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११२ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह।
उत्तम संजम काय छहों प्रतिपाल, पचेंन्द्री मन वश करो मंजमरतन संभाल, विषयचोर बहु फिरत हैं ॥६ उत्तम संजम गहु मन मेरे, भवभवके भाजै अघ तेरे सुरग नरकपशुगतिमें नाहीं, आलमहरन करन सुख ठाहीं। ठाहीं पृथ्वी जल अग्नि मारुत, रूख त्रस करुना धरो सपरसन रसना घ्रान नेना, कान मन सब बस करो। जिस बिना नहिं जिनराज सीझे, तू रुलो जग-कीच में । इक घरी मत विसरो करो नित, आयु जममुख बीचमें ॥६॥ __ओं ह्रीं उत्तमसंयमधर्मागाय अध्यं निर्वपार्माति स्वाहा ।
उत्तम तप तप चाहैं सुरराय, करमशिखरको वज्र है। द्वादशविधि सुखदाय, क्यों न कर निज सकतिसम ।।७।। उत्तम तप सब माहिं बखाना, करमशिखरको बज्र समाना। बस्यो अनादि निगोद मंझारा, भूविकलत्रय पशुतन धारा ॥ धारा मनुष तन महादुर्लभ सुकुल आयु निरोगता। श्रीजेनवानी तत्वज्ञानी, भई विषयपयोगता ॥ अति महादुरलभ त्याग विषय, कषाय जो तप आदरै । नरभव अनूपम कनक घरपर, मणिमयो कलसा धरै ॥७॥
ओं ह्रीं उत्तमतपधर्मागाय अध्य निर्वपार्माति स्वाहा।