल्यभावनाय नम: अत्र ॥ १६॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह ___जाप-ओं ह्रीं दर्शनविशुद्ध्ये नमः. ओं ह्रीं विनयसम्पन्नतायै नम: ओं ह्रीं शीलवताय नम:. श्रां हां अभीक्ष्णयज्ञानोपयोगाय नमः. ओं ही सम्बंगाय नमः. ओं ह्रीं शक्तितम्त्यागाय नमः. श्री ह्रीं शक्तितस्तपस नमः ओं ह्रीं साधुसमाध्य नमः. ओं ह्रीं वैयावृत्यकरणाय नमः. श्रां ह्रीं अहत्यै नमः, ओं ह्रीं प्राचार्यभक्त्यै नमः. श्रीं ह्रीं बहुश्रुतभक्त्यै नमः. ओं ह्रीं प्रवचनभक्त्यै नमः. ओं ह्रीं आवश्यकापरिहाण्य नमः. ओं ह्रीं मार्गप्रभावनायें नम:. ओं ह्रीं प्रवचनवत्सलत्वाय नमः ।। १६ ।। जयमाला दाहा। षोड़श कारण जे करें, हरें चतुरगति वास । पाप पुण्य सब नास के, ज्ञान भानु परकास ॥ चौपाई दर्श विशुद्ध धरे जो कोई, ताको आवागमन न होई । विनय महा धारे जो प्राणी, शिव वनिताकी सखी बखानी ॥२॥ शील सदा दृढ़ जो नर पाले, सो औरनकी आपद टाले । ज्ञान अभ्यास करे मन माहीं, ताके मोह महातम नाहीं ॥३॥ जो संवेग भाव विस्तार, स्वर्ग मुक्ति पद आप निहारे । दान देइ मनहर्ष विशेष, इह भव यश परभव सुख देखे ॥४॥ जो तप तप खप अभिलापा, चूरे कमशिखर गुरु भाषा । साधुसमाधि सदा मन लावै, तिहुं जग भोग भोगि शिव जावे ५।। निश दिन वयावृत्य करया, सो निश्चय भवनीर तरेया। जो अरहन्तभक्ति मन आने सो जन विषयकषाय न जान॥६॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। जो आचारज भक्ति करे हैं, सो निरमल आचार धरै हैं। बहुश्रुतवन्त भक्ति जो करई, सो नर संपूरण श्रुत धरई ॥७॥ प्रवचन-भक्ति करे जो ज्ञाता, ल है ज्ञान परमानन्द दाता । षट आवश्यकाल जो माध, सोई रत्नत्रय आराध ॥८॥ धर्म प्रभाव करें जो ज्ञानी, तिन शिव मारग रीति पिछानी । वत्सल अंग सदा जो ध्यावे, सो तीर्थकर पदवी पावै ॥९॥ दाहा ये ही षोडश भावना, सहज धरै व्रत जोय । देव इन्द्र नागेन्द्र पद, 'यातन' शिव पद होय ॥ ओं ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिशाडशकारगगभ्या अर्घ निवपार्मानि मवया नईमा सुन्दर पोडशकारगण भावना निर्मल चित्त सु धारक धार, कर्म अनक हन अनि दुधर जन्म जरा भय मृत्यु निवारे । दुःख दरिद्र विपत्ति हरे भव-मागरको पर पार उतार, 'ज्ञान' कहे यही शोडशकारण कम निवारण सिद्ध सुधार।। इत्याशीवादः। पंचमेरु पूजा। गीता छन्द । तीर्थकरोंक हवन-जलतं. भये तीरथ शमंदा । तात प्रदच्छन दंत सुरगन, पंचमेरुनकी सदा ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ह श्री जैन पूजा-पाठ मंग्रह। दो जलधि ढाईद्वापमें मत्र, गनत मूल विराजहीं। पूजों अमी जिनधाम प्रतिमा, होहिं मुख दुख भाजहीं ॥१॥ श्री ही पंचमममम्बंधिजिनचन्याल यजिननिमासमूह अत्रावतरावनर । संवौपट । आँ ह्रीं पंचमम्मम्बन्धि जनचैत्यालयस्थ जिनप्रतिमासमूह अत्र तिष्ठतिष्ट । ठाठः । ओं ह्रीं पंचमम्सम्बंधि जिनचैत्याल यस्थजिनप्रतिमासमूह ! अत्र मम मन्निहिनो भव भव । वपट । अथाष्टक । चौपाई अांचलीवद्ध ( १५ मात्रा) मीतल मिष्ट मुबाम मिलाय, जलमों पूजी श्रीजिनराय । महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ।। पांचों मेरु अमी जिनधाम, मन प्रतिमाको कगें प्रनाम । महासुग्व होय, देखे नाथ परमसुख होय ॥१॥ ओं ह्रीं सुदर्शनमस. विजयमम. अचलमम. मंदरमम. विद्युन्मालामा, पंचमंस संबंधी असी जिन चैत्यालयभ्यां जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामानि म्वाहा ।। १ ।। जल कमर कपूर मिलाय, गंधमों पूजी श्री जिनराय । महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ।। पांचों मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमाको कगें प्रनाम । महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ॥ २ ॥ ओं ह्रीं पंचमम्मम्बंधिजिनचैत्यालयस्थजनबिम्बेभ्यो चंदनं निर्वः अमल अखण्ड सुगंध सुहाय । अच्छतमा पूजों जिनगय। महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। पांचों मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमाको करों प्रनाम । महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ॥ ३ ॥ ओं ह्रीं पंचमम्मम्बंधिजिनचैत्यालयस्थजिनबिम्बभ्यो अक्षतान० वरन अनेक रहे महकाय, फूलनमा पूजों जिनराय । महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ॥ पांचों मेरु असी जिनधाम, मव प्रतिमाको करों प्रनाम ! महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ॥४॥ ओं ह्रीं पंचमसम्बंधिजिनचंत्यालयजिनबिम्बभ्या पुष्पं निव० मनवांछित बहु तुरत बनाय, चरमों पूजी श्री जिनराय । महासुख होय, देख नाथ परमसुख होय ।। पांचो मेरु असी जिनधाम, मब प्रतिमाको कगें प्रनाम । महासुग्व होय, देख नाथ परमसुख होय ।। ५ ॥ श्री ह्रीं पंचममसम्बंधिजिनचंत्याल यजिनविम्बभ्या नवेद्यं निर्व० तमहर उज्जवल जोति जगाय, दीपमों पूजी श्रीजिनराय । महासुख होय, दग्वे नाथ परममुख होय ॥ पांचों मेरु अमी जिनधाम, मत्र प्रतिमाको कगें प्रनाम । महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ॥ ६ ॥ ओ ह्रीं पंचमझमम्बंजिनचंत्यालयजिनबिम्बंभ्या दीपं निर्व० खेऊं अगर अमल अधिकाय, धूपमों पूजी श्रीजिनराज । महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ।। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० श्री जन पूजा-पाठ संग्रह । पांचों मेरु अमी जिनधाम, सत्र प्रतिमाको करों प्रनाम | महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ॥ ७ ॥ श्रीं ह्रीं पंचमेरूसम्बंधिजिन चेन्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो धूपं नि० सुरम सुवणे सुगंध सुहाय, फलमों पूजौं श्री जिनराय । महामुख होय, देखे नाथ परमसुख होय || पांचों मेरु अमी जिनधाम, सब प्रतिमाको करों प्रनाम | महासुख होय, देखे नाथ परममुख होय ||८|| ह्रीं पंचमेरूसम्बंधिजिनचैत्यालयस्यजिनबिम्बेभ्यो फलं निः आठ दरवमय अरघ बनाय, 'द्यानत' पूजों श्रीजिनराय । महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय || पांचों मेरु सी जिनधाम सब प्रतिमाको करों प्रनाम । महासुख होय, देखे नाथ परमसुख परमसुख होय ॥९॥ ह्रीं पंचमेरूसम्बंधिजिनचैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो अर्थ नि० जयमाला | सोरठा I (i प्रथम सुदर्शन स्वामि, विजय अचल मंदर कहा । विद्युन्माली नाम, पंचमेरु जगमें प्रगट ॥ १०॥ सरी छन्द | प्रथम सुदर्शन मेरु विराजै, भद्रशाल वन भूपर छाजै । चैत्यालय चारों सुखकारी, मनवचतन वंदना हमारी || २ || ऊपर पांच शतक पर सोहै, नंदनवन देखत मन मोहे | चैत्यालय चारों सुखकारी, मनवचतन वंदना हमारी ॥ ३ ॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। साढ़े बासठ सहम उंचाई, वन सौमनस शोभै अधिकाई । चैत्यालय चारों सुखकारी, मनवचतन वंदना हमारी ॥४॥ ऊंचो जोजन महम छत्तीस, पांडुकवन सोहै गिरि सीमं । चैत्यालय चारों सुखकारी, मनवचतन वंदना हमारी ।।५।। चारों मेरु समान वखाने, भूपर भद्रमाल चहुँ जाने । चैत्यालय सोलह सुखकारी, मनवचतन बंदना हमारी ॥६॥ ऊंचे पांच शतक पर भाग्वे, चारों नन्दनवन अभिलाखे । चंत्यालय सोलह सुखकार्ग, मन वचतन बंदना हमारी ॥७॥ साढ़े पचपन महम उतंगा, बन मौमनम चार बहुरंगा। चैत्यालय सोलह सुखकारी, मनवचतन वंदना हमारी ।।८।। उच्च अट्ठाइस महम बनाये, पांडुक चारों वन शुभ गाये। चंत्यालय सोलह सुखकारी, मनवचतन बंदना हमारी ।।९।। सुर नर चारन बदन आव, मा शोभा हम किम मुख गावें। चैत्यालय अस्सी सुखकारी, मनवचतन बंदना हमारी १०॥ दोहा । पंचमेरुकी आरती, पढ़े सुनै जो कोय । 'द्यानत' फल जानं प्रभू, तुरत महासुख होय११॥ ओं ह्रीं पंचमझमम्बन्धिजिनचैत्यालयजिनबिम्बभ्यो अर्घ निर्व० Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | नंदीश्वर द्वीप (अष्टान्हिका) पूजा अडिल्ल छन्द | सर पर में वो अठाई परव है. १०२ 1 नन्दीश्वर सुर जांहि लिये वसु दरव हमें सकति सो नांहि इहां करि थापना, पूजों जिनगृह प्रतिमा है हिन आपना ॥ १ ॥ श्रीं ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीप द्विपंचाशज्जनालयथजिनप्रतिमासमूह ! अत्र अवतर अवतर, संवौपट । अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव त्रपट | कंचन मणिमय भृंगार, तीरथ नीर भरा । तिहुं धार दई निरवार, जामन मरन जरा ॥ नंदीश्वर श्रीजिनधाम, बावन पंज करों । वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंद भाव घरों १ ॥ श्रीं ह्रीं मासोत्तम मासे मासे शुभे शुक्लपने अष्टाह्निकायां महामहोत्सवे नंदीश्वर द्वीप पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तर एक अंजनगिरि चार दधिमुख आठ रतिकर प्रतिदृिशि तरह तरह बावन जिन चैत्यालयेभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा || भवतपहर शीतल वास, सो चन्दन नाहीं । प्रभु यह गुन कीजै सांच आयो तुम दाहीं ॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। १०३ नंदीश्वर श्रीजिनधाम, बावन पंज करों। वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंदभाव धरों२॥ ओं ह्रीं नंदीश्वरोप पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तर चंदनं निर्व० उत्तम अन्नत जिनराज, पंज धरे सोहैं । सब जीते अन्नसमाज, तुम सम अझ को है ॥ नंदीश्वर श्रीजिनधाम, बावन पुंज करों। वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंदभाव धरों ३॥ ओं ह्रीं नंदीश्वरीय पूर्व दक्षिणपश्चिमानर अक्षनान निव.. तुम काम विनाशक देव, ध्याऊं फूलन सौं। लहि शील लक्ष्मी एव, छूटुं मूलन सौ ॥ नंदीश्वर श्रीजिनधाम, बावन पंज करों। वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंदभाव धगें ४॥ ओं हीं नंदीश्वीप पूर्व दक्षिणपश्चिमान पुप्पं निर्व। नेवज इन्द्रियवलकार, सो तुमने चूरा। च: तुम ढिंग सोहे सार, अचरज है पूरा ॥ नंदीश्वर श्रीजिनधाम, वावन पंज करों। वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंदभाव धरों ५॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ 24 श्री जन पूजा-पाठ संग्रह | श्रीनंदीवरद्वीपे पूर्वदक्षिण पश्चिमोत्तरे नवेद्यं निर्व दीपककी ज्योति प्रकाश, तुम तन मांहिं लसै । टूटै करमनकी राश, ज्ञानकणी दरसे ॥ नंदीश्वर श्रीजिनधाम, बावन पंज करों । वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंदभाव घरों ६ ॥ ॐ ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीप पर्वदक्षिणपश्चिमोत्तर दीपं निर्व० कृष्णागरुधूप सुवास, दशदिशि नारि बरे । तिहरषभाव परकाश, मानों नृत्य करे ॥ नंदीश्वर श्रीजिनधाम, बावन पुंज करों । वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंद भाव घरों ७ ॥ श्रीं ह्रीं श्रीनंदीश्वरी पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तर धूपं निर्वा C बहुविधफल ले तिहुंकाल. आनन्द राचत हैं । तुम शिवफल देहु दयाल, सो हम जाचत हैं ॥ नंदीश्वर श्रीजिनधाम, बावन पुंज करों । वसु दिन प्रतिमा अभिराम आनंदभाव घरों = ॥ " ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तर फलं निर्व · यह अर्ध कियो निज हेतु, तुमको अरपत हों । 'द्यानत' कीनो शिवहेत, भूप समरपत हों ॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। १०५ नंदीश्वर श्रीजिनधाम, बावन पुंज करों। वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंदभाव धरों ६॥ ओं ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तर अर्घ निर्व जयमाला दोहा : कातिक फागुन साढ़के, अंत आठ दिनमांहि । नंदीश्वर सुर जात हैं, हम पूजें इह ठाहिं ॥१॥ एकसौ मठ कोड़ि जोजन महा, लाख चौरासिया एकदिशिमें लहा । अाठमों द्वीप नंदीश्वरं भास्वरं, भौन बावन्न प्रतिमा नमों सुखकरं ॥२॥ चारदिशि चार अंजनगिरी गजहीं, महम चौरासिया एकदिशि छाजहीं। ढोलमम गोल ऊपर तले सुन्दरं, भौन बावन्न प्रतिमा नमों सुखकरं ॥३॥ एक इक चार दिशि चार शुभ बावरी, एक इक लाख जोजन अमल जलभरी । चहुंदिशा चार वन लाख जोजन वरं, भौन बावन्न प्रतिमा नमों सुखकर ॥४॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। सोल वापीन मधि मोल गिरि दधिमुखं, सहम दश महा जोजन लखत ही सुखं । बावरी कोन दोमांहि दो रतिकर, भौन बावन्न प्रतिमा नमो मुखकरं ।।५।। शेल बत्तीम इक महम जोजन कहे, चार मोल मिले सर्व बावन लहे । एक इक मीमपर एक जिनमंदिरं, भोन बावन्न प्रतिमा नमों सुग्वकरं ॥६॥ वित्र अट एकमा रतनमय मोह ही, देव देवी सरब नयन मन मोहही। पांचौ धनुप तन पद्मासन-परं, भीन बावन्न प्रतिमा नमा सुखकरं ।।७।। लाल नख मुख नयन स्याम अरु स्वेन हैं, स्याम रंग भौंह सिर केश छवि देत हैं। वचन बोलत मनों हंमत कालुपहरं, भोन बावन्न प्रतिमा नमों सुखकरं ॥८॥ कोटिशशि भानुदति तेज छिप जात है, महा वैगग्य परिणाम उहगत है। वयन नहिं कहैं लखि होत मम्यकपरं, भौन बावन्न प्रतिमा नमों सुखकरं ॥९॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। मोरठा। नन्दीश्वर जिनधाम, प्रतिमा महिमा को कहै । 'द्यानत' लीनों नाम, यहै भगति सब मुख करै॥ ओं ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तर पूर्णाऽयं निर्व, दशलक्षण धर्म पूजा। अहिल्न उत्तम छिमा मारदव आरजव भाव है, सत्य शौच संजम तप त्याग उपाव है। आकिंचन ब्रह्मचरज धरम दश सार है, चहुंगति दुग्वने काढ़ि मुकति करतार है ॥१॥ ओं ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म ! अत्रावनगवतम् । मंत्रौपट याही उत्तमनमादिदशलक्षणधर्म : अत्र निष्ट लिष्ट । ठः ठः । श्रां ह्रीं उत्तमनमादिदशलक्षण वम . अत्र मम सन्निहिता भव भव । वपद । मारठा। हेमाचल की धार. मुनिचित सम शीतल सुरभि । भवाताप निवार, दसलक्षण पूजों सदा ॥१॥ ओं ह्रीं उत्तमक्षमा. मार्दव. अाजब. सत्य. शौच. मंयम. नप: त्याग, आकिंचन्य ब्रह्मचयादिदशलनगाधाय जलं नि० ॥१॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ श्री जैन पूजा-पाठ मंग्रह । चन्दन केशर गार, होय सुवास दशों दिशा । भव आताप निवार, दक्षलक्षण पूजौं सदा ॥२॥ ओं ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय चंदनं नि० ॥ २ ॥ अमल अखंडित सार, तंदुल चंद्र समान शुभ। भवआताप निवार, दसलक्षण पूजौं सदा ॥३॥ ओं ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय अक्षतान नि० ॥ ३ ॥ फूल अनेक प्रकार, महके ऊरधलोक लों। भवाताप निवार, दसलक्षण पूजौं सदा ॥४॥ ओं ह्रीं उत्तम क्षमादिदशलक्षणधर्माय पुष्पं नि० ।। ४ ।। नेवज विविध निहार, उत्तम पटरस संजुगत । भवाताप निवार, दसलक्षण पूजौं सदा ॥५॥ ओं ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय नवयं नि: ॥ ५॥ वाति कपूर सुधार, दीपक जोति सुहावनी । भवाताप निवार, दसलक्षण पूजों सदा ॥६॥ प्रां ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय दीपं नि० ॥ ६॥ अगर धूप विस्तार, फैले सर्व सुगन्धता । भवाताप निवार, दसलक्षण पूजौं सदा ॥७॥ श्रां ह्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधमाय धूपं नि० ॥ ७ ॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। १०६ फल की जाति अपार, घ्राण नयन मनमोहने। भवाताप निवार, दसलक्षण पूजौं सदा ॥८॥ __ओं ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय फलं नि० ॥ ८ ॥ आठों दख संवार, 'द्यानत' अधिक उछाहसों। भवआताप निवार, दसलक्षण पूजौं सदा ॥६॥ श्रां ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षधर्माय अब नि: ॥ ६ ॥ अंग पूजा (मोरठा)। उत्तम छिमा पीडै दुष्ट अनेक, बांध मार बहु विधि करें । धरिये छिमा विवेक, कोप न कीजै प्रीतमा ॥१॥ चौपाई मिश्रित गीता छन्द। उत्तम हिमा गहो रे भाई, इहभव जम परभव सुखदाई । गाली सुनि मन खेद न आनो, गुनको औगुन कहै अयानो । कहिहै अयानो वस्तु हीन, बांध मार बहुबिधि करै । घरतै निकारे तन विदार, वर जो न तहां धरै ॥ ते करम पूरव किये खोटे, सहै क्यों नहिं जीयरा । अतिक्रोध अगनि बुझाय प्रानी, साम्यजल ले सीयरा ॥१॥ आं ह्रीं उत्तमक्षमाधमांगाय अध्य निवपार्माति स्वाहा ॥१॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। उत्तम मार्दव मानमहाविपरूप करहि नीचगति जगतमें । कोमल सुधा अनूप, सुख पार्व प्रानी सदा ॥२॥ उत्तम मादेवगुन मन माना, मान करनको कोन ठिकाना । वस्यो निगोदमाहित आया, दमरी रूकन भाग विकाया । रूकन विकाया भाग वत, देव इकइन्द्री भया। उत्तम मुत्रा चांडाल हुआ, भूप कीड़ों में गया । जीतव्य-जोवन-धन-गुमान, कहा कर जल बुदबुदा ।। करि विनय बहुगुन बड़े जनकी, ज्ञानका पावं उदा ।। आ ही उत्तममादयधर्मागाय अन्य निवपार्माति स्वाहा ।।२।। उत्तम आर्जव कपट न कीज कोय, चोरनके पुर ना बसे । सरल सुभाषी होय, ताके घर बहु संपदा ॥३॥ उत्तम आर्जवरीति बखानी, रञ्चक दगा बहुत दुखदानी । मनमें होय मो वचन उचरिये, वचन होय सो तनमा करिये।। करिये सरल तिहुंजोग अपने, देख निरमल आरसी । मुख करें जैमा लखे तसा, कपट प्रीति अंगारसी ।। नहिं लहै लछमी अधिक छलकरि, करमबंध विशेषता। भय त्यागि दृध बिलाव पीव, आपदा नहिं देखता ॥३॥ ओं ह्रीं उत्तमाजवधर्मागाय अयं निवपार्माति स्वाहा । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | उत्तम सत्य " कठिन वचन मति बोल, पर- निन्दा अरु झूठ तज । सांच जवाहर खोल, सतवादी जग में सुखी ॥ ४ ॥ उत्तम सत्यवरत पालीजै, पर विश्वासघात नहि कीजै । सांचे झूठे मानुप देखो आपन पूत स्वपास न पंखो । पेखो तिहायत पुरुष सांचे को, दर सब दीजिये । मुनिराज श्रावक की प्रतिष्ठा, सांचगुन लख लीजिये || ऊँचे सिंहासन बैठि वसुनृप, धरमका भूपति भया । वच कूटती नरक पहुँचा, सुरंग में नारद गया ||४|| ह्रीं उत्तमसत्यवगाय अन्य निर्वपामीति स्वाहा ॥ उत्तम शौच १११ देहमाँ । तपस्या धरि हिग्दै संतोष, करहु शौच सदा निरोप धरम बड़ो संसार में ॥ ५ ॥ उत्तम शौच सर्व जग जानो, लोभ पाप को बाप बखानो । आमा फांस महा दुखदानी, सुख पाव सन्तोपी प्रानी || प्रानी सदा शुचि शील जप तप ज्ञानध्यानप्रभावतें । नित गंगजमुन समुद्र न्हाये अशुचिदीप सुभावतें ॥ ऊपर अमल मल भग्यो भीतर, कौन विधघट शुचि कहैं । बहु दे मैली सुगुनथैली, शौचगुन साधु ल || ५ ॥ श्री ही उत्तमशीचधर्मा गाय अर्थ निर्वपामीति स्वाहा । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। उत्तम संजम काय छहों प्रतिपाल, पचेंन्द्री मन वश करो मंजमरतन संभाल, विषयचोर बहु फिरत हैं ॥६ उत्तम संजम गहु मन मेरे, भवभवके भाजै अघ तेरे सुरग नरकपशुगतिमें नाहीं, आलमहरन करन सुख ठाहीं। ठाहीं पृथ्वी जल अग्नि मारुत, रूख त्रस करुना धरो सपरसन रसना घ्रान नेना, कान मन सब बस करो। जिस बिना नहिं जिनराज सीझे, तू रुलो जग-कीच में । इक घरी मत विसरो करो नित, आयु जममुख बीचमें ॥६॥ __ओं ह्रीं उत्तमसंयमधर्मागाय अध्यं निर्वपार्माति स्वाहा । उत्तम तप तप चाहैं सुरराय, करमशिखरको वज्र है। द्वादशविधि सुखदाय, क्यों न कर निज सकतिसम ।।७।। उत्तम तप सब माहिं बखाना, करमशिखरको बज्र समाना। बस्यो अनादि निगोद मंझारा, भूविकलत्रय पशुतन धारा ॥ धारा मनुष तन महादुर्लभ सुकुल आयु निरोगता। श्रीजेनवानी तत्वज्ञानी, भई विषयपयोगता ॥ अति महादुरलभ त्याग विषय, कषाय जो तप आदरै । नरभव अनूपम कनक घरपर, मणिमयो कलसा धरै ॥७॥ ओं ह्रीं उत्तमतपधर्मागाय अध्य निर्वपार्माति स्वाहा। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह उत्तम त्याग ११३ परकार, दीजिये । दान चार धन बिजली उनहार, उत्तम त्याग को जग सारा, औषधि शास्त्र अभय आहारा । चार संघ को नरभवलाहो नरभवलाहो लीजिये | ८ || संभारे ॥ परिनया | निचे रागद्वेष निखारै ज्ञाता दोनों दान दोनों संभार क्रूप जऩमम दरब घरमें निज हाथ दीजे साथ लीजे, खाय खोया बह गया || aft साध शास्त्र अभयदिव्या, त्याग राग विरोधको । विन दान श्रावक साध दोनों, लहैं नाहीं बोध को ॥ ही उत्तमत्यागधर्मा गाय श्रयं निर्वपाम ति स्वाहा। उत्तम आकिंचन परिग्रह चौबिस भेद, त्याग करें मुनिराजजी । तिसुनाभाव उच्छेद, घटती जान जान घटाइये ॥९ उत्तम आकिंचन गुण जानो, परिग्रह चिन्ता दुख ही मानो । फांस तनकसी तनमें साल, चाह लंगोटी की दुख भालं ॥ भाले न समता सुख कभी नर, बिना मुनि-मुद्रा धरें । धनि नगनपर तन नगन ठाडे, सुर असुर पायनि परें । घरमांहि तिसना जो घटावे, रुचि नहीं संसारसौं । बहु धन बुरा हू भला कांहये, लोन पर उपगारसौं || ९ || Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह ॐ ह्रीं उत्तम आकिंचन्यधर्मागाय अध्य निर्वपामीति स्वाहा। उत्तम ब्रह्मचर्य शीलवाड़ि नौ राख. नाँ ब्रह्मभाव अन्तर लखो । करि दोनों अभिलाख, करहु सफल नर-भव सदा ||१०|| उत्तम ब्रह्मचयं मन आनी, माता वहिन सुता पहिचानौ । सहैं बानवर्षा बहु सूरे, टिकै न नयन बान लखि क्रूरें || करे तियाके अशुचितन में, कामगेगी रति करें । बहु मृतक सड़हिं ममानमाहीं, काक ज्यों चोंचें भरें ॥ संसार में विपबेल नारी, तजि गये जोगीश्वरा । 'घात' धरम दर्शपैड़ चढ़ि के शिवमहल में पग धरा ॥ १० ॥ ओ ही उत्तमब्रह्मचर्यधर्मागाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा । जयमाला दोहा | दशलच्छन बन्दों सदा मनवांछित फलदाय | कहीं अारती भारती, हमपर होहु सहाय ॥ १ ॥ बेसरी छंद । उत्तम छिमा जहां मन होई, अन्तर बाहर शत्रु न कोई । उत्तम मार्दव विनय प्रकामे, नाना भेद ज्ञान सत्र भास ||२|| उत्तम आर्जव कपट मिटाव, दुरगति त्यागि सुगति उपजावै । उसम सत्य वचन मुख बोलें, सो प्रानी संसार न डोले ||३|| Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ११५ उत्तमशौच लोभपरिहारी, संतोषी गुण रतन भंडारी । उत्तम संयम पाल जाता, नरभव सफल करे ले साता ॥४॥ उत्तम तप निरवांछित पाले, सो नर करमशत्रुको टाले । उत्तम त्याग करे जो कोई, भोगभृमि सुर शिवसुख होई ।।५।। उत्तम आकिंचन ब्रत धार, परमममाधिदशा विसतारें । उत्तम ब्रह्मचर्य मन लाब, नग्सुरसहित मुकतिफल पावै ॥६॥ दाहा। करे करमकी निरजरा, भवपींजरा विनाशि। अजर अमरपदको लहै, 'द्यानत' सुखकी राशि ॥ ओं ह्रीं उत्तमक्षमा. मादव. प्राजब. सत्य शौच. संयम. तप, त्याग, आकिचन्यब्रह्मचर्यदशलक्षणधर्माय पूर्णाघ्य निर्वपामीति स्वाहा । रत्नत्रय पूजा। दोहा चहुंगतिफणिविषहरनमणि, दुख पावक जलधार। शिवसुखसुधासरोवरी; सम्यक्त्रयी निहार ॥१॥ ओं ह्रीं सम्यग्रत्नत्रय ! अत्र बनगवतर! संवौषट्। ओं ही सम्यरत्नत्रय! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ओं ह्रीं सम्यग्रसत्रय ! अत्र मम सनिहिता भव भव वषट । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। मांगठा। क्षीरोदधि उनहार, उज्वल जल अति सोहना। जनम रोग निरवार, सम्यकरत्नत्रय भजों ॥१॥ ओ ह्रीं सम्यग्रनत्रयाय जन्मगंगविनाशनाय जलं नि । चंदन केशर गार, परिमल महा सुगन्धमय । जनम रोग निवार. सम्यकरत्नत्रय भजों ॥२॥ ओं ह्रीं सम्यग्रनत्रयाय भवानापविनाशनाय चन्दनं नि । तंदुल अमल चितार. वासमती सुखदासके। जनम रोग निरवार. सम्यकरत्नत्रय भजों ॥३॥ ओ ह्रीं सम्यग्रनत्रयाय अक्षयपढ़प्राप्तय अक्षतान नि। महके फूल अपार. अलि गुंजै ज्यों थुति करें । जनम रोग निरवार, सम्यकरत्नत्रय भजों ॥४॥ श्रां ह्रीं सम्यरत्नत्रयाय कामवाण विध्वंसनाय पुष्पं नि । लाडू बहु विस्तार, चीकन मिष्ट सुगंधयुत । जनम रोग निरवार, सम्यकरत्नत्रय भजों ॥५॥ ओ ह्रीं सम्यग्रत्नत्रयाय क्षुधागंगविनाशनाय नैवद्यं नि। दीप रतनमय सार. जोति प्रकाश जगतमें। जनम रोग निरवार, सम्यकरत्नत्रय भजों ॥६॥ श्रां ह्रीं सम्यरत्नत्रयाय माहान्धकारविनाशनाय दीपं निः। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ मंग्रह। धूप सुवास विथार. चन्दन अगर कपूर की। जनम रोग निग्वार. सम्यकरत्नत्रय भजों ॥७॥ आँ ह्रीं सम्यगन्नत्रयाय अकर्म विनाशनाय धूपं निः । फल शोभा अधिकार. लोग छुहारे जायफल । जनम रोग निवार, मम्यकरत्नत्रय भजों ॥८॥ श्रा ही सम्यारत्नत्रयाय मोक्षफलप्राप्रय फलं नि । आठ दम्ब निग्धार. उत्तमसों उत्तम लिये। जनम रोग निग्वार. सम्यकरत्नत्रय भजों ॥६॥ श्रा ही सम्यग्रत्नत्रयाय अनप्यपदप्रामय अन्य निक। सम्यकदर्शनज्ञान, व्रत शिवमग तीनों मयी। पार उतारण जान, 'द्यानत' पूजों व्रत सहित ॥ ओ ही मम्यग्रन्नत्रयाय पृणाव्य नि । दर्शन पूजा । दाहा। सिद्ध अष्टगुनमय प्रगट, मुक्रजीव सोपान । जिहं बिन ज्ञानचरित्र अफल,सम्यकदर्शप्रमान?॥ ओं ही अष्टांगमम्यग्दर्शन । अत्र अवतर अवतर! मंवौषट् । ा ही अष्ट्रांगमम्यग्दर्शन ! अत्र तिष्ठ निष्ट ठः ठः। ओं ह्रीं अष्टांगमम्यग्दर्शन । अत्र मम मन्निहितं भव भव । वपट । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | सोरठा । नीर सुगन्ध अपार, त्रिषा हरै मल छय करै । सम्यकदर्शनसार, आठ अंग पूजौं सदा ॥१॥ श्रीं सम्यग्दर्शनाय जलं निः ॥ ११८ जल केशर घनसार, ताप हरै शीतल करें । सम्यकदर्शनसार, आठ अंग पूजों सदा ॥२॥ श्रीं ह्रीं सम्यग्दर्शनाय चंदनं निः । अनूप निहार, दारिद ना सुख करें । सम्यक दर्शनसार, आठ अंग पूजौं सदा ॥ ३ ॥ श्रीं ह्रीं श्रष्टांग सम्यग्दर्शनाय अनं निः । पुहुप सुवास उदार, वेट हरे मन शुचि करे । सम्यकदर्शनसार, आठ अंग पूजों सदा ॥४॥ श्रीं ह्रीं सम्यग्दर्शनाय पुष्पं निः । नेवज विविध प्रकार. क्षुधा हरै थिरता करें | सम्यकदर्शनसार, आठ अंग पूजों सदा ॥५॥ ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय नैवेयं निः दीप ज्योति तमहार. घटपट परकाशै महा । सम्यकदर्शनसार, आठ अंग पूजों सदा ||६|| श्रीं ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय दीपं निः । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह। ११६ धूप घानसुखकार, रोग विघन जड़ता हरै। सम्यकदर्शनसार, आट अङ्ग पूजों सदा ॥७॥ श्रा ही अष्टांगमम्यग्दर्शनाय धूपं नि० । श्रीफल आदि विधार, निह सुरशिवफल करें। सम्यकदर्शनसार, आठ अङ्ग पूजों सदा ॥८॥ ओं ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय फलं नि । जल गन्धानत चाम. दीप धूप फल फूल चरु । सम्यकदर्शन सार. आठ अंग पूजों सदा ॥६॥ ओ ही अपांगमम्यग्दर्शनाय अध्य निर्व, ।।।। ___ जयमाला । दाहा। आप आप निहचे लग्वे. तत्वप्रतीति व्योहार । रहित दोष पच्चीस है, सहित अष्टगुन सार॥१॥ ___ चौपाई मिश्रित गीता छन्द । सम्यकदरमन ग्तन गहीजें, जिनवचमें मंदेह न कीजै । इहभव विभव चाह दुखदानी. परभव भोग चहै मत प्रानी ।। प्रानी गिलान न करि अशुचि लखि, धरमगुरु प्रभु परखिये। परदोप ढकिये धरम चिगतेको, सुथिर कर हरखिये ॥ चउसंघसों वान्मल्य काज, घरमकी परभावना । गुण पाठमों गुन अाट लहिक, इहां फेर न आवना ।।२।। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ओं ह्रीं अष्टांगमहिनपञ्चविंशतिदोषरहिताय सम्यग्दर्शनाय पू. णाध्य निर्वपार्माति स्वाहा। ज्ञान पूजा। ___ दोहा।। पंचभेद जाके प्रकट, ज्ञेय प्रकाशन भान। मोह तपन-हर-चंद्रमा, सोई सम्यकज्ञान ॥१॥ ओहीं अष्टविधमम्यग्ज्ञान अत्र अवतर अवतर संवौपट | ओं ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञान अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ओं ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञान अत्र मम मनिहितं भव भव वपट । सोरठा नीर सुगंध अपार, त्रिषा हरै मल छय करै । सम्यकज्ञान विचार, आठभेद पूजों सदा ॥१॥ ओं ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय जलं निवपामाति स्वाहा । जलकेशर घनसार, ताप हरे शीतल करे । सम्यकज्ञान विचार. आठभेद पूजों सदा ॥२॥ ओं ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय चढ़नं निर्वपामीति स्वाहा । अछत अनूप निहार, दारिद नाशै सुग्व भरै । सम्यकज्ञान विचार, आठभेद पूजों ॥३॥ ओं ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय अक्षतान निर्व पामीति स्वाहा । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह। १२१ पुहुप सुवास उदार, खेद हरे मन शुचि करें । सम्यकज्ञान, विचार आठभेद पूजों सदा ॥४॥ ओं ह्रीं अष्टविधमम्यग्ज्ञानाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा । नेवज विविध प्रकार, तुधा हरै थिरता करै । सम्यकज्ञान विचार, आठभेद पूजों सदा ॥५॥ ओं ह्रीं अष्टविधग्यम्यग्ज्ञानाय नैवेद्य विन पामीति स्वाहा । दीपज्योति तमहार. घटपट परकाशै महा। सम्यकज्ञान विचार, आठभेद पूजों सदा ॥६॥ ओं ह्रीं अष्टविधमम्यग्ज्ञानाय दीपं निवपााति स्वाहा । धूप घानसुखकार, रोगविघन जड़ता हरै। सम्यकज्ञान विचार, आठभेद पूजों सदा ॥७॥ ओं ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय धूपं निवपार्मानि स्वाहा । श्रीफलादि विथार, निह सुरशिवफल करै । सम्यकज्ञान विचार, आठभेद पूजों सदा ॥८॥ श्रां ह्रीं अप्रविधसम्यग्ज्ञानाय फलं निवपामानि स्वाहा । जल गन्धाचत चारु, दीप धूप फल फूल चरू। सम्यकज्ञान विचार, आठभेद पूजों सदा ॥६॥ ओं ह्रीं अष्टविधमम्यग्ज्ञानाय अध्य निर्वपार्मानि म्वाहा । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ श्री जेन पूजा-पाठ संग्रह जयमाला । दोहा। आप आप जाने नियत, ग्रन्थपठन व्योहार । मंशय विभ्रम मोह विन अष्टअङ्ग गुनकार ॥१॥ चौपाई मिश्रिन गीता छन्द।। सम्यकजानरतन मन भाया, आगम तीजा नन बताया । अच्छर अरथ शुद्ध पहिचानो, अच्छर अरथ उभय मंगजानी ।। जानी सुकाल पठन जिनागम, नाम गुरु न छिपाइये । तप रीति गहि बहु मान देकं, विनय गुन चित लाइये ।। ए आठ भेद करम-उछेदक ज्ञानदपण देखना । इस ज्ञानहीसों भरत सीझा, और मब पट पेखना ।।१।। आँ ह्रीं अपविधमम्यग्ज्ञानाय पूर्णाव्य निर्वपार्मानि म्वाहा ।। चारित्र पूजा। दाहा। विषयरोग औषधि महा, दवकषाय जलधार । तीर्थंकर जाकों धरै, सम्यकचारितसार ॥१॥ ओ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्र ! अत्र अवतर अवतर संवौपट ओ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्च रित्र ! अत्र तिष्ट तिष्ठ ठः ठः । ओं ह्रीं त्रयोदशविधमम्यक्वारित्र अत्र मम सन्निहितं भव भव वपट । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह। १२३ सोरठा। नीर सुगन्ध अपार, त्रिषा हरे मल छय करे । सम्यकचारित सार, तेरहविध पूजों सदा ॥१॥ ओं ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय जलं निव० जलकेसर घनसार, ताप हरै शीतल करै । सम्यकचारित सार, तेरहविध पूजों सदा ॥२॥ ओं ह्रीं त्रयोदशविधमम्यश्चारित्राय चंदनं० । अछत अनूप निहार, दारिद नास सुख भरै । सम्यकचारित सार, तेरहविध पूजों सदा ॥३॥ ओ ही त्रयोदशविधमम्यक्चारित्राय अक्षतान नि, पुहुप सुवास उदार, खेद हरै मन शुचि करै। सम्यकचारित सार, तेरहविध पूजों सदा ॥४॥ ओं ही त्रयोदशविधमम्यकचारित्राय पुष्पं नि० नेवज विविधप्रकार, क्षुधा हरै थिरता करै । सम्यकचारित सार, तेरहविध पूजों जदा ॥५॥ ओं ह्रीं त्रयोदशविधमम्यकचारित्राय नवद्यं नि । दीपजोति तमहार, घटपट परकाश महा । सम्यकचारित सार, तेरहविध पूजों सदा ॥६॥ ओं ह्रीं त्रयोदशविधसम्यकचारित्राय दीपं निक Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। धूप घाण सुखकार, रोग विघन जड़ता हरै। सम्यकचारित सार, तेरहविध पूजों सदा ॥७॥ नों ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय धूपं निवपार्माति श्रीफलादि विथार. निश्चय सुरशिवफल करे। सम्यकचारित सार, तेरहविध पूजों सदा ॥८॥ ओं ह्रीं त्रयोदशविधमम्यक्चारित्राय फलं निवपार्माति । जल गन्धाक्षत चारु. दीप धूप फल फूल चक। सम्यकचारित सार, तेरहविध पूजों सदा ॥६॥ श्रओं ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय अब निर्व जयमाला । दाहा । आप आप थिर नियत नय, तपसंजम व्योहार। स्वपर दया दोनों लिये, तरहविध दुखहार ॥१०॥ चौपाई मिश्रिन गीता छन्द । मम्यकचारित रतन संभालो, पांच पाप तजि के व्रत पालो। पंचसमिति त्रय गुपति गही, नरभव मफल करहु तन ही बीजै मदा तनको जतन यह, एक संयम पालिये । बहु रुल्यो नरक गिनोद मांहीं, कषाय विषयनि टालिये ।। शुभकरम जोग सुघाट आया, पार हो दिन जात है। 'द्यानत' धरमकी नाव बैठो, शिवपुरी कुशलात है ॥१॥ ओं ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय महाघ निर्व० Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। १२५ समुच्चय जयमाला । दोहा। सम्यकदरशन ज्ञानव्रत, इनबिन मुकति न होय। अंध पंगु अरु आलसी, जुदे जलें दव लोय ॥१॥ ___ चौपाई। ताप ध्यान सुथिर बन आवं, ताके करमबंध कट जाये। तासों शिवतिय प्रीति बढ़ावे, जो मम्यकरतनत्रय ध्यावे ।।