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श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह ३१
दोहावसुविधि अर्घ संयोजके, अति उछाह मन कीन ।
जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ।।९।। ओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्योऽनर्घपदप्राप्त ये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।।
अथ जयमाला। देवशास्त्रगुरु रतन शुभ, तीन रतन करतार । भिन्न भिन्न कहुँ आरती, अल्प सुगुण विस्तार॥
पद्धरि छन्द। कर्मनकी त्रेसठ प्रकृति नाशि, जीते अष्टादशदोषराशि। जे परम सुगुण हैं अनंत धीर, कहवतके छयालिस गुण गंभीर ॥२॥ शुभ समवशरण शोभा अपार, शतइंद्र नमत कर सीस धार । देवाधिदेव अरहंत देव, बंदौं मनवचतन करि सु सेव ॥३॥ जिनकी ध्वनि ह्र ओंकाररूप, निर-अक्षरमय महिमा अनूप ।