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श्री जन पूजापाठ संग्रह। गया कछु तहँ काल तपबल. रिद्धि वसुविधि सिद्धिया। जसु धर्मध्यानबलन खयगय, सप्त प्रकृति प्रसिद्धिया ।। खि प सातवें गुण जतनबिन तहँ, तीन प्रकृति जु बुधि बढ़िउ । करि करण तोन प्रथम सुकलबल. खिपकसेनी प्रभु चढ़िउ ॥१४॥ प्रकृति छतीस नवें, गुण-थान विनासिया । दसवें सूक्षमलोभ, प्रकृति तहँ नासिया ॥ सुकल ध्यानपद दूजो, पुनि प्रभु पूरियो । बाहरवें-गुण सोरह, प्रकृति जु चूरियो॥ चूरियौ त्रेसठ प्रकृति इहविधि, घातियाकरमनि तणी । तप कियो ध्यानपर्यन्त बारह-विधि त्रिलोकसिरोमणी । निःक्रमणकल्याणक सु महिमा. सनत सब सुख पावहीं । भणि 'रूपचंद' सुदेव जिनवर. जगत मंगल गावहीं ॥१५।।
४-ज्ञानकल्याणक तेहरवं गुणथान सयोगि जिनेसुरो। अनंतचतुष्टयमंडित, भयो परमेसुरो ॥ समवसरन तब धनपति, बहुविधि निरमयो ।
आगमजुगति प्रमान, गगनतल परिटयो ॥ परिठया चित्र विचित्र मणिमय. सभामण्डप साहय । तिहिमध्य बारह बन काठ, कनक सुरनर मोहय ।