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________________ दो शब्द " । कर्म भूमि शुभ श्रार्य क्षेत्र अरु, मनुप गती उत्तम कुल धार । दीरघ आयु अन पूरणता, तन नीरोग जीविका सार || जगत मान्य हुख थान विपुल धन, निर्विकल्प हो हृदय उदार । पुत्र पौत्र परिवार सुखी सब, शुद्धाचरणी श्राज्ञाकार ॥ | १ || श्रवरण जिनागम सज्जन संगति, गुणियन कथा भक्ति जिनदेव | पूजा दान नेम व्रत संयम, बसें हृदय हो दूरि कुटे ऐसा दुर्लभ अवसर कोई, बड़े पुण्य से पाता है । ज्ञानी नर भव सफल करें, मुरख जन वृथा गमाता है ||२|| || 66 ये उपर्युक्त बातें कभी किसी को प्रवल पुण्योदय से मिलती हैं इसलिये धर्मात्मा पुरुषों को धर्म के कामों द्वारा मनुष्य जन्म सफल बनाना चाहिये । जैसा कहा है :जिनेन्द्र पूजा गुरु पर्युपास्ति सत्वानुकम्पा शुभ पात्र दानम् । गुणानुरागः श्रुतरागमस्य नृजन्म वृक्षस्य फलान्य मुनि ॥ अर्थात् - जिनेन्द्रदेव की पूजा गुरु की उपासना समस्त प्राणियों में दया शुभ पात्रों को दान गुणियों से अनुराग और शास्त्रों का श्रवण ये मनुष्य जन्म रूपी वृक्ष के फल हैं इसलिये गृहस्थियों को घर में रहते हुये नित्य पट कर्मों को साधन करना चाहिये ।
SR No.010003
Book TitleJain Pooja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prakash Jain Thekedar Delhi
PublisherMahavir Prakash Jain Thekedar Dehli
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size13 MB
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