२।। ताकौं चहुंगति के दुःख नाहीं, मो न पर भवसागर माहीं। जनम जगमृत दोप मिटावे, जो सम्यकपतनत्रय ध्यावे ।।३।। सोई दशलच्छनको साथै, सो सोलह कारण आराधे । सो परमातम पद उपजाव, जो सम्यकरतनत्रय ध्यावे ॥४॥ सोई शक्रचक्रिपद लेई, तीन लोक के सुख विलसेई । सो रागादिक भाव बहावे, जो सम्यकरतनत्रय ध्यावे ।।५।। मोई लोकालोक निहारे, परमानन्द दशा विसतारे । आप तिर औरन तिरवावं, जो मम्यक रतनत्रय ध्यावे ॥६॥ दाहा। एकस्वरूप प्रकाश निज, वचन कह्या नहिं जाय। तीनभेद व्योहार सब, द्यानतको सुखदाय ॥७॥ ओं ह्रीं सम्यरत्नत्रग्याय महाघ निवपामीति स्वाहा। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह | आदिनाथ पूजा । डिल्ल छन् । कर्मभूमिकी आदि ऋषभ जिनवर भये, धर्मपंथ दरशाय सकल जग सुख दये । तिनके पद उर ध्याइ हरष मनमें धरू, अत्र निष्ठ जिनराज चरण हिरदे धरू ॥ श्रीं ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्र श्रावतरावतर संवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठःठः । स्थापनं । अत्र मम अन्निहितो भव भव । वषट् । सन्निधिकरणं । १२६ सुन्दरी छंद । परम पावन उज्वल लायके, जल जिनेश्वर चरण चढ़ायके । जन्म मरण त्रिदोष सबै हरू, ऋषभदेव चरण पूजा करू ं ।। ह्रीं श्री आदिनाथजिनेंद्राय जलं निर्वपामीति स्वाहा । सरस चंदन गंध सुहावनो, परम शीतल गुण मन भावनो । जन्मतापतृषादुखको हरू, ऋषभदेव चरण पूजा करूं ।। ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेंद्राय चंदनं निर्व० । शरदइन्दु समान सुहावनो, अमल अक्षत स्वच्छ प्रभावनो । सहजरूप सुधीरमनी वरू, ऋषभदेव चरण पूजा करू ॥ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेंद्राय अक्षतं निर्वः । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह। कुसुम रत्न सुवर्णमई करों, कनक भाजनमें बहुते भरों । मदनवान महा दुखको हरू, ऋषभदेव चग्न पूजा करू॥ ओं ह्रीं श्रीश्रादिनाथजिनंद्राय पुप्पं निव० सरस मोदन पावक लीजिये, चरु अनेक प्रकार सु कीजिये । असवेद्य क्षुधा दुखको हरू ऋषभदेव चरन पूजा करू ॥ आं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेंद्राय नवेद्यं निर्व रतन दीप अमोलिक लीजिये, जिन सुयोग्य मनोहर कीजिये। अतुल मोहमहातमको हरू, ऋषभदेव चग्न पूजा करू ॥ आं ह्रीं श्रीआदिनाजिनंद्राय दीपं निव० सरम धूप सुगंध सुहावनी, अगरआदिक द्रव्य सुपावनी । धूप खेय दुखद-विधिको हरू, ऋषभदेव चरन पूजा करू ॥ ओं ह्रीं श्रीश्रादिनाथजिनेद्राय धूपं निर्व, मरस मिष्ट फलावलि लीजिये, चरण जिनवर भेट करीजिये। सहज रूप सुधीरमणी वरूं, ऋपभदेव चरन पूजा करू। ओं ह्रीं श्रीआदिनाजिनंद्राय फलं निव जल फलादिक द्रव्य मिलायक, कनकथाल सुअर्घ बनायके । निज स्वभाव अरी विधिको हरू, ऋषभदेव चरन पूजा करू॥ ओं ह्रीं श्रीआदिनाजिनंद्राय अनय पदप्राप्तय अर्घ निर्व Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह पंचकल्याणक | मोतियादाम छंद । स वी द्वितीया दिन जान, तजो मरवारथमिद्ध विमान । भयौ गरभागम मंगल मोय, नमं जिनको नित हर्षित होय ॥ श्रीदिन जिनंद्राय आषाढ़वादी द्वितीयायां गर्भकल्याप्राप्ताय अघ निवपामीति स्वाहा । १२८ सुदी नवमी दिन जान, गयौ शुभ तादिन जन्मकल्यान । सुरासुर इन्द्र शचीजुत आय, करौ गिरिशीम महोत्सव जाय ।। श्रीदिनाथ जिनेंद्राय चैतवदीनवम्यां जन्मकल्याणक - प्राप्ताय अर्ध निर्व वदी नवमी शुभ चत बताय, प्रभू ढिंग देवऋषीश्वर आय । करी बहु भक्ति नवाय सुभाल, लयौ तप तादिन श्रीजिन हाल || श्रीं ह्रीं श्री आदिनाथजिनेंद्राय चेतवदानवम्यां तपकल्या एकप्राप्ताय निर्व० वदी शुभ ग्यारस फाल्गुण जान, सु तादिन घाति हने भगवान । करौ वरकेवल ज्ञानप्रकाश, हरे जगको भ्रममोहविलास || ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेंद्राय फाल्गुणवदी एकादशम्यां ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय अर्घ निर्व० वदी शुभ माघचतुर्दसि जान, लयौ प्रभुने शिवथान महान । करौ बहु उत्सव इन्द्रमहिंद्र, भरौ मम आस सदा जिनचद्र ।। ह्रीं श्राश्रदनाथ जिनेंद्राय माघवदीचतुर्दश्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय अघ निर्व C Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ श्री जैन पूजा-पाठ संप्रह। ___जयमाला दोहा। आदि धर्म करता प्रभू, आदि ब्रह्म जगदीश। तीर्थंकर पद जिह लयो, प्रथम नवाऊं शीस ॥ भुजंगप्रयात छंद। . नमों देव देवेंद्र तुम चर्ण ध्यावे, नमों देव इन्द्रादि सेवक कहाव । नमों देव तुमको तुम्हीं सुक्खदाता, नमों देव मेरी हरो दुख असाता ॥१॥ तुम्ही ब्रह्मरूपी सुब्रह्मा कहावी, तुम्हीं विष्णु स्वामी चराचर लखावो । तुम्ही देव जगदीश सर्वज्ञ नामी, तुम्ही देव तीर्थश नामी अकामी ॥२॥ सुशंकर तुम्ही हो तुम्हीं सुक्खकारी, सुजन्मादि त्रयपुर तुम्हीं ने विदारी । धरै ध्यान जो जीव जगके मझारी, करै नास विधिको लहै ज्ञान भारी ॥३॥ स्वयंभू तुम्ही हो महादेव नामी, महेश्वर तुम्ही हो तुम्हीं लोकस्वामी । तुम्हें ध्यानमें जो लखे पुन्यवंता, वही मुक्तिको राज विलसे अनंता ॥४॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | १२८ ब तुम्हीं हो विधाता नमें जो जो तुम्हें सो हरौ कर्मके फंद निजानंद दीज दीर्जे नमों तुम्हीं नंददाता, सदानंद पाता । दुखकंद मेरे, चर्ण तेरे ||५|| लीनौ, कीनो । वास रिषभदेव स्वामी, महा मोहको मारि निजराज महाज्ञानको धारि शिव सुनों अर्ज मेरी मुझे वास निजपास दीजे सुधामी || ६॥ दोहा । नाभिराय मरुदेवि सुत, सदा तुम्हारी आस । मनवचकायलगायके, नमें जिनेश्वरदास ॥ १ ॥ श्रीं ह्रीं श्री आदिनायजिनेंद्राय अर्घ निर्व डिल्ल छंद । वर्तमान जिनराय भरतके जानिये, पंचकल्यानक धारि गये शिव थानिये । जो नर मनवचकाय प्रभृ पूजे सही, सो नर दिवसुख पाय लहै अष्टम मही || इत्याशीर्वादः । पुष्पांजलि क्षिपेन । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह। १२६ १६ अथ श्रीशान्तिनाथ जिन पूजा ( रामचन्द्र कृन ) अडिल्ल । शांति जिनेश्वर नर्म तीर्थ वसु-दुगुण ही । पंचम चक्री अनंग-दुविधषट सुगुण ही ।। तृणवनिधि सब छांड धार तप शिव वरी । आह्वानन विधि करू वारत्रय उच्चरी ॥१॥ आं ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्र अत्रावतगवतर मंत्रौपट आह्वाननम । ओ ह्रीं श्रीशांतिनाथ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम । ओं ह्रीं श्रीशांतिनाजिनेन्द्र अत्र मम सन्निहिता भव भव वषट सन्निधीकरणम ॥ अथ अप्टक । ( नागकछंद)। शलहेम ते पनंत आपगासु व्योम ही । रत्नमुंग धार नीर शीत अंग सोम ही ॥ रोग मोग आधि व्याधि पूजतें नसाय है। अनंत सोख्य मार शांन्तिनाथ सेय पाय है ॥१॥ ओ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनन्द्राय गर्भ. जन्म. नप. ज्ञान, निर्वाण पंचकल्याणकप्राप्ताय जन्ममृत्युजगगंगविनाशनाय जलं निर्वपार्माति स्वाहा। चंदनादि कंकुमादि गंध सार ल्यावहीं । भृङ्गद गंजते समीर संग ध्यावहीं ॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह रोग सोग आधि व्याधि पूजते नसाय है। अनंत सौख्य सार शांतिनाथ सेय पाय है ॥२॥ ओं ह्रीं श्री शांतिनाथजिनेन्द्राय गर्भ. जन्म, तप. ज्ञान. निर्वाण पंचकल्याणकप्राप्ताय संसागताप-रोग-विनाशनाय चन्दनं निर्व. पामीति स्वाहा। इंदु कुंद हारतें अपार स्वेत शालि ही । दुत्तिखंड-कार पुंज धारिये विशाल ही ।। रोग सोग आधि व्याधि पूजतें नसाय है। अनंत सौख्यसार शांतिनाथ सेय पाय है ॥३॥ ओं ह्रीं श्रीशांतिनाजिनेन्द्राय गर्भ. जन्म. तप, ज्ञान. निर्वाण पंचकल्याणकप्राप्ताय अक्षय-पदप्राप्तये अक्षतान निवपामाति स्वाहा। पंच वर्ण पुष्प सार लाइये मनोज्ञ ही । स्वर्ण थाल धारिये मनोज नाश योग्य ही ॥ रोग सोग आधि व्याधि पूजतें नसाय है । अनंत सौख्य सार शांतिनाथ सेय पाय है ॥४॥ ओं ह्रीं श्रीशांतिनाथ जिनेन्द्राय गर्भ. जन्म. तप. ज्ञान, निर्वाण पंचकल्याणकप्राप्ताय काम-वाण-विनाशनाय पुष्पं निवपार्माति स्वाहा। खंड घृत कार चारु सद्य मोदकादि ही । सुष्टु मिष्ट हेम थाल धार भव्य स्वाद ही ॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह । १३१ रोग मोग अधि व्याधि पूजते नमाय है । अनंत सौख्य सार शांतिनाथ सेय पाय है ॥५॥ ओ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय गर्भ जन्म नप ज्ञान निर्वाण पंचकल्याणकप्राप्ताय क्षुधा-रोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा । · दीप ज्योति की उद्योत भ्रम होत ना कदा | रत्न थाल धार भव्य मोह ध्वांत हैं विदा || रोग सोग आधि व्याधि पूजतें नमाय है । अनंत सौख्य सार शांतिनाथ सेय पाय है ||६|| श्रीं ह्रीं श्रीशा निनाथजिनेन्द्राय गर्भ जन्म नप, ज्ञान, निर्वाण पंचकल्याणकपाप्राय मोहांवकार - गंग-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा | ही । जार ही ॥ - अग्रचंदनादि द्रव्यमार सर्व धार सर्ण धूप दानमें हताश संग रोग योग व्याधि व्याधि पूजते नमाय है । अनंत सांख्य सार शांतिनाथ सेय पाय है ||७|| ह्रीं श्रीशांतिनाथ जिनेन्द्राय गर्भ जन्म. तप ज्ञान निर्वाण पंचकल्याणकप्राप्ताय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा । घोटकेन श्री- फलेन हेम थाल को भरे । जिनेश के गुण गाय सर्वन को हरे || रोग मोग आधि व्याधि पूजते नसाय है । अनंत सौख्यसार शांतिनाथ से पाय है ॥८॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह ओं ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेद्राय गर्भ. जन्म, तप. ज्ञान, निर्वाण पंचकल्याणकप्राप्ताय मोक्ष-फल-प्राप्तये फलं निवपामीति स्वाहा । (छप्पय) शरद इंदुसम अंबु तीर्थउद्भव तृटहारी । चंदन दाह निकंद शालि शशितें द्युति भारी ॥ सुर-तरुके वर कुसुम सद्य चरु पावन धारे । दीप रत्नमय ज्योति धूपतें मधु झंकार ॥ लह फल उत्तम अर्घ कर शुभ रामचंद कणथाल भर । श्रीशांतिनाथ के चरणयुग वसुविधि अरचे भाव धर ॥ ओं ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय गर्भ, जन्म. तप. ज्ञान. निर्वाण पंचकल्याणकप्राप्ताय अनर्घपदप्राप्तये अर्घ निर्वपार्माति स्वाहा । _____ अथ पंचकल्याणक । दोहा । सर्वारथसिधितें चये, भाद्रव सप्तमि स्याम । ऐरादे उर अवतरे, जजं गर्भ अभिराम ॥१॥ ओं ह्रीं श्रीशांतिनाजिनन्द्राय भाद्रपद-कृष्णसप्तम्यां गर्भकल्याण-काय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। जेठ चतुर्दशि कृष्ण ही, जनमे, श्रीभगवान । सनपन कर सुरपति यजे, मैं जजहूँ धर ध्यान ॥२॥ ओं ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय ज्येष्ठ-कृष्ण-चतुर्दश्यां जन्मकल्याणकाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा । जेठ असित चउदसि धरयो, तप तज राज महान । सुर नर खगपति पद जजें, मैं जजहूँ भगवान ॥३॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ओं ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्यां तपकल्याणकाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।। पौष शुकल दशमी हने, घाति कर्म दुखदाय । केवल लहि वृष भाषियो, जर्जु शांति पद ध्याय ॥४॥ ओं ह्रीं श्रीशांतिनाथ जिनेन्द्राय पौषशुक्ल दशम्यां ज्ञानकल्याणकाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। कृष्ण चतुर्दशि जेठ की, हन अघाति शिवथान । गए समेदाचल थकी, जजं मोक्षकल्याण ॥५॥ ओं ह्रीं श्रीशांतिनाथ जिनेन्द्राय ज्येष्ठ-कृष्ण-चतुर्दश्यां मोक्षकल्याणकाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा । अथ जयमाला । मोरठा। शांति जिनेश्वर पाय, वंदू मनवचकाय ते । देहु सुमति जिनराय, यं विनती रूचिसों करू ॥ (ढाल मंमार मामग्यिो दाहिला) शांति कर्म वसु हानिक, सिद्ध भये शिव जाय । शांत करो सब लोक में, अरज यही सुख - दाय ॥ शांति करो जग शांत जी ॥२॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। धन नगरी हथना-पुरी, धन्य पिता विश्व-सेन । धन्य उदर ऐरा सती, शांति भये सुख देन ॥ शांति करो जग शांत जी ॥३॥ भाद्रव सप्तमि कृष्ण ही, गर्भकल्याणक ठान। रत्न धनद वरषाइये, पट नव मास महान ॥ शांति करो जग शान्त जी ॥४॥ जेट असित चउदस विषे, . जन्म कल्याणक इंद । मेरु करचो अभिषेक जी. पूज नचे सुरवृद ॥ शांति करो जग शांत जी ॥५॥ हेम वरण तन सोहनो. तुंग धनुष चालीस । आयु वरष लख नरपति, सेवत सहस बत्तीस ॥ शांति करो जग शान्त जी ॥६॥ षट् खंड नवनिधि तिय सवै. चउदह रत्नभंडार। कछ कारण लखके तजे, ग्वण चवअसिय अगार। शांति करो जग शांत जी ॥७॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। देव-ऋषि सब आय के, पूज चले जिन बोध । लेय सुरां शिवका धरी, विरछ नंदी-सुर सोध ॥ शांति करो जग शांत जी ॥८॥ कृष्ण चतुर्दशि ज्येष्ठ की, मन-परजै लह ज्ञान । इंद्र कल्याणक तप करयो, ध्यान धरयो भगवान् ॥ शांति करो जग शांत जी ॥६॥ षष्ठम कर हित असन के, पुर सोमनस मझार । गये दियो पय मित्त जी, वरषे रत्न अपार ॥ शांति करो जग शांत जी ॥१०॥ मौन सहित वसु दुगण ही, वरष करे तप ध्यान । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ___ पौष शुकल दशमी हने, घाति लियो प्रभु ज्ञान ॥ शांति करो जग शांत जी ॥११॥ समव-शरण धनपति रच्यो, कमलासन परि देव । इंद्र नरा षट् द्रव्य की, सुन थित थुति कर एव ॥ शांति करो जग शांत जी ॥१२॥ धन्य युगल पद मोतणो, आयो तुम दरबार । धन्न उभै चख ये भये, वदन जिनेंद्र निहार ॥ शांति करो जग शांत जी ॥१३॥ आज सफल कर ये भये, पूजत श्रीजिन पांय । सीस सफल अब ही भयो, EEEEEEEEEEEEEEE Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। १३७ धोकिये तुम प्रभु आय ॥ शान्ति करो जग शान्त जी ॥१४॥ आज सफल रसना भई, तुम गुणगान करंत ।। धन्य भयो हिय मोतणो, प्रभु पद ध्यान धरंत ॥ शान्ति करो जग शान्त जी ॥१५॥ आज सफल युग मोतणो, श्रवण सुनत तुम बैन । धन्य भये वसु अंग ये, नमत लियो अति चैन ॥ शान्ति करो जग शान्त जी ॥१६॥ राम कहै तुम गुण तणो, इंद्र लहै नहिं पार । मैं मति अलप अजान हूं, होय नहीं विस्तार ॥ शान्ति करो जग शान्त जी ॥१७॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ श्री जैन प्रजा-पाट मंग्रह। वरप सहस पच्चीस ही, पोडश कम उपदेश । देय ममेद पधारिये, माम रहे इक शेष ॥ शान्ति कगे जग शान्त जी ॥१८॥ जेट असित चौदस गये, हन अघाति शिव थान । सुर-पति उत्सव अति करयो. मंगल मान कल्याण ॥ शान्ति करो जग शान्त जी ॥१६॥ सेवक अरज करे सुनो, हो करुणानिधि देव । भवदधि दुग्व भयतं मुझे. नार करू तुम सेव ॥ शान्ति कगे जग शान्त जी ॥२०॥ घत्तारन्द-इति जिन गुगामाला, अमर ग्माला. जो भविजन कंटे घाई । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पजा-पाठ संग्रह । १२१ हो दिवि अमरेश्वर, पहमि नरेश्वर, शिव सुन्दर ततदिन वई ॥ प्रा ह्रीं श्रीशान्तिनात्रिनंद्राय गर्भ. जन्म. तप. ज्ञान. निर्वाण पंचकल्याणकप्राप्ताय अनपद प्राप्तय महा निवपााति म्वाहा। इति श्रीशांतिनाजिन पूजा संपण ।।२।। २० अथ श्रीमुनिमुव्रतनाथ जिन पृजा प्रारभ्यते। ( गमचन्द्रकला ) जटिल । मकल पगपह जान ध्यान अमित हने, घाति चतुक दि जान भव्य बोध घने । मुनिसुव्रत जिन पांय नम मिर नाय के, अाह्वानन विधि कम चरण लवलाय के ॥ ओ ह्रीं श्रीमुनिसबननानिनन्द अत्रावनगवनर संवापट आह्वाननम । ग्रा ही श्रीनिमवतनाथजनन्द अत्र निष्ट निष्ट ठ:ट म्थापनम। श्रा ही श्रीमुनिमबनना जनेन्द्र अत्र मम मन्निहिता भव भव वपट मन्निधाकर गाम ।। अथ अष्टक ( ढाल जागागमा का ) इंदशरदऋतु का अंगन मिन मुनिचिनमा अविकाग, शीत मुगंध तृट परमत नाम नार्थीदक भर भागे । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह मुनिसुव्रत जिनके पद पूजे दोष दुगुणनव नाशै, लोक कल कर रेख ज्यों देखे ऐसो ज्ञान प्रकाश ॥ ओ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनंद्राय गर्भ, जन्म. तप ज्ञान, निर्वाण पंचकल्याणक - प्राप्ताय जन्म-मृत्यू- जरारोग-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा | २४० घम मलयागर कुंकुम के मंग कृष्णागर घनसारं, दाह निकंदन परिमल अलि धावत वृद अपार । मुनिसुव्रत जिनके पद पूजे दोष दुगुणनव नाश, लोक कल कररेख ज्यों देखें ऐसो ज्ञान प्रकाश ॥ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय गर्भ जन्म. तप, ज्ञान. निर्वाण पंचकल्याणक प्राप्ताय संसारातापरोगविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा | चंद्रकिरण सम उज्ज्वल दोरघ मन-रंजन अनियारे, तंदुल ओघ अखंडित लेकर पुंज करो गहारे । मुनिसुव्रत जिनके पढ़ पूजे दोष दुगुनव नाश, लोक सकल कर रेख ज्यों देखे ऐसो ज्ञान प्रकाश || श्रीं ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय गर्भ जन्म तप. ज्ञान, निर्वाण पंचकल्याणक - प्राप्ताय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान निर्वपामीति स्वाहा | कुसुम मनोहर पंच वरन ही सुरतरु के शुभ लावे, गंधसुगंधे प्राणा-पंजन गुंजत पढ़-पड़ आवे । श्राव Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ मंग्रह। १४१ . मुनिसुव्रत जिनके पद पूजे दोप दगुगा नव नाशे, लोक सकल कर रेग्ब ज्यों देखे मो ज्ञान प्रकाश ॥ ओ ह्रीं श्रीमुनिमत्रतनाजिनन्द्राय गर्भ जन्म. नप. ज्ञान. निवारण पंचकल्याण कपाताय कामवाणविनाशनाय पुष्पं निवपार्माति म्वाहा। मोदक गृझा घेवर फेणी मुरही घृत्त बनावे, रमनारंजन रमत पूरे कंचन थाल भगवे । मुनिसुव्रत जिनके पद पूजे दोष दुगुणनव नाश, लोक सकल कर रेखज्यों देख ऐमो ज्ञान प्रकाशै ॥ श्रां ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजनन्द्राय गर्भ. जन्म, तप. ज्ञान. निवागा पंचकल्याणक प्राप्राय क्षुधा-गंग विनाशनाय नवां निवपार्माति स्वाहा। दीप रत्नमय ज्योति मनोहर सुवरण पात्तर धार, ध्यांत नम जिम मेघ पवनत रवि प्रातम विस्तारे । मुनिसुव्रत जिनके पद पूजे दीप दुगुणनव नाश, लोक सकल कर रेग्य ज्यों देख पमो ज्ञान प्रकाश ।। ओं ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाजिनन्द्राय गर्भ. जन्म, नप, ज्ञान. निवारण पंचकल्याणकप्रामाय माहांधकाग्गगविनाशनाय दीपं निवपामीति म्वाहा। कृष्णागर मलयागर चंदन धूप दशांग मंगावं, स्वणं धृपायण मंग हुताशन जारे मधुकर आ । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रा जन प्रजा-पाट मंग्रह । मनिमत्रत जिनके पद पूनं दाप दगुणनव नाशं. लोक मकल कर ग्व ज्या देव ऐमो ज्ञान प्रकारों ।। आ ह्रीं श्रीमुनिमत्रतनाजिनंद्राय गर्भ. जन्म. तप. ज्ञान. निर्वाण पंचकल्याणकापाय अप्टकमदहनाय बृपं निवपामाति स्वाहा। फल उत्तम मनहर बहु नाक श्रीफल दाग्ब मंगाव, पंगा ग्वारिक आदि घन घ्राग्गा चक्षु मुहाव । मुनिसुव्रत जिनके पद पूजे दोप दुगुग्णनव नाश, लोक मकल कर रेग्य ज्यों दग्व मा ज्ञान प्रकाश ।। श्रा ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाजिनंद्राय गम. जन्म, नप. ज्ञान. निवागण पंचकल्याणक प्राप्ताय मोक्षफल प्रापय फलं निवपामानि स्वाहा। जल चंदन तंदल चरुदीपक धूप कुसुम फल लाव, अघ कर चंद वमुविधि पस मो शिव के मुख पात्र । मुनिसुव्रत जिनके पद पूजे दोप द्गुणनव नाशे, लोक मकल कर रंग्य ज्यों देख पमा ज्ञान प्रकाशं ।। आ ही श्रामुनिसुव्रतनाजिनेन्द्राय गभ. जन्म, नप ज्ञान निवागा पंचकल्यागकामाय अनघपदप्रापय अब निवपामानि म्वाहा। ___ अथ पंचकल्याणक । ( दाहा। प्राणत म्वर्ग थकी चये म्यामा उर अवतार । श्रावण द्वितिया कृष्ण ही, लयो जज पद मार ।। ओ ह्रीं श्रामुनिसुव्रतनाजिनंद्राय श्रावणकृष्ण द्वितीयायां गभकल्याणकाय अध्य निवपामानि म्वाहा । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | १४३ दशमी दि वैशाख ही जन्मे यतत्रय ज्ञान | सकल सुरासुर गिर जजे, मैं जजहुँ घर ध्यान || श्रीं ह्रीं श्रीमुनिनाथजिनेद्राय वैशाखकृष्णदशम्यां जन्मकल्याणकाय अन्य निर्वपामीति स्वाहा | कृष्णदसँ वैशाख तप धरयो परिग्रह त्याग | नगन दिगंबर वन वसे, जजं चरण-युग राग ॥ ओ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय वैशाख कृष्णदशम्यां तपकल्याणकाय अघ निवपामीति स्वाहा । नौमी कृष्ण वैशाख अरि, हने घाति दुखदाय | को धर्म केवल भयो, जजे चरण गुग्ण गाय || श्री ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजनन्द्राय वैशाख कृष्ण नवम्यां ज्ञानकल्याणकाय अर्थ निर्वपामीति स्वाहा। -- फाल्गुण द्वादशि कृष्ण हो, हनि अवाति निर्वाण | गये सुगमुर पढ़ जंजे, जर्ज मोक्ष कल्याण || ह्रीं श्रीमुनिसुत्रतनाथजिनेद्राय फाल्गुण कृष्णद्वादश्यां मांकल्याणकाय अर्थ निर्वपामीति स्वाहा । अथ जयमाला | दोहा । श्री मुनिसुव्रत जिनतने न युगल पद मार । भवदधि तारन-तरन हो, पतित उधारन हार || '. ( ढाल सीमंधर जिनवंदिया की ) मुनिसुव्रत जिन बंदिस्या जग मार हो, नगर कुसागर भृप । पिता नं सुमित्र जी जग सार हो, श्रीहरिवंश अनूप ॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह। अनूप श्रावण दूज कार्ग सुग्ग प्राणतत चये, तर मात म्यामा गर्भ आय लोकत्रय में मुग्व भये । सुरासुर के नय मुकुट कंप पीट मत्र हरि आय ही, गर्भा कल्याण महंत महिमा ठानि मंगल गाय ही ॥१॥ पटनव माम त्रिकालही. जग सार हो । वरपे रतन अपार वदी दस वैशाखकी, जग सार हो । जिन जन्मे तिहबार । तिहबार घंटा आदि वाजे मर मिल आयही, जिन लय पांडक वन नहाय क्षीरजल शुभ लायही । सिंगार कर पित मात मापे नृत्य तांडव हरि करयो, लख हृदय हपित भये दंपति नाम मुनिसुव्रत धग्यो ।।२।। श्याम वरण तन तंग है जग मार हो । वीस धनुप परमाण, नीम सहम वर्ष प्राय है, जग मार हो । कछु लांबन शुभ जान । शुभ गज्य पंदगं महम कीनो त्याग तृणवत बन गये, नमः सिद्ध भ्यः कह लोच कानो ध्यान में प्रभु थिर भये । तब ही भयो मन ज्ञान सुर नर पूज पद गुण गाइये, वंशाख दस कृष्ण चंपक वृक्षतल वन भाइये ।।३।। कर पष्ठम मिथिला गये जग मार हो । भोजन हित जिन राय । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ श्री जैन पूजा-पाठ मंग्रह। विश्वसेन नृप जी दयो जग मार हो । पय लग्न मर हरपाय, हरपाय सुर पाउनग्य कीनी पंच फिर बन जाय ही, नप को ग्याग वग्म द्वादश भांति निभं थाय ही । वंशाम्ब नवी कृष्ण हग्यि घानि चव धर ध्यान ही, लह जान लोक अलोक पंन्यो भयो बोध कल्याण ही ।। समवशरण धनपति रच्यो जग मार हो, मानमथंभ त्रिशाल चत्र, चव गोपुर महिने जग मार हो। खाई मजल मगल. मगन बन बन कल्प-तम पनि चैत चंपक अंब ही, धुन गन्न मरित मुरूप मर तिय नच हलत नितंब ही । मध सभा द्वादश सभा मंडप कमन्न-ग्रामन जिन टये, चतु-वक्त्र अंगुल-चार अंतर भई धुनि मन हरपये ।।५।। तम अशोक त्रय रत्र हैं जग सार हा. चवमट चमर दुलंत, योजन वागी मागी जग मार हो । दंदभि मधुर धुरंत, घुग्न दंदभिसुमन वरप तंग आमनत्रय लम, तमपटल भा-मंडल विध्वंम काटि गवकी छवि नर्म । बम प्रानिहारिज महिन पारिज देश के भवि बोध हो, मंमेद गिर समभाव प्रणम भृन योग निरोध ही ॥६॥ फाल्गुण द्वादश कृष्ण ही जग मार हो । ध्यान शुक अमिधार. हन अधाति गिवपुरलियो जग मारहो। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। सुख-अनंत भंडार, भंडार सुग्घ अविकार अवयव हीन वृद्धि नहीं कहा, त्रिलोक की तिग्काल परिणति ज्ञान गभित है मदा । नित जन्म मग्गा जग न व्याप नाहिं सेवक भूप ही, चिद्रप बसु गुण-मई गज मदा एक मरूप ही ।।७।। तुम गुण मुर-गुरु वन जग मार हो । जिह्वा महम वग्णाय, तोऊ पार ल है नहीं जग मार हो । तो हमप किम थाय । किम थाय हमपं तुहे वनेन देव गुरु में थक रहे, हो कृपानाथ अनाथ के पति इहि भव में में दग्य महे । तुम तरनतारन दुख निवाग्न तार भव ते नाथ जी, चंदगम शरण निहार आयो जोर के युग हाथ जी ।। दोह।। श्री मुनिसुबित देव की. विनती परम रसाल । जो पढ़सी सुणसी सदा पासी मीन विशाल ॥ ओं ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाजिनंन्द्राय गर्भ. जन्म. नप. ज्ञान. निवागा पंचकल्यागप्रामाय अन पद नाप्रय महाव्य निवपामानि म्वाहा। इति श्रीमनिमत्रतनाजिन पूजा संप्रगगा। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह । २३ अथ श्रीपार्श्वनाथाजन पूजा। गमचन्द्र कन । ( अडिल्ल ) पाग्य मेरु-समान ध्यान में थिर भये । कमठ किये उपमगं यवं दिन में जये ।। ज्ञान-भानु उपजाय हानि विधि शिव बगे। आह्वानन विधि कर प्रणाम त्रिविधा करी ।। श्रा ही श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र अत्रावनगवनर मापट आह्वाननम । आ ही श्री पाश्वनाथ जिनेन्द्र अत्र निष्ट ठः ठः स्थापनम । श्रा ही श्रा पाश्वनाथ जिनेन्द्र अत्र मम मन्निहिता भव भव वपट मनिधीकरगाम। अथ अष्टक ।। गीताद)। जग्द इंदममान उज्वल म्वच्छ मुनि चित माग्यो । शुभ मलय मिश्रित भृग भरि हूँ गीत अनिहि तुपार मा ।। मा नार मनहर नृपा नाशन हिमन-उद्भव ल्यावही । श्री पाश्वनाथ जिनेन्द्र पूजं हृदय हग्य उपायही ।। श्री ही श्रीपाश्वनाथजनन्द्राय गर्भ, जन्म. नप. ज्ञान. निवाग पंचकल्याण प्राप्ताय जन्ममृत्य जगगंगविनाशनाय जलं निवपार्मानि म्वाहा। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ श्री जैन पूजा-पाठ मंग्रह। घनमार अगर पिलाय कंकुम मलय मंग घमाय ही । अति शीत होय मनेह उरणजु बंद एक ग्लाय ही ।। मोगंध भव-तप नाश कारन कनक भाजन लाय ही। श्री पाश्चनाथ जिनेन्द्र पूजं हृदय हरप उपाय ही ।। श्रां ह्रीं श्री पाश्वनाजिनंन्द्राय गर्भ जन्म. नप. ज्ञान. निवागा पंचकल्यागग प्राप्राय मंमागतः पगंगविनाशनाय चन्दनं निवपाानि म्वाहा। मग्ति गंगा अंबुमीची गालि उज्वल अनि धनी । यति धर मुक्ताकी मनोहर मग्ल दारव युत अना ।। मो अग्विन-ओघ अग्बंड काग्न अग्य पद को लाय ही। श्री पाश्वनाथ जिनेन्द्र पूजं हृदय हरप उपायही ।। ओं ह्रीं श्रीपाश्वनाजिनन्द्राय गर्भ. जन्म. नप, ज्ञान, निवागा पंचकल्यागप्राप्ताय अक्षयपदप्राप्रय अक्षतान निवपामानि म्वाहा । कनक निग्मय रत्न जड़िये पंच वणं महावने । प्रसून सुन्दर अमर तरु के गंधयुत अति पावन ।। मो लेय ममर निवार कारन घ्रारण चक्षु सुहाय हो । श्री पाश्वनाथ जिनेन्द्र पूजं हृदय हरप उपाय हा ॥४॥ ओं ह्रीं श्री पार्श्वनाज नन्द्राय गम. जन्म. तप. ज्ञान. निर्वागा पंचकल्याण प्रामाय कामवागविनाशनाय पप्पं निवपामीति स्वाहा। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह। १४६ लक्ष्मी-निवाम मगेज उद्भव तथा सोम थकी झरे। आमोद पावन मिष्ट अति चित अमी भंजन को हरे ॥ मो चारु रम नवेद्य कारन क्षुधा नाशन लाय ही। श्री पाश्वनाथ जिनेन्द्र पूर्ज हृदय हरष उपाय ही ॥ ओं ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय गर्भ. जन्म. तप. ज्ञान. निर्वाण पंचकल्याणप्राप्ताय क्षुधारोगविनाशनाय नवदां निवपामीति स्वाहा। कनक दीप मनोज्ञ मणिमय भानु भासुर मोहने । तम नम ज्यों घन पवन नाम धूम-वर्जित सोहने । मम मोह निविड विध्वंस कारण लेय जिन ग्रह आयही। श्री पाश्वनाथ जिनेन्द्र पूजं हृदय हरप उपाय ही ॥ प्रां ह्री श्री पाश्वनाथ जिनेन्द्राय गर्भ. जन्म, नप. ज्ञान निवारण पंचकल्याण प्राप्राय माहांधकार गंगविनाशाय दापं निर्वपामीति म्वाहा। श्रीखंड अगर दशांग पम् कनक पायण भरें। आमोदत अलिवृन्द आव गंजत मन को हर ॥ वमु कम दुष्ट विध्वंस कारण मंग अग्नि जराय ही। श्री पाश्वनाथ जिनेन्द्र पूज हृदय हरप उपायही ॥ ओ ही श्री पाश्वनाजिनन्द्राय गभ. जन्म. नप. ज्ञान. निर्वाण पंचकल्याणप्राप्ताय अष्टकमदहनाय धूपं निर्वपार्माति स्वाहा। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। अति मिष्ट पक्व मनोज्ञ पावन चक्षु घ्राणा को हरे । अलि गंज करत मुगंध सेती सुधा की मम्बर करें । मो फल मनोहर अमर-तरु के स्वर्ण थाल भगय ही। श्री पाश्वनाथ जिनेन्द्र पूजं हृदय हरप उपाय ही ।। ओं ह्रीं श्री पावनार्थाजनन्द्राय गर्भ. जन्म, नप. ज्ञान. निर्वागा पंचकल्याणप्राप्ताय मोक्षफल प्राप्तय फलं निर्वपामानि म्वाहा । मलिल म्वच्छ दशांग धूपसु अग्वित उज्वल लाय ही। वर कुसुम चरुत क्षुधा नाम दीप ध्यांत नमाय ही ।। कर अर्घ धूप मनोज फल ले राम शिव सुख दाय ही । श्री पाश्वनाथ जिनेन्द्र पूर्ज हृदय हरप उपाय हो । ओं ह्रीं श्री पावनाजिनन्द्राय गर्भ, जन्म. नप. ज्ञान. निवागण पंचकल्याणप्राप्राय अनपदप्राप्तय अब निर्वपामानि म्वाहा। अथ पंचकल्याणक । दाहा।। प्राणन स्वर्ग थकी चर्य, वामा उर अवतार । उभय अमित वंशाग्य ही, लयो जज पद मार ।। ओं ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय वैशाख कृष्ण द्वितीया गर्भ कल्याणकाय अब निवपााति स्वाहा। पौष कृष्ण एकादशी, तीन ज्ञान-युत देव । जन्मे हरि सुर गिर जजे, मैं जज हूँ कर सेव ।। प्रां ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय पौष कृष्गा एकादशी जन्म कल्याणकाय अर्घ निवपामानि म्वाहा । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह। १५१ दुद्धर तप सुकुमार वय. काशी देश विहाय । पौष कृष्ण एकादशी, धरयो जर्ज गुण गाय ।। ओ ह्रीं श्री पाश्वनाथ जिनेन्द्राय पोप कृपया एकादशी तप कल्याण___ काय अघ निवपामीति स्वाहा । कृष्ण चौथ शुभ चैत को, हने घाति लह ज्ञान । कह्यो धर्म दुविधा मुदा, जर्ज बोध भगवान् ।। ओ ह्रीं श्री पाश्वनाथ जिनेन्द्राय चत्र कृष्ण चतुर्थी ज्ञान कल्याण काय अर्घ निर्वपााति म्वाहा। सप्तमि श्रावण शुक्ल ही, शेप कम हन वीर । अविचल शिव थानक लह्यो, जर्ज चग्गा घर धीर ।। ओं ह्रीं श्री पाश्वनाथ जिनेन्द्राय श्रावण शक्ल सप्तमी मोक्ष कल्यागा काय अर्घ निवपामानि म्वाहा । अथ जयमाला । ( दोहा ) पाश्वनाथ जिनके नम, चरण कमल युग मार । प्रचुर भवार्णव तुम हंग, मुझ तागं अनतात ॥ श्री पाश्वनाथ जिनन्द्र बंदं शुद्ध मन वच काय । धन पिता अश्व सेन जी धन धन्य वामा माय ॥ धन जन्म काशी देश में वागणमी शुभ ग्राम । प्रभु पाम दो मुझ दाम की सुन अजं अविचल ठाम ।। अति मनोहर मजल जलद समान सुन्दर काय । मुख देख के ललचाय लोचन नेक तपति न थाय ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह। पद कमल नख युति कनक चपला कोटि रवि छवि धाम । प्रभु पाम दो मुझदाम की मुन अरज अविचल ठाम ।। हूं अधो-मुख पंचाग्नि तपतो कमठ को चर कर । तित अग्नि जरते नाग बोधे देय बच वृष पूर । वे भये हैं धरणीन्द्र पदमा भवनत्रिक-रिधि-धाम । प्रभु पाम दो मुझ दाम की मुन अजे अविचल ठाम ।। इम उग्ग मिग्त निहार के सब अथिर शरण न कोय । संसार यो भ्रम जाल है जिम चपल चपला होय ॥ हूँ एक चेतन मामतो शिव लहुँ तज के धाम । प्रभु पास दो मुझ दाम की मुन अज अविचल ठाम ।। इम चितवतां लोकांतिकेश्वर आय पूजे पांय । परणाम कर संवोध चाले चितवते गुण धाय ॥ धन धन्य वय सुकुमार में तप धरयो अति बल धाम । प्रभु पास दो मुझ दास की सुन अजं अविचल ठाम ।। बंदं समय जिन धरी दीक्षा विहर अह-छित जाय । तित ठये बन में दुष्ट वो मुर कमठ को चर प्राय ।। अति रूप भीषण धार के फुकार पन्नग म्याम । प्रभु पास दो मुझ दाम की सुन अजं अविचल ठाम ।। वारण सिंह गरज्यो उपल रज बरपाय । कर अग्नि वरषा मेघ मृसल तड़ित परलय वाय ।। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। प्रभु धीर वीर अत्यंत निरभ असुर को बल खाम । प्रभु पाम दो मुझ दास की सुन अरज अविचल ठाम ।। वाही समय धरणीन्द्र को नय मुकुट कंप्यो पीठ । हरि आय सिंहामन रच्यो फणमंड कीनो ईठ ।। तब असुर करनी भई निषफल अचल जिन जिम धाम । प्रभु पास दो मुझ दाम की सुन अर्ज अविचल ठाम ।।८।। धर ध्यान योग निरोध के चव-घाति कम उपार । लहि ज्ञान कंवलत चराचर लोक सकल निहार ॥ समवादि-भृति कुवेर कानी कहै किम बुधि खाम । प्रभु पास दो मुझ दाम की सुन अजे अविचल ठाम ॥९॥ हरि करी नुति कर जोर विनती धन्य दिन इह वार । धन घड़ाया प्रभु पाम जी हम लहे भव के पार ।। धन धन्य वाणी सुनी में अपनाशनी पुनि धाम । प्रभु पास दो मुझ दाम की सुन अजे अविचल ठाम ॥१०॥ वम कर्म नाश विनाश वषु शिव-नयर पाई धीर । वसु द्रव्यते वह थान पूजे टर मव ही पीर ।। मो अचल है सम्मेद मम भाव है वमु जाम । प्रभु पास दो मुझ दाम की सुन अग्ज अविचल ठाम ॥११॥ कर जोर के चंदगम भाख अहो धन तुम देव । भवि बोध के भव सिंधु तारे तरनतारन टेव ।। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह | 1 मैं नमन हूँ मां तार अब ही ढील क्यों तुम काम । प्रभु पास दो मुझ दास की सुन अजं अविचल ठाम || १२ || नित पढे जे नर नारि ही सब हरे तिन की पीर सुर लोक लह नर होय चकी काम हलधर वीर ॥ पुन सर्व कर्म जु घात के लह मोक्ष सब सुख धाम | प्रभु पास दो मुझ दास की सुन अजं अविचल ठाम || १३ || श्री पार्श्व जिनेश्वर नमित संरेवर पूजे तिन भवपाम- हरम् । स्वर्गादिक जावं नृपपद पावे रामचंद पुन मुक्तिभरम् || ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय गर्भ जन्म. तप ज्ञान. निर्वाण पंचकल्याणप्राप्ताय अनपाये महाअ निर्वपामीति स्वाहा । इति श्री पाश्वनाथ जिन पूजा संपूणा ||२३|| २४ अथ श्रीवर्द्धमान जिन पूजा । रामचन्द्र कृत (अडिल्ल ) ही । परकाशक प्रभुजिन भान ही ॥ बोध शुद्ध लोक लोक महार और नहिं आन श्रीवर्द्धमान वीर के ग्रह्नाननविधि करु विमल गुण ध्याय ही || १ || प्रणमं पाय ही । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | १५५ ह्रीं श्री वर्द्धमान जिनेन्द्र अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वानम. ह्रीं श्री वर्द्धमान जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ ठः ठः स्थापनम श्रीं ह्रीं श्री वर्द्धमान जिनेन्द्र अत्र मम सन्निहिता भव भव वपट मन्निधी करणम | अथ अष्टक (गीता ब्रँड ) कर्पूर-वाति शरद शशियम धवल हार तुपारतें । मुनि चित्त मी अति विमलमौरभ वं मधुकर प्यार ॥ मो हिमन उद्भव कुंभ मणिमय नीर भर तुटु छेयही । श्रीवीरनाथ जिनेन्द्र के युग चरण चरचं श्रेय ही || १ || ह्रीं श्री महावीजिनेन्द्राय गर्भ जन्म. तप ज्ञान, निर्वाण पंचकल्याणप्राप्ताय जन्म मृत्युजरा रागविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा | मलयनीर कपूर शीतल वर्ण पूरण इंदु ही । आमोद बहुल समीर दिग वं मधुकरवृंद ही ।। सो द्रव्य भवतप नाश कारण कनक भाजन लेय ही । श्री वीरनाथ जिनेन्द्र के युग चरण चरचं श्रेय ही ||२|| ह्री श्रीमहावीर जिनेन्द्राय गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, निर्वाण पंचकल्याणप्राप्राय संसागनापरागविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा । हिमन उद्भव मग्तिमीची शालिम शशिति धरै | दीघ अखंडित सरल पिंडन मुक्तम मन को हरे || Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ v श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | कर पुंजकारण अपदके उभ करमें लेय ही । श्री वीरनाथ जिनेन्द्र के युग चरण चरचं श्रेय ही ॥ ३ ॥ श्रीं ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय गर्भ जन्म, तप ज्ञान निर्वाण पंचकल्याणप्राप्ताय अक्षयपदातये अक्षतान निर्वपामीति स्वाहा । मंदार मेरु सुपारि तरुके सुमन गंधा - सक्त ही । मधुप भविनके चख लखे होय पवित्त ही ॥ सो समर वाण विध्वंस कारण कुसुम उत्कर लेय ही । श्री वीरनाथ जिनेन्द्र के युग चरण चरचं श्रेय ही || ४ || ॐ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय गर्भ जन्म. तप, ज्ञान. निर्वारण पंचकल्याणप्राप्ताय कामवाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा । . I पद्मा-निवास मरोज आश्रित क्षुधा की आमोदमों । चित्त सुधा भुंजन को तृपति हूँ वं मधुकरमोदसों ॥। सो ही पीग्रुप क्षुधा -विनाशन चारुचरु करलेय ही श्रीवीरनाथ जिनेन्द्र के युग चरण चरचं श्रेय ही ॥ ५॥ श्रीं ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय गर्भ, जन्म, तप ज्ञान, निर्वाण पंचकल्याणप्राप्ताय तुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा । त्रैलोक्य मध्य जिनेन्द्र महिमा तेजतें दरसाय ही । पाप-तम दिग दशों निविड सुमृलतें नसजाय ही ॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। १५७ मो दीप मणिमय तेज भास्कर कनक भाजन लेय ही । श्री वीरनाथ जिनेन्द्र के युग चरण चरचं श्रेय ही ।। ओं ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय गर्भ. जन्म. तप. ज्ञान. निवारण पंचकल्यागामामाय माहांधकार गंगविनाशनाय दीपं निर्वपामीति म्वाहा। धूप मंग हताश धारे धम्र-ब्रज दिग में हवं । दिगपाल चित मनो क्षितिधर नील से आव इहै ।। मो मलय परिमल घ्राण रजन सुगं को अति ग्रंय ही । श्री वीरनाथ जिनेन्द्र के युग चरण चरचं श्रेय ही । ओं ह्रीं श्री महावार जिनेन्द्राय गर्भ. जन्म. नप. ज्ञान, निर्वाग पंचकल्याणप्राप्राय अष्टकमदहनाय धूपं निवपामानि म्वाहा । शुभ फलोत्कर पक्व मधुर स्वरणं से मन को हरे । आमोद पावन पंज करहूँ मनोवांछित फल भ ।। भर थाल कनक मय अमर तरुके लग्ब चवको प्रेय ही। श्री वीरनाथ जिनेन्द्र के युग चरण चरचं श्रेय ही ।। ओ ह्रीं श्री महावीरजिनन्द्राय गर्भ. जन्म. नप. ज्ञान निर्वागण ___पंचकल्याणप्राप्राय मानफल प्राप्तय फलं निवपामनि म्वाहा। नीर गंध इत्यादि द्रव ले कमल पद मन्मतितने । जे जजें ध्यावे वंदि मत ठानि उत्सव अनिघन ।। मुर होय चक्री काम हलधर नीर्थ पद की श्रेय ही। सुख गमचन्द लहन शिवक अघ कर प्रभु धेय ही ।। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ओ ह्रीं श्री महावीरजिनेन्द्राय गर्भ, जन्म. तप. ज्ञान निर्वाण __ पंचकल्याणप्रानाय अनवपदप्राप्तय अघ निवपामीति म्वाहा । __ अथ पञ्चकल्याणक । दोहा। पाठी शक्ल अमाद ही पुप्पोत्तग्ने देव । चय त्रिशला-उर अवतरे जजं भक्ति धरयेव ।।१।। श्रां ह्रीं श्री महावीर्गजनन्द्राय पापाढशुक्लपष्ठी गर्भ कल्यागा काय अर्घ निर्व पामीति म्वाहा । चंत्र शुक्ल त्रोदाम सुगं कानो जन्म कल्यान । क्षीर-उदधित मेरुप में जजहूँ घर ध्यान ॥२॥ आँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय चैत्र शुक्ल त्रयोदश्यां जन्मकल्यागा काय अघ निबंपाानि म्वाहा । अगहन दशमी कृष्ण हा तप धागे बन जाय । सुर नर-पति पूजा करी में जजहं गुण गाय ॥३॥ ओं ह्रीं श्री महावार जिनन्द्राय मार्गशिरकृष्गा दशम्यां नप कल्याणकाय अघ निर्वपामानि स्वाहा। दशमी मित वंशाग्य की घातिकम चकचर । केवल ज्ञान उपाइयो जज चरण गुण भूर ॥४॥ श्रां ह्रीं श्री महावारजनन्द्राय वंशाग्वशुक्ल दशम्यां ज्ञान कल्याण काय अर्थ निवपार्माति म्वाहा । कातिक वदि मावस गये शेप कम हन मोष । पावापुरत बीरजी जजं चरण गुण घोप ।।५।। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह | १५६ श्रीं ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय कार्तिक कृष्ण अमावस्यां मोक्ष कल्याणकाय अर्थ निर्वपामीति स्वाहा | अथ जयमाला । दाहा । सन्मति सन्मति दो मुझे हो सन्मतिदातार । इहै भतिपावन जगत होय अमल विस्तार ॥ १ ॥ ( पदडी चंद ) जय महावीर द्यनि अमल भान । सिद्धारथ चित अंबुज फुलान ॥ जय-त्रिसला कुव कुमुदनि अनृप । प्रफुलावन को मुख चंद्र रूप ॥ १ ॥ जय कुण्डलपुर जन्मा सुधान | हरिवंश व्योम मधि सुष्ट भान ॥ जय कनक वर्ण कर सप्त काय । हरि चिह्न हत्तर वर्ष आय ||२|| ॥२॥ जय इंद्र को महावीर सूर | ह्व सर्पक र ॥ सुन देव चलो फुंकार हाल विकराल क्रीडत कुमार भाजे विशेव ॥ ३ ॥ देख | Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ मंग्रह। प्रभु धीर महापन्नग अज्ञान। कर कीड हरयो मद को वितान ॥ ह्र प्रगट देवनय पूज पाय । परशंस कह्यो महावीर राय ॥४॥ लग्व पूख भव अनुप्रेक्ष्य चिंत्य । भयभीत भये भवनं अत्यंत ॥ लोकांति आय थुनि पूज्य पाय । निजथान गये सुर असुर आय ॥५॥ रच शिविका कर उत्सव अपार । बन जाय धरे प्रभु तज सिंगार ॥ नुति सिद्ध लौंच कच नगन काय । धर षष्ठम लव चिद्रप लाय ॥६॥ नप द्वादश द्वादश वर्ष ठान । चउघाति हने गह खडग ध्नान॥ जय अनंत चतुष्टय-लब्ध देव । वसु प्रातिहार्य अतिशय सुमेव ॥७॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह । जय भव्यन कर भव- सिंधु पार । सीस धार ॥ मैं प्रणमं युग कर जय समर - विटपिजारन जय मोह तिमिरनाशन प्रकाश ॥८॥ हुताश । जय दोष अठारा रहित देव । J सेव ॥ मुझ देहु सदा तुम चरण हूं करू चीनती जोड़ तारन-तरन निहार भव हाथ | नाथ ॥ ६ ॥ १६१ बत्ता छंद श्री वीर जिनेश्वर नमत सुरेश्वर वसु विधिकर युगपद-चरचम् । बहुतूर बजावै गुण गण गाव, रामचन्द्र मन अति हरपम् ॥ १० ॥ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय गर्भ जन्म, नप ज्ञान निर्वाण पंचकल्याणुप्राप्ताय अनपदामये महाऽयं निर्वपामीति स्वाहा । इति श्री महावीर जिन पूजा सम्पूणा । अथ पूजा फल | पण (डिल्ल) कीरति है सफुराय सुराधिप बहुरि नावे | वृद्धि सिद्धि समऋद्धिबुद्धिता श्रिय अति पावें ॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। धर्म अर्थ लहि कामदेव नरपतिपद थावै । वृषभ आदि जिन जजे अर्घ कर जे नर ध्यावै ॥ वृषभादि चउवीस जिनेश्वर ध्याव ही। अर्घ करै गुणगाय तूर वजावही ॥ ते पावै शिव शर्म भनि सुरपति करै । रामचन्द्र सक नांहि कीनि जग विसतरै ॥ आं ह्रीं श्री ऋषभ. अजिन, सम्भव. अभिनन्दन, सुमति. पद्म. सुपार्श्व. चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्न, शानल. श्रेयांम. वामपूज्य. विमल. अनन्त, धर्म. शान्ति, कुन्थु. अर. मल्लि. मुनि मुब्रत. नमि. नमि. पार्श्व. वर्द्धमान इति चतुर्विशनि जिनेन्द्रेभ्यः पूर्णाघ निवपार्माति स्वाहा। (इत्याशीवादः) इति श्री चतुर्विशति जिन पूजा ( चौधरो गमचन्द्र कृना ) मं.पूणा । अथ महाघ । गीता छन्द। मैं देव श्री अहंत पूजं मिट्ठ पूजं चाव मों। आचार्य श्रीउबज्झाय पूजं माधु पूर्ज भाव मों। अहंत-भाषित बैन पूज द्वादशांग रची गनी । पूजं दिगम्बर गुरुचरन शिवहेत सब आशा धनी ।। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ मंग्रह। १६३ मवज्ञ-भाषित धर्म दश-विधि दयामय पूर्ज सदा । जजि भावना पोडशरतनत्रय जा विना शिव नहिं कदा ॥ त्रैलोक्यके कृत्रिम अकृत्रिम चंन्य चैत्यालय जर्ज । पंचमेरु नंदीश्वर जिनालय, खचर सुर-पूजित भज ।। कैलाश श्री सम्मेदगिर गिरनार मैं पूजं मदा । चंपापुरी पावापुरी पुनि और तीरथ मर्वदा ।। चौबीम श्री जिनगज पूजं बीम क्षेत्र विदेह के । नामावली इक महम बसु जय होय पति शिव गेहके ।। दोहा। जल गंधाक्षत पुष्प चरु, दीप धूप फल लाय । सर्व पूज पद पूजहूं, बहु विध भक्रि बढ़ाय ॥ ओ ही अहन्ती मिद्धजी आचार्यजी उपाध्यायजी मर्वमाधुजी द्वादशांग जिनवाणी. दशलाक्षणिक धम मालहकारगण भावना मम्यग्दर्शन. सम्यग्ज्ञान. मम्यकचारित्ररत्नत्रय. तीनलाक संबंधि कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय, नंदीश्वर द्वीप सम्बन्धि बावन जिन चंत्याल य. श्री मम्मेदशिग्बर कैलाशगिर गिरनार चंपापुर पावापुर आदि मिट्ट क्षेत्र अतिशय क्षेत्र. विद्यमान बीम तीर्थकर, भगवानके एक हजार आठ नाम श्री वृपभादि महावीर पर्यन्त चतुर्विशति तीथकरभ्यो जलाद्य महाघ निर्वपार्माति स्वाहा। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह । स्वयंभू स्तोत्र भाषा। चौपाई। राजविर्ष जुगलनि सुख कियो, गज त्याग भवि शिवपद लियो। स्वयंबोध स्वंभू भगवान, बंदी आदिनाथ गुणवान ।।१।। इन्द्र छीरमागर जल लाय, मेरु न्हवाये गाय बजाय । मदन विनाशक सुग्व करतार, बंदौं अजित अजितपदकार ।।२।। शुकल ध्यानकरि करमविनाशि, घाति अघातिमकल दुग्वगशि। लह्यो मुकतिपद सुख अधिकार, बंदी मंभव भवदुग्ख टार ।।३।। माता पच्छिम ग्यनमंझार, सुपने मोलह देखे मार । भूप पूछि फल सुनि हरपाय, बंदी अभिनंदन मनलाय ।।४।। सब कुवादवादी सरदार, जीते स्यादवादधुनि धार । जैनधरमपरकाशक स्वाम, सुमतिदेवपद करहुं प्रनाम । ५।। गर्भ अगाऊ धनपति आय, करी नगर शोभा अधिकाय । बरसे रतन पंचदश माम, नमों पदमप्रभु सुखकी गम ॥६।। इंद फनिंद नरिंद त्रिकाल, बानी सुनि सुनि होहिं खुस्याल । द्वादशसभा ज्ञानदातार, नमों सुपारसनाथ निहार ॥७॥ सुगुन छियालिम हैं तुम माहि, दोष अठारह कोऊ नाहिं । मोहमहातमनाशक दीप, नमों चंद्रप्रभ गख ममीप ॥८॥ द्वादश विध तप करम विनाश, तेरहभेद चरित परकाश । निज अनिच्छ भवि इच्छकदान, बंदों पहुपदंत मनान ।।९।। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | १६५ , भविसुखदाय सुरगतैं आय, दशविध धरम को जिनराय । आप समान सवनि सुख देह, बंद शीतल धर्मसनेह ॥ १०॥ समता सुधा कोपविप नाश, द्वादशांग वानी परकाश | चारसंघ - आनंद दातार, नमीं श्रेयांस जिनेश्वर सार || ११ || रतनत्रयचिरमुकुटविशाल, सोर्भे कंठ सुगुन मनिमाल | मुक्तिनार भरता भगवान, वासुपूज्य बंदौं घर ध्यान ||१२|| परम समाधि स्वरूप जिनेश, ज्ञानी ध्यानी हित उपदेश । कर्मनाशि शिवसुख विलसंत, वंदी विमलनाथ भगवंत || १३ || अंतर वाहिर परिग्रह डारि परम दिर्गवरव्रतको धारि । सर्वजीवति-गह दिखाय नमों अनंत वचनमनलाय || १४ || सात तत्र पंचामतिकाय, अरथ नवींद्र दरव बहुभाय । लोक अलोक सकऩ परकास | वंदी धर्मनाथ अविनाश || १५ || पंचम चक्रवरति निधिभोग, कामदेव द्वादशम मनोग | शांतिकरन सोलह जिनराय, शांतिनाथ चंदौ हरपाय || १६ || बहुति करे हर नहि होय, निंदे दोष गर्दै नहिं कोय शीलवान परब्रह्मस्वरूप, बंदों कुंथुनाथ शिवभूप ||१७|| द्वादशगण पूजें सुखदाय, श्रुति वंदना करें अधिकाय । जाकी निजश्रुति कबहुं न होय, बंदौ अरजिनवर - पद दोय ॥ १८ ॥ परभव रतनत्रय - अनुराग, इह भव व्याह समय वैराग 1 बालब्रह्मपूरनत्रतधार, बंदों मल्लिनाथ जिनसार ॥१९॥ 1 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। 1 बिन उपदेश स्वयं वैराग, थुति लौकांत करें पगलाग नमः सिद्ध कहि सब व्रत लेहिं, बंद मुनिसुव्रत व्रत देहिं ॥ २० ॥ श्रावक विद्यावंत निहार, भगति भावसों दियो अहार । बरसी रतनराशि ततकाल, बंदों नमिप्रभु दीनदयाल ॥ २१ ॥ सब जीवन की बंदी छोर, रागद्वेष द्वे बंधन तोर रजमति तजि शिवतिय सों मिले, नेमिनाथ चंदौं सुख निले २२ || दैत्य कियो उपसर्ग अपार, ध्यान देखि आयो फनधार । गयो कमठ शठ मुख कर श्याम, नमो मेरुसम पारमस्वाम २३ || भवसागर जीव अपार, धरमपोतमें घरे निहार | त काढे दया विचार, वर्द्धमान बंद बहुबार ||२४|| दोहा | • चौबीसौं पदकमलजुग, बंदों मनवचकाय । 'द्यानत' पढ़े सुने सदा, सो प्रभु क्यों न सहाय । शांतिपाठ संस्कृत | ( शांतिपाठ बोलते समय दोनों हाथों से पुष्पवृष्टि करते रहे ) दोधक वृत्तं शांतिजिनं शशिनिर्मलवक्त्रं, शीलगुणव्रत संयमपात्रं । अष्टशतार्चितलक्षण गात्रं, नौमि जिनोत्तममम्बुजनेत्रं ॥ १ ॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। पंचममीप्सितचक्रधराणां, पूजितमिन्द्रनरेन्द्रगणश्च । शांतिकरं गणशांतिमभीप्सुः षोडशतीर्थकरं प्रणमामि ॥२॥ दिव्यतरुः सुरपुष्पसुवृष्टिर्दन्दुभिरासनयोजनघोषो । आतपवारणचामरयुग्मे यस्य विभाति च मंडलतेजः ॥३॥ त जगदर्चितशांतिजिनेन्द्र शांतिकरं शिरसा प्रणमामि । मवंगणाय तु यच्छतु शांतिं मह्यमरं पठते परमां च ॥४॥ वसंततिलका छंद। येऽभ्यर्चिता मुकुटकंडलहाररत्नः, शक्रादिभिः सुरगणैः स्तुतपादपद्माः । ते मे जिनाः प्रवरवशजगत्प्रदीपास्तीर्थकगः मततशांतिकरी भवन्तु ॥ ५ ॥ इन्द्रवत्रा। संपूजकानां प्रतिपालकानां यतीन्द्रमामान्यतपोधनानां । दशस्य राष्ट्रस्य पुरम्य गजः कगेतु शांति भगवान् जिनेन्द्रः ६।। प्रग्धरावृत्तं । क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान धार्मिको भूमिपालः, काले काले च मम्यग्वर्पतु मघवा व्याधयो यांतु नाशं । दुर्भिक्षं चौरमार्ग क्षणमपि जगतां मास्मभूज्जीवलोके, जैनेन्द्रं धर्मचक्र प्रभवतु सततं मर्वसोख्यप्रदायि ॥७॥ अनुष्टुप। प्रध्वस्तघातिकर्माणः केवलज्ञानभास्कराः । कुर्वतु जगतः शांति वृषभाद्या जिनेश्वराः ॥८॥ प्रथमं करणं चरणं द्रव्य नमः । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। अथेष्ट प्रार्थना। शास्त्राभ्यासी जिनपतिनुतिः मंगतिः सर्वदायः, मदघृत्तानां गुणगणकथादोपवाद च मौनं । सर्वस्यापि प्रियहितवची भावना चात्मतत्वे, संपद्यतां मम भवभवे यावदेतेऽपवगः ॥९॥ आर्यावृत्तं । तव पादो मम हृदये मम हृदयं तव पदद्वये लीनं । तिष्ठतु जिनेन्द्र ! तावद्यावनिर्वाणसंप्राप्ति ॥१०॥ अक्खरपयत्थहीणं मत्ताहीणं च जं मए भणियं । तं खमउ गाणदेव य मज्झवि दुक्खक्खयं दितु ।।११।। दुःक्खक्खो कम्मक्खो , समाहिमररणं च बोहिलाही य। मम होउ जगतबान्धव तव, जिरणवर चरणमरणेण ।। संस्कृत प्रार्थना। त्रिभुवनगुरो! जिनेश्वर! परमानन्दैककारणं कुरुप्व । मयि किंकरेत्र करुणा यथा तथा जायते मुक्तिः ।।१३।। निर्विरणोहं नितगमहेन् बहुदुक्खया भवस्थित्या । अपुनर्भवाय भवहर कुरु करुणामत्र मयि दीन ।।१४।। उद्धर मां पतितमतो विषमाद भवकृपतः कृपां कृत्वा । अहबलमुद्धरणे त्वमसीति पुनः पुनवेच्मि ॥१५॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह। त्वं कारुणिकः स्वामी त्वमेव शरणं जिनेश! तेनाहं । मोहरिपुदलितमानं फूत्करणं तव पूर: कुवं ।।१६।। ग्रामपतेरपि करुणा परेण केनाप्यपद्र ने पुमि । जगतां प्रभो ! न कितव, जिन ! मयि खलु कर्मभिः प्रहते १७॥ अपहर मम जन्म दयां, कृत्वत्येकवचमि वक्तव्ये । तेनातिदग्ध इति मे बभूव देव! प्रलापित्वं ।।१८।। तव जिनवर चरणाजयुगं करुणामृतीतलं यावत । मंमारतापतप्तः करोमि हदि तावदेव सुम्बी ॥१०॥ जगदेकशरण भगवन् ! नामि श्रीपद्मनंदितगुणोघ ! किं बहुना कुरु करुणामत्र जन शरणमापन्न ।।२०।। परिपुष्पांजलि क्षिपन। भापा प्रार्थना पं० पन्नालाल विशारद महगनी कृन । हे त्रिभुवन गुरु जिनवर, परमानन्दकहेतु हिनकारी। करहु दया किंकर पर प्राप्ती ज्यों हाय मोक्ष मुखकारी ॥१॥ हे अहन भवहारी, भवथिति में मया दुखी भारी। दया दीन पर कीजे, फिर नहि अब वाम होय दखकाग।।२।। जग-उद्धार प्रभो! मम करि उद्धार विपमभव जलसे । बारबार यह विनती करता हूं में पतित दुर्खा दिलसे ॥३॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० श्री जैन पृजा-पाठ मंग्रह तुम प्रभु करुणासागर, तुम ही अशरण शरण जगत स्वामी। दुखित मोहरिपुसे मैं, याने करता पुकार जिन नामी ॥४॥ एक गांवपनि भी जब, करुणा करता प्रवल दुखित जनपर । तब हे त्रिभुवनपति तुम करुणा क्या नहीं करोगे फिर मुझपर५।। विनती यही हमार्ग, मेटो मंमार भ्रमण भयकारी । दःखी भयो मैं भागे, तात करता पुकार बहुभारी ॥६॥ करुणामृतकर शीतल, भवतप-हारी चरण कमल तेरे । रहें हृदयमें मेरे जब तक हैं कम मुझे जग घेरे ॥७॥ पद्मनंदि गुण-बंदित, भगवन ! संसार शरण-उपकारी । अंतिम विनय हमारी, करुणाकर करहु भव जलधि पारी॥८॥ - शास्त्र-पूजा विधान शास्त्रीको उम्चामन पर विराजमान करके पर्यषण पर्व में निम्न प्रकार पृजा करनी चाहिय । __ मरम्वती पूजा जनम जरा मृतु छय करै, हरे कुनय जड़रीति । भवसागरसों ले तिरै, पूजे जिनवचप्रीति ॥१॥ ओं ह्रीं श्रीजिनमुखाद्भवसरस्वतिवाग्वादिन ! अत्र अवतर अवतर ! संवौषट । ओ ह्रीं श्रीजिनमुग्वाद्भवमरम्पतिवाग्वादिनि ! अत्र तिष्ठ निष्ट ठः ठः । श्रओं ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतिवाग्वादिनि अत्र मम सन्निहिता भव भव वषट् । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। हीरोदधिगंगा, विमल तरंगा, मलिल अभंगा सुखसंगा। भरि कंचर झारी, धार निकारी, तृपा निवारी हितचंगा ॥ तीर्थकरकी धुनि, गणधरने मुनि, अंग रचे चुनि, ज्ञानमई। मो जिनवरवानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवनमानी पूज्य भई १।। ओ ह्रीं श्रीजिनमुखादभवसरस्वतीदव्य जनं निवपार्माति स्वाहा । करपूर मंगाया चंदन आया केशर लाया, रंगभरी । शारदपद बदों मन अभिनंदों, पापनिकंदों दाह हरी ।। तीर्थकरकी धुनि, गणधरने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञानमई। मो जिनवरवानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन मानी पूज्य भई।। ओं ह्रीं श्रीजिनमुग्वादभवमरम्वनदिव्य चंदन निवपार्मानि स्वाहा । सुखदासकमोद, धारक मोदं, अनि अनुमोद चंदसमं । बहुभक्ति बढ़ाई, कीरति गाई होहु महाई, मात ममं ॥ तीर्थकरकी धुनि, गणधग्ने सुनि, अंग रचे चुनि, ज्ञानमई। मो जिनवरवानी, शिवसुखदानी त्रिभुवन मानी पूज्य भई ॥ ओं ह्रीं श्रीजिनमुखांदभवमरम्वतादेव्य अक्षनान निर्वपामीनिक बहुफलसुवास, विमल प्रकाश, अानंदरामं लाय धरे । मम काम मिटायो, शील बढ़ायो, सुख उपजायो, दोप हरे॥ तीर्थकरकी धुनि, गणधग्ने सुनि, अंग ग्चे चुनि, ज्ञानमई। मो जिनवरवानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन मानी पूज्य भई ।। ओं ह्रीं श्राजिनमुखाद्भवसरस्वतीदव्यःपुष्पं निवपार्माति म्वाहा । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। पकवान बनाया, बहुघृत लाया, मब विधि भाया, मिष्ट महा । पूजं थूति गाऊं, प्रीति बढ़ा ऊ, क्षुधा नशाऊं हर्षे लहा ॥ तीर्थकरकी धुनि, गणधग्ने सुनि, अंगरचे चुनि, ज्ञानमई । मो जिनवरवानी, शिवसुखदानी त्रिभुवन मानी पूज्य भई ॥ आं ह्रीं श्राजिनमुग्वादभवमरम्वतीदव्य नवेद्यं निर्वपार्माति० करि दीपक जोनं, तमच्य होतं, ज्योति उदोतं तुमहि चढे । तुम हो परकाशक, भग्मविनाशक हम घट भासक ज्ञान बढ़े। तीर्थकरकी धुनि, गणवरने मुनि अंग रचे चुनि ज्ञानमई । मो जिनवरवानी, शिवमुम्बदानी, त्रिभुवन मानी पूज्य भई।। ओ ह्रीं श्रीजिनमुम्ब दभवमरम्वतीदव्य दीपं निर्व शुभगंध दशोंकर, पावरमें धर, धूप मनोहर खेवत हैं । सब पाप जलावे, पुण्य कमात्र, दाम कहावं सेवत हैं ।। तीर्थकरको धुनि, गणधरने मुनि, अंग रचे चुनि, ज्ञानमई। सो जिनवग्वानी, शिवमुग्वदानी, त्रिभुवन मानी पूज्य भई ।। ओं ही श्रीजिनमुबंदभवमरस्वनादव्य धूपं निवपामा नि म्वाहा। बादाम छुहाग लांग सुपारी, श्रीफल भारी, ल्यावत हैं । मनवांछित दाता, मेट अमाता. तुम गुन माता ध्यावत हैं ।। तीर्थकरकी धुनि, गणधग्ने सुनि, अंग रचे चुनि, ज्ञानमई। सो जिनवरवानी. शिवसुखदानी, त्रिभुवन मानी पूज्य भई ।। ओं ह्रीं श्रीजिनमुखाद्भवसरस्वतीदेव्य फलं निर्व० Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ मंग्रह। १७३ नयननसुखकारी, मृद्गुनधारी, उज्वल भारी, मोलधरें । शुभगंध सम्हाग, वसन निहाग, तुम तनधाग ज्ञान करे ।। तीर्थंकरकी धुनि गणधरने सुनि, अंग रचे चुनि, ज्ञानमई । मो जिनवरवानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन मानी पूज्य भई।। ओं ह्रीं श्री जनमुखादभवमरम्वदिव्य वस्त्रं निवः जलचंदन अच्छत, फूल चरू चित. दीप धूप अति फल लावें । पूजाको ठानत, जो तुम जानत, मां नर द्यानत मुख पावें ।। तीर्थकरकी धुनि, गगगधग्न मनि, अंग रचे चुनि, ज्ञानमई। मो जिनवरवानी, शिवम ग्ब दानी, त्रिभुवन मानी पूज्य भई ।। श्रां ह्रीं श्रीजिनमुग्वादभवमरम्वादव्य अध्य निव , जयमाला मारठा। ओंकार धुनिसार, द्वादशांगवाणी विमल । नमों भकि उर धार, ज्ञान कर जड़ता हरे ॥ पहलो आचारांग वग्वानो । पद अष्टादश सहस प्रमाना ॥ दूजो सूत्रकृतं अभिलाषं । पद छत्तीस सहस गुम भापं ॥१॥ तीजो ठाना अंग सुजानं । सहस वियालिस पदसरधानं ॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७१ श्री जैन पूजा-पाठ मंग्रह। चौथो समवायांग निहारं । चौसट महस लाग्य इक धारं ॥२॥ पंचम व्याख्याप्रज्ञपति दरसं । दाय लाग्व अट्ठाइस सहसं ॥ छट्टो ज्ञातृकथा विसतारं । पांचलाग्व छप्पन्न हजारं ॥३॥ सप्तम उपासकअध्ययनंगं । सत्तर सहस ग्यारलग्व भंगं ॥ अष्टम अंतकृतं दस ईसं । सहस अट्ठाइस लाख तईसं ॥४॥ नवम अनुत्तरदश सुविशालं । लाख बानवै. सहस चवालं ॥ दशम प्रश्नव्याकरण विचारं । लाग्ब तिरानव सोल हजारं ॥५॥ ग्यारम मूत्रविपाक सु भाखं । एक कोड चौरासी लाखं ॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ मंग्रह। १७५ चार कोडि अम पन्द्रह लाग्वं ।। दो हजार सब पद गुमशाग्वं ॥६॥ द्वादश दृष्टिवाद पनभेदं । इकसौ आट कोडिपनवेदं ॥ अड़सठ लाग्व सहस छप्पन हैं । सहित पंचपद मिथ्याहन हैं ॥७॥ इक सौ बारह काडि बग्वाना । लाग्न निरासी ऊपर जानो ॥ ठावन सहस पंच अधिकाने । द्वादश अंग सर्व पद माने ॥८॥ काडि इकावन आठ हि लाग्वं । सहस चुरासी छहसौ भाग्वं ॥ साढ़े इक्कीस शिलोक बताये। एक एक पदके ये गाये ॥६॥ जा वानीके ज्ञानमें, मूझै लोक अलोक । 'द्यानत' जग जयवंत हो, सदा देन हों धोक ॥ ओं ही श्रीजिनमुग्वादभवमरम्वनदिव्य महाघ निर्व. दाहा। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह तत्त्वार्थ मूत्र पूजा। त्रकाल्यं दव्यपदकं नवपदमहिनं जीवपटकायलेश्याः । पंचान्य चाम्तिकाया व्रतममि नगनिज्ञानचारित्रभेदाः ।। इत्यतन्मानमूलं त्रिभुवनमहिनः प्रोक्तमहद्भिगशः। प्रत्यति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान यः स व शुद्धदृष्टिः ।।? सिद्ध जयप्पमिद्ध. च विहाराहगाफलं पत्त । वंदित्ता अग्हते. वाच्छ अाराहगा कममा ।।२।। उझावणमुभवागिण वहणं माहगणं च गित्थरगां । दंमगागागाचरितं नवागगमागहगा भगिया ।।३।। मोक्षमार्गम्य नेतारं भन्नार कमभूभृतां । ज्ञानारं विश्वतत्त्वानां वंदं तद्गुणलब्धये ।। पुष्पांजलि क्षिपन । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोनमार्गः ॥१॥ तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं ॥२॥ तन्निसर्गादधिगमाद्वा ॥३॥ जीवाजीवानवबंधसंवरनिर्जरामोनास्तत्त्वं ॥४॥ नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः ॥५॥ प्रमाणनयैरधिगमः ॥६॥ निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः ॥७॥ सत्संख्यानेत्रस्पर्शनकालांतरभावाल्पवहुत्वैश्च ॥ ॥८॥ मतिश्रु तावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानं ६॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह । तत्प्रमाणे ॥ १०॥ आद्य परोनं ॥ ११ ॥ प्रत्यनमन्यत् ॥ १२ ॥ मतिः स्मृतिः संज्ञा चिंताभिनिबोध इत्यनधीनरं ॥ १३ ॥ तदिंद्रियानिंद्रियनिमित्तं ॥१४॥ अवग्रहेहावायधारणाः ॥ १५॥ बहुवहुविध - त्रिप्रानिःस्मृतानुध वाणां सेतराणां ॥ १६ ॥ अर्थस्य ॥१७॥ व्यंजनस्यावग्रहः ॥ १८ ॥ न चक्षुरनिंद्रियाभ्यां ॥ १६ ॥ श्र तं मतिपूर्व चनेक द्वादशभेद ||२०|| भवप्रत्ययोवधिर्देवनारकारणां ॥ २१ ॥ नयोपशमनिमित्तः पविकल्पः शेषाणां ॥२२॥ ऋजुविपुलमती मनः पर्ययः ॥ २३ ॥ विशुद्ध प्रतिपानाभ्यां तद्विशेषः ॥ २४ ॥ विशुद्धिनेत्रस्वामित्रिषयेभ्योऽवधिमनः पर्यययोः ||२५|| मति तयांनिबंधां द्रव्येष्वसर्व पर्यायेषु ||२६|| रुपिवः ॥ २७ ॥ तदनंतभागे मनः पर्ययस्य ॥ २८ ॥ सर्वद्रव्य पर्यायेषु केवलस्य |२६| एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः ॥ ३० ॥ मनि, नावधयो विपर्ययश्च ॥३१॥ सद १५७ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ श्री जन पूजा-पाठ मंग्रह सतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ॥ ३२ ॥ नैगमसंग्रहव्यवहारर्जमूत्रशब्दसमभिरूद्वैवंभूता नयाः ॥३३॥ ज्ञान दशनयोस्तत्वं नयानां चैव लक्षणम। ज्ञानम्य च प्रमाणत्त्व मध्यायऽस्मिन्निरूपितम ॥१॥ उदक चंदननंदुलपुष्पकश्चम्सुदीप सुधूप फलार्घकः । धवल मंगलगानग्वाकुले जिनगृहे जिन मूत्रमहंयज ।। १ ।। ओं ह्रीं श्री मदमाम्बामि विरचितं तक्ष्वार्थ सूत्रे प्रथम मूत्राय अघ । इति तत्वार्थाधिगम मोक्षशाने प्रथमोऽध्यायः ।।१।। -२औपशमिकन्नायिको भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च ।१। द्विनवाष्टादशेकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमं ।२। सम्यक्त्वचारित्रे ।३। ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च ।४। ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपंचभेदाः सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च ।५। गतिकषायलिंगमिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्धलेश्याश्चतुश्चतुस्त्रयेकैकककषड्भेदाः ।६। जीवभव्याभव्यत्वानि च ।७। उपयोगो Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | १७६ लक्षणं || स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः || संसारिणो मुक्ताश्च |१०| समनस्कामनस्काः ॥ ११॥ संसारिणस्त्रसस्थावराः । १२ | पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः | १३ | द्वींद्रियादयस्त्रसाः | १४ | पंचेंद्रियाणि | १५ | द्विविधानि | १६ | निवृ' - त्युपकरणे द्रव्येंद्रियं । १७। लब्ध्युपयोगौ भावेंद्रियं । १ = | स्पर्शनरसनधारणचक्षुः श्रोत्राणि । १६ । स्पर्शरसगंधवर्णशब्दास्तदर्थाः | २० | श्रुतमनिंद्वियस्य | २१ | वनस्पत्यंतानामेकं ॥ २२॥ कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि ॥ २३ ॥ संज्ञिनः समनस्काः | २४| विग्रहगतो कर्मयोगः | २५ | अनुश्रेणि गतिः । २६ । विग्रहा जीवस्य | २७ | विग्रहवती च संसारिणः प्राक्चतुर्भ्यः |२८| एकसमयाऽविग्रहा । २६ । एकं द्वौ त्रीन्वानाहारकः ||३०| संमूर्च्छनगर्भोपपादा जन्म |३१| सचित्तशीतसंवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्यो Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० __ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। नयः ॥३२॥ जरायुजांडजपोतानां गर्भः ॥३३॥ देवनारकाणामुपपादः ।३४। शेषाणां सम्मूर्च्छनं ।३५॥ औदारिकवै क्रियिकाहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि ।३६। परं परं सूक्ष्मं ।३७॥ प्रदेशतोऽसंख्येयगुणं प्राक्तैजसात् ।३८। अनंतगुणे परे ।३६। अप्रतीघात ।४०। अनादिसंबंधे च ।४१॥ सर्वस्य ।४२॥ तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्व्यः ।४३। निरुपभोगमंत्यं ।४४। गर्भसंमूर्च्छनजमाद्य ५४। औपपादिकं वैक्रियिकं ।४६। लब्धिप्रत्ययं च ।४७। तैजसमपि ।४८। शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव ।४६। नारकसंमूर्छिनो नपुंसकानि ।५०। न देवाः ।५.१। शेषास्त्रिवेदाः ।५२। औपपादिकचरमोत्तमदेहाऽसंख्येयवर्षायुषोऽ . नपवायुषः ।५३। उदक चंदनतंदुलपुष्पकैश्चर सुदीप सुधूप फलायक: धवलमंगलगानरवाकुले जिनगृह जिनमूत्र महंयजे ॥गा Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ भी जैन पूजा-पाठ संग्रह। ओं ह्रीं श्रीमदुमाम्बामि विचिन तन्वार्थ सूत्र द्वितीय मूत्राय अच। इनि तत्वार्थाधिगम माक्षशा द्वितीयोऽध्यायः ।।।। रत्नशर्करावालुकापंकधूमतमामहातमः प्रभाभूमयो घनांबुवाताकाशप्रतिष्ठाः सप्ताऽधोऽधः ।। तासु त्रिशन्पंचविंशतिपंचदशदशत्रिपंचानक नरकशतशहस्राणि पंच चव यथाक्रम।३। नारका नित्या शुभतरलेश्यापरिणामदेहवंदनाविक्रिया : ।३। परस्परोदीरितदुःश्वाः ।४। संक्लिष्टाऽसुरोदीरितदुःग्वाश्च प्राक् चतुर्थ्याः ।५। तेष्वेकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा सत्वा नांपरा स्थितिः।६। जंबूद्वीपलवणोदादयः शुभनामानो द्वीपसमुद्राः ।। द्विद्विविष्कंभाः पूर्वपूर्वपरिनेपिणो वलयाकृतयः ।। तन्मध्येमेम्नाभिवृत्ती योजनशतसहस्रविष्कभी जंबूद्वीपः ।।। भरतहैमवतहरिविदेहरम्यकहरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि ।१०। तद्विभाजिनः पूर्वापरायता Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह। हिमवन्महाहिमवन्निषधनीलरुक्मिशिखरिणो वर्षधरपर्वताः ।११। हेमार्जनतपनीयवैडूर्यरजतहममयाः ।१२। मणिविचित्रपार्श्व उपरिमूले च तुल्यविस्ताराः ।१३। पद्ममहापद्मतिगिंछकेशरि महापुंडरीकपुंडरीकाहदास्तेषामुपरि ।१४। प्रथमो योजनसहस्रायामस्तदद्ध विष्कंभो ह्रदः ।१५। दशयोजनावगाहः ।१६। तन्मध्ये योजनं पुष्करं ।१७। तद्विगुणद्विगुणा ह्रदाः पुष्कराणि च ।१८। तन्निवासिन्यो देव्यः श्री ह्रीधृतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्म्यः पल्यापमस्थितयः ससामानिकपरिषत्काः ।१६। गंगासिंधुरोहिद्रोहितास्याहरिद्धरिकांतासीतासीतोदानारीनरकांतासुवर्णरूप्यकूलारकारकोदाः सरितस्तन्मध्यगाः ।२०। द्वयोईयोः पूर्वाः पूर्वगाः । २१। शेषास्त्वपरगाः ।२२॥ चतुर्दशनदीसहस्रपरिवृता गंगासिंवादयो नद्यः । २३ ॥ भरतः षड्विंशतिपंचयोजनशतविस्तारः षट्चैकोनविंशतिभागा योजनस्य Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन १८३ पूजा-पाठ संग्रह | | २४ । द्विगुणद्विगुणविस्तारा वर्षधरवर्षा विदेहांताः । २५ । उत्तरा दक्षिणतुल्याः | ३६ | भरतैरावतयोवृद्धिह्रासौ पट्समयाभ्यामुत्सपिण्यवसर्पिणीभ्यां । २७ । ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः । २८ । एकद्वित्रिपल्योपमस्थितयो हैमवतहारिर्षक व कुरवकाः । २६ । तथोत्तराः । ३० । विदेहेषु संख्येयकालाः । ३१ । भरतस्य विष्कंभो जंबूद्वीपस्य नवतिशतभागः | ३२ । द्विर्द्धनकीवंडे । ३३ । पुष्कराच । ३४ । प्राङ्मानुषान्तरान्मनुष्याः । ३५ । आम्लेच्छाश्व | ३६ | भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुमभ्यः |३७| नृस्थिती परावरे त्रिपल्योपमांतर्मुहूर्त । ३८ । निर्यग्योनिजानां च । ३६ । चंदनतंदुलपुष्पकैश्चरुसुदीप उदक चंदनतंदुल पुष्पकेश्वरुदीप सुप फलार्थकः । धवल मंगलगान वाकुले जिनगृह जिन सूत्र महंयजे ॥ १ ॥ ओं ह्रीं श्री मदुमाम्वामि विरचितं तत्त्वार्थसूत्रे तृतीय सूत्राय अर्थ । इति तत्वाधिगमे मोक्षशास्त्रं तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ श्री जन पूजा-पाठ मंग्रह। -४ देवाश्चतुर्णिकायाः ॥१॥ आदितस्त्रिषु पीतांतलेश्याः ॥२॥ दशाष्टपंचद्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यंताः ॥३॥ इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिंशत्पारिषदात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्णकाभियोग्यकिल्विषिकाश्चैकशः ॥ ४ ॥ त्रायस्त्रिंशल्लोकपालवा व्यंतरज्योतिप्काः ॥५॥ पूर्वयो-न्द्राः ॥ ॥६॥ कायप्रवीचाग आ शानात् ॥७॥ शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनः प्रवीचागः ॥८॥ परे ऽप्रवीचाराः ॥६॥ भवनवासिनासुरनागविद्य त्सुपर्णाग्नवातस्तनितोदधिद्वीपदिक्कुमाराः ॥१०॥ व्यंनगः किन्नरकिंपुरुषमहारगगंधर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचाः ॥११॥ ज्योतिप्काः मूर्याचंद्रमसो ग्रहननत्रप्रकीर्णकतारकाश्च ॥१२॥ मेम्प्रदनिणा नित्यगतयो नृलोके ॥१३॥ तत्कृतः कालविभागः ॥१४॥ वहिरवस्थिताः ॥१५॥ वैमानिकाः ॥१६॥ कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च ॥ ॥१७॥ उपर्युपरि ॥१८॥ सौधर्मशानसानत्कुमा Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह । • रमाहेन्द्रब्रह्मब्रह्मोत्तरलांत व कापिष्टशुक्रमहाशुक्र शतारसहश्रारेष्वानतप्राणतयोरारणाच्युतयोर्नवसु ग्रैवेयकेषु विजयवैजयंतजयंतापराजिनेषु सर्वार्थसिद्धौ च ॥ १६ ॥ स्थितिप्रभावसुखद्य ति लेश्या विशुद्धींद्रियावधिविषयतोधिकाः ॥२०॥ गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः ||२१|| पीनपद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु ॥ २२ ॥ प्रागग्र त्र्यकेभ्यः कल्पाः ॥२३॥ ब्रह्मलोकाल्या लौकांतिकाः ||२४|| सारस्वतादित्यवह्नचरुणगर्दतोय तुपिताव्यावाधारिष्टाश्च ॥ २५॥ विजयादिषु द्विचरमाः ॥ २६ ॥ र्यग्योनयः ||२७|| स्थितिरसुरनागसुपर्णद्वीपशेपाणां सागरोपम त्रिपल्योपमाद्ध हीनमिताः ॥ २८ ॥ सौधर्मेशानयोः सागरापमेऽधिके ॥ २६ ॥ सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः सप्त ॥३०॥ त्रिसप्तनवे - कादशत्रयोदशपंचदशभिरधिकानि तु ॥ ३१ ॥ आरणाच्युतादृध्वमेककन नवसु य वेयकेषु वि पपादिकमनुष्येभ्यः शेषास्ति ग्र १८५ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ श्री जैन पूजा-पाठ मंग्रह। जयादिषु सर्वार्थसिद्धौ च ॥३२॥ अपग पल्योपमधिकं ॥३३॥ परतः परतः पूर्वापूर्वानंतगः॥ ३४॥ नारकाणां च द्वितीयादिषु ॥३५॥ दशवपसहस्राणि प्रथमायां ॥३६॥ भवनेषु च ॥३७॥ व्यंतराणां च ॥३८॥ परापल्योपममधिकं ॥३६॥ ज्योतिष्काणां च ॥४०॥ तदष्टभागाऽपग ॥ ११ ॥ लोकांतिकानामष्टौ सागरोपमाणि सवेषां ॥४२॥ उनकचंदननंदुलपुष्पकश्चम्मदीपमधूप फलाचकः । धवल मंगलगानग्वाकुल जिनगृह जिनमूत्रमहं यज ।।४।। श्रां ह्रीं श्रीमदुमाम्वामि विचिन तत्वाथमूत्र चतुर्थ मूत्राय अयं । इति तत्वााधिगम माक्षशास्त्रं चतुर्थोऽध्यायः ।।५। अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः ॥१॥ द्रव्याणि ।२। जीवाश्च ।३। नित्यावस्थितान्यरूपाणि । ४ । रूपणिः पुद्गलाः। ५ । आ आकाशादेकद्रव्याणि । ६ । निष्क्रियाणि च । ७ । असंख्येयाः प्रदेशाधर्माधर्मकजीवानां । ८ । आकाशस्यानंताः । ६ । संख्येयासंख्येयाश्च Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ मंग्रह ! १८७ पुद्गलानां । १० । नाणोः । ११ । लोकाकाशेऽवगाहः । १२ । धर्माधर्मयोः कृत्स्ने । १२। एकप्रदेशादिषुभाज्यः पुद्गलानां । १४ । असंख्येयभागादिषु जीवानां । १५ । प्रदेश संहारविसपाम्यां प्रदीपवत् । १६ । गनिम्थित्युपग्रहो धमर्माधर्मयोम्पकारः । १७। आकाशम्यावगाहः । १८ । शर्गग्वाङ्मनः प्राणापानाः पुद्गलानां । १६ । मुग्वदुःग्वजीवितमरणोपग्रहाश्च । २० । परस्पगेपग्रहो जीवानां । २१ । वर्तनापरिणामक्रियापरत्वापरत्वं च कालस्य । २२ । स्पर्शग्सगंधवर्णवंतः पुद्गलाः ।२३। शब्दबंधमोक्षम्यस्थौल्यसंस्थानभदतमश्छायातपोद्योतवंतश्च । २१ । अग्गवःस्कंधाश्च । २५ । भेदसंघातेभ्य उत्पद्यते । २६ । भदादणुः । २७ । भेदसंघाताभ्यां चाक्षुषः । २८ । मद्रव्यलनणं ।२६। उत्पादव्ययध्रीव्ययुक्त मत् ।३०। नद्भावाव्ययं नित्यं । ३१ । अपितानपितमिद्ध। ३२ । नि Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ श्री जैन पूजा-पाठ मंग्रह। ग्धरूनत्वादबंधः । ३३ । न जघन्यगुणानां । ।३१। गुणसाम्ये सदृशानां । ३५ । द्वयधिकादिगुणानां तु ॥३६॥ बंधेऽधिकोपारिणामिको च ॥ ३७ ॥ गुणपर्ययवद्रव्यं ॥३८॥ कालश्च ॥३६॥ सोऽनंतसमयः ॥४०॥ द्रव्याश्रया निगुणा गुणाः ॥४१॥ तद्भावः परिणामः ॥१२॥ उदकचंदननंदुलपुष्पकश्चममदीपमध्पफलाकः । चवलमंगलगानग्वाकुल जिनगृह जिनमूत्र महं यज । ४।। ओ ह्रीं श्रीमदमाम्बामि विचिन तन्वार्थ मूत्र पंचममूत्राय अत्र । इति नत्वार्थाधिगम माक्षशास्त्र पंचमोऽध्यायः ।।५।। कायवाङ्मनः कर्मयोगः ॥१॥ स आम्रकः ॥२॥ शुभः पुण्यम्याशुभः पापम्य ॥३॥ सकपायाकषाययोः सांपगयिकर्यापथयोः ॥१॥ इन्द्रि. यकषायाव्रतक्रियाः पंच चतुः पंच पंचविंशतिसंग्ख्याः पूर्वस्यभेदाः ॥५॥ तीवमंदज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्यविशपेभ्यस्तद्विशपः ॥६॥ अधिकरणं जीवाजीवाः ॥७॥ आद्य संग्भम २८ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ श्री जन पृजा-पाठ संग्रह। मारंभारंभयोगकृतकारितानुमतकषायविशेष . स्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्चैकशः ॥८॥ निर्वर्तनानिनेपसंयोगनिसर्गा द्विचतुद्धित्रिभेदाः परं ॥६॥ तप्रदोषनिह्नवमात्मर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावर्णयोः । १० । दुःग्वशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपराभयस्थानान्यसवेद्यम्य । ॥११॥ भूतवृत्यनुकंपादानमगगमयमांदियोगः नांतिः शोचमिति मढ़ द्यस्य ॥१२॥ कवलिश्र - नसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहम्य ॥१३॥ कपायोदयातीव्रपरिणामश्चारित्रमोहम्य ॥१४॥ बह्वारंभपरिग्रहत्वं नारकम्यायुपः ॥ १५ ॥ माया नर्यग्यानस्य ॥१६॥ अल्पारंभपरिग्रहत्वं मानपम्य ॥ १७॥ स्वभावमार्दवं च ॥१८॥ निःशीलवतित्वं च मर्वषां ॥१६॥ मगगमंयममंयमासंयमाकामनिर्जगवालनपांनि देवम्य ॥२०॥ सम्यक्रवं च ॥२१॥ योगवक्रताविसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः ।। २२ ॥ तद्विपर्गनं शुभम्य । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० __ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह। ॥२३॥ दर्शनविशुद्धिविनयसंपन्नता शीलवतेष्वनतीचागेऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तिम्त्यागतपसी साधुसमाधियावृत्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्र नप्रवचनभकिरावश्यकापरिहाणिर्मा - र्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ॥२॥ परात्मनिंदाप्रशंस सदसदगुणाच्छादनाद्भावने च नीचंर्गोत्रस्य ॥२५॥ तद्वि. पर्ययो नीचे त्यनुत्सको चोत्तरस्य । ६ । वि. नकरणमंतरायस्य ॥२७॥ उनकचंदननंदुलपुष्पकश्चम्मुदीपमुपफलाधकः । धवल मंगलगानरवाकुले जिनगृह जिनमूत्रमहं यज ।।६।। आ ह्रीं श्रीमदुमाम्बामि विरचिन तत्वार्थ सूत्रं परमसूत्राय अर्थ इति तत्वार्थाधिगम माक्षशास्त्रे पप्ठोऽध्यायः ।।६।। हिंसानृतम्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरति तं ॥१॥ देशसर्वतोणुमहनी ॥२॥ तत्स्थैर्यार्थ भावना पंच पंच ॥३॥ वाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिनेपणसमित्यालोकितपानभाजनानि पंच ॥१॥ क्रोधलोभभीमत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषणं च . . Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन १६१ पूजा-पाठ संग्रह | पंच ॥ ५ ॥ शून्यागारविमोचितावासपरोपरीधाकरणभैच्यशुद्धिसद्धर्माविसंवादाः पंच ॥६॥ स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहरांग निरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टर सस्वशरीरसंस्कारत्यागाः पंच ॥७॥ मनोज्ञामनोइंद्रियविपयरागढ पवर्जनानि पंच ॥ ८ ॥ हिंसादिविहामुत्रापायावदर्शनं ॥ ६ ॥ दुःखमेव वा ॥ १०॥ मंत्री प्रमोद कारुण्यमाध्यस्थानि च सत्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनयेषु ||११|| जगत्कायस्वभाव वा संवेगवेगग्या६ || १२ || प्रमन्नयोगात्प्राणव्यपरोपण हिंसा ॥ १३ ॥ सदभिधानमनृतं ॥ १४॥ अदत्तादानं स्वयं ||१५|| मैथुनम ॥१६॥ मूर्छा परिग्रहः ॥१७॥ निःशल्यां नी ||१८|| गार्यनगारश्व ॥१६॥ अतोऽगारी ॥ २० ॥ दिग्देशानर्थदंडविरतिसामायिक प्रोपोपवासोपभोगपरिभाग परिमाणातिथिसंविभागवत संपन्नश्च ॥ २१॥ मारणांतिक सल्लेखनां जपिता ||२२|| शंका 8 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह । कांनाविचिकित्मान्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टंग्नीचागः ॥२३॥ तशीलेषु पंच पंच यथाक्रमं ॥२४॥ बंधवधच्छेदानिभारारोपणान्नपाननिगेधाः ॥२५॥ मिथ्योपदेशरहोभ्याख्यानकृटलेग्वक्रियान्यासापहारसाकारमंत्रभेदाः ॥२६॥ म्तेन प्रयोगतदाहृतादानविरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहागः ॥२७॥ परविवाहकरणत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागम . नानंगक्रीडाकामीत्राभिनिवेशाः ॥२८॥ क्षेत्र वास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिकमाः ॥२६॥ ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रमनवृद्धिम्मृत्यंतराधानानि ॥३०॥ आनयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलक्षेपाः ॥३१॥ कंदर्प कौत्कुच्यमोग्वर्यासमीक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभा - गानर्थक्यानि ॥ ३२ ॥ योगदुःप्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ॥ ३३ ॥ अप्रत्यवेक्षिता प्रमार्जितात्मर्गादानसम्तगपक्रमणानादरम्मृत्य Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। नुपस्थानानि ॥३४॥ सचित्तसंबंधसंमिश्राभिष वदुःपक्वाहाराः ॥३५॥ सचित्तनिक्षेपापिधानप रव्यपदेशमात्सर्यकालातिक्रमाः ॥३६॥ जीवि तमरणा शंसामित्रानुरागसुखानुबंधनिदानानि ॥३७॥ अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानं ॥३८॥ विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेषः ॥३६॥ उदकचंदननंदुलपुप्पकश्चम्मुदायन-पफलायकः । धवलमंगलगानग्वाकुल जिनगृह जिनमूत्रमहं यजे ।।७।। ओं ह्रीं श्रीमदुमास्वामि विचिन नच्वार्थ मूत्र मप्रममूत्राय अघ । इनि नत्वााधिगम मानशास्त्रं मप्रमाऽध्यायः ।।७।। मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकपाययोगा बंधहेतवः ॥१॥ सकपायत्वान्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते स बंधः ॥२॥ प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदे. शास्तद्विधयः ॥३॥ आद्यो ज्ञानदर्शनावरणवेद नीयमोहनीयायुर्नामगोत्रांतरायाः ॥४॥ पंचनव यष्टाविंशतिचतुर्द्विचत्वारिंशद्विपंचभेदा यथाक्रमं ॥५॥ मनिश्र तावधिमनःपर्ययकेवलानां ॥६॥ चक्षुरचजुरवधिकवलानां निद्रानिद्रानिद्राप्र Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | चलाप्रचलाप्रचलास्त्यानगृद्धयश्च ॥७॥ सदसद्यं ॥ || दर्शनचारित्रमोहनीयाकपायकपायत्रे दुनीयाख्यास्त्रिद्विनवषोड़शभेदाः सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयान्यकपायकपायौ हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्री पुन्नपुंसकवेदा अनंतानुबंध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनविकल्पाश्चैकशः कोधमानमायालाभाः ॥६॥ नारकतैर्यग्योनमानुषदेवानि ॥ १० ॥ गतिजातिशरी रांगोपांगनिर्माणबंधनसंघातसंस्थानसंहननस्पर्शरसगंधवर्णानुपूर्व्य गुरुलवूपघातपरघातातपोद्योतोच्छ्वासविहायोगतयः प्रत्येकशरीरससुभगसुस्वरशुभसूक्ष्मपर्याप्तिस्थिरादेययशः कीर्तिस्तराणि तीर्थकरत्वं च ॥ १ ॥ उच्चैनचश्च ॥ १२॥ दानलाभभोगोपभोगवीर्याणां ॥१३॥ आदितस्तिमृसामंतरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटी कोट्यः परा स्थितिः ॥ १४ ॥ सप्ततिमहनीयस्य ॥ १५॥ विंशतिर्नामगोत्रयाः ॥ १६ ॥ त्रयस्त्रिंशत्सागरी १६४ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। १६५ पमाण्यायुषः ॥१७॥ अपरा द्वादशमृ हर्ता वेदनीयस्य ॥१८॥ नामगोत्रयोरष्टौ ॥१६॥ शेषाणामंतर्मुहुर्ता ॥२०॥ विपाकोनुभवः ॥२१॥ स यथानाम ॥२२॥ ततश्च निर्जग ॥२३॥ नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात्मूक्ष्मकनेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशवनंतानंतप्रदेशाः ॥२४॥ सह द्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यं ॥२५॥ अतोऽन्यत्पापं ॥२६॥ उदकचंदननंदुन पुष्पकंश्चममुदीपमपफलायकः । चवमा लगानर वाकुल तिनगृह जिनसूत्रमई बजे ।।८। श्रां ह्रीं श्रीमदमान्य मि विचिन नच्वार्थ मूत्रं अष्टमसूत्राय अघ इनि तन्वार्थाधिगम माक्षशास्त्र अष्टमा च्यायः ।। आश्रवनिरोधः संवरः ॥१॥ सगुप्तिसमिनिधमानुप्रेनापर्गपहजयचाग्निः ॥२॥ तपसा निजग च ॥३॥ सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः ॥४॥ई. यांभाषणादाननिन्नपात्मर्गाः ममितयः ॥५॥ उत्तमनमामाईवार्जवसत्यशाचसंयमतपम्त्या . गाकिंचन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः ॥६॥ अनित्या . Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। शरणसंसारकत्वान्यत्वाशुच्यानवसंवरनिर्जरा - लोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्याततत्त्वानुचितन . मनुप्रेक्षाः ॥७॥ मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीपहाः ॥८॥ जत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याक्रोशव . धयानालाभरोगतृणम्पर्शमलसत्कारपुरस्कार . प्रज्ञाज्ञानादर्शनानि ॥६॥ मूक्ष्मसांपरायच्छद्मस्थवीनगगयोश्चतुर्दश ॥१०॥ एकादश जिने ॥११॥ वादरसांपराये सर्वे ॥१२॥ ज्ञानावरण प्रज्ञाज्ञाने ॥१३॥ दर्शनमोहांतराययोग्दर्शनालाभौ ॥१४॥ चारित्रमोहे नाग्न्यारतिस्त्रानिषद्याक्रोशयाच्यासत्कार पुरस्काराः ॥१५॥ वेदनीये शेषाः ॥१६॥ एकादयो भाज्या युगपदे. कस्मिन्नेकोनविंशतिः ॥१७॥ सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिमूक्ष्मसांपगययथा . ख्यातमिति चारित्रं ॥१८॥ अनशनावमोदयवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्रशय्यासन . Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। १९७ कायक्लेशा वाह्य तपः ॥१६॥ प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरं ॥२०॥ नवचतुर्दशपंचद्विभेदायथाक्रमं प्राग्धयानात् ॥ २१॥ आलोचनाप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्मर्गतपश्छेदपरिहागपस्थापनाः ॥२२॥ ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः ॥२३॥ आचार्योपाध्यायतपस्विशक्ष्यग्लानगगाकुलमंघमाधुमनोजानां ॥२४॥ वाचनाच्छनानुप्रेनाम्नायधर्मापदेशाः ॥२५॥ वाह्याभ्यंतरांपध्याः ॥२६॥ उत्तममंहननम्यकाग्रचिंतानिरोधो ध्यानमांतर्महात् ॥२७॥ आत्त गेद्रधर्म्यशुक्लानि॥२८॥ पर मानहत ॥२६॥ आर्तममनोज्ञम्य संप्रयोगे नदिप्रयोगाय म्मूतिसमन्वाहारः ॥३०॥ विपरीनं मनोज्ञम्य ॥ ॥३१॥ वेदनायाश्च ॥३२॥ निदानं च ॥३३॥ तदविग्तदेशविरतप्रमत्नमयतानां ॥३॥ हिंसानृतम्तेयविषयसंरक्षणभ्यो गेंद्रमविगतदेशविग्तयोः ॥३५॥ आज्ञापायविपाकर्मस्थानविच Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | चाय धर्म्यं ॥ ३६ ॥ शुक्ले चाद्य े पूर्वविदः ॥ ३७॥ परे केवलिनः ॥ ३८ ॥ पृथक्त्वैकत्ववितर्कसूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिच्युपरतक्रियानिवर्तीनि ॥३६॥ व्येकयांगकाययोगायोगानां ॥४०॥ एकाश्रये सवितर्कवीचारे पूर्वे ॥ ४१ ॥ वीचारं द्वितीयं ॥ ४२ ॥ वितर्कः श्रुतं ॥ ४३ ॥ वीचारोर्थव्यंजनयोगसंक्रांतिः ॥ ४४ ॥ सम्यग्दृष्टिश्रावकवितानंतवियोजक दर्शन मोहचपकोपशमकोपशांतमोहतपकन्रीगण मोहजिनाः निर्जराः ॥२५॥ पुलाकवकुश कुशील निग्रंथ - स्नानका निथाः ॥ २६ ॥ संयमश्र प्रतिसेवनातीर्थ लिंगले श्योपपादस्थान विकल्पनः क्रमशोऽसंख्येयगुणा C सा ध्याः ॥४७॥ उदकचंदनतंदुलपुष्पकैश्चरुसुदीप फलार्थकः 1 धवल मंगल गानरवाकुले जिनगृहे जिनसूत्रमहं यजे || श्री ह्रीं श्रीमदुमास्वामि विरचित तत्त्वार्थसूत्रे नवमसूत्राय अर्थ । इति तत्वार्थाधिगमं मोक्षशास्त्रं नवमोऽध्यायः ॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। १६६ मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणांतरायनयाच केवलं ॥१॥ बंधहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्नकर्मविप्रमोनो मोक्षः ॥२॥ औपशमिकादिभव्यत्वानांच ॥३॥ अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः ॥४॥ तदनंतरमृर्व गच्छत्यालोकांनात् ॥५॥ पूर्वप्रयोगादसंगत्वादधच्छेदात्तथागति परिणामाच्च ॥६॥ आविद्धकुलालचक्रवद्वयपगतलपालाववदरंडीजवदानशिग्वावञ्च ॥ ७॥ धर्मास्तिकायाभावात् ॥८॥ क्षेत्रकालगतिलिंगतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धवाधितज्ञानावगाहनांतर संख्याल्पवहुत्वतः साथ्याः ॥६॥ उदकचंदननंदुलपुष्पकंश्चममदापमुथपफनायकः । धवल मंगलगानर वाकुन जिन्गृह जिनमूत्रमहं यज ।।१।। ा ही श्रीमदमाम्वामि विचित नन्यायमूत्र दशम मूत्राय अन । इति नन्वाधिगम माक्षशाय दशमोऽध्यायः ।।१०।। अक्षरमात्रपदम्वरहीनं व्यंजनसंधिविजि. तरेफम् । साधुभिग्त्र मम नमितव्य को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्र ॥१॥ दशाध्याय परि Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह। च्छिन्ने तत्वार्थ पटिने सति । फलं स्यादुपवामम्य भाषितं मुनिपुंगवः ॥२॥ तत्वार्थमूत्रकर्तारं गृपिच्छोपलनितम्। वन्दे गणीन्द्रसंजानमुमास्वामिमुनीश्वरम् ॥३॥ पढमं चउक्के पढमं पंचमे जाणि पुग्गलं तच्च । छह सत्तमे हि आस्लव अमे बंधणायव्वा ॥४॥ णवमे संवर णिजर दहम मोक्ग्वं वियाण हि । इह सत्त तच्च भणियं दह सुक्षगण मुणिं देहिं ॥५॥ जं सक्कड़ तं कीरइ, जं चण सका तं च सद्दहणं । सद्दहमारणा जीवा पावइ अयगमरं ठाणं ॥६॥ नव यरणं वयधरणं, संयमसरणं च जीवदयाकरणम् । अंत समाहिमरणं, चउगइ दुवं णिवारेई ॥७॥ अरहंत भासियत्थं गणहरदेवहिं गंथियं सव्वं । पणमामि भत्तिजुत्तो, सदणाणमहोव्वयं सिरसा ॥८॥ गुरवो पांतु वो नित्यं ज्ञानदर्शननायकाः। चारित्राणंव गंभीराः मोक्षमागोपदेशकाः ॥६॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह । कोटिशनं द्वादश चैव काट्यो लक्ष्यागयशीतिस्त्र्यधिकानि च । पंचाशदष्टौ च सहस्रसंग्व्यमेतदश्रु तं पंचपदं नमामि ॥१०॥ उदकचंदननंदुलपुष्पकश्चममदापन उप फलाना: । धवन मंगल गानर व कुलं जिनगृह जिनम्मद यज । १॥ ओ ही श्रीमद माम्वामि वर्गच नाय नच्चाथमाय महाम। इति नन्वाधिगम मानशास्त्रं समाप्रम । जिनवाणी स्तुति वार हिमाचल निकमी गुम गौतमक मृग्यकुगड ढग है, माह महाचल भंद चला जगकी जड़ता तप दर कंग है। ज्ञान पयोनिधि मांहि गन्ना यह भंग तरंगान मी उग है, नाशुधि शारद गंग नदी प्रति में अंजुग निज माग धग है।।१।। या जग मंदिग्में अनिवार अनान ग्रंधर च्या प्रति भाग, श्रीजिनकी धुनि दीपशिग्वा मम जी नहि हानि प्रकाशन हाग। तो किस भांति पदाग्य पानि कहां लहने रहने अविचार्ग, या विधि मत कह धान हैं धनि हैं जिन वन बड़े उपगाग ।।२।। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह क्षमावणां पूजा भाषा । आसोज बढ़ी प्रतिपदा के दिन भगवानको मेरु पर विराजमान करके पंचमंगल और अभिषेक पाठ बोलकर नित्य नियम पूजा करनेके बाद निम्नलिखित क्षमावणां पूजा करना चाहिये । पश्चात सोलह कारणका अभिषेक करके भगवानको वेदीमें यथास्थान विराजमान करना चाहिये २०२ 1 छप्पय । अंगमा जिन धर्म तनों दृढ़ मूल बानी | सम्यक रतन संभाल हृदय में निश्चय जानां ॥ तज मिथ्या विष मूल और चित निरमल ठानां । जिन धर्मी सां प्रीत करो सब पातिग भानां ॥ रत्नत्रय गह भविक जन जिन आज्ञा सम चालिये निश्चय कर आराधना करम रामको जालिये ॥ 1 ह्रीं सम्यक रत्नत्रयाय नमः अत्र अवतर अवतर मंत्रोपट श्राह्नाननं ॥ अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं । अत्र मम सन्निहिता भव भव वपट् सन्निधिकरणं पुष्पांजलि क्षिपन ii अथाष्टक | नीर सुगंध सुहावनो पदम ग्रह को लाय । जन्म रोग निरवारिये सम्यक् रतन लहाय ॥ चमा गहो उर जीवड़ा जिनवर वचन गहाय । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह । श्रीं ह्रीं निःशांकिनांगाय. निःकांक्षितांगाय. निर्विचिकित्सितांगाय निर्मुडांगाय उपगूहनागाय सम्थितिकरणांगाय, वात्सव्यतांगाय. प्रभावनागाय, जन्म मृत्यु विनाशनाय सम्यग्दर्शनायजलं ॥ ग्रां ह्रीं व्यंजन व्यंजनाय अथ समग्राय तदुभय समग्राय. कालाध्ययनाय उपध्यानापहिताय. विनय लक्ष्यप्रभावनाव. गुरवाघपन्हव बहुमानान्मान, प्रशंग सम्यग्ज्ञानायजलं. श्री ही अहिंसा व्रताय. सत्य व्रताय. प्रचीयत्रताय, ब्रह्मचर्य व्रताय, अपरिग्रह महावनाय मनो गुप्रये, वचन गुप काय गुप्तये दृष्या समिति, भाषा समिति, एपरणा समिति, आदान निजेपण प्रतिष्ठापना समिति, त्रयोदश विच सम्यक चारित्राय जन्म जग मृत्यु विनाशनायजलं ॥ १ ॥ केसर चंदन लीजिये. संग कपूर घसाय | प्रति पंकति आवत बनी. वास सुगंध सुहाय ॥ नमा गहो उर जीवड़ा. जिनवर वचन गहाय । चंदनं ॥२॥ शालि अखंडित लीजिये. कंचन थाल भराय । जिनपढ़ जो भावसों, अन्य पदको पाय | नमा गहो उर जीवड़ा. जिनवर वचन गहाय । अननं ॥ ३ ॥ २०३ पारिजात अरु केनकी पहुप सुगंध गुलाव | श्रीजिन चरण सरोजं पूज हरप चितचाव ॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ मंग्रह। नमा गहा उर जीवड़ा. जिनवर वचन गहाय । पुप्पं ॥२॥ शकर घृत सुरभी तना, व्यंजन पाम स्वाद । जिनके निकट चढ़ायकर हिग्दे धरि अहलाद ॥ क्षमा गहो उर जीवड़ा. जिनवर वचन गहाय । नवा ॥५॥ हाटक मय दीपक रचा. वाति कपूर सुधार । शोधित घृत कर पूजिय. मोह तिमिर निग्वार ॥ क्षमा गहां उर जीवड़ा. जिनवर बचन गहाय । दीपं ॥६॥ कृष्णागर करपूर हो. अथवा दस विधि जान । जिन चरणन दिग ग्वडये. अष्ट करम की हान ॥ क्षमा गहा उर जीवड़ा. जिनवर वचन गहाय । धृपं ॥७॥ केला अम्ब अनार ही. नारिंकल ले दाग्ब । अग्र धरो जिनपद नने. मोन होय जिन भाग्य । क्षमा गहो उर जीवड़ा. जिनवर वचन गहाय । फलं ॥८॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। २०५ जलफल आदि मिलाय के. अरघ करो हरपाय ॥ दुःख जलांजलि दीजिये. श्रीजिन होय सहाय ॥ नमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर वचन गहाय । अर्घ ॥ ॥ जवसाचा दोहा। उननिस अङ्ग की आरती, सुनां भविक चितलाय मन वच तन सरधा करो. उत्तम नर भव पाय । १ । चौपाई जैनधर्म में शंक न यानं, सो निःशंकित गुण चित ठानें । जप तप कर फल बांटे नाही. निःकांक्षित गुण ही जिस माहीं २ पर को देख गिलानि न याने सो तीजा सम्यक गुग्ण टार्ने । आन देवको रंच न मानों सा निमंत गुण पहिचानी ||३|| पर को गुण देख ज ढाके, सो उपग्रहन श्री जिन भाएँ । जैन धर्म ते डिगता देखे. या बहुरि स्थिति कर लेखे ||४|| जिन धरमीसी प्रीत निवदिये गवत बच्छन् कहिये । ज्यों त्यो जैन उद्योत बढ़ाने, सो प्रभावना अङ्ग कहावे ॥५॥ ऋष्ट अङ्ग यह पलं जाई. सम्यकदी कहिये सोई । अब गुरण थाट ज्ञान के कहिये, भाखे श्री जिन मनमें गहिये ।। व्यंजन अक्षर सहित पड़ोजे व्यंजन व्यंजित अङ्ग कहा । अथ सहित शुध शब्द उचार दुजा ग्रंथ समग्रह धर ||७|| Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૦૬ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | 1 तदुभय तीजा अङ्ग लखीजें, अक्षर अर्थ सहित जु पढ़ी | चौथा कालाध्ययन विचार, काल समय लखि सुमरण धाएँ ८|| पंचम अङ्ग उपधान बतावें, पाठ सहित तब बहु फल पांच पटम विनय सुलब्धि सुनीजें, चारणी बहुत विनय सु पढ़ीजै ९ || जाएँ पढ़े न लोपं जाई, अङ्ग सप्तमगुरु बाद कहाई । गुरुकी बहुत विनय जुकरीज, सो अष्टम अङ्गधर सुख लीजे १० यह आटी अङ्ग ज्ञान बढ़ाने, ज्ञाता मन वच तन कर ध्यावै । अब आगे चारित्र सुनीजे, तेरह विधिधर शिव सुख लीजै ११ ॥ रक्षा कर, मोई अहिंसा व्रत चित धर हैं हितमित सत्य वचन मुग्य कहिये, सो मतवादी केवल लहिये १२ मन वच काय न चौरी करिये, मोई अचौर्य व्रत चित धरिये । मन मय भय मन रंचन ग्रन, मो मुनि ब्रह्मचर्य व्रत ठाने १३ || परिग्रह देख न मुक्ति होई. पंच महाव्रत धारक सोई । महाव्रत ये पांचों खरे हैं, सब तीर्थकर इनको करें हैं | १४ || मन में विकलप रंच न होई, मनोगुप्ति मुनि कहिये सोई । वचन अतीक रंच नहिं भाखं वचन गुप्ति मां मुनिवर ग १५|| कायोत्सर्ग परीप सहि हैं, ता मुनि काय गुप्त जिन कहि हैं । पंच समिति अब सुनिये भाई, अथ सहित भावों जिन राई १६ हाथ चार जब भूमि निहारें, तब मुनि या पथ पद धारें । मिष्ट वचन मुख बोलें मोई. भाषा समिति ताम मुनि होई ||१७|| Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। भोजन छयालिस दृषण टारें, सो मुनि एपण शुद्ध विचारें । देखके पाथी ले अरु धर हैं, मो आदान निक्षेपण वर हैं ॥१८॥ मल मूत्र एकान्त जु डार, परतिष्ठापन ममिति मंभारें । यह सब अङ्ग उनतीम कहे हैं. जिन भाग्य गणधर ने गहे हैं १९।। आठ आठ तेरह विधि जानी, दर्शन ज्ञान चरित्र म ठानी। नातं शिवपुर पहुंची जाई, रत्नत्रय की यह विधि भाई ॥२०॥ रतनत्रय पूरण जब होई, क्षिमा क्षिमा करियों मब कोई । चत माघ भादों त्रय वाग, क्षिमा क्षिमा हम उर में धाग।।२१।। दाहा। यह नमावी आरती, पढ़ सुने जो कोय । कह 'मल्ल' सरधा कगे. मुकि. श्री फल होय २२। ओ ही अष्टांग सम्यग्दशनाय. अविध सम्यग्ज्ञानाय त्रयोदश विध सम्यक चारित्राय ग्त्रत्रयाय अन्य पदप्रामय महा। माग्टा दोष न गहिये कोय. गुगणगह पढ़िये भाव मों। भूल चूक जो होय. अर्थ विचारि जु शांधिय ॥ ल्याशावादः । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। पञ्चपरमेष्ठी आदि की आरती इह विधि मंगल प्रारति कीज, पंच परमपद भ ज सुग्ध लीज। टेका। पहली आरती श्री जिनगजा, भव-दाधिपार उतार जिहाजा । इहविधि मंगल यानि कीजे पंच परमपद भज सुग्घ लीज।।१।। दुरि प्रारति मिद्धनकंग, मुमग्न करत मिटै भवफेरी । इहविधि मंगल प्रार्गत काज, पंच परमपद मन मुख लीज।।२।। तीजी प्रारति सूर मनिदा, जनम मग्न दुख दर कग्दिा । इह विधि मंगन्न प्रारति कीज, पंच परमपद भज मख लीज ।।३।। चौथी आरति श्रीउवझाया, दशन देखत पाप पलाया । इहविधिमंगल पारनि कीज, पंच परमपद भन मुख लीज। ४।। पांचमि प्रारति माध तिहाग, कुमति-विनाशन शिव-अधिकारी। इहविधि मंगल ग्रारति कीज, पंच परमपद भज मुग्ब लीज।।५।। बट्टी ग्यारहप्रतिमा धार्ग, श्रावक बंदों यानँदकारी । इह विधि मंगल प्रारति काज. पंच परमपद भज मुग्न लाज ।।६।। मातमि आरति श्रीजिनवाणी 'चानत मुग्गमुकति सुखदानी। इह विधि मंगल आरति कोज, पंच परमपद भज सुख लाज।।७।। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। २०६ दीपमालिका विधान। निर्वाणोत्सव । श्री शुभ मिनी कार्तिक वदी अमावस्या के प्रातःकाल करीब ४ बजे शौचादि म निवृत्त होकर म्नानादि प्रातःकालीन क्रियायें करके श्रीमहावीर स्वामीका निर्वाण कल्यागाक उत्सव मनाने के लिय श्रीमंदिरजी में जाना चाहिय । वहां पर ग्वत्र ठाठबाटमे नृत्य महात्मव. गायनवादित्रादिक माथ नित्य नियम पूजा करके श्री महावीरम्वामी की पूजा करनी चाहिये । महावीर स्वामीकी पृजाम गभ. जन्म. नप और ज्ञान कल्याणकका अर्घ चढ़ानेक बाद प्रिय मधुर ध्वनिम निवागा कागद वाले, फिर मोक्ष कल्याणक का पद्य बाल कर उपस्थित सभी बी-पुरुपा को अर्घ महित निर्वागजाका लाट्ट चढ़ाना चाहिये। इस वक्त वदिवादिकी ध्वनिम मंदिरका गुञ्जायमान कर देना चाहिय । निर्वाणकांड भापा। वीतराग बंदों मदा, भावसहित सिग्नाय । कहूं कांड निर्वागाकी भाषा सुगम बनाय ॥१॥ चौपाई। अष्टापद अादीश्वर म्बामा, वासुपूज्य चंपापुग्निामि । नेमिनाथ म्बामा गिरनार, बंदा भावभगति उर धार ।।२।। चम्म तीर्थकरचम्म गर्गर, पावापरि म्वामी महावीर । शिखग्समंद जिनमुर वीम, भावमाहित बंदा निश दीम ॥३॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | वरदतराय रु इन्द मुनिंद, सायर दत्त आदिगुणवृंद | नगरतारवर मुनि उठ कोडि, बंदौ भाव सहित कर जोडि || ४ || श्री गिरनार शिवर विख्यात, कोडि बहत्तर अरु सौ मात | संप्रदुम्न कुमर भाय, अनिरुध आदि नमं तसु पाय | ५|| रामचंद्र के सुत है वीर, लाडनरिंद आदि गुणधीर । पांचकोडि मुनि मुक्तिमकार, पाचागिरि बंदी निरधार || ६ || पांडव तीन द्रविड़गजान, आठकोडि मुनि मुकति पयान | श्री शत्रुंजय गिरि के सीस, भावसहित बंदौ निशदीम |||७|| जे बलभद्र मुकति में गये, आठकोडि सुनि और भये 1 श्रीगजपंथ शिखर सुविशाल, तिनके चरण नमं तिहुंकाल |८|| राम हनू सुग्रीव सुडील, गवयगवाख्य नील महानील । कोडि निन्याराव मुक्ति पयान, तुंगीगिरि बंदी धरि ध्यान ॥९॥ नंग अनंग कुमार सुजान, पांचकोडि अरु अर्ध प्रमान । मुक्ति गये सोनागिरि शीस, ते बंदों त्रिभुवनपति ईस ॥ १० ॥ रावणके सुत आदिकुमार, मुक्ति गये रेवातट सार । कोटि पंच अरु लाख पचास, ते बढ़ी धरि परम हुलाम ॥ ११ ॥ रेवा नदी सिद्धवरकूट, पश्चिम दिशा देशा देह जाँ छुट । द्वै चक्री दश कामकुमार उठकोडि बंदी भव पार ||१२|| बडवानी बडनयर सुचंग, दक्षिण दिशि गिरिचूर उतंग | इंद्रजीत अरु कुम्भ जु करणं, ते बंदों भवसागर तखे || १३ || २१० Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह । २११ मुवरण भद्र आदि मुनि चार, पावागिग्विर शिखर मँझार। चेलना नदीतीर के पाम, मुक्ति गये बंदी नित ताम ॥१४॥ फलहोड़ी वडगाम अनूप, पश्चिम दिशा द्रोणगिरि रूप । गुरुदत्तादि मुनीसुर जहां, मुक्ति गये वदी नित तहां ॥१५॥ बाल मह वाल मुनि दोय, नागकुमार मिले त्रय होय । श्रीअष्टापद मुक्तिमँझार, ने बंदी नित सुरत सँभार ॥१६।। अचलापुर की दिश ईमान, तहां भेदगिरि नाम प्रधान । माढ़े तीन कोडि मुनिगय, तिनके चरण नमं चितलाय॥१७॥ वमस्थल वनके ढिग होय, पश्चिमदिशा कंथुगिरि मोय । कुलभूपण दिशभूषण नाम, तिनके चरणनि करूं प्रणाम १८॥ जसरथ राजाके सुन कहे देश कलिंग पांचमी लहे । कोटिशिला मुनि कोटि प्रमान, वंदन कर जोर जुगपान १९॥ समयमरण श्रीपाशवंजिनंद, गमिदागिरि नयनानंद । वग्दत्तादि पंच ऋषिगज, ने बंदी निन धरम जिहाज २०॥ मथुगपुर पवित्र उद्यान, जंवृम्बामाजी निर्वान । चम्म केवली पंचम काल, ने वदा नित दीन दयाल ॥२१॥ तीनलोकके तीरथ जहां, नित प्रति चंदन का तहां । मनवचकायमहित सिर नाय, वंदन कहि भविक गुणगाय २२ मंवत मतहमा इकताल, आश्विन मुदि दशमी मुविशाल । 'भैया' वंदन कहिं त्रिकाल, जय निर्वाणकांड ॥२३।। इति Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ श्री जैन पूजा-पाठसंग्रह। महावीराष्टकरतोत्र छंद शिग्वारगि। यदीये चैतन्ये मुकुर इव भावाश्चिदचितः ममंभांति श्रीव्यव्यय जनिलमंतांतर्गहताः । जगन्माक्षा मार्गप्रकटनपगे भानुग्वियो महावीरम्वामी नयनप गाना भवतु में ( नः ) ॥१॥ अताम्र यच्चक्षुः कमलयगलं म्पंदरहितं जनान्कोपापायं प्रकटयति वाभ्यंतग्मपि । म्फुटं मृर्तियम्य प्रगमिनमा वातिविमला, महावारम्वामी नयनपथगामी भवतु मे ( नः ) ॥२॥ नमन्नाकेंद्राली मुकुटमणिमाजाल जटिलं, लसत्पादाभोजद्रयमिह यदीयं तनुभृतां । भवयालाशांन्यं प्रभवति जलं वा स्मृतमपि, महावीरनामी नयनपथगामा भवतु मे । नः ) । ३।। यद_भावेन प्रमुदितमना ददर इह, क्षणादामीत्स्वगी गुणगणसमृद्धः सुखनिधिः । लभंते मङ्गताः शिवमुखममाजं किमुतदा, महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे ( नः ) ॥४॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ मग्रह । कनत्स्वर्णाभामोऽप्यपगततनुज्ञाननिवहो, विचित्रात्माप्येको नृपतिवर्गसिद्धार्थतनयः । अजन्मापि श्रीमान् विगतभवरागोड़तगतिर, महावीरस्वामी नयनपथगामा भवतु मे ( नः ) । ५॥ यदीया वाग्गंगा विविधनयकल्लोल विमला, वृहज्ज्ञानांभोभिजंगति जनतां या म्नपयति । इदानीमप्येपा बुधजनमगलैः परिचिता, महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु में ( नः ) ॥६॥ अनिवारगेद्र कस्त्रिभुवनजयी काम सुभटः, कुमारावस्थायामपि निजवलाधन विजितः । स्फुरनित्यानंदप्रामपदगज्याय म जिनः, महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे ( नः ) ॥७॥ महामोहातंकप्रशमनपगम्मिकभिपङ निरापेक्षा, बंधुर्विदितमहिमा मंगलकरः । शरण्यः माधनां भवभयभृतामुत्तमगुरगो, महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु में ( नः ) ।।८।। महावीराष्टकं स्तोत्रं भक्त्या भागदुना कृतं, यः पठेच्छणुयाच्चापि म याति परमां गतिं ।।९।। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | दिवाली पूजा | जिस दिन दिवाली हो उस दिन सायंकाल में शुभ बेला शुभ नक्षत्र में निम्न प्रकार पूजा करके नई बहका मुहूर्त करें । तथा दीपमालिका की रोशनी करे। २१४ एक ऊंची चौकी पर थाल या रकेबी रखकर उसमें केशर से ॐ लिखना चाहिये. उसी चौकी के आगे दूसरी चौकी पर शास्त्रजी या जिनवाणी की पुस्तक विराजमान करना चाहिये । इन दोनों चौकियों के आगे एक छोटी चौकी पर पूजा की सामग्री तैयार रखना चाहिये और इसी के पास एक दूसरी छोटी चौकी पर थाल रखकर उसमें पूजा की सामग्री चढ़ाना चाहिये । पूजा करने वाले को पूर्व या उत्तर मुख करके पूजा करना चाहिये। जो कुटुम्बमें बड़ा हो या दुकान का मालिक हो वह चित्त में एकाग्रता करके पूजा करें और उपस्थित सब लोग पूजा बोलें तथा शांतिसे सुने। यहां पर व्यापार की बही में केशर से स्वस्तिक लिखकर तथा दवात कलमके मौली बांधकर सामने रख लेना चाहिये । पूजा प्रारम्भ करनेके पहले उपस्थित सब सज्जनों को नीचे लिखे श्लोक बोलकर केशरका तिलक कर लेना चाहिये । तिलक मंत्र | मंगलं भगवान् वीरो. मंगलं गौतमांगणी । मंगलं कुंद कुंदाद्यो, जैनधर्मोऽस्तु मंगलं ॥ १ ॥ तिलक करनेके बाद साधारण नित्य नियम पूजा करके १५४ वें में छपी हुई महावीरस्वामी की और १०० में पृष्ठम Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह । २१५ छपी हुई सरस्वती पूजा करना चाहिय । सरस्वती पूजा में फल चढ़ाने के बाद आगेका पद्य बालकर शामजाक लिय एक शुद्ध वस्त्र या बष्टन चढ़ाना चाहिय । पूजा कर चुकने के पश्चात रकवीमें कपूर प्रज्वलित करके सबको बड़े होकर खूब ललित ध्वनिसे नीचे लिम्वी श्रारती बालाना चाहिये। जिनवाणी माता की आरती । जय अम्बे वाणी, माता जय अम्बे वाणी । तुमको निश दिन ध्यावत सुरनर मुनी ज्ञानी ।। टेर ।। श्रीजिन गिरते निकमी, गुरु गौतम वाणी । जीवन भ्रम तम नाशन दीपक दरशाणा ।। जय अम्बे वाणी, माता जय अम्बे वाणी ॥१॥ कुमत कुलाचल चूरण, वज्र मु सरधानी । नव नियोग निक्षेपण, देवन दरपाणी ।। जय अम्बे वाणी, माता जय अम्बे वाणी ।।२।। पातक पंक पखालन, पुण्य परम पाणी । मोहमहार्णव इवत, तारण नौकाणी ।। जय अम्बे वाणी, माता जय अम्बं वाणी ॥३॥ लोकालोक निहारण, दिव्य नेत्र स्थानी । निज पर भेद दिखावन, सूरज किरणानी ।। जय अम्बे वाणी, माता जय अम्बं वाणी ॥४॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। श्रावक मुनिगण जननी, तुमही गुणखानी । सेवक लख मुखदायक, पावन परमाणी ।। जय अम्बे वाणी, माता जय अम्बं वाणी ।।५।। पश्चात नीच लिय अनुसार बहियाम म्बनिकादि लिखकर बीर संवत, विक्रम संवत. इवामन . मिती, वार. तारीख आदि लिखना चाहिय । श्री महावीर स्वामिने नमः। 卐 श्री श्री लाभ श्री श्री श्री शुभ श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री . श्रा श्री श्री श्री श्री श्री ऋषभायनमः श्री महावीर स्वामिने नमः श्री गौतमगणधराय नमः श्री जिनमुखाद्भवमरस्वतीदव्य नमः श्री कंवलज्ञान लक्ष्मी दव्यं नमः । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | विशेष पूजा-संग्रह २१७ श्री सम्मेद शिखर पूजा । दोहा | सिद्धक्षेत्र तीरथ परम, है उत्कृष्ट सुथान । शिखर समेद सदा नमूं, होय पापकी हानि ॥ १ ॥ अगनित मुनि जहंतें गये लोक शिखरके तीर । तिनके पद पंकज नमूं, नाशों भवकी पीर ॥२॥ अडिल्ल छंद । है उज्ज्वल यह क्षेत्र सु प्रति निरमल सही । परम पुनीत सुठौर महागुणकी मही ॥ सकल सिद्धि दातार, महा रमणीक है । बंडूं निज सुख हेत, अचल पद देत है ॥३॥ सोरठा । शिखर समेढ़ महान, जगमें तीर्थ प्रधान है । महिमा अद्भुत जान, अल्पमती में किम कहूं ॥ ४ ॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ___चाल सुन्दरी छन्द। सरस उन्नत क्षेत्र प्रधान है, अति सु उज्ज्वल तीर्थ महान है। करहिं भक्रिसु जे गुण गायकै, लहहिं सुर शिवके सुख जायकै ॥५॥ अडिल्ल छन्द । स्थापना. अडिल्ल छन्द । सुर नर हरि इन आदि और वंदन करें। भव सागरसे तिरै नहीं भवमें परै ॥ जन्म जन्मके पाप सकल छिनमें टरै। सुफल होय तिन जन्म शिखर दरशन करै ॥६॥ गिरि सम्मेद ते वीस जिनेश्वर शिव गये । और असंख्या मुनी तहां ते सिध भये ॥ बंदूं मन वच काय नमं शिर नायकै। तिष्ठो श्रीमहाराज सबै इत आयकै ॥१॥ श्रीसम्मेद शिखर सदा पूजें मन वच काय। हरत चतुरगति दुःखको मन वांछित फलदाय ॥२॥ दाहा। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | २१६ * ह्रीं श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेती श्री बीस तीर्थकर और असंख्यात मुनि मुक्ति पधारे, तिनके चरणारविन्दकी पूजा अत्रावतरावतर संवौपट आह्वाननं । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधापनं । परि पुष्पांजलिं क्षिपेत् । अथाक. गीता छंद । मोहन झारी रतन जड़िये मांहि गंगा जल भरो । जिनराज चरण चढ़ाय भविजन जन्म मृत्यु जरा हरो || संसार उदधि उबारनेको लीजिये सुध भावसों । सम्मेद गिरपर बीस जिन मुनि पूज हरप उछात्र सों ॥ १ ॥ ह्रीं श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेती बीस तीर्थकरादि असंख्यात मुनिमुक्ति पधारे तिनके चरणकमलकी पूजा जन्ममृत्यु रोगविनाशनाय जलं ||१|| जाकी सुगंध की अहो अलि गंजते आवे घने । सो मलय संग घसाय केसर पूज पद जिनवर तने || भव आताप निवारने को लीजिये निवारने को लीजिये सुध भावसों । सम्मेद गिरपर बीम जिन मुनि पूज हरप उद्घाव मों |२|| ॐ ह्रीं श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवनमेमी बांस नीर्थकरादि असंख्यात मुनि मुक्ति पधारे, तिनके चरण कमलकी पूजा भव आताप विनाशनाय चंद्रनं० ||२|| अक्षत अखंडित अतिहि सुन्दर जोति शशि सम लीजिये । शुभ शाल उज्ज्वल तोय धोय सु पूज प्रभु पद कीजिये || Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। पद अक्षयकारण लेय भविजन शुद्ध निरमल भावमों । सम्भेद गिरपर बीम जिन मुनि पूज हरष उछाव सों ॥३॥ ओं ह्रीं श्री सम्मंद शिग्बर मिद्ध क्षेत्र परवत संती वीस तीर्थकगदि असंख्यात मुनि मुक्ति पधार. निनक चरण कमल की पूजा अक्षय पद प्राप्तय अक्षनं० ।।२।। है मदन दुष्ट अत्यंत दुर्जय हते मबके प्रान ही। ताके निवारण हेत कुसुम मंगाय रंज न घान ही। जाकी सुवास निहार पटपद दोरि आवे चावमों । सम्मेदगिर पर बीस जिनमुनि पूज हरप उछाव मो ||४|| ओं ह्रीं श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सती बीम तीर्थक गदि असंख्यात मुनि मुक्ति पधारे. तिनके चरणकमल की पूजा काम बाण विध्वंसनाय पुप्पं० ।।2।। रस पूर रसना घ्रान रंजन चक्षु प्रिय अति मिष्ट ही । जिनराज चरण चढ़ाय उत्तम क्षुधा होवे नष्ट ही ।। भरि थाल कंचन विविध व्यंजन लीजिये सुध भावसों । सम्मेद गिरपर बीस जिन मुनि पूज हरप उठाव सों ।।५।। ओं ह्रीं श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षत्र परवत सेती बास नार्थकगदि असंख्यात मुनि मुक्ति पधार. निनकं चरण कमल की पूजा सुधा रोग विनाशनाय नैवेद्य० ॥५॥ त्रैलोक्यगर्भित ज्ञान जाको मोह निजयम करलियो । अज्ञान तममें पड़यो चेतन चतुरगति भरमन किया ।। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। २२१ लिन मांहि मोह विध्वंस हो। आरती कर चाव सों। सम्मेद गिर पर बीम जिन मुनि पूज हरप उछाव सों ।।६।। ओं ह्रीं श्री सम्मेद शिग्वर मिद्धतंत्र परवत सेती बीम नीशंकगदि असंख्यात मुनि मुक्ति पधार, तिनके चरण कमलकी पूजा मोहांधकार विनाशनाय दीपं ।।६।। शुभ अगर अम्बर वाम सुन्दर धूप प्रभु ढिग खेवही । ए दुष्टकम् प्रचण्ड तिनको होय तत छिन छेवही ॥ यो धृप वमु विधि जरत कारग लीजिये सुध भावसों । सम्मेद गिर पर बीस जिनमुनि पूज हरप उन्नाव सों ॥७॥ ओं ही श्री सम्मेद शिग्वर सिद्धनत्र परवत सनी बीस तीथकरादि असंख्यात मुनि मुक्ति पधार. निनके चरण कमलकी पूजा अष्टकम विध्वंशनाय थपं० ।।७।। बादाम श्रीफल लोग पिस्ता लेय शुद्ध सम्हालही। मंकार दाख अनार केला तुग्न सुटे डाल ही ॥ भवि लेय उत्तम हेत मित्रके छूट विधिके दावमों । सम्मेद गिर पर बीम जिनमुनि पून हरप उछाव मों ॥८ श्री ह्रीं श्री सम्मेद शिग्बर मिद्धतंत्र परवत सनी बीम नीर्थकगदि असंख्यात मुनि मुक्ति पधार निनके चरण कमलकी पूजा मोक्षफल प्राप्तये फलं ||८|| प्पय चाल । जन्म मृत्यु जल हरें, गंध आताप निवार। तंदुल पदके अन्नय मदन • सुमन विदारै ॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। क्षुधा हरन नैवेद्य दीप ते ध्वान्त नसावे । धूप दहे वसु कर्म मोक्ष सुख फल दरसावै ॥ ए वसु द्रव्य मिलायकै अर्घ रामचन्द्र कीजिये। कर पूजा गिरशिखर की नरभवका फल कीजिये। ओं ह्रीं श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवन मती बीस तीर्थकगदि असंख्यात मुनि मुक्ति पधार. तिनके चरण कमलकी पूजा अनर्घ पद प्राप्तय अघ० ।।६।। आगे प्रत्येक अर्घ सोरठा। सकल कर्म हनि मोक्ष, परिवा सित बैसाख ही। जजों चरण गुण धोख, गये समेदाचल थकी॥ ओं ही श्री सम्मेद शिम्बर सिद्धक्षेत्र परवन सेनी ज्ञानधर कूटके दरशन फल एक कोड़ उपवास और श्रीकुंथुनाथ तीर्थकगदि छानव कोड़ा कोड़ी छानवे कोड़ बत्तीस लाख छानव हजार सात से बैयालिस मुनि मुक्ति पधारे. तिनके चरणकमलकी पूजा अघ० दाहा। जेठ सुकल चउद्स दिवस मोक्ष गये गुणनाह । जजौं मोक्ष जिनके चरण कर करि वह उत्साह ॥ ओं ह्रीं श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवन सेती सुदत्तवर कूटके दरशन फल एक कोड़ उपवास श्री धरमनाथ तीर्थङ्कगदि गुण Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। २२३ तीम कोड़ा कोड़ी उन्नीस कोड़ नौ लाख नौ हजार सात से पंचानवे मुनि मुक्ति पधारे, तिनके चरण कमल की पूजा अर्घ० दोहा। चैत सुकल एकादशी शिवपुरमें प्रभु जाय । लहि अनंत सुख थिर भये आतमसं लव ल्याय॥ ओ ही श्री सम्मेद शिग्वर सिद्धक्षेत्र परवन सेता अविचल कूटके दरशन फल एक काड़ि उपवाम और श्री सुमतनाथ ताथकगदि एक कोड़ाकोड़ी चौगसी कोड़ बहनर लाख इक्यासी हजार सात सै मुनि मुक्ति पधार तिनके चरणकमल की पूजा अर्घ० दाहा। जेठ सुकल चउदस दिना सकल कर्म क्षय कीन। सिद्ध भये सुखमय रहैं हुए अष्टगुण लीन ॥ ओं ह्रीं श्री सम्मेद शिम्बर क्षेत्र परवत सेती प्रभास कूटक दरशन फल एक काड़ उपवास और श्रीशान्तिनाथ तीर्थङ्कगदि नौ कोड़ा कोड़ा नौ लाग्य नौ हजार नौ मौ निन्यानव मुनि मुक्ति पधारे, तिनके चरणकमल की पूजा अर्घ दाहा। वदि अषाढ़ अष्टमि दिवस मोक्ष गये मुनि ईश। जजू भक्रितें विमल प्रभु अर्घ लेय नमि शीश ॥ ओं ह्रीं श्री मम्मद शिखर सिद्धनत्र परवत सेनी सुवीर कुल कूट के दरशन फल एक कोड़ उपवाम और विमलनाथ तीर्थङ्करादि सत्तर २३ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રક श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह । कोड़ा कोड़ी साठ लाख छः हजार सात से बयालिस मुनिमुक्ति पधारे, तिनके चरणकमल की पूजा अर्घ० दोहा। फागुन सुदि सप्तमि दिना हनि अघातिया राय। जगत फांस • काटकै मोक्ष गये जिनराय ॥ ओं ह्रीं श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षत्र परवत सेती प्रभास कूट के दरशन फल एक कोड़ उपवास और श्रीसुपार्श्वनाथ तीर्थङ्कगदि उनचास कोड़ा कोड़ चौगमी कोड़ बहत्तर लाग्ब मान हजार सात से बयालिम मुनि मुक्ति पधार. तिनके चरणकमल की पूजा अर्घा दोहा। चैत सुकल पंचम दिना हनि अघातिया राय । मोक्ष भये सुरपति जजै मैं जजहूं गुण गाय ॥ ओं ह्रीं श्री सम्मेद शिग्वर मिद्धक्षेत्र परवत सेती निद्धवर कूट के दर्शन फल बत्तीस कोड़ उपवास और श्री अजितनाथ तीर्थङ्गादि एक अरब अस्सी कोड़ चौपन लाख मुनि मुक्ति पधार. तिनक चरण कमलकी पूजा अर्घ० । दोहा जुगल नाग तारे प्रभु पार्श्वनाथ जिनराय । सावन सुदि सातें दिवस लहे मुक्ति शिव जाय ॥ ओं ह्रीं श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सती सुवरनभद्र कूटके दरशन फल सोलह कोड़ उपवास और श्रीपाश्वनाथ तीर्थङ्करादि Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। २२५ बयामी करोड चौरासी लाख पैंतालीस हजार मात में बयालिम मुनि मुक्ति पधारे. तिनके चरण कमल की पूजा अर्घ० मोरठा। हनि अघाति शिव थान, चतुर्दशी वसाग्व वदि। जजू मोक्ष कल्यान, गये समेदाचल थकी ॥ श्री ह्रीं श्री सम्मेद शिग्वर मिदक्षत्र पग्वन मनी मित्रधर कूटके दरशन फल एक कोई उपवास और श्री नमिनाथ नाथङ्कगदि नौ में कोड़ा काही एक अग्व पैंतालिम लाग्य सात हजार नौ से बयालिस मुनि मुक्ति पधार तिनके चरणकमल की पूजा अर्घ० सारठा। सरव करम हनि मोक्ष, चैत अमावस शिव गये । मैं जजहूं वसु धाक, चतुर निकाय सुरा जजें॥ ओं ह्रीं श्री सम्मेद शिखर मिद्धतंत्र परवत सेती नाटक नामा कृटक दरशन फल छानव काइ उपवास और श्रीअरहनाथ तीर्थकदि निन्यानव काइ निन्यानवे नाग्य निन्यानव हजार नौ में निन्यानवे मुनि मुक्ति पधार निनके चरगा कमलकी पूजा अघ, दाहा। फागुन पंचमि सुकल ही शेष कर्म हनि मोन्न । गए समेढाचल थकी. शिवपद हित गुण धोक॥ ओ ह्रीं श्री मम्मद शिम्बर सिद्धनत्र परवत मनी मंचल कृट के दग्शन फल एक कोड़ उपनाम और श्रीमल्लिनाथ नाथङ्कगदि छानवे काड़ मुनि मुक्ति पधार तिनके चरणकमल की पूजा अर्घ० Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा- पाठसंग्रह | सोरठा । शिवथान सावन सुदि पूनमगए । जजूं मोक्षकल्यान सुरनर खगपति मिलि जर्जें ॥ २०६ श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेती संकुल नामा कूट के दरशन फल एक कोड़ि उपवास और श्रेयांसनाथ तीर्थं करादि छानवे कोड़ा को छानवे कोड़ छानवे लाख नौ हजार पांच सौ बयालिस मुनिमुक्ति पवार तिनके चरणकमलकी पूजा अ सोरठा । गये पुष्प निरवान भादव सुदि अष्टम दिना । पूजूं मोच कल्यान सत्र सुर मिल पूजा करी ॥ श्रीं ह्रीं श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेती सुप्रभु कूटके दरशन फल एक कोड़ उपवास और श्रीपुष्पदंत तीर्थंकरादि एक कोड़ा कोड़ी निन्यानवे लाख सात हजार चार सौ अस्सी मुनि मुक्ति पधारे तिनके चरण कमलकी पूजा अर्घ सोरठा 1 निघाति जिनराय, चौथ कृष्ण फागुन विषै जजूं चरण गुणगाय, मोच समेदाचल थकी ॥ श्रीं ह्रीं श्रीसम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेती मोहन कूटके दरशन फल एक कोड उपवास और श्रीपद्मप्रभु तीर्थंकरादि निन्यानवे कोड़ि सत्यासी लाख वितालिस हजार सात से सत्ताइस मुनि मुक्ति पधारे. तिनके चरण कमलकी पूजा अर्घ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। सोरठा। हनि अघाति निरवान फागुन द्वादशि कृष्ण ही। जजू मोनकल्यान, गए सुरासुर पद जजों ॥ ओं ह्रीं श्री सम्मेद शिम्बर सिद्धक्षत्र परवन सनी निर्जर नामा कूटके दरशन फल एक काइ उपवास और श्रामुनिसुव्रतनाथ तीर्थङ्कगदि निन्यानवे कोड़ा काड़ सत्यानव काडि नौ लाग्व नौ सौ निन्यानवे मुनि मुक्ति पधार निनके चरगा कमल का पूजा अर्घ । मारठा शेषकर्म हनि मोन फागुन सुकल जु सप्तमी। जजं गुणनिके धोक, गये समेदाचल थकी ॥ ओं ह्रीं श्री सम्मद शिखर मिद्धक्षेत्र परवन मनी ललित कूटके दरशन फल मालह लाख उपवाम और श्रीचन्द्रप्रभु तीर्थङ्करादि नौसौ चौगसी अरब बहत्तर कोडि अम्मी लाग्य चौगनी हजार पांच सौ पंचानवे मुनि मुक्ति पधारं निनके चरणकमलाकी पूजा अघ० मांगठा। गये मोन भगवान अष्टम सित आसौजकी। देहु देहु शिवथान, वसुविधि पदपंकज जजें ॥ ओं ह्रीं श्रीसम्मेद शिग्वर सिद्धक्षत्र परवत सनी विद्युतवर कृट के दर्शन फल एक कीड़ उपवास और श्री शानल नाथ तीर्थङ्कगदि अठारह कोड़ा कोड़ि बयालीस कोड़ बत्तीस लाख बयालिस .... Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोहा। २२८ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। हजार नौ सौ पांच मुनि मुक्ति पधारे तिनके चरन कमल की पूजा अर्घम० चैतकृष्ण पूनम दिवस निज आतमको चीन । मुनि स्थानक जायके हुए अष्ट गुण लीन ॥ या ह्रीं श्री मम्मद शिग्बर मिद्धक्षेत्र परवत सती स्वयंभू कूटके दर्शन फल एक कोड़ उपवास और श्री अनन्तनाथ तीर्थङ्करादि छानवे कोड़ा कोड़ सत्तर कोड़ सत्तर लाग्य सत्तर हजार सात मैं मुनि मुक्ति पधार तिनकं चग्न कमल की पूजा अर्घम. सारठा। शेष कर्म निरवान चैत शुकल षष्टम विर्षे । जजों गुणोघ उचार मोन वरांगन पति भये ॥ ओं ह्रीं श्री सम्मेद शिखर मिद्धतंत्र परवत सेनी धवल कूटके दशन फल बयालीस लाख उपवास और श्री सम्भवनाथ तीर्थङ्कगदि नौ कोड़ा कोड बहत्तर लाग्य वयालीस हजार पांच मौ मुनि मुक्ति पधार निनके चरन कमल की पूजा अर्यम्। दाहा। अष्टम सित वैशाख की गए मोन हनि कर्म । जजू चरन उर भक्ति कर देहु देहु निज धर्म ॥ ओं ह्रीं श्री सम्मेद शिग्वर सिद्धनत्र परवत सनी अानन्द कूटके दर्शन फन एक लाख उपवाम और श्री अभिनन्दन नीथङ्कगदि बहत्तर कोड़ा कोड़ि सत्तर कोड़ मत्तर लाख बयालीस हजार सात से मुनि मुक्ति पधार तिनके चरन कमलकी पूजा अर्घम्, Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह २२६ चौपाई छन्द । माघ असित चउदश विधि सैन, हनि अघाति पाई शिव दैन । सुर नर खग कैलाश सुथान, पूजें मैं पूजू धर ध्यान ॥ दाहा। रिषभ देव जिन सिध भये गिर कैलाशसे जोय। मन वच तन कर पूज हूं शिखर नमं पद सोय॥ ओं ह्रीं श्री कैलाश सिद्धक्षेत्र परवत सती माघ सुदी १४ को श्री आदिनाथ तीर्थङ्कगदि असंख्य मुनि मुक्ति पधार तिनके चरण कमलकी पूजा अघम. दाहा। वासु पूज्य जिनकी छवी अरुन वरन अविकार । देहु सुमति विनती करू ध्याऊं भवदधिनार ॥ वासु पूज्य जिन सिध भये चम्पापुरसे जैह । मन वच तन कर पूज हूं शिखर सम्मेद यजेह ॥ ओं ह्रीं श्री चम्पापुर सिद्धक्षेत्र परवत मनी भादवा सुदी १४ श्री वासुपूज्य तीर्थङ्कगदि असंख्य मुनि मुक्ति पधार तिनके चरण कमल की पूजा अघम Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। सुकल पाढ़ सप्तमि दिवस शेष कर्म हनि मोक्ष। शिव कल्याण सुरपति कियो जजू चरण गुण धोख॥ नेमनाथ निज सिद्ध भये सिद्ध क्षेत्र गिरनार । मन वच तन कर पूज हूं भवदधि पार उतार ॥ ओं ह्रीं श्री गिरनार सिद्धक्षेत्र परवत सेती असाढ़ मुदि सात को श्री नमिनाथ तीर्थङ्कगदि वहत्तर कोड़ मात से मुनि मुक्ति पधार तिनक चरण कमल की पूजा अम० दाहा। कार्तिक वदि मावस गये शेष कर्म हनि मोक्ष । पावापुरतें वीर जी जजू चरण गुण धोक ॥ महावीर जिन सिद्ध भये पावापुर से जोय । मन वच तन कर पूजहूं शिखर नमं पद दोय । आँ ह्रीं पावापुर सिद्धक्षेत्र परवन सती कार्तिक बदी आमावसको श्री वर्द्धमान तीर्थङ्करादि असंख्य मुनि मुक्ति पधार तिनके चरण कमलकी पूजा अघम् सुधर्मादि गणेश गुरु अंतम गौतम नाम । तिन सबकू लै अर्घ तें पूजू सब गुण धाम ॥ ओं ह्रीं श्री सुधमादि गौतम गणधर देव गुणावा ग्रामके उद्यान आदि भिन्न भिन्न स्थानांस निरवान पधारे तिनके चरणार विदकी पूजा अघम्। दाहा। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। २३१ दोहा। या विधि तीर्थ जिनेश के बंटू शिखर महान । और असंख्य मुनीश जै पहुंचे शिवपद थान । सिद्ध क्षेत्र जे और हैं भरतक्षेत्रके मांहि । और जे अतिशय क्षेत्र हैं कहे जिनागम मांहि ॥ तिनके नाम सु लेत ही पाप दूर हो जाय । ते सब पूजू अर्घ ले भव भवको सुग्वदाय ॥ ओं ह्रीं श्री भरत क्षेत्र सम्बन्धी सिद्धक्षेत्र और अतिशय क्षेत्रेभ्यो अर्घम् सोरठा। दीप अढ़ाई मांहि सिद्धक्षेत्र जे और हैं। पूजू अर्घ चढ़ाय भव भवके अघ नाश हैं ॥ अडिल्ल छंद। पूजू तीस चौवीस महासुख दाय जू । भूत भविष्यत वर्तमान गुण गाय जू ॥ कहे विदेह के वीस नमू सिरनाय जू । और अर्घ वनाय सु विघन पलाय जू ॥ ओं ह्रीं श्री तीस चौवीमी और भूत भविष्यन वर्तमान और विदेह क्षेत्रके वीस जिनेश्वर तिनके चरण कमलकी पूजा अर्घम Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। दाहा। कृत्याकृत्यम जे कहे तीन लोकके मांहि । ते सब पूजू अर्घ ले हाथ जोर सिरनाय ॥ ओ ह्रीं श्री उध्वलोक मध्यलोक पाताल लोक सम्बन्धी जिन मंदिर जिन चैत्यालया नमः अघम० दोहा। तीरथ परम सुहावन शिखर सम्मेद विसाल । कहत अल्प बुधि युक्रि से सुखदाई जयमाल । अथ जयमाला। छद पद्धड़ी। जय प्रथम नम जिन कुंथदेव, जय धर्म तनी नित करत सेव । जय सुमति सुमति सुध बुद्ध देन, जय शांति नमं नित शांति हेत जय विमल नम आनन्द कन्द, जय सुपामे नम हनि पास फंद। जय ऋजित गये शिव हानि कम, जय पामे करी जुग उग्र सम २।। पश्चिम दिस जानं टोंक एव, बंदे चहुंगतिको होय छेव । नर सुर पदकी तो कोन बात. पूजे अनुक्रमत मुक्ति जात ।।३।। जय नेमि तनं नित धरू ध्यान, जय अरिहर लीनों मुक्ति थान। जय मल्लि मदन जय शील धार, जय हंस गय भव पार पार ॥४॥ जय सुमति सुमति दाता महेश, जय पद्म नमंतम हर दिनेश । जय मुनि सुवृत गुण गण गरिष्ट, जय चन्द्र कर आताप नष्ट ५ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह ૨૩૨ जय शीतल जय भवकी आताप, जय अनंत नर्म नस जात पाप । जय संभव भव की हरो पीर, जय अभय करो अभिनंद वीर ६ || पूर्व दिस द्वादस कंट जान, पूजन होवत है असुभ हान | फिर मृत मंदिर के करू प्रनाम, पाव शिव रमनी वेग धाम ७ || . घत्ता छन्द | श्री सिद्ध सु क्षेत्र अति सुख देतं तुरतं भव दधि पार करें | अरिकर्म विनासन शिव सुख कारन जय गिरवर जगता तारं ८ || चाल छप्पय । प्रथम कुंथ जिन धर्म सुमति अरुशांति जिनंदा, विमल सुपारमति पार्श्व मेटे भवदा । श्री नमि रह जुमलि श्रेयांस सुविधि निधि कंदा । पद्म प्रभु महाराज और मुनि सुवृत चन्द्रा | शीतलनाथ अनंत जिन सम्भव जिन अभिनंदनजी | बीस टोंक पर बीस जिनेश्वर भाव सहित नित वंदनजी || १ || ह्रीं श्री सम्मेद शिखर सिद्ध क्षेत्र परवन सती बीस तीर्थकर्गादि असंख्यात मुनि मुक्ति पवार तिनके चरण कमल की पूजा अर्धम " चाल कविन । शिखर सम्मेद जी के बीम टोंक सब जान, तामी मोक्ष गये ताकी संख्या सव जानिये | उदा कोड़ा कोड़ि पेंट ता ऊपर जोड़ि दियालीस व ताको ध्यान हिये यानिये || Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। बारा से तिहत्तर कोड़ि लाख ग्याग में चैयालीस, और सातसे चौंतीस महम बखानिये । सैंकड़ा है सात में सत्तर एते हुए सिद्ध तिनक, सु नित्य पूज पाप कम हानिये ।। १ ।। दोहा। बीस टोंकके दरश फल, प्रोषध संख्या जान । एकसौ तेहत्तर मुनी, गुण सठ लाग्व महान ॥ वत्ता छंद। ए वीस जिनश्वर नमत सुरेसुर मघवा पूजन कं आवें । नग्नागे ध्यावं मत्र सुग्व पाव गमचंद्र नित सिर नावे ।। इनि परिपुष्पांजलि । मम्मद शिखरजी का भजन मांवलिया पारमनाथ शिखर पर भले विगजें जी, हुकम हुआ सांवलियाजीका बांह पकड़ मंगवाया । शिखर पर भले विगजें जी, हुकम हुआ सांवलियाजीका बांह पकड़ मंगवाया ॥ टेर ।।। देश देशका जातरी पाया पूजा भाव रचाया, आठ दग्य ले पूजन कीनी मन बांछित फल पाया । शिखर पर भले विगंज जी, हुकम हुआ सांवलियाजाका बांह पकड़ मंगवाया ।। १ ।। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। २३५ टोंक टोंक पर ध्वजा विराजे झालर घंटा बाजे, झालरके झनकार सेती अनहद बाजा बाजे । शिखर पर भले विगजें जी, हुकम हुआ सांवलियाजीका बांह पकड़ मंगवाया ॥२॥ तीनों नाले तेरह चौकी मन वांछित फल पाया, मन चित सेती पूजा कोनी सफल मनोरथ भाया । शिखर पर भले विराजें जी, हुकम हुआ सांवलियाजीका बांह पकड़ मंगवाया ।।३।। कोई मांगे नाती पोता कोई मांगे दान, जातरी मांग प्रभुके दरशन महा परमाद । शिखर पर भले विराजे जी, हुकम हुया मांवलियाजाका बांह पकड़ मंगवाया ।।४।। नग्नाग सब बंदन अाया, महा सुक्य फल पाया । ग्घुशाल चंदने चरण कमलका हरप हरप गुण गाया, शिखर पर भले विगजें जी, हुकम हा मांवलियाजीका बांह पकड़ मंगवाया ।।५।। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। श्री भक्तामर स्तोत्र पूजा ओं जय, जय, जय। नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु। __अनुष्टुप। परमज्ञान वाणासि, घातिकर्म प्रघातिनं । महा धर्म प्रकर्तारं, वंदेहमादि नायकं ॥१॥ भकामर महास्तोत्रं, मंत्रपूजां करोम्यहं । सर्वजीव हितागारं, आदिदेवं महाम्यहं ॥२॥ ओ ह्रीं श्री आदिदेव अत्रावतरावतर संवौषट् बालाननं । ओं ह्रीं श्री आदिदव अत्र निष्ठ तिष्ट ठः ठः स्थापनं । ओं ह्रीं श्री आदिदव अत्र मम मनिहिता भव भव वपट सन्निधिकरणं । अथाष्टकं । सुरसुरीनदसंभृत जीवनैः, सकल ताप हरैः सुख कारणैः । वृषभनाथ वृषांक समन्वितं. शिवकरं प्रयजे हत किल्विषं ॥ १ ॥ श्रां ह्रीं श्री वृपभनाथ जिनंद्राय जल । मलय चंदन मिश्रित कुंकुमः. सुरभितागत षट् पद नंदनः । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। २३७ वृषभनाथ वृषांक समन्वितं. शिवकरं प्रयजे हत किल्विषं ॥ चंदनं ॥ कमल जाति समुद्भवतंदुलः. परम पावन पंच सु पंजकः । वृषभनाथ वृषांक समन्वितं, शिवकरं प्रयजे हत किल्विषं ॥ अन्नतं ॥ जलज चंपक जाति सुमालती, वकुल पाड़ल कुंद सु पुप्पकैः । वृषभनाथ वृषांक समन्वितं, शिवकरं प्रयजे हत किल्वपं ॥ पुष्पं ॥ वटक बजक मंडक पायस, विविध मोदक व्यंजन सद्रमः । वृषभनाथ वृषांक समन्वितं, शिवकरं प्रयजे हत किल्वियं ॥ नवेद्य ॥ रविकर द्य ति सन्निभ दीपकः, प्रवल माह घनांध निवारकः । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह । वृषभनाथ वृषांक समन्वितं, शिवकरं प्रयजे हत किल्विषं ॥ दीपं ॥ स्वगुरु धूप भरैर्घटनिष्टतैः प्रतिदिशं मिलितालि समूहकः । वृषभनाथ वृषांक समन्वितं, शिवकरं प्रयजे हत किल्विषं ॥ धूपं ॥ नविन लिंबकलांगलि दाडिमैः कदलि पंग कपिच्छ शुभैः फलैः। वृषभनाथ वृषांक समन्वितं. शिवकरं प्रयजे हत किल्विषं ॥ फल ॥ कमल गंध शुभानतपुष्पकैश्चरभि. दीप सु धूप फलार्घकः। जिनपति च यजे सुखकारक, वदति मेरु सु चंद्र यतीश्वरं ॥ अर्घ ॥ प्रत्येक पूजा वसंत निलका छंद। भक्कामरप्रणतमौलिमणिप्रभाणामुद्योतकं दलितपापतमावितानं । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। २३६ सम्यक् प्रणम्प जिनपादयुगयुगादा, वालंबनं भवजले पततां जनानां ॥१॥ श्रां ह्रीं प्रगतदेव समूह मुकुटाग्रमणि महापापांधकार विनाशकाय श्री आदिपरमेश्वगय अर्घ ।। १ ।। यः संस्तुतः सकलवाङ्मयतत्त्वबोधादुभूत बुद्धिपटुभिः मुरलोकनाथैः ॥ स्तोत्रैर्जगत्रितयचित्तहरैरुदार. स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनंद्र ॥२॥ ओं ह्रीं गणधरचारगणममम्न म्पींद्रचंद्रादित्यमुरेंद्रनर द्रव्यंतरेंद्रनागेंद्र चतुर्विधमुनीदम्नविनचरणारविंदाय श्रीआदिपरमेश्वराय अघ ।। २॥ बुद्धया विनापि विबुधार्चितपादपीठस्तोतुं समुद्यतमनिविंगतत्रपोऽहं । वालं विहाय जलसंस्थितमिंदुविंब, मन्यः क इच्छति जनः महसा गृहीतुं ॥ ३ ॥ ओ ह्रीं विगतबुद्धिगापहारमहिन श्रीमाननंगाचार्य भक्तिमहिताय श्रीआदिपरमेश्वगय अघ ।। ३ ।। वक्तुं गुणान्गुणसमुद्रशशांककांतान, कस्ते नमः सुरगुरुप्रतिमोऽपिबुद्धया । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। कल्पांतकालपवनोद्धतनक्रचक्र, को वा तरीतुमलमंबुनिधिं भुजाम्यां ॥ ४ ॥ ओं ह्रीं त्रिभुवनगुण समुद्र चंद्रकांतमणितजशरीरसमस्त सुग्नाथ स्तवित श्रीश्रादिपरमेश्वगय अर्घ ।। ४ ।। सोहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश, कर्तुं स्तवं विगतशकिरपि प्रवृत्तः । प्रीत्यात्मवीर्यमविचार्य मृगो मृगेन्द्र, नाभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थं ॥५॥ प्रां ह्रीं ममम्त गणधगदि मुनिवर प्रतिपालक मृगबालवत श्री आदिनाथ परमेश्वराय अर्घ ।। ५ ।।। अल्पश्रुतं श्रु तवतां परिहासधाम, त्वद्भक्रिरेव मुग्वरी कुरुते बलान्माम् । यत्कोकिलः किलमधी मधुरं विरोति, तच्चाम्रचारकलिकानिकर कहेतु ॥ ६ ॥ ओं ह्रीं श्रीजिनेंद्र चंद्रभक्ति मवमौख्यं तुच्छभक्ति बहु, मुग्वदायकाय श्रोजिनेंद्राय आदि परमेश्वराय अयं ।। ६ ।। त्वत्संस्तवेन भवसंततिसन्निबद्ध. पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजां । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। आक्रांतलोकमलिनीलमशेषमाशु. सूर्यांशुभिन्नमिव शावरमंधकारं ॥ ७ ॥ ओं ह्रीं अनंत भव पातक मर्व विनविनाशकाय तव स्तुतिमीरख्यदायकाय श्रीआदि परमेश्वगय अर्घ ।। ७ ।। मत्वेति नाथ तव संस्तवनं मयेदमारभ्यते तनुधियापि तव प्रभावात् । चेतो हरिष्यति सता नलिनीदलेषु, मुक़ाफला तिमुपति नन्दविंदुः ॥ ८ ॥ ओं ह्रीं श्रीजिनेंद्र म्नवन मत्पुमप चिन चमत्काराय श्रीआदि परमेश्वराय अर्घ ।। ८॥ प्रास्तां तवस्तवनमस्तसमम्त दोपं, त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हंनि । दूरे सहस्रकिरणः कुम्त प्रभव. पद्माकरेषु जल जानि विकासभांजि ॥ ६ ॥ ओं ह्रीं जिनपृजनम्नवन कथाश्रवगगन समस्त पाप विनाशनाय जगत्त्रय भव्य जीव भवविघ्ननाशमाथाय च श्रीआदि परमश्वगय अर्थ ।। ६ ।। नात्यदभुतं भुवनभूषण भूतनाथ ! भूतर्गुणे विभवंतमभिष्टुवंतः। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ श्री जैन पूजा- पाठसंग्रह | तुल्या भवति भवतो ननु तेन किंवा, भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥१०॥ श्रीं ह्रीं लाक्यगुगा मंडित समस्तापमा सहिताय श्रीश्रदि परमेश्वराय अर्थ ॥ १० ॥ दृष्ट्वाभवं तमनिमेषविलोकनीयं, नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्यचक्षुः । पीत्वापयः शशिकरय निदुग्धसिंधोः. नारं जलं जलनिधे रसितुं क इच्छेत् ॥ ११ ॥ समूह विनाश श्रीं ह्रीं श्रीजिनेंद्र दर्शनेन अनंत भव संचित काय श्रीप्रथम जिनेंद्राय अर्थ ॥ ११ ॥ यैः शांतरागरुचिभिः परमाणुभिस्त्वं, निर्मापित स्त्रिभुवनेक ललामभूत । तावंत एवं खलु तप्यरणवः पृथिव्यां यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति ॥ १२॥ ॐ ह्रीं त्रिभुवन शांत स्वरूपाय त्रिभुवन तिलकाय मानाय श्री आदि परमेश्वराय अर्धं ।। १२ ।। ari क ते सुरनरोनगनेत्रहारि, निश्शेषनिर्जितजगत्त्रितयोपमानं । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | विंवं कलंकमलिनं व निशाकरस्य. यद्वासरे भवति पांडुपलाशकल्पं ॥ १३ ॥ ह्रीं त्रैलोक्यविजयरूप अतिशय अनंतचंद्र तेजजित महातेज पूजमानाय श्री आदिपरमेश्वराय अर्थ ।। १३ ।। संपूर्ण मंडलशशांककलाकलापशुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लंघयति । ये संश्रितास्त्रिजगदीश्वरनाथमेक. कस्तान्निवारयनि संचरतो यथेष्टं ॥ १४ ॥ २४३ ह्रीं शुभगुणातिशयरूप त्रिभुवनजीत जिनेंद्र गुण विराजमानाय श्रीप्रथमजिनेंद्राय अर्थ ॥ १४ ॥ चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभिनीनं मनागपि मनो न विकारमार्ग | कल्पांतकालमस्ता चलिताचलेन. किं मंदराद्रिशिखरं चलितं कदाचित् ॥ १५ ॥ ओ ह्रीं मेमचंद्र अचलशील शिरोमणि नायराजमंडित चतुर्विध वनिता विरहित शीलसमुद्राय श्रीश्रादिपरमेश्वराय अर्थ ।। १५ ।। निर्धूम वर्निरपवर्जिततलपुरः. कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटीकरोषि । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां, दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ जगत्प्रकाशः ॥ १६ ॥ यहीं स्नेह वातादि विघ्नरहिताय त्रैलोक्य परस केवलदीपकाय श्रीप्रथमजिनेंद्राय अर्थ ।। १६ ।। नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः, स्पष्टी करोषि सहसा युगपज्जगंति । नांभोधरोदरनिरुद्धमहाप्रभावः, सूर्यातिशायिमहिमासि मुनींद्र लोके ॥ १७ ॥ ह्रीं राहु चन्द्र पूजित कर्म प्रकृति क्षयति निरावरण ज्योतिरुप लोकद्वयावलोकी सदोदयादिपरमेश्वराय अर्थ ॥ १७ ॥ नित्योदयं दलितमोहमहांधकारं, गम्यं न राहु वदनस्य न वारिदानां । विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्पकांति, विद्योतयज्जगदपूर्वशशांकविं ॥ १८ ॥ त्यो रूप और राहु करके हू ना से जाय एसे त्रिभुवन सर्वकला सहित विराजमानाय श्री आदि परमेश्वराय अर्ध ॥ १८ ॥ किं शर्वरीषु शशिनाहि विवस्वता वा, युष्मन्मुखेन्दुदलितेषु तमस्सु नाथ ! Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। २४५ निष्पन्न शालिवनशालिनि जीवलोके. कार्य कियजलधरैर्जलभारनम्रः ॥१६॥ ओं ह्रीं चन्द्र सूर्योदयास्त रजनी दिवम रहित परम कंवलोदय मदादीप्ति विराजमानाय श्री आदि दवाय आदि परमेश्वराय अर्घ ।। १६ ।। ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं, नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु । तेजःस्फुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वं, नैवं तु काचशकले किरणाकुलेपि ॥ २०॥ ओं ह्रीं हरि हरादि ज्ञानरहिताय सर्वज्ञ परम ज्यानि कंवलज्ञान सहिताय श्री आदि परमेश्वराय अर्घ ।। २० ॥ मन्ये वरं हरिहरादय एव दृष्टा, दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति । किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः, कश्चिन्मनो हरति नाथ भवांतरेपि ॥२१॥ ओ ह्रीं त्रिभुवन मनमोहन जिनंद्रम्प अन्य इप्टान्त गहित परम बोध मंडिताय श्री आदि जिनाय अर्थ ।। २१ ।। स्त्रीणां शतानि शतशो जनयंति पुत्रान, नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रमूना । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। सर्वादिशो दधति भानि सहस्ररश्मि, प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशुजालं ॥ २२ ॥ ओं ह्रीं त्रिभुवन वनितापमाहित श्रीजिनवर माताजनिजिनेंद्र पूर्व दिग भास्कर कंवल ज्ञान भास्कराय श्रीआदिब्रह्म जिनाय अर्घ ।। २२ त्वमामनंति मुनयः परमं पुमांसमादित्यवर्णममलं तमसः पुरस्तात् । त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयंति मृत्यं, नान्यः शिवशिशवपदस्य मनींद्र पंथाः ॥२३॥ ओं ह्रीं त्रैलोक्य पावनादित्यवण परमाष्टोत्तर शत लक्षण नव शत व्यंजनाय समुदाय एक सहस्र अष्ट मंडिताय श्री आदिजिनंद्राय अर्थ ।। २३ ।। त्वामव्ययं विभुमचिंत्यमसंख्यमाद्य, ब्रह्माणमीश्वरमनंतमनंगकेतं । योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं, ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदंति संतः ॥ २४ ॥ ओ ह्रीं ब्रह्माविषणु श्रीकण्ठ गणपति त्रिभुवन देवत्व सविताय सविकाय श्री आदि परमेश्वराय अयं ।।.४॥ बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चितबुद्धिवोधात्. त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रयशंकरत्वात् । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी जैन पूजा-पाठ संग्रह। धातासि धीर शिवमार्गविधेविधानाद, व्यक् त्वमेव भगवन्पुरुषोत्तमोसि ॥२५॥ ओं ह्रीं बुद्धिदर्शक शेषधर ब्रह्मादि समस्तानंतनामसहिताय श्री आदि जिनेन्द्राय अर्घ ।। २५ ॥ तुभ्यं नमस्त्रिभुवनातिहराय नाथ. तुभ्यं नमः नितितलामलभूषणाय । तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय, तुभ्यं नमो जिनभवादधिशाषणाय ॥२६॥ आ ह्रीं अधा मध्याद्ध लोकत्रय कृताहागत्रि नमस्कार समम्ताति गैद्रविनाशक त्रिभुवनश्वर भवादधि तरणतारणसमर्थाय श्री आदि परमेश्वराय अर्घ ।। २६॥ को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषैस्त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश । दोषैरुपातविविधाश्रयजातगः, स्वप्नांतरेपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ॥ २७॥ ओ ह्रीं परमगुणाश्रित एकादि अवगुणहिताय श्रीआदि परमेश्वगय अर्थ ।। २७ ।। उच्चैरशोकतरुसंश्रितमुन्मयूग्वमाभाति रूपममलं भवता नितांतं । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। स्पष्टोल्लसत्किरणमस्ततमोवितानं, विंबं वेरिवपयोधरपार्श्ववर्ति ॥ २८ ॥ ओं ह्रीं अशोक वृक्ष प्रातिहार महिनाय श्री आदि परमेश्वगय अघ ॥२८॥ सिंहासने मणिमयूग्वशिग्वाविचित्रे, विभ्राजते तव वपुः कनकावदातं । बिंब वियद्विलसदंशुलतावितानं, तुंगोदयादिशिरसीवसहस्ररश्मेः ॥२६॥ ओं ह्रीं सिंहामन प्रानिहाय सहिताय श्री प्रथम जिनंद्राय अर्घ ॥२६॥ कुंदावदातचलचामरचारुशोभं, विभ्राजते तव वपुः कलधौतकांतं । उद्यच्छशांकशुचिनिर्भरवारिधारमुच्चैस्तटं सुरगिरेवि शातकोंभं ॥३०॥ ओ ह्रीं चतुःषष्ठि चामर प्रातिहाय सहिताय श्री प्रथम जिनंद्राय अर्घ ।। ३८ ॥ छत्रत्रयं तव विभाति शशांककांतमुच्चैःस्थितं स्थगितभानुकरप्रतापं । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन मुक्ताफलप्रकरजालविवृद्धशोभ, प्रख्यापयत्त्रिजगतः परमेश्वरत्वं ॥ ३१ ॥ ह्रीं घे ॥ ३१ ॥ पूजा-पाठ संग्रह | प्रातिहार्य सहिताय श्री आदि परमेश्वराय २४६ गंभीरतारखपूरितदिग्विभागस्त्रैलोक्यलोकशुभसंगमभूतिदत्तः । सद्धर्मराजजयघोषणघोषकः सन्. वे दुन्दुभिर्ध्वनति ते यशसः प्रवादी ॥ ३२ ॥ ह्रीं अष्टादश कोटि वादित्र प्रातिहार्य महिताय श्री परमादि जिनाय अर्थ ॥ ३२ ॥ मंदारसुन्दरनमेरुसुपारिजातसंतानकादिकुसुमोत्करवृष्टिरुडा | गंधादविदुशुभमंदमरुत्प्रयाता, दिव्यादिवः पतति ते वयसां ततिर्वा ॥ ३३ ॥ - ह्रीं समस्त पुष्प जाति बृष्टि प्रातिहार्य सहिताय श्री आदि जिनेंद्राय || ३३ ॥ शुम्भत् प्रभावलयभूरिविभा विभोस्ते, लोकत्रये द्युतिमतां द्युतिमाक्षिपंती | Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठसंग्रह। प्रोद्यद्दिवाकरनिरंतरभूरिसंख्या, दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोमसोम्यां ॥३४॥ ओं ह्रीं कोटि भास्कर प्रभा मंडित भामंडल प्रानिहायमहिताय श्री परमादि जिनाय अर्घ ॥ ३४ ॥ स्वर्गापवर्गगममार्गविमार्गणेष्टः, सद्धर्मतत्कथनेकपटुस्त्रिलोक्याः । दिव्यध्वनिर्भवति ते विशदार्थ सर्व, भाषास्वभावपरिणामगुणः प्रयोज्यः ॥३५॥ श्री ही पलिल जलधर पटनगर्जिन ध्वनि याजन प्रमान प्रानिहाय सहिताय श्री आदि परमेश्वर राय अघ ।।३।। उन्निद्रहेमनवपंकजपुञ्जकांती. पर्युल्लसन्नखमयूखशिखाभिरामौ ।। पादौ पदानि तव यत्र जिनेंद्र ! धत्तः, पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयंति ॥३६॥ ओं ह्रीं हम कमलापरि गमन देवकृतानिशाय महिताय श्रीश्रादि परमेश्वराय अर्घ ।।३।। इत्थं यथा तब विभूतिरभूजिनेंद्र. धर्मोपदेशनविधो न तथा परस्य ।। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह । यादृक्प्रभा दिनकृतः प्रहतान्धकारा, तादृक् कुतो ग्रहगणस्य विकाशिनोपि ॥३७॥ ओं ह्रीं धर्मोपदेश समय समवसरण विभूनि मंडिताय श्रीआदि परमेश्वराय अघ ।।: ॥ शच्योतन्मदाविलविलोलकपोलमूलमत्तभ्रमभ्रमरनादविवृद्धकोपं । ऐरावताभमिभमुद्धतमापतंतं. दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानां ॥३८॥ ओं ह्रीं मम्तकलितरण सुर गजेंद्र महादुद्धर भय विनाशकाय श्रीजिनादि परमेश्वराय अघ ।।८।। भिन्नेभकुम्भगलदुज्जवलशाणिताकमुक्ताफलप्रकरभूपितभूमिभागः । बद्धक्रमः क्रमगतं हरिगाधिपापि. नाकामति क्रमयुगाचलसंश्रितं ते ॥३६॥ आ ही आदिदेव नाम प्रमादान्महामिद भय विनाशकाय श्रा युगादि परमेश्वगय अर्घ ।।।। कल्पांतकालपवनोदतवह्निकल्पं, दावानलंज्वलितमुज्जवलमुत्स्फुलिंगं । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। विश्वं जिघित्सुमिव संमुग्वमापतंतं. त्वन्नामकीर्तनजलं शमयत्यशेषं ॥४०॥ ओं ही महाढि विश्वभक्षण समर्थ जिननाम जल विनाशकाय श्री आदि ब्रह्मण अर्घ ॥४॥ रक क्षणं समदकोकिलकंठनीलं, क्रोधोद्धतं फणिनमुत्फणमापतंतं । आक्रामति क्रमयुगेण निरस्तशंकम्त्वन्नामनागढमनी हृदि यस्य पुंसः ॥४१॥ ओ ही रक्तनयन सर्प जिन नागदमन्योपधि समस्त भय विनाशकाय श्राजिनादि परमेश्वराय अर्थ ।।४।। बल्गत्तु रंगगजगजितभीमनाद. माजी बलं वलवतामपि भूपतीनां । उद्यहिवाकरमयूखशिवापविद्ध. त्वत्कीर्तनानम इवाशु भिदामुपैति ॥४२॥ आ ही महासंग्राम भय विनाशकाय सर्वांग रक्षणकराय श्री प्रथम जनंद्राय अर्घ ।।१२॥ कुंताग्रभिन्नगजशोणितवारिवाहवेगावतारतरणातुरयोधभीमे। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। युद्ध जयं विजितदर्जयजेयपनास्. त्वत्पादपंकजवना श्रयिणो लभते ॥१३॥ ओ ह्रीं महारिपुयुद्ध जयदायकाय श्रीअादि परमेश्वराय अर्घ ।।४।। अंभोनिधौ हुभितभीषणनक्रचक्रपाठीनपीठभयढोल्वणवाडवाग्नौ । गंगत्तरंगशिवरस्थितयानपात्रास, त्रासं विहाय भवतः म्मग्णादनजति ॥१४॥ ओं ह्रीं महाममुद्र चलिन चात महादजय भय विनाशकाय श्री जिनादि परमेश्वगय अघ ।।।। उदभूतभीषणजलोदरभाग्भुग्नाः. शोच्यां दशामुपगताश्च्युतीविनाशाः । त्वत्पादपंकजरजोमृतदिग्धदेहा. मा भवंति मकरध्वजतुल्यरूपाः ॥४५॥ ओं ह्रीं दश प्रकार ताप जलंधगादश कुट मन्निपान महद्राग विनाशकाय पग्म कामदेवरूप प्रकटाय का जिनेश्वगय अयं ।।४।। आपादकंठमुमशृङ्खलवेष्टितांगा. गाढं वृहन्निगडकोटिनिवृष्टजंघाः । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | त्वन्नाममंत्रमनिशं मनुजाः स्मरंतः, सद्यः स्वयं विगतबंधभयाभवति ॥ ४६ ॥ २५४ ह्रीं महाबन्धन आपाद कल पर्यन्त वैरिकृतोपद्रव भय विनाशकाय श्री आदि परमेश्वराय ||१६|| मत्तद्विपेन्द्र मृगराजदवानलाहिसंग्रामवारिधि महोदरबंधनोत्थं । तस्याशु नाशमुपयाति भयं भियेव. यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ॥४७॥ श्रीं ह्रीं सिंह गजेंद्र राक्षस भूत पिशाच शाकिनी रिपु परमोपद्रव भय विनाशकाय श्री जिनादि परमेश्वराय अ || ४७ || स्तोत्र त्रजं तव जिनेंद्र गुनिंबद्धां. भक्तया मयाविविधवर्णविचित्रपुष्पां । धत्ते जनो य इह कंठगतामजस्र', तं मानतंगमवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥४८॥ श्रीं ह्रीं पठक पाठक श्रोता वा श्रद्धावान मानतुंगाचार्यादि समस्त जीव कल्याणदाय श्री आदि परमेश्वराय ||१८|| वन सुगंध सु तंदुल पुष्पकैः, प्रवर मोदक दीपक धूपकैः । २५ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह। २५५ फल वरैः परमात्म पद प्रदं, प्रवियजे श्री आदिनाथ जिनेश्वरं ॥१॥ ओह्रीं अष्ट चत्वारिंशत्कमलभ्यः पूर्णाघ । जयमाला श्लोक। प्रमाणद्वय कर्तारं स्यादस्ति वाद वेदकं । द्रव्यतत्व नयागारमादिदेवं नमाम्यहं ॥१॥ छंद। आदि जिनेश्वर भोगागारं, मर्व जीववर दया सुधारं । परमानंदग्मासुग्वकंद. भव्यजीवहित करणममंदं ॥२॥ परम पवित्र वंशवर मंडरग. दुख दारिद्र काम बल खंडन । वेदकम दुज्जय बल दंडण, उज्जल ध्यान प्रति शुभ मंडण ३।। चतुअम्मील्लक्ष पूग्य जीवित पर, धनुप पंचशत मानम जिनवर। हेमवर्ण रूपोघ विमल कर, नगर अयोध्या स्थानक व्रत धर४।। नाभिराज परमात्म सुवेता, माना मरुदेवी गुणणेता । मोल म्बन पर भेद विख्याता, त्रिभुवननायक पुत्र विधाता ५।। गर्भकल्याणक सुरपति काधा। जन्मकल्याणक मेरुसिर मीधा। स्वयं स्वयंभू दीक्षा धारी । केवल बोध सु त्रिभुवन प्यारी ६॥ अष्ट गुणाकर सिद्ध दिवाकर, परम धर्म विस्तारण जय भर । शीतनाप रहित भव हाग, मर्व मोख्य निरुपम गुण धारी॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ श्री जैन पूजा-पाठ मंग्रह। घत्ता। जय आदि सु ब्रह्मा, त्रिभुवन ब्रह्मा, ब्रह्माम्बात्म म्वरूप पर । जय बोध सु ब्रह्मा, पंच सु ब्रह्मा, ब्रह्म सुमति जलधि निकर । ओं ह्रीं श्रीआदि परमदेवाय जयमाला नि, शादृल विक्रीडिन । देवोऽनेक भवार्जितो गत महा पापः प्रदीपानलः । देवः मिद्धवध विशाल हृदयालंकार हागेपम ।। देवोष्टादश दोष सिंधुर घटा दुर्भद पंचाननी । भव्यानांविदधातु वांछित फलं श्री आदिनाथो जिनः ।। श्लोक । लक्ष्मीचंद्रगुरु तो मूलसंघ विदाग्रणी । पट्टाभयचंद्रो देवो दयानंदि विदांवरः ॥ रत्नकीर्ति कुमुदेंदु सुमतिः सागरोदितः । भक्कामर महास्तोत्र पूजा चक्री गुणाधिका ॥ इति श्री मानतुङ्गाचार्य विरचिन भक्तामर नात्र पृजा ममाता ! Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ मंग्रह। २५७ पंच बालयति तीर्थकर पूजा। दाहा। श्रीजिन पंच अनंग जित, वासु पूज्य मलि नेमि। पारसनाथ सुवीर अति, पूजं चिन धरि प्रेम ॥१॥ ___ओं ह्रीं पंच बालयनि नार्थकग अत्रावत्रावतर संवौषट आह्वाननं । अत्र तिष्ठ निष्ठ ठः ठः स्थापनं । अत्र मम सन्निहितो भव भव वपट मन्निधिकरणं. पुष्पांजलि क्षिपेत ! __ अथाष्टक। शुचि शीतल सुरभि सुनीर लाया भर मार्ग, दुख जामन मग्न गहीर, याको परिहारी। श्री वासु पूज्य मलि नम, पाग्य वीर अति, नमं मन वच तन धरि प्रेम पांचों बान्नयति ।। ओं ह्रीं श्री वासु पृ.यजी. मल्लिनाथजा. नमनाथजी. पारमनाथजी. महावीर म्वामीजी. श्री पंच बालयती नीर्थकर भ्यो नमः जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामानि म्वाहा । चन्दन केशर करपूर, जल में घमि पानी, भव तप भंजन सुखपूर, तुमको में जाना । श्री वासु पूज्य मलि नेम, पारम वीर अति, नमं मन वच तन धरि प्रेम पांचों बालयति ।। चंदनं ।। वर अक्षत विमल बनाय, सुवरण थाल भरे, वहु देश देशके लाय, तुमग भेट धरे । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। श्री वासु पूज्य मति नेम, पारस वीर अति, नमं मन वच तन धरि प्रेम पांचों बालयति ।। अक्षतं ।। यह काम सुभट अति मूर, मनमें क्षोभ करो, मैं लायो सुमन हजूर, याको बेग हगे। श्री वासु पूज्य मलि नेम, पारम वीर अति, नमं मन वच तन धरि प्रेम पांचों बालयति ।। पुष्पं ।। षट ग्म पूरित नवेद्य, ग्मना सुख कारी, द्वय करम बेदनी छेद, आनन्न ह भार्ग । श्री वासु पूज्य मलि नम, पाग्म वीर अति, नमं मन वच तन धरि प्रेम पांचों बालयति ।। नवेद्यं ।। धरि दीपक जगमग ज्योति, तुम चरणन आगे, मग मोहतिमिर क्षय होत, आतम गुण जागे । श्री वासु पूज्य मलि नम, पारम वीर अति. नमं मन वच तन धरि प्रम पांचों बालयति ।। दीपं ।। ले दशविधि धृप अनूप, खेऊ गंध मई, दशबंध दहन जिन भूप तुमहो कम जई। श्री वासु पूज्य मलि नेम, पारस वीर अति, नमं मन वच तन धरि प्रेम पांचों बालयति ।। धृपं ।। पिस्ता अरु दाख बदाम, श्रीफल लेय घने, तुम चग्न जज गुग्णधाम, द्यो मुख मोक्ष तने । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पुजा-पाठ मंग्रह। २५६ श्री वासु पूज्य मलि नेम, पारम वीर अति, नमं मन वच तन धरि प्रम पाचों बालयति ।। फलं ।। सजि वसुविधि द्रव्य मनोज्ञ, अग्घ बनावत हैं, वसुकम अनादि संयोग. ताहि नमावन हैं। श्री वासु पूज्य मलि नेम. पारम वीर अति. नमं मन वच तन धरि प्रेम पांचों बालयति ॥ अर्थ ।। जयमाला। दोहा। बालब्रह्मचारी भये. पांचों श्री जिनराज । निनकी अब जयमालिका. कहं स्वपर हितकाज॥ पडि छन्द । जय जय जय जय श्री वासु पूज्य. तुम सम जग में नहीं और दूज । तुम महा लन सुर लाक छार. जव गर्भ मात माहीं पधार ॥२॥ षोड़श स्वपने देख सुमात, बल अवधि जान तुम जन्म तात । अति हर्ष धार दंपति सुदान, Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहु दान दियो जाचक जनान ॥३॥ छप्पन कुमारिका कियो आन. तुम मात सेव बहू भक्रि ठान । छः मास अगाऊ गर्भ आय, धनपति सुवरन नगरी ग्चाय ॥ ४ ॥ तुम तान महल आंगन मंझार. तिहूं काल रतन धारा अपार । वरषाए षट् नव मास सार. धनि जिन पुरुषन नयनन निहार ॥ ५ ॥ जय मल्लिनाथ देवन सुदेव. शत इन्द्र करत तुम चरण मेव । तुम जन्मत ही त्रय ज्ञान धार. आनन्द भयो निहं जग अपार ॥ ६ ॥ नव ही ले चहं विधि देव संग. सौ धर्म इन्द्र आयो उमङ्ग । सजि गज ले तुम हरि गोद आप. Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। २६१ बन पांडुक शिल ऊपर सुथाप ॥ ७ ॥ क्षीरोदधि नैं बहु देव जाय. भरि जल घट हाथों हाथ लाय । करि न्हवन वस्त्र भूषण सजाय. दे मात नृत्य तांडव कगय ॥ ८ ॥ पुनि हर्ष धार हृदय अपार, सब निर्जर नव जय जय उचार । तिस अवसर आनंद हे जिनेश, हम कहिवे समरथ नहिं लेश ॥ ६ ॥ जय जादोपति श्री नेमनाथ, हम नमत सदा जग जारि हाथ । तुम ब्याह समय पशुवन पुकार, सुनि तुरत छुड़ाय दया धार ॥ १० ।। कर कंकण अरु सिर मौर बंद, सो तोड़ भये छिन में स्वच्छन्द । तब ही लोकान्तिक देव आय, वैराग्य वर्द्ध नी थुति कराय ॥ ११ ॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. श्री जैन पूजा-पाठ मंग्रह । ततक्षिण शिवका लायो सुरेन्द्र. आरूढ़ भये तापर जिनेन्द्र । सो शिवका निज कंधन उठाय, सुर नर खग मिल तप वन ठराय ॥ १२ ॥ कच लौंच वस्त्र भूषण उतार, भये जती नगन मुद्रा सुधार । हरि केश लेय रतनन पिटार. सो नीर उदधि मांही पधार ॥ १३ ॥ जय पारशनाथ अनाथ नाथ, सुर असुर नमत तुम चरण माथ । जुग नाग जरत कीनी सुरन यह बात सकल जगमें प्रत्यन ॥ १४ ॥ तुम सुर धनु सम लखि जग असार. तप तपत भये तन ममत चार । शठ कमठ कियो उपसर्ग आय, तुम मन सुमेरु नहिं डगमगाय ॥ १५ ॥ तुम शुक्ल ध्यान गहि खड़ग हाथ, Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह । अरि च्यारि घातिया कर सुघात । उपजायो केवल ज्ञान भानु, आयो कुवेर हरि बच प्रमाण ॥ १६ ॥ की समोशरण रचना विचित्र, तहां खिरत भई बाणी पवित्र । मुनि सुर नर खग तिर्यंच आय. सुनि निज निज भाषा बोध पाय ॥ १७ ॥ जय वर्द्धमान अन्तिम जिनेश, पायो न अंत तुम गुण गणेश । तुम च्यारि अघाती करम हान. लियो मोन स्वयं मुग्व अचलथान ॥ १८ ॥ तब ही सुरपति चल अवधि जान, सब देवन युत बहु हर्ष ठान । सजि निज वाहन आयो सुतार, जहं परमौदारिक तुम शरीर ॥ १६ ॥ निर्वाण महोत्सव किया भूर, ले मलयागिर चंदन कपूर । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। बहु द्रव्य सुगंधित सर सम्भार, तामें श्री जिनवर वपु पधार ॥२०॥ निज अगनि कुमारिन मुकुट नाय, तिहं रतनन शुचि ज्वाला उठाय । तिस सर माहीं दीनी लगाय, सो भस्म सबन मस्तक चड़ाय ॥ २१ ॥ अति हर्ष थकी रचि दीप माल, शुभ रतन मई दश दिश उजाल । पुनि गीत नृत्य बाजे बजाय, गुण गाय ध्याय सुरपति सिधाय ॥ २२ ॥ सो थान अब जगमें प्रत्यक्ष, नित होत दीप माला सुलन । हे जिन तुम गुण महिमा अपार, बसु सम्यक् ज्ञानादिक सु सार ॥ २३ ॥ तुम ज्ञान माहिं तिहुँ लोक दर्व, प्रति बिम्बित हैं चर अचर सर्व । लहि आतम अनुभव परम ऋद्धि, Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। २६५ भये बीतराग जगमें प्रसिद्ध ॥ २४ ॥ है बाल यती तुम सवन एम, अचिरज शिव कांता बरी केम । तुम परम शांति मुद्रा सुधार, किम अष्ट कर्म रिपु को प्रहार ॥ २५ ॥ हम करत बीनती वार वार, कर जोर स्व मस्तक धार धार । तुम भये भवोदधि पार पार, मोको सुवेग ही तार तार ॥ २६ ॥ अरदास दास ये पूर पूर, वसु कर्म शैल चक चूर चूर । दुख सहन राम अव शकि नाहि, गही चरण शरण कीजे निवाह ॥ २७ ॥ चौपाई। पांचों बाल यति तीर्थश, तिनकी यह जयमाल विशेष । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जन पूजा-पाठ संग्रह। मन बच काय त्रियोग सम्हार, जे गावत पावत भव पार ॥ २८ ॥ ___ आ ह्रीं श्री पंच बाल यति ताथकर जिनंद्रायनमः पूणार्य ।। दाहा। ब्रह्मचर्य सों नेह धरि, रचियो पूजन ठाठ । पांचों वाल यतीनको, कीजे नित प्रतिपाथ ॥ इन्याशावादः। बाहुबाल स्वामी की पूजा। कर्म अरिंगण जीतिके, दरशायो शिव पंथ । प्रथम सिद्ध पद जिन लयो भोग भूमिके अंत॥१ समर दृष्टि जल जीत लहि. मल्लयुद्ध जय पाय । वीर अग्रणी बाहुबलि, वंदों मन वच काय ॥२॥ प्रां ह्रीं श्रामन गोमटेश्वर अत्र अवतर अवतर मंवोपट । अत्र निष्ठ तिष्ठ ठः ठः । अत्र मम मन्निहिता भव भव वपट । अथ अष्टकं चाल जागागमा। जन्म जग मग्नादि तृषा कर. जगत जीव दुग्न पाव । तिहि दुख दूर करन जिनपद को पूजन जल ले आवै ।। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ सग्रह । । परम पूज्य वीराधिवीर जिन बाहुबलि बलधारी । जिनके चरण कमलको नित प्रति धोक त्रिकाल हमारी || १ || २६७ ह्रीं वर्तमानावसर्पिणा समये प्रथम मुक्ति स्थान प्राप्ताय कमारि विजयी वीराविवार वीराणां श्री बाहुबलि परम योगीन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं ॥ १ ॥ यह संसार मरुस्थल अटवी तृष्णा दाह भगं है, तिहि दुख वारन चंदन लेकें जिन पद पूज करी है । परम पूज्य वीराधिवीर जिन बाहुबलि बलधारी, जिनके चरण कमलको नित प्रति धोक त्रिकाल हमारी ||२|| || चंदनं० ॥ स्वक्ष मालि शुचि नीरज रजमम गंध अखंड प्रचारी, अक्षय पढ़के पावन कारन पूजे भवि जगतारी | पूज्य वीराधिवीर जिन बाहुबलि बलधारी, परम जिनके चरण कमलको नित प्रति धोक त्रिकाल हमारी ||३|| ॥ अक्षतं । こ after चक्रपति र दानव मानव पशु बम यार्क, तिहि मकरध्वज नामक जिनकों पूजों पुष्प चढ़ाक । परम पूज्य वीराधिवीर जिन बाहुबलि चलधारी, जिनके चरण कमलको नित प्रति धोक त्रिकाल हमारी ||४|| || पुष्पं० ।। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०६८ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। दुखद त्रिजग सीवनको अति ही दोष क्षुधा अनिवारी, तिहि दुख दूर करनको चरु वर ले जिन पूज प्रचारी । परम पूज्य बीगधिवीर जिन बाहुबलि बलधारी, जिनके चरण कमलको नित प्रति धोक त्रिकाल हमागे ।।५।। ॥नवेद्यं०॥ माह महातम में जग जीवन सिव मग नाहि लखावे, निहि निग्वारन दीपक करले जिनपद पूजन आवै । परम पूज्य वीराधिवीर जिन बाहुबलि बलधारी । जिनके चरण कमलको नित प्रति धोक त्रिकाल हमारी ।।६।। ॥ दीपं० ॥ उत्तम धूप सुगंध बनाकर दश दिशमें महकार्य, दश विधि बंध निवाग्न कारण जिनवर पूज रचावे । परम पूज्य वीराधिवीर जिन बाहुबलि चलधारी, जिनके चरण कमलको नित प्रति धोक त्रिकाल हमारी॥७॥ ॥धृपं० ॥ मग्म सुवरण सुगंध अनूपम स्वक्ष महासुचि लाव, शिव फल कारण जिनवर पदकी फलमों पूज ग्चा । परम पूज्य वीराधिवीर जिन वाहुबलि बलधार्ग, जिनके चरण कमलको नित प्रति धोक त्रिकाल हमाग ।।८।। ।। फलं० ।। उत्तर Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। वसु विधिके वम वसुधा मव ही परवश अति दुख पावै, तिहि दुख दूर कग्नको भविजन अर्घ जिनाग्र चढ़ाव । परम पूज्य बीगधिवीर जिन बाहुबलि बलधारी, जिनके चरण कमलको नित प्रति धोक त्रिकाल हमारी ।।९।। ॥ अघु० ॥ जयमाला दाहा। आठ कर्म हनि आठगुण प्रगट करे जिन रूप। सो जयवंतो भुजवली प्रथम भये शिव भूप ॥ कुममलता छंद। ज ज ज जगतार शिरोमणि क्षत्रिय वंम अमंग महान, जै जै जै जग जन हितकारी दीनौ जिन उपदेश प्रमाण । जे जे चक्रपति सुत जिनके मतसुत जेष्ठ भगत पहिचान, ज ज ज श्री ऋपभदेव जिनमों जयवंत सदा जग जान॥१।। जिनके द्वितीय महादेवी सुचि नाम सुनंदा गुण की खान, रूप शील सम्पन्न मनोहर तिनके सुत भुजवली महान । मवापंच शत धनु उन्नत ननु हरितवरण मोभा असमान, वहरजमणि पर्वत मानों नील कुलाचल मम थिर जान ।।२।। तेजवंत पग्माण जगतमें तिन करि ग्ची शरीर प्रमाण, मत वीरत्व गुणाकर जाको निरखत हरि हरप उर आन । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० श्री जैन पृजा-पाठसंग्रह। धीरज अतुल बज्र मम नीरज सम वीगग्रणि अति बलवान, जिन छवि लखि मनु शशि छवि लाकुसुमायुध लीनों सुपुमान बालसमें जिन वाल चन्द्रमा शमि से अधिक घरे दुतिमार, जो गुरुदेव पढ़ाई विद्या शस्त्र शास्त्र मब पढ़ी अपार । ऋषभदेव ने पोदन पुरके नृप कीने भुजवली कुमार, दई अयोध्या भग्नेश्वरको आप बन प्रभुजी अनगार ।।४।। राजकाज पटखंड महीपति मब दल ले चढ़ि आये आप, बाहुबलि भी मन्मुख आये मंत्रिन तीन युद्ध दिये थाप । दृष्टि नीर अरु मल्ल युद्धमें दोनों नृप काजी बलधाप, वृथा हानि रुक जाय मैंन्यकी यातं लड़िये आपां आप ।।५।। भरत भुजवली भूपति भाई उतरे ममर भूमिमें जाय, दृष्टि नीर रण थके चक्रपति मल्लयुद्ध तब कंगे अघाय । पगतल चलत चलत अचला तब कंपत अचल शिम्बर ठहराय, निषध नील अचलाधर मानौं भये चलाचल क्रोध वमाय।।६।। भुज विक्रमवलवाहुबलीन लये चक्रपति अधर उठाय, चक्र चलायो चक्रपति तब मोभी विफल भयो तिहि ठाय । अति प्रचंड भुजदंड मंड़ सम नृप मादल बाहुबलि गय, सिंहासन मंगवाय जामपं अग्रजको दानों पधगय ।।७।। गजग्मा रामासुर धनुमें जोवन दमक दामिनी जान, भोग भुजंग जंग मम जगको जान त्याग कीनों निहि थान । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | २५१ अष्टापद पर जाय वीरनृप वीर व्रतीधर कीनों ध्यान, अचल अंग निरभंग संगतज संवतमरला एक स्थान ||८|| विषधर वंत्री करी चग्नतल ऊपर बेल चढ़ी अनिवार, युगजघा कटि बाहुवेदि कर पहुंची वक्षस्थल परमार | सिरके केश बढ़े जिस मांहीं नभचर पक्षी बसे अपार, धन्य धन्य इस अचल ध्यानको महिमा सुर गांव उरधार ||९|| कर्मनामि शिव जाय से प्रभु ऋषभेश्वर से पहले जान, अष्ट गुणांकित सिद्ध शिरोमणि जगदीश्वर पद लयो वीरवती वीराग्रगन्य प्रभु बाहुबली जगधन्य महान, वीरवृत्तिके काज जिनेश्वर नमैं सदा जिन चित्र प्रमान || १०|| पुमान। दाहा । नलगुल विंध्यगिरि जिनवर विंव प्रधान । छप्पन फुट उतंगतनो खड़गासन अमलान ॥ १ ॥ अतिशयवंत अनंत बल धारक विंव अनृप । अर्ध चढाय नमो सदा जे जे जिनवर भूप ॥ ओ ह्रीं वर्तमानात्रमपि समये प्रथम मुक्तिस्थान प्रामाय कमरि विजयी वीराधिवार वीराणां श्री बाहुबलि स्वामिनं अनपढ़ प्राताय महार्थ निर्वपामीति स्वाहा | इत्याशवादः । ३६ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | श्री चांदन गांव महावीर स्वामी पूजा । छन्द । भेपको । श्री वीर सन्मति गांव चादनमें प्रगट भये आय कर । जिनको वचन मन कायसे मैं पूजहं शिर नाय कर || हुये दयामय नार नर लग्वि, शांतिरूपी तुम ज्ञानरूपी भानसे कीना सुशोभित सुर इन्द्र विद्याधर मुनो नरपति नवावें हम नवत हैं नित चावसों महावीर प्रभु जगदीशको || देशको || शीमको । ह्रीं श्री चांदनगांव महावीर स्वामिन अत्र अवतर संौपट आह्नाननं । ह्रीं श्री चांदन गांव महावीर स्वामिन अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं । ह्रीं श्री चांदन गांव महावीर स्वामिन अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम | श्रथाष्टकं । क्षीरोदधि से भरि नीर कंचन के कलशा । तुम चरणनि देत चढ़ाय आवागमन नशा || चांदनपुरके महावीर तोरी छवि प्यारी । प्रभु भव आताप निवार तुम पद बलिहारी ॥ १ ॥ ह्रीं श्री चांदनपुर महावीर स्वामिने जलं नि० मलयागिर और कपूर केशर ले हरषों । प्रभु भव आताप मिटाय तुम चरननि परसों ॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। चांदनपुरके महावीर तोरी छवि प्यारी । प्रभु भव आताप निवार तुम पद बलिहारी ।। चंदनं० ।। तंदुल उज्ज्वल अति धोय थारो में लाऊं । तुम मन्मुख पुञ्ज चढ़ाय अक्षय पद पाऊं ।। चांदनपुरके महावीर तोरी छवि प्यारी । प्रभु भव आताप निवार तुम पद बलिहारी ।। अक्षतं० ।। बेला केतुकी गुलाब चंपा कमल लऊं। जे कामवाण करि नाश तुम्हरे चरण दऊं ।। चांदनपुरके महावीर तोरी छवि प्याग । प्रभु भव आताप निवार तुम पद बलिहारी ॥ पुष्पं० ।। फैनी गुजा अरु स्वार मोदक ले लाजे । करि क्षुधा रोग निरवार तुम मन्मुख कीजे ।। चांदनपुरके महावीर तोरी छवि प्यारी । प्रभु भव आताप निवार तुम पद बलिहारी ।। नैवेद्यं० ।। घृतमें करपूर मिलाय दीपक में जोगे। करि मोहतिमिरको दर तुम मन्मग्य वागे॥ चांदनपुरके महावीर तोरी छवि प्यारी। प्रभु भव प्रताप निवार तुम पद बलिहारी ।। दीपं० ॥ दशविधि ले धूप बनाय तामें गंध मिला। तुम सन्मुख खेऊ आय आठों कम जला ।। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७) श्री जेन पूजा-पाठ मंग्रह। चांदनपुरके महावीर तोरी छवि प्यारी । प्रभु भव आताप निवार तुम पद बलिहारी ।। धृपं० ॥ पिम्ता किममिम बादाम श्रीफल लौंग मजा। श्री बद्धमान पद गख पाऊं मोक्ष पदा ।। चांदनपुरके महावीर नोग छवि प्यारी । प्रभु भव आताप निवार तुम पद बलिहारी ।। फलं० ।। जल गंध मु अक्षत पुष्प चरुवर जोर कगें । ले दीप धूप फल मेलि आगे अर्घ कगं ।। चांदनपुरके महावीर तोग छवि प्यारी । प्रभु भव आताप निवार तुम पद बलिहारी ।। अर्घ० ।। टोंक के चरणोंका अर्थ जहां कामधेनु नित आय दुग्ध जु बग्मा । तुम चग्ननि दरशन होत आकुलता जावे ।। जहां छतरी बनी विशाल तहां अतिशय भाग । हम पूजत मन वच काय तजि मंशय मारी ।। चांदनपुरके महावीर तोरी छवि प्यारी। प्रभु भव आताप निवार तुम पद बलिहारी ।। ओ ही टॉकमें स्थापिन श्री महावीर चरगोभ्या अर्घ । __टीलेके अंदर विराजमान समयका अध टीलेके अन्दर आप मोहें पदमामन । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाट मंग्रह । जहां चतुर निकाई देव आवें जिन शामन ।। नित पूजन करत तुम्हार कर ले झारी । हम हूं वसु द्रव्य बनाय पूजें भरि थारी ।। चांदनपुरके महावीर नोग छवि प्यारी । प्रभु भव आताप निवार तुम पद बलिहारी ।। ओं ह्रीं श्री चांदनपुर महावीर जिनंद्राय टील के अंदर विगजमान ममयका अघ । पंचकल्यागाक कंडलपुर नगर मंझार त्रिशला उर पायो । सुदि छटि अमाढ़ मुर आई रतन जु बग्मायो । चांदनपुरके महावार तारी छवि प्यारी । प्रभु भव याताप निवार तुम पद बलिहारी ।। ओं ह्रीं श्री महावीर जिनंद्राय अपाद मदि छाट गर्भ मंगल प्राप्ताय अर्घ । जनमत अनहद भई घोर याये चतुर निकाई । नेग्म शुक्लाकी चैत्र मुर गिरि ले जाई ।। चांदनपुरके महावीर तांग बवि प्यारी। प्रभु भव आताप निवार तुम पद बलिहारी ॥ श्रां ह्रीं श्री महावार जिनंद्राय चन मुदि नरम जन्म मंगल प्राप्राय अघ। कृष्णा मंगमिर दश जान लोकांतिक पाये। करि केश लाँच तनकाल झट वनको धाये ।। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। चांदनपुरके महावीर तोरी छवि प्यारी । प्रभु भव आताप निवार तुम पद बलिहारी ।। ओं ह्रीं श्री महावीर जिनंद्राय मंगसिर वदी दशमी तपमंगल प्राप्ताय अर्थ । बमाख सुदी दशमांहि घाती क्षय करना। पार्यो तुम केवल ज्ञान इन्द्रनिकी रचना ॥ चांदनपुरके महावीर तोरी छवि प्यारी । प्रभु भव पानाप निवार तुम पद बलिहारी ।। ओं ह्रीं श्री महावीर जिनेंद्राय वसाग्व मुदी दशमी कंवलज्ञान प्राप्ताय अर्घ । कार्तिक जु अमावस कृष्ण पावापुर ठाहीं । भयो तीनलोकमें हपं पहुंचे शिव माहीं।। चांदनपुरके महावीर तोरी छवि प्यारी । प्रभु भव आताप निधार तुम पद बलिहारी ।। ओं ह्रीं श्री महावीर जिनेंद्राय कार्तिक वदी अमावम मोक्षमंगल प्राप्ताय अर्घ । जयमाला. दाहा। मंगलमय तुम हो मदा श्रीमन्मति सुग्वदाय । चांदनपुर महावीरकी कई आरती गाय ।। पद्धट्टी छन्द । जय जय चांदनपुर महावीर, तुम भक्तजनों की हरत पीर । जड़ चेतन जगके लखत आप, दई द्वादशांग वानी अलाप ॥१॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। २७७ अब पंचम काल मंझार आय, चांदनपुर अतिशय दई दिखाय । टीलेके अंदर बठि बीर, नित हरा गायका तुमने क्षीर ।।२।। ग्वालाको फिर आगाह कीन, जब दग्शन अपना तुमने दीन । मृरति देखी अति ही अनूप, है नग्न दिगंबर शांति रूप ॥३॥ तहां श्रावक जन बहुगये प्राय, किये दरशन करि मनवचनकाय। है चिह्न शेरका ठीक जान, निश्चय है ये श्रीवर्तमान ॥४॥ सब देशनके श्रावक जुआय, जिन भवन अनूपम दियो बनाय। फिर शुद्ध दई वेदी कराय, तुरतहि गजरथ फिर लयो मजाय ।। ५ ये देख ग्वाल मनमें अधीर, मम ग्रह को त्यागो नहीं वीर । तेरे दरशन बिन तजं प्राण, सुनिटर मेग किरपा निधान॥६॥ कीने ग्थमें प्रभु विराजमान, ग्थ हुआ अचल गिरके समान। तब तरह तरहके किये जोर, बहुतक रथ गाड़ी दिये तोड़ ।।७।। निशिमांहि स्वप्न सचिवहिं दिखात, ग्थ चल ग्वालका लगत हाथ भोरहिं झट चरण दियो बनाय, मंतोप दिया ग्वालहिं कराय॥८ करि जय जय प्रभु से करीटंग, ग्थ चल्यो फेर लागी न देर । वह निरत करत बाजे बजाई, स्थापन कीने तहँ भवन जाइ॥९।। इक दिन मंत्रीको लगा दोप, धरि तोप कही नृप खाइ रोप । तुमको जब ध्यायावहां वीर, गोलासे झट बच गया वजीर ।।१० मंत्री नृप चांदन गांव आय, दग्शन करि पूजा की बनाय । करितीन शिखर मंदिर रचाय, कंचन कलशादीने धराय॥११ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •७८ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। यह हुक्म कियो जयपुर नरेश, सालाना मेला हो हमेश । अब जुड़न लगबहु नर उ नार, तिथि चत सुदी पूनों मंझार १२ मीना गृजर आवै विचित्र, मब वरण जुड़े करि मन पवित्र । बहु निरत करत गावे सुहाय, कोई २ घृत दीपक रह्यो चढ़ाय १३ कोइ जय जय शब्द को गंभीर, जय जय जय हे श्री महावीर। जैनी जन पूजा रचत आन, कोई छत्र चंवरके करत दान ।।१४ जिमकी जो मन इच्छा करंत, मन वांछित फल पावे तुरंत । जो कर वंदना एकवार, सुख पुत्र संपदा हो अपार ॥१५।। जो तुम चरणोंमें रखे प्रीत, ताको जगमें को सके जीत । है शुद्ध यहांका पवन नीर, जहां अति विचित्र सरिता गंभीर १६ परनमल पजा रची सार, हो भृल लेउ सजन सुधार । मेग है शमशावाद ग्राम, त्रय काल करू प्रभुको प्रणाम।१७।। . घत्ता । श्री वर्द्धमान तुम गुण निधान उपमा न बनी तुम चरनन की। है चाह यही नित बनी रहै अभिलाप तुम्हारे दरशन की ।। ओ ह्रीं श्री चांदन गांव महावार जिनंद्राय अर्घ । दोहा अष्टकर्मके दहनको पूजा रची विशाल । पढ़े सुनें जो भावसे छूटे जग जंजाल ॥१॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | संवत जिन चौबीस सौ है वासठकी साल । एकादश कार्तिक पूजा रची सम्हाल ॥२॥ ی : इत्याशीर्वादः । महावीर स्वामी का भजन | चाक - रसिया 1 चांदनपुर के महावीर हमारी पीर हरी || टेर | जयपुर राज्य गांव चांदनपुर, तहां बनी उन्नत जिन मंदिर | तट नदी गम्भीर हमारी पीर हरी ॥ चांदनपुर के महावीर हमारी पीर हगे || १ | पूर्व बात चली यों आवे, एक गाय चरने की जावे । भर जाय उसका क्षीर, हमारी पीर हगे । चांदनपुर के महावीर हमारी पीर हंगे ॥ २ ॥ एक दिवस मालिक संग आयो, देख गाय टीलो खुदवायो । खोदत भयो अधीर, हमारी पीर हगे || चांदनपुर के महावीर हमारी पार हगे ॥ ३ ॥ रेन मांहि तब मुपनो दीनों, धीरे धीरे खोद जमीनो । है इसमें तस्वीर, हमारी पीर हरो || चांदनपुर के महावीर हमारी पीर हरौ ॥ ४ ॥ प्रात होत फिर भूमि खुदाई, वीर जिनेश्वर प्रतिमा पाई । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। भई इकट्ठी भीड़, हमारी पीर हरो॥ चांदनपुरके महावीर हमारी पीर हरो ॥ ५॥ तब ही से हुआ मेला जारी, होय भीड़ हरसाल कगरी । चंत माम आखीर, हमारी पीर हरी ।। चांदनपुरके महावीर हमारी पीर हरो ॥६॥ लाखों मीना गूजर आयें, नाचे गा गीत सुनावें । जय बोलें महावीर, हमारी पीर हरो॥ चांदनपुरके महावीर हमारी पीर हरो ॥ ७ ॥ जुड़े हजारौं जनी भाई, पूजन पाठ करें सुखदाई । मनवचतन धरि धीर, हमारी पीर हरो॥ चांदनपुरके महावीर हमारी पीर हरो ॥ ८ ॥ छत्र चमर सिंहासन लावें, भरि भरि घृतके दीप जलावें । बोलें जै गम्भीर, हमारी पीर हरो॥ चांदनपुरके महावीर हमारी पीर हरो ॥९॥ जो कोई सुमरे नाम तुम्हारा, धन संतान बढ़े व्यापारा । होय निरोग शरीर, हमारी पीर हरो ।। चांदनपुरके महावीर हमारी पीर हरो ॥ १० ॥ मक्खन शरण तुम्हारी आयो, पुण्य योगसे दर्शन पायो। खुली आज तकदीर, हमारी पीर हरो ।। चांदनपुरके महावीर हमारी पीर हरो ॥ ११ ॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। २८१ आलोचना पाठ। यह आलोचनापाठ सामायिक पाठमें प्रथमका प्रतिक्रमण कम है उस कमके आदि वा अन्तम वालना चाहिय । दाहा। वंदों पांचों परमगुरु, चौबीसों जिनगज । करू शुद्ध आलोचना, शुद्धिकरनके काज ॥१॥ मी छंद चौदह मात्रा। सुनिये जिन अरज हमारी. हम दोष किये अति भार्ग । तिनकी अव निवृत्ति काजा, तुम सरन लही जिनराजा ॥ २ ॥ इक वे ते चउ इन्द्री वा, मनरहित सहित जे जीवा । तिनकी नहिं करुणा धारी, निरदइ है घात विचारी ॥ ३ ॥ समरंभ समारंभ आरंभ, मन वच तन कीने प्रारंभ । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ श्री जैन पूजा-पाठ मंग्रह । कृत कारित मोदन करिके. क्रोधादि चतुष्टय धरिक ॥ ४ ॥ शत आट जु इमि भेदनने, अघ कीने परछेदनते। तिनकी कहुं कोलों कहानी, तुम जानत केवल ज्ञानी ॥ ५ ॥ विपरीत एकांत विनयके. संशय अज्ञान कुनयके । वश होय घोर अघ कीने, वचनै नहिं जाय कहीने ॥ ६ ॥ कुगुग्नकी सेवा कीनी. कंवल अदयाकरि भीनी । याविधि मिथ्यात भ्रमायो. चहूंगति मधि दोष उपायो ॥ ७ ॥ हिंसा पुनि झुट जु चोरी, परवनितासों दृग जोग। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। २८३ आरंभपरिग्रह भीनो. पनपाप जु या विधि कीनो ॥ ८ ॥ सपरस रसना घ्राननको, चखु कान विषयसेवनको । बहुकरम किये मनमाने, कछु न्याय अन्याय न जाने ॥ ६ ॥ फल पंच उदंबर ग्वाये, मधु मांस मद्य चिनचाहे । नहिं अष्टमूलगुणधार्ग, सेये कुविसन दुग्वकार्ग ॥ १० ॥ दुइवीस अभग्व जिनगाये. सो भी निशदिन भंजाये । कछु भेदाभेद न पाया, ज्यों त्योंकरि उदर भरायो ॥ ११ ॥ अनंतानु जु बंधी जाना, प्रत्याग्व्यान अप्रत्याख्यानो । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठसंग्रह | संज्वलन चौकरी गुनिये, सब भेद जु षोड़श मुनिये ॥ १२ ॥ परिहास अरतिरति शोग, भय ग्लानि निवेद संयोग । पनवीस जु भेद भये इम, पाप किये २८४ इनके वश निद्रावश शयन कराई, सुपनेमधिदोष लगाई । फिर जागि विषयवन धायो, नानाविध विषफल खायो ॥ १४ ॥ हम ॥ १३ ॥ कियेऽहार निहारविहारा, इनमें नहिं जतन विचारा | चिन देखी धरी उठाई, विन शोधी वस्तु जो खाई ॥ १५ ॥ तब ही परमाद सतायो. बहुविध विकलप उपजायो । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | कछु सुधिबुधि नाहिं रही है. मिथ्यामति छाय गयी है ॥ १६ ॥ लीनी. मरजादा तुमडिंग ताह में दोष जु कीनी । भिन भिन अब कैसे कहिये, तुम ज्ञानविषं सब पइये ॥ १७ ॥ हा हा ! मैं दृट अपराधी, त्रस जीवनराशि विराधी । थावर की जतन न कीनी. उरमें करुणा नहिं लीनी ॥ १८ ॥ पृथिवी व खोद कराई. महलादिक जागां चिनाई । पुन विनगाल्यां जल ढोल्यो, पंग्वा पवन विलोल्या ॥ १६ ॥ हा हा! मैं अदयाचारी. बहु हरितकाय जु विदारी । २८५ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। तामधि जीवनके खंदा, हम खाये धरि आनंदा ॥ २० ॥ हा हा! मैं परमाद बसाई, विन देखे अगनि जलाई। तामधि जे जीव जु आये, तेहू परलोक सिधाये ॥ २१ ॥ बीध्यो अनराति पिसायो, ईंधन विन सोधि जलायो । झाड़ ले जागां बुहारी, चिवटी आदि जीव विदारी । ॥ २२ ॥ जल छानि जिवानी कीनी, सो हू पुनि डारि जु दीनी । नहिं जलथानक पहुँचाई, किरिया बिन पाप उपाई ॥ २३ ॥ जल मल मोरिन गिरवायो, कृमिकुल बहु घात करायो।। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ सग्रह | नदियन विच चीर धुवाये. कोसनके जीव मराये ॥ २४ ॥ अन्नादिक शोध कराई. तामें जु जीव निसराई । तिनका नहिं जतन कराया, गरिया धूप डराया ॥ २५ ॥ पुनि द्रव्य कमावन काजें, बहु आरंभ हिंसा साजै । कीये अघ तिसनावश भारी, करुणा नहिं च विचारी ॥ २६ ॥ इत्यादिक पाप अनंता. हम कीने श्रीभगवंता । संतति चिरकाल उपाई. वाणीतें वाणी जात न गाई ॥ २७ ॥ ताको जु उदय अव आयो नानाविध मोहि सतायां । ་ २८७ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ iSC श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। फल भुंजत जियदुग्व पावै, वचतें कैसे करि गावै ॥ २८ ॥ तुम जानत केवल ज्ञानी. दुख दूर करो शिवथानी । हम तो तुम शरण लही है. जिन तारनविग्द सही है ॥ २६ ॥ इक गांवपती जो होवे. सो भी दुखिया दुग्व ग्वावै । तुम तीन भुवनके स्वामी, दुख मेटहु अंतरजामी ॥ ३० ॥ द्रोपदिको चीर बढ़ायो, सीताप्रति कमल रचायो । अंजन से किये अकामी, दुखमेटो अंतरजामी ॥ ३१ ॥ मेरे अवगुन न चितागे. प्रभु अपनो विरद सम्हारो । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह । सब दोषरहित करि स्वामी. दुखमेटहु अंतरजामी ॥ ३२ ॥ इन्द्रादिक पदवी न चाहूं, विषयनिमें नाहिं लुभाऊं । रागादिक दोष हरीज. परमातम निजपद दीजे ॥ ३३ ॥ दोहा । दोषरहित जिनदेवजी, जिनपद दीज्यो मोय । सब जीवन के सुख बढ़, आनंद मंगल होय ॥ अनुभव माणिक पारखी, 'जौहरी' आप जिनंद । ये ही वर माहि दीजिये, चरगाशरण आनंद ॥ इत्याशीर्वादः । सामायिक पाठ भाषा ' प्रतिक्रमण कम ! काल अनंत भ्रम्यो जगमें महिये दुख भारी, जन्ममरण नित किये पापको हूँ अधिकारी । २८ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। कोटि भवांतग्मांहि मिलन दुर्लभ मामायिक, धन्य आज में भयो जोग मिलियो सुखदायक ॥११॥ हे मर्वज्ञजिनेश! किये जे पापजु मैं अब, ते मब मनवचकाय योगकी गुप्ति बिना लभ । आप समीप हजूर मांहि में खड़ो बड़ो मब, दोष कहूं मो सुनो कगे नट दग्व देहिं जब ।।२।। क्रोध मान मद लोभ मोह मायावशि प्रानी, दुग्यमाहित जे किये दया तिनकी नहिं पानी । विना प्रियांजन एकेंद्रय विति च उपंचेंद्रिय, आप प्रमादहि मिट दाप जो लग्यो मोहि जिय ॥३॥ आपममें इकठोर थाप करि जे दुख दीने, पेलि दिए पगतलं दाविकरि प्राण हगन । आप जगतके जीव जितिन सबके नायक, अरज करू में सुनो दोप मेटो दुखदायक ।।४।। अंजन अादिक चोर महाघनघोर पापमय, तिनके जे अपराध भये ते क्षमा क्षमा किय । मेरे जे अब दोप भये ते क्षमहु दयानिधि, यह पडिकोणो कियो आदि पटकम मांहि विधि ॥५॥ द्वतीय प्रत्याख्यान कर्म। इसके आदि वा अन्त में आलोचना पाठ बोलकर फिर तीसरे मामायिक कर्मका पाठ करना चाहिये । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | जो प्रमादवशि होय विराधे जीव घनेरे, तिनको जो अपराध भयो मेरे अघ ढेरे । सो सब झूठो होउ जगतपति के परसाई, जा प्रसाद मिले सर्व सुख दुख न ला || ६ | मैं पापी निर्लज दया करि हान महाशठ, किये पाप अथ ढेर पापमति होय चित्त दुठ | निंदू हूं मैं बार बार निज जियको गरहुँ, सबविधि धर्म उपाय पाये फिर पापहि करहूं ||७|| दुर्लभ है नरजन्म तथा श्रावक कुल भारी, सतसंगति संजोग धमं जिन श्रद्धा धारी । जिन वचनामृत धार समातें जिनवानी, तोहू जीव संहारे विकधिक विक हम जानी ||८|| इन्द्रियलंपट होय खोय निज ज्ञान जमा सत्र, अज्ञानी जिमि करें तिमी विधि हिंसक हूँ अब । गमनागमन करतो जीव विराधे भोले, ते सब दोष किये निंदूं अब मन वच तोले ||९| आलोचनविधि की दोप लागे जु घनेरे, ते सब दोष विनाश होउ तुम तैं जिन मेरे । बारवार इस भांति मोहमद दोप कुटिलता, ईपादिकर्ते भये निंदिये जे भयभीता ॥ १० ॥ ॥९॥ २६१ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ३ तृतीय मामायिक भावकर्म । सब जीवनमें मेरे ममताभाव जग्यो है, सब जिय मोमम ममता गखो भाव लग्यो है । आत गैद्र द्वय ध्यान डांडि करिहं मामायिक, संजम मो कब शुद्ध होय यह भाववधायक ।।११।। पृथिवी जल अरु अग्नि बाय च उकाय वनस्पति, पंचहि थावरमांहि तथा त्रम जीव वमें जित । वेइन्द्रिय तिय चउ पंचेंद्रियमांहि जाच मब, तिनत क्षमा कगऊं मुझपर क्षमा कंग अब ।।१२।। इस अवमग्में मेरे मन मम कंचन अरु तृण, महल ममान समान शत्रु अरु मित्रहि सम गण । जामन मग ममान जानि हम ममता कीनी, सामायिकका काल जितं यह भाव नवीनी ।।१३।। मेरो है इक आतम नामें ममत जु कीनो.. और मबै मम भिन्न जानि ममता रम भीनो । मात पिता सुत बंधु मित्र तिय आदि मत्र यह. मोत न्यारे जानि जथारथ रूप कग्यो गह ।।१४।। मैं अनादि जगजालमांहि फंमि रूप न जाण्यो. एकेद्रिय वे आदि जंतुको प्राण हगण्यो। ते सब जीवसमूह सुनो मंग यह अग्जी Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। २६३ भवभवको अपराध हिमा कीज्यो कर मरजी || १५ || ४ चतुर्थ स्तवनकर्म | नमीं ऋषभ जिनदेव अजित जिन जीति कर्मको, संभव भवदुखहरण करण अभिनंद शर्मा को । सुमति सुमति दातार तार भवसिंधु पार कर, पद्मप्रभ पद्माभ भानि भवति प्रीति घर ||१६|| श्रीमुपायं कृतपाश नाश भव जाम शुद्धकर, श्रीचंदप्रभ चंद्रकांतियम देह कांतिधर | पुष्पदंत दमि दोपकोश भविषोप पहर, शीतल शीतल करण हरण भवताप दोपकर ||१७|| श्रयरूप जिनश्रेय ध्येय नित सेय भव्यजन, वासुपूज्य शतपूज्य वासवादिक भवभयहन । विमल विमलमति देन अंतगत है अनंत जिन, धर्मशमशिवकरण शांतिजिन शांतिविधायिन || १८ || कंथ कंमुख जीवपाल अरनाथ जाल हर मल्लि मल्लमम मोहमल्ल मारण प्रचार धर | मुनिसुव्रत व्रतकरण नमत सुर संघहि नमि जिन, नेमिनाथ जिन प्रेमि धर्मस्थमांहि ज्ञानधन ||१९|| पार्श्वनाथ जिन पायं उपलमम माझ रमापति, बर्द्धमान जिन नमूं बम् भवदुखकमंत । Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। या विधि में जिन संघरूप चवीम संख्यधर, स्तवं नम हूं बारवार बंदं शिव सुखकर ॥२०॥ ५ पंचम वंदनाकर्म । ब, मैं जिनवीर धीर महावीर मुसनमति, बढेमान अतिवीर बंदि है मनवचतन कृत । त्रिशलातनुज महेश धीश विद्यापति वंदूं. बंदोनित प्रति कनकरूप तनु पापनिकंदै ॥२१॥ मिद्धारथ नृपनंददंद दम्ब दोप मिटावन. दुरित दवानल ज्वलित ज्वाल जगजीव उधारन । कंडलपुर करि जन्म जगत जिय पानँदकारन, वपं बहत्तर अायु पाय सवही दुग्ब टाग्न ॥२२॥ सप्तहस्त तनु तुङ्ग भंगकृत जन्ममरणभय. बालब्रह्ममय जेय हय ग्रादेय ज्ञानमय । दे उपदेश उधारि तारि भवसिंधु जीवघन. आप बसे शिवमांहि ताहि बंदा मन बच तन ॥२३॥ जाके बंदनथकी दोप दुखदरहि जावे. जाके वंदन थकी मुक्तितिय मन्मुख आवे । जाके वंदनथकी वंद्य हावे मुरगनके, ऐसे वीर जिनश वन्दि हूं क्रमयुग तिनके ॥२४।। सामयिक पटकममाहि वंदन यह पंचम, Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। चंदों वीरजिनेंद्र इंद्रशतवंद्य वंद्य मम । जन्ममरणभय हगे कंगे अघशांति शांतिमय, मैं अघकोश मुपोष दोपको दोप विनाशय ॥२५।। छठा कायोत्सर्ग कर्म । कायोत्सर्ग विधान कर अंतिम मुखदाई. कायत्यजनमय होय काय मवको दुखदाई । पूरब दक्षिण नमं दिशा पश्चिम उत्तर में, जिनगृह वंदन कर हम भवपापतिमिर में ॥२६॥ शिरोनती में कर नमं मम्नक कर धम्कि, आवर्तादिक क्रिया कम मन वच मद हरिक । तीनलोक मिनभवनमाहि जिन हैं जु अकृत्रिम, कृत्रिम हैं द्वय अद्धं द्वाप माहीं वन्दों जिम ॥२७।। आठकोडि परि छप्पन लाग्य जु सहम यत्यारणं, च्यारि शतक पर अमी एक जिनमंदिर जाणं । व्यंतर ज्योतिषमाहि मंग्यहिते जिनमंदिर, ते मत्र वंदन कर हरहु मम पाप संघकर ॥२८॥ मामायिकमम नाहि और कोर बमिटायक, मामायिक मम नाहि और कोउ मंत्रीदायक । श्रावक अणव्रत ग्रादि अन्तमप्तम गुग्गथानक, यह आवश्यक किये हाय निश्चय दुग्वहानक ।।२०।। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। जे भवि ग्रातमकाज-करण उद्यम के धारी, ते मब काज विहाय कगे मामायिक मारी । गग गेप मदमोहक्रोध लोभादिक जे मब, बुध महाचन्द विलाय जाय तात कीज्यो अब ॥३०॥ इनि सामायिक पाठ समाप्त भक्तामर स्तोत्र भाषा। आदिपुरुष आदीश जिन,आदि सुविधिकरतार। धरमधुरंधर परमगुरु, नमों आदि अवतार ॥१॥ ___ चौपाई। सुरनतमुकुट रतन छवि करें, अन्तर पापतिमिर सब हरें । जिनपद बंदों मनवचकाय, भवजलपतित-उधरनसहाय ॥ १ ॥ श्रु तपारग इंद्रादिक देव, जाकी थुति कीनी कर सेव । शब्द मनोहर अरथ विशाल, तिस प्रभुकी वरनों गुनमाल ॥२॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | विबुधवंद्यपद में मतिहीन, होय निलज्ज थुति- मनसा कीन । जलप्रतिबिंब बुद्धको गहै, शशिमंडल वालक ही चहे ॥ ३ ॥ गुनसमुद्र तुमगुन अविकार. कहत न सुरगुरु पावें पार | प्रलयपवन उद्धत जलजंतु. जलधि तिरैको भुजबलवंत ॥ ४ ॥ सो में शक्तिहीन थुति करू भक्तिभाववश कलुनहि डरु । ज्यों मृगि निजसुतपालन हेत, मृगपतिसन्मुख जाय अचेत ॥ ५ ॥ मैं शठ सुधीहंसन का धाम, मुझ तव भक्ति - बुलावे राम । ज्यों पिक अंकलीपरभाव, मधुऋऋतु मधुर करें आराव ॥ ६ ॥ २६७ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | तुमजस जंपत जन छिनमाहिं, जनम जनमके पाप नशाहिं । ज्यों रवि उगे फटै ततकाल, लिवत नील निशातमजाल ॥ ७ ॥ तुव प्रभावतें कहूं विचार, होसी यह थुति जनमनहार । ज्यों जल कमलपत्र परे, मुक्ताफलकी द्युति विस्तरै ॥ ८ ॥ ह । तुम गुनमहिमा हतदुखदोष, सो तो दूर रहो सुखपोष । पापविनाशक है तुम नाम, कमलविकाशी ज्यों रविधाम ॥ ६ ॥ नहिं अचंभ जो होहिं तुरंत, तुमसे तुमगुण वरणत संत । जो अधीनको आपसमान, करें न सो निंदित धनवान ॥ १० ॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। २६४ इकटक जन तुमकों अविलोय, अवरविषैरति करै न सोय । कोकरिक्षीरजलधिजल पान, क्षारनीर पीवै मतिमान ॥ ११ ॥ प्रभु तुम वीतराग गुणलीन. जिन परमाणु देह तुम कीन । हैं तितने ही ते परमाण, यातें तुम सम रूप न आन ॥ १२ ॥ कहँ तुम मुख अनुपम अविकार, सुरनरनागनयनमनहार । कहां चंद्रमंडल सकलंक, दिनमें ढाक पत्र सम रंक ॥ १३ ॥ पूरनचन्द जाति छविवंत, तुमगुन तीनजगत लंघेत । एक नाथ त्रिभुवन आधार, तिन विचरतको करै निवार ॥ १४ ॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | जो सुरतिय विभ्रम आरम्भ, मन न डिम्यो तुम तौ न अचंभ | अचल चलावे प्रलय समीर, मेरुशिखर डगमगें न धीर ॥ १५ ॥ धूमरहित वाती गत नेह, परकाशै त्रिभुवन घर एह । वातगम्य नाहीं परचंड, अपर दीप तुम बलो अखंड ॥ १६ ॥ छिपहु न लुपहु राहुकी छांहि, जगपरकाशक हो छिन मांहि । घन व दाह विनिवार, रवि अधिक धरो गुणसार ॥ १७ ॥ सदा उदित विदलित मनमोह, विघटित मेघराह अवरोह | तुम मुखकमल अपूरवचंद, जगतविकाशी जोति मंद ॥ १८ ॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ मंग्रह । ३०१ निशदिन शशिरविको नहिं काम, तुम मुखचंद हरै तम धाम । जो स्वभावतै उपजै नाज, सजल मेघ तो कौनहु काज ॥ १६ ॥ जो सुबोध सोहै तुममांहि, हरि हर आदिकमैं सो नाहिं । जो द्यु ति महारतनमैं होय, काचखंड पावै नहिं सोय ॥ २० ॥ सराग देव देख में भला विशेष मानिया, स्वरूप जाहि देख वीतराग तु पिछानिया । कछु न तोहि देखके जहां तुही विशेग्विया, मनोग चित्तचोर और भूलह न पेग्विया ॥२१॥ अनेक पुत्रवंतिनी नितंविनी सपूत हैं, न तो समान पुत्र और मातने प्रमूत हैं। दिशा धरत तारिका अनेक कोटि को गिने, दिनेश तेजवंत एक पूर्व ही दिशा जनै ॥२२॥ नाराच छन्द । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। पुरान हो पुमान हो पुनीत पुन्यवान हो, कहैं मुनीश अन्धकारनाश को सुभान हो । महंत तोहि जानके न होय वश्य काल के, न और मोहि मोखपंथ देय तोहि टालके ॥२३॥ अनंत नित्य चित्तकी अगम्य रम्य आदि हो, असंख्य सर्वव्यापि विष्णु ब्रह्म हो अनादि हो। महेश कामकेतु योग ईश योग ज्ञान हो, अनेक एक ज्ञानरूप शुद्ध संतमान हो ॥२४॥ तुही जिनेश बुद्ध है सुबुद्धिके प्रमानतें, तुही जिनेश शंकरो जगत्त्रयी विधानतें। तुही विधात है सही सुमोखपंथ धारतें, नरोत्तमो तुही प्रसिद्ध अर्थक विचारतें ॥२५॥ नमों करू जिनेश तोहि आपदा निवार हो, नमों करू सुभूरि भूमिलोकके सिंगार हो । नमों करू भवाब्धि नीरराशिशोष हेतु हो, नमों करू महेश तोहि मोखपंथ देतु हो ॥२६॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ३०३ चौपाई १५ मात्रा। तुम जिन पूरनगुनगन भरे, दोष गर्वकरि तुम परिहरे। और देवगण आश्रय पाय, स्वप्न न देखे तुम फिर आय ॥२७॥ तरु अशोकतर किरन उदार, तुमतन शोभित है अविकार । मेघनिकट ज्यों तेज फुरंत, दिनकर दिपै तिमिर निहनंत ॥२८॥ सिंहासन मणिकिरन विचित्र, तापर कंचनवरण पवित्र । तुम तन शोभित किरनविथार, ज्यों उदयाचल रवितमहार ॥ २६ ॥ कुंदपुहुप सितचमर दुरंत, कनक वरन तुमतन शोभंत । ज्यों सुमेरुतट निर्मल कांति, झरना झरै नीर उमगांति ॥ ३० ॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ श्री जैन पूजा-पाठ मंग्रह। ऊंचे रहैं सूर दुति लोप, तीन छत्र तुम दिर्षे अगोप । तीन लोककी प्रभुता कहैं, मोती झालरसों छवि लहैं ॥ ३१ ॥ दंदुभि शब्द गहर गंभीर, चहुंदिशि होय तुम्हारे धीर । त्रिभुवनजन शिवसंगम करे, मानूं जय जय व उच्चरै ॥ ३२ ॥ मंद पवन गंधोदक इष्ट, विविध कल्पतरु पुहुप सुवृष्ट । देव करें विकसित दल सार, मानों द्विजपंकति अवतार ॥ ३३ ॥ तुम तन भामंडल जिनचंद, सब दुतिवंत करत है मंद। कोटिशंख रवितेज छिपाय, शशि निर्मल निशि करै अछाय ॥ ३४ ॥ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०५ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। स्वर्ग मोक्ष मारग संकेत, परम धरम उपदेशन हेत। दिव्य बचन तुम विरै अगाध, सब भाषा गर्भित हितसाध ॥ ३५ । दोहा। विकसित सुवरन कमलदुति, नखदुति मिलि चमकाहिं। तुम पद पदवी जहँ धगे. तहँ सुर कमल रचाहिं ॥ ३६ ॥ ऐसी महिमा तुम विष, और धरै नहिं कोय। सूरज में जो जोत है, नहिं तारागण होय ॥ ३७॥ पटपद। मदअवलिप्तकपोल-मूल अलिकुल झंकारें । तिन सुन शब्द प्रचंड क्रोध उद्धत-अति धारें ॥ कालवरन विकराल, कालवत सनमुख आवे । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ऐरावत सो प्रवल, सकल जन भय उपजावै ॥ देखिगयंद न भय करै तुम पदमहिमा लीन । विपतिरहित संपतिसहित, वरतेंभक अदीन॥३८ अति मदमत्तगयंद कुंभथल नखन विदारै । मोती रत्न समेत डारि भूतल सिंगारे ॥ बांकी दाढ बिशाल, वदनमें रसना लोले । भीमभयानकरूप देखि जन थरहर डोले ॥ ऐसे मृगपति पगतले, जो नर आयो होय । शरण गये तुम चरणकी, बाधा कर न सोय॥३६॥ प्रलयपवनकर उठी आग जो तास पटंतर । बमें फुलिंग शिखा उतंग परजलें निरंतर ॥ जगत समस्त्त निगल्ल भस्मकर हैगी मानों । तड़तड़ाट दवअनल, जोर चहंदिशा उठानों ॥ सा इक छिनमें उपशमें, नामनीर तुम लेत । होय सरोवर परिनमैं विकसित कमल समेत ॥४० कोकिलकंठसमान, श्याम तन क्रोध जलंता । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | ३०७ रक्तनयन फुंकार, मारविषका उगलता ॥ फणको ऊंचो करें, वेग ही सन्मुख धाया । तब जन होय निःशंक देख फणिपतिको आया ॥ जो चांपे निज पगतलें, व्यापै विष न लगार । नागदमन तुम नामकी है जिनके आधार ॥४१ जिस रनमाहिं भयानक रखकर रहे तुरंगम । घनसे गज गरजाहिं मत मानों गिरि जंगम || ति कोलाहल माहिं वात जहं नाहिं सुनीजै । राजन को परचंड, देख वल धीरज छीजे || नाथ तिहारे नाम निमांहि पलाय | ज्यों दिनकर परकाश अन्धकार विनशाय ॥ ४२ मारै जहां गयंद कुंभ हथियार विदारे । उमगे रुधिर प्रवाह वेग जलसम विस्तारै ॥ होय तिरन असमर्थ महाजोधा बलपूरे । तिस रनमें जिन तोय भक्त जे हैं नर सूर || दुर्जय रिकुल जीतके, जय पायें निकलंक । तुम पढ़ पंकज मन वस ते नर सदा निशंक ॥ ३ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह । नक चक्र मगरादि मच्छकरि भय उपजावै । जामैं वड़वा अग्न दाहते नीर जलावै ॥ पार न पा जास थाह नहिं लहिये जाकी। गरजै अतिगंभीर, लहर की गिनति न ताकी ॥ सुख सौं तिरे समुद्र को, जे तुमगुनसुमराहिं । लोलकलोलनके शिखर, पार यान ले जाहि ॥४४ महा जलोदर रोग, भार पीड़ित नर जे हैं । वात पित्त कफ कुष्ट आदि जो रोग गहै हैं । सोचत रहें उदास नाहिं जीवन की आशा । अति घिनावनी देह, धरे दुर्गंधि निवासा ॥ तुम पदपंकजधूलको, जो लावै निज अंग। ते नीरोग शरीर लहि, छिनमें होय अनंग ॥४५॥ पांव कंठतें जकर बांध सांकल अति भारी । गाढी वेड़ी पैरमांहि, जिन जांघ विदारी ॥ भूख प्यास चिन्ता शरीर दुग्व जे विललाने । सरन नाहिं जिन कोय भूपके बंदीखाने ॥ तुम सुमरत स्वयमेव ही बन्धन सब खुल जांहि । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ३०६ छिनमें तेसम्पतिलहैं, चिन्ताभय बिनसाहि॥४६ महामत्त गजराज और मृग राज दवानल । फनपति रण परचण्ड नीरनिधि रोग महाबल ॥ बन्धन ये भय आठ डरपकर मानों नाशै । तुम सुमरत छिनमाहिं, अभय थानक परकाशै॥ इस अपार संसार में, शरन नाहिं प्रभु कोय । यातें तुम पदभकको भनि सहाई होय ॥४७॥ यह गुनमाल विशाल नाथ त म गुणन सवारी । विविध वर्णमय पुहुप, गंथ में भनि विथारी ॥ जे नर पहिरें कण्ठ भावना मनमें भावै । मानतुग ते निजाधीन, शिवलक्ष्मी पावै ॥ भाषा भक्तामर कियो हेमराज हितहेत । जे नर पढ़े सुभावसों ते पावै शिवखेत ॥४८॥ इनि। पं० दौलतराम कृत स्तुति सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानंद रसलीन । सो जिनेंद्र जयवंत नित, अग्ग्जि रहमि विहीन ।। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह ___ पद्धरि छन्द । जय वीतगग विज्ञानपूर, जय मोहतिमिरको हरन सूर । जय ज्ञान अनन्तानन्तधार, दृग सुख बीरजमंडित अपार ।। जय परमशांत मुद्रासमेत, भविजनको निज अनुभूति हेत। भवि भागनवश जोगेवशाय, तुम धुनि ह्व सुनि विभ्रम नशाय॥ तुम गुण चिन्तत निज पर विवेक, प्रगटे विघटे आपद अनेक । तुम जगभूषण दृषण वियुक्त, सब महिमायुक्त विकल्प मुक्त ।। अविरुद्ध शुद्ध चेतन स्वरूप, परमातम परम पावन अनूप । शुभ अशुभ विभाव अभाव कीन, स्वभाविक परिणतिमयअधीन अष्टादश दोप विमुक्त धीर, स्वचतुष्टयमय राजत गंभीर । मुनि गणधरादि सेवत महंत, नवकेवललब्धि रमा धरंत ॥ तुम शासन सेय अमेय जीव, शिव गये जाहिं जहैं सदीय । भवसागरमें दुखकार वारि, तारनको ओरन आप टारि ॥ यह लखि निज दुखगद हरण काज तुमही निमित्तकारण इलाज। जाने तातै मैंशरण आय, उचरौं निज दुख जो चिर लहाय ।। मैं भ्रम्यो अपनयो विसरि आप, अपनाये विधि फल पुण्य पाप। निजको परको करता पिछान, परमें अनिष्टता इष्ट ठान ।। आकुलित भयो अज्ञान धारि, ज्यों मृग मृगतृष्णा जानि वारि। तन परिणतिमें आपो चितार, कबहुं न अनुभवो स्वपद मार ।। तुमको बिन जाने जो कलेश, पाये सो तुम जानत जिनेश । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ३११ पशु नारक नर सुरगति मंझार, भव धरधर मस्यो अनन्तवार।। अब काललब्धि बलतें दयाल, तुम दर्शन पाय भयो खुशाल । मन शान्त भयो मिटि सकल द्वंद, चाख्यो स्वातमरस दुखनिकंद तातें अब ऐसी करहु नाथ, विछुरै न कभी तुव चरण साथ । तुम गुणगण को नहिं छेव देव, जगताग्नको तुव विरद एव॥ आतमके अहित विषय कपाय, इनमें मेरी परिणति न जाय । मैं रहूं आपमें आप लीन, मो कंगे होहूं ज्यों निजाधीन । मेरे न चाह कछु और ईश, रत्नत्रय निधि दीजे मुनीश । मुझ कारजके कारण सु आप, शिव करहु हरहु मम मोहताप ।। शशि शांति करन तपहरण हेत, स्वयमेव तथा तुम कुशल देत। पीवत पियूप ज्यों गेग जाय, त्यों तुम अनुभवतै भव नशाय ।। त्रिभुवन तिहुँकालमंझार कोय,नहिं तुम बिन निजसुखदाय होय मो उर यह निश्चय भयो आज, दुखजलधि उतारन तुम जिहाज तुमगुणगणमणि गणपती, गणत न पावहिं पार । 'दौल' स्वल्पमति किमि कहै, नम त्रियोग संभार ।। इति पं० दौलतगम कृत स्तुनि । पं० बुधजन कृत स्तुति । प्रभु पतितपावन में अपावन, चरन आयो शरणजी । यो विग्द आप निहार स्वामी, मेट जामन मरण जी ।। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ श्री जैन पूजा-पाठसंग्रह। तुम ना पिलान्या आन मान्या देव विविध प्रकारजी । या बुद्धिसेती निज न जाण्या भ्रम गिण्या हितकारजी ।। भव विकट वनमें करम बैरी, ज्ञान धन मेरो हस्यो। तब इष्ट भूल्यो भ्रष्ट होय, अनिष्ट गति धरतो फिस्यो । धन घड़ी यो धन दिवस यो ही धन जनम मेरो भयो । अब भाग मेरो उदय आयो, दरश प्रभुको लखि लयो। छवि वीतरागी नगन मुद्रा दृष्टि नाशा पै धरै । वसु प्रातिहायं अनंत गुण जुत कोटि रवि छविको हरै ।। मिट गयो तिमिर मिथ्यात मेगे, उदय रवि आतम भयो । मो उर हरष ऐसो भयो, मनुरंक चिन्तामणि लयो। मैं हाथ जोड़ नमाय मस्तक बीनऊं तुव चरनजी । सर्वोत्कृष्ट त्रिलोकपति जिन, सुनहु तारन तरनजी ।। जाचं नहीं सुरवास पुनि नरराज परिजन साथजी । 'बुध' जाचहूं तुव भक्ति भव, दीजिये शिवनाथजी ।। पं० भूधरकृत स्तुति अहो! जगतगुरु एक, सुनियो अरज हमारी । तुम हो दीनदयालु, मैं दुखिया संसारी ।। इस भव बनमें वादि, काल अनादि गमायो । भ्रमत चहूँगति माहि, सुख नहिं दुख बहु पायो॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह | डरे कर्म महारिपु जोर, एक ना कान मन मान्या दुख देहिं काहूसों नाहिं कबहूं इतर निगोद, कबहूं नके दिखावें । सुरनर पशुगति माहिं, बहुविधि नाच नचावें ॥ प्रभु ! इनके परसंग, भव भव माहिं बुरे जी | जे दुख देखे देखे देव! तुममों नाहिं दुरे जी || एक जनमकी बात कहि न सकों सुनि स्वामी । परजाय, जानत अन्तरयामी || अनाथ, ये मिलि दुष्ट घनेरे । तुम अनन्त मैं तो एक कियो बहुत बेहाल, ज्ञान महानिधि दृटि रंक निवल सुनियो माहिब मेरे || करि डास्थो । पास्यो । पायनि बेड़ी इन ही तुम मुझ माहिं, हे जिन ! अन्तर पाप पुण्य पुण्य मिल दोड, मिल दोड़, तन कारागृह माहि मोहि दिये इनको नेक विगार में कछु नाहि दुख र विन कारन जगवंद्य ! बहुविधि अब आयो तुम पास सुनि कर, नीति निपुन महाराज कीज दुष्टन देहु निकार, साधुनको विनवै भूधरदास हे प्रभु! ढील ३१३ करें जी 1 जी ॥ डारी | भारी || कियो जी । लियो जी ।। तिहारो । हमारो || लीज 1 सुजम न्याय रख न कीजै ॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह । पं० भूदरकृत गुरु स्तुति ___राग भरथरी-दोहा ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥ ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥१॥ मोह महारिपु जानिक, छोड्यो सब घरबार । होय दिगम्बर वन बसे, आतम शुद्ध विचार ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज । आप तिर पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥२॥ रोग उरग बिल वपु गिण्यो, भोग भुजङ्ग समान । कदली तरु संसार है, त्यागो सब यह जान ।। ते गुरु मेरे मन वसो, जे भव जलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥३॥ रतनत्रय निधि उर धरै, अरु निरग्रन्थ त्रिकाल । मारयो काम खबीसको, स्वामी परम दयाल ॥ ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥४॥ पंच महाव्रत आचरें, पांचों समिति समेत । तीन गुपति पाले सदा, अजर अमर पद हेत ।। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ; श्री जैन पूजा-प - पाठ संग्रह | ३१५ मन बसो, जे भवजलधि जहाज | हैं ऋषिराज ||५|| ते गुरु मेरे आप तिरै पर तारही, ऐसे धर्म धेरै दश लक्षणी, भात्रें सधैँ परीषद बीस द्वे चारित ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव आप तिरैं पर तारही, ऐसे हैं जेठ तपै रवि आकरो सूखे शैल शिखर मुनि तप तपै दा ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज | आप तिरें पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||७|| पावस रैन डरावनी वर जलधर धार । तरुतल निवसें साहसी चालें सरवर नीर | नगन शरीर || वार || भवजलधि जहाज । ऋषिराज ॥८॥ सब ते गुरु मेरे मन बमो, जे आप तिरें पर तारही, ऐसे हैं शीत पड़े कपि-मद गले, दाहे ताल तरंगनिके तट, ठाड़े ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि आप तिरें पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज || ९ || इह विधि दुद्धर तप तप, तीनों कालमंझार । ध्यान लागे सहज सरूपमें, तनसों ममत निवार || भावनासार । रतन रतन भण्डार ॥ जलधि जहाज | ऋषिराज ||६|| वनराय । लगाय || जहाज | Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥५।। धर्म धरै दश लक्षणी, भावें भावनासार । सहैं परीषह बीस द्वे चारित रतन भण्डार ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||६|| जेठ तपै रवि आकरो सूखे सरवर नीर । शैल शिखर मुनि तप तपै दाझं नगन शरीर ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज । आप तिर पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥७॥ पावस रेन डगवनी वरम जलधर धार । तरुतल निवमै साहमी चाल झंझावार । ते गुरु मेरे मन वमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋपिराज ॥८॥ शीत पड़े कपि-मद गले, दाहै सब वनराय । ताल तरंगनिके तटै, ठाड़े ध्यान लगाय ।। ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरे पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥९॥ इह विधि दुद्धर तप तपै, तीनों कालमंझार । लागे सहज सरूपमें, तनमों ममत निवार ।। , Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥५।। धर्म धरै दश लक्षणी, भावें भावनासार । सहैं परीषह बीस द्वे चारित रतन भण्डार ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||६|| जेठ तपै रवि आकरो सूखे सरवर नीर । शैल शिखर मुनि तप तपै दाझं नगन शरीर ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज । आप तिर पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥७॥ पावस रेन डगवनी वरम जलधर धार । तरुतल निवमै साहमी चाल झंझावार । ते गुरु मेरे मन वमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋपिराज ॥८॥ शीत पड़े कपि-मद गले, दाहै सब वनराय । ताल तरंगनिके तटै, ठाड़े ध्यान लगाय ।। ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरे पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥९॥ इह विधि दुद्धर तप तपै, तीनों कालमंझार । लागे सहज सरूपमें, तनमों ममत निवार ।। , Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ; श्री जैन पूजा-प - पाठ संग्रह | ३१५ मन बसो, जे भवजलधि जहाज | हैं ऋषिराज ||५|| ते गुरु मेरे आप तिरै पर तारही, ऐसे धर्म धेरै दश लक्षणी, भात्रें सधैँ परीषद बीस द्वे चारित ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव आप तिरैं पर तारही, ऐसे हैं जेठ तपै रवि आकरो सूखे शैल शिखर मुनि तप तपै दा ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज | आप तिरें पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||७|| पावस रैन डरावनी वर जलधर धार । तरुतल निवसें साहसी चालें सरवर नीर | नगन शरीर || वार || भवजलधि जहाज । ऋषिराज ॥८॥ सब ते गुरु मेरे मन बमो, जे आप तिरें पर तारही, ऐसे हैं शीत पड़े कपि-मद गले, दाहे ताल तरंगनिके तट, ठाड़े ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि आप तिरें पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज || ९ || इह विधि दुद्धर तप तप, तीनों कालमंझार । ध्यान लागे सहज सरूपमें, तनसों ममत निवार || भावनासार । रतन रतन भण्डार ॥ जलधि जहाज | ऋषिराज ||६|| वनराय । लगाय || जहाज | Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥५।। धर्म धरै दश लक्षणी, भावें भावनासार । सहैं परीषह बीस द्वे चारित रतन भण्डार ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||६|| जेठ तपै रवि आकरो सूखे सरवर नीर । शैल शिखर मुनि तप तपै दाझं नगन शरीर ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज । आप तिर पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥७॥ पावस रेन डगवनी वरम जलधर धार । तरुतल निवमै साहमी चाल झंझावार । ते गुरु मेरे मन वमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋपिराज ॥८॥ शीत पड़े कपि-मद गले, दाहै सब वनराय । ताल तरंगनिके तटै, ठाड़े ध्यान लगाय ।। ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरे पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥९॥ इह विधि दुद्धर तप तपै, तीनों कालमंझार । लागे सहज सरूपमें, तनमों ममत निवार ।। , Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥५।। धर्म धरै दश लक्षणी, भावें भावनासार । सहैं परीषह बीस द्वे चारित रतन भण्डार ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||६|| जेठ तपै रवि आकरो सूखे सरवर नीर । शैल शिखर मुनि तप तपै दाझं नगन शरीर ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज । आप तिर पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥७॥ पावस रेन डगवनी वरम जलधर धार । तरुतल निवमै साहमी चाल झंझावार । ते गुरु मेरे मन वमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋपिराज ॥८॥ शीत पड़े कपि-मद गले, दाहै सब वनराय । ताल तरंगनिके तटै, ठाड़े ध्यान लगाय ।। ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरे पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥९॥ इह विधि दुद्धर तप तपै, तीनों कालमंझार । लागे सहज सरूपमें, तनमों ममत निवार ।। , Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥५।। धर्म धरै दश लक्षणी, भावें भावनासार । सहैं परीषह बीस द्वे चारित रतन भण्डार ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||६|| जेठ तपै रवि आकरो सूखे सरवर नीर । शैल शिखर मुनि तप तपै दाझं नगन शरीर ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज । आप तिर पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥७॥ पावस रेन डगवनी वरम जलधर धार । तरुतल निवमै साहमी चाल झंझावार । ते गुरु मेरे मन वमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋपिराज ॥८॥ शीत पड़े कपि-मद गले, दाहै सब वनराय । ताल तरंगनिके तटै, ठाड़े ध्यान लगाय ।। ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरे पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥९॥ इह विधि दुद्धर तप तपै, तीनों कालमंझार । लागे सहज सरूपमें, तनमों ममत निवार ।। , Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ; श्री जैन पूजा-प - पाठ संग्रह | ३१५ मन बसो, जे भवजलधि जहाज | हैं ऋषिराज ||५|| ते गुरु मेरे आप तिरै पर तारही, ऐसे धर्म धेरै दश लक्षणी, भात्रें सधैँ परीषद बीस द्वे चारित ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव आप तिरैं पर तारही, ऐसे हैं जेठ तपै रवि आकरो सूखे शैल शिखर मुनि तप तपै दा ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज | आप तिरें पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||७|| पावस रैन डरावनी वर जलधर धार । तरुतल निवसें साहसी चालें सरवर नीर | नगन शरीर || वार || भवजलधि जहाज । ऋषिराज ॥८॥ सब ते गुरु मेरे मन बमो, जे आप तिरें पर तारही, ऐसे हैं शीत पड़े कपि-मद गले, दाहे ताल तरंगनिके तट, ठाड़े ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि आप तिरें पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज || ९ || इह विधि दुद्धर तप तप, तीनों कालमंझार । ध्यान लागे सहज सरूपमें, तनसों ममत निवार || भावनासार । रतन रतन भण्डार ॥ जलधि जहाज | ऋषिराज ||६|| वनराय । लगाय || जहाज | Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥५।। धर्म धरै दश लक्षणी, भावें भावनासार । सहैं परीषह बीस द्वे चारित रतन भण्डार ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||६|| जेठ तपै रवि आकरो सूखे सरवर नीर । शैल शिखर मुनि तप तपै दाझं नगन शरीर ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज । आप तिर पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥७॥ पावस रेन डगवनी वरम जलधर धार । तरुतल निवमै साहमी चाल झंझावार । ते गुरु मेरे मन वमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋपिराज ॥८॥ शीत पड़े कपि-मद गले, दाहै सब वनराय । ताल तरंगनिके तटै, ठाड़े ध्यान लगाय ।। ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरे पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥९॥ इह विधि दुद्धर तप तपै, तीनों कालमंझार । लागे सहज सरूपमें, तनमों ममत निवार ।। , Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥५।। धर्म धरै दश लक्षणी, भावें भावनासार । सहैं परीषह बीस द्वे चारित रतन भण्डार ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||६|| जेठ तपै रवि आकरो सूखे सरवर नीर । शैल शिखर मुनि तप तपै दाझं नगन शरीर ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज । आप तिर पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥७॥ पावस रेन डगवनी वरम जलधर धार । तरुतल निवमै साहमी चाल झंझावार । ते गुरु मेरे मन वमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋपिराज ॥८॥ शीत पड़े कपि-मद गले, दाहै सब वनराय । ताल तरंगनिके तटै, ठाड़े ध्यान लगाय ।। ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरे पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥९॥ इह विधि दुद्धर तप तपै, तीनों कालमंझार । लागे सहज सरूपमें, तनमों ममत निवार ।। , Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥५।। धर्म धरै दश लक्षणी, भावें भावनासार । सहैं परीषह बीस द्वे चारित रतन भण्डार ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||६|| जेठ तपै रवि आकरो सूखे सरवर नीर । शैल शिखर मुनि तप तपै दाझं नगन शरीर ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज । आप तिर पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥७॥ पावस रेन डगवनी वरम जलधर धार । तरुतल निवमै साहमी चाल झंझावार । ते गुरु मेरे मन वमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋपिराज ॥८॥ शीत पड़े कपि-मद गले, दाहै सब वनराय । ताल तरंगनिके तटै, ठाड़े ध्यान लगाय ।। ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरे पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥९॥ इह विधि दुद्धर तप तपै, तीनों कालमंझार । लागे सहज सरूपमें, तनमों ममत निवार ।। , Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥५।। धर्म धरै दश लक्षणी, भावें भावनासार । सहैं परीषह बीस द्वे चारित रतन भण्डार ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||६|| जेठ तपै रवि आकरो सूखे सरवर नीर । शैल शिखर मुनि तप तपै दाझं नगन शरीर ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज । आप तिर पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥७॥ पावस रेन डगवनी वरम जलधर धार । तरुतल निवमै साहमी चाल झंझावार । ते गुरु मेरे मन वमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋपिराज ॥८॥ शीत पड़े कपि-मद गले, दाहै सब वनराय । ताल तरंगनिके तटै, ठाड़े ध्यान लगाय ।। ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरे पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥९॥ इह विधि दुद्धर तप तपै, तीनों कालमंझार । लागे सहज सरूपमें, तनमों ममत निवार ।। , Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥५।। धर्म धरै दश लक्षणी, भावें भावनासार । सहैं परीषह बीस द्वे चारित रतन भण्डार ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||६|| जेठ तपै रवि आकरो सूखे सरवर नीर । शैल शिखर मुनि तप तपै दाझं नगन शरीर ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज । आप तिर पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥७॥ पावस रेन डगवनी वरम जलधर धार । तरुतल निवमै साहमी चाल झंझावार । ते गुरु मेरे मन वमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋपिराज ॥८॥ शीत पड़े कपि-मद गले, दाहै सब वनराय । ताल तरंगनिके तटै, ठाड़े ध्यान लगाय ।। ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरे पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥९॥ इह विधि दुद्धर तप तपै, तीनों कालमंझार । लागे सहज सरूपमें, तनमों ममत निवार ।। , Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥५।। धर्म धरै दश लक्षणी, भावें भावनासार । सहैं परीषह बीस द्वे चारित रतन भण्डार ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||६|| जेठ तपै रवि आकरो सूखे सरवर नीर । शैल शिखर मुनि तप तपै दाझं नगन शरीर ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज । आप तिर पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥७॥ पावस रेन डगवनी वरम जलधर धार । तरुतल निवमै साहमी चाल झंझावार । ते गुरु मेरे मन वमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋपिराज ॥८॥ शीत पड़े कपि-मद गले, दाहै सब वनराय । ताल तरंगनिके तटै, ठाड़े ध्यान लगाय ।। ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरे पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥९॥ इह विधि दुद्धर तप तपै, तीनों कालमंझार । लागे सहज सरूपमें, तनमों ममत निवार ।। , Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥५।। धर्म धरै दश लक्षणी, भावें भावनासार । सहैं परीषह बीस द्वे चारित रतन भण्डार ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||६|| जेठ तपै रवि आकरो सूखे सरवर नीर । शैल शिखर मुनि तप तपै दाझं नगन शरीर ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज । आप तिर पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥७॥ पावस रेन डगवनी वरम जलधर धार । तरुतल निवमै साहमी चाल झंझावार । ते गुरु मेरे मन वमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋपिराज ॥८॥ शीत पड़े कपि-मद गले, दाहै सब वनराय । ताल तरंगनिके तटै, ठाड़े ध्यान लगाय ।। ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरे पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥९॥ इह विधि दुद्धर तप तपै, तीनों कालमंझार । लागे सहज सरूपमें, तनमों ममत निवार ।। , Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥५।। धर्म धरै दश लक्षणी, भावें भावनासार । सहैं परीषह बीस द्वे चारित रतन भण्डार ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||६|| जेठ तपै रवि आकरो सूखे सरवर नीर । शैल शिखर मुनि तप तपै दाझं नगन शरीर ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज । आप तिर पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥७॥ पावस रेन डगवनी वरम जलधर धार । तरुतल निवमै साहमी चाल झंझावार । ते गुरु मेरे मन वमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋपिराज ॥८॥ शीत पड़े कपि-मद गले, दाहै सब वनराय । ताल तरंगनिके तटै, ठाड़े ध्यान लगाय ।। ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरे पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥९॥ इह विधि दुद्धर तप तपै, तीनों कालमंझार । लागे सहज सरूपमें, तनमों ममत निवार ।। , Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥५।। धर्म धरै दश लक्षणी, भावें भावनासार । सहैं परीषह बीस द्वे चारित रतन भण्डार ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||६|| जेठ तपै रवि आकरो सूखे सरवर नीर । शैल शिखर मुनि तप तपै दाझं नगन शरीर ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज । आप तिर पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥७॥ पावस रेन डगवनी वरम जलधर धार । तरुतल निवमै साहमी चाल झंझावार । ते गुरु मेरे मन वमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋपिराज ॥८॥ शीत पड़े कपि-मद गले, दाहै सब वनराय । ताल तरंगनिके तटै, ठाड़े ध्यान लगाय ।। ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरे पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥९॥ इह विधि दुद्धर तप तपै, तीनों कालमंझार । लागे सहज सरूपमें, तनमों ममत निवार ।। , Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥५।। धर्म धरै दश लक्षणी, भावें भावनासार । सहैं परीषह बीस द्वे चारित रतन भण्डार ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||६|| जेठ तपै रवि आकरो सूखे सरवर नीर । शैल शिखर मुनि तप तपै दाझं नगन शरीर ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज । आप तिर पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥७॥ पावस रेन डगवनी वरम जलधर धार । तरुतल निवमै साहमी चाल झंझावार । ते गुरु मेरे मन वमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋपिराज ॥८॥ शीत पड़े कपि-मद गले, दाहै सब वनराय । ताल तरंगनिके तटै, ठाड़े ध्यान लगाय ।। ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरे पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥९॥ इह विधि दुद्धर तप तपै, तीनों कालमंझार । लागे सहज सरूपमें, तनमों ममत निवार ।। , Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥५।। धर्म धरै दश लक्षणी, भावें भावनासार । सहैं परीषह बीस द्वे चारित रतन भण्डार ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||६|| जेठ तपै रवि आकरो सूखे सरवर नीर । शैल शिखर मुनि तप तपै दाझं नगन शरीर ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज । आप तिर पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥७॥ पावस रेन डगवनी वरम जलधर धार । तरुतल निवमै साहमी चाल झंझावार । ते गुरु मेरे मन वमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋपिराज ॥८॥ शीत पड़े कपि-मद गले, दाहै सब वनराय । ताल तरंगनिके तटै, ठाड़े ध्यान लगाय ।। ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरे पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥९॥ इह विधि दुद्धर तप तपै, तीनों कालमंझार । लागे सहज सरूपमें, तनमों ममत निवार ।। , Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ; श्री जैन पूजा-प - पाठ संग्रह | ३१५ मन बसो, जे भवजलधि जहाज | हैं ऋषिराज ||५|| ते गुरु मेरे आप तिरै पर तारही, ऐसे धर्म धेरै दश लक्षणी, भात्रें सधैँ परीषद बीस द्वे चारित ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव आप तिरैं पर तारही, ऐसे हैं जेठ तपै रवि आकरो सूखे शैल शिखर मुनि तप तपै दा ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज | आप तिरें पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||७|| पावस रैन डरावनी वर जलधर धार । तरुतल निवसें साहसी चालें सरवर नीर | नगन शरीर || वार || भवजलधि जहाज । ऋषिराज ॥८॥ सब ते गुरु मेरे मन बमो, जे आप तिरें पर तारही, ऐसे हैं शीत पड़े कपि-मद गले, दाहे ताल तरंगनिके तट, ठाड़े ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि आप तिरें पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज || ९ || इह विधि दुद्धर तप तप, तीनों कालमंझार । ध्यान लागे सहज सरूपमें, तनसों ममत निवार || भावनासार । रतन रतन भण्डार ॥ जलधि जहाज | ऋषिराज ||६|| वनराय । लगाय || जहाज | Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥५।। धर्म धरै दश लक्षणी, भावें भावनासार । सहैं परीषह बीस द्वे चारित रतन भण्डार ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||६|| जेठ तपै रवि आकरो सूखे सरवर नीर । शैल शिखर मुनि तप तपै दाझं नगन शरीर ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज । आप तिर पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥७॥ पावस रेन डगवनी वरम जलधर धार । तरुतल निवमै साहमी चाल झंझावार । ते गुरु मेरे मन वमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋपिराज ॥८॥ शीत पड़े कपि-मद गले, दाहै सब वनराय । ताल तरंगनिके तटै, ठाड़े ध्यान लगाय ।। ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरे पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥९॥ इह विधि दुद्धर तप तपै, तीनों कालमंझार । लागे सहज सरूपमें, तनमों ममत निवार ।। , Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥५।। धर्म धरै दश लक्षणी, भावें भावनासार । सहैं परीषह बीस द्वे चारित रतन भण्डार ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||६|| जेठ तपै रवि आकरो सूखे सरवर नीर । शैल शिखर मुनि तप तपै दाझं नगन शरीर ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज । आप तिर पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥७॥ पावस रेन डगवनी वरम जलधर धार । तरुतल निवमै साहमी चाल झंझावार । ते गुरु मेरे मन वमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋपिराज ॥८॥ शीत पड़े कपि-मद गले, दाहै सब वनराय । ताल तरंगनिके तटै, ठाड़े ध्यान लगाय ।। ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरे पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥९॥ इह विधि दुद्धर तप तपै, तीनों कालमंझार । लागे सहज सरूपमें, तनमों ममत निवार ।। , Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥५।। धर्म धरै दश लक्षणी, भावें भावनासार । सहैं परीषह बीस द्वे चारित रतन भण्डार ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||६|| जेठ तपै रवि आकरो सूखे सरवर नीर । शैल शिखर मुनि तप तपै दाझं नगन शरीर ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज । आप तिर पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥७॥ पावस रेन डगवनी वरम जलधर धार । तरुतल निवमै साहमी चाल झंझावार । ते गुरु मेरे मन वमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋपिराज ॥८॥ शीत पड़े कपि-मद गले, दाहै सब वनराय । ताल तरंगनिके तटै, ठाड़े ध्यान लगाय ।। ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरे पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥९॥ इह विधि दुद्धर तप तपै, तीनों कालमंझार । लागे सहज सरूपमें, तनमों ममत निवार ।। , Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥५।। धर्म धरै दश लक्षणी, भावें भावनासार । सहैं परीषह बीस द्वे चारित रतन भण्डार ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||६|| जेठ तपै रवि आकरो सूखे सरवर नीर । शैल शिखर मुनि तप तपै दाझं नगन शरीर ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज । आप तिर पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥७॥ पावस रेन डगवनी वरम जलधर धार । तरुतल निवमै साहमी चाल झंझावार । ते गुरु मेरे मन वमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋपिराज ॥८॥ शीत पड़े कपि-मद गले, दाहै सब वनराय । ताल तरंगनिके तटै, ठाड़े ध्यान लगाय ।। ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरे पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥९॥ इह विधि दुद्धर तप तपै, तीनों कालमंझार । लागे सहज सरूपमें, तनमों ममत निवार ।। , Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥५।। धर्म धरै दश लक्षणी, भावें भावनासार । सहैं परीषह बीस द्वे चारित रतन भण्डार ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||६|| जेठ तपै रवि आकरो सूखे सरवर नीर । शैल शिखर मुनि तप तपै दाझं नगन शरीर ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज । आप तिर पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥७॥ पावस रेन डगवनी वरम जलधर धार । तरुतल निवमै साहमी चाल झंझावार । ते गुरु मेरे मन वमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋपिराज ॥८॥ शीत पड़े कपि-मद गले, दाहै सब वनराय । ताल तरंगनिके तटै, ठाड़े ध्यान लगाय ।। ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरे पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥९॥ इह विधि दुद्धर तप तपै, तीनों कालमंझार । लागे सहज सरूपमें, तनमों ममत निवार ।। , Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ; श्री जैन पूजा-प - पाठ संग्रह | ३१५ मन बसो, जे भवजलधि जहाज | हैं ऋषिराज ||५|| ते गुरु मेरे आप तिरै पर तारही, ऐसे धर्म धेरै दश लक्षणी, भात्रें सधैँ परीषद बीस द्वे चारित ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव आप तिरैं पर तारही, ऐसे हैं जेठ तपै रवि आकरो सूखे शैल शिखर मुनि तप तपै दा ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज | आप तिरें पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||७|| पावस रैन डरावनी वर जलधर धार । तरुतल निवसें साहसी चालें सरवर नीर | नगन शरीर || वार || भवजलधि जहाज । ऋषिराज ॥८॥ सब ते गुरु मेरे मन बमो, जे आप तिरें पर तारही, ऐसे हैं शीत पड़े कपि-मद गले, दाहे ताल तरंगनिके तट, ठाड़े ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि आप तिरें पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज || ९ || इह विधि दुद्धर तप तप, तीनों कालमंझार । ध्यान लागे सहज सरूपमें, तनसों ममत निवार || भावनासार । रतन रतन भण्डार ॥ जलधि जहाज | ऋषिराज ||६|| वनराय । लगाय || जहाज | Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥५।। धर्म धरै दश लक्षणी, भावें भावनासार । सहैं परीषह बीस द्वे चारित रतन भण्डार ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||६|| जेठ तपै रवि आकरो सूखे सरवर नीर । शैल शिखर मुनि तप तपै दाझं नगन शरीर ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज । आप तिर पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥७॥ पावस रेन डगवनी वरम जलधर धार । तरुतल निवमै साहमी चाल झंझावार । ते गुरु मेरे मन वमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋपिराज ॥८॥ शीत पड़े कपि-मद गले, दाहै सब वनराय । ताल तरंगनिके तटै, ठाड़े ध्यान लगाय ।। ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरे पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥९॥ इह विधि दुद्धर तप तपै, तीनों कालमंझार । लागे सहज सरूपमें, तनमों ममत निवार ।। , Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥५।। धर्म धरै दश लक्षणी, भावें भावनासार । सहैं परीषह बीस द्वे चारित रतन भण्डार ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||६|| जेठ तपै रवि आकरो सूखे सरवर नीर । शैल शिखर मुनि तप तपै दाझं नगन शरीर ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज । आप तिर पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥७॥ पावस रेन डगवनी वरम जलधर धार । तरुतल निवमै साहमी चाल झंझावार । ते गुरु मेरे मन वमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋपिराज ॥८॥ शीत पड़े कपि-मद गले, दाहै सब वनराय । ताल तरंगनिके तटै, ठाड़े ध्यान लगाय ।। ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरे पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥९॥ इह विधि दुद्धर तप तपै, तीनों कालमंझार । लागे सहज सरूपमें, तनमों ममत निवार ।। , Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥५।। धर्म धरै दश लक्षणी, भावें भावनासार । सहैं परीषह बीस द्वे चारित रतन भण्डार ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||६|| जेठ तपै रवि आकरो सूखे सरवर नीर । शैल शिखर मुनि तप तपै दाझं नगन शरीर ।। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज । आप तिर पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥७॥ पावस रेन डगवनी वरम जलधर धार । तरुतल निवमै साहमी चाल झंझावार । ते गुरु मेरे मन वमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋपिराज ॥८॥ शीत पड़े कपि-मद गले, दाहै सब वनराय । ताल तरंगनिके तटै, ठाड़े ध्यान लगाय ।। ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि जहाज । आप तिरे पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ॥९॥ इह विधि दुद्धर तप तपै, तीनों कालमंझार । लागे सहज सरूपमें, तनमों ममत निवार ।। , Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज / आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज // 5 / / धर्म धरै दश लक्षणी, भावें भावनासार / सहैं परीषह बीस द्वे चारित रतन भण्डार / / ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जहाज / आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||6|| जेठ तपै रवि आकरो सूखे सरवर नीर / शैल शिखर मुनि तप तपै दाझं नगन शरीर / / ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज / आप तिर पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज // 7 // पावस रेन डगवनी वरम जलधर धार / तरुतल निवमै साहमी चाल झंझावार / ते गुरु मेरे मन वमो, जे भवजलधि जहाज / आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋपिराज // 8 // शीत पड़े कपि-मद गले, दाहै सब वनराय / ताल तरंगनिके तटै, ठाड़े ध्यान लगाय / / ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि जहाज / आप तिरे पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज // 9 // इह विधि दुद्धर तप तपै, तीनों कालमंझार / लागे सहज सरूपमें, तनमों ममत निवार / / , Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज / आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज // 5 / / धर्म धरै दश लक्षणी, भावें भावनासार / सहैं परीषह बीस द्वे चारित रतन भण्डार / / ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जहाज / आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||6|| जेठ तपै रवि आकरो सूखे सरवर नीर / शैल शिखर मुनि तप तपै दाझं नगन शरीर / / ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज / आप तिर पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज // 7 // पावस रेन डगवनी वरम जलधर धार / तरुतल निवमै साहमी चाल झंझावार / ते गुरु मेरे मन वमो, जे भवजलधि जहाज / आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋपिराज // 8 // शीत पड़े कपि-मद गले, दाहै सब वनराय / ताल तरंगनिके तटै, ठाड़े ध्यान लगाय / / ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि जहाज / आप तिरे पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज // 9 // इह विधि दुद्धर तप तपै, तीनों कालमंझार / लागे सहज सरूपमें, तनमों ममत निवार / / , Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज / आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज // 5 / / धर्म धरै दश लक्षणी, भावें भावनासार / सहैं परीषह बीस द्वे चारित रतन भण्डार / / ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जहाज / आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||6|| जेठ तपै रवि आकरो सूखे सरवर नीर / शैल शिखर मुनि तप तपै दाझं नगन शरीर / / ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज / आप तिर पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज // 7 // पावस रेन डगवनी वरम जलधर धार / तरुतल निवमै साहमी चाल झंझावार / ते गुरु मेरे मन वमो, जे भवजलधि जहाज / आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋपिराज // 8 // शीत पड़े कपि-मद गले, दाहै सब वनराय / ताल तरंगनिके तटै, ठाड़े ध्यान लगाय / / ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि जहाज / आप तिरे पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज // 9 // इह विधि दुद्धर तप तपै, तीनों कालमंझार / लागे सहज सरूपमें, तनमों ममत निवार / / , Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज / आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज // 5 / / धर्म धरै दश लक्षणी, भावें भावनासार / सहैं परीषह बीस द्वे चारित रतन भण्डार / / ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जहाज / आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||6|| जेठ तपै रवि आकरो सूखे सरवर नीर / शैल शिखर मुनि तप तपै दाझं नगन शरीर / / ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज / आप तिर पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज // 7 // पावस रेन डगवनी वरम जलधर धार / तरुतल निवमै साहमी चाल झंझावार / ते गुरु मेरे मन वमो, जे भवजलधि जहाज / आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋपिराज // 8 // शीत पड़े कपि-मद गले, दाहै सब वनराय / ताल तरंगनिके तटै, ठाड़े ध्यान लगाय / / ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि जहाज / आप तिरे पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज // 9 // इह विधि दुद्धर तप तपै, तीनों कालमंझार / लागे सहज सरूपमें, तनमों ममत निवार / / , Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज / आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज // 5 / / धर्म धरै दश लक्षणी, भावें भावनासार / सहैं परीषह बीस द्वे चारित रतन भण्डार / / ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जहाज / आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||6|| जेठ तपै रवि आकरो सूखे सरवर नीर / शैल शिखर मुनि तप तपै दाझं नगन शरीर / / ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज / आप तिर पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज // 7 // पावस रेन डगवनी वरम जलधर धार / तरुतल निवमै साहमी चाल झंझावार / ते गुरु मेरे मन वमो, जे भवजलधि जहाज / आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋपिराज // 8 // शीत पड़े कपि-मद गले, दाहै सब वनराय / ताल तरंगनिके तटै, ठाड़े ध्यान लगाय / / ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि जहाज / आप तिरे पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज // 9 // इह विधि दुद्धर तप तपै, तीनों कालमंझार / लागे सहज सरूपमें, तनमों ममत निवार / / , Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज / आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज // 5 / / धर्म धरै दश लक्षणी, भावें भावनासार / सहैं परीषह बीस द्वे चारित रतन भण्डार / / ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जहाज / आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||6|| जेठ तपै रवि आकरो सूखे सरवर नीर / शैल शिखर मुनि तप तपै दाझं नगन शरीर / / ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज / आप तिर पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज // 7 // पावस रेन डगवनी वरम जलधर धार / तरुतल निवमै साहमी चाल झंझावार / ते गुरु मेरे मन वमो, जे भवजलधि जहाज / आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋपिराज // 8 // शीत पड़े कपि-मद गले, दाहै सब वनराय / ताल तरंगनिके तटै, ठाड़े ध्यान लगाय / / ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि जहाज / आप तिरे पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज // 9 // इह विधि दुद्धर तप तपै, तीनों कालमंझार / लागे सहज सरूपमें, तनमों ममत निवार / / , Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज / आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज // 5 / / धर्म धरै दश लक्षणी, भावें भावनासार / सहैं परीषह बीस द्वे चारित रतन भण्डार / / ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जहाज / आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज ||6|| जेठ तपै रवि आकरो सूखे सरवर नीर / शैल शिखर मुनि तप तपै दाझं नगन शरीर / / ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवि जलधि जहाज / आप तिर पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज // 7 // पावस रेन डगवनी वरम जलधर धार / तरुतल निवमै साहमी चाल झंझावार / ते गुरु मेरे मन वमो, जे भवजलधि जहाज / आप तिरै पर तारही, ऐसे हैं ऋपिराज // 8 // शीत पड़े कपि-मद गले, दाहै सब वनराय / ताल तरंगनिके तटै, ठाड़े ध्यान लगाय / / ते गुरु मेरे मन बमो, जे भवजलधि जहाज / आप तिरे पर तारही, ऐसे हैं ऋषिराज // 9 // इह विधि दुद्धर तप तपै, तीनों कालमंझार / लागे सहज सरूपमें, तनमों ममत निवार / / ,