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श्री जन पूजा-पाठ संग्रह। मुनि कनपवासिनि अरजिका पुनि ज्याति भौमि-व्यन्तरतिया । पुनि भवनव्यंतर नभग मरनर पसुनि काठे बेठिया ।।१६।। मध्यप्रदेश तीन, मणिपीठ तहां बने । गंधकुटी सिंहासन, कमल सुहावने ॥ तीन छत्र सिर सोहत त्रिभुवन मोहए। अंतरीच्छ कमलासन, प्रभुतन सोहए ॥ साहये चौमठ चमर ढरत. अशोकतातल छाजए । पुनि दिव्यधुनि प्रतिसबदजुत तहँ, देव दुदभि बाजाए ।। मुरपुहुपवृष्टि सुप्रभामण्डल. काटि रवि छवि छाजए । इमि अष्ट अनुपम प्रातिहारज, वर विभूति विराजए ॥१७॥ दुइस जोजनमान सुभिच्छ चहूं दिसी। गगनगमन अरु प्राणी, वध नहिं अहनिसी ॥ निरुपसर्ग निराहार, सदा जगदीशए ।
आनन चार चहूदिसि, सोभित दीसए ॥ दीमय असेस विसंस विद्या. विभव वर ईसुरपना । छायाविवर्जित सुद्ध फटिक समान तन प्रभुका बना । नहिं नयनपल कपतन कदाचित्. केश नख सम छाजहीं। य घातिया छयजनित अतिशय. दस विचित्र विराजहीं ॥१८॥ सकल अरथमय मागधि-भाषा जानिए । सकल जीवगत मैत्री-भाव बखानिए ॥