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________________ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। भोजन छयालिस दृषण टारें, सो मुनि एपण शुद्ध विचारें । देखके पाथी ले अरु धर हैं, मो आदान निक्षेपण वर हैं ॥१८॥ मल मूत्र एकान्त जु डार, परतिष्ठापन ममिति मंभारें । यह सब अङ्ग उनतीम कहे हैं. जिन भाग्य गणधर ने गहे हैं १९।। आठ आठ तेरह विधि जानी, दर्शन ज्ञान चरित्र म ठानी। नातं शिवपुर पहुंची जाई, रत्नत्रय की यह विधि भाई ॥२०॥ रतनत्रय पूरण जब होई, क्षिमा क्षिमा करियों मब कोई । चत माघ भादों त्रय वाग, क्षिमा क्षिमा हम उर में धाग।।२१।। दाहा। यह नमावी आरती, पढ़ सुने जो कोय । कह 'मल्ल' सरधा कगे. मुकि. श्री फल होय २२। ओ ही अष्टांग सम्यग्दशनाय. अविध सम्यग्ज्ञानाय त्रयोदश विध सम्यक चारित्राय ग्त्रत्रयाय अन्य पदप्रामय महा। माग्टा दोष न गहिये कोय. गुगणगह पढ़िये भाव मों। भूल चूक जो होय. अर्थ विचारि जु शांधिय ॥ ल्याशावादः ।
SR No.010003
Book TitleJain Pooja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prakash Jain Thekedar Delhi
PublisherMahavir Prakash Jain Thekedar Dehli
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size13 MB
